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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/निल

विक्षनरी से

निलंबन
संज्ञा पुं० [सं० निलम्बन] १. लटकते या झूलते रहने का भाव। २. इधर न उधर। बीच की स्थिति। ३. किसी कर्मचारी पर कोई आरोप लगाकर उसे कार्य न करने देना। मुअत्तली।

निल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम जो माली नामक राक्षस की वसुदा नाम की स्त्री से उत्पन्न हुआ था और जो विभीषण का मंत्री था।

निल (२)पु
वि० [सं० नील] नीले वर्ण का। नीला। उ०—बाब- हिया निल पंखिया बाढ़त दै दै लूण।—ढोला०, दू० ३३।

निलज †
वि० [सं० निर्लज्ज, प्रा० निलज्ज] दे० 'निर्लज्ज'। उ०— रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ वक ध्यान लगावा।—मानस, ६।८४।

निलजई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निलज + ई (प्रत्य०)] निर्लज्जता। बेशर्मी। बेहयाई। उ०—खीझिबै लायक करतब कोटि कोटि कटु रीझिबे लायक तुलसी की निलजई।—तुलसी (शब्द०)।

निलजता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निर्लज्जता] निर्लज्जता। बेशर्मी। बेहयाई। उ०—निलजता पर रीझि रघुबर देहु तुलसिहिं छोरि।—तुलसी (अब्य०)।

निलजी पु †
वि० स्त्री० [सं० निर्लज्ज, हिं० निलज] निर्लज्जा या लाजहीन (स्त्री०)। वेशर्म। बेहया।

निलज्ज
वि० [सं० निर्लज्ज] दे० 'निर्लज्ज'। उ०—अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।—मानस, ५।९।

निलय
संज्ञा पुं० [सं०] १, मकान। घर। २. स्थान। जगह। ३, पशुओं के रहने का स्थान (को०)। ४. घोसला। नीड (को०)। ५. लोप। अदर्शन (को०)। ६. पूरी तरह लुप्त या गायब होना (को०)। ७. लुकना। छिपना (को०)।

निलयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. डेरा डालना। २. घर। वासस्थान। ३उतरना। ४. बाहर जाना [को०]।

निलहा
वि० [सं० नील + हा (प्रत्य०)] नील से संबंधित। नीलवाला। यौ०—निलहा गोरा। निलहा साहब।

निलाम
संज्ञा सं० [हिं०] दे 'नीलाम'।

निलिप
संज्ञा पुं० [सं० निलिम्प] १. देवता। २. मरुदगण [को०]।यौ०—निर्लिपनिर्झरी = देवों की नदी। गंगा। निर्लिपाधिप = इंद्र। देवराज।

निर्लिपा, निर्लिपिका
संज्ञा स्त्री० [सं० निलिम्पा, निलिम्पिका] १, गाय। २. दूध दूहने की बालटी [को०]।

निलीन
वि० [सं०] १. बहुत अधिक लीन। २. छिपा हुआ। लुका हुआ (को०)। ३, परिवर्तित। बदला हुआ (को०)। ४. नष्ट। समाप्त (को०)। ५. पूर्ण। पूरा। (को०)। ६. तरलित। पिघला हुआ (को०)।

निवक्ष
संज्ञा पुं० [सं० निवक्षस्] वह जीव या पशु जो यज्ञ आदि में उत्सर्ग किया जाय।

निवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में वचन का अभाव। २. बोलते जाना। कहते रहना।

निवछावर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निछावर'।

निबड़िया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नावर] एक प्रकार की नाव। दे० 'निबाडा़'।

निवना पु †
क्रि० अ० [सं० नमन] झुकना।

निवपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पितरों आदि के उद्देश्य से कुछ दान करना। २. वह जो कुछ पितरों आदि के उद्देश्य से दान किया जाय।

निवर (१)
वि० [सं०] निवारण करनेवाला। निवारक।

निवर (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो निवारण करे या रोके। निवारक। २. आवरण। रक्षण। बचाव [को०]।

निवरा
वि० स्त्री० [सं०] जिसके वर न हो। अविवाहिता। कुमारी।

निवर्तक
वि० [सं०] १ लौटनेवाला। २. लौटानेवाला। फेर लाने वाला। ३. थम जानेवाला। ४. अपवारित करनेवाला [को०]।

निवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल में भूमि की एक नाप जो २१० हाथ लबाई और २१० हाथ चौडा़ई की होती थी। २. निवारण। ३. हटना। लोटना। वापस होना। ४. पीछे हटाना या लौटाना।

निवर्तित
वि० [सं०] जिसका निवर्तन किया गया हो।

निवर्त्ती
संज्ञा पुं० [सं० निवर्तिन्] १. वह जो पीछे की ओर हट आया हो। २. वह जो युद्ध में से भाग आया हो। ३. निर्लिप्त।

निवर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निग्रहंण' [को०]।

निवसति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निवास। वासस्थान। गृह [को०]।

निवसथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाँव। २. सीमा। हद (डिं०)।

निवसन
संज्ञा पुं० [सं० निस् + वसन] १ गाँव। २. घर। ३. वस्त्र। ४. अंतरौटा। स्त्री का सामान्य अधोवस्त्र (डिं०)।

निवसना
क्रि० अ० [सं० निवसन या निवास] रहना। निवास करना। उ०—(क) यहि मिसि चित्रकूट की महिमा मुनिवर बहुत बखानि। सुनत राम हरखित तहँ निवसे पावन गिरि पहिचानि।—देवस्वामी (शब्द०)। (ख) बल बालक नँदराज समेता। मम गृह निवसहु कृपानिकेता।—गोपाल (शब्द०)।

निवह
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह। यूथ। उ०—किंशुक वरन सुअंसुक। सुखमा मुखन समेत। जनु विधु निवह रहे करि दामिन निकर निकेत।—तुलसी (शब्द०)। २. सात वायुओं में से एक वायु। विशेष—फलित ज्योतिष में सात वायुएँ मानी गई हैं जिनमें से प्रत्येक वायु एक वर्ष तक बहती है। निवह वायु भी उन्हीं में से एक है। यह न तो बहुत तेज होती है और न बहुत धीमी। जिस वर्ष यह वायु चलती है, कहते हैं कि उस वर्ष कोई सुखी नहीं रहता। ३. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक (को०)। ४. वध (को०)। ५. अनिल। वायु (को०)।

निवाई
वि० [सं० नव] १. नवीन। नया। २. अनोखा। विल- क्षण। उ०—पुनि लक्ष्मी यों विनय सुनाई। डरौ देखि यह रूप निवाई।—सूर (शब्द०)।

निवाकु
वि० [सं०] चुप। जो आवाज न करता हो। मौन [को०]।

निवाज (१)
वि० [फा०] कृपा करनेवाला। अनुग्रह करनेवाला। विशेष—इसका प्रयोग फारसी और अरबी आदि शव्दों के अंत में यौगिक में होता है। जैसे गरीबनिवाज

निवाज (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० नमाज] दे० 'नमाज'।

निवाजना पु †
क्रि० स० [फा० निवाज] अनुग्रह करना। कृपा करना। कृपापात्र बनाना। उ०—(क) नाम गरीब अनेक निवाजे। लोक वेद पर बिरद विराजे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) कायर कूर कपूतन की हद तेऊ गरीबनिवाज निवाजे।—तुलसी (शब्द०)।

निवाजिश
संज्ञा स्त्री० [फा० नवाजिश] १. कृपा। मेहरबानी। २. दया। अनुकंपा।

निवाड़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निवार'।

निवाड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] १. छोटो नाव। २. नाव की एक क्रीड़ा जिसमें उसे बीच में ले जाकर चक्कर देते हैं। नावर। क्रि० प्र०—खेलना।

निवाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निवारी'।

निवात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहने का स्थान। घर। २. वह वर्म जो शस्त्र के द्वारा छेदा न जा सके। ३. वह स्थान जहाँ हवा न हो (को०)। ४. सुरक्षित स्थान (को०)। ५. दीपक को हवा से बचाने के लिये बनाया गया एक उपकरण। उ०—जालीदार चांदी कै बड़े बड़े निवात, जिनके भीतर अभ्रक लगे हुए थे, अपने पंचदीप की जैसे अपने भीतर ही भीतर जला रहे थे, ठीक उसी तरह अग्निमित्र जल रहा था।—इरावती, पृ० १०५। यौ०—निवातकवच = (१) एक प्राचीन जाति (जो दैत्य माने गए हैं)। (२) हिरणयकशिपु का एक पौत्र।

निवात (२)
वि० १. जहाँ वायु न हो। २. अक्षत। बिना चोट का। ३. सुरक्षित। ४. (कवच आदि) खूब अच्छे ढंग से पहने हुए। ५. घनी या गझिन बुनावट का [को०]।

निवान
संज्ञा पुं० [सं० निम्न] १. नीची जमीन जहाँ सीड़, कीचड़ या पानी भरा रहता हो। २. जलाशय। झील। बड़ा तालाब।

निवाना †
क्रि० स० [सं० नम्र] नीचे की तरफ करना। झुकाना।

निवान्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बिना बछड़े की गाय जो किसी अन्य गाय के बछड़े से पेन्हवाकर दुही जाय [को०]।

निवाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीज। अनाज। २. पितृतर्पण। तर्पण (श्राद्ध में)। ६. दान। उपहार [को०]।

निवार (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नेमि + आर] पहिए के आकार का लकड़ी का वह गोल चक्कर जो कुएँ की नींव में दिया जाता है और जिसके ऊपर कोठी की जोड़ाई होती है। जाखन। जमवट।

निवार (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० नवार] बहुत मोटे सूत की बुना हुई प्रायः तीन चार अंगुल चौड़ी पट्टी जिससे पलंग आदि बुने जाते हैं। निवाड़। नेवार। यौ०—निवारबाफ।

निवार (३)
संज्ञा पुं० [सं० नीवार] तिन्नी का धान। मुन्यन्न। पसही। उ०—कहूँ मूल फल दल मिलि कूटत। कहुँ कहुँ पके निवारनि जूटत।—गुमान (शब्द०)।

निवार (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मूली जो बहुत मोटी और स्वाद में कुछ मीठी होती है, कडुई नहीं होती।

निवार (५)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निवारण' [को०]।

निवारक
वि० [सं०] १. रोकनेवाला। रोधक। २. दूर करनेवाला। मिटानेवाला।

निवारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोकने की क्रिया। २. हटाने या दूर करने की क्रिया। ३. निवृत्ति। छुटकारा।

निवारन
संज्ञा पुं० [सं० निवारण] दे० 'निवारण'। उ०—ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जिय जानि।—मानस, ३। ३८।

निवारना पु
क्रि० स० [सं० निवारण] १. रोकना। दूर करना। हटाना। उ०—(क) पोंछि रुमालन सों श्रमसीकर भौंर की भीर निवारत ही रहे।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ख) पलका पै पौढ़ि श्रम राति को निवारिए।—मतिराम (शब्द०)। २. बचाना। रक्षा के साथ काटना या बिताना। उ०—(क) यह सुख ठाम को आराम को निहारो नेक, मेरे कहे घरिक निवारि लीजै घाम को।—(शब्द०)। (ख) घाम घरीक निवारिए फलित ललित अलिपुंज। जमुना तीर तमाल तरु मिलति मालती कुंज।—बिहारी (शब्द०)। ३. निषेध करना। मना करना। उ०—सैनहिं लखनहिं राम निवारे।—तुलसी (शब्द०)। पु ४. चुकता करना।

निवार बाफ
संज्ञा पुं० [फा० नवार + बाफ] निवार बुननेवाला।

निवारी
संज्ञा स्त्री० [सं० नेपाली या नेमाली] १. जूही की जाति का एक फैलनेवाला झाड़ या पौधा जो जूही के पौधों से बड़ा होता है। विशेष—इसके पत्ते कुछ गोलाई लिए लंबोतरे होते हैं और बरसात में इसमें जूही की तरह के छोटे सफेद फूल लगते हैं। ये फूल आम के बौर की तरह गुच्छों में होते हैं और इनमें से भीनी मनोहर सुगंध निकलती है। वैद्यक में इसे चरपरी, कड़वी, शीतल, हलकी और त्रिदोष, नेत्ररोग, मुखरोग और कर्णरोग आदि को दूर करनेवाली माना है। २. इस पौधे का फूल। ३. नेपाल में बोली जानेवाली एक भाषा।

निवाला
संज्ञा पुं० [फा० निवालह्] उतना भोजन जितना एक बार मुँह में डाल जाया। कौर। ग्रास। लुकमा।

निवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहने की क्रिया या भाव। २. रहने का स्थान। ३. घर। मकान। ४. वस्त्र। कपड़ा।

निवासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर। आवास। २. कालक्षेप करना। समय काटना। ३. अल्पकालिक निवास [को०]।

निवासस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहने का स्थान। वह स्थान जहाँ कोई रहता हो। २. घर। मकान।

निवासी
वि०, संज्ञा पुं० [सं० निवासिन्] [स्त्री० निवासिनी] १. रहनेवाला। बसनेवाला। वासी। २. पोशाक पहननेवाला (को०)।

निवास्य
वि० [सं०] रहने योग्य।

निविड़
वि० [सं० निविड] १. घना। घन। घोर। २. गहरा बँधा या कसा हुआ। जैसे, निविड़ मुष्टि।३. भद्दा (को०)। ४. स्थूल। मोटा (को०)। ५. बृहदाकार (को०)। ६. जिसकी नाक चिपटी या दबी हुई हो।

निविड़ता
संज्ञा स्त्री० [सं० निविडता] वंशी या इसी प्रकार के किसी और बाजे के स्वर का गंभीर होना जो उसके पाँच गुणों में से एक गुण माना जाता है।

निविडीश, निविडीस
वि० [सं०] दे० 'निविरीश' [को०]।

निविद्धान
संज्ञा पुं० [सं०] वह यज्ञ आदि जो एक ही दिन में समाप्त हो जाय।

निविरीश निविरीस
वि० [सं०] १. धना। गझिन। २. कठोर। स्थूल [को०]।

निविल पु †
वि० [सं० निविड] दे० 'निविड़'। उ०—निविल मांसल अंधकार देषु।—वर्ण०, पृ० १६।

निविशमान
संज्ञा सं० [सं०] वे लोग जिनसे उपनिवेश बसाए जायँ। विशेष—चंद्रगुप्त के समव में राज्य ऐसे लोगों को अन्न, पशु तथा संपत्ति से सहायता पहुँचाता था।

निविशेष (१)
वि० [सं०] जिसमें भेद न हो। एकरूप [को०]।

निविशेष (२)
संज्ञा पुं० अंतर या भेद का अभाव। समानता एक- रूपता [को०]।

निविष †
वि० [सं० निर्विष] दे० 'निर्विष'।

निविष्ट
वि० [सं०] जिसका चित्त एकाग्र हो। २. एकाग्र। ३. लपेटा हुआ। ४. घुसा या घुसाया हुआ। ५. बाँधा हुआ। ६. स्थित। ठहरा हुआ।

निविष्टपण्य
संज्ञा पुं० [सं०] बोरों में हुआ माल [को०]।

निवीत
संज्ञा पुं० [सं०] ओढ़ने का कपड़ा। चादर। २. यज्ञोपवीत (को०)। ३. यज्ञोपवीत को गले में माला की तरह धारण करना (को०)।

निवीती
वि० [सं० निवीतिन्] यज्ञोपवीत की गले में माला की तरह धारण करनेवाला। विशेष—साधारणतः यज्ञोपवीत वाम कंधे पर धारण किया जाता है। परंतु ऋषिपूजन के अवसर पर उसे गले में माला की तरह धारण करने का विधान है। साधारण ढंग से पहननेवाले को उपवीती और इस विशेष ढँग से पहननेवाली को निवीती कहते हैं।

निवीर्य
वि० [सं०] वीर्यहीन। जिसमें वीर्य या पुरुषत्व न हो।

निवृत (१)
वि० [सं०] १. बंद। घिरा हुआ। २. रोका हुआ। पकड़ा हुआ। ग्रस्त [को०]।

निवृत (२)
संज्ञा पुं० ओढ़ने या लपेटने का कपड़ा [को०]।

निवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आवरण। घेरा। मंडल [को०]।

निवृत्त
वि० [सं०] १. छूटा हुआ। २. जो अलगा हो गया हो। विरक्त। ३. जो छुट्टी पा गया हो। खाली। ४. लौटा हुआ (को०)। ५. दूर गया या भागा हुआ (को०)। ६. अस्तंगत (को०)। यौ०—निवृत्तकारण=(१) जिसका कोई कारण या प्रेरणा न हो। (२) अनासक्त या निःस्पृह व्यक्ति। निवृत्तमांस = जिसने मांस खाना छोड़ देया हो। निवृत्तयौवन = जिसका यौवन लौट आया हो। निवृत्तराग = रागहीन। विरक्त। निवृत्तलौल्य = जो इच्छुक न हो। अनाकांक्षा। निवृत्तवृत्ति = अपनी वृत्ति या पेशा त्याग करनेवाला।

