विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/पूरा

विक्षनरी से

पूरा
वि० पुं० [सं० पूर्ण] [वि० स्त्री० पूरी] १. जो खाली न हो। भरा। परिपूर्ण। २. जिसका अंश या विभाग न किया गया हो अथवा जिसके टुकड़े या विभाग न हुए हों। समूचा। सोलह आना। समग्र। समस्त। सकल। ३. जिसमें कोई कमी या कसर न रह गई हो। पूर्ण। कामिल। जैसे, पूरा मर्द, पूरा अधिकार, पूरा दबाव आदि। क्रि० प्र०—पड़ना।—उतरना।—डालना।—होना। ४. भरपूर। यथेच्छ। काफी। बहुत। जैसे,—मेरे पास पूरा सामान है, डरने की कोई बात नहीं। मुहा०—किसी बात का पूरा = (१) जिसके पास कोई वस्तु यथेष्ट या प्रचुर हो। जैसे, विद्या का पूरा, बल का पूरा। (२) पक्का। दृढ़। मजबूत। अटल। जैसे, बात का पूरा, वादे का पूरा। किसी का पूरा पड़ना = कार्य पूर्ण हो जाना सामग्री न घटना। सामग्री की कमी से बाधा न आना। जैसे,— (क) मैं समझता हूँ कि इतनी सामग्री से तुम्हारा सब काम पूरा पड़ जायगा। (ख) जाओ, तुम्हारा कभी पूरा न पड़ेगा। ५. संपन्न। पूर्ण। सपादित। कृत। जिसके किए जाने में कुछ कसर न रह गई हो। जैसे, काम पूरा होना। (इसका व्यवहार प्रायः 'करना' क्रिया के साथ होता है।) क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—(कोई काम) पूरा उतरना = अच्छी तरह होना। जैसा चाहिए वैसा ही होना। जैसे—काम पूरा उतर जाय तो जानें। बात पूरी उतरना = ठीक निकलना। सत्य उतरना। सच होना। जैसा कहा गया हो वैसा ही होना। दिन पूरे करना = (१) समय बिताना। किसी प्रकार कालक्षेप करना। (२) किसी अवधि तक समय बिताना। जैसे, बनवास के दिन पूरे करना। (दिन) पूरे होना = अंतिम समय निकट आना। जैसे, अब उनके दिन पूरे हो गए। ६. तुष्ट। पूर्ण। जैसे,—हमारी इच्छाएँ पूरी हो गई।

पूराम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] विषाविल। वृक्षाम्ल। महाम्ल।

पूरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पूरी—१'। उ०—लुवुई पूरि सोहारी परी। एक ताती औ सुठि कोवरी।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३१३।

पूरिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] कचौड़ी [को०]।

पूरिका
संज्ञा [सं०] कचौड़ी।

पूरिणी
वि० स्त्री० [सं० पूरिन्] पूर्ण करनेवाली। तृप्त या तुष्ट करने वाली। उ०—फिर क्या तेरा धाम स्वर्ग है, जो तप बल से प्राप्त। होती है वासना पूरिणी वहीं अप्सरा प्राप्त।—हिम०, पृ० ५०।

पूरित
वि० [सं०] १. भरा हुआ। परिपूर्ण। लबालब। २. तृप्त। ३. गुणा किया हुआ। गुणित।

पूरिबला पु
वि० पुं० [हिं० पूरब] दे० 'पूरबला'। उ०—कामी कदे न हरि भजै, जपै न केसौ जाप। राम कह्याँ थैं जलि मरै, को पूरिबला पाय।—कबीर ग्रं०, पृ० ४१।

पूरिया
संज्ञा पुं० [देश०] षाड़व जाति का एक राग जो संध्या समय गाया जाता है। इसमें पंचम स्वर वर्जित है। किसी के मत से यह भैरव राग का पुत्र और किसी के मत से संकर राग है।

पूरियाकल्याण
संज्ञा पुं० [हिं० पूरिया + कल्याण (राग)] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसके गाने का समय रात का पहला पहर है।

पूरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूलिका, पूरिका] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध पकवान जिसे साधारण रोटी आदि की तरह महीन बेलकर खौलते घी में छान लेते हैं। २. मृदंग, तबले, ढोल आदि के मुँह पर मढ़ा हुआ गोल चमड़ा। क्रि० प्र०—चढ़ना।—चढ़ाना।—मढ़ना। ३. घास, ज्वार आदि की पूली।

पूरी (२)
वि० स्त्री० [हिं०] 'पूरा' शब्द का स्त्रीलिंग रूप। (मुहवरों आदि के लिये दे० 'पूरा'।)

पूरी (३)
वि० [सं० पूरिन्] पूरा करनेवाला। पूर्ण करनेवाला [को०]।

पूरीकरण
संज्ञा पुं० [हिं० पूरी + करना (= करना)] १. पूरा करने का भाव। २. पूर्णता। उ०—तुम्हारी प्रेरणा से मैं ध्वनित हो उठता हूँ, और उस ध्वनि की प्रेरणा से हमारी चिरतंन प्रणय कामनाएँ पूरीकरण में लीन हो जाती हैं।—चिंता, पृ० ३६।

पूरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य। २. वैराज मनु के एक पुत्र का नाम। ३. जह्नु के एक पुत्र का नाम। ४. एक राक्षस का नाम।

पूरुजित्
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

पूरुब ‡
संज्ञा पुं० [सं० पूर्व] दे० 'पूरब'।

पुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुष। २. आत्मा।

पूर्ण (१)
वि० [सं०] १. पूरा। भरा हुआ। परिपूर्ण। पूरित। २. जिसे इच्छा या अपेक्षा न हो। अभावशून्य। ३. जिसकी इच्छा पूर्ण हो गई हो। आप्तकाम। परितृप्त। ४. भरपूर। जितना चाहिए उतना। यथेष्ट। काफी। ५. समूचा। अखंडित। सकल। ६. समस्त। सारा। सब का सब। ७. सिद्ध। सफल। ८. जो पूरा हो चुका हो। समाप्त। जैसे,— उसका दंड काल पूर्ण हो गया। ९. बीता हुआ। व्यक्ति। अतीत (को०)। १०. शक्तिपूर्ण।

पूर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. एक गंधर्व का नाम। २. एक नाग का नाम। ३. बौद्ध शास्त्र के अनुसार मैत्रायणी के एक पुत्र का नाम। ४. जल। ५. विष्णु।

पूर्णअतीत
संज्ञा पुं० [सं०] ताल (संगीत) में वह स्थान जो 'सम अतीत' के एक मात्रा के बाद आता है। यह स्थान भी कभी कभी सम का काम देता है।

पूर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्गा। कुक्कुट। ताम्रचूड़। २. देवताओं की एक योनि। ३. चाष या चाख पक्षी (को०)। ४. दे० 'पूर्ण'।

पूर्णककुत
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णककुद्] कुहानदार बछड़ा। युवा बछड़ा। उ०—जब तक बछड़ा बड़ा नहीं हो जाता था अर्थात् उसकी पीठ पर डिल नहीं निकल आता या तबतक वह अजातककुत और युवा हो जाने पर पूर्णककुत कहलाता था।—संपूर्णानिंद अभि० ग्रं०, पृ० २४९।

पूर्णकाम (१)
वि० [सं०] १. जिसे किसी बात की कामना या चाह न रह गई हो। जिसकी सारी इच्छाएँ तृप्त हो चुकी हों। आप्तकाम। २. निष्काम। कामनाशून्य।

पूर्णकाम (२)
संज्ञा पुं० परमेश्वर।

पूर्णकाल आधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गिरवी जिसके रखने का समय पूरा हो गया हो।

पूर्णकालिक
वि० [सं० पूर्ण + कालिक] पूरे समय तक। पूरे समय का।

पूर्णकाश्यप
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धशास्त्रों के अनुसार एक प्रसिद्ध तीर्थिक। भगवान् बुद्ध ने जिन छह तीर्थिकों को पराजित किया था उनमें एक ये भी थे। विशेष—बुद्ध से पहले ही इन्होंने अपने मत का प्रचार आरंभ कर दिया था और बहुत से लोग उनके अनुयायी हो गए थे। साधारण लोगों से लेकर मगध के राजा तक इनपर भक्ति और श्रद्धा रखते थे। भूटान में मिले हुए एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार ये उपर्युक्त छहों तीर्थिकों में प्रधान थे। ये कोई कपड़ा नहीं पहनते, थे, नंगे बदन घूमा करते थे, ये कहते थे, जगत् अनंत भी है और सांत भी, अक्षय भी है, क्षयशील भी, असीम भी है और ससीम भी, चित्त और देह भिन्न भी है और अभिन्न भी। परलोक का अस्तित्व और अनस्तित्व दोनों ही है। पर जन्म नहीं है, इस जन्म में ही जीव का शेष, ध्वंस या मृत्यु होती है। मरने के बाद फिर जन्म नहीं होता। शरीर चार भूतों से ही—क्षिति, अप, तेज और मरुत् से बना है। मृत्यु के पश्चात् वह क्रम से पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में मिल जाता है। उनके मत से यही परमतत्व था। बुद्ध से पराजित होने का इन्हें इतना दुःख हुआ था कि ये गले में बालू से भरा घड़ा बाँधकर डूब मरे। श्रावस्ती और जेतवन में बुद्ध के साथ इनकी मूर्ति भी पाई गई है।

पूर्णकुंभ
संज्ञा पुं० [पूर्णकम्भ] १. भरा हुआ घड़ा। २. पानी से भरा हुआ वह घड़ा जो शुभ की दृष्टि से दरवाजे पर रखा जाता है। ३. दीवार में बना हुआ घड़े के आकार का छेद। ४. युद्ध की एक विशेष विधि [को०]।

पूर्णकोशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता।

पूर्णकोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कचौरी। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का पकवान जो जौ के आटे का बनता था।

पूर्णकोष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।

पूर्णगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूरन पुरी। २. वह स्त्री जिसे शीघ्र प्रसव होने की संभावना हो। वह स्त्री जिसे शीघ्र ही संतान होनेवाली हो।

पूर्णँचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णचन्द्र] पूर्णिमा का चंद्रमा। अपनी सब कलाओं से युक्त चंद्रमा। यौ०—पूर्णचंद्रनिभानन = चंद्रमा की तरह से मुखवाला।

पूर्णतया
क्रि० वि० [सं०] पूरी तरह से। पूर्ण रूप से।

पूर्णतः
क्रि० वि० [सं० पूर्णतस्] पूरे तौर से। पूर्णतया।

पूर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्ण का भाव। पूर्ण होना।

पूर्णतूण
वि० [सं०] जिसका तरकस बाणों से पूर्ण हो [को०]।

पूर्णदर्व्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वैदिक क्रिया। २. पूर्णिमा।

पूर्णपरिवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जीव जो अपने जीवन में अनेक बार अपना रूप आदि बदलता हो। जैसे, तितली।

पूर्णपर्वेदु
संज्ञा पुं० [सं० पुर्णपर्वेन्दु] पूर्णिमा। पूर्णमासी।

पूर्णपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूरा पात्र। भरा हुआ पात्र। २. पुत्रजन्मादि के उत्सव के समय पारितोषिक या इनाम के रूप में मिले हुए वस्त्र, अलंकार आदि। २. सुसंवाद लानेवालों को मिलनेवाला उपहार। अच्छी सूचना लाने पर मिलनेवाला पुरस्कार। ४. वह घड़ा जो प्राचीन काल में चावलों से भरकर होम या यज्ञ के अंत में ब्रह्मा को दक्षिणा रूप में दिया जाता था। इसमें साधारणतः २५६ मुट्ठी चावल हुआ करता था।

पूर्णप्रज्ञ (१)
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि में कोई कमी या त्रुटि न हो। पूर्ण ज्ञानी। बहुत बुद्धिमान्।

पूर्णप्रज्ञ (२)
संज्ञा पुं० पूर्णप्रज्ञदर्शन के कर्ता मध्वाचार्य। विशेष—ये वैष्णाव मत के संस्थापक आचार्यों में माने जाते है। वेदांतसूत्र पर इन्होंने 'माध्वभाष्य' नामक द्वैतक्षप्रतिपादक भाष्य लिखा है। हनुमान और भीम के बाद ये वायु के तीसरे अवतार माने गए हैं। अपने भाष्य में इन्होनें स्वयं भी यह बात लिखी है। इनका एक नाम आनंदतीर्थ भी है।

पूर्णदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार वह दर्शन जिसके प्रवर्तक पूर्णप्रज्ञ या मध्यचार्य हैं। विशेष—इस दर्शन का आधार वेदांतसूत्र और उसपर रामानुज कृत भाष्य है। इसके अधिकतर सिद्धांत रामानुज दर्शन के सिद्धांती से मिलते हैं। दोनों का मुख्य अंतर ईश्वर और जीव के भेदाभेद के विषय में है । इस संबंध में रामानुज दर्शन का भेद, अभेद और भेदाभेद सिद्धांत इस दर्शन को स्वीकार नहीं है। इसके मत से से जीव और ईश्वर में किसी प्रकार का सूक्ष्म या स्थूल अभेद नहीं है, किंतु स्पष्ट भेद है। उनका संबंध शरीरात्म भाव का नहीं है बल्कि सेब्य सेवक भाव का है। अंतर्यामी होने के कारण जीव ईश्वर का शरीर नहीं है, बल्कि उसका सेवक और अधीन है। ईश्वर स्वतंत्र तत्व ओर जीव अस्वतंत्र तत्व और ईश्वरायत्त है। इस दर्शन के मत से पदार्थ के तीन भेद हैं—चित् (जीव), अचित् (जड़) और ईश्वर। चित् जीवपदवाच्य, भौक्ता, असंकुचित, अपरिच्छिन्न, निर्मल ज्ञानस्वरूप, नित्य, अनादि और कर्मरूप अविद्या से ढँका हुआ है। ईश्वर का आराधन और उसकी प्राप्ति उसका स्वभाव है। (आकार में) वह बाल की नोक के सौंवें भाग के बराबर है। अचित् पदार्थ दृश्यपदवाच्य, त्रोग्य, अचेतनस्वरूप और विकारशील हैं। फिर भोग्य, भोगोपकरण और भोगायतन या भोगाधार रूप से इसके भी तीन भेद हैं। ईश्वर हरिपदवाच्य, सबका नियामक, जगत् का कर्ता, उपादान, सकलांतर्यामी, अपरिच्छिन्न और ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेज आदि गुणों से संपन्न है। इस दर्शन के अनुसार यह निखिल जगत् अनंत समुद्रशायी भगवान् विष्णु से उत्पन्न हुआ है। चित् और अचित् संपूर्ण पदार्थ उनके शरीररूप हैं। पुरुषोत्तम, वासुदेवादि उनकी संज्ञाएँ है। उपासकों को यथोचित फल देने के लिये लीलावश वे पाँच प्रकार की मूर्तियाँ धारण करते हैं। प्रथम अर्चा अर्थात् प्रतिमादि, द्वितीय विभव अर्थात् रामादि अवतार, तृतीय बासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये चार संज्ञाक्रांत व्यूह, चतुर्थ सूक्ष्म और संपूर्ण वासुदेव नामक परब्रह्म पंचम अंतर्यामी सकल जीवों के नियंता उपासक क्रम से पूर्व मूर्ति की उपासना द्वारा पापक्षय करके परमूर्ति की उपासना का अधिकारी होता है। अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग नाम से भगवान् की उपासना के भी पाँच प्रकार हैं। देवमंदिर का मार्जन, अनुलेपन आदि अभिगमन है; गंध पुष्पादि पूजा के उपकरणों का आयोजन उपादान; पूजा इज्या; अर्थानुसंधान के सहित मंत्रजप, स्तोत्रपाठ, नामकीर्तन ओर तत्व प्रतिपादक शास्त्रों का अभ्यास स्वाध्याय, और देवता का अनुसंधान योग है। इन उपासनाओं के द्वारा ज्ञानलाभ होने पर भगवान् उपासक को नित्यपद प्रदान करते हैं। इस पद को प्राप्त होने पर भग- वान् का यथार्थ रूप में ज्ञान होता है और फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। पूर्णप्रज्ञ के मत से भगवान् विष्णु की सेवा तीन प्रकार की है अंकन, नामकरण और भजन। गरम लोहे से दागकर शरीर पर शंख, चक्र आदि के चिह्न उत्पन्न करना अंकन है; पुत्र पौत्रादि के केशव नारायण आदि नाम रखना नामकरण। भजन के कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार हैं। फिर इनके भी कई गई भेद हैं,—कायिक के दान, परित्राण और परिरक्षण, वाचिक के सत्य, हित प्रिय और स्वाध्याय, और मानसिक के दया, स्पृहा और श्रद्धा।

पूर्णबीज
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू।

पूर्णभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग जिसका उल्लेख महाभारत में है।

पूर्णमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।

पूर्णमानस
वि० [सं०] संतुष्ट। परितुष्ट [को०]।

पूर्णमास (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णमास्] १. पूर्णिमा। २. सुर्य। ३. चंद्रमा।

पूर्णमास (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक योग जो पूर्णिमा को किया जाता था। पौर्णमास योग। २. धाता का एक पुत्र जो उसकी अनुमति नाम की स्त्री से उत्पन्न हुआ था।

पूर्णमासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमास की अंतिम तिथि। शुक्लपक्ष का अंतिम या पंद्रहवाँ दिन। वह तिथि जिसमें चंद्रमा अपनी सारी कलाओं से पूर्ण होता है। पूर्णिमा।

पूर्णमुख
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग जो जनमेजब के सर्पसत्र में जलाया गया था।

पूर्णमैत्रायनीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध भगवान् के अनुचरों में से एक। विशेष—ये पश्चिम भारत के सुरपाक नामक स्थान में रहते थे। सुत्र का अभ्यास करनेवाले बौद्ध इनकी उपासना करते थे।

पूर्णयोग
संज्ञा पुं० [सं०] बाहुयुद्ध का एक भेद। विशेष—महाभारत के अनुसार भीम और जरासंध में यही बाहुयुद्ध हुआ था।

पूर्णरथ
संज्ञा पुं० [सं०] पूरा वीर। पूर्ण यौद्धा [को०]।

पूर्णलक्ष्मीक
वि० [सं०] श्री और संपत्ति से संपन्न [को०]।

पूर्णवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णवर्मन्] मगध का एक बौद्ध राजा जो सम्राट् अशोक के वंश में अतिम था। विशेष—गौड़राज शशांक ने बोधिगया के जिस बोधिवृक्ष को नष्ट कर दिया था उसे इसने फिर से संजीवित किया। ह्वेन- सांग के भ्रमणवृत्तांत से ज्ञात होता है कि उसके आगमन के पहले ही यह सिंहासन पर बैठ चुका था।

पूर्णवर्ष
वि० [सं०] पूरे बीस वर्ष की आयु का [को०]।

पूर्णविराम
संज्ञा पुं० [सं०] लिपिप्रणाली में वह चिह्न जो वाक्य के पूर्ण हो जाने पर लगाया जाता है। वाचक के लिये सबसे बड़े विराम या ठहराव का चिह्न या संकेत। विशेष—अँगरेजी आदि अधिकांश लिपियों में, और उन्हीं के अनुकरण पर मराठी आदि में भी, यह चिह्न एक बिंदु ' . ' के रूप में होता हैं, परंतु नागरी, बँगला आदि में इसके लिये खड़ी पाई '। ' का व्यवहार होता है।

पूर्णविषम
संज्ञा पुं० [सं०] ताल (संगीत) में एक स्थान जो कभी कभी सम का काम देना है।

पूर्णवैनाशिक
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वशून्यवाद को माननेवाला। सर्वशून्यवाद सिंद्धात को माननेवाला बौद्ध [को०]।

पूर्णशैल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत जिसका उल्लेख योगिनी तंत्र में है।

पूर्णश्री
वि० [सं०] श्रीसंपन्न। सौभाग्ययुक्त [को०]।

पूर्णहोम
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्णाहुति।

पूर्णांक
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णाङ्क] १. पूर्ण संख्या। २. गणित की वह सँख्या जो विभक्त न हो सके। ३. प्रश्नपत्र में निर्धारित पूरे अंक [को०]।

पूर्णांगद
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णाङ्गद] महाभारत में उल्लिखित एक नाग।

पूर्णांजलि
वि० [सं० पूर्णाञ्जलि] अंजुलि भर। जितना अँजुली में आ सके।

पूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पंचमी, दशमी, अमावस, और पूर्णिमासी की तिथियाँ। २. चंद्रमा की पंद्रहवीं कला या लेखा (को०)। ३. दक्षिण भारत की एक नदी।

पूर्णाघात
संज्ञा पुं० [सं०] ताल (संगीत) में वह स्थान जो अनाघात के उपरांत एक मात्रा के बाद आता है। कभी कभी यह स्थान भी सम का काम देता है।