निवृत्तवृद्धिक आधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह धन जो बिना ब्याज पर किसी के यहाँ जमा हो।

निवृत्तसंतापनीय
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक रसायन जिसमें अठारह ओषधियाँ हैं। विशेष—कहते हैं, इस रसायन के सेवन से मनुष्य का शरीर युवा के समान और बल सिंह के समान हो जाता है और वह मनुष्य श्रुतिधर हो जाता है। ये सब ओषधियाँ सोमरस के समान वीर्ययुक्त मानी जाती हैं। इनके नाम ये हैं—अजगरी, श्वेतकपोती, कृष्णकपोती, गोनसी, वाराही, कन्या, छत्रा, करेणु, अजा, चक्रका, आदित्यवर्णिनी, ब्रह्मसुवर्चला, श्रावणी, महाश्रावंणी, गोलोमी, अजलोमी और महावेगवती।

निवृत्तात्मा (१)
वि० [निवृत्तान्मन्] विषयों से अलग रहनेवाल [को०]।

निवृत्तात्मा (२)
संज्ञा पुं० विष्णु [को०]।

निवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुक्ति। छुटकारा। २. प्रवृत्ति का अभाव या उलटा। २. बौद्धों के अनुसार मुक्ति या मोक्ष। ३. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। ४. वापस होना। वापसी (को०)। समाप्ति (को०)।

निवेद पु †
संज्ञा पुं० [सं० निदेद्य] दे० 'नैवेद्य'।

निवेदक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] निवेदन करनेवाला। प्रार्थी।

निवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विनय। विनती। २. प्रार्थना। ३. समर्पण। ४. शिव का एक नाम (को०)।

निवेदना पु †
क्रि० स० [हिं० निवेदन] १. विनती करना। प्रार्थना करना। २. नजर करना। कुछ भोज्य पदार्थ आगे रखना। नैवेद्य चढ़ाना। अर्पित कर देना। उ०—सदा आपु को मोहि निवेदै। प्रेम शस्त्र ते ग्रंथिहि छेदै।—रघुनाथ (शब्द०)।

निवेदित
वि० [सं०] १. चढ़ाया हुआ। अर्पित किया हुआ। २. कहा हुआ। सुनाया हुआ। निवेदन किया हुआ।

निवेद्य
संज्ञा पुं० [सं०] नैवेद्य [को०]।

निवेरना पु †
क्रि० स० [हिं० निबेड़ना] १. निबटाना। फैसल करना। २. खतम कर देना। उ०—अति बहु केलि गोपिकन केरी। संक्षेपै मैं कछुक निवेरी।—रघुनाथ (शब्द०)। ३. छाँटना। चुन लेना। ४. छुड़ाना। दूर करना। हटाना। उ०—कुलवंत निकारहिं नारि सती। गुह आनहिं चेरि निवेरि गती।—तुलसी (शब्द०)।

निवेरा पु
वि० [हिं० निवेड़ना या निवेरना] १. चुना हुआ। छाँटा हुआ। उ०—आजु भई कैसी गति तेरी ब्रज में चतुर निवेरी।—सूर (शब्द०)। २. नवीन। अनोखा। नया। (क) मैं यह आजु निवेरी आई ? बहुतै आदर करति सबै मिलि पहुने की कीजै पहुनाई।—सूर (शब्द०)।

निवेली पु †
वि० स्त्री० [हिं० नवेली] नए उम्र की। नत्रैली।

निवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाह। २. शिविर। डेरा। खेमा। ३. प्रवेश। ४. घर। मकान। ५. फैलाव। विस्तार। परिधि। घेरा (स्तनों का) (को०)। ६. प्रतिलिपि। नकल (को०)। ७. सज्जा (को०)। ८. सेना के पड़ाव डालने की जगह (को०)। ९. स्थापन। निवेशन (को०)।

निवेशन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० निवेशनी] १. घोंसला। नीड। २. नगर (को०)। ३. दे० 'निवेश' [को०]।

निवेशनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी [को०]।

निवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कपड़ा जिससे कोई चीज ढाँकी जाय। २. सामवेद का मंत्रभेद।

निवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] तोपना। ढकना [को०]।

निवेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याप्ति। २. बरफ का पानी। ३. जल- स्तंभ। ४. धवल तुषार। हिमसीकर (को०)। ५. आवर्त। भँवर (को०)। ६. वातचक्र। बवंडर (को०)।

निवेसना पु
क्रि० स० [सं० नि + √ विश्] बैठाना। उ०—प्रीतम जब कर पंकज धरै। बल करि सेज निवेसित करैं।—नंद० ग्रं०, पृ० १४५।

निव्याधी
संज्ञा पुं० [सं० निव्याधिन्] एक रुद्र का नाम।

निव्युढ़
संज्ञा पुं० [सं० निव्यूढ] दे० 'निर्व्यूढ़' [को०]।

निश
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। २. हल्दी।

निशंक (१)
वि० [सं० निःशङ्क] जिसे किसी बात की शंका या भय न हो। निर्भय। निडर। बेखौफ।

निशंक (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का नृत्य विशेष।

निशंग पु
संज्ञा पुं० [सं० निषङ्ग] दे० 'निषंग'।

निश पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० निश्] रात्री। रजनी।

निशचर पु †
संज्ञा पुं० [सं० निशाचर] दे० 'निशाचर'।

निशठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार बलदेव के एक पुत्र का नाम।

निशठ (२)
वि० ईमानदार [को०]।

निशतर
संज्ञा पुं० [फा० नश्तर] दे० 'नश्तर'।

निशब्द
वि० [सं०] चुप। न बोलता हुआ। मौन [को०]।

निशमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दर्शन। देखना। २. श्रवण। सुनना। ३. जानना। परिचय पाना (को०)।

निशरण
संज्ञा पुं० [सं०] मारण। घातन। बध करना [को०]।

निशल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दंती वृक्ष।

निशांत (१)
संज्ञा पु० [सं० निशान्त] १. रात्रि का अंत। पिछली रात। रात का चौथा पहर। २. प्रभात। तड़का। ३. घर। गृह।

निशांत (२)
वि० जो बहुत ही शांत हो।

निशांतनारी
संज्ञा स्त्री० [निशान्तनारी] गृहिणी।

निशांध (१)
वि० [सं० निशान्ध] रात्र्यंध। रात का अँधा। जिसे रात को न सूझे। जिसे रतौंधी होती हो।

निशांध (२)
संज्ञा पुं० फलित ज्योतिष में एक प्रकार का योग जो उस समय पड़ता है जब सिंहराशि में सूर्य हों। विशेष—कहते हैं, इस योग के पड़ने से मनुष्य को रतौंधी होती हौ।

निशांधा
संज्ञा स्त्री० [सं० निशान्धा] १. जतुका या पहाड़ी नामक लता जिसकी पत्तियाँ ओषधि के काम में आती हैं। २. राजकन्या। राजकुमारी।

निशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि। रजनी। रात। २. हरिद्रा। हलदी। ३. दारुहरिद्रा। ४. फलित ज्योतिष में मेष, वृष, मिथुन आदि छह राणियाँ। दे० 'राशि'। ५. स्वप्न। सपना (को०)।

निशाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। शशि। चाँद। २. कुक्कुट। मुरगा। ३. महादेव। ४. एक महर्षि का नाम। ५. कपूर। ६. एक की संख्या (को०)। यौ०—निशाकरकलामौलि = शिव।

निशाकांत
संज्ञा पुं० [सं० निशाकान्त] चंद्रमा [को०]।

निशाकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०]।

निशाक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रि का अवसान। रात की समाप्ति [को०]।

निशाखातिर
संज्ञा स्त्री० [अ० खातिर + फा० निशाँ (खातिर- निशाँ)] तसल्ली। दिलजमई। प्रबोध।

निशाख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] हलदी।

निशागृह
संज्ञा पुं० [सं०] शयनागार [को०]।

निशाचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस। २. श्रृगाल। गीदड़। ३. उल्लू। ४. सर्प। ५. चक्रवाक। ६. भूत। ७. चोर। ८. ग्रंथि- पर्णा का एक भेद। ९. महादेव। १०. चोर नामक गंधद्रन्य। ११. बिल्ली। १२. वह जो रात को चले। जैसे, कुलटा, पिशाच आदि।

निशाचरपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. रावण।

निशाचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राक्षसी। २. कुलटा। ३. केशिनी नामक गंधद्रव्य। ४. अभिसारिका नायिका।

निशाचर्म
संज्ञा पुं० [सं० निशाचर्मन्] अंधकार। २. अधेरा।

निशाचारी
संज्ञा पुं० [सं० निशाचारिन्] १. शिव। २. निशाचर।

निशाजल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिम। पाला। २. ओस।

निशाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. उल्लू। २. निशाचर।

निशाटक
संज्ञा [सं०] गूगंल।

निशाटन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू।

निशाटन (२)
वि० जो रात को विचरण करे। निशाचर।

निशात
वि० [सं०] १. सान धरा हुआ। तेज किया हुआ। २. चमकाया हुआ [को०]।

निशातिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] रात का बीतना [को०]।

निशातैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल। विशेष—यह सेर भर कडुवे तेल, धतूरे के पतों का चार सेर रस, आठ तोले पीसी हुई हलदी और चार तोले गंधक के मेल से बनाता है। यह तेल कान के रोगों के लिये विशेष उपकारी माना जाता है।

निशाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह व्यक्ति जो रात को खाता हो। २. दे० 'निषाद' [को०]।

निशादि
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रि का आरंभ। सायंकाल [को०]।

निशाधतैल
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल जो भगंदर के लिये उपकारी माना जाता है। विशेष—यह तैल कडुवा तेल, पीसी हुई हलदी, सेंधा नमक, चितामूल और गुग्गुल आदि के मेल से बनाया जाता है।

निशाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निशापति'।

निशान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तेज करना। सान पर चढ़ाना। यौ०—निशानपट्ट = सान धरने का पत्थर।

निशान (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. लक्षण जिससे कोई चीज पहचानी जाय। चिह्न। जैसे,—(क) उस मकान का कोई निशान बता दो तो जल्दी पता लग जायगा। (ख) जहाँ तक पुस्तक पढ़ो उसके आगे कोई निशान रख दो। २. किसी पदार्थ से अंकित किया हुआ अथवा और किसी प्रकार बना हुआ चिह्व। जैसे, पैर का निशान, अँगूठे का निशान, ध्वनिथों की पहचान के लिये बनाए हुए निशान (अक्षर), किताव पर बनाए हुए निशान आदि। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—लगाना।—बनाना।३. शरीर अथवा और किसी पदार्थ पर बना हुआ स्वाभाविक या और किसी प्रकार का चिह्न, दाग या धब्बा। जैसे, किसी पशु पर बना हुआ गुल का निशान, चेहरे पर बना हुआ गुम्मर का निशान। ४. किसी पदार्थ का परिचय करने के लिये उसके स्थान पर बनाया हुआ कोई चिह्न। जैसे, ज्योतिष में ग्रहों आदि के बनाए हुए निशान, वनस्पति शास्त्र में वृक्ष, झाड़ी और नर या मादा पेड़ या फूल के लिये बनाए हुए निशान। ५. वह चिह्न जो अपढ़ आदमी अपने हस्ताक्षर के बदले में किसी कागज आदि पर बनाता है। ६. वह लक्षण या चिह्न जिससे किसी प्राचीन या पहले की घटना अथवा पदार्थ का परिचय मिले। जैसे, किसी पुराने नगर आदि का खंडहर। यौ०—नाम निशान = (१) किसी प्रकार का चिह्न या लक्षण। (२) अस्तित्व का लेश। बचा हुआ थोड़ा अंश। जैसे,—वहाँ अब किसी घर का नाम निशान नहीं है। ७. पता। ठिकाना। मुहा०—निशान देना = (१) पता बताना। (२) आसामी को सम्मन आदि तामील करने के लिये पहुचनवाना। यौ०—निशानदेही। ८. वह चिह्न या संकेत जो किसी विशेष कार्य या पहचान के लिये नियत किया जाय। ९. समुद्र में या पहाड़ों आदि पर बना हुआ वह स्थान जहाँ लोगों की मार्ग आदि दिखाने के लिये कोई प्रयोग किया जाता है। जैसे, मार्गदर्शक प्रकशालय आदि (लश०)। १०. दे० 'लक्षण'। ११. दे० 'निशाना'। १२. दे० 'निशानी'। १३. ध्वजा। पताका। झंड़ा। मुहा०—किसी बात का निशान उठाना या खड़ा करना = (१) किसी काम में अगुआ या नेता बनकर लोगों को अपना अनुयायी बनाना। जैसे, बगावत का निशान खड़ा करना। (२) आंदोलन करना।

निशानकोना
संज्ञा पुं० [सं० ईशान + हि० कोना] उत्तर और पूर्व का कोण (लश०)।

निशानची
संज्ञा पुं० [फा० निशान + ची (प्रत्य०)] वह जो किसी राजा, सेना या दल आदि के आगे झडा लेकर चलता हो। निशानबरदार।

निशानदिही
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'निशानदेही'।

निशानदेही
संज्ञा स्त्री० [फा० निशान + हिं० देना या फा० देह (= देना) ] आसामी को सम्मन आदि की तामील के लिये पहचनवाने की क्रिया। आसामी का पता बतलाने का काम।

निशानपट्टी
संज्ञा स्त्री० [फा० निशान + हिं० पट्टीं] चेहरे की बनावट आदि अथवा उसका वर्णन। हुलिया।

निशानबदार
संज्ञा पुं० [फा०] वह जो किसी राजा, सेना या दल आदि के आगे आगे झंडा लेकर चलता हो। निशानची।

निशापति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। निशाकर। २. कर्पूर। कपूर।

निशाना
संज्ञा पुं० [फा० निशानह्] १. वह जिसपर ताक कर किसी अस्त्र या शस्त्र आदि का वार किया जाय। लक्ष्य। मुहा०—निशाना करना या बनाना = अस्त्र आदि के वार करने के लिये किसी को लक्ष्य बनाना। निशाना होना = निशाना बनना। लक्ष्य होना। २. किसी पदार्थ को लक्ष्य बनाकर उसकी ओर किसी प्रकार का वार करना। मुहा०—निशाना बाँधना = वार करने के लिये अस्त्र आदि को इस प्रकार साधाना जिसमें ठीक लक्ष्य पर वार हो। निशाना मारना या लगाना = ताककर अस्त्र शस्त्र आदि का वार करना। निशान साधना = (१) निशाना बाँधना। (२) निशाना लगाने का अभ्यास करना। ३. मिट्टी आदि का वह ढेर या और कोई पदार्थ जिसपर निशाना साधा जाय। ४. वह जिसपर लक्ष्य करके कोई व्यंग्य या बात कही जाय।

निशानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

निशानी
सज्ञा स्त्री० [फा०] १. स्मृति के उद्देश्य से दिया अथवा रखा हुआ पदार्थ। वह जिससे किसी का स्मरण हो। यादगार। स्मृतिचिह्न। जैसे,—(क) हमारे पास यही घड़ी उनकी निशानी है। (ख) चलते समय हमें अपनी कुछ निशानी तो दे जाओ। (ग) बस यही लड़का हमारे स्वर्गेय मित्र की निशानी है। क्रि० प्र०—देना।—रखना। २. वह चिह्न जिससे कोई चीज पहचानी जाय। निशान। पहचान।

निशापति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर [को०]।

निशापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्र आदि आकाशीय पिंड। २. दानव। निशाचर (को०)।

निशापुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] कुमुदिनी। कोईं।

निशाबल
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धन और मकर ये छह राशियाँ जो रात के समय अधिक बलवती मानी जाती हैं। विशेष—फलित ज्योतिष में दो प्रकार की राशियाँ मानी जाती हैं—निशाबल और दिनबल। उक्त छह राशियाँ निशा- बल और शेष दिनबल मानी जाती हैं। कहा जाता है, जो काम दिन के समय करता हो वह दिनबल राशियों में और जो काम रात के समय करना हो वह रात्रिबल राशियों में करना चाहिए।

निशाभंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० निशाभङ्ग] दुग्धपुच्छी नामक पौधा।

निशामाणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

निशामन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दर्शन। देखना। २. आलोचन। ३. श्रवण। सुनना।

निशामय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

निशामुख
संज्ञा पुं० [सं०] संध्याकाल। गोधूलि का समय।

निशामृग
संज्ञा पुं० [सं०] गीदड़।

निशारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रात्रियुद्ध। २. मारण। वध निशरण [को०]।

निशारत्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर।

निशारुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सात प्रकार के रूपक तालों में से एक प्रकार का ताल जिसमें दो लघु और दो गुरु मात्राएँ होती है। इसका व्यवहार प्रायः हास्य रस के गीतों के साथ होता है।

निशारुक
वि० [सं०] बहुत अधिक हिंसा करनेवाला।

निशावन
संज्ञा पुं० [सं०] सन का पौधा।

निशावसान
संज्ञा पुं० [सं०] रात का अंतिम भाग। प्रभात। तड़का।

निशाविहार
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस।

निशावेदी
संज्ञा पुं० [सं० निशावेदिन्] कुक्कुट। मुर्गा [को०]।

निशास्ता (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. गेहूँ को र्भिगोकर उसका निकाला और जमाया हुआ सत या गूदा। २. माँड़ी। कलफ।

निशास्ता (२)
वि० जमाया हुआ। बैठाया हुआ। स्थापित [को०]।

निशाहस
सज्ञा पुं० [सं०] कुमोदनी।

निशाहसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शेफालिका। सिंदुवार। निगुंडी।

निशाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. जतुका नाम की लता।

निशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। रात्रि। रजनी। २. हलदी।

निशिकर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। शशि।

निशिचर
संज्ञा पुं० [सं० निशाचर] दे० 'निशाचर'।

निशिचरराज पु
संज्ञा पुं० [हिं०] राक्षसों का राजा विभीषण।

निशित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लोहा।

निशित (२)
वि० १. चोखा। तेज। तीखा। जो सान पर चढ़ा हुआ हो। २. उत्तेजित (को०)।

निशिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात [को०]।

निशिदिन
क्रि० वि० [सं०] रातदिन। सदा। सर्वंदा।

निशिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निशानाथ'।

निशिनायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निशानाथ'।

निशिपति
संज्ञा पुं [सं०] दे० 'निशापति'।

निशिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में भगण, जगण, सगण, नगण और रगण होता है। जैसे,—भाजे सुनि राघव कवींद्र कुल की नई। काव्य रचना विपुल वित्त तिहि दै दई। वार निशिपाल हम से बुध कवी जनै। हो नृप चिरायु अखिलेश कवि यों भनै।—अखिलेक (शब्द०)।

निशिपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निशिपाल'।

निशिपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निगुँडी नामक फूल का पेड़। सिंदुवार।

निशिपुष्पिका, निशिपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] निगुँडी। शेफालिका। सिंदुवार।

निशिवासर पु
संज्ञा पुं० [सं०] रातदिन। सदा। सर्वदा। हमेशा।

निशीथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने का समय। रात। २. आधी रात। ३. भागवत के अनुसार रात्रि के एक कल्पित पुत्र का नाम।

निशीथिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्री। रात। यौ०—निशीथिनीपति = चंद्रमा।

निशीथिनीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपूर। २. शशि। चंद्रमा [को०]।

निशीथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात [को०]।

निशुंभ
संज्ञा पुं० [सं० निशुम्भ] १. वध। २. हिंसा। ३. खंडन। तोड़ना (को०)। ४. पुराणानुसार एक असुर का नाम जिसका जन्म कश्यप ऋषि की स्त्री दनु से गर्भ से हुआ था और जो शुंभ तथा निमुचि (नमुचि) का भाई था। विशेष—निमुचि तो इंद्र के हाथ से मारा गया था पर शुंभ और निशुंभ ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें जीत लिया था और स्वर्ग पर राज्य करना आरंभ कर दिया था। जब दोनों ने रक्तबीज से सुना कि दुर्गा ने महिषासुर को मार डाला तव निशुंभ ने प्रतिज्ञा की कि मै दुर्गा को मार डालूँगा। उस समय नर्मदा नदी से निकलकर चंड और मुंड नामक दो और राक्षस भी इन लोगों में मिल गए। पहले शुंभ और निशुंभ ने दुर्गा से कहलाया कि तुम हममें से किसी के साथ विवाह करो पर दुर्गा ने कहला दिया के रण में मुझे जो जीतेगा उसी से मैं विवाह करूँगी। रण में दुर्गा ने पहले धूम्रलोचन, चंड, मुंड, रक्तबीज आदि असुरों तथा उनके साथियों को मारा। फिर शुंभ और निशुंभ ने युद्ध आरंभ किया। देवी ने पहले निशुंभ को तब शुंभ को मारा जिससे असुरों का उत्पात शांत हुआ और इंद्र को फिर स्वर्ग का राज्य मिला। यौ०—निशुंभमथनी = दुर्गा। निशुंभमार्दिनी।

निशुंभन
संज्ञा पुं० [निशुम्भन] बध। मार डालना।

निशुंभमार्दिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० निशुम्भमर्दिनी] दुर्गा।

निशुंभी
संज्ञा पुं० [सं० निशुम्भिन्] एक बुद्ध का नाम।

निशेश
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

निशैत
संज्ञा पुं० [सं०] बक। बगुला।

निशोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभात। तड़का।

निश्कुला
वि० [सं०] अपने कुल से निकाली हुई (स्त्री)।

निश्चंद्र
वि० [सं० निश्चन्द्र] १. चद्रमारहित। २. जिसमें चमक न हो।

निश्चंद्र अभ्रक
संज्ञा पुं० [सं० निश्चन्द्र अभ्रक] वेद्यक में वह अभ्रक जो दूध, ग्वारपाठा, आदमी के मूत्र, बकरी के दूध आदि कई पदार्थो में मिलाकर और सो बार उनका पुट देकर तैयार किया जाता है। बिशेष—कहते हैं, यह पद्मराग के समान हो जाता है। यह वीर्यवर्धक, रसायन और ज्वरनाशक माना जाता है।

निश्चक्र
वि० [सं०] दे० 'निशेष' [को०]।

निश्चक्रिक
वि० [सं०] १. चक्रविहीन। चक्ररहित। २. छलविहीन।

निश्चक्षु
वि० [सं० निश्चक्षुस्] अंधा। बिना आँखवाला [को०]।

निश्चय
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसी धारणा जिसमें कोई संदेह न हो। निःसंशय ज्ञान। २. विश्वास। यकीन। ३. निर्णय। जैसे,—इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि यह वस्तु क्या है। विशेष—निश्चय बुद्धि की वृत्ति है। ४. पक्का विचार। द्दढ़ संकल्प। पूरा इरादा। जैसे,—मैने वहाँ जाने का निश्चय कर लिया है। ५. जाँच। अन्वेषण (को०)। ६. एक अर्थालंकार जिसमें अन्य विषय का निषेध होकर प्रकृत या यथार्थ विषय का स्थापन होता है। जेसे,—नहिं सरोज यह वदन है नहिं इंदीवर नैन। मधुकर ! जनि धावै वृथा, मानि हमारे बैन। यहाँ सरोज और इन्दीवर का निषेध करके यथार्थ वस्तु मुख और नैन की स्थापना हुई है।

निश्चयात्मक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निश्चयात्मिका] जो बिलकुल निश्चित हो। ठीक ठीक। असंदिग्ध।

निश्चयात्मकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चयात्मक होने का वाद। यथार्थता। असंदिग्धता।

निश्चयार्थक
वि० [सं० निश्चयार्थ + क] निश्चित अर्थवाला। जिसके अथ में हेरफेर न किया जा सकै।—उ०—यथार्थ के तत्वों द्वारा, निश्चयार्थक शब्दों में, ज्ञान की किसी स्वचालित व्यवस्था का निर्माण करना विज्ञान का सार है।—पा० सा० सि०, पृ० ७।

निश्चर
संज्ञा पुं० [सं०] एकादश मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक।

निश्चल
वि० [सं०] १. जो अपने स्थान से न हटे। अचल। अटल। २. जो जरा भी न हिले डुले। स्थिर।

निश्चलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चल होने का भाव। स्थिरता। द्दढ़ता।

निश्चलांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० निश्चलाङ्ग] १. बगुला। २. पर्वत आदि जो सदा निश्चल रहते हैं।

निश्चलांग (२)
वि० जिसके अंग हिलते डोलते न हों।

निश्चला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शालपर्णो। २. पृथ्वी। ३. मत्स्य- पुराण के अनुसार एक नदी का नाम।

निश्चायक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी बात का निश्चय या निर्णय करता हो। निश्चयकर्ता। निर्णायक।

निश्चारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवाहिका नाम का रोग जो अतिसार का एक भेद है। यह बच्चों को प्रायः होता है और इसमें बहुत दस्त आते हैं। २. वायु। हवा। ३. दुराग्रह। स्वच्छंदता। हठप्रकृति। जिद्दी स्वभाव (को०)। ४. पुरीषक्षय। मलत्याग (को०)।

निश्चिंत
वि० [सं० निश्चिन्त] जिसे कोई चिंता या फिक्र न हो या जो चिंता से मुक्त हो गया हो। चिंतारहित। बेफिक्र। जैसे,— (क) आप निश्चित रहें, मैं ठीक समय पर पहुँच जाऊँगा। (ख) अब कहीं जाकर हम इस काम में निश्चिंत हुए हैं।

निश्चिंतई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० निश्चिंत + ई (प्रत्य०)] निश्चिंत होने का भाव। बेफिक्री।

निश्चिंत
वि० [सं०] १. जिसके संबंध में निश्चय हो चुका हो। तै किया हुआ। निर्णोत। जैसे,—(क) हमारे वहाँ जाने की सब बातों निश्चित हो चुकी हैं। (ख) इस काम के लिये कोई दिन निश्चित कर लो। २. जिसमें कोई परिवर्तन या फेर बदल न हो सके। दूढ़। पक्का। जैसे,—तुम कोई निश्चित बात तो कहते ही नहीं, नित्य नए बहाने निकालते हो।

निश्चितार्थ
वि० [सं] १. जिसने किसी बात का निश्चय कर लिया हो। निश्चित धारणावाला। २. उचित या ठीक निर्णय करनेवाला। ३. निश्चित अर्थवाला [को०]।

निश्चिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निश्चय करना।

निश्चित्त
संज्ञा पुं० [सं०] योग में एक प्रकार की समाधि।

निश्चिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।

निश्चुक्कण
संज्ञा पुं० [सं०] २. मिस्सी। २. मंजन।

निश्चेतन
वि० [सं०] १. बेसुध। बेहोश। बदहवास। २. जड़।

निश्चेष्ट
वि० [सं०] १. बेहोश। अचेत। २. चेष्टारहित। ३. निश्चल। स्थिर।

निश्चेष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं० निश्चेष्ट + ता (प्रत्य०)] १. बेहोशी। संज्ञाशून्यता। २. चिष्टा का प्रभाव। निश्चेष्ट होने की स्थिति। अकर्मण्यता। उ०—निश्चेष्टता तथा निर्बलता का न करोगे क्या अब शेष।—कुंकुम, पृ० ४।

निश्चेष्टाकरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैद्यक में एक प्रकार की औषध जो मैनसिल से बनाई जाती है। २. कामदेव के एक प्रकार के बाण का नाम।

निश्चै पु
संज्ञा पुं० [सं० निश्चय] दे० 'निश्चय'।

निश्च्यवन
संज्ञा सं० [सं०] १. पुराणानुसार वैवस्वत मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम २. महाभारत के अनुसार एक प्रकार की आग्नि।

निश्छंद
वि० [निश्छन्दस] जिसने वेद न पढ़ा हो।

निश्छद्म
वि० [सं० निम् + छदम] बिना आवरण का। खुला हुआ। साफ। उ०—मेरे शरीर ने चाहे जो रूप धारण किया हो, कितु हृदय निश्छदूम है।—ध्रुव०, पृ० ५७।

निश्छल
वि० [सं०] छलरहित। सीधा। सरलचित्त। निष्कपट।

निश्छाय
वि० [सं०] छायाविहीन। बिना छाया का [को०]।

निश्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में वह राशि जिसका किसी गुणक के द्वारा भाग न दिया जा सके। अविभाज्य।

निश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कार्य से न थकना अथवा न धबराना। अध्यवसाय।

निश्रयणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीढ़ी।

निश्रीक
संज्ञा पुं० [सं०] सीढ़ी।

निश्रेणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीढ़ी [को०]।

निश्रेणिका तृण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास जो रसहीन और गरम होती है और पशुओं को निर्बल कर देती है।

निश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीढ़ी। जीना। २. मुक्ति। ३. खजूर का पेड़।

निश्रेयस
संज्ञा पुं० [सं० निःश्रेयस्] १. मोक्ष। २. दुःख का अत्यंत अभाव। ३. कल्याण।

निश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाक या मुँह से बाहर निकलनेवाला श्र्वास। प्राणवायु के नाक के बाहर निकलने का व्यापार। २. दीर्ध श्वास। लंबी साँस।

निश्शंक
वि० [सं० निश्शङ्क] १. निडर। निर्भय। बेखौफ। २. संदेहरहित। जिसमें शंका न हो।

निश्शंस
वि० [सं० निश्शङ्क] दे० 'निश्शंक'। उ०—ऋषि मुनि मनोहंस० रविवंश अवतंस कर्मरत निशर्शस, पूरो मनस्काम।— आराधना, पृ० ४८।

निश्शक्त
वि० [सं०] निर्बल। नाताकत। जिसमें शाक्ति न हो।

निश्शरण
वि० [सं० निः + शरण] शरणहीन। आश्रयहीन। उ०— सुषमता में असम संचय, वरण में निश्शरण गाया।— अर्चना, पृ० ८३।

निश्शील
वि० [सं०] शीलरहित। बेमुरौवत। बदमिजाज। बुरे स्वभाववाला।

निश्शीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुष्ट स्वभाव। बदमिजाजी।

निश्शेष
वि० [सं०] जिसमें से कुछ भी बाकी न बचा हो। जिसका कुछ भी अवशिष्ट न हो।

निषंग
संज्ञा पुं० [सं० निषङ्ग] १. तुण। तूणीर। तरकण। २. खड्ग। ३. प्राचीन काल का एक बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था। ४. लगाव (को०)। ५. मिलाप। संमिलन (को०)।

निषंगथि
संज्ञा पुं० [सं० निषङ्गथि] १. आलिंगन। २. रथ। ३. कंधा। ४. तृण। ५. सारथीं। ६. धनुष धारण करनेवाला। धनुर्धर।

निषंगी (१)
वि० [सं० निषङ्गिन्] १. तीर चलानेवाला। धनुर्घारी। जिसके पास तूणीर हो। २. खङ्ग धारण करनेवाला। ३. अत्यंत आसक्त। अत्यंत लगाववाला (को०)।

निषंगी (२)
संज्ञा पुं० महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।

निषकपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस। निशाचर। असुर।

निषकशं
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरसाधन की एक प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्वर को दो दो बार अलापना पड़ता है। जैसे,—सा सा, रे रे, ग ग, म म, प प, ध ध, नि नि, सा सा। सा सा, नि नि, घ घ, प प, म म, ग ग, रे रे, सा सा।

निषक्त
वि० [सं०] अत्यंत आसक्त [को०]।

निषक्त
संज्ञा पुं० [सं०] बाप। पिता। जनक।

निषण्ण
वि [सं०] १. बैठा हुआ। ओठँगा हुआ। स्थित। २. जिसे सहारा मिला हो। ३. गत। गया हुआ। ४. म्लान। खिन्न। विषण्ण [को०]।

निषण्णक
संज्ञा पुं० १. आसन। २. एक तरह का शाक या तृण [को०]।

निषत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुस्ती। आलस्य। अकर्मण्यता [को०]।

निषत्र पु †
संज्ञा पुं० [सं० नक्षत्र] दे० 'नक्षत्र'। उ०—सुभ निषत्र गुन करयौ जु आरज। कथ्यौ भीख जन ज्ञान जाति द्विज कुल आचारज।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ८६।

निषदू
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ की दीक्षा।

निषद
संज्ञा पुं० [सं०] १. (संगीत में) निषाद स्वर। २. एक राजा का नाम।

निषदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपवेशन। बैठना। २. बैठने का आसन। ३. रहने का स्थान। आलय। घर। मकान [को०]।

निषद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्थान जहाँ कोई चीज बिकती हो। हाट। २. छोटी खाट।

निषद्यापरीषत
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसे स्थान में जहाँ स्त्री, षंड आदि का आगम हो न रहना और यदि इष्टानिष्ट का उपसर्ग हो तो जो अपने चित्त को चलायमान न करना (जेन)।

निषद्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कीचड़। चहला। २. कामदेव (को०)।