पूर्णात्मावसान
संज्ञा पुं० [सं० पूर्ण + आत्मा + अवसान] आत्मा का पूर्ण उत्सर्ग। आत्मा का पूर्ण विलीनीकरण। उ०—कलाकार की प्रगति निरंतर आत्मोत्सर्ग अथवा पूर्णात्मावसान में ही है।—पा० सा० सि०, पृ० ५९।

पूर्णानंद
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णानन्द] परमेश्वर।

पूर्णानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढोल। नगाड़ा। २. नगाड़े की ध्वनि। ३. पात्र। बर्तन। ४. चंद्रमा की किरण। ५. दे० 'पूर्णपात्र- (२)' [को०]।

पूर्णाभिलाष
वि० [सं०] जिसकी अभिलाषा पूर्ण हो गई हो। परितुष्ट। संतुष्ट [को०]।

पूर्णाभिषिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] शाक्तों का एक विशेष वर्ग [को०]।

पूर्णाभिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] वाममार्गियों का एक तांत्रिक संस्कार। अभिषेक। महाभिषेक। विशेष—यह संस्कार किसी नए साधक के गुरु द्वारा दीक्षित होने के समय किया जाता है और कई दिनों में पूरा होता है। इसमें अनेक क्रियाओं के उपरांत गुरु अपने शिष्य को दीक्षा देकर वाममार्ग की क्रियाओं और संस्कारों का अधिकारी बनता है।

पूर्णामृता
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्ण + अमृता] चंद्रमा की सोलहवीं कला [को०]।

पूर्णायु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णायुस्] १. सौ वर्ष की आयु। सौ वर्ष तक पहुँचनेवाला जीवनकाल। २. पूरी आयु। ३. महाभारत में उल्लिखित एक गंधर्व।

पूर्णायु (३)
वि० १. पूरी आयुवाला। जिसने पूरी उम्र पाई हो। २. सौ वर्ष तक जीनेवाला।

पूर्णालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पूर्णानक' [को०]।

पूर्णावतार
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐसा अवतार जो अशावतार न हो। किसी देवता का संपुर्ण कलाओं से युक्त अवतार। षोडश कलायुक्त अवतार। २. विष्णु के वे अवतार जो अंशावतार नहीं थे। विशेष—ब्रह्मवैवर्त पुराण के मत से विष्णु भगवान् के सोलहों कलायुक्त अवतार नृसिंह, राम और श्रीकृष्ण हैं।

पूर्णाश
वि० [सं०] जिसकी सभी आशाएँ पूर्ण हों [को०]।

पूर्णाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत में उल्लिखित एक नदी।

पूर्णाहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी यज्ञ की अंतिम आहुति। वह आहुति जिसे देकर होम समाप्त करते हैं। होम के अंत में दी जानेवाली आहुति। २. किसी कर्म की समाप्ति या समाप्ति के समय होनेवाली क्रिया।

पूर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।

पूर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक चिड़िया जिसकी चोंच का दोहरी होना माना जाता है। नासाच्छिनी पक्षी।

पूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णमासी। वह तिथि जिस दिन चंद्रमा अपने पूरे मंडल के साथ उदय होता है। पर्या०—पौर्णमासी। पित्र्या। चांद्री। पूर्णमासी। अनंता। चंद्रमाता। निरंजना। ज्योत्स्नी। इंदुमती। सिता। अनुमती। राका।

पूर्णिमासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णमासी। पूर्णिमा [को०]।

पूर्णेंदु
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णेंन्दु] पूर्णिमा का चंद्रमा। पूर्ण चंद्र।

पूर्णोत्कट
संज्ञा पुं० [सं०] मार्कंडेय पुराण में उल्लिखित एक पूर्वदेशीय पर्वत।

पूर्णोत्संग
संज्ञा पुं० [सं० पूर्णोत्सङ्ग] आंध्रवंश का एक राजा।

पूर्णोदरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी।

पूर्मोपमा
संज्ञा पुं० [सं०] उपमा अलंकार का वह भेद जिसमें उसके चारो अंग अर्थात्—उपमेय, उपमान, वाचक, और धर्म प्रकट रूप से प्रस्तुत हों। जैसे, इंद्र सो उदार है नरेंद्र मारवाड़ को, इसमें 'मारवाड़ को नरेंद्र' उपमेय, 'इंद्र' उपमान, 'सो' वाचक और 'उदार' धर्म चारों प्रस्तुत हैं।

पूर्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालन। पूरा करना। २. खोदने अथवा निर्माण करने का कार्य। पुष्करिणी, सभा, वापी, बावली, देवगृह, आराम (बगीचा), सड़क आदि बनाने का काम। ३. सम्मान। पुरस्कार। इनाम (को०)।

पूर्त (२)
वि० १. पूरित। पूरा किया हुआ। २. ढँका हुआ। आच्छा- दिन। छन्न। ३. पोषित। रक्षित (को०)।

पूर्तविभाग
संज्ञा पुं० [सं० पूर्त + विभाग] वह सरकारी विभाग या मुहकमा जिसका काम सड़क, नहर, पुल, मकान आदि बनवाना है। तामीर का मुहकमा।

पूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी आरंभ किए हुए कार्य की समाप्ति। २. पूर्णता। पूरापन। ३. किसी कार्य में अपेक्षित वस्तु की प्रस्तुति। किसी काम में जो वस्तु चाहिए उसकी कमी को पूरा करने की क्रिया। ४. वापी, कूप, या तड़ाग आदि का उत्सर्ग। ५. भरने का भाव। पूरण। ६. गुणा करने का भाव। गुणन।

पूर्ती (१)
वि० [सं० पूर्त्तिन्] १. तृप्ति देनेवाला। २. इच्छा पूर्ण करनेवाला। ३. पूरित।

पूर्ती (२)
संज्ञा पुं० श्राद्ध।

पूर्ब (१)
संज्ञा पुं० [सं० पूर्व] दे० 'पूर्व'।

पूर्ब (२)
वि० दे० 'पूर्व'।

पूर्बज †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पूर्वज'। उ०—जिनके भाग भए पूर्बज के ते वहि संग रहयो रे।—जग श०, भा० २, पृ० ८७।

पूर्य (१)
वि० [सं०] १. पूरा करने योग्य अथवा जिसे पूरा करना हो। पूरणीय। २. पालनीय।

पूर्य (२)
संज्ञा पुं० एक तृण धान्य।

पूर्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दिशा जिस ओर सूर्य निकलता हुआ दिखलाई देता हो। पश्चिम के सामने की दिशा। २. जैन मतानुसार सात नील, पाँच खरब, साठ अर्ब वर्ष का एक कालविभाग। ३. पूर्वज। पुरखा (को०)। ४. अगला भाग। आगे का हिस्सा (को०)।

पूर्व (२)
वि० [सं०] १. पहले का। जो पहले हो या रह चुका हो। २. आगे का। अगला। ३. पुराना। प्राचीन। ४. पिछला। ५. बड़ा। ६. पूर्व का। पूरब में स्थित (को०)।

पूर्व (३)
क्रि० वि० पहले। पेश्तर। जैसे,—मै इसके पूर्व ही पुस्तक दे चुका था।

पूर्वक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुरखा। बापदादा। पूर्वज।

पूर्वक (२)
वि० १. प्रथम। पहला। २. पहले का। पूर्ववर्ती।

पूर्वक (३)
क्रि० वि० [सं०] साथ। सहित। विशेष—इस अर्थ में यह शब्द प्रायः संयुक्त संज्ञा के अंत में आता है। जैसे, ध्यानपूर्वक। निश्चयपूर्वक।

पूर्वकर्म
संज्ञा पुं० [पूर्वकर्म्मन्] १. सुश्रुत के अनुसार तीन कर्मों में से पहला कर्म। रोगोत्पत्ति के पहले किए जानेवाले काम। विशेष—शेष दो कर्म प्रधान कर्म और पश्चात् कर्म हैं। २. पूर्व जन्मार्जित कर्म (को०)। ३. प्राथमिक कर्म। पहला काम (को०)।

पूर्वकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल। पुराना समय [को०]।

पूर्वकाय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का पूर्व भाग। शरीर में नाभि से उपर का भाग।

पूर्वकाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल। पूराना समय [को०]।

पूर्वकाल (२)
वि० प्राचीन काल से संबंधित। पुराने समय का [को०]।

पूर्वकालिक
वि० [सं०] १. जिसकी उत्पत्ति या जन्म पूर्वकाल में हुआ हो। पूर्वकाल जात। २. जिसकी स्थिति पूर्वकाल में रही हो। पूर्वकालीन। पूर्वकाल संबंधी।

पूर्वकालिक क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अपूर्ण क्रिया जिसका काल किसी दूसरी पूर्ण क्रिया के पहले पड़ता हो। जैसे, ऐसा करके वह गया।

पूर्वकालीन
वि० [सं०] दे० 'पूर्वकालिक'।

पूर्वकृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्व दिशा के कर्ता सूर्य। २. पूर्व दिशा के स्वामी इंद्र (को०)।

पूर्वकृत् (२)
वि० पहले किया हुआ [को०]।

पूर्वकृत (३)
संज्ञा पुं० पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म [को०]।

पूर्वगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्वगंङ्गा] नर्मदा नदी।

पूर्वग
वि० [सं०] पूर्वगामी। २. पूर्ववर्ती (को०)।

पूर्वगत
वि० [सं०] पहले गया हुआ [को०]।

पूर्वगामी
वि० [सं० पूर्वगामिन्] पहले गया हुआ। जो पहले चला गया हो [को०]।

पूर्वग्रह
संज्ञा पुं० [सं० पूर्व + ग्रह] वह मत जो बिना पूर्णरूप से विचार किए स्थिर कर लिया जाता है। अनिर्णीत मत।

पूर्वचित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की एक अप्सरा का नाम।

पूर्वज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ा भाई। अग्रज। २. ऊपर की पीढ़ियों में उत्पन्न पुरुष। पुरखा। बाप, दादा, परदादा आदि। ३. बड़ी पत्नी का ज्येष्ठ पुत्र। सबसे बड़ा पुत्र। (को०)। चंद्रलोक में रहनेवाले दिव्य पितृगण। पर्या०—चंद्रगोलस्थ। न्यत्तशास्त्र। स्वधाभुज। कव्यवालादि।

पूर्वज (२)
वि० पूर्वकाल में उत्पन्न।

पूर्वजन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराने समय के लोग। पुराकालीन पुरुष।

पूर्वजन्म
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वजन्मन्] वर्तमान से पहले का जन्म। पिछला जन्म।

पूर्वजन्मा
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा भाई। अग्रज।

पूर्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी बहन।

पूर्वजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्वजन्म। पिछला जन्म।

पूर्वजिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अतीत जिन या बुदध। २. मंजुश्री का एक नाम।

पूर्वज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वजन्म का ज्ञान। पूर्वजन्म में अर्जित ज्ञान जो इस जन्म में भी विद्यमान हो। २. पहले का ज्ञान। पर्वार्जित ज्ञान।

पूर्वतः
क्रि० वि० [सं० पूर्वतस्] १. पहेल से। पूर्व से। २. सामने से। आगे से।

पूर्वतन
वि० [सं०] प्राचीन। पुराना [को०]।

पूर्वत्र
क्रि० वि० [सं०] पहले भाग में। पहले।

पूर्वदक्षिण
वि० अग्निकोण संबंधी। पूर्व और दक्षिण के बीच का [को०]।

पूर्वदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व और दक्षिण के बीच का कोना।

पूर्वदत्त
वि० स० पहले दिया हुआ [को०]।

पूर्वदिक्
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्वादिश्] पूरब। प्राची [को०]। यौ०—पूर्वदिक्पति = पूर्व दिशा के स्वामी। इंद्र।

पूर्वदिगवदन
संज्ञा पुं० [सं०] मेष, सिंह और धनु ये तीनों राशियाँ।

पूर्वदिगीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. मेष, सिंह और धनु ये तीनों राशियाँ।

पूर्वदिश्य
वि० [सं०] पूर्व की ओर स्थित। पूर्वी [को०]।

पूर्वदिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वह सुख दुःख आदि जो पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरूप भोगने पड़ें।

पूर्वदेष्कृत
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व जन्म का पाप [को०]।

पूर्वदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. नर और नारायण। २. असुर, जो पहले सुर थे, पीछे अपने दुष्कर्मों के कारण भ्रष्ट हो गए थे। ३. प्राचीन देवता। प्राचीन देव (को०)। ४. पितर (को०)।

पूर्वदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] पितर [को०]।

पूर्वदेहिक, पूर्वदैहिक
वि० [सं०] पूर्व जन्म में किया हुआ [को०]।

पूर्वनडक
संज्ञा पुं० [सं०] टाँग की एक हड्डी का नाम।

पूर्वनिरूपण
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्य। किस्मत।

पूर्वनिश्चित
वि० [सं०] जिसकी योजना पहेल तय हो चुकी हो। पहले से तय या निश्चित।

पूर्वन्याय
संज्ञा पुं० [सं०] किसी अभियोग में प्रत्यर्थी का यह कहना कि ऐसे अभियोग में मैं वादी को पराजित कर चुका हूँ। यह उत्तर का एक प्रकार है।

पूर्वपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी शास्त्रीय विषय के संबंध में उठाई हुई बात, प्रश्न या शंका। शास्त्रविचार के लिये किया हुआ प्रश्न या शंका। (उत्तर में जो बात कही जाती है उसे उत्तरपक्ष कहते हैं)। २. कृष्ण पक्ष। ३. अगला हिस्सा। अग्रिम पक्ष। ४. व्यवहार या अभियोग में वादी द्वारा उपस्थित बात। मुद्दई का दावा।

पूर्वपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वपक्षिन्] १. वह जो पूर्वपक्ष उपस्थित करे। २. वह जो किसी प्रकार का दावा दायर करे।

पूर्वपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहले का रास्ता। पुरानी राह। २. पूर्व दिशा की ओर का पथ।

पूर्वपद
संज्ञा पुं० [सं०] समस्त पद या किसी वाक्य का प्रथम पद [को०]।

पूर्वपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वह कल्पित पर्वत जिसके पीछे से सूर्य का उदय होना माना जाता है। उदयाचल।

पूर्वपाली
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वपालिन्] इंद्र।

पूवपितामह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रपितामह। परदादा।

पूर्वपीठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिचय। भूमिका [को०]।

पूर्वपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. पूर्वज। पुरखा [को०]।

पूर्वप्रज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अतीत का ज्ञान। २. स्मृति। याददाश्त।

पूर्वफाल्गुना
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों में ग्यारहवाँ नक्षत्र। दे० 'नक्षत्र'। यौ०—पूर्वफाल्गुनीभव = बृहस्पति का नाम।

पूर्वबंधु
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वबन्धु] प्रथम अथवा सर्वोत्तम मित्र [को०]।

पूर्वभक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रातःकाल किया जानेवाला भोजन। जलपान।

पूर्वभाद्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रों में २५ वाँ नक्षत्र। दे० 'नक्षत्र'।

पूर्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राधान्य। २. पूर्व सत्ता। ३. विचारों की अभिव्यक्ति। इच्छा का उदघाटन [को०]।

पूर्वभूत
वि० [सं०] पहले का। जो पहले हुआ हो [को०]।

पूर्वभावी (१)
वि० [सं० पूर्वभाविन्] पहले का। पहले होनेवाला।

पूर्वभावी (२)
संज्ञा पुं० कारण। हेतु [को०]।

पूर्वमारी
वि० [सं० पूर्वमारिन्] पहले मरनेवाला [को०]।

पूर्वमीमांसा
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं का एक दर्शन जिसमें कर्म- कांड संबंधी बातों का निर्णय किया गया है। इस शास्त्र के कर्ता जैमिनि मुनि माने जाते हैं। विशेष—दे० 'मीमांसा'।

पूर्वमुख
वि० [सं०] जो पूर्व की ओर मुख किए हो [को०]।

पूर्वमेघ
संज्ञा पुं० [सं०] महाकवि कालिदास के मेघदूत का पूर्वांश [को०]।

पूर्वयक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के अनुसार एक जिनदेव जो मणिभेद्र और जलेंद्र भी कहलाते हैं।

पूर्वयाम्य
वि० [सं०] पूर्वदक्षिण का।

पूर्वरंग
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वरङ्ग] वह संगीत या स्तुति आदि जोनाटक आरंभ होने से पहले विघ्नों की शांति के लिये या दर्शकों को सावधान करने के लिये नट लोग करते हैं।

पूर्वराग
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में नायक अथवा नायिका की एक अवस्था जो दोनों के संयोग होने से पहले प्रेम के कारण होती है। प्रथमानुराग। पूर्वानुराग। विशेष—कुछ लोगों का मत है कि पूर्वराग केवल नायिकाओं में ही होता है। नायक को देखने पर या किसी के मुँह से उसेक रूप गुण आदि की प्रशंसा सुनेन पर नायिका के मन में जो प्रेम उत्पन्न होता है वही पूर्वराग कहलाता है। जैसे, हस के मुँह से नल की प्रशंसा सुनकर दमयंती में अनुराग का उत्पन्न होना। इसमें नायक से मिलने की अभिलाषा, उसके संबंध में चिंता, उसका स्मरण, सखियों से उसकी चर्चा उससे मिलने के लिये उद्विग्नता, प्रलाप, उन्मत्तता, रोग, मूर्छा और मृत्यु ये दस बातें होती हैं। पूर्वराग उसी समय तक रहता है जबतक नायक नायिका मिलन न हो। मिलन के उपरांत उसे प्रेम या प्रीति कहते हैं।

पूर्वरूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहले का रूप। वह आकार या रंग- ढंग जिसमें कोई वस्तु पहले रही हो। जैसे,—इस पुस्तक का पूर्वरूप ऐसा ही था। २. किसी वस्तु का वह चिह्न या लक्षण जो उस वस्तु के उपस्थित होने के पहले ही प्रकट हो। आगमनसूचक लक्षण। आसार। जैसे,—(क) बादलों का घिरना वर्षा का पूर्वरूप है। (ख) आँखों का जलना और अंग टूटना ज्वर का पूर्वरूप है। ३. व्याकरण मे एक स्वर- संधि का नाम। ४. एक अर्थालंकार जिसमें विनष्ट व्यक्ति या वस्तु के अपने पहले रूप की प्राप्ति का कथन होता है।

पूर्ववत् (१)
क्रि० वि० [सं०] पहले की तरह। जैसा पहले था वैसा ही। जैसे,—आज सौ वर्ष बीत जाने पर भी वह नगर पूर्ववत् है।

पूर्ववत् (२)
संज्ञा पुं० किसी कार्य का वह अनुमान जो उसके कारण को देखकर उसके होने से पहले ही किया जाय। जैसे,— बादलों को देखकर यह अनुमान करना कि पानी बरसेगा।

पूर्ववय
संज्ञा पुं० [सं० पूर्ववयस्] बचपन।

पूर्ववर्ती
वि० [सं० पूर्ववर्त्तिंन्] पहले का। जो पहले हो या रह चुका हो। जैसे,—(क) इस देश के अँगरेजों के पूर्ववर्ती शासक मुसलमान थे। (ख) यहाँ के पूर्ववर्ती अध्यापक ब्राह्मण थे।

पूर्ववाद्
संज्ञा पुं० [सं०] व्यवहार शास्त्र के अनुसार वह अभियोग जो कोई व्यक्ति न्यायालय आदि में उपस्थित करे। पहला दावा। नालिश।

पूर्ववादी
संज्ञा पुं० [सं० पूर्ववादिन्] वह जो न्यायालय आदि में पूर्ववाद या अभियोग उपस्थित करे। वादी। मुद्दई।

पूर्वविद्
वि० [सं०] पुरानी बातों को जाननेवाला। इतिहास आदि का ज्ञाता।

पूर्वविहित
वि० [सं०] १. पहले जमा किया हुआ (धन)। २. पहले किया या कहा हुआ [को०]।

पूर्ववृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] इतिहास।

पूर्वशैल
संज्ञा पुं० [सं०] उदयाचल।

पूर्वसंचित
वि० [सं० पूर्वसञ्चित] पहले या पूर्वजन्म में संचित किया हुआ [को०]।

पूर्वसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्वसन्ध्या] प्रातःकाल।

पूर्वसक्य
संज्ञा पुं० [सं०] जाँघ का ऊपरी जोड़ [को०]।

पूर्वसर
वि० [सं०] सामने या आगे जानेवाला [को०]।

पूर्वसाहस
संज्ञा पुं० [सं०] तीस प्रकार के दंडों में से प्रथम दंड। सबसे बड़ा दंड [को०]।

पूर्वस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पहले की दशा। पूर्व की दशा।

पूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूर्व दिशा। पूरब। २. ग्यारहवाँ नक्षत्र। दे० 'पूर्वाफाल्गुनी'।

पूर्वाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] घर में रखी जानेवाली पवित्र अग्नि। आवसथ्य।