निषद्वरा, निषद्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। रजनी।

निषध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम। कहते है, यह पर्वत इलावृत्त के दक्षिण हरिवर्ष की सीमा पर है। २. हरिवंश के अनुसार रामचंद्र के प्रपौत्र और कुश के पौत्र का नाम। ३. महाराज जनमेजय के पुत्र का नाम। ४. पूराणानुसार एक देश का प्राचीन नाम जो विंध्याचल पर्वत पर था। विशेष—किसी किसी से मत से यह वर्तमान कुमाऊँ का एक भाग है और दमयंती के पति नल यहीं के राजा थे। ५. कुरु के एक लड़के का नाम। ६. संगीत के सात स्वरों में से अंतिम या सातवाँ स्वर। निषाद।

निषध (२)
वि० कठिन।

निषधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा नल की राजधानी का नाम [को०]।

निषधावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] मार्कडेय पुराण के अनुसार एक नदी का नाम जो विंध्य पर्वत से निकलती है।

निषधाभास
संज्ञा पुं० [सं०] कुरु के एक लड़के का नाम।

निषघाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] आक्षेप। अलंकार के पाँच भेदों में से एक।

निषसई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निखिसई'।

निषाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बहुत पुरानी अनार्य जाति जो भारत में आर्य जाति के आने से पहले निवास करती थी। इस जाति के लोग शिकार खेलते, मछलियाँ मारते और डाका डालते थे। विशेष—पुराणों में जिस प्रकार और अनेक अनार्य जातियों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार की कथाएँ लिखी हुई हैं उसी प्रकार इस जाति की उत्पात्ति के संबंध में भी एक कथा है। अग्निपुराण में लिखा है कि जिस समय राजा वेणु की जाँघमथी गई थी उस समय उसमें से काले रंग का एक छोटा सा आदमी निकला था। वही आदमी इस वंश का आ पुरुष था। लेकिन मनु के मत से इस जाति की सृष्टि ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से हु ई है। मिताक्षरा में यह जाति क्रूर और पापी कही गई है। २. एक देश का प्राचीन नाम जिसका उल्लेख महाभारत, रामायण तथा कई पुराणों में है। विशेष—महाभारत के अनुसार यह एक छोटा राष्ट्र था जो विनशान के दक्षिणपश्चिम में था। संभवतः रामायणवाला श्रृगवेरपुर इस राज्य का राज्यनगर था। ३. संगीत के सात स्वरों में अंतिम और सबसे ऊँचा स्वर जिसका संक्षिप्त रूप 'नि' है। विशेष—इसकी दो श्रुतियाँ हैं—उग्रता और शोभिनी। नारद के अनुसार यह स्वर हाथी के स्वर के समान है और इसका उच्चारणस्थान ललाट है। व्याकरण के अनुसार यह दंत्य है। संगीतदर्पण के अनुसार इस स्वर की उत्पत्ति असुर वंश में हुई है। इसकी जाति वेश्य, वर्णा विचित्र, जन्म पुष्कर द्वीप में, ऋषि तुंबरु, देवता सूर्य और छंद जगती है। यह संपूर्ण जाति का स्वर है। और करुण इसके लिये विशेष उपयोगी हैं। इसकी फूट तान ५०४० हैं। इसका वार शनिवार और समय रात्री के अंत की २ घड़ी ३४ पल है। इसका स्वरूप गणेश जी के समान माना जाता है।

निषादकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का प्राचीन नाम।

निषादी
संज्ञा पुं० [सं० निषादिन्] हाथीवान। महावत।

निषिक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य से उत्पन्न गर्भ।

निषिक्त (२)
वि० १. सिंचित। सिक्त। २. गभित। भीतर डाला हुआ [को०]।

निषिद्ध
वि० [सं०] १. जिसका निषेध किया गया हो। जिसके लिये मनाही ही। जो न करने योग्य हो। २. खराब। बुरा। दूषित। तुच्छ।

निषिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] निषेध। मनाही।

निषिध पु
संज्ञा पुं० [सं० निषिद्ध] बुरा कार्य। अपकर्म। उ०— निषिध छुड़ावण कारनै भय उपजायो आइ। मद्य मांस पर- त्रिय गवन इनते नरकहिं जाइ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १६८।

निषूटना †
क्रि० अ० [देश०] समाप्त होना। चुक जाना। निखूटना। उ०—दह दिसि फूटा, नीर निपूटा, लेखा डेवण साल बे। दादू दास कहै बणिजारा तू रत्ता तरुणो नाल वे।—दादू०, पृ० ४८३।

निषूदन
वि० [सं०] नाश करनेवाला। मारनेवाला। वध करनेवाला। जैसे, अरिनिषूदन, केशिनिषूदन।

निषेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्भाधान। २. रेत। वीर्य। ३. क्षरण। चूना। टपकना। ४. अच्छी तरह सींचना। सिंचन (को०)। ५. गर्भाधान के अवसर पर होनेवाला संस्कार (को०)। ६. धुलाई के काम आनेवाला जल (को०)। ७. गंदा पानी। ८, भभके द्वारा अर्क उतारना (को०)। ९. वीर्य संबंधी अशुध्दता (को०)।

निषेचन
क्रि० स० [सं०] सींचना। तर करना। भिगोना। आर्द्र करना।

निषेद पु †
संज्ञा पुं० [सं० निषेध] दे० 'निषेध'। उ०—सतगुरु सब्द जहाज हैं, कोइ कोइ पावै भेद। समुँद बुंद एकै भया, किसका करूँ निषेद।—कबीर सा० सं०, पृ० ११।

निषेध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्जन। मनाही। न करने का आदेश। २. बाधा। रुकावट। ३. इनकार। अस्वीकार (को०)। ४. विधि का उलटा। विधि का विलोम (को०)।

निषेधक
संज्ञा पुं० [सं०] मना करनेवाला। रोकनेवाला।

निषेधन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निषेधित, निषिद्ध] निषेध करने का काम। निवारण। मना करना।

निषेधपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जिसके द्वारा किसी प्रकार का निषेध किया जाय।

निषेधविधि
संज्ञा पुं० [सं०] वह बात या आज्ञा जिसके द्वारा किसी बात का निषेध किया जाय।

निषेघात्मक
वि० [सं० निषेध + आत्मक] निषेध रूप। निषेधवाला। उ०—गूढ़ विषयों का प्रतिपादन कभी कभी निषे- धात्मक रीति से किया जाता है।—पा० सा० सि०, पृ० १।

निषेधित
संज्ञा पुं० [सं०] जिसके लिये निषेध किया गया हो। मना किया हुआ। वर्जित।

निषेधी
वि० [सं० निषेधिन्] १. पीछे हट जानेवाला या बचाव करनेवाला। २. पीछे छोड़ जानेवाला। आगे निकल जानेवाला [को०]।

निषेवन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निषेवनीय, निषेवित, निषेव्य] १. सेवा। २. सेवन। व्यवहार। ३. पूजा। अर्चन। अनुष्ठान (को०)। ४. लगाव। लगन। संपर्क (को०)। ५. रहना। बसनां (को०)।

निषेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'निषेवन'। उ०—अंजन, मंजन, चंदन द्विज पति देव निषेवा।—नंद० ग्रं०, पृ० ४०।

निषेवित
वि० [सं०] १. पूजित। सेवित। प्रार्थित। समाद्दत। २. अनुष्ठित [को०]।

निषेवीं
संज्ञा पुं० [सं० निषेविन्] सेवा करनेवाला।

निषेव्य
वि० [सं०] सेवनीय। सेवा के योग्य।

निष्कंचन पु
वि० [सं० निस् + किञ्चन] अकिंचन। दीन। दरिद्र। उ०—अब लरिकिनी आछी होइ तो काहू निष्कंचन गरीब बाह्नान कों विवाह करि देउँगो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ६९।

निष्कंटक
वि० [सं० निष्कण्टक] १. जिसमें किसी प्रकार की बाधा, आपत्ति या झंझट आदि न हो। शत्रुरहित। बिना खटका। निर्विध्न। जैसे,—उन्होंने पचीस वर्ष तक निष्कंटक राज्य किया। २. काटों से रहित। जिसमें काँटा न हो।

निष्कंठ
संज्ञा पुं० [सं० निष्कण्ठ] वरुण या वरुना नाम का पेड़।

निष्कंप
वि० [सं० निष्कम्प] जिसमें किसी प्रकार का कंप न हो। अचल। स्थिर।

निष्कंभ
संज्ञा पुं० [सं० निष्कम्भ] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।

निष्कंभु
संज्ञा पुं० [सं० निष्कम्भु] पुराणानुसार देवताओँ के एक सेनापति का नाम।

निष्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैदिक काल का एक प्रकार का सोने का सिक्का या मोहर जिसका मान भित्र भित्र समयों में भिन्न भिन्न था। विशेष—प्राचीन काल में यज्ञों में राजा लोग ऋषियों और ब्राह्मणों को दक्षिणा में देने के लिये सोने के बराबर तौल के टुकड़े कटवा लिया करते थे जो 'निष्क' कहलाते थे। सोने के इस प्रकार टुकड़े कराने का मुख्य हेतु यह होता था कि दक्षिणा में सब लोगों को बराबर सोना मिले, किसी के पास कम या ज्यादा न चला जाय। पीछे से सोने के इन टुकडों पर यज्ञस्पतूप आदि के चिन्ह और नाम आदि बनाए या खोदे जाने लगे। इन्हीं टुकड़ों ने आगे चलकर सिक्कों का रूप घारण कर लिया। उस समय कृछ लोग इन टुकड़ों को गूँथकर और उनकी माला बनाकर गले में भी पहनते थे। भिन्न भिन्न समयों में निष्क का मान नीचे लिखे अनुसार था। एक निष्क&nbsp=&nbspएक कर्ष (१६ माशे) "  "  =  "  सुवर्ण  " "  "  =  "  दीनार  , "  "  =  " पल (४ या ५ सुवर्ण) "  "  =  चार माशे "  "  =  १०८ अथवा १५० सुवर्ण। २. प्राचीन काल में चाँदी की एक प्रकार की तौल जो चार सुवर्ण के बराबर होती थी। ३. वैद्यक में चार माशे की तौल। टंक। ४. सुवर्ण। सोना। ५. सोने का बरतन। ६. हीरा। ७. निर्गम। बाहर जाना। प्रस्थान (को०)। ८. चांडाल (को०)। ८. सोने की एक तौल जो १०८ या १५० सुवर्ण की होती थी (को०)। ९. गले में पहनने का एक स्वर्णा- भूषण (को०)। यौ०—निष्ककंठ, निष्कग्रीव = जिसने गले में सोने का गहना पहन रखा हो।

निष्कपट
वि० [सं०] जो किसी प्रकार का छल या कपट न जानता हो। निश्छल। छलरहित। सीधा। सरल।

निष्कपटता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्कपट होने का भाव। निश्छलता। सरलता। सीधापन।

निष्कपटी
वि० [सं० निष्कपट] दे० 'निष्कपट'।

निष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जिसका कर न देना पड़ता हो।

निष्करुण
वि० [सं०] जिसमें करुणा या दया न हो। करुणारहित। निष्ठुर। निर्दय। बेरहम।

निष्कर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] काटना। फाड़ना। तार तार करना [को०]।

निष्कर्म
वि० [सं० निष्कर्मन्] अकर्मा। जो कामों मे लिप्त न हो। उ०—विष्णु नरायण कृष्ण जो वासुदेव ही ब्रह्म। परमेश्वर परमात्मा विश्वंभर निष्कर्मं।—विश्राम (शब्द०)।

निष्कर्मण्य
वि० [सं०] अकर्मण्य। अयोग्य। निकम्मा। जो कुछ काम न कर सके।

निष्कर्मा
वि० [सं० निष्कर्मन्] १. जो कर्मो में लिप्त न हो। अकर्मा। २. निकम्मा।

निष्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. निश्चय। खुलासा। तत्व। २. निचोड़। सार। सारांश। ३. राजा का अपने लाभ या कर आदि के लिये प्रजा को दुःख देना। ४. माप। मापन (को०)। ५. निकालने की क्रिया।

निष्कर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकालना। खींचकर निकालना। २. घटाना [को०]।

निष्कर्षी
संज्ञा पुं० [सं० निष्कर्षिन्] एक प्रकार का मरुत्।

निष्कलंक
वि० [सं० निष्कलड्क] जिसमें किसी प्रकार का कलंक न हो। निदोंष। बेऐव।

निष्कलंकतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं० निष्कलङ्कतीर्थ] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम जिसमें स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

निष्कलंकित
वि० [सं० निष्कलङ्क] दे० 'निष्कलंक'।

निष्कलंकी
वि० [सं० निष्कलङ्क] दे० 'निष्कलंक'।

निष्कल (१)
वि० [सं०] १. जिसमें कला न हो। कलारहित। २. जिसका कोई अंग या भाग नष्ट हो गया हो। ३. जिसका वीर्य नष्ट हो गया हो। वृद्ध। ४. नपुंसक। ५. पूरा। समूचा।

निष्कल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा। २. आधार। आस्पद। आश्रय (को०)। ३. शिव (को०)। ४. स्त्री का गुह्मांग। उपस्थ। भग (को०)।

निष्कलत्ब
संज्ञा पुं० [सं०] अविभाज्य होने की अवस्था। किसी पदार्थ की वह अवस्था जिसमें उसके और अधिक विभाग न हो सकें।

निष्कला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृद्धा स्त्री। बुढ़िया।

निष्कली
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधिक अवस्थावाली वह स्त्री जिसका मासिक धर्म होना बंद हो गया हो।

निष्कल्मष
वि० [सं०] बेदाग। वेऐब। शुद्ध [को०]।

निष्कषाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके चित्त में किसी प्रकार का दोष न हो। वह जिसका चित्त स्वच्छ और पवित्र हो। २. मुमुक्षु। ३. एक जिन का नाम (जैन)।

निष्कांत
वि० [सं० निष्कान्त] जो सुंदर न हो। भद्दा। बद- सूरत [को०]।

निष्काम
वि० [सं०] १. (वह मनुष्य) जिसमें किसी प्रकार की कामना, आसक्ति या इच्छा न हो। २. (वह काम) जो बिना किसी प्रकार की कामना या इच्छा के किया जाय। विशेष—सांख्य और गीता आदि के मत से ऐसा काम करने से चित्त शुद्ध होता और मुक्ति मिलती है।यौ०—निष्कामचारी = बिना किसी इच्छा या आकांक्षा के काम करनेवाला। निष्कामकर्म = वह कार्य जिसके फल की इच्छा न की जाय।

निष्कामता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्काम होने की अवस्था या भाव।

निष्कामी
वि० [सं० निष्कामिन्] (वह मनुष्य) जिसमें किसी प्रकार की कामना या आसक्ति न हो।

निष्कामुक
वि० [सं०] संसारी इच्छाओं से मु्क्त [को०]।

निष्कारण (१)
वि० [सं०] १. बिना कारण। बेसबब। २. व्यर्थ। वृथा।

निष्कारण (२)
संज्ञा पुं० १. मारना। वध करना। २. हटाना। अलग करना। दूर करना [को०]।

निष्कार्य
वि० [सं०] निष्प्रयोजन। बे मतलब [को०]।

निष्कालक
संज्ञा पुं० [सं०] मूँड़े़ हुए बाल या रोएँ आदि।

निष्कालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलाने की क्रिया। २. मार डालने की क्रिण। मारण। ३. पशु आदि को निकाल भगाना (को०)।

निष्कालिक
वि० [सं०] १. जिसके जीने के दिन थोड़े रह गए हों। २. जिसे जीता न जा सके। अजेय (को०)।

निष्काश
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रासाद आदि का बाहर निकला हुआ भाग। जैसे, बरामदा। २. तड़का। भोर (को०)। ३. लोप (को०)। ४. निष्काशन (को०)।

निष्काशन
संज्ञा पुं० [सं०] निकालना। बाहर करना।

निष्काशित
वि० [सं०] १. बहिष्कृत। निकाला हुआ। २. निंदित। जिसकी निंदा की गई हो।

निष्कास
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकालने की किया या भाब। २. जारी किया हुआ। ३. रखा या जमा किया हुआ। ४. नियुक्त। ५. खुला हुआ। विकसित। ६. जिसे बुरा भला कहा गया हो [को०]।

निष्कासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सेविका या दासी जिसपर उसके मालिक का कोई बंधन हो [को०]।

निष्किंचन
वि० [सं० निष्किञ्चन] अकिंचन। धनहीन। दरिद्र। जिसके पास कुछ न हो।

निष्किल्विष
वि० [सं०] जो पापी न हो। बेदाग [को०]।

निष्कुंभ
संज्ञा पुं० [सं० निष्कुम्भ] दंती वृक्ष।

निष्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर के पास का बाग। नजर बाग। पाई बाग। २. क्षेत्र। खेत्र। ३. कपाट। किवाड़ा। ४. जनाना महल। स्त्रियों के रहने का घर। ५. एक पर्वत का नाम। ६. पेड़ का खोंढ़रा। वृक्षकीटर (को०)।

निष्कुटि, निष्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इलायची।

निष्कूटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार कुमार की अनुचरी एक मात्रिका का नाम।

निष्कुल
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निष्कुला] बिना कुल का। जिसका कोई संबंधी न रहू गया हो।

निष्कुलीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूसी या छिलका अलग करना। २. किसी का कुल या खानदान समाप्त करना [को०]।

निष्कुलीन
वि० [सं०] निम्न कुल का [को०]।

निष्कुषित
वि० [सं०] १. काटा या खाया हुआ। भुक्त। २. बाहर किया हुआ। बहिष्कृत। ३. जिसकी खाल उधेड़ी हुई हो [को०]।

निष्कुह
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ का खोंड़रा। कोटर।

निष्कूज
वि० [सं०] कूजनरहित। जहाँ किसी प्रकार का शोरगुल न होता हो। शांत [को०]।

निष्कूट
वि० [सं०] बिना छल का। जिसमें धोखा न हो [को०]।

निष्कृत
वि० [सं०] १. मुक्त। छूटा हुआ। स्वतंत्र। २. हटाया या दूर किया हुआ। निकाला हुआ। ३. निश्चय किया हुआ। निश्चित।

निष्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निस्तार। छुटकारा। २. प्रायश्चित्त। ३. उपेक्ष। ३. धिक्कार (को०)। ४. दुराचरण। बुरा व्यव- हार (को०)।

निष्कृप
वि० [सं०] १. तेज। तीक्ष्ण। धारदार। चोखा। २. कृपाविहीन। कृपारहित (को०)।

निष्कृष्ट
वि० [सं०] १. निचोड़कर निकाला हुआ। २. खींचकर बाहर किया हुआ [को०]।

निष्केवल
वि० [सं०] विशुंद्ध। पूर्ण शुद्ध। खालिस [को०]।

निष्कैतव
वि० [सं०] छलछदम से रहित। ईमानदार [को०]।

निष्कैवल्य
वि० [सं०] १. मोक्षहीन। २. पूर्ण। समग्र [को०]।

निष्कोष, निष्कोषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूसी या छिलका अलग करना। २. फाड़ना। विदारण करना। ३. खींचकर बाहर करना।

निष्कोषणक
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत खोदने का खरिका [को०]।

निष्क्रम (१)
वि० [सं०] बिना क्रम या सिलसिले का। बेतरतीब।

निष्कम (२)
संज्ञा पुं० १. बाहर निकलना। २. निष्क्रमण की रीति। ३. पतित होना। ४. मन की वृत्ति।

निष्क्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० निष्क्रांत] १. बाहर निकलना। २. हिदुओं में छोटे बच्चों का एक संस्कार जिसमें जब बालक चार महीने का होता है तब उसे घर से बाहर निकालकर सूर्य का दर्शन कराया जाता है।

निष्क्रमणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चार महीने के बालक को पहले पहल घर से निकालकर सूर्य के दर्शन कराना।

निष्क्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेतन। तनखाह। मजदूरी। भाड़ा। २. वह धन जो किसी पदार्थ के बदले में दिया जाय। ३. विनिमय। बदला। ४. बिक्री। बेचने की क्रिया। ५. सामर्थ्य। शक्ति। ६. पृरस्कार। इनाम। ७. कौटिल्य के अनुसार वह धन जो छुटकारे के लिये दिया जाय।

निष्कयण
संज्ञा पुं० [सं०] १. छुटकारे के लिये प्रदत्त धन। २. किसी वस्तु के बदले में प्रदत्त धन [को०]।

निष्क्रांत
वि० [सं० निष्क्रान्त] जो जा चुका हो। बहिर्गत [को०]।

निष्कामित
वि० [सं०] निकाला हुआ। बहिष्कृत [को०]।

निष्क्राम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. माल का बाहर भेजा जाना। बाहर भेजी जानेवाली चलान। २. रफ्तनी माल। (कौठि०)।

निष्क्रम्य शुल्क
संज्ञा पुं० [सं०] बाहर भेजे जानेवाले माल पर का महसूल।

निष्क्रिय (१)
वि० [सं०] जिसमें कोई क्रिया या व्यापार न हो। सब प्रकार की क्रियाओं से रहित। निश्चेष्ट। यौ०—निष्क्रिय प्रतिरोध = किसी कार्य या आज्ञा का वह विरोध जिसमें विरोध करनेवाला अपनी समझ से सत्य और उचित काम करता रहता है और इस बात की परवा नहीं करता कि इसके लिये मुझें दंड सहना पड़ेगा। २. विहित कर्म को न करनेवाला (को०)। ३. काम धाम न करनेवाला। निकम्मा (को०)।

निष्क्रिय (२)
संज्ञा पुं० कर्मशून्य ब्रह्म।

निष्क्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्क्रिथ होने का भाव या अवस्था।

निष्क्लेश
वि० [सं०] १. क्लेशरहित। सब प्रकार के कष्टों से मुक्त। २. बौद्धों के अनुसार दसों प्रकार के क्लेशों से मुक्त।

निष्क्वाथ
संज्ञा पुं० [सं०] मांस आदि का रसा। शोरबा।

निष्टपन
संज्ञा पुं० [सं०] भूनना। जलाना। सेकना। पकाना [को०]।

निष्टप्त
वि० [सं०] १. अच्छी तरह भुना या पका हुआ। २. जला हुआ [को०]।

निष्टानप
संज्ञा पुं० [सं०] १. रव। आवाज। घ्वनि। २. दीर्घ नाद। गर्जन [को०]।

निष्टाप
संज्ञा पुं० [सं०] हलकी गरमी। थोड़ा ताप [को०]।

निष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्ष की कन्या और कश्यप की स्त्री दिति का एक नाम।

निष्टिग्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अदिति का एक नाम।

निष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] १. चांडाल। २. म्लेच्छों की एक जाति का नाम जिसका उल्लेख वेदों में है।

निष्टया
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वाती नक्षत्र [को०]।

निष्ठ
वि० [सं०] १. स्थित। ठहरा हुआ। २. तत्पर। लगा हुआ। जैसे, कर्तव्यनिष्ठ। ३. जिसमें किसी के प्रति श्रद्धा या भक्ति हो। जैसे, स्वामिनिष्ठ।

निष्ठांत
वि० [सं० निष्ठान्त] जिसका नाश अवश्य हो। जो अविनाशी न हो। नष्ट होनेवाला।

निष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्थिति। अवस्या। ठहराव। २. निर्वाह। ३. मन की एकांत स्थिति। चित का जमना। ४. विश्वास। निश्चय। ५. धर्मगुरु या बड़े आदि के प्रति श्रद्धा भक्ति। पूज्य बुद्धि। ६. विष्णु जिन में प्रलय के समय समस्त भूतों की स्थिति होगी। ७. इति। समाप्ति। ८. नाश। ९. सिद्धावस्था की अंतिम स्थिति। ज्ञान की वह चरमा- वस्था जिसमें आत्मा और ब्रह्म की एकता हो जाती है। १०. याचना (को०)। ११. व्रत। उपवास (को०)। १२. कौशल। चातुर्य। दक्षता (को०)। १३. व्याकरण में 'क्त' और 'क्तवतु' प्रत्यय।

निष्ठान, निष्ठानक
पुं० [सं०] चटनी आदि।

निष्ठापित
वि० [सं०] पूरा किया हुआ। समाप्त किया हुआ [को०]।

निष्ठावान्
वि० [सं० निष्ठावत्] जिसमें निष्ठा या श्रद्धा हो।

निष्ठित
वि० [सं०] १. स्थित। द्दढ़। ठहरा या जमा हुआ। २. जिसमें निष्ठा हो। निष्ठायुक्त। ३. दक्ष। कुशल। चतुर (को०)।

निष्ठीव, निष्ठोवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. थूक। २. थूक आदि बाहर निकालना (को०)। ३. वैद्यक के अनुसार एक औषध जिसका व्यवहार गले या फेफड़े से काम निकालने में किया जाता है। इसके सेवन से रोगी कफ थूकने लगता है।

निष्ठुर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० निष्ठुरा] १. कठिन। कड़ा। सख्त। २. जिसमें दया न हो। कठोर हृदयवाला। क्रूर। बेरहम।

निष्ठुर (२)
संज्ञा पुं० परुष वचन। कठोर बात।

निष्ठुरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निष्ठुर होने का भाव। कड़ाई। सख्ती। कठोरता। २. निर्दयता। क्रूरता। बेरहमी।

निष्ठुरिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में हैं।

निष्ठेव, निष्ठेवन
संज्ञा पुं० [सं०] थूक।

निष्ठ्यूत
वि० [सं०] १. उक्त। कथित। २. थूका हुआ। उदगीर्ण। ३. बहिष्कृत [को०]।

निष्ठ्यूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूकने की क्रिया [को०]।

निष्ण
वि० [सं०] कुशल। होशियार। निष्णात।

निष्णात
वि० [सं०] १. किसी विषय का बहुत अच्छा ज्ञाता या जानकार। किसी बात का पूरा पंडित। २. विज्ञ। निपुण। ३. पूर्ण किया हुआ। पूरा किया हुआ।

निष्पंक
वि० [सं० निष्पङ्क] जिसमें कीचड़ आदि न लगा हो। स्वच्छ। निर्मल। साफ। सुथरा।

निष्पंद
वि० [सं० निष्पन्द] जिसमें किसी प्रकार का कंप न हो। स्पंदनरहित।

निष्पक्व
वि० [सं०] १. सुपक्व। २. दग्ध। जला हुआ [को०]।

निष्पक्ष
वि० [सं०] जो किसी के पक्ष में न हो। पक्षपातरहित।

निष्पक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्पक्ष होने का भाव। पक्षपात न करने का भाव।

निष्पतन
संज्ञा पुं० [सं०] तेजी से झपटना या बाहर निकलना [को०]।

निष्पताक
वि० [सं०] बिना पताका का। जिसमें फरहरा या ध्वजा न हो [को०]।

निष्पताकध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का दंड जिसे राजा लोग अपने पास रखते थे। विशेष—यह दंड ठीक पताका के दंड के समान होता था, अंतर केवल इतना ही होता था कि इसमें पताका नहीं होती थी।

निष्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समाप्ति। अंत। २. सिद्धि। परिपाक। ३. हठ योग के अनुसार नाद की चार प्रकार की अवस्थाऔं में से अँतिम अवस्था। ४. निर्वाह। ५. मीमांसा। ६. निश्चय। निर्धारण। ७. उत्पादन। उत्पत्ति (को०)। ८. चर्वण। अभिव्यँजना। अभिव्यक्ति (को०)।

निष्पत्र
वि० [सं०] १. जिसमें पत्ते न हों। जैसे, पेड़। २. जिसके पर न हो [को०]।

निष्पत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] करील का पेड़।

निष्पद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह सवारी जिसमें पहिए आदि न हों। जैसे, नाव आदि।

निष्पद (२)
वि० जिसे पद या पैर न हो [को०]।

निष्पन्न
वि० [सं०] जिसकी निष्पत्ति हो चुकी हो। जो समाप्त या पूरा हो चुका हो।

निष्पयोद
वि० [सं०] अनभ्र। बिना बादल का। मेघरहित [को०]।

निष्पराक्रम
वि० [सं०] पराक्रमरहित। बेकूवत। जिसमें पराक्रम न हो [को०]।

निष्परिकर
वि० [सं०] बिना तैयारी का। जिसनै कोई तैयारी न की हो [को०]।

निष्परिग्रह
वि० [सं०] १. जो दान आदि न ले। २. जिसके स्त्री न हो। रँडुआ। ३. अविवाहित। कुँवारा। ४. (साधु) जो परिग्रह अर्थात् पादुका, कंथा आदि से रहित हो (को०)।

निष्परिहार्य
वि० [सं०] जिसे किसी भी कीमत पर न छोड़ा जाय। अनिवार्य [को०]।

निष्परुष
वि० [सं०] जो सुनने मे कर्कश न हो। कोमल।

निष्पर्यत
वि० [सं० निष्पर्यन्त] सीमाहीन [को०]।

निष्पलक
वि० [सं० निस् + हिं० पलक] अपलक। निर्निमेष। उ०—देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन।— अपरा, पृ० ४०।

निष्पवन
संज्ञा पुं० [सं०] धान आदि की भूसी निकालना। कूटना छाटना। अनाज को ओसान या सूप आदि से पछोरना।

निष्पाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनाज की भूसी निकालने का काम। दाना। २. बोड़ा नाम की तरकारी या फली। लोबिया। ३. मटर। ४. सेम।

निष्पादक
वि० [सं०] निष्पत्ति करनेवाला।

निष्पादन
संज्ञा पुं० [सं०] निष्पत्ति करना।

निष्पादी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बोड़ा नाम की तरकारी या फली। लोबिया।

निष्पाप
वि० [सं०] जो पापी न हो। पापरहित। निर्देष [को०]।

निष्पाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूसी निकालना। कूट छाँट। २. सूप की हवा। ३. वायु। हवा (को०)। ४. सेम। लोबिया।

निष्पावक
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद सेम।

निष्पावी
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'निष्पादी'।

निष्पिष्ट
वि० [सं०] १. चूर्ण किया हुआ। पिसा हुआ। अच्छी तरह पीसा हुआ। २. पीटा हुआ। पीड़ित [को०]।

निष्पोड़न
संज्ञा पुं० [सं० निष्पीडन] निचोड़ना। गीले कपड़े को दबाकर उसमें से पानी निकालना।

निष्पुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रहीन। जिसके आगे पुत्र न हो।

निष्पुरुष
वि० [सं०] नपृंसक। नामर्द।

निष्पुलाक
संज्ञा पुं० [सं०] आगामी उत्सर्पिणो के अनुसार १४ वें अर्हत का नाम (जैन)।

निष्पेष, निष्पेषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूर चूर करना। पीस डालना। मसल देना। २. घर्षण। रगड़ना। ३. परस्पर घर्षण की घ्वनि [को०]।

निष्पौरुष
वि० [सं०] पौरुषविहीन [को०]।

निष्प्रकंप (१)
संज्ञा पुं० [सं० निष्प्रकम्प] पुराणानुसार तेरहवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक का नाम।

निष्प्रकंप (२)
वि० अचल। कंपनविहीन। जो काँपता न हो [को०]।

निष्प्रकारक
वि० [सं०] १. बिना प्रकार या विशेषता का। २. दे० 'निर्विकल्पक' [को०]।

निष्प्रकाश
वि० [सं०] जो साफ न हो। धुँधला (को०)।

निष्प्रचार
वि० [सं०] १. जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सके। जिसमें गति न हो। न चल सकने योग्य। २. केंद्रित किया हुआ। एक स्थान पर स्थिर किया हुआ। जैसे, मन (को०)।

निष्प्रतिकार, निष्प्रतीकार
वि० [सं०] १. जिसका कोई उपाय न हो सके। ला इलाज। २. जिसे रोका न जा सके। प्रतिबंध- हीन [को०]।

निष्प्रतिग्रह
वि० [सं०] दान या उपहार आदि न लेनेवाला [को०]।

निष्प्रतिघ
वि० [सं०] निर्बंध। अबाध [को०]।

निष्प्रतिभ
वि० [सं०] जिसमें प्रतिभा न हो। मंदबुद्धि। २. सहानुभूति न रखनेवाला। ३. जिसमें तड़क भड़क न हो। दोप्तिशून्य [को०]।

निष्प्रतीप
वि० [सं०] १. नाक की सीध में देखनेवाला। जो इधर उधर न देखे। २. उदासीन। जैसे, दृष्टि [को०]।

निष्प्रपंच
वि० [सं० निष्प्रपञ्च] १. छलरहित। ईमानदार। २. विस्तारहीन [को०]।

निष्प्रभ
वि० [सं०] जिसमें किसी प्रकार की प्रभा या चमक न हो। प्रभाशून्य। तेजरहित।

निष्प्रयत्न
वि० [सं०] अकर्मण्य। काहिल। सुस्त [को०]।

निष्प्रयोजन (१)
वि० [सं०] १. प्रयोजन रहित। जिसमें कोई मतलब न हो। स्वार्थशून्य। जैसे, निष्प्रयोजन प्रीति। २. जिससे कुछ अर्थ सिद्ध न हो। ३. व्यर्थ। निरर्थक।

निष्प्रयोजन (२)
क्रि० वि० १. बिना अर्थ या मतलब के। २. व्यर्थ। फजूल।

निष्प्रवणि, निष्प्रवाण, निष्प्रवाणि
वि० [सं०] कोरा कपड़ा। एकदम नया कपड़ा [को०]।

निष्प्राण
वि० [सं०] प्राणरहित। मुरदा। मरा हुआ।

निष्प्रेही पु
वि० [सं० निस्पृह] जिसको किसी वस्तु की चाहन हो। किसी बात की इच्छा न रखनेवाला। उ०—चतुराई हरि ना मिलैं ये बातों की बात। निष्प्रेही निरधार को गाहक दीनानाथ।—कबीर (शब्द०)।