पूर्वाचल
संज्ञा पुं० [सं०] उदयाचल। उदयगिरि [को०]।

पूर्वानुभूत
वि० [सं० पूर्व + अनुभूत] पूर्व में अनुभूत किया हुआ। उ०—कल्पना के बल से अपने पूर्वानुभूत संस्कारों का सहयोग लेकर, जीवन में अदृश्य, अश्रुत एवं अननुभूत पदार्थों का ........ सर्जन करता रहता है।—शेली०, पृ० २१।

पूर्वाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] उदयगिरि [को०]।

पूर्वानुराग
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रेम जो किसी के गुण सुनकर अथवा उसका चित्र या रूप देखकर उत्पन्न होता है। अनुराग या प्रेम का आरंभ। दे० 'पूर्वराग'। विशेष—साहित्य में पूर्वानुराग या पूर्वराग उस समय तक माना जाता है, जब तक प्रेमी और प्रेमिका का मिलन न हो। मिलने के उपरांत उसे प्रेम या प्रीति कहते हैं।

पूर्वान्ह †
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वाह्न] दे० 'पूर्वाह्न'।

पूर्वापर (१)
क्रि० वि० [सं०] आगे पीछे।

पूर्वापर (२)
वि० आगे का और पीछे का। अगला और पिछला।

पूर्वापर (३)
संज्ञा पुं० पूर्व और पश्चिम।

पूर्वापर्य
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वापर का भाव।

पूर्वाफाल्गुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों में ग्यारहवाँ नक्षत्र। विशेष—इसका आकार पलँग की तरह माना जाता है और इसमें दो तारे हैं। इसके अधिष्ठाता देवता यम कहे गए हैं और इसका मुँह नीचे की ओर माना जाता है। विशेष—दे० 'नक्षत्र'।

पूर्वाभाद्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] नक्षत्रों में पचीसवाँ नक्षत्र। विशेष—इसका मुँह नीते की ओर माना गया है और इसमें दो नक्षत्र हैं। विशेष—दे० 'नक्षत्र'।

पूर्वाभाद्रपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों में पचीसवाँ नक्षत्र। दे० 'नक्षत्र'।

पूर्वाभास
संज्ञा पुं० [सं० पूर्व + आभास] वह साधारण ज्ञान जो पहले ही प्राप्त हो जाय। पूर्वज्ञान।

पूर्वाभिमुख
वि० [सं०] पूरब की ओर मुँह किए हुए [को०]।

पूर्वाभिषेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मंत्र। २. पूर्व या पहले का स्नान (को०)।

पूर्वाभ्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहले का अनुभव या अभ्यास। वह अभ्यास जो किसी कार्य को व्यावहारिक रूप में परिणत करने के पहले किया जाय। जैसे, नाटक का पूर्वाभ्यास [को०]।

पूर्वाराम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बौद्ध संघ या मठ।

पूर्वार्जित (१)
वि० [सं०] पहले प्राप्त किया हुआ। पूर्वप्राप्त।

पूर्वार्जित (२)
संज्ञा पुं० पैतृक संपत्ति [को०]।

पूर्वार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पुस्तक का पहला आधा भाग। शुरू का आधा हिस्सा। २. शरीर का ऊपरी भाग (को०)। ३. किसी वस्तु का प्रारंभिक अर्धांश।

पूर्वाद्धर्य
वि० [सं०] जो पूर्वार्ध से उत्पन्न हुआ हो। पूर्वार्धं संबंधी। पूर्वार्ध का।

पूर्वार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पूर्वादर्ध'।

पूर्वावेदक
संज्ञा पुं० [सं०] जो अभियोग उपस्थित करे। वादी। मुद्दई।

पूर्वाश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मचर्य आश्रम [को०]।

पूर्वाषाढ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पूर्वाषाढा'।

पूर्वाषाढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रों में बीसवाँ नक्षत्र। विशेष—इसमें चार तारे हैं तथा इसका आकार सूप का सा और अधिष्ठाता देवता जल माना जाता है। विशेष—दे० 'नक्षत्र'।

पूर्वाह्न
संज्ञा पुं० [सं०] दिन का पहला आधा बाग। सबेरे से दोपहर तक का समय।

पूर्वाह्नक (१)
वि० [सं०] पूर्वाह्न संबंधी। पूर्वाह्न का।

पूर्वाह्नक
संज्ञा पुं० दे० 'पूर्वाह्न'।

पूर्वाह्निक
संज्ञा पुं० [सं०] वह कृत्य जो दिन के पहले भाग में किया जाता हो। जैसे, स्नान, संध्या, पूजा आदि।

पूर्वी (१)
वि० [सं० पूर्वीय] पूर्व दिशा से संबंध रखनेवाला। पूरब का। यौ०—पूर्वी घाट। पूर्वी द्विपसमूह = भारतवर्ष के पूरब में स्थित द्विपों का समूह जिनमें जावा, सुमात्रा और बोर्नियो आदि हैं।

पूर्वी (२)
संज्ञा पुं० १. पूरब में होनेवाला एक प्रकार का चावल। २. एक प्रकार का दादरा जो बिहार प्रांत में गाया जाता है और जिसकी भाषा बिहारी होती है। ३. संपूर्ण जाति का एक राग जिसके गाने का समय संध्या है। विशेष—कुछ लोगों के मत से यह श्री राग की रागिनी है और कुछ लोग इसे भैरवी और गौरी अथवा देवगिरि, गौड़ और गौरी से मिलकर बनी हुई संकर रागिनी भी मानते हैं और इसके गाने का समय दिन में २५ दंड से २८ दंड तक बताते हैं।

पूर्वीघाट
संज्ञा पुं० [हि० पूर्वा + घाट] दक्षिण भारत के पूर्वी किनारे पर का पहाड़ों का सिलसिल जो बालासोर से कन्या- कुमारी तक चला गया है और वहाँ पश्चिमी घाट के अंतिम अंश से मिल गया है। इसकी औसत ऊँचाई लगभग १५०० फुट है।

पूर्वीण
वि० [सं०] १. प्राचीन। २. पैतृक [को०]।

पूर्वतर
वि० [सं०] पूर्व से भिन्न का। पश्चिमी [को०]।

पूर्वद्यु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पूर्वेद्युस्] १. वह श्राद्ध जो अगहन, पूस, माध और फाल्गुन के कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है। २. प्रातःकाल। सबेरा।

पूर्वेद्यु (२)
क्रि० वि० गत दिन। बीते दिन [को०]।

पूर्वोक्त
वि० [सं०] पहले कहा हुआ। जिसका जिक्र पहले आ चुका हो।

पूर्वोत्तर
वि० [सं०] उत्तरपूर्वी।

पूर्वोत्तरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व और उत्तर के बीच की दिशा। ईशान कोण।

पूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूला। मुट्ठा। २. एक प्रकार का पक्वान्न [को०]।

पूलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुँज आदि का बँधा हुआ मुट्ठा। पूल। २. एक पकबान। पूलिका (को०)।

पूला
संज्ञा पुं० [सं० पूलक] [स्त्री० अल्पा० पूली] १. मूँज आदि का बँधा हुआ मुट्ठा। पूलक। २. एक प्रकार का छोटा वृक्ष जो देहरादून और सहारनपुर के आस पास के जंगलों में पाया जाता है। विशेष— बसंत ऋतु में इसकी सब पत्तियाँ झड़ जाती हैं। इसकी छाल के भीतरी भाग के रेशों से रस्से बनाए जाते हैं। इसकी पत्तियों का व्यवहार ओषधि रूप में होता और इसकी छाल से चीनी साफ की जाती है।

पूलाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुलाक' [को०]।

पूलाणो पु
वि० [सं० पूर्णिमा] पूर्णिमा का। पूनो का। पूर्णिम। उ०— चंद पूलाणो वनी गयो, खोर की तौलड़ी कुँ रहइ सेर।—बी० रासो०, पृ० ७२।

पूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पूआ (पकवान)।

पूलिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] मलाबार प्रदेश में रहनेवाली एक मुसलमान जाति।

पूली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पूला का अल्पा०] छोटा पूला।

पूली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पूला] पूला नामक वृक्ष जिसके रेशों से रस्से बनाते हैं। विशेष— दे० 'पुला'—२।

पूलीची
संज्ञा स्त्री० [देश०] मलाबार प्रदेश की एक सभ्यताहीन जंगली जाति।

पूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न का निस्तत्व दान। अनाज का खोखला दाना [को०]।

पूवा †
संज्ञा पुं० [सं० पूप] दे० 'पूआ'।

पूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहतूत का पेड़। २. पौष मास। ३. रेवती नक्षत्र (को०)।

पूषक
संज्ञा पुं० [सं०] शहतूत का पेड़। २. शहतूत का फल।

पूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. पुराणानुसार बारह अदित्यों में से एक। ३. एक वैदिक देवता जिनकी भावना भिन्न भिन्न रूपों मे पाई जाती है। कहीं वे सूर्य के रूप में (लोकलोचन), कहीं पशुओं के पोषक के रूप में, कहीं धनरक्षक के रूप में ओर कहीं सोम के रूप में पाए जाते हैँ। ४. पृथिवी। धरा (को०)।

पूषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम।

पूषदंतहर
संज्ञा पुं० [सं० पूषदन्तहर] शिव के अंश से उत्पन्न वीरभद्र का नाम जिसने दक्ष के यज्ञ के समय सूर्य का दाँत तोड़ा था।

पूषध
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र।

पूषभासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की नगरी अमरावती का एक नाम। इंद्रपुरी।

पूषमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] गोभिल का एक नाम।

पूषा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दहिने कान की एक नाड़ी का नाम। २. पृथ्वी। ३. चंद्रमा की तीसरी कला (को०)।

पूषा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पूषण] सूर्य। दे० 'पूषण'।

पूषात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. इंद्र का एक नाम (को०)। ३. कर्ण। अंगदेश का राजा कर्ण (को०)।

पूषाभासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रपूरी। अमरावती।

पूषारि, पूषासुहृत्
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।

पूस
संज्ञा पुं० [सं० पौष, पूष] हेमंत ऋतु का दूसरा चांद्रमास जिसकी पूर्णमासी तिथि को पुष्य नक्षत्र पड़ता है। अगहन के बाद और माघ के पहले का महीना। उ०— घरहिं जमाई लौं घटयों खरो पूस दिनमान।— बिहारी (शब्द०)।

पृक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] असवरण नाम का गंध द्रव्य जिसका व्यवहार ओषधों में भी होता है।

पृक्त (१)
वि० [सं०] १. मिश्रित। मिला हुआ। २. संपृक्त। संपर्क में आया हुआ। ३. पूर्णा। भरा हुआ [को०]।

पृक्त (२)
संज्ञा पुं० संपत्ति। धन [को०]।

पृक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संबंध। लगाव। २. स्पर्श। छूना।

पृक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] संपत्ति। धन [को०]।

पृक्ष
संज्ञा पुं० [सं० पृक्षस्] अन्न। अनाज।

पृच्छक
वि० [सं०] १. पूछनेवाला। प्रश्न करनेवाला। उ०— प्रश्न जु कृष्णकथा कौ जहाँ। वक्ता, श्रोता, पृच्छक तहाँ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२०। २. जिज्ञासु। जानने की इच्छा रखनेवाला।

पृच्छन
संज्ञा पुं० [सं०] पूछना। जानना [को०]।

पृच्छना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूछना। जिज्ञासा करना। (जैन)।

पृच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रश्न। सवाल। जानकारी के लिये प्रश्न २. भविष्य संबंधी जिज्ञासा [को०]।

पृच्छय
वि० [सं०] जो पूछने योग्य हो।

पृछक पु †
वि० [सं० पृच्छक] दे० 'पृच्छक'। उ०—सुन भो पृछक तोहि सत्रुन कौ आधीन एक वा.... होइगी। पै जी मन चाहि है सौ तेरौ कार्ज होयगौ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८४।

पृणाका
संज्ञा संज्ञा [सं०] मादा पशु जो जवान हो। जवान मादा पशु [को०]।

पतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना। फोज। २. प्रतिपक्षी योदधा [को०]।

पृतना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना का एक विभाग जिसमें २४३ हाथी, २४३ रथ, ७२९ घुड़सवार और १२१५ पैदल सिपाही होते हैं। उ०—धरु धरु मारु सबद अपार फैल्यो इत उत चहँ पर पुतना करै बिहंड।— गोपाल (शब्द०)। २. सेना। फौज। ३. युद्ध। लड़ाई।

पृतनानी
संज्ञा पुं० [सं०] पृतना नामक सेना के विभाग का अफसर। २. सेनापति।

पृतनापति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पृतनानी'।

पृतनायु
वि० [सं०] विपक्षी। द्वेषी। प्रतिरोधी [को०]।

पृतनाषाट्
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

पृतनासाह
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

पृतन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेना। फौज।

पृतन्यु
वि० [सं०] जो युद्ध करना चाहता है। जो लड़ने के लिये तैयार हो।

पृथक्
वि० [सं० पृथक्, पृथग्] भिन्न। अलग। जुदा।

पृथक्करण
संज्ञा पुं० [सं०] अलग करने का काम। विश्लेषण।

पृथक्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पृथ्क्करण'।

पृथक्क्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ही पिता परंतु भिन्न माता से उत्पन्न संतान।

पृथक्चर
वि० [सं०] अकेला या अलग चलनेवाला [को०]।

पृथक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथक् या अलग होने का भाव। अलहदगी। अलगाव।

पृथक्त्व
संज्ञा पुं० [सं०] पृथक् होने का भाव। अलगाव।

पृथकत्वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा लता।

पृथक्पिंड़
संज्ञा पुं० [सं० पृथक्पिण्ड] दूर का वह संबंधी जो अलग पिंड़दान करता है [को०]।

पृथगात्मता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विरक्ति। वैराग्य। २. भेद। अंतर। ३. विशेषता। विशिष्टता (को०)।

पृथगात्मा (१)
वि० [सं०] पृथक्। भिन्न। विशिष्ट [को०]।

पृथगात्मा (२)
संज्ञा पुं० जीवात्मा [को०]।

पृथगात्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशिष्टय से पूर्ण। विशिष्टतायुक्त।

पृथग्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूर्ख। बेवकूफ।। २. नीच व्यक्ति। कमीना आदमी। ३. पापी।

पृथग्बीज
संज्ञा पुं० [सं०] भिलावाँ।

पृथग्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथक्ता। भिन्नता। २. अवस्थांतर। भिन्न अवस्था [को०]।

पृथग्रूप, पृथग्विध
वि० [सं०] भिन्न रूप और आकृति का। नाना प्रकार का [को०]।

पृथमी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पृथवी] दे० 'पृथ्वी'। उ०— प्रथम अंश ते माया भयऊ। शुक्ल बीज पृथमी महँ ठएऊ।—कबीर सा०, पृ० ९१२।

पृथवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पृथ्वी'।

पृथा
संज्ञा पुं० [सं०] कुंतिभोज की कन्या कुंती का दूसरा नाम। यौ०—पृथापति। पृथासुत, पृथासूनु, पृथानंदन = दे० 'पृथातनय'।

पृथाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथा या कुंती के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन आदि। २. अर्जुन का पेड़।

पृथातनय
संज्ञा पुं० [सं०] युधुष्ठिर, अर्जुन, भीम (विशेषतः अर्जुन)।

पृथापति
संज्ञा पुं० [सं०] पृथा के पति। राजा पांड़ु [को०]।

पृथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोजर। कनखजूरा [को०]।

पृथिवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पृथ्वी'। यौ०—पृथिवीकंप। पृथिवीक्षित्। पृथिवीनाथ, पृथिवीपरिपालक, पृथिवीभुजंग = राजा। नरेश। पृथिविभृत् = पर्वत। धरणीधर। पृथिवीमंडल = भूमंडल। पृथिविरुह = पृथिवी पर पैदा होनेवाले वृक्ष। पृथिवी लोक।

पृथिवीकंप
संज्ञा पुं० [सं० पृथिवीकम्प] दे० 'भूकंप'।

पृथिवीक्षित्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथिवीजय
संज्ञा पुं० [सं०] एक दानव का नाम।

पृथिवीतीथ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम।

पृथिवीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषभ नामक औधष। २. नृपति। राजा। ३. यम।

पृथिवीपाल
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथिवीप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र [को०]।

पृथिवीभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथिवीलोक
संज्ञा पुं० [सं०] मर्त्यलोक [को०]।

पृथिवीश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पुथिवीशुक
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पृथिवी] 'पृथ्वी'। उ०— कहै कबीर वह सख्स तहकीक कर, राम का नाम जो पृथी लाया।— कबीर रे०, पृ० १५।

पृथ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वेणु के पुत्र राजर्षि पृथ का एक नाम।

पृथीनाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० पृथिवी, हिं० पृथी + सं० नाथ] पृथिवी का स्वामी राजा।

पृथीपति पु
संज्ञा पुं० [हिं० पृथी + सं० पति] पृथ्वीपति। राजा। उ०— कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, पृथीपति होन की चाह जगैगी।— संतवाणी०, भाग २, पृ० १२१।

पृथु (१)
वि० [सं०] १. चौड़ा। विस्तृत। २. बड़ा। महान्। ३. अधिक। अगणित। असंख्य। ४. कुशल। चतुर। प्रवीण। ५. स्थूल। मोटा (को०)। ६. प्रभूत। प्रचुर (को०)।

पृथु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक हाथ का मान। दो बालिश्त की लंबाई। २. अग्नि। ३. विष्णु। ४. शिव का एक नाम। ५. एक विश्वेदेवा का नाम। ६. चौथे मन्वंतर के एक सप्तर्षि का नाम। ७. पुराणानुसार एक दानव का नाम। ८. तामस मन्वंतर के एक ऋषि का नाम। ९. इक्ष्वाकु वंश के पाँचवें राजा का नाम जो त्रिशंकु का पिता था। १०. राजा वेणु के पुत्र का नाम। विशेष— पुराणों में कहा है कि जब राजा वेणु मरे, तबः उनके कोई संतान नहीं थी। इसलिये ब्राह्मण लोग उनके हाथ पकड़कर हिलाने लगे। उस समय उन हाथों में से एक स्त्री और एक पुरूष उत्पन्न हुआ। ब्राह्मणों ने उस पुरुष का नाम 'पृथु' रखा और उस स्त्री को उनकी पत्नी बनाया। इसके उपरांत सब ब्रह्माणों ने मिलकर पृथु का राज्याभिषेक किया और उन्हों पृथ्वी का स्वामी बनाया। उस समय पृथ्वी में से अन्न उत्पन्न होना बंद हो गया जिससे सब लोग बहुत दुःखी हुए। उनका दुःख देखकर पृथु ने पृथ्वी पर चलाने के लिये कमान पर तीर चढ़ाया। यह देखकर पृथ्वी गो का रूप धारण करके भागने लगी और जब भागती भागती थक गई तब फिर पृथु की शरण में आई और कहने लगी कि ब्रह्मा ने पहले मुझपर जो ओषधियाँ आदि अत्पन्न की थीं, उनका लोग दुरुपयोग करने लगे, इसलिये मैंने उन सबको अपने पेट में रख लिया है। अब आप मुझे दुहकर व सब ओषधियाँ निकाल लें। इसपर पृथु ने मनु को बछड़ा बनाया और अपने हाथ पर पृथ्वीरूपी गौ से सब ओषधियाँ दुह लीं। इसके उपरांत पंद्रह ऋषियों ने भी बृहस्पति को बछड़ा बनाकर अपने कानों में वेदमय पवित्र दूध दुहा और तब दैत्यों दानवों गंधर्वों अप्सराओं, पितरों, सिदधों, विद्याधरों खेचरों, किन्नरों, मायावियों, यक्षों, राक्षसों, भूतों और पिशाचों आदि ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार सुरा, आसव, सुंदरता, मधुरता, कव्य, अणिमा आदि सिदि्धयाँ, खेचरी विद्या, अंतर्धान विद्या, माया, आसव, बिना फन के साँप, बिच्छू आदि अनेक पदार्थ दुहे। इसके उपरांत पृथु ने संतुष्ट होकर पृथ्वी को 'दुहिता' कहकर संबोधन किया और तब उसके बहुत से पर्वतों आदि को तोड़कर इसलिये सम कर दिया जिसमें वर्षा का जल एक स्थान पर रुक न जाय, और तब उसपर अनेक नगर और गाँव आदि बसाए। पृथु ने ९९ यज्ञ किए थे। जब वे सौवाँ यज्ञ करने लगे तब इंद्र उनके यज्ञ का घोड़ा लेकर भागे। पृथु ने उनका पीछा किया। इंद्र ने अनेक प्रकार के रूप धारण किए थे, जिनसे जैन, बौदध और कापालिक आदि मतों की सृष्टि हुई। पृथु ने इंद्र सेअपना घोड़ा छीनकर उसका नाम 'विजिताश्व' रखा। पृथु उस समय इंद्र को भस्म करना चाहते थे, पर ब्रह्मा ने आकर दोनों में मेल करा दिया। यज्ञ समाप्त करके पृथु ने सनत्कुमार से ज्ञान प्राप्त किया और तब वे अपनी स्री को साथ लेकर तपस्या करने के लिये वन में चले गए। वहीं उन्होंने योग के द्वारा अपने इस भोगशरीर का अंत किया।