निष्फल (१)
वि० [सं०] १. जिसका कोई फल न हो। व्यर्थ। निरर्थक। बेफायदा। २. अंडकोशरहित। जिसके अंडकोश न हो। उ०—हे दुर्मति तूने मेरा रूप लेकर इस अकार्य कर्म को किया इसलिये तै निष्फल अर्थात् अंडकोशरहित हो जायगा।—गोपाल भट्ट (वाल्मीकि रामायण) (शब्द०)। ३. फलरहित। बिना फल का। ४. जो किसी कार्य का न हो। बेकार।

निष्फल (२)
संज्ञा पुं० धान का पयाल। पूला।

निष्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका रजोधर्म होना बंद हो गया हो। वूद्घा स्त्री। विशेष—जटाघर के मत से ५० वर्ष की अवस्था के उपरांत और सुश्रुत के मत से ५५ वर्ष की अवस्था के उपरांत स्त्रियाँ निष्फला हो जाती हैं।

निष्फलि
संज्ञा पुं० [सं०] अस्त्रों के निष्फल करने का अस्त्र। विशेष—वाल्मीकि के अनुसार जिस समय विश्वामित्र अपने साथ रामचंद्र के वन में ले गए थे उस समय उन्होंने रामचंद्र को और और अस्त्रों के साथ यह अस्त्र भी दिया था।

निष्फेन (१)
वि० [सं०] झाग या फेनरहित। जिसमें झाग न हो [को०]।

निष्फेन (२)
संज्ञा पुं० अफीम [को०]।

निसंक †
वि० [हिं०] दे० 'निश्शंक'। उ०—बावरी जो पै कलंक लग्यो तौ निसंक ह्वै क्यौं नहि अंक लगावति।—कविता को०, भा० १, पृ० १७९।

निसंग पु
वि० [सं० निस्सङ्ग] अकेला। एकाकी।

निसंबर, निसंबल पु
वि० [सं० निसम्बल] संबलविहीन। आश्रय वा आधारहीन। निराश्रय। उ०—(क) सुमिरु सनेह सों तू नाम रामरांय कौ। संबर निसंबर को सखा असहाय को।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४७५। (ख) गए राम सरन सबकौ भलौ।... पंगु अंध निरगुनी निसंबल जो न लहै जाँचे जलौ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३८६।

निसंस पु †
वि० [सं० नृशंसं] क्रूर। बेरहम। निर्दय।

निसँठ पु †
वि० [हिं० नि + सँठ (= पूँजी)] जिसके पास धन या पूँजी न हो। निर्धन। गरीब। उ०—साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला। निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला।— जायसी (शब्द०)।

निसँस पु
वि० [हिं० नि + साँस] जिसे साँस न आती हो। मृतप्राय। मुरदा सा।

निसँसना पु
क्रि० अ० [सं० नि?श्वसन] हाँफना। नि?श्र्वास लेना। उ०—खनहिं निसाँस बूड़ि जिउ जाई। खनहिं उठइ निसँसइ बउराई।—पदुमा०, पृ० ५३।

निस पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निशा'।

निसक
वि० [सं० नि?शक्त] अशक्त। कमजोर। दुर्बल। उ०— कहैं यहै श्रुति समृत सो यहै सयाने लोग। तीन दबावत निसक ही राजा पातक रोग।—बिहारी (शब्द०)।

निसकर पु †
संज्ञा पुं० [सं० निशाकर] चंद्रमा। चाँद।

निसचय पु †
संज्ञा पुं० [सं० निश्चय] दे० 'निश्चय'।

निसचै पु †
संज्ञा पुं० [सं० निश्चय] दे० 'निश्चय'।

निसत पु †
वि० [सं० नि?सत्य] असत्य। मिथ्या। उ०—जो जानै सत आपुहि जारै। निसत हिएँ सत करै न पारै।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२३।

निसतरना पु †
क्रि० अ० [सं० निस्तार] निस्तार पाना। छुटकारा पाना। छुट्टी पाना।

निसतार
संज्ञा पुं० [सं० निस्तार] दे० निस्तार।

निसतारना पु
क्रि० स० [सं० निस्तार + ना (प्रत्य०)] निस्तार करना। छुटकारा देना।

निसघोस पु †
क्रि० वि० [सं० निशा + दिवस] रात दिन। नित्य। सदा।

निसनेहा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नि?स्नेहा] दे० 'नि?स्नेहा'।

निसबत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० निस्बत] १. संबंध। लगाव। ताल्लुक। जैसे,—इन दोनों में कोई निसबत नहीं है। २. मँगनी। विवाह संबंध की बात। क्रि० प्र०—आना।—ठहरना। ३ तुलना। अपेक्षा। मुकाबला। जैसे,—(क) इसकी और उसकी क्या निसबत ? (ख) यह चीज उसकी निसबत अच्छी है। विशेष—उदाहरण 'ख' की कोटि के वाक्यों में 'निसबत' शब्द के पहले प्रायः फारसी का 'ब' उपसर्ग लगा देते हैं। जैसे,—इसकी बनिसबत वह कुछ बड़ा है। मुहा०—निसबत देना = तुलना करना। मुकाबला करना।

निसबत (२)
क्रि० वि० संबंध में। बाबत।

निसबती
वि० [अ० निस्बत + ई (प्रत्य०)] संबंधवाला। संबधी। रिश्ते का। यौ०—निसबती भाई = बहनोई।

निसयाना पु †
वि० [हिं० नि + सयाना ?] जिसकी सुध बुध खो गई हो। जिसके होश हवास ठिकाने न हों।

निसरना पु
क्रि० अ० [सं० नि?सरण] निकलना। बाहर होना। उ०—नव दसन निसरत बदन मँह जो दसन कली समान तें।—सीताराम (शब्द०)।

निसरमा पु
वि० [हिं०] दे० 'बेशरम'। उ०—कीधा कौन कीयातैं करमा। सिरजनहार न भज्यौ निसरमा।—रामानंद०, पृ० ६।

निसरवाना, निसराना
क्रि० स० [सं० नि?सारण] बाहर निकलवाना। बाहर निकालना। उ०—दृगनि खुभी खूठी खुभी निसराए निसरै न। चल चख चितवनि चित चुभी बिसराए बिसरै न।—स० सप्तक, पृ० २४८।

निसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वभाव। प्रकृति। २. रूप। आकृति। ३. दान। ४. सृष्टि। ५. परित्याग। त्याग (को०)। ६. विनि- मय (को०)। यौ०—निसर्गज, निसर्गसिद्ध = स्वाभाविक। निसर्गनिपुण = जनम का चतुर। निसर्गभिन्न = जो स्वभाव से ही भिन्न लगे। निसर्गविनीत = जो स्वभाव से ही नम्र हो।

निसर्गायु
संज्ञा स्त्री० [सं० निसर्गायुस] फलित ज्योतिष में एक प्रकार की गणना जिससे किसी व्यक्ति की आयु का पता लगाया जाता है।

निसवादला पु
वि० [सं० नि?स्वाद] [वि० स्त्री० निसवादली] स्वादरहित। जिसमे कोई स्वाद न हो।

निसवादली पु †
वि० स्त्री० [हिं० निसवादला] बिना स्वाद की। जिसमें कोई स्वाद न हो। उ०—जनक झूठ निसवादली कौन बात परि जाइ। तियसुख रति आरंभ की नहिं झूठयहि मिटाइ।—बिहारी (शब्द०)।

निसवादिल पु
वि० [हिं० निसवाद + इल (प्रत्य०)] स्वादहीन। बेश्वाद। उ०—ह्वै निसवादिल जात रसौ मन तेरे सुभाव मिठासहि पागै।—घनानद, पृ० २१।

निसवासर पु †
संज्ञा पुं० [सं० निशिवासर] रात और दिन।

निसवासर (२)
क्रि० वि० नित्य। सदा। हमेशा।

निसस पु †
वि० [सं० नि?श्र्वास] श्र्वासरहित। अचेत। बेहोश। उ०—निसस ऊभ मर लीन्हे सासा। भइ अधार जीवन की आसा।—जायसी (शब्द०)।

निसहाय
वि० [सं० निस्सहाय] दे० 'निस्सहाय'।

निसांत पु
संज्ञा पुं० [सं० निशान्त] गृह। घर। निशांत। अंतःपुर। उ०—निवृति, निसांत/?/रु उद्वसित, सरण, परुय, आवास।— नंद ग्रं०, पृ० १०८।

निसाँक †
वि० [सं० नि?शंक] १. बेखटके। निर्भय। बेखौफ। २. बेफिक्र। निश्चिंत।

निसाँस पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० निश्वास] ठंढी साँस। लँबी साँस।

निसाँस (२)
वि० बेदम। मृतकप्राय। उ०—खनहिं निसाँस बूड़ि जिउ जाई। खिनहिं उठै निसरै बौराई।—पदुमा०, पृ० ५३।

निसाँसा †
वि० [हिं० नि + साँस] [वि० स्त्री० निसाँसी] जिसका श्वास न चलता हो। श्वास-प्रश्वास रहित। उ०—अब हौं मरौं निसाँसी हिये न आवै साँस। रोगिया की को चालै बैदहि जहाँ उपास।—जायसी (शब्द०)।

निसा पु (१)
संज्ञा स्त्री० [निशाखातिर ?] संतोष। तृप्ति। उ०— ह्वै है तब निसा मेरे लोचन चकोरनि की जब वह अमेल आनन इंदु देखिहौं।—मतिराम (शब्द०)। मुहा०—निसा भार = जी भर के। खूब अच्छी तरह। उ०— आज निसा भरि प्यारे निसा भरि कीजिए कान्हर केलि खुसी मैं।—ठाकुर (शब्द०)।

निसा पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० निशा] दे० 'निशा'।

निसा पु † (३)
संज्ञा पुं० [अ० नश्शह्] दे० 'नशा'।

निसा (४)
संज्ञा स्त्री० [अ०] औरत। महिला। स्त्री [को०]।

निसाकर पु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। निशाकर।

निसाखातिर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'निशाखातिर'।

निसाचर पु
संज्ञा पुं० [सं० निशाचर] दे० 'निशाचर'।

निसाट †
संज्ञा पुं० [सं० निशाट] निशाचर। दे० 'निशाट'। उ०— पड़ झाट खगे द्रढ घाट पगे। जुधकाट निसाट निराट जगे।— रा० रू०, पृ० १९८।

निसाद पु
संज्ञा पुं० [सं० निषाद] १. भंगी। मेहतर। २. दे० 'निषाद'।

निसान पु (१)
संज्ञा पुं० [फा़० निशान] दे० 'निशान'।

निसान (२)
संज्ञा पुं० [सं० नि?सान] नगाड़ा। धौसा। उ०—बीस सहस घुंमरहि निसाना। गुलकंचन फेरहि असमाना।—जायसी (शब्द०)।

निसानन †पु
संज्ञा पुं० [सं० निशानन] संध्या का समय। प्रदोष काल।

निसाना पु
संज्ञा पुं० [फा़० निशाना] दे० 'निशाना'।

निसानाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० निशानाथ] दे० 'निशानाथ'।

निसानी पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० निशानी] दे० 'निशानी'।

निसापति पु
संज्ञा पुं० [सं० निशापति] दे० 'निशापति'।

निसाफ पु †
संज्ञा पुं० [अ० इन्साफ] न्याय। इनसाफ।

निसार (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. निछावर। सदका। उतारा। २. मुगलों के राजत्व काल का एक सिक्का जो चौथाई रुपए या चार आने मूल्य का होता था।

निसार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह। २. सहोरा या सोनापाठा नाम का वृक्ष।

निसार पु (३) †
वि० [सं० निस्सार] दे० 'निस्सार'।

निसार † (४)
संज्ञा पुं० [सं० नि?स्सरण, हिं० निसरना] निकलने या बाहर जाने का रास्ता। यौ०—निसार पैसार = निर्गम और प्रवेशपथ।

निसारक
संज्ञा पुं० [सं०] शालक राग का एक भेद।

निसारत पु
संज्ञा पुं० [सं० निशा + रत] रात में होनेवाली रति। रात्रिकालीन रति। उ०—बैठी गुर जन साथ मैं लखी अचानक लाल। नैन इसारन सौं कही सैन निसारत बाल।— स० सप्तक, पृ० ३७९।

निसारना †
क्रि० स० [सं० नि?सरण] निकालना। बाहर करना।

निसारा
संज्ञा स्त्री० [सं० नि?सारा] केले का पेड़।

निसावरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कबूतर।

निसास पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नि? श्र्वास] गहरी या ठंढी साँस।

निसास पु (२)
वि० [हिं० नि (प्रत्य०) + साँस] विगतश्वास। बेदम। उ०—गगन धरति जल बूड़ि गइ बूड़त होइ निसास। पिय पिय चातक जोहि री मरै सेवाति पियास।—जायसी (शब्द०)।

निसासी पु
वि० [सं० नि?श्र्वास] जिसका साँस न चलता हो। बेदम।

निसिंधु
संज्ञा पुं० [सं० निसिन्धु] सम्हालू नाम का पेड़।

निसि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० निशि] १. दे० 'निशि'। २. एक वृत्त का नाम। इसके प्रत्येक चरण में एक भगण और एक लघु (/?/) होता है।

निसिकर पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिकर] दे० 'निशिकर' या 'निशाकर'।

निसिचर पु †
संज्ञा पुं० [सं० निशिचर] दे० 'निशाचर'। उ०— निसिचर निकर फिरहिं बन माँही।—मानस, ३। २४।

निसिचारो पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिचारी] निशाचर। राक्षस।

निसिदिन पु
क्रि० वि० [सं० निशिदिन] १. रातदिन। आठो पहर। २. सदा। सर्वदा। नित्य। हमेशा।

निसिनाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिनाथ] दे० 'निशिनाथ' या 'निशानाथ'।

निसिनाह पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिनाथ] चंद्रमा।

निसि निसि
संज्ञा स्त्री० [सं० निशि निशि] अर्धरात्रि। निशीथ। आधी रात। उ०—निसि निसि निशिथ निशाह निशि होन लगी अधरात। कौन चलै सखि सोय रहु जैहों उठि परभात।—नंददास (शब्द०)।

निसिपति पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिपति] चंद्रमा।

निसिपाल पु
संज्ञा पुं० [निशिपाल] चंद्रमा।

निसिमनि पु
संज्ञा पुं० [सं० निशामणि] चंद्रमा।

निसिमुख पु
संज्ञा पुं [सं० निशामुख] दे० 'निशामुख'।

निसियर पु
संज्ञा पुं० [सं० निशिकर] चंद्रमा। उ०—अनु धनि तू निसियर निसि माहाँ। हौं दिनिअर जेहि कै तू छाँहाँ।— जायसी (शब्द०)।

निसियाना पु (१) †
वि० [हिं० नि + सयाना ?] जिसकी सूधबुध खो गई हो। जिसके होश हवास ठिकाने न हों। उ०—जनहु मानि निसियानी बसी। अनि बेसँभार फलि जनु अरसी।— जायसी (शब्द०)।

निसिवासर पु
क्रि० वि० [सं० निशि + वासर] रातदिन। सदा। सर्वदा। नित्य।

निसीठी
वि० [सं० नि + हिं० सीठी] जिसमें कुछ तत्व न हो। नि?सार। नीरस। थोथा। उ०—तुम बातैं निसीठी कहौ रिस में मिसरी ते मिठी हमैं लागती हैं।—पझाकर (शब्द०)।

निसीथ पु
संज्ञा पुं० [सं० निशीथ] दे० निशीथ।

निसील पु
वि० [सं० नि?शील] शीलरहित। उ०—नीच निसील निरीस निसंकी।—मानस, २। २९८।

निसुंधु
संज्ञा पुं० [सं० निसुन्धु] प्रह्नाद के भाई ह्नाद के पुत्र का नाम।

निसुंभ
संज्ञा पुं० [सं० निशुभ्भ] दे० 'निशुंभ'।

निसु पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० निस] दे० 'निशा'।

निसुका पु † (१)
वि० [सं० निस्वक अथवा नि?शुक] १. निर्धन। दरिद्र। गरीब। २. कमजोर। असमर्थ। निकम्मा। ३. निस्तेज। उ०—रहैं निगोड़े नैन डिगि गहैं न चेत अचेत। हौं कसु कै रिस केकरौं ये निसुके हँसि देत।—बिहारी (शब्द०)। विशेष—इस शब्द का प्रयोग स्त्रियाँ प्रायः 'निगोड़ा' शब्द की भाँति करती हैं।

निसूदक
वि० [सं०] हिंसा करनेवाला। हिंसक।

निसूदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसा करना। २. वध करना।

निसूदन (२)
वि० मारने या वध करनेवाला [को०]।

निसृत
वि० [सं० नि?सृत] दे० 'नि?सृत'।

निसृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ।

निसृष्ट (१)
वि० [सं०] १. छोड़ा हुआ। जो छोड़ दिया गया हो। २. मध्यस्थ। जो बीच मैं पड़कर कोई बात करे। ३. भेजा हुआ। प्रेरित। ४. दिया हुआ। दत्त। ५. अर्पित किया हुआ।

निसृष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दैनिक भृति। रोजाना दी जानेवाली मजदूरी (कौटि०)।

निसृष्टार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १.तीन प्रकार के दूतों में से एक दूत। वह दूत जो दोनों पक्षों का अभिप्राय अच्छी तरह समझकर सब प्रश्नों का उत्तर दे देता और कार्य सिद्ध कर लेता है। २. वह मनुष्य जो धन के आयव्यय और कृषि तथा वाणिज्य की देखरेख के लिये नियुक्त किया जाय। ३. वह मनुष्य जो धीर और शूर हो, अपने मालिक का काम तत्परता से करता रहे और अपना पौरुष प्रकट करे। यौ०—निसृष्टार्थदूतिका, निसृष्टार्थदूती = वह दूती जो नायक और नायिका की बातों को सुन समझकर अपनी बुद्धि से कार्य- साधन करे।

निसेध पु
संज्ञा पुं० [सं० निषेध] दे० 'निषेध'। उ०—का करतव्य निसेध/?/'गिरिधारन' कोऊ नहीं पहचाने।— पोद्दार अभि/?/पृ० ४९२।

निसेनिका पु
संज्ञा स्त्री० [नि?श्रेणिका] सीढ़ी। सोपान। उ०— नाभी सर त्रिवली निसेनिका रोमराजि सैवल छबि पावति।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४१५।

निसेनी †
संज्ञा स्त्री० [सं० नि?श्रेणी] सीढ़ी। जीना। सोपान। उ०—नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी। ज्ञान विराग भगति सुभ देनी।—मानस, ७। १२१।

निसेष पु
वि० [सं० नि?शेष] दे० नि?शेष'। उ०—काम क्रोध अरु लोभ मोह मद राग द्रेष निसेष करि परिहरु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६२।

निसेस पु
संज्ञा पुं० [सं० निशेष] चंद्रमा।

निसैनी
संज्ञा स्त्री० [सं० नि?श्रेणी] दे० 'निसेनी'।

निसोग पु
वि० [सं० नि?शोक] जिसे कोई शोक या चिंता न हो।

निसोच पु
वि० [सं० नि?शोच] चिंतारहित। निश्चित। बेफिक्र। उ०—सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।—मानस, २। २४१।

निसोचु पु
वि० [सं० नि?शोच] दे० 'निसोच'। उ०—तुलसी की साहसी सराहिए कृपाल नाम के भरोसे परिनाम को निसोचु हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० २१७।

निसोत (१)
वि० [सं० नि?संयुक्त] जिसमें और किसी चीज का मेल न हो। शुद्ध। निरा। उ०—(क) तौ कत त्रिविध सूल निस वासर सहते विपति निसोती।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रीझत राम सनेह निसोते। को जग मंद मलिन मति मोते।— तुलसी (शब्द०)।

निसोत (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० निसोथ] दे० 'निसोथ'।

निसोत्तर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निसोत'।

निसोथ
संज्ञा स्त्री० [सं० निसृता] एक प्रकार की लता जो प्रायः सारे भारत के जंगलों में और पहाड़ों पर ३००० फुट की ऊँचाई तक पाई जाती है। विशेष—इसके पत्ते गोल और नुकीले होते हैं और इसमें गोल फल लगते हैं। यह तीन प्रकार की होती है—सफेद, काली और लाल। सफेद निसोथ में सफेद रंग के, काली मे कालापन लिए बैगनी रंग के और लाल के फल कुछ लाल रंग के होते होते हैं। सफेद निसोथ के पत्ते और फल अपेक्षाकृत कुछ बड़े होते है और वैद्यक में वही अधिक गुणाकारी भी मानी जाती है। भारत में बहुत प्राचीन काल से वैद्य लोग इसका व्यवहार करते आए हैं और इसका जुलाब सबसे अच्छा समझते हैं। औषध के काम के लिये बाजार में इसकी जड़ तथा डंठलों के कठे हुए टुकड़े मिलते हैं। वैद्यक में इसे गरम, चरपरी, रूखी, रेचक और कफ, सूजन तथा उदर रोगों को दूर करनेवाली माना है। पर्या०—त्रिवृत्। सूबहा। त्रिपुटा। त्रिभंडी। रेचनी। सरा। सहा। सरसा। रोचनी। मालविका। श्यामा। मसूरी। अर्धचंद्रा। विदला। सुषेणी। कालिंगिका। कालमेषी। काली। त्रिवेला। त्रिवृत्तिका। सारा। निसृता।

निसोधु पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० सोध या सुध] १. सुध। खबर। २. सँदेसा। कहलाया हुआ समाचार।

निस्
उप० [सं०] एक उपसर्ग। संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार इस उपसर्ग का 'स' 'रु' 'विसर्ग', 'श' और 'ष' में परिवर्तित हो जाता है। जैसे, निर्मक्षिक, नि?संग, निश्चक्र, निष्काम। हिंदी में इसका रूप 'निह' 'निहि' भी मिलता है। जैसे, निहकाम, निहचिंत, निहिचय आदि।

निस्की
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का रेशम का कीड़ा जिसे निस्तरी भी कहते हैं।

निस्केवल
वि० [सं० निष्केवल] बेमेल। शुद्ध। निर्मल। खालिस। (बोलचाल)। उ०—उमा जोग जप दान तप नाना ब्रत मख नेम। राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निस्केवल प्रेम।— तुलसी (शब्द०)।

निस्तंतु
वि० [सं० निस्तन्तु] १. जिसके कोई संतान न हो। संतति- रहित। २. तंतुहीन।

निस्तंद्र, निस्तंद्रि
वि० [सं० निस्तन्द्र, निस्तन्द्रि] १. जिसमें आलस्य न हो। निरालस्य। २. बलवान्। मजबूत।

निस्तत्व
वि० [सं० निस्तत्त्व] जिसमें कोई तत्व न हो। निस्सार।

निस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दवा की गोली। वटिका [को०]।

निस्तब्ध
वि० [सं०] १. जो गड़ या जम सा गया हो। जो हिलता डोलता न हो। जिसमें गति या व्यापार न हो। २. जड़वत्। निश्चेष्ट।

निस्तब्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्तब्ध होने का भाव। खामोशी। २. जरा भी शब्द न होने का भाव। सन्नाटा।

निस्तमस्क
वि० [सं०] अंधकारहीन [को०]।

निस्तर पु
संज्ञा पुं० [सं० निस्तार] छुटकारा। निस्तार। उ०— जरै देहु दुख जरौं अपारा। निस्तर पाइ जाउँ एक बारा।— जायसी (शब्द०)।

निस्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निस्तार। छुटकारा। उद्धार। २. पार जाने की क्रिया या भाव।

निस्तरना पु †
क्रि० अ० [सं० निस्तार] निस्तार पाना। पार होना। मुक्त होना। छुट जाना। उ०—नाथ जीव तव माया मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहि छोहा।—तुलसी (शब्द०)।

निस्तरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का रेशम का कीड़ा जिसका रेशम बंगाल के 'देशी' कोड़ों के रेशम की अपेक्षा कुछ कम मुलायम और चमकीला होता है। विशेष—इसके तीन भेद होते हैं—मदरासी, सोनामुखी और कृमि।

निस्तर्क्य
वि० [सं०] जिसका तर्क करना संभव न हो। अतर्क्य [को०]।

निस्तर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] वध। हत्या [को०]।

निस्तल
वि० [सं०] १. गोल आकार का। २. बिना पेंदी का। ३. चंचल। ३. अतल। गहरा। तलहीन। उ०—शीतल सुख मेरे तट की निस्तल निझरी, छबि विभावरो। अनामिका, पृ० १४४।

निस्तला
संज्ञा पुं० [सं०] वटिका। गोली [को०]।

निस्तार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पार होने का भाव। २. छुटकारा। मोक्ष। ३. बचत। बचाव। उद्धार। ४. अभीष्ट की प्राप्ति। ५. साधन। उपाय [को०]।

निस्तारक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० निस्तारिका] निस्तार करनेवाला। बचानेवाला। छुड़ानेवाला।

निस्तारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निस्तार करना। बचाना। छुड़ाना। २. पार करना। ३. जीतना। पराभूत करना।

निस्तारन पु †
वि० [सं० निस्तारण] दे० 'निस्तारण'।

निस्तारना पु †
क्रि० स० [दे० निस्तर + ना (प्रत्य०)] छुड़ाना। मुक्त करना। उद्धार करना।

निस्तार बीज
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वह उपाय या काम जिससे मनुष्य की इस संसार तथा जन्म, मरण आदि से मुक्ति हो जाय। जैसे, भगवान् के नाम का स्मरण कीर्त्तन, अर्चन, पादसेवन, वंदन, चरणोदक पान, विष्णु के मंत्र का जप आदि। विशेष—पुराणों में लिखा है कि कलियुग में जब लोग तपोहीन हो जायेगे तब इन्हीं सब कामों से उनकी मुक्ति होगी।

निस्तारा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निस्तार'।

निस्तिमिर
वि० [सं०] अंधकार से रहित या शून्य।

निश्तोर्ण
वि० [सं०] १. पार गया हुआ। जो तै या पार कर चुका हो। २. जिसका निस्तार हो चुका हो। छुटा हुआ। मुक्त।

निस्तुष
वि० [सं०] १. बिना भूसी का। जिसमें भूसी न हो। २. निर्मल।

निस्तुष क्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ।

निस्तुष रत्न
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक मणि।

निस्तुषित
वि० [सं०] १. जिसका छिलका उतार लिया गया हो। २. अलग किया हुआ। ३. छोटा या पतला किया हुआ [को०]।

निस्तेज
वि० [सं० निस्तेजस्] तेजरहित। जिसमें तेज न हो। अप्रभ। मलिन।

निस्तैल
वि० [सं०] तैलरहित। बिना तेल का। जिसमें तेल न हो।

निस्तोद, निस्तोदन
संज्ञा पुं० [सं०] चुभन। काटने, खुरचने, नोचने या डंक मारने जैसी पीड़ा [को०]।

निस्त्रप
वि० [सं०] निर्लज्ज। बेहया। बेशर्म।

निस्त्रिंश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खड्ग। २. तंत्र के अनुसार एक प्रकार का मंत्र। यौ०—निस्त्रिंशभृत = खड्गधारी।

निस्त्रिंश (२)
वि० [सं०] १. निर्दय। जिसमें दया न हो। २. तीस से अधिक [को०]।

निस्त्रिंशपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूहर।

निस्त्रुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।

निस्त्रैगुण्य
वि० [सं०] जो सत, रज और तम इन तीनों गुणों से रहित या अलग हो।

निस्त्रैणपुष्पिक
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरे का पेड़।

निस्नात पु
वि० [दे० निष्णत] दे० 'निष्णात'। उ०—कृती कुसल कोविद निपुन इन प्रबीन निस्नात।—अनेकार्थ, पृ० ३२।

निस्नेह (१)
वि० [सं० नि?स्नेह] १. जिसमें प्रेम न हो। २. जिसमें तेल न हो।

निस्नेह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का मंत्र।

निस्नेहफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] भटकटैया। कटेरी।

निस्पंद (१)
वि० [सं० निस्पन्द] जिसमें स्पंदन न हो। कंपरहित। स्थिर।

निस्पंद (२)
संज्ञा पुं० कंप। स्पंदन [को०]।

नित्पृह
वि० [सं०] जिसे किसी प्रकार का लोभ न हो। लालच या कामना आदि से रहित।

निस्पृहता
संज्ञा स्त्री० [सं०] निस्पृह होने का भाव। लोभ या लालसा न होने का भाव।

निस्पृहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निशिखा या कलिहारी नामक पेड़।

निस्पृही
वि० [सं० निस्पृह] दे० 'निस्पृह'।

निस्फ
वि० [अ० निस्फ़] अर्ध। आधा। दो बराबर भागों में से एक भाग।

निस्फल
वि० [सं० निष्फल] दे० 'निष्फल'। उ०—कबीर करनी आपनी कबहु न निस्फल जाय।—कबीर सा०, पृ० ८८।

निस्फोबँटाई
संज्ञा स्त्री० [अ० निस्फ़ + ई(प्रत्य०) + हिं० बँटाई] वह बँटाई जिसमें आधी उपज जमींदार और आधी आसामी लेता है। अधिया।

निस्बत
संज्ञा स्त्री० [अ० निसबत] दे० 'निसबत'।

निस्पंद
संज्ञा पुं० [सं० निस्पन्द] १. चूना। बहना। रिसना। भरना। २. नतीजा। परिणाम। ३. व्यक्त करना। जाहिर करना [को०]।

निस्पंदी
वि० [सं० निस्पन्दिन्] चूने या बहनेवाला। रिसनेवाला। झरनेवाला [को०]।

निस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. भात का माँड़। २. वह जो बह या झड़कर निकले। पसेव। ३. बहना। चूना।

निस्व
वि० [सं०] दरिद्र। गरीब। नि?स्व।

निस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। आवाज।

निस्वान
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'निश्वन'। २. तीर की सन्नाहट। तीर चलने से उत्पन्न घ्वनि (को०)।

निस्वास
संज्ञा पुं० [सं० नि?श्वास] दे० 'नि?श्वास'।

नि?संक
वि० [सं० निश्शङ्क] दे० 'निश्शंक'। उ०—खगकुल बैठत अंक पियत निस्संक नयन जल। धनि धनि हैं वे बीर धरयौ जिन यह समाधि बल।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १२५।

निस्संकोच
वि० [सं० निस्सङ्कोच] संकोच रहित। जिसमें संकोच या लज्जा न हो। बेधड़क।

निस्संग
वि० [सं० निस्सङ्ग] १. अकेला। एकाकी। जिसका कोई साथी न हो। २. जिसका किसी से लगाव न हो। निर्लिप्त [को०]।

निस्सतान
वि० [सं० निस्सन्तान] जिसे कोई संतान न हो। सततिरहित।

निस्संदेह (१)
क्रि० वि० [सं० निस्सन्देह] अवश्य। जरूर। बेशक। सचमुच।

निस्संदेह (२)
वि० जिसमें संदेह न हो।

निस्सत्व
वि० [सं०] दे० 'नि?सत्व'।

निस्सरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकलने का मार्ग या स्थान। २. निकलने का भाव या क्रिया। निकास।

निस्सान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निशान'। उ०—घुरत निस्सान तहँ गैब की झालरा, गैब के घंट का नाद आवै।—कबीर श०, भा०, पृ० ८८।

निस्सार
वि० [सं०] १. साररहित। जिसमें कुछ भी सार या गूदा न हो। २. जिसमें कोई काम की वस्तु न हो। निस्तत्त्व।

निस्सारित
वि० [सं०] निकाला हुआ। बाहर किया हुआ।

निस्सीम
वि० [सं०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। अपार। २. बहुत अधिक।

निस्सत
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार के ३२ हाथों में से एक। उ०— दोउ करत खंग प्रहार बारहि बार बहुत प्रकार के। तिनको कहत मैं नाम जो है हाथ मुख्य हथ्यार के। उद्भ्रांत भ्रांत प्रवृद्ध आकर विकर भिन्न अमानुषै। आविद्ध निर्मयदि कुल चितवहु निस्सृत रिपुरन दुषै।—रघुराज (शब्द०)।

निस्स्नेह
वि० [सं०] दे० 'निस्नेह'। यौ०—निस्नेहफला = श्वेत कंटकारी।

निस्स्पंद
वि० [सं० निस्स्पन्द] दे० 'निस्पंद'।

निस्स्पृह
वि० [सं०] दे० 'निस्पृह'।

निस्स्व, निस्स्वक
वि० [सं०] दे० 'नि? स्व'।

निस्स्वादु
वि० [सं०] १. जिसमें कोई स्धाई स्वाद न हो। २. जिसका स्वाद बुरा हो।

निस्स्वार्थ
वि० [सं०] स्वार्थ से रहित। जिसमें स्वयं अपने लाभ या हित का कोई विचार न हो।

निहंग
वि० [सं० नि?सङ्ग] १. एकाकी। अकेला। विवाह आदि न करनेवाला वा स्त्री से संबंध न रखनेवाला (साधु)। ३. नंगा। ४. बेहया। बेशरम।