पृथु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काला जीरा। २. हिंगुपत्री। ३. अहिफेन। अफीम।

पृथुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिड़वा। २. पुराणानुसार चाक्षुष मन्वंतर का एक देवगण। ३. बालक। लड़का। ४. हिंगुपत्री।

पृथुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री।

पृथुकीर्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणनुसार पृथा (या वसुदेव ?) की एक छोटी बहन का नाम।

पृथुकीर्ति (२)
वि० जिसकी कीर्त्ति बहुत अधिक हो।

पृथुकोल
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा बेर।

पृथुग
संज्ञा पुं० [सं०] चाक्षुष मन्वंतर के देवताओं का एक भेद।

पृथुग्रीव
वि० [सं०] मोटी गरदनवाला [को०]।

पृथुच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का डाभ।२. हाथीकंद।

पृथुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ३. पृथु होने का भाव। २. पृथुत्व। विस्तार। फैलाव।

पृथुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पृथुता'।

पृथुदर्शी
वि० [सं० पृथुदर्शिन्] दूरदर्शी [को०]।

पृथुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल लहसुन। २. हाथीकंद।

पृथुपलाशिका
संज्ञा पुं० [सं०] कचूर।

पृथुपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] जिसके हाथ बहुत लंबे या घुटनों तक हों। आजानुबाहु।

पृथुबीजक
संज्ञा पुं० [सं०] मसूर [को०]।

पृथुभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] बौदधों के एक देवता का नाम।

पृथुयशा
वि० [सं० पृथुयशस्] जिसकी ख्याति दूर दूर तक फैली हो। सुप्रसिद्ध [को०]।

पृथुरोमा
संज्ञा पुं० [सं० पृथुरोमन्] पृथुलोमा। मछली।

पृथुल
वि० [सं०] १. मोटा ताजा। २. दीर्घाकार। भारी। बड़ा। उ०— पीवर मांसल अंस, पृथुल उर, लंबी बाँहें।— साकेत, पृ० ४१४। ३. बहुत। ढेर। अधिक। यौ०—पृथुलनयन, पृथुललोचन = बड़ी बड़ी आखोंवाला। आयत नेत्रोंवाला। पृथुलवक्षा = चौड़े सीनेवाला। पृथुलविक्रम = अत्यंत पराक्रमी शूरवीर।

पृथुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री।

पृथुलाक्ष
वि० [सं०] बड़ी बड़ी आँखोंवाला [को०]।

पृथुलोमा
संज्ञा स्त्री० [सं० पृथुलोमन्] १. मछली। २. ज्योतिष में मीन राशि।

पृथुशिंब
संज्ञा पुं० [सं० पृथुशिम्ब] १. सोनापाठा। २. पीली लोध।

पृथुशिरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली जोंक।

पृथुशृंगक
संज्ञा पुं० [सं० पृथुश्रृङ्गक] मेढ़ा।

पृथुशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़। पर्वत।

पृथुश्रवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पृथुश्रवस्] १. कार्तिकेय के एक अनु़चर का नाम। २. पुराणानुसार नवें मनु के एक पुत्र का नाम। ३. एक नाग (को०)।

पृथुश्रवा (२)
वि० १. अत्याधिक प्रसिद्ध। २. बड़े कानोंवाला। जिसके कान बड़े हों।

पृथुश्रोणी
वि० स्त्री० [सं०] भारी नितंबोंवाली।

पृथुसंपद्
वि० [सं० पृथुसम्पत्] धनी। संपत्तिशाली [को०]।

पृथुस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० पृथुस्कन्ध] सूअर।

पृथूदक
संज्ञा पुं० [सं०] सरस्वती नदी के दक्षिणः तट पर का एक प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ। विशेष— पुराणों में कहा है कि राजा पृथु ने अपने पिता वेणु के मरने पर यहीं उनकी अंत्योष्टि क्रिया की थी और बारह दिनों तक अभ्यागतों को जल पिलाया था। इसी से इसका यह नाम पड़ा। आजकल इस स्थान को पोहोआ कहते हैं।

पृथूदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेढ़ा। मेष। २. जिसका पेट बहुत बड़ा हो। बड़े पेटवान।

पृथ्वींद्र
संज्ञा पुं० [सं० पृथ्वीन्द्र] राजा [को०]।

पृथ्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौर जगत् का वह ग्रह जिसपर हम सब लोग रहते हैं। वह लोकपिंड जिसपर हम मनुष्य आदि प्राणी रहते हैं। विशेष— सौर जगत् में यह ग्रह दूरी के विचार से सूर्य से तीसरा ग्रह हैं। (सूर्य और पृथ्वी के बीच मनें बुध और शुक्र ये दो ग्रह और हैं।)। इसकी परिधि लगभग २५००० मील और व्यास लगभग ८००० मील है। इसका आकार नारंगी के समान गोल है और इसके दोनों सिरे जिन्हें ध्रुव कहते हैं कुछ चिपटे हैं। यह दिन रात में एक बार अपने अक्ष पर घूमती है और ३६५ दिन ६ घंटे ९ मिनट अर्थात् एक सौर वर्ष में एक बार सूर्य की परिक्रमा करती है। सूर्य से यह ९, ३०, ००,००० मील की दूरी पर है। जल के मान से इसका घनत्व ५.६ है। इसके अपने अक्ष पर घूमने के कारण दिन और रात होते हैं और सूर्य की परिक्रमा करने के कारण ऋतुपरिवर्तन होता है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि इसका भीतरी भाग भी प्रायः ऊपरी भाग की तरह ही ठोस है। पर अधिकांश लोग यही मानते हैं कि इसके अंदर बहुत अधिक जलता हुआ तरल पदार्थ है जिसके ऊपर यह ठोस पपड़ी उसी प्रकार है जिस प्रकार दूध के ऊपर मलाई रहती है। इसके अंदर की गरमी बराबर कम होती जाती है जिससे इसके ऊपरी भाग का घनत्व बढ़ता जाता है। इसमें पाँच महाद्वीप और पाँच महासमुद्र हैं। प्रत्येक महाद्वीप में अनेक देश और अनेक प्राय- द्वीप आदि हैं। समुद्रों में दो बड़े और अनेक छोटे छोटे द्वीप तथा द्वीपपुंज भी हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सारे सौर जहत् का उपादान पहलेसूक्ष्म ज्वलंत नीहारिका के रूप में या। नीहारिका मंड़ल के अत्यंत वेग घूमने से उसके कुछ अंश अलग हो होकर मध्यस्थ द्रव्य की परिक्रमा करने लगे। ये ही पृथक् हुए अंश पृथ्वी, मगल, बुध आदि ग्रह है जो सूर्य (मध्यस्थ द्रव्य) की परिक्रमा कर रहे हैं। ज्वलंत वायुरूप पदार्थ ठंढा होकर तरल ज्वलंत द्रव्य रूप में आया, फिर ज्यों ज्यों और ठंढा होता गया उसपर ठोस पपड़ी जमती गई। उपनिषदों के अनुसार परमात्मा से पहले आकाश की उत्पत्ति हुई, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। मनु के अनुसार महत्तत्व, अहंकार तत्व और पचतन्मात्राओं से इस जगत की सृष्ठि हुई है। प्रायः इसी से मिलता जुलता सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम कई पुराणों आदि में भी पाया जाता है। (विशेष— दे० सृष्टि)। इसके अतिरिक्त पुराणों में पृथ्वी की उत्पत्ति के सबंध में अनेक प्रकार की कथाएँ भी पाई जाती है। कहीं कहीं यह कथा है कि पृथ्वी मधुकैटभ के भेद से उत्पन्न हुई जिसमे उसका नाम 'मेदिनी' पड़ा। कहीं लिखा है कि बहुत दिनों तक जल में रहने के कारण जब विराट् पुरुष के रोमकूपों में मैल भर गई तब उस मैल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। पूराणों मे पृथ्वी शोषनाग के फन पर, कछुए की पीठ पर स्थित कही गई है। इसी प्रकार पृथ्वी पर होनेवालो उद्भिदों, पर्वती ओर जोवों आदि की उत्पत्ति के संबंध में भी अनेक कथाएँ पाई जाती हैं। कुछ पुराणों में इस पृथ्वी का आकार तिकोना, कुछ में चौकोर ओर कुछ में कमल के पत्ते के समान बतलाया गया है पर ज्योतिष के ग्रंथों में पृथ्वी गोलाकार ही मानी गई है। पर्या०—अचला। अदिति। अनंता। अवनी। आद्या। इड़ा। इरा। इला। उर्वरा। उर्वी। कु। क्ष्मा। क्षामा। क्षिति क्षोणी। गो। गोत्रा। जगती। ज्या। धरणी। धरती। धरा। धरित्री। धात्री। निश्चला। पारा। भू। भूमि। महि। मही। मेदिनी। रत्नगर्भा। रत्नावती। रसा। वसुंधरा। वसुधा। वसुमती। विपुला। श्यामा। सहा। स्थिरा। सागरमेखला। २. पंच भूतों या तत्वों में से एक जिसका प्रधान गुण गंध है, पर जिसमें गौण रूप से शब्द, स्पर्श रूप और रस ये चारों गुण भी हैं। विशेष— दे० 'भूत'। ३. पृथ्वी का वह ऊपरी ठोस भाग जो मिट्टा और पत्थर आदि का है और जिसपर हम सब लोग चलते फिरते हैं। भूमि। जमीन। धरती। (मुहा० के लिये दे० 'जमीन')। ४. मिट्टी। ५. सत्रह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें ८, ९, पर यति और अंत मे लघु गुरु होते हैं। जैसे,—जु राम छवि कंकणैं, निरखि आरसी संयुता। लगाय हिय सो धरी कर न दूर पृथ्वीसुता। ६. हिंगुपत्री। ७. काला जीरा। ८. सोंठ। ९. बंड़ी इलायची।

पृथ्वीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ी इलायची। २. छोटी इलायची। ३. काला जीरा। ४. हिंगुपत्री।

पृथ्वीकुरवक
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद मदार या आक।

पृथ्वीखात
संज्ञा पुं० [सं०] गुफा। गुहा [को०]।

पृथ्वीगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।

पृथ्वीगृह
संज्ञा पुं० [सं०] गुफा।

पृथ्वीज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँभर नमक। २. वृक्ष। पेड़ (को०)। ३. मंगल ग्रह (को०)।

पृथ्वीज (२)
वि० जो पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हो।

पृथ्वीतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता [को०]।

पृत्थीदल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमीन की सतह। वह धरातल जिसपर हम लोग चलते फिरते हैं। २. संसार। दुनिया।

पृथ्वीधर
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत। पहाड़।

पृथ्वीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथ्वीपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथ्वीपाल
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथ्वीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह।

पृथ्वीमंडल
संज्ञा पुं० [सं० पृथिवीमण्डल] भूमंडल [को०]।

पृथ्वीश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा।

पृथ्वीसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] जानकी। सीता। उ०— जु राम छवि कंकणैं निरखि आरसी संयुता। लगाय हिय सो धरी कर न दूर पृथ्वीसुता।— (शब्द०)।

पृदाकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप। २. बिच्छू। ३. बाघ। ४. चीता। ५. हाथी। ६. वृक्ष। पेड़।

पृश्नि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुतप नामक राजा की रानी का नाम। २. चितले रंग की गाय। चितकबरी गाय। ३. पिठवन। ४. रश्मि। किरण। ५. पृथिवी। धरती (को०)। ६. कृष्ण की माता देवकी कान नाम (को०)।

पृश्नि (२)
संज्ञा पुं० १. अनाज। २. वेद। ३. पानी। जल। ४. अमृत या दुग्ध। ५. एक प्राचीन ऋषि का नाम। ६. वामन। बौना। (को०)।

पृश्नि (३)
वि० १. जिसका शरीर दुबला पतला हो। २. सफेद रंग का। ३. चितकबरा। ४. साधारण। मामूली। ५. छोटे कद का। ह्रस्वकाय (को०)।

पृश्निका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकुंभी।

पृश्निगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

पृश्निधर
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०]।

पृश्निपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन लता।

पृश्निभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

पृश्निशृंग
संज्ञा पुं० [सं० पृश्निनश्रृङ्ग] १. विष्णु। २. गणेश।

पृश्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकुंभी।

पृषत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चितला हिरन। चीतल पाढ़ा। २. राजा द्रुपद के पिता का नाम। ३. एक प्रकार का साँप। ४. रोहित नाम की मछली। ५. बूँद। ६. दाग। धब्बा (को०)।

पृषत् (२)
वि० १. चितकबरा। २. सिल। छिड़का हुआ [को०]।

पृषत
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'पृषत्'। २. वायु का वाहन। पवन की सवारी [को०]।

पृषतांपति
संज्ञा पुं० [सं० पृषताम्पति] वायु। पवन [को०]।

पृषताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा।

पृषत्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाण। २. गोल धब्बा [को०]।

पृषदंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. शिव [को०]।

पृपदश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. महाभारत के अनुसार एक राजर्षि का नाम। ३. भागवत के अनुसार विरूपाक्ष के पुत्र का नाम। ४. शिव (को०)।

पृषदाज्य
संज्ञा पुं० [सं०] दही मिला हुआ घी।

पृषद्भ
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र का नाम।

पृषदबल
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का घोड़ा [को०]।

पृषद्वरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेनका की कन्या का नाम।

पृषभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की पुरी। पूषभाषा। अमरावती का एक नाम।

पृषाकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तौलने का बाट।

पृषातक
संज्ञा पुं० [सं०] दही मिला हुआ घी।

पृषोदर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वायु। हवा।

पृषोदर (२)
वि० जिसका पेट छोटा हो।

पृषोद्यान
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा उपवन या बाग [को०]।

पृष्ट (१)
वि० [सं०] १. पूछा हूआ। जो पूछा गया हो। २. सिक्त। सींचा हुआ (को०)।

पृष्ट (२)
संज्ञा पुं० प्रश्न। जिज्ञासा। पूछताछ [को०]।

पृष्ट † (३)
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ट] दे० 'पृष्ठ'।

पृष्टहायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी। हस्ती। २. एक प्रकार का अन्न [को०]।

पृष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. पिछला भाग। ३. स्पर्श (को०)। ४. प्रकाश किरण (को०)।

पृष्टि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पृष्टि (=पिछला भाग)] पृष्ठ। पीठ। उ०— दोऊ कर पुनि फेरि पृष्ठि पीछे करि आवय।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ४३।

पृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीठ। २. किसी वस्तु का वह भाग या तल जो ऊपर की ओर हो। ऊपरी तल। ३. पीछे का भाग। पीछा। ४. पुस्तक के पन्ने का एक ओर का तल। ५. पुस्तक का पत्रा। पन्ना। ६. मकान की छत (को०)। ६. चरम। शेष (को०)।

पृष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] पिछला भाग। पीठ की ओर का हिस्सा।

पृष्ठग
वि० [सं०] (घोडे़ आदि पर) सवार। चढ़ा हुआ [को०]।

पृष्ठगामी
वि० [सं० पृष्टगमिन्] अनुयायी। विश्वासपात्र [को०]।

पृष्ठगोप
संज्ञा पुं० [सं०] वह सैनिक जो सेना के पिछले भाग की रक्षा के लिये नियुक्त हो।

पृष्ठग्रंथि (१)
वि० [सं० पृष्ठग्रन्थि] कुबड़ा [को०]।

पुष्ठग्रंथि (२)
संज्ञा स्त्री० कूबड़ [को०]।

पृष्ठग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का एक रोग।

पृष्टचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठचक्षुस्] १. केकड़ा। २. रीछ। भालू।

पृष्ठज
वि० [सं०] पीठ पर उत्पन्न। बाद का पैदा [को०]।

पृष्ठतः
क्रि० वि० [सं० पृष्ठतस्] १. पीछे। पीठ पीछे। २. पीछे से। ३. पीठ की ओर। पीछे की ओर। ४. पीठ पर। ५. गोपनीय ढंग से। छिपकर [को०]।

पृष्ठतःप्रथित
संज्ञा पुं० [सं०] खड्ग चलाने का एक ढंग। तलवार का एक हाथ।

पृष्ठतल्पन
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की पीठ पर की बाहरी पेशियाँ [को०]।

पृष्ठताप
संज्ञा पुं० [सं०] मध्याह्न। दोपहर [को०]।

पृष्ठदृष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] रीछ। भालू।

पृष्ठदेश
संज्ञा पुं० [सं०] पिछला भाग [को०]।

पृष्ठपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन लता।

पृष्ठपाती
वि० [सं० पृष्ठपातिन्] १. पृष्ठानुयायी। अनुगंता। २. नियंत्रक। ३. निरीक्षणरत। सावधान (को०)।

पृष्ठपोषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीठ ठोंकनेवाला। २. सहायक। मददगार।

पृष्ठपोषण
संज्ञा पुं० [सं०] मदद। सहायता। प्रोत्साहन।

पृष्ठफल
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पिंड के ऊपरी भाग का क्षेत्रफल।

पृष्ठभंग
संज्ञा पुं० [सं० पृष्टभंग] युद्ब का एक ढंग जिसमें शत्रु सेना का पिछला भाग आक्रमण करके नष्ट किया जाता है।

पृष्ठभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीठ। पुश्त। २. पिछला भागः।

पृष्ठभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मकान की ऊपरी छत या मंजिल। २. दे० 'पृष्ठिका'। बाद की घटनाओं या परिस्थितियों का विश्लेषण करने में सहायक पूर्व की घटनाएँ, अनुभव, ज्ञान या शिक्षा।

पृष्ठमर्म
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठमर्म्मन्] सुश्रुत के अनुसार पीठ पर के चौदह मर्मस्थान। विशेष—इनपर आघात लगने से मनुष्य मर सकता है, अथवा उसका कोई अंग बेकाम हो जाता है। ये सव स्थान गरदन से चूतड़ तक मेरुदंड के दोनों ओर युग्म संख्या में हैं और इन सबके अलग अलग नाम हैं।

पृष्ठमांसाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो पीठ पीछे किसी की बुराई करता हो। चुगुलखोर।

पृष्ठमांसादन
संज्ञा पुं० [सं०] पीठ पीछे कीसी की निंदा करना। चुगली करना।

पृष्ठयान
संज्ञा पुं० [सं०] (घोड़े आदि पर) सवारी करना [को०]।

पृष्ठलग्न
वि० [सं०] अनुयायी। पीछे लगा रहनेवाला। पिछलग्गू [को०]।

पृष्ठवंश
संज्ञा पुं० [सं०] रीढ़।

पृष्ठवाट्
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठवाह्] दे० 'पृष्ठवाह्य' [को०]।

पृष्ठावास्तु
संज्ञा पुं० [सं०] एक मकान के ऊपर बना हुआ मकान अथवा एक खंड़ के ऊपर दूसरे खंड पर बना हुआ मकान।

पृष्ठवाह्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसकी पीठ पर बोझ लादा जाता हो। लदुवा बैल।

पृष्ठशृंग
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठशृंङ्ग] जंगली बकरा [को०]।

पृष्ठशृंगी
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठशृंङ्गिन्] १. मेढा़। २. भसा। ३. हिंजड़ा। षंड। नामर्द। ४. भीमसेन का एक नाम।

पष्ठानुग
वि० [सं०] पीछे चलनेवाला। अनुयायी [को०]।

पृष्ठानुगामी
वि० [सं० पृष्ठानुगामिन्] दे० 'पृष्ठानुग'।

पृष्ठाशय
वि० [सं०] पीठ के बल सोनेवाला [को०]।

पृष्ठाथित
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीठ की हड्डी रीढ़।

पृष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिछला भाग। पिछला हिस्सा। २. मूर्ति, चित्र, विवरण आदि में सबसे पीछे का वह भाग जो अंकित द्दश्य या घटना का आश्रय होता है। पृष्ठभूमि। (अं० बैकग्राउंड) दे० 'पृष्ठभूमि'।

पृष्ठेमुख
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।

पृष्ठोदय
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में मेष, वृष, कर्क, धन, मकर और मीन ये छह राशियाँ जिनके विषय में यह माना जाता जाता है कि ये पीठ की ओर से उदय होती हैं।

पृष्ठय (१)
वि० [सं०] पृष्ठ संबंधी। पीठ का।

पृष्ठय (२)
संज्ञा पुं० वह घोड़ा जिसकी पीठ पर बोझा लादा जाता हो।

पृष्ठ्यस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का षडाह्निक नामक एक समय- विभाग। षटक्रतु या छह एकाह।

पृष्ठ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सामान ढोनेवाली घोड़ी। २. वेदी के उपर का किनारा।