निहंग (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार के वैष्णव साधु। २. अकेले रहनेवाला साधु।

निहंगम
वि० [हिं० निहंग] दे० 'निहंग'।

निहंग लाडला
वि० [हिं० निहंग + लाडला] जो माता पिता के दुलार के कारण बहुत ही उद्दंड और लापरवा हो गया हो।

निहंता
वि० [सं० निहन्तृ] [वि० स्त्री० निहंत्री] १. विनाशक। नाश करनेवाला। २. मारनेवाला। प्राण लेनेवाला।

निहअक्षर पु
वि० जिसका कभी किसी भी दशा में बिनाश न हो। अविनश्वर। उ०—इस निहअक्षर पुरुष को जो जनि सो मुक्ति मार्ग पावे।—कबीर म०, पृ० ३७८।

निहकर्मा †
वि० [सं० निष्कर्मन्] दे० 'निष्कर्मा'।

निहकर्मी पु †
वि० [हिं० निहकर्मा] दे० 'निष्कर्मीं'।

निहकलंक पु †
वि० [सं० निष्कलंङ्क] दे० 'निष्कलंक'।

निहकाम पु †
वि० [सं० निष्काम] दे० 'निष्काम'। उ०—नर नारी सब नर कहैं जब लग देह सकाम। कहै कबीर सो राम को जो सुमिरै निहकाम।—कबीर (शब्द०)।

निहकामी †
वि० [हिं०] दे० 'निष्कामी'। उ०—सहकामी सुमिरिन करै पावै उत्तम धाम। निहकामी सुमिरन करै पावें अविचल राम।—कबीर (शब्द०)।

निहगर्व पु
संज्ञा पुं० [हिं०] निरभिमान। अहंकाररहित। गर्वहीन। उ०—मुक्त भए संसार मैं बिचरत है निहगर्ब।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६६६।

निहचक †
संज्ञा पुं० [सं० नेमि + चक्र] पहिए के आकार का काठ का गोल चक्कर जो कूएँ की नीवँ में दिया जाता है। निवार। जमवट। जाखिम।

निहचय पु †
संज्ञा पुं० [सं० निश्चय] दे० 'निश्चय'।

निहचल पु †
वि० [सं० निश्चल] दे० 'निश्चल'।

निहचिंत पु
वि० [सं० निश्चिन्त] दे० 'निश्र्चित'। उ०—काग ऐसो निहचिंत कबहूँ नहिं सोवै।—जग० श०, पृ० ५६।

निहचै पु
संज्ञा पुं० [सं० निश्र्चय] दे० 'निश्र्चय'। उ०—निहचै भारत को अब नास।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४८४।

निहछल पु
वि० [सं० निश्छल] दे० 'निश्छल'। उ०—गोपालहिं रुचत सहज ब्यौहार। निहछल बिनु प्रपंच निरकृत्रिम सब विधि बिना बिकार।।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४८।

निहठा †
संज्ञा स्त्री० [सं० निष्ठा] लकड़ी का वह टुकड़ा जिसपर रखकर बढ़ई गढ़ने की चीजों को बसूले से गढ़ते हैं। ठीहा।

निहडर
वि० [हिं०] दे० 'निडर'। उ०—कोउ इक अंबर को गिरिवर कर धर बोलत तब। निहडर इहि तर रहौ गोप गोपी गाइन सब।—नंद० ग्रं०, पृ० २९।

निहत
वि० [सं०] १. फका हुआ। २. नष्ट। ३. मारा हुआ। जो मार डाला गया हो। ३. प्रविष्ट। संबद्ध। संलग्न (को०)।

निहततु पु
वि० [सं० निस्तत्त्व] दे० 'निस्तत्व'। उ०—तहाँ बेद कितेब कि गम नहीं निहततु शब्द सरूप देखा।—सं० दरिया, पृ० ७०।

निहतार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] काव्यगत एक दोष। दे० 'निहतार्थता'।

निहतार्थता, निहतार्थत्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक काव्यदोष। विशेष—जब किसी अनेकार्थक शब्द के अप्रचलित अर्थ का प्रयोग किया जाता है तब यह दोष माना जाता है।

निहत्था
वि० [हिं० नि + हाथ] १. जिसके हाथ में कोई शस्त्र न हो। शस्त्रहीन। उ०—हमारे साथ कई मनुष्य पैदल और निहत्थे थे।—शिवप्रसाद (शब्द०)। २. जिसके हाथ में कुछ न हो। खाली हाथ। निर्धन। गरीब।

निहनन
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। हनन। वध [को०]।

निहनना पु
क्रि० स० [सं० निहनन] मारना। मार डालना। उ०—तहेहिं कबंध दुहुन पर धायो। ताहि निहनि सुर लोक पठायो।—पझाकर (शब्द०)।

निहपाप पु †
वि० [सं० निष्पाप] दे० 'निष्पाप'।

निहफल पु †
वि० [सं० निष्फल] दे० 'निष्फल'।

निहरूप पु
वि० [हिं० निह (= नहीं) + सं० रूप] निराकार। अरूप। उ०—शब्द स्पर्शरु गंध है अरु कहियत रस रूप। देह कर्म तनमात्रा तू नहियत निहरूप।—चरणदास, पृ० २७९।

निहल †
संज्ञा पुं० [देश०] वह जमीन जो नदी के पीछे हट जाने से निकल आई हो। गगबरार। कछार।

निहलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह पुरुष जिसका यह सिद्धांत हो कि वस्तुओं का वास्तविक ज्ञान होना असंभव है क्योंकि वस्तुओं की सत्ता ही नहीं है। विशेष—ऐसे लोग वस्तुओं की वास्तविक सत्ता और उन वस्तुओं कै सत्तात्मक ज्ञान का निषेध करते हैं। २. रूस देश का एक दल। विशेष—यह पहले एक सामाजिक दल था जो प्रचालित वैवाहिक प्रथा तथा रीति रवाज और पैतृक शसन का विरोधी था पर पीछे एक राजनैतिक दल हो गया और सामाजिक और राजनैतिक नियंत्रित नियमों का घ्वंसक और नाशक बन गया। ३. इस दल का कोई आदमी।

निहली पु †
वि० [देश० निहल] किनारे की। कोनेवाली। उ०— निहली चितवनि ऐंचा तानी।—कबीर सा० पु० १५९८।

निहव
संज्ञा पुं० [सं०] पुकार करना। बुलाना। आह्वान [को०]।

निहशब्द पु
वि० [सं० नि?शब्द] दे० 'नि?शब्द'। उ०—है निहशब्द शब्द सौं कहेऊ। ज्ञानी सोई जो वह पद लहेऊ।—कबीर सा०, पृ० १००२।

निहसंसा पु
वि० [सं० नि?संशय] संदेहरहित। जिसे शंका न हो। उ०—नामहि गहै तेहि निहसंसा। नाम बिना बूड़े सब हंसा।—कबीर सा०, पृ० १००८।

निहाँ
वि० [फा़०] गुप्त। छिपा हुआ [को०]।

निहाई
संज्ञा स्त्री० [सं० निघाति; मि० फा़० निहाली] सोनारों और लोहारों का एक औजार जिसपर वे धातु को रखकर हथौड़े से कूटते या पीटते हैं। विशेष—यह लोहे का बना हुआ चौकोर होता है और नीचे की अपेक्षा ऊपर की ओर कुछ अधिक चौड़ा होता है। नीचे की ओर निहाई को एक काठ के टुकड़े में जोड़ देते हैं जिससे यह कूटते या पीटते समय इधर उधर हिलती डोलती नहीं। यह छोटी बड़ी कई आकार और प्रकार की होती है। यौ०—निहाई की थाली = वह थाली जो निहाई पर रखकर नकाशी गई हो।

निहाउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० निघाति] लोह का धन। उ०—सुरजै कीन्ह साँग पर घाऊ। परा खरग जनु परा निहाऊ।— जायसी (शब्द०)।

निहाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोह नामक जंतु। गोहटा। २. घड़ियाल। ३. झंझावात। तूफान (को०)।

निहानी (१)
वि० [फा़०] अंदरूनी। भीतर का छिपा हुआ। गुप्त। उ०—न पाया भेद इसरारे निहानी।—कबीर म०, पृ० ४४४।

निहानी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० निखनित्री] १. एक प्रकार की रुखानी जिसकी नोक अर्धचंद्राकार होती है और जिससे बारीक खुदाई का काम होता है। कलम। २. एक नोकदार औजार जिससे ठप्पे की लकीरों के बीच में भरा हुआ रंग खुरचकर साफ किया जाता है।

निहायत
वि० [अ०] अत्यंत। बहुत अधिक। जैसे, निहायत उम्दा चीज, निहायत बारीक काम।

निहाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० निर्धात] १. निहाई। २. चोट। प्रहार।

निहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुहरा। पाला। उ०—दंड एक रथ देखि न परा। जनु निहार महँ दिनमनि दुरा।—तुलसी (शब्द०)। २. ओस। ३. हिम। बरफ।

निहारु पु
संज्ञा पुं० [सं० निहार] दे० 'निहार'। उ०—चारु चंदन मनहु मरकत शिखर लसत निहारु। रुचिर उर उपवीत राजत पदिक गजमनि हारु।—तुलसी (शब्द०)।

निहारना
क्रि० स० [सं० निभालन (= देखना)] ध्यानपूर्वक देखना। टक लगाकर देखना। देखना। ताकना। उ०—(क) भयो चकोर सो पंथ निहारे। समुँद सीप जस नैन पसारे।— जायसी (शब्द०)। (ख) आँखड़ियाँ झाँई परी पंथ निहारि निहारि। जीभरियाँ छाला/?/, नाम पुकारि पुकारि।— कबीर (शब्द०)। (ग) प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहि। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहि।—तुलसी (शब्द०)। २. ज्ञान होना। जानना। समझना। उ०—प्रथम पूतना कंस पठाई अति सुंदर बपु धारयौ। घंसि कै गरल लगाय उरोजन कपट न कोउ निहारयौ।—सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना।—लेना।

निहारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का आकाशस्थ पदार्थ जो देखने में धुँधले रंग के धब्बे की तरह होता है। विशेष—दे० 'नीहारिका'।

निहारुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'नहरुआ'।

निहाल
वि० [फा़०] जो सब प्रकार से संतुष्ट और प्रसन्न हो गया हो। पूर्णकाम। उ०—(क) दास दुखी तो हरि दुखी आदि अंत तिहुँ काल। पलक एक में परगटै पल में करै निहाल।— कबीर (शब्द०)। (ख) गए जो सरन आरत के लीन्हें। निरखि निहाल निमिष मँह कीन्हें।—तुलसी (शब्द०)। २. समृद्ध। संपत्तिशाली। मालामाल (को०)।

निहालचा
संज्ञा पुं० [फा़० निहालचह्] छोटी तोशक या गद्दी जो प्रायः बच्चों के नीचे बिछाई जाती है।

निहाललोचन
संज्ञा पुं० [फा़० निहाल(= खुश, प्रसन्न या समृद्ध) ? + सं० लोचन ?] वह घोड़ा जिसकी अयाल (केसर) दो भागों में बटी हो, आधी दहिनी और आधी बाई ओर।

निहाली
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. गद्दा। तोशक। उ०—रेशम की नरम निहाली में सोना जो अदा से हँस हँसकर।—नजीर (शब्द०)। २. निहाई।

निहाव
संज्ञा पुं० [सं० निघाति] लोहे का घन।

निहिंसन
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। वध [को०]।

निहिचय पु †
संज्ञा पुं० [सं० निश्चय] 'निश्चय'।

निहिचिंत पु
वि० [सं० निश्चिन्त, हिं० निहचिंत] दे० 'निश्चिंत'।

निहित
वि० [सं०] १. स्थापित। रखा हुआ। २. जोर से कहा हुआ। गंभीर आवाज में कथित (को०) ३. समर्पित। सौंपा हुआ (को०)।

निहीन
वि० [सं०] नीच। पामर।

निहुँकना †
क्रि० अ० [हिं० नि + झुकना] झुकना।

निहुड़ना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'निहुरना'।

निहुड़ाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'निहुराना'।

निहुरना †
क्रि० अ० [हिं० नि + होड़न] झुकना। नवना। उ०—(क) यक से पूजा जौन बिचारा। यक से निहुरि निमाज गुजारा।—कबीर (शब्द०)। (ख) कुच अग्र नखच्छत नाह दियो सिर नाय निहारति यों सजनी। ससिसेखर के सिर ते सु मनों निहुरे ससि लेत कला अपनी।—ब्रह्म (शब्द०)। यौ०—निहुरे निहुरे = झुककर। मुहा०—निहुरे निहुरे ऊँट की चोरी = (१) असंभव कार्य। (२) ऐसी चालाकी जिसे सब जान जाएँ।

निहुराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० निठुराई] दे० 'निठुराई'।

निहुराना
क्रि० स० [हिं० निहुरना का प्रे० रूप] झुकाना। नवाना। उ०—भर झोली सिर निहुराए क्या बैठी हौ।— इंशाअल्ला (शब्द०)।

निहोर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'निहोरा'।

निहोरना
क्रि० स० [सं० मनोहार, हिं० मनुहार] १. प्रार्थना करना। विनय करना। उ०—(क) सुमिरि महेशहि कहइ निहोरी। विनती सुनहु सदा शिव मोरी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।—तुलसी (शब्द०)। (ग) तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहिं। देखउँ बेगि सो जतन करु सखा निहोरउँ तोहि। २. मनाना। मनौती करना। उ०—(क) देवता निहोरि महामारिन ते कर जोरे, भोरानाथ भोरे अपनी सी कहि ठई है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) ग्वालिन चली जमुन बहोरि। वाहि सब मिलि कहत आवहु कछू कहति निहोरि।—सूर (शब्द०)। (ग) जोरहु हुंकर भोरे से भाय निहोरत प्यारे पिया बड़भागी।—(शब्द०)। (घ) है तो भली घर ही जो रहो तुम यों कहि के ननदी हूँ निहोरेउ।—(शब्द०)। ३. कृतज्ञ होना। एहसान लेना। उ०—सोइ कृपाल केवटहि निहोरे। जेहि जग किय तिहु पग ते थोरे।—तुलसी (शब्द०)।

निहोरा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० मनोहार, हिं० मनुहार] १. अनुग्रह। एहसान। कृतज्ञता। उपकार। उ०—(क) क्या काशी क्या ऊसर मगहर हृदय राम बस मोरा। जो काशी तन तजै कबीरा रामहिं कौन निहोरा ? —कबीर (शब्द०)। (ख) सो कछु देव न मोहिं निहोरा। निज पन राखेहू जन मन चोरा।— तुलसी (शब्द०)। (ग) कहा दाता जो द्रवै न दीनहिं देखि दुखित कलिकाल। सूर स्याम को कहा निहोरो चलत बेद की चाल।—सूर (शब्द०)। २. बिनती। प्रार्थना। उ०—(क) मैं आपनि दिसि कीन निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) चितै रघुनाथ बदन की ओर। रघुपति सो अब नेम हमारो विधे सों करति निहोर।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना। ३. भरोसा। आसरा। आश्रय। आधार। उ०—रात दिवस निरभय जिय मोरे। लग्यों निहोर कंत जो तोरे।—जायसी (शब्द०)। (ख) नाक सँवारत आयो हौं गाकहिं नाहीं पिनाकहि नेकु निहोरो।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगना।

निहोरा † (२)
क्रि० वि० १. निहोरे से। कारण से। बदौलत। द्वारा। उ०—(क) तुम सारिखे संत प्रिय मोरे। धरउँ देह नहिं आन निहोरे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) तजउँ प्राण रघुनाथ निहोरे। दुहूँ हाथ मुद मोदक मेरे।—तुलसी (शब्द०)। २. के लिये। वास्ते। निमित्त। उ०—तुम बसीठ राजा की ओरा। साख होहु यहि भीख निहोरा।—जायसी (शब्द०)।

निह्नव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोपन। छिपाव। दुराव। २. एक प्रकार का साम। ३. अविश्वास। ४. शुद्धि। पवित्रता। प्रायश्चित्त। ५. बदमाशी। दुष्टता (को०)। ६. अपलाप। बहाना (को०)। ७. इनकार। अस्वीकार (को०)। यौ०—निह् नववादी = वह गवाह जो अंडबंड उत्तर दे।

निह्नवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्वीकरण। इनकार। २. अपलाप। बहाना। गोपन। दुराव। छिपाव [को०]।

निह् नुत
वि० [सं०] छिपाया हुआ।

निह् नुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिपाव। दुराव। गोपन।

निह्नाद
संज्ञा पुं० [सं०] शब्द। ध्वनि। निह्नदि।