पृष्ठ्यावलंब
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठयावलभ्ब] यज्ञ का पाँच दिन का एक समयविभाग। यज्ञ के कुछ विशिष्ट पाँच दिन।

पृष्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पैर की एँड़ी। २. प्रकाशकिरण [को०]।

पृष्णिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन लता।

पेंजूष
संज्ञा पुं० [सं० पेञ्जूप, पिञ्जूष] कान का मैल। खूँठ। पिंजूष [को०]।

पेंट
संज्ञा पुं० [अं०] रंग।

पेंटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. चित्रकार। मुसव्वर। २. रंग भरनेवाला। रंगसाज।

पेंटिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. चित्रकारी। मुसव्वरी। २, रंग भरने का काम। रंगसाजी।

पेंड
संज्ञा पुं० [सं० पेण्ड] मार्ग। रास्ता। पैड़ा [को०]।

पेंडुलम
संज्ञा पुं० [अं०] दीवार में लगानेवाली घड़ी में हिलनेवाला टुकड़ा जो उसकी गति का नियंत्रण करता है। घड़ी का लटकन। लंगर।

पेंशन
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'पेन्शन'।

पेंशनर
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'पेन्शनर'।

पेंस
संज्ञा पुं० [अं०] एक अंग्रेजी सिक्का। पेनी।

पेंसिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'पेनसिल'।

पेँ (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] पेप का शब्द, जो रोने, बाजा फूँकने आदि से निकलता है।

पेँ (२)
अव्य० [हिं०] दे० पै'। उ०—पेँ निमित्त गिरद्वीप तरु पुष्कर मुख हरि सार।—नंद० ग्रं०, पृ० ६८।

पेँग (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० पटेंग, पट (= पटड़ा) + वेग अथवा सं० प्लवङ्ग] हिंडोले या झूले का झूलके समय एक ओर से दूसरी ओर को जाना। मुहा०—पेंग मारना = झूले पर झूलत समय उसपर इस प्रकार जोर पहुँचाना जिसमें उसका वेग बढ़ जाय और दोनों ओर वह दूर तक झूले। उ०—भोजाइन बैठाय पेंग मारत देवर गन।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १०। पेंग बढा़ना या चढा़ना = दे० 'पेंग मारना'। पेंग बढ़ना = जोर बढ़ना। अधिकता होना। उ०—अब सुनिए कि नशेबाजी के पेंग बढे़ पहले तो सिर्फ एक कोठी से लेन देन शुरू हुआ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १५३।

पेँग (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।

पेँगिया मैना
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेंग + मैना] एक प्रकार की मैना (पक्षी) जिसे सतभैया भी कहते हैं। दे० 'सतभइया'।

पेँघट
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका शरीर मट- मैले रंग का, आँखे लाल और चोंच सफेद होती है।

पेँघा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पेंघट'।

पेँच
संज्ञा पुं० [फा़० पेच] चालबाजी। चक्कर। दे० 'पेंच' उ०— सावधान हो पेंच न खैयो रहियो आप सँभारी।—चरण० बानी०, पृ० ९७।

पेँचक
संज्ञा पुं० [सं० पेचक] दे० 'पेचक'।

पेँचकश
संज्ञा पुं० [फा़० पेचकश] दे० 'पेचकश'।

पेँच का घाट
संज्ञा पुं० [हिं० पेंच + घाट] जहाजों के ठहरने का पक्का घाट। (लश०)।

पेँजनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पैजनी'।

पेँठ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैठ'।

पेँड़ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का सारस पक्षी जिसकी चोंच पीली होती है।

पेँड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० पिएङ] १. दे० 'पेड़'। उ०—हलंत पेंड रच्चयौ अरुन्न नील कच्चयौ।—पृ० रा०, २५ १३३। २. दे० 'पेंड़ं'। उ०—नषसिष्ष भोरं कथ्थि थोरं कालकोरं कलकरी। आहुट्ठ पेंड़ भोम षंडं, छोड़ि छंड़ उरबरी।—पृ० रा०, २।२२४।

पेँड़ना
क्रि० सं० [देश०] दे० 'बेड़ना'।

पेँड़ुकी † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्डुक] १. पंड़ुक पक्षी। फाखता। २. सुनारों का वह औजार जिससे फूँककर वे आग सुलगाते हैं। फुँकनी।

पेँडु़की (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पिराक] पिराक या गुझिया नाम का पक्वान्न। दे० 'गुझिया'।

पेँडुली ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० पिण्डिला] ककड़ी। पिंडिला।

पेँदर †
संज्ञा पुं० [हिं० पेंदा या पेड़ू] पेड़ू।

पेँदा
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] [स्त्री० अल्पा० पेंदी] किसी वस्तु का निचला भाग जिसके आधार पर वह ठहरती या रखी जाती हो। बिल्कुल निचला भाग। जैसे, लोटे का पेंदा जहाज का पेंदा। मुहा०—पेंदे के बल बेठना = (१) चूतड़ देकर बैठना। पलथी मारकर बैठना। (व्यंग्य)। (२) हार मानना। दबाना। पेंदे का हलका = जिसका विकास न किया जा सके। ओछा।

पेँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेंदा] १. किसी वस्तु का निचला भाग। मुहा०— बे पेंदी का लोटा = अस्थिर व्यक्ति। ढुलमुल नीति का व्यक्ति। ऐसा व्यक्ति जो कभी एक पक्ष का अनुयायी हो, कभी दूसरे का। २. गुदा। गाँड़। ३. तोप या बंदूक की कोठी। ४. गाजर या मूली आदि की जड़।

पेँना †
वि० [हिं०] दे० 'पैना'। उ०—भोहैं कुटिल कमान सी सर से पेंनें नेंन।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४२५।

पेँहटुल †
संज्ञा पुं० [हिं० पेठा या पिण्डिला (= ककरी)] १. कचरी या पेठा नामक लता। २. इस लता का फल जो कुंदरू के आकार का होता है और जिसकी तरकारी तथा कचरी बनती है। विशेष—दे० 'कचरी'।

पे
संज्ञा स्त्री० [अं०] तनखाह। वेतन। महीना। जैसे,—इस महीने की पे तुम्हें मिल गई। क्रि० प्र०—देना।—मिलना।—लेना।

पेआन पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाण, प्रा० पयाण] दे० 'प्रयाण'। उ०—ब्रह्मलोक ब्रह्म असथाना। तहाँ काल फिरि करे पेआना।—सं० दरिया, पृ० ४।

पेउश †
संज्ञा पुं० [सं० पीयूष] दे० 'पेउसी'।

पेउस †
संज्ञा पुं० [सं० पीयूष, पेऊस] दे० 'पेउसी'।

पेउसरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पियूष, प्रा० पेऊस] दे० 'पेउसी'।

पेउसी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पीयूष, प्रा० पेऊस + ई(प्रत्य०)] १. ब्याई हुई गाय या भैस का पहले दिन का अथवा पहले सात दिन का दूध जो बहुत गाढ़ा और कुछ पीले रंग का होता है। यह दूध पीने के योग्य नहीं होता। इसे तेली भी कहते हैं। २. एक प्रकार का पकवाना जो उक्त दूध में सोंठ और शक्कर आदि डालकर पकाया और जमाया जाता है। यह स्वादिष्ट और पुष्टिकर होता है। इंदर। इन्नर।

पेखक पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रेक्षक, प्रा० पेक्खक] देखेनेवाला। दर्शक। उ०—ब्योम बिभाजन बिबुध बिलोकत खेलक पेखक छाँह छए।—तुलसी (शब्द०)।

पेखन पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रेक्षण, प्रा० पेक्खण, पु० हिं० पेखण] १. देखने की किया। प्रेक्षण। २. वह जो कुछ देखा जाय। तमाशा। द्दश्य। उ०—जगु पेखन तुम देखनिहारे। विधि हरि शंभु नचावनि हारे।—मानस, २। १२७।

पेखना †पु (१)
क्रि० सं० [सं० प्रेक्षण, प्रा० पेक्खण] देखना। अवलोकन करना। उ०—श्रमकण सहित श्याम तनु देखे। कहँ दुख समउ प्राणपति पेखे।—तुलसी (शब्द०)।

पेखना पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रेक्षण] १. वह जो कुछ देखा जाय। दृश्य। उ०—रंगभूमि आएँ दसरथ के किसोर हैं। गेखनी सो पेखन चले हैं पुर नर नारि बारे बूढे़ अंध पंगु करत निहोर हैं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३०६। २. देखने का भाव। प्रेक्षण। उ०—सखि सबको मन हरि लेति, ऐन मैन मनो पेखनो।—नंद०, ग्रं०, पृ० २८५।

पेगंबर †
संज्ञा पुं० [सं० पैगामबर पैगंबर] दे० 'पैगंबर'। उ०— जाप का पेगंबर आप का दरियाव। ताप का सेस ज्वाल दाप का कुरराव।—रा० रू०, पृ० ९७।

पेग
संज्ञा पुं० [अं०] उतनी शराब जितनी एक बार में सोडावाटर डालकर पीते हैं। शराब का गिलास। शराब का प्याला। जैसे,—एक ओर साहब लोग बैठे हुए पेग पर पेग उड़ा रहे थे।

पेग (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेँग] दे० 'पेग'। उ०—लेत खरी पेगें छबि छाजै उसकन मैं।—भारतेंदु। ग्रं०, भा० १, पृ० ३९०।

पेच
संज्ञा पुं० [फा़०] १. घुमाव। फिराव। लपेट। फेर। चक्कर। २. उलझन। झंझट। बखेड़ा। कठिनता। उ०—कागज करम करतूति के उठाय धरे पचि पचि पेच में परे हैं प्रेतनाह अब।—पद्माकर (शब्द०)। क्रि० प्र०—डालना। पड़ना। विशेष—उक्त दोनों अर्थो में कही कहीं लोग इसको स्त्रीलिंग भी बोलते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक स्थान पर इसका व्यवहार स्त्रीलिंग में ही किया है। यथा—सोचत जनक पोच पेच परि गई है।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३१३। ३. चालाकी। चालबाजी। धूर्तता। क्रि० प्र०—पड़ना।—चलना। ४. पगड़ी का फेरा। पगड़ी की लपेट। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना।—देना। ५. किसी प्रकार की कल। यंत्र। मशीन। जैसे, रूई का पेच। ६. यंत्र का कोई विशेष अंग जिसके सहारे कोई विशेष कार्य होता हो। मशीन का पुरजा। ७. यंत्र का वह विशेष अंग जिसको दबाने, घुमाने या हिलाने आदि से वह यंत्र अथवा उसका कोई अंश चलता या रुकता हो। क्रि० प्र०—घुमाना।—चलाना।—दबाना। मुहा०—पेट घुमाना = ऐसी युक्ति करना जिससे किसी के विचार या कार्य आदि का रुख बदल जाय। तरकीब से किसी का मन फेरना। पेच हाथ में होना = किसी के विचारों कोपरिवर्तन करने की शक्ति होना। प्रवृत्ति आदि बदलने का सामर्थ्य होना। ८. वह कील या काँटा जिसके नुकीले आधे भाग पर चक्करदार गडा़रियाँ बनी होती हैं और जो ठोककर नहीं बल्कि घुमाकर जड़ा जाता है। स्क्रू। क्रि० प्र०—कसना।—खोलना।—जड़ना।—निकालना। ९. पतंग लड़ने के समय दो या अधिक पतंगों के डोर का एक दूसरे में फँस जाना। क्रि० प्र०—डालना। मुहा०—पेच काटना = दूसरे की गुड्डी या पतंग की डोर में अपनी डोर फँसाकर उसकी डोर काटना। गुड्डी या पतंग काटना। पेच लड़ाना = दूसरे की पतंग काटने के लिये उसकी डोर में अपनी डोर फँसाना। पेच छुटाना = दो पतंगों की फँसी हुई डोर का अलग हो जाना। १०. कुश्ती में वह विशेष क्रिया या घात जिससे प्रतिद्वंद्वी पछाड़ा जाय। कुश्ती में दूसरे को पछाड़ने की युक्ति। उ०—इक एक पुहुमि पछार देत उछारि पुनि उठि धाय। रह सावधान बखान करि पूनि गँसन पेच लगाया।—रघुराज (शब्द०)। क्रि० प्र०—चलना।—मारना।—लगाना। ११. युक्ति। तरकीब। क्रि० प्र०—निकालना। १२. तबले के किसी परन या ताल के बोल में से कोई एक टुकड़ा निकालकर उसके स्थान पर ठीक उतना ही बड़ा दूसरा कोई टुकड़ा लगा देना। क्रि० प्र०—लगाना। १३. एक प्रकार का आभूषण जो टोपी या पगड़ी में सामने की ओर खोँसा या लगाया जाता है। सिरपेच। १४. सिरपेच की तरह का एक प्रकार का आभूषण जो कानों में पहना जाता है। गोशपेच। उ०—गोशपेच कुंड़ल कलँगी सिरपेच पेच पेचन ते खैंचि बिन बेंचे वारि आयो है।—पद्माकर (शब्द०)। १५. पेचिश। पेट का मरोड़। दे० 'पेचिश'। क्रि० प्र०—उठना।—पड़ना। १६. दे० 'पेचताब'।

पेचक (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बटे हुए तागे की गोली या गुच्छी। २. बटा तथा लपेटा हुआ महीन तागा जिससे कपड़े सीते हैं।

पेचक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री पेचिका] १. उल्लू पक्षी। २. जूँ। ३. बादल। ४. पलंग। चारपाई। ५. हाथी की पूँछ की जड़। ६. सड़क पर का विश्रामालय (को०)।

पेचकश
संज्ञा पुं० [फा़०] १. बढ़इयों और लोहारों आदि का वह औजार जिससे वे लोग पेच (स्क्रू) जड़ते अथवा निकालते हैं। विशेष—यह आगे से चपटा और कुछ नुकीला लोहा होता है जिसके पिछले भाग में पकड़ने के लिये दस्ता जड़ा रहता है। २. लोहे का बना हुआ वह घुमावदार पेच जिसकी सहायता से बोतल का काग निकाला जाता है। विशेष—इसे पहले घुमाते दुए काग में धँसाते हैं और जब वह कुछ अंदर चला जाता है तब ऊपर की ओर खींचते हैं जिससे काग बोतल के बाहर निकल आता है।

पेचको
संज्ञा पुं० [सं० पेचकिन्] हाथी [को०]।

पेचताब
संज्ञा पुं० [फा़०] वह क्रोध जो बिवशता आदि के कारण प्रकट न किया जाय। वह गुस्सा जो मन ही मन में रह जाय और निकाला न जा सके। क्रि० प्र०—खाना।

पेचदार (१)
वि० [फा़०] १. जिसमें कोई पेच लगा हो। जिसमें कोई कल लगी हो। पेचवाला। २. जिसमें कोई उलझाव हो। उलझाववाला कठिन। दे० 'पेचीला'।

पेचदार (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का कसीदे का काम जिसमें काढ़ते समय फंदे लगाए जाते हैं।

पेचना
क्रि० स० [फा़० पेच] दो चीजों के बीच में उसी प्रकार की एक तीसरी चीज इस प्रकार धुसेड़ देना जिससे साधारणतः वह दिखाई न पड़े। इस प्रकार लगाना जिसमें पता न लगे।

पेचनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेच] चिकन या कामदानी के काम में एक सीधी लकीर पर काढा हुआ कसीदा।

पेचपाच
संज्ञा पुं० [फा़० पेच + अनु० पाच] दे० 'पेच'। उ०— छोड़ दे पेचपाच की आदत। बीच का खींचतान कर दे कम।—चुभते०, पृ० ३४।

पेचवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] पगड़ी आदि की लपेट पर का एक आभूषण। पेच। उ०—कर साफ अतर से मुखड़े पर, बेतरह पेचवाँ डाली है।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३९३।

पेचवान
संज्ञा पुं० [फा़०] बड़ी सटक जो फर्शी या गुड़गुड़ी़ में लगाई जाती है। २. बड़ा हुक्का।

पेचा †
संज्ञा पुं० [सं० पेचक] [स्त्री० पेची] उल्लू पक्षी।

पेचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] उल्लू पक्षी की मादा।

पेचिल
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी [को०]।

पेचिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. पेट की वह पीड़ा जो आँव होने के कारण होती है। मरोड़। २. आँव के कारण ऐंठन होने से बार बार पाखाना जाने का रोग (को०)।

पेचीदगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. पेचीला होने का भाव। घुमावदार होने का भाव। २. उलझाव।

पेचीदा
वि० [फा़० पेचीदह्] १. जिसमें बहुत कुछ पेच हो। पेचदार। २. जो टेढा़ मेढा़ और कठिन हो। उलझावदार। मुश्किल। ३. लिपटा हुआ (को०)।

पेचीला
वि० [हि० पेच + ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें बहुत पेच हों। घुमाव फिराववाला। २. जो टेढा़ मेढा़ और कठिन हो। उलझावदार। मुश्किल।

पेचु, पेचुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक शाक [को०]।

पेचुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक।

पेज (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पेय] रबड़ी। बसौंधी।

पेज (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. पुस्तक का पृष्ठ। वरक। सफहा। पन्ना। २. सेवक। अनुचर। विशेषकर बाल अनुचर जो किसी पद मर्मादावाले या ऐश्वर्यशाली व्यक्ति की सेबा में रहता है। जैसे,—दिल्ली दरबार के अवसर पर दो देशी नरेशों के पुत्रों को महाराज जार्ज के पेज' बनने का संमानी प्रदान किया गया था जो महाराज का जामा पीछे से उठाए हुए चलते थे। ३. वह बालक या युवा व्यक्ति जो किसी व्यवस्थापिका परिषद् के अधिवेशन में सदस्यों और अधिकारियों की सेवा में रहता है।

पेज (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिजञा, प्रतिज्ञा, प्रा० पइज्जा, अप० पइज्ज, हिं० पैज] पैज। प्रतिज्ञा। उ०—बल को भीम, पेज को परशुराम, वाचा को युधिष्ठिर तेज प्रताप को भान।—अकबरी०, पृ० १०९।

पेट (१)
संज्ञा पुं० [सं० पेट (= थैला)] १. शरीर में थैले के आकार का वह भाग जिसमें पहुँचकर भोजन पचता है। उदर। विशेष—बहुत ही निम्न कोटि के जीवों में गले के नीचे का प्रायः सारा भाग पेट का ही काम देता है कुछ जीव ऐसे भी होते हैं जिनमें किसी प्रकार की पाचन क्रिया होती ही नहीं और इसलिये उनमें पेट भी नहीं होता। पर उच्च कोटि के जीवों के शरीर के प्रायः मध्य भाग में थैले के आकार का एक विशेष अंग होता है जिसमे पाचन रस बनता और भोजन पचता है। मनुष्यों और चौपायों आदि में यह अंग पसलियों के नीचे और जननेंद्रिय से कुछ ऊपर तक रहता है। पाचक रस बनाने और भोजन पचानेवाले सब अंग; जैसे, आमाशय, पक्वाशय, जिगर, तिल्ली, गुरदे आदि इसी के अंतर्गत रहते हैं। इसी के नीचे का भाग कटोरे के आकार का होता है जिसमें आँतें और मुत्राश्य रहता है। कुछ जीवों जैसे पक्षियों आदि, में एक के बदले दो पेट होता है। मुहा०—पेट आना = दस्त आना। (क्व०)। पेट का कुत्ता = जो केवल भोजन के लालच से सब काम करता हो। केवल पेट के लिये सब कुछ करनेवाला। पेट कटना = खाने को कम मिलना। भूखे पेट रहना। उ०—पेट कटता देख जब रो पीटकर। लोग पीटा ही करेंगे छातियाँ।—चुभते० पृ० ३९। पेट काटना = बचाने के लिये कम खाना। जाना बूझकर कम खाना जिसमें कुछ बचत हो जाय। पेट का धंधा = (१) भोजन बनाने का प्रबंध। रसोई बनाने का झंझट। (२) रोजी रोजगार ढूँढ़ने का प्रबंध। जीविका का उपाय। (३) हलका कामकाज। मेहनत मजदूरी। पेट का पानी न पचना = रहा न जाना। रह न सकना। जैसे,—बिना सब हाल कहे तुम्हारे पेट का पानी न पचेगा। पेट का पानी हिलना = परिश्रम होना। मिहनत पड़ना। उ०— हिल गए दिल भी न हिलना चाहिए। जायँ हिल क्यों पेट का पानी हिले।—चुभते०, पृ० ५७। पेट का पानी न हिलना = कुछ परिश्रम न पड़ना। जरा भी मिहनत या तकलीफ न होना। पेट का हलका = क्षुद्र प्रकृति का। ओछे स्वभाव का जिसमें गंभीरता न हो। पेट की आग = भूख। उ०—आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की।—तुलसी (शब्द०)। पेट की आग बुझाना = पेट में भोजन भोजन पहुँचाना। भूख दूर करना। उ०—काम हैं सूझ बूझ का करते। पेट की आग जो बुझाते हैं।—चोखे० पृ० ३८। पेट की बात = गुप्त भेद। भेद की बात। उ०—पेट की बात जानना है तो पेट में पैठ क्यों नहीं जाते।—चुभते०, पृ० ५३। पेट की मार देना या मारना = भूखा रखना भोजन न देना। पेट के लिये दौड़ना = रोजी या जीविका के लिये उद्योग और परिक्षण करना। पेट के हाथ बिकना = पेट के लिये कोई भी काम करना। आजीविकार्थ कोई भी बुरा भला काम करने के लिये बाध्य होना। उ०— बड़ी एक है। और पेट के हाथ तो बिकी हुई है। कुछ ठिकाना है।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ४२६। पेट को धोखा देना = दे० 'पेट काटना'। पेट खलाना = (१) अत्यंत दीनता दिखालाना। उ०—राम सुभाव सुने तुलसी प्रभुसों कही बारक पेट खलाई।—तुलसी (शब्द०)। (२) भूखे होने का संकेत करना। पेट को लगना = भूख लगना। पेट गड़ना = अपच के कारण पेट में दर्द होना। पेट गुड़ गुडा़ना = बादी के कारण आँतों में गुड़गुड़ शब्द होना। पेट में वायु का विकार होना। पेट चलना = दस्त होना। बार बार पाखाना होना। पेट छँटना = (१) पेट साफ हो जाना। पेट का मल निकल जाना। (२) पेट की मोटाई का कम होना। दुबला हो जाना। पेट छूटना = दस्त होना। पेट जलना = (१) अत्यंत भूख लगना। (२) अत्यंत। असंतुष्ट या क्रुद्ध होना। पेट जारी होना = दस्त लगना। दस्तों की बीमारी हो जाना। पेट दिखाना = (१) भूखे होने का संकेत करना। (२) पेट के रोग की पहचान कराना। पेट के रोग का निदान करना। †पेट देना = अपना गूढ़ भेद या विचार किसी को बतलाना। अपने मन की बात बतलाना। उ०—अपने पेट दियो तैं उनको नाकबुद्धि तिय सबै कहैं री।—सूर (शब्द) पेट पकड़ना या पकड़े फिरना = परेशान होना। बहुत दुःखी या तंग होना। व्याकुल होना। पेट पाटना = जो कुछ मिल जाय उसी से पेट भर लेना। भूख के मारे खाद्य या अखाद्य का विचार छोड़कर खा लेना। पेट पानी होना = पतले दस्त आना। पेट पाल पालकर पलना = पेट भरकर जीना। केवल खाने कमाने में लगे रहना। उ०—सब दिनों पेट पाल पाल पले, मोहता मोह का रहा मेवा।—चोखे०, पृ० ४। पेट पालना = कठिनता से खाने भर को कमा लेना। जीवन निर्वाह करना। उ०—बेबसों को लपेट चित पट कर, पालना पेट मुँह पिटाना है।— चोखे०, पृ० २९। पेट पीठ एक हो जाना या पेट पीठ से लग जाना = (१) बहुत दुबला हो जाना (२) बहुत भूखे होना। पेट फूलना = (१) किसी बात को जानने या कहने के लियेअथवा किसी पदार्थ को पाने आदि के लिये व्याकुल होना। किसी बात के लिये बहुत अधिक उत्सुक होना। बहुत अधिक हँसने के कारण पेट में हवा भर जाना (जिसके कारण और अधिक हँसा न जा सके)। (३) पेट में वायु ता प्रकोप होना। पेट बाँधना = भूखे रहना। भूख शांत करने के लिये पेट में कुछ न डालना। उ०—आपका सेवक भी पेट बाँधकर सेवा नहीं करता।—किन्नर०, पृ० ८। पेट भरना = किसी प्रकार आजीविका चलना। कठिनाई से आजीविका चलाना। पेट मारना = (१) दे० 'पेट काटना'। (२) आत्म- घात करना। आत्महत्या करना। उ०—हाथ जो आ जाय सोने की छुरी, पेट तो है मारता कोई नहीं।—चीखे०, पृ० २५। पेट मारकर मर जाना = आत्माघत करना। उ०—पेटी ना दिखाओ कोऊ पेट मारि मरिहैं।— (शब्द०)। पेट में आँत न मुह में दाँत = वह जो बहुत बुड्ढा हो। अत्यंत वृद्ध। पेट मुँह चलना = हैजा होना। उ०—दूसरे ही दिन मठ के एक साधू का पेट मुँह चलने लगा।—मैला०, पृ० ४९। पेट में खलबली पड़ना = (१) चिंता होना। फिक्र होना (२) व्याकुलता होना। घबराहट होना। पेट में चूहों का कलाबाजी खेलना = दे० 'पेट में चूहे दौड़ना'। पेट में चींटे की गिरह होना = बहुत कम खाना। थोड़ा भोजन करना। पेट में डाढी़ होना = बचपन ही में बहुत बुदि्धनान् होना। पेट में डालना = खा जाना। पेट में पाँव होना = अत्यंत छली या कपटी होना। चालबाज होना। पेट में बल पड़ना = इतनी हँसी आना कि पेट में दर्द सा होने लगे। (कोई वस्तु) पेट में होना = अधिकार या चंगुल में होना। गुप्त रूप से पास में होना। जैसे—तुम्हारी पुस्तक इन्हीं लोगों के पेट में है। पेट मोटा होना = धन बढ़ना। पूँजी बढ़ना। नाजायज ढंग से संपत्ति की वृद्धि होना। उ०—जो निकल पावे निकाले पेट से। दिन ब दिन है पेट मोटा हो रहा।— चुभते०, पृ० ४०। पेट मोटा हो जाना = बहुत घुसखोर हो जाना। अधिक रिश्वत लेने लगना। पेट लगना या लग जाना = भूख से पेट का अंदर धँस जाना। पेट से पाँव निका- लना = (१) किसी अच्छे आदमी का बुरा काम करने लग जाना। कुमार्ग में लगना। (२) = बहुत इतराना। उ०— बहुत थानेदारी के बल पर न रहिएगा। देखा कि औरतें ही औरतें घर में हैं तो पेट से पाँव निकाले।—फिसाना०, भा० ३. पृ० २३१। (कोई वस्तु) पेट से निकालना = किसी के द्वारा उड़ाई या छिपाकर रखी हुई वस्तु को प्राप्त करना। हजम की हुई चीज पाना। २. गर्भ। हमल। यौ०—पेटपोंछना। मुहा०—पेट गदराना = गर्भ के लक्षण प्रकट होना। गर्भवती होने के चिह्न दिखाई देना। पेट गिरना = गर्भ गिरना। गर्भपात होना। पेट गिराना = गर्भ नष्ठ करना। पेट गिर- वाना = गर्भपात कराना। पेटचोट्टी = वहु स्त्री जिसके गर्भ हो, परंतु लक्षित न होता हो। गर्भवती होने पर भी जिसके गर्भ के लक्षण दिखाई न पड़े। पेट छँटना = प्रसूता के गर्भाशय का अच्छी तरह साफ हो जाना। पेट ठंढा रहना = बच्चों का सुख देखना। संतान का जीवित रहना। पेट दिखाना = दाई से यह निश्चित कराना कि गर्भ है या नहीं। गर्भ होने या न होने की परीक्षा कराना। पेट फुलाना या फुला देना = गर्भवती कर देना। पेट फूलना = गर्भ रह जाना। पेट रखना = गर्भवती कर देना। पेट रखाना = किसी से संभोग कराके गर्भवती होना। पेट रखवाना = (१) गर्भवती होना। (२) गर्भवती होने की प्रेरणा करना। पेट रहना = गर्भ स्थित होना। गर्भ रहना। हमल रहना। पेटवाली = गर्भ- वती। पेट से होना = गर्भवती होना। ३. पेट के अंदर की वह थैली जिसमें खाद्य पदार्थ रहता और पचता है। पचौनी। ओझर। ४. चक्की के पाटों का वह तल जो दोनों को जोड़ने से भीतर पड़े। ५. सिल आदि का वह भाग जो कूटा हुआ और खुरदरा रहता है और जिसपर रखकर कोई चीज पीसी जाती है। ६. अंतःकरण। मन। दिल। उ०—चेटकी चवाइन के पेट की न पाई मैं।—ठाकुर (शब्द०)। मुहा०—पेट में चूहे कूदना = दे० 'पेट में चूहे दौड़ना'। पेट में चूहे छूटना = दे० 'पेट में चूहे दौड़ना'। उ०—एक प्यादा बोला यहाँ पेट में चूहे छूटे हुए हैं।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १७६। पेट में चूहे दौ़ड़ना = (१) बहुत भूख लगना। (२) व्याकुल या चिंतित होना। व्यग्रता या खलबली होना। पेट में घुसना = भेद लेने के लिये मित्र बनना। रहस्य जानने के लिये मेल बढ़ाना। पेट में चूहों का डंड पेलना = दे० 'पेट में चूहे दोड़ना'। उ०—ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा। पेट में डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ्ज प्यारा।—कुकुर०, पृ० ५। पेट में छूरी घुसेड़ना = हत्या करना। जान लेना। उ०—काम हो कान के उखेड़े जो, तो घुसेड़े न पेट में छूरी।—चुभते०, पृ० ५४। पेट में डालना = (१) कोई बात अपने मन में रखना। भेद प्रकट न होने देना। उ०—बात जो भेद डाल दे उसको, जो सकें डाल पेट में डालें।—चुभते०, पृ० ५३। (२) भोजन का नाम करना। भोजन के रूप में कोई अत्यंत तुच्छ वस्तु लेना। (३) जल्दी जल्दी भोजन करना। शीघ्रता से खाना। (४) अरुचिपूर्वक खाना। बेस्वाद भोजन करना। पेट में बैठना या पैठना = दे० 'पेट में घुसना'। उ०—जो चले काम पेट में पैठे, तो न तलवार पेट में डालें।—चुभते०, पृ० ५४। पेट में भरा पड़ा रहना = मन में होना या रहना। उ०—न जाने कहाँ का खटराग पेट में भरा पड़ा है।—चुभते० (दो दो बातें), पृ० ६। पेट में होना = मन में होना। ज्ञान में होना। जैसे, कोई बात पेट में होना। ७. पोली वस्तु के बीच का या भीतरी भाग। किसी पदार्थ के अंदर का वह स्थान जिसमें कोई चीज भरी जा सके। जैसे, बड़े पेटे की बोतल। ८. बंदूक या तोप में का वह स्थान जहाँ गोली या गोला भरा जाता है। ९. गुंजाइश। समाई।१०. रोजी। जीविका। जैसे,—पेट के लिये सभी को कुछ न कुछ कान करना पड़ता है।

पेट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पेट] रोटी का वह पार्श्व जो पहले तवे पर डाला जाता है।

पेट (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. थैला। २. पिटारा। संदूक। ३. समूह। राशि। ढेर। ४. उँगलियों के साथ खुली हुई हाथ की हथेली। थप्पड़। झापड़ [को०]।

पेटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिटारा। मंजूषा। उ०—रघुवीर यश मुकुता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे।—तुलसी (शब्द०)। ३. समूह। ढेर।

पेटकैयाँ †
क्रि० वि० [हिं० पेट + कैयाँ (प्रत्य०)] पेट के बल।

पेटनट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] पेट के लिये दर दर नाचनेवाला। उदरपूर्ति के लिये नट का काम करनेवाला व्यक्ति।

पेटपरस्त
वि० [सं० पेट + फा़० परस्त] पेट की चिंता में लीन रहनेवाला। उदरभर। पेटार्थी। उ०—परबस कायर कूर आलसी अंधे पेटपरस्त। सूझता कुछ न बसंत माँहि ये भी खराब औ खस्त।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३९७।

पेटपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं० पेट + पूजा] भोजन करना। खाना खाना।

पेटपोँछना
संज्ञा पुं० [सं० पेट + पोछना] अंतिम संतान। वह संतान जिसके उपरांत और कोई संतान न हो।

पेटपोसुआ †
संज्ञा पुं० [सं० पेट + हिं० पोसना] दे० 'पेटू'।

पेटरिया ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० पेटाल + हिं० इया (प्रत्य०)] दे० 'पिटारी'।

पेटल
वि० [हिं० पेट + ल (प्रत्य०)] बड़े पेटवाला। जिसका पेट बड़ा हो। तोंदल।

पेटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पेट] १. किसी पदार्थ का मध्य भाग। बीच का हिस्सा। २. तफसील। ब्योरा। पूरा विवरण। ३. बड़ा टोकरा। ४. सीमा। हद। मुहा०—पेटे में आना = सीमा में आना। हद में पड़ना। पेटें में पड़ना = लगभग होना।—जैसे,—खर्च सौ रुपये के पेट में पड़ेगा। ५. घेरा। वृत्त। †६. गर्भ। हमल। पेट। ७. नदी के बहने का मार्ग। ८. नदी का पाट। मुहा०—पेटे में आना = डूब जाना। पानी में लीन हो जाना। ९. पशुओं की अँतड़ी। १०. पतंग या गुड्डी की डोर का झोल। उड़ती हुई गुड्डी की डोर का वह अंश जो बीच में कुछ ढीला होकर लटक जाता है। मुहा०—पेटा छोड़ना = उड़ती हुई गुड्डी का डोर बीच में से लटक या झूल जाना। पेटा तोड़ना = उड़ती हुई गुड्डी की बीच में लटकती या झूमती हुई डोर तोड़ना।

पेटा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पेट (३)' [को०]।

पेटाक
संज्ञा पुं० [सं०] झोला। थैला। बक्स [को०]।

पेटागि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पेट + अग्नि, प्रा० अग्गि] पेट की ज्वाला। भुख। उ०—जाति के सुजाति के कुजाति के पेटागि वश, खाए टूक सबके विदित बात दुनी सों।—तुलसी (शब्द०)।

पेटात्तू †
वि० [हिं० पेटार्थू] दे० 'पेटार्थ'।

पेटार पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पेटक] पिटारा। उ०—तिल चारो पानिय सलिल अलक फंद पल जार। मन पच्छी गहि कै किते डारे श्रवण पेटार।—मुबारक (शब्द०)।

पेटार (२)
वि० १. पेटू। २. (ऐसा पात्र) जिसमें अधिक वस्तु अँट सके। बड़े पेट का (पात्र)।

पेटारा
संज्ञा पुं० [सं० पेट्टालक] दे० 'पिटारा'। उ०—कनक किरीट कोटि पलेंग पेटारे पीठ, काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं।—तुलसी (शब्द०)।

पेटारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेटारा] दे० 'पिटारी'। उ०—(क) नाम मंथरा मंदमति चोरि केकई केरि। अजस पिटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बिसहर नाचहिं पीठ हमारी। औ धर मूँदहि घालि पेटारी।—जायसी (शब्द०)।

पेटारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पेटिका] १. एक प्रकार का वृक्ष। पिटारी या मेटिका वृक्ष। २. दे० 'पिटारी'।

पेटार्थी
वि० [सं० पेट + अर्थिन्] जो पेट भरने को ही सब कुछ समझता हो। भुक्खड़। पेटू।

पेटार्थू
वि० [सं० पेट + अर्थिन्] पेटार्थी।

पेटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिटारी नाम का वृक्ष। २. संदूक। पेठी। ३. छोटी पिटारी।

पेटिया
संज्ञा स्त्री० [सं० पेट + हिं० इया (प्रत्य०), गुज० पेटियुं (= सीधा, एक समय का आहार)] सीधा। सिद्धा। एक पेट का आहार। उ०—तव भंडारी सों कह्यो जो आज मोंको दोय पेटिया दीजियो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ११३।

पेटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] संदूकची। छोटा संदूक।

पेटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेट] १. छाती और पेड़ू के बीच का स्थान। पेट का वह भाग जहाँ त्रिबली पड़ती है। उ०— पेटी सुछबि लपेटी भल थल पाइ। पकरसि काम बनेठी राखु छिपाइ।—रहीम (शब्द०)। मुहा०—पेटी पड़ना = तोंद निकलना। २. कमर में बाँधने का तमसा। कमरबंद। ३. चपरास। मुहा०—पेटी डतारना = पुलिस के सिपाही का मुअत्तल या बर- खास्त किया जाना। ४. हज्जामों की किसबत जिसमें वे कैची, छुरा आदि रखते हैं। ५. वह डोरा जो बुलबुल की कमर में उसे हाथ पर बैठाने के लिये बाँधते हैं। क्रि० प्र०—बाँधना।

पेटीकोट
संज्ञा स्त्री० [अं०] लहँगे की तरह का एक वस्त्र जिसे स्त्रियाँ धोती या साड़ी के अंदर पहनती हैं।

पेटीबूजुवा
संज्ञा पुं० [अं०] निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति। जो निम्नमध्यवर्ग का हो। उ०—जो कला क्रांतिवाद या पदार्थवाद मूलक उपयोगितावाद में व्यक्त होती है वही कला है, बाकी सब पेटी बूर्जुवा या बूर्जुवा भावुकता है तो मैं आपसे कहता हूँ कि हम न केवल झूठ बोलते हैं वरन् आत्मप्रवंचना भी करते हैं।—कुंकुम (भू०), पृ० ८।

पेटू
वि० [हिं० पेट] १. जिसे सदा पेट भरने की ही फिक्र रहे। पेटार्थी। २. जो बहुत अधिक खाता हो। भुक्खड़।

पेटेंट
वि० [अं०] १. किसी आविष्कारक के आविष्कार के संबंध में सरकार द्वारा की हुई रजिस्टरी जिसकी सहायता से वह आविष्कारक ही अपन आविष्कार से आर्थिक लाभ उठा सकता है। दूसरे किसी को उसकी नकल करके आर्थिक लाभ उठाने का अधिकार नहीं रह जाता। विशेष—यह रजिस्टरी नए प्रकार की मशीनों, यंत्रों, युक्तियों या औषधों आदि के सबंध में होती है। ऐसी रजिस्टरी के उपरांत उस आविष्कार पर एकमात्र आविष्कारक का ही अधिकार रह जाता है। २. (वह आविष्कार या पदार्थ आदि) जिसकी इस प्रकार रजिस्टरी हो चुकी हो।

पेट्रन
संज्ञा पुं० [अं०] सरंक्षक। पृष्ठपोषक। सरपरस्त। जैसे,— वे सभा के पेट्रन है।

पेट्रोल
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक खनिज तेल जिसकी शक्ति से कारें, मोटरें और हवाई जहाज आदि चलते है।

पेठ
संज्ञा पुं० [हिं० पैठ] 'पैठ'।

पेठा
संज्ञा पुं० [देश०] १. सफेद रंग का कुम्हड़ा। विशेष—दे० 'कुम्हड़ा'। २. पेठे की बनी एक मिठाई। कोहँड़ापाग।

पेड़
वि० [अं०] १. जो चुका दिया गया हो। जो चुकता कर दिया गया हो। २. जिसका महसूल, कर या भाड़ा आदि दे दिया गया हो। 'बैरिंग' या 'बैरंग' का उलटा।

पेड़
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] १. वृक्ष। दरख्त। विशेष—दे० 'वृक्ष'। मुहा०—पेड़ लगना = वृक्ष का किसी स्थान पर जड़ पकड़ना। पौधे आदि का जमना। पेड़ लगाना = वृक्ष या पौधे आदि को किसी स्थान पर जमाना। २. आदि कारण। मूल कारण (क्व०)।

पेड़की
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पंडुक'। उ०—एक जोड़ा पेड़की का डाल कर बैठा सिकुड़ जुड़।—निशा०, पृ० ३७।

पेडना ‡
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पेरना'। उ०—अभी जेहलखाना में कोल्हु पेड़ते रहते।—मैला०, पृ० २५८।

पेड़ा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा संदूक। बड़ी पिटारी [को०]।

पेड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] १. खोवा और खाँड़ से बनी हुई एक प्रसिद्ध मिठाई जिसका आकार गोल और चिपटा होता। २. गुँधे हुए आटे को लोई।

पेड़ाइत †
संज्ञा पुं० [हिं० पैंड़ा?] बटमार। मार्ग में लूट खसोट करनेवाला। उ०—खाड़ा बूजी भगति है लोहर बाड़ा माहिं। परगट पेड़ाइत बसै तहँ संत काहे कौं जाँहि। दादू०, पृ० २६१।

पेड़ार †
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] एक प्रकार का वृक्ष।

पैडिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] साइकिल का वह भाग जिसपर पैर रखकर चालाया जाता है। पाँवदान।

पेड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पिण्ड] १. वृक्ष की पींड़। पेड़ का तना। धड़। कांड। २. मनुष्य का धड़। शरीर का ऊपरी भाग। ३. पान का पुराना पौधा। जैसे, पेड़ी का पान। ४. पुराने पौधे के पान। वह पान जो पुराना तोड़ा हुआ तो न हो, पर पुराने पौधों में बाद में हुआ हो। उ०—हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू। पेड़ी हुँत सोनरास बखानू।—जायसी ग्रं०, पृ० १३५। ५. वह कर जो प्रति बृक्ष पर लगाया जाय। ६ वह खेत जिसमें पहले ऊख बोया गया हो और जो फिर जौ या गेहूँ बोने के लिये जोता जाय। ७. एक बार का काटा हुआ नील का पौधा। ८. दे० 'पैड़ी'।

पेड़ू
संज्ञा [हिं० पेट] १. नाभि और मूत्रेंद्रिय के बीच का स्थान। उपस्थ। २. गर्भाशय। मुहा०—पेड़ू की आँच = (१) किसी पुरुष के साथ स्त्री का वह प्रेम जो केवल कामवासना के कारण हो। (२) स्त्री की कामवासना।

पेणा †
संज्ञा पुं० [देश०] पीना साँप। उ०—ओ रिणछोड़ छके मुख आया। पेणै जाँण नींद बस पाया।—रा० रू०, पृ० २५८।

पेत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुधा। पीयूष। २. धृत। घी। ३. छाग या मेष [को०]।

पेदड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पिद्दी'।

पेदर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली पेड़ जिसके पत्ते हर साल झड़ जाते है। विशेष—इसकी लकड़ी भीतर से सफेद और बहुत मजबूत होती है। यह मेज, कुरसियाँ, अलमारियाँ और नावें बनाने तथा इमारत के काम में आती है। इसकी जड़, पत्तो और फूल औषधि रूप में भी काम आते हैं। यह पेड़ मदरास और बंगाल में अधिकता से होता।

पेन (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० पेन्] कमल। लेखनी।

पेन (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० पेन] पीड़ा। दर्द। वेदना।

पेन (३)
संज्ञा पुं० [देश०] लसोड़े की जाति का एक वृक्ष जो गढ़वाल में होता है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है। इसे 'कूम' भी कहते हैं।

पेनशनिया
संज्ञा पुं० [अं० पेनशन] वह जिसे पेंशन मिलती हो। पेंशन पानेवाला। पेंशनर।

पेनाना पु ‡
क्रि० स० [हिं० पहिनाना, पेन्हाना] दे० 'पहनाना'। उ०—लाल कमली वोढ़े, पेनाए, बेसु हरि थे कैसे बनाए।— दक्खिनी०, पृ० १०३।

पेनिसिलिन
संज्ञा स्त्री० [अं०] ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति केअंतर्गत प्रतिजीवाणु (ऐंटीबायोटिक) वर्ग की प्रमुख ओषधि जिसका प्रयोग मुख्यतः अंतःपेशी (इंट्रामस्कयुलर) इंजेक्शन के रूप में किया जाता है। टिकिया के रूप में खाने तथा मलहम के रूप में लगाने में भी इसका व्यवहार होता है। विशेष—लंदन सेंट मेरी चिकित्सालय के प्रो० अलेक्जैंडर फ्लेंमिंग ने सन् १९२८ में संवर्धन पट्टिकाओं (कल्चर प्लेटों) का सामान्य परीक्षण करते समय आकस्मिक रूप से इसका पता लगाया था। परंतु इसके वास्तविक संघटन, गुण और शक्तियों का सही ज्ञान दस वर्षों बाद प्राप्त हुआ। यह एक प्रकार की फफूँद या भुकड़ी है जिसके संपर्क में आने पर अनेक दुस्साध्य रोगों के जनक और वाहक रोगाणु तत्काल नष्ट हो जाते हैं और रोग दूर हो जाता है। पेनिसिलिन का आविष्कार चिकित्सा जगत् में वर्तमान शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। दुष्टव्रण, पृष्ठव्रण, न्यूमोनियाँ, उपवंश, सूजाक आदि अनेक असाध्य समझे जानेवाले रोगों की चिकित्सा में पोनिसिलिन रामबाण सिद्ध हुई है। फ्लेमिंग महोदय को इसके आविष्कार के उपलक्ष में 'सर' की उपाधि और नोबेल पुरस्कार मिला था।

पेनी
संज्ञा स्त्री० [अं०] इंगलैंड में चलनेवाला ताँबे का सिक्का जो एक शिलिंग का बारहवाँ भाग होता है। यह भारत के प्रायः तीन (अब प्रायः पाँच) पैसों के बराबर मूल्य का होता है।

पेनीवेट
संज्ञा पुं० [अं०] एक अँगरेजी तौल जो लगभग १० रत्ती के बराबर होती है।

पेनशन
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह मासिक या वार्षिक वृत्ति जो किसी व्यक्ति अथवा उसके परिवार के लोगों को उसकी पिछली सेवाओं के कारण दी जाय। विशेष—जो लोग कुछ निश्चिच समय तक किसी राजकीय (जैसे, शासन, सेना आदि) विभाग में काम कर चुकते हैं, उन्हें वृद्धावस्था में, नौकरी से अलग होने पर, कुछ वृत्ति दी जाती है जो उनके वेतन के आधे के लगभग होती है। सेना विभाग के कर्मचारियों के मारे जाने पर उनके परिवारवालों को; अथवा किसी राज्य को जीत लेने पर उस राजकुल के लोगों और उनके वंशजों को भी इसी प्रकार कुछ वृत्ति दी जाती है। इसी प्रकार की वृत्तियाँ पेनशन कहलाती हैं। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना।

पेनशनर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसे पेनशन मिलती हो। पेनशन पानेवाला व्यक्ति।

पेन्स
संज्ञा पुं० [अं०] पेनी का बहुवचन। विशेष दे० 'पेनी'।

पेनसिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] लिखने का एक प्रसिद्ध साधन जिससे बिना दावात या स्याही के ही लिखा जाता है। विशेष—यह प्रायः सुरमे, सीसे, रंगीन खड़िया या इसी प्रकार की और किसी सामग्री की बनी हुई पतली लंबी सलाई होती है। जो या तो कलम के आकार की गोल लंबी लकड़ी के अंदर लगी हुई होती है और या किसी धातु के खाने में अटकाई हुई होती है।

पेन्हाना † (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनाना'।

पेन्हाना (२)
क्रि० अ० [सं० पवःस्रवन, प्रा० पहणवन] दुहते समय गाय, भैसं आदि के थन में दूध उतरना जिससे थन फूले या भरे जान पडते हैं। उ०—तेइ तृण हरित चरै जब गाई।—भाव बच्छ सिसु पाय पेन्हाई।—तुलसी (शब्द०)।

पेपर
संज्ञा पुं० [अं०] १. कागज। २. दस्तावेज। तमस्सुक, सनद या और कोई लेख जो कागज पर लिखा हो। ३. समाचारपञ। संवादपत्र। अखबार। ४. वह छपा हुआ पत्र या पर्चा जिसमें परीक्षार्थियों से एक या अधिक प्रश्न किए गए हों। प्रश्नपत्र। जैसे,—इस बार मैट्रिक्यूलेशन का अंग्रेजी का पेपर बहुत कठिन था। ५. प्रामिसरी नोट। सरकारी कागज। जैसे, गवर्नमेंट पेपर। ६. लेख। निबंध। प्रबंध।

पेपरमिंट
संज्ञा पुं० [अं० पिपरमिंट] दे० 'पिपरमिंट'।

पेपरमिल
संज्ञा पुं० [अं०] कागज तैयार करनेवाली मिल, कारखाना या संस्थान।

पेपरवेट
संज्ञा पुं० [अं०] शीशा, पत्थर या धातु का वह साधन, जिसे कागजों पर उड़ने से रोकने के लिये रखा जाता है।

पेम पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम, प्रा० प्रेम] दे० 'प्रेम'। उ०—राम सुपेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलिकलुष गलानी।—तुलसी (शब्द०)।

पेमचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकारा का रेशमी कपड़ा। उ०— पेमचा डरिया औ चौधारी। साम, सेत, पीयर, हरियारी।—जायसी ग्रं०, पृ० १४५।

पेमा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो ब्रह्मपुत्र, गंगा और इरावदी (बरमा) तथा बंबई के जलाशयों में पाई जाती है। इसकी लंवाई ८ इंच होती है।

पेमेंट
संज्ञा पुं० [अं०] मूल्य देना। चुकाना बेबाकी भुगतान। जैसे,—(क) तीन तारीख हो गई; अभी तक पेमेंट नहीं हुआ। (ख) बैंक ने पेमेंट बंद कर दिया। क्रि० प्र०—करना।—होना।

पेय (१)
वि० [सं०] १. पीने योग्य। जिसे पी सकें। २. जो पान किया जाय।

पेय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीने की वस्तु। वह चीज जो पीनी के काम में आती हो। जैसे, पानी, दूध, शराब, आदि। २. जल। पानी। ३. दूध। दुग्ध।

पेया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में चावलों की बनी हुई एक प्रकार की लपसी। विशेष—यह किसी के मत से ग्यारह गुने किसी के मत से चौदह गुने और किसी के मत से पंद्रह गदुने पानी में पकाकर तौयार की जाती है। यह स्वेद और अग्निजनक तथआ भूख, प्यास, ग्लानि, दुर्बलता औऱ कुष्ठ रोग की नाशक मानी जाती है। २. माँड़। ३. आदी। अदरक। ४. सोआ नामक साग। ५. सौंफ।

पेयान †
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाण] दे० 'प्रयाण'। उ०—ज्ञानदीपक ग्रंथ संपूरन कीन्हा। तब ही काल पेयाना दीन्हा। सं० दरिया, पृ० ४१।

पेयु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। अनल। २. सूर्य। दिवाकर। ३. सागर। समुद्र [को०]।

पेयूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दूध जो गौ के बच्चा देने के सात दिन बाद तक निकलता है। ऐसा दूध स्वाद में अच्छा नहीं होता और हानिकारक होता है। पेउसी। २. अमृत। ३. ताजा घी।

पेरज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पेरोज' [को०]।

पेरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांडव नृत्य का एक प्रकार [को०]।

पेरना (१)
क्रि० स० [सं० पीडन] १. दो भारी तथा कड़ी वस्तुऔं के बीच में डालकर किसी तीसरी वस्तु को इस प्रकार दबाना कि उसका रस निकल आवे। जैसे, कोल्हू में तेल पेरना। उ०—(क) ज्यौं किसान बेलन में ऊषहिं। पेरत लेत निचोरि पियूषहिं।—निश्चल (शब्द०)। (ख) भृली शूल कर्म कोल्हुन तिल ज्यौ बहु बारन पेरो।—तुलसी (शब्द०)। २. कष्ट देना। बहुत सताना। उ०—जेहि बालि बली बर सो बर पेरयो।—केशव (शब्द०)। ३. किसी काम में बहुत देर लगाना। आवश्यकता से बहुत अधिक विलंब करना। ४. किसी वस्तु को किसी यंत्र में डालकर घुमाना। †५. बोना। उ०—हुआ वोई चहासिल जो पेरी अथी।—दक्खिनी०, पृ० ९०।

पेरना पु (२)
क्रि० स० [सं० प्रेरणा] १. प्रेरणा करना। चलाना। उ०—ये किरीट दशकंधर केरे। आवत बालितनय के पेरै।— तुलसी (शब्द०)। २. भेजना। पठाना। उ०—राठोड़ जुडतौ देख राणा, पेरियो, भीम अंगज प्रमाणौ।—रा० रू०, पृ० ७३।

पेरना पु (३)
क्रि० अ० [हिं० पैरना] दे० 'पैरना'। उ—सूरदास तैसैं ये लोचन, कृपा जहाज बिना क्यौ पेरैं।—सूर०, १०। १७८५।

पेरली
संज्ञा स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद। विशेष—इसमें अंगविक्षेप अधिक होता है और अभिनय कम। इसे देशी' भी कहते हैं। इसका पेरणी नाम से भी उल्लेख है।

पेरवा †
संज्ञा पुं० [हिं० पेरना] वह जो कोल्हू आदि में कोई चीज पेरता हो। पेरनेवाला।

पेरवाह †
संज्ञा पुं० [हिं० पेरना] दे० 'पेरवा'।

पेरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पीला] एक प्रकार की मिट्टी जिससे दीवार, घर इत्यादि पोतने का काम लिया जाता है। इसका रंग कुछ पीलापन लिए होता है। पोतनी मिट्टी।

पेरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] दे० 'पेड़ा'।

पेरा (३)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तंत्रवाद्य जो खरमुख के आकार सका होता था [को०]।

पेरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीली] पीले रग की रँगी हुई धोती जो विवाह में वर या बधू को पहनाई जाती है। इसे पियरी भी कहते हैं।

पेरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सागर। समुद्र। २. सूर्य। ३. अग्नि। आग। ४. वह जो रक्षा करे। ५. वह जो पूर्ति करे। पूरा करनेवाला। ५. मेरु नामक पर्वत। स्वर्णा पर्वत मेरु (को०)।

पेरोज
संज्ञा पुं० [सं०] नीलमणि। फीरोजा [को०]।

पेरोल
संज्ञा पुं० [अं०] वचन। शब्द। वचन पर विश्वास करके निश्चित अवधि के लिये कारामुक्ति।

पेल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जाना। गमन। २. अंडकोष [को०]।

पेलक
संज्ञा पुं० [सं०] अंडकोष [को०]।

पेलढ़
संज्ञा पुं० [सं० पेल (= अंडकोष)] दे० 'पेल्हड़'।

पेलना (१)
क्रि० स० [सं० पीड़न] १. दबाकर भीतर घुसाना। जोर से भीतर ठेलना या धँसाना। दबाना। उ०—विपति हरत हठि पद्मिनी के पात सम, पंक ज्यौं पताल पेलि पठवै कलुष को।—केशव (शब्द०)। २. ढकेलना। धक्का देना। उ०—(क) गिरि पहाड़ पर्वत कहँ पेलहिं। बृक्ष उचारि झारि मुख मेलहिं।—जायसी (शब्द०)। (ख) स्वामि काज इंद्रासन पेलों।—जायसी (शब्द०)। ३. टाल देना। अवज्ञा करना। उ०—(क) जो न कियो परिनै पन पेलि, पषाण परै पुहुमीपति के पन।—रघुराज (शब्द०)। (ख) भोरेहु भरत न पेलिहहिं, मन सहुँ राम रजाइ। करिय न सोच सनेह बस, कहेउ भूप बिलखाइ।—तुलसी (शब्द०)। (ग) जनक सुता परिहरी अकेली। आयहु तात वचन मम पेली।— तुलसी (शब्द०)। (घ) प्रभुपितु बचन मोह बस पेली। आयउँ यहाँ समाज सकेली।—तुलसी (शब्द०)। ४. त्यागना। हटाना। फेकना। उ०—राज महाल को बालक पेलि कै पालत लालत खूसर की।—तुलसी (शब्द०)। ५. जबरदस्ती करना। बल प्रयोग करना। उ०—कह्यौ युवराज बोलि बानर समाज आज खाहु फल सुनि पेलि पैठे मधुबन में।—तुलसी (शब्द०)। ६. प्रविष्ट करना। घुसेड़ना। ७. गुदामैथुन करना। (बाजारू)। ८. दे० 'पेरना'।

पेलना (२)
क्रि० स० [सं० प्रेरणा] १. आक्रमण करने के लिये सामने छोड़ना। ढीलना। आगे बढ़ाना। उ०—(क) कुंभ- स्थल कुच दोउ मयमंता। पैलो सौहँ सँभारहु कंता।— जायसी। (शब्द०) (ख) जौं लहि धवहिं ऊसका खेलहु। हस्तिहिं केर जूह सब पेलहु।—जायसी (शब्द०)। (ग) (इतनी) बात के सुनते ही गजपाल ने गज पेला, ज्यौं वह बलदेव जी पर टूटा, त्यौं उन्होंने हाथ घुमाय एक थपेड़ा ऐसा मारा......।—लल्लू (शब्द०)। २. पु बिताना। गुजारना। उ०—आतिथ्य विनय विवेक कौतुक समय पोल्लिअ सब्बहिं।—कीर्ति०, पृ० २८। ३. भेजना। पठाना। उ०— मैं मेले रे मैं मेले। परचंड दसूं दिस पेले।—रघु० रू०, पृ० १५६।

पेलव
वि० [सं०] १. कोमल। मृदु। २. कृश। दुर्बल क्षीण। ३. बिठल [को०]।

पेलवाना
क्रि० स० [हिं० पेलना का सकर्मक रूप] पेलने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को पेलने में प्रवृत्त करना। दे० 'पेलना'।

पेला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पेलना] १. तकरार। झगड़ा। उ०—कहा कहत तुमसौं मैं ग्वारिनि।......लीन्हैं फिरति रूप त्रिभुवन को ऐ नोंखी बनजारिनि। पेला करति देत नहिं नीके तुम हो बड़ी बँजारिनि। सूरदास ऐसो गथ जाके ताके बुद्धि पसारिनि।—सूर (शब्द०) २. अपराध। कसूर। ३. आक्रमण। धावा। चढ़ाई। उ०—करयौ गढ़ा कोटा पर पेला। जहाँ सुनै छत्रसाल बुँदेला।—लाल (शब्द०) ४. पेलने की क्रिया या भाव।

पेला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बाघ [को०]।

पेलास
संज्ञा पुं० [अं०] मंगल और बृहस्पति के बीत का एक ग्रह जो सूर्य से २८ १/२ करोड़ मील की दूरी पर है। विशेष—चार वर्ष आठ मास में यह ग्रह सूर्य की परिक्रमा करता है। आकार में यह ग्रह चंद्रमा से छोटा है। सन् १८०२ ई० में डाक्टर आलवर्ज ने पहले पहल इसका पता लगाया था।

पेली
संज्ञा पुं० [ सं० पेलिन्] घोड़ा [को०]।

पेलू
संज्ञा पुं० [हिं० पेलना + ऊ (प्रत्य०)] १. पेलनेवाला। वह जो पेलता हो। २. पति। खाविंद। ३. जार। उपपति। ४. वह जो गुदाभंजन करता हो। (बाजारू)। ५. जबरदस्त। बलवान।

पेले †
अव्य० [हिं०] दे० 'पहले'। उ०—साहब इधर ? हमने पेले कहा।—भस्मावृत०, पृ० ९५।

पेल्हड़
संज्ञा पुं० [पेल या पेलक] अंडकोष। पोता।

पेवंद †
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'पैवंद'। उ०—पाँच पेवंद की बनी रे गुदड़िया तामें हीरा लाल लगावा।—कबीर० श०, भा० १, पृ० ४३।

पेवँ †
संज्ञा पुं० [सं० प्रेम] प्रीति। प्रेम। उ०—दायज बसन मणि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी। दीन्हीं मुदित गिरिराज जे गिरिजहि पियारी पेँ की।—तुलसी (शब्द०)।

पेवक्कड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० पीना] दे० 'पियक्कड़'।

पेवड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पीत] १. पीले रंग की बुकनी। २. पीली रज। रामरज।

पेवर †
संज्ञा पुं० [सं० पीत] पीला रंग।

पेवस
संज्ञा पुं० [सं० पेयूष] १. हाल की ब्याई गाय या भैंस का दूध। २. दे० 'पेउसी'।

पेवसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेवस + ई] दे० 'पेवस'।

पेश (१)
क्रि० वि० [फा़०] सामने। आगे। संमुख। मुहा०—पेश आना = (१) बर्ताव करना। व्यवहार करना। (२) घटित होना। सामने आना। होना। पेश करना = सामने रखना। दिखलाना। संमृख उपस्थित कर देना। (२) भेंट करना। नजर करना। पेश जाना या चलना = वश चलना। अधिकार या जोर चलना। (किसी से) पेश पाना = जीतना। बाजी, होड़, मुकाबिले, आदि में बढ़ना। कृतकार्य होना।

पेश (२)
संज्ञा पुं० [सं० पेसस्] १. वैदिक काल का लहँगे की तरह का एक प्रकार का पहनावा जो नाचने के समय पहना जाता था और जिसमें सुनहला काम बना होता था। २. आकार। रूप। स्वरूप (को०)। ३. सोना (को०)। ४. कांति। चमक। प्रभा। (को०)। ५. आभूषण। सजावट (को०)।

पेशकब्ज
संज्ञा स्त्री० [फा़० पेशकब्ज] कटारी।

पेशकश
संज्ञा पुं० [फा़०] १. नजर। भेंट। उपहार। २. सौगात। तोहफा। उ०—कौन भयो ऐसी नृपति को ह्नहै यहि भाय। जाके डर गज पेशकश दिग्गज देत पठाय।—गुमान (शब्द०)।

पेशकार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. किसी दफ्तर का वह कार्यकर्ता जो उस दफ्तर के कागज पत्र अफसर के सामने पेश करके उनपर उसकी आज्ञा लेता है। हाकिम के सामने कागज पत्र पेश करके उसपर हाकिम की आज्ञा लिखनेवाला कर्मचारी। पेश करने या उपस्थित करनेवाला व्यक्ति।

पेशकारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पेशकर का पद या स्थान। २. पेशकार का काम।

पेशखेमा
संज्ञा पुं० [फा़० पेश + अ० खैमह्] १. सेना की खीमा, तबूं आदि वह आवश्यक सामग्री जो उसके किसी स्थान पर पहुँचने से पहले उसके सुभीते के लियि भेजी जाती है। फौज का वह सामान जो पहले से आगे भेज दिया जाय। २. फौज का वह अगला हिस्सा जो आगे आगे चलता है। हरावल। ३. किसी बात या घटना का पूर्व लक्षण।

पेशगाह
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. आँगन। अजिर। २. दरबार। राजसभा (को०)।

पेशगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वह धन या रकम जो किसी को किसी काम के करने के लिये उस काम के करने से पहले ही दे दी जाय। पुरस्कार या मजदूरी आदि का वह अंश जौ काम होने से पहले ही दिया जाय। अगौड़ी। अगाऊ। अग्रिम धन।

पेशगोई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पेशीनगोई। भविष्यवाणी। [को०]।

पेशतर
क्रि० वि० [फा़०] पहले। पूर्व।

पेशताख
संज्ञा स्त्री० [फा़० पेशताक] एक प्रकार की नेहराब जो अच्छी इमारतों में दरवाजे उपर और आगे की ओर निकली हुई बनाई जाती है।

पेशदस्त
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'पेशकार'।

पेशदस्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वह अनुचित कार्य जो किसी पक्ष की ओर से पहले हो। छेड़खानी। जबरदस्ती। ज्यादती।

पेशदामन
संज्ञा पुं० [फा़०] सेवक। नौकर [को०]।

पेशबंद
संज्ञा पुं० [फा़०] चारजामे में लगा हुआ वह दोहरा बंधन जो घोड़े के गर्दन पर से लाकर दूसरी ओर बाँध दिया जाता है। विशेष—इस बँधन के कारण चारजामा घोड़े की दुम की ओर नहीं खिसक सकता।

पेशबंदी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. पहले से किया हुआ प्रबंध या बचाव की युक्ति। पूर्वचिंतित युक्ति। २. षड्यंत्र। छल कपट। धोखा।

पेशराज
संज्ञा पुं० [फा़० पेश + हिं० राज (=मकान बनानेवाला)] वह मजदूर जो राज मेमार के लिये पत्थर ढो ढोकर लाता हो। पत्थर ढोनेवाला मजदूर। विशेष—कहीं कहीं पेशराज लोग इंटों की चुनाई आदि का भी काम करते हैं।

पेशरौ
वि० [फा़०] १. अग्रगामी। २. पथप्रदर्शक। ३. सेनाग्र भाग। हरावल।

पेशल (१)
वि० [सं०] १. मनोमुग्धकारी। मनोहर। सुंदर। २. चतुर। प्रवीण। ३. धूर्त। चालाक। ४. कोमल। गृदु। ५. क्षीण। कृश। तनु। जैसे, कटि (को०)।

पेशल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. सौंदर्य। लावण्य। सुंदरता (को०)।

पेशलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदरता। सौंदर्य। खूबसूरती। २. सुकुमारता। नजाकत। ३. धूर्तता। चालाकी।

पेशवा
संज्ञा पुं० [फा़०] १. नेता। सरदार। अग्रगणय। उ०— पेशवा भी किए इमाम तुम्हें, ऐ अमल हाय सद सलाम तुम्हें।—कबीर सा०, पृ० ९८०। २. महाराष्ट्र राज्य के प्रधान मंत्रियों की उपाधि। विशेष—मुसलमानों के राज्यकाल में दक्षिण की मुसलमानी रियासतों के प्रधान मंत्री 'पेशवा' कहलाते थे। पर उस समय तक यह शब्द अधिक प्रसिद्ध नहीं हुआ था। इसके उपरांत शिवाजी के प्रधान मंत्री भी पेशवा ही कहे जाने लगे। यद्यपि आगे चलकर शिवाजी ने यह शब्द उठा दिया था, तथापि कुछ दिनों के बाद फिर इसका प्रचार हो गया और धीर धीरे यह शब्द 'प्रधान मंत्री' का पर्याय सा हो गया। आगे चलकर जब शिवाजी के राजवंश का ह्नास होने लगा, तब ये पेशवा लोग ही महाराष्ट्र साम्राज्य के अधीश्वर हुए। कई एक पेशवाओं के समय मे महाराष्ट्र साम्राज्य की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।

पेशवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] किसी माननीय पुरुष के आने पर कुछ दूर आगे चलकर स्वागत करना। अगवानी।

पेशवाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेशवा + ई (प्रत्य०)] १. पेशवाओं की शासनकला। २. पेशवा का पद या कार्य।

पेशवाज
संज्ञा स्त्री० [फा़० पेशवाज] वेश्याओं या नर्तकियों का वह घाघरा जो वे नाचते समय पहनती हैं। इसका घेरा कुछ अधिक होता है और इसमें प्रायः जरदोजी का काम बना रहता है। उ०—कहाँ है सबै सुंदरी बार नारी, कहो पेश- वाजै सजै आज भारी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७०२।

पेशा
संज्ञा पुं० [फा़० पेशह्] वह कार्य जो मनुष्य नियमित रूप से अपनी जीविका उपार्जित करने के लिये करता हो। कार्य। उद्यम। व्यवसाय। जैसे, वकालत का पेशा, हलवाई का पेशा, मजदूरी का पेशा। मुहा०—पेशा करना या कमाना = कसब कमाना। वेश्यावृत्ति करना। रंडी बनकर जीविका उपार्जित करना। (बाजारू)।

पेशानी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. ललाट। भाल। कपाल। माथा। उ०—नहीं है जाहिदों को मैं सेंतीकाम। लिखा है उनकी पेशानी में सिर का।—कविता० कौ०, भा० ४, पृ० १९। २. किस्मत। प्रारब्ध। भाग्य। ३. किसी पदार्थ का ऊपरी और आगे का भाग। मुहा०—पेशानी का खत = ललाट की लिखावट। भाग्यरेखा। पेशानी पर बल आना या बल पकड़ना = क्रोध की स्थिति में ललाट पर के चमड़े का खिंचना। त्योरी चढ़ना।

पेशाब
संज्ञा पुं० [फा़०, तुल सं० प्रस्त्राव] १. मूत। मूत्र। यौ०—पेशाबखाना। मुहा०—पेशाब करना = (१) मूतना। (२) अत्यंत तुच्छ समझना। पेशाब की राह बहा देना = रंडीबाजी में खर्च कर देना। पेशाब निकल पड़ना या खता होना = अत्यंत भयभीत होना। इतना डरना कि पेशाब निकल जाय। पेशाब बंद होना = (१) मूत्र का उतरना रुक जाना। (२) अत्यंत भयभीत हो जाना। (किसी के) पेशाब का चिराग जलना या पेशाब से चिराग जलना= अत्यंत अतापी होना। अत्यंत प्रभावशाली या विभघशाली होना। २. वीर्य। धातु। ३. संतान। औलाद।

पेशाबखाना
संज्ञा पुं० [फा़० पेशाबखानहु] वह स्थान जहाँ लोग मुत्र त्याग करते हों। पेशाब करने की जगह।

पेशावर (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] किसी प्रकार का पेशा करनेवाला। व्यवसायी।

पेशावर (२)
संज्ञा पुं० [फा़० पेश + आवर (= आगे लानेवाला)। तुल० सं० पुरुषपुर] भारत की पश्चिमी सीमा का एक प्रसिद्ध नगर।

पेशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पेशी' (२) [को०]।

पेशिका
संज्ञा पुं० [सं०] अंडा।

पेशी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. हाकिम के सामने किसी मुकदमे के के पेश होने की क्रिया। मुकदमे की सुनवाई। यौ०—पेशी का मुहर्रिर = वह मुहर्रिर जो मुकदमे के कागज पत्र पढ़कर हाकिम को सूनावे। पेशकार। मिसिलस्वाँ। २. सामने होने की क्रिया या भाव।

पेशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वज्र। २. तलवार की म्यान। ३. अंडा। ४. जटामासी। ५. पकी हुई कली। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। ७. एक प्राचीन नदी कानाम। ८. एक राक्षसी का नाम। एक पिशाची का नाम। ९. चमड़े की वह थैली जिसमें गर्भ रहता है। १०. शरीर के भीतर मांस की गुलथी या गाँठ। विशेष—आधुनिक शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के भीतर मांसतंतुओं की बहुत सी छोटी बड़ी गुल्थियाँ या लच्छे से होते हैं जो कुछ सूत्रों के द्बारा आपस में जुड़े रहते हैं। इन सुत्रों को हटाने पर ये मांस के टुकड़े अलग अलग किए जा सकते हैं। इस प्रकार जो टुकड़े बिना चीरे फाड़े सहज में अलग किए जा सकें उन्हीं को पेशी या मांसपेशी कहते हैं। पेशियों में विशेषता यह होती है कि वे सुकड़ती और फैलती हैं। अनेक पेशियों के संयोंग से शरीर में के पुट्ठे आदि बनते हैं। ये पेशियाँ अनेक आकार और प्रकार की होती हैं। कोई छोटी, कोई बड़ी, कोई पतली, कोई मोटी, कोई लंबी और कोई चौड़ी होती हैं। मांसपेशियों के बीच बीच में झिल्लियाँ रहती हैं। ये पेशियाँ सहज में अपने स्थान से हटाई नहीं जा सकतीं क्योंकि ये कहीं न कहीं अपने नीचे रहनेवाली हड्डी से जुड़ी रहती हैं। इन्हीं पेशियों की सहायता से शरीर के अंग हिलते डोलते है। अगों का संचालन, प्रसारण, संकोचन, स्थितिस्थापन आदि इन्हीं पेशियों की सहायता से होता है। जैसे, कोई पेशी मुँह खोलने के समय होंठ को ऊपर उठाती है, कोई हाथ उठाने में सहायक होती है, कोई उसे मर्यादा से आगे बढ़ने से रोकती है, कोई गरदन की अधिक झुकने नहीं देती कोई पेट के भीतर के किसी यंत्र को दबाए रखती है, और कोई मल अथवा मूत्र के त्यागने अथवा रोकने में सहायता देती है। कभी कभी शरीर के एक ही काम के लिये अनेक पेशियों की भी सहायता होती है। कुछ पेशियाँ ऐसी होती हैं जो इच्छा करते ही हिलाई डुलाई जा सकती हैं और कुछ ऐसी होती हैं जो इच्छा करने पर भी अपने स्थान से नहीं हट सकतीं। शरीर की सभी पेशियों का संबंध मस्त्रिष्क अथवा उसके निचले भाग के गतिवाहक सूत्रों से होता है। आधुनिक शरीर विज्ञान के ग्रंथों में यह बतलाया गया है कि शरीर के किस अंग में कितनी पेशियाँ हैं। कुल पेशियों कि संख्या भी निश्चित है। हमारे यहाँ वैद्यक में इन पेशियों को प्रत्यंग में माना है और उनकी संख्या ५०० बतलाई गई है। द्यपि यह संख्या आधुनिक शरीर विज्ञान में बतलाई हुई संख्या के लगभग ही है तथापि दोनों के ब्योरे में बहुत अधिक अंतर है। ११. पादुका। पादत्राण (को०)। १२. आच्छादन। ढक्कन (को०)। १३. अच्छा पका चावल (को०)। १४. फलों का आवरण या छिलका (को०)।

पेशीकोश, पेशीकोष
संज्ञा पुं० [सं०] अंडा [को०]।

पेशीनगोई
संज्ञा स्त्री० [फा़०] भविष्यकथन। भविष्यद्बाणी।

पेश्तर
क्रि० वि० [फा़०] पहले। पूर्व। पेशतर।

पेष
संज्ञा पुं० [सं०] पीसने या चूर्ण करने की क्रिया। पीसना [को०]।

पेषक
वि० [सं०] पेषण करनेवाला। पीसनेवाला [को०]।

पेषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीसना। २. तिधारा थूहड़। ३. वह वसु जिससे कोई चीज पीसी या चूर्ण की जाय। खरल (को०)। ४. खलिहान। खलधान्य (को०)।

पेषणि, पेषणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिल, खरल, चक्की आदि शिला जिसपर कोई चीज पीसी जाय।

पेषना (१)
क्रि० सं० [सं० प्रेकष्ण, प्रेक्षण] दे० 'पेखना'। उ०— पषावषी कै पेषणै, सब जगत भुलाना।—कबीर ग्रं०, पृ० १४९।

पेषना (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पेखना'।

पेषाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पेषणी' [को०]।

पेषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वज्र।

पेषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिशाचिनी।

पेषीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] पीसना। चूर्ण करना।

पेस (१)
वि० [फा़०] दे० 'पेश'। उ०—(क) हेतुमान सहित बखाने 'हेतु' जाको नाम, चारो फल आठो सिद्बि दीवे ही को पेस है।—दूलह (शब्द०)। (ख) मेवात धनी आए महेस, मोहिल्ल दुनापुर दिए पेस।—पृ० रा०, १।४२२।

पेसकबज पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० पेशकब्ज] कटारी। उ०—तहँ घली घोर छुरी बगुरदा पेसकबजै अरिन सौं।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १९।

पेसकस
संज्ञा पुं० [फा़० पेशकश] दे० 'पेशकश'। उ०—पेसकसै भेजत इरान फिरगान पति।—भूषण ग्रं०, पृ० ५०।

पेसबंद
संज्ञा पुं० [फा़० पेशबंद ] दे० 'पेशबंद'। उ०—साखत पेसबंद अरु पूजी। हीरन जटित हैकलैं दूजी।—हम्मीर०, पृ० ३।

पेसल
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पेशल'।

पेसवाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पेसवा + ई (प्रत्य०)] दे० 'पेशवाई'। उ०—साहजादे देखे हिस्मत निवाह। दुरंग का भाई पेशवाई दुरंग साह।—रा० रू०, पृ० ११५।

पेस्टल
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकर की रंग की बत्ती, जिससे चित्र बनाए जाते हैं। यौ०—पेस्टल कलर = पेस्टल रंग। पेस्टल ड़्राइंग = वह चित्र जो पेस्टल रंग से बना हो (को०)।

पेस्टल रंग
संज्ञा पुं० [अं० पेस्टल + हिं० रंग] पेस्टल की बत्ती। पेस्टल।

पेस्वर
वि० [सं०] १. चलनेवाला। गतिशील। २. विनाशक। ध्वंसक [को०]।

पेहँटा †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कचरी नाम की लता का फल जो कुँदरू के आकार का होता है और जिसकी तरकारी तथा कचरी बनती है। विशेष—दे० 'कचरी—१'।

पेहँटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पेहँटा'।

पेहँटुल
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पेहँटा'।

पेहला पु †
वि० [हिं० पहला] दे० 'पहला'। उ०—कुँवर रमईराजा भोज की। पेहलई श्रावण खेलावा जाई।—बी० रासो०, पृ० १०८।

पैंग
वि० [सं० पैड़ग] १. मूषक संबंधी। २. पिंग वर्ण का [को०]।

पैंगल
संज्ञा पुं० [सं० पैङ्गल] पिगंल का पुत्र या अंतेवासी। २. पिंगल प्रणीत ग्रंथ [को०]।

पैंगल्य
संज्ञा पुं० [सं० पैङ्गल्य] पिंग वर्ण। पिंगल रंग [को०]।

पैंगि
संज्ञा पुं० [सं० पैङ्गि] निरुक्त के निर्माता महर्षि यास्क [को०]।

पैंजूष
संज्ञा पुं० [सं० पैञ्जूष] श्रवणेंद्रिय। कान [को०]।

पैंट
संज्ञा पुं० [अं०] पायजामें की तरह एक पोशाक। पतलून।

पैंडपातिक
वि० [सं० पैण्डपातिक] पिंड अर्थात् भिक्षादि से जीवनयापन करनेवाला [को०]।

पैंडिक्य
संज्ञा पुं० [सं० पैण्डिक्य] भिक्षा वृत्ति। भैक्ष्य जीविका।

पैंडिन्य
संज्ञा पुं० [सं० पैण्डिन्य] भिक्षवृत्ति। भैक्ष्य जीविका भिक्षा द्बारा प्राप्त वस्तु [को०]।

पैंकड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पायँ + कड़ा] १.पैर का कड़ा। २. बेड़ी।

पैंकड़ा (२)
संज्ञा पुं० [?] ऊँट की नकेल।

पैंग (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पेंग'। उ०—एक बेर निज और पैंग की होत ऊचाई। सम्हारि न सकी सयानि सरकि प्रीतम उर आई।—रत्नाकर, भा०, १, पृ० १३।

पैंग † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पग'। उ०—विश्व हमारा दिन दिन घिरकर सँकरा होता आता है। प्राणों का आहत पंछी दो पैंग नहीं नहीं उड़ पाता है।—चिंता, पृ० ५४।

पैँच (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यञ्चा, प्रतञ्ची] धनुष की डोरी।

पैँच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पिच्छ] मोर की पूँछ।

पैँच † (३)
संज्ञा पुं० [देश०] हाथ फेर। हेर फेर। लेने देन। पलटा। यौ०—पैंच उधार = हेर फेर। पलटा।

पैँचना
क्रि स० [देश०] १. अनाज फटकना। पछोरना। २. पलटना। फेरना।

पैँचा
संज्ञा पुं० [देश०] हथ उधार। हेर फेर। पलटा। यौ०—ऐंचा पैंचा = हेर फेर। हेरा फेरी। उलट पुलट।

पैँजना
संज्ञा पुं० [हिं० पायँ + अनु० झन, झन] [स्त्री० अल्पा० पैंजनी] पैर का एक आभूषण जो कड़े के आकार का पर उससे मोटा और खोखला होता है। इसके भीतर कंकड़ियाँ पड़ी रहती हैं जिससे चलने में यह बजता है।

पैँजनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैंजनी—१'। उ०—कटि तट किंकिनि, पैंजनि पाइन। चलत घुटुरवनि तिनके चाइनि।—नंद० ग्रं०, पृ० २४५।

पैँजनियाँ ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैंजनी'।

पैँजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायँ + अनु० झन, झन] १. स्त्रीयों और बच्चों का एक गहना जो कड़े की तरह पैर में पहना जाता है। विशेष—यह खोखला होता है और इसके भीतर कंकड़ियाँ पड़ी रहती है जिसे चलने में यह झन झन बजता है। घोड़ों के पैर में भी उन्हं कभी पहनाते हैं। २. सग्गड़ या बैलगाड़ी के पहिए के आगे की वह टेढ़ि लकड़ी जिससे छेद में से धुरा निकला रहता।

पैँठ
संज्ञा स्त्री० [सं० पण्यस्थान, प्रा०, पणट्ठा; अप० पइँट्ठा अथवा सं० पराय, प्रा० पण्ण (वणिअ) + अप०, ठाय/?/प्रा० ठाण,/?/सं० स्थान; अथवा देशी पइट्ठाण] १. हाट। बाजार। उ०—लेना हो सो लेइ ले उठी जात है पैंठ।—कबीर (शब्द०)। २. हट्टी। दुकान। उ०—ऊधो ब्रज में पैंठ करी।—सूर (शब्द०)। ३. वह दिन जिस दिन हाट लगती हो। बाजरा का दिन। ४. दूसरी हुंडी जो महाजन पहली हुंडी के खो जाने पर लिख देता है।

पैँठोर
संज्ञा पुं० [हिं० पैँठ + ठौर] दुकान। हाट। उ०—ऐसी वस्तु अनूपम मधुकर मन जिनि आनहु और। ब्रजवनिता के नाहिं काम को है तुम्हरे पैंठोर।—सूर (शब्द०)।

पैँड़
संज्ञा पुं० [हिं० पायँ + ड़ (प्रत्य०) या सं०, पाददण्ड, प्रा० पायडण्ड] १. चलने में एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर पैर रखना। डग। क्रि० प्र०—भरना। मुहा०—पैड़ भरना = (१) किसी देवता या तीर्थ की ओर पैर नापने चलना। (२) इस प्रकार शपथ खाना। जैसे— तू सच बोलता है तो गंगा की ओर चार पैड़ भर जा। २. एक स्थान से उठाकर जितनी दूरी पर पैर रखा जाय उतनी दूरी। डग। पग। कदम। उ०—तीन पैड़ धरती हौं पाऊँ परन कुटी इक छाऊँ।—सूर (शब्द०)। ३. पथ। मार्ग। रास्ता। पगडंडी। उ०—व्रजमोहन तैड़े दरस पियासियाँ पैंडरा उढीकाँ खलियाँ।—घनानंद, पृ० ४८४।

पैँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० पैंड़] १. रास्ता। पथ। मार्ग। मुहा०—पैँड़े परना = पीछे पड़ना। तंग करने के लिये साथ लगे फिरना। बार बार तंग करना। उ०—मानत नाहिं हटकि हारि हम पैड़ परे कन्हाई।—सूर (शब्द०)। २.घुड़सार। अस्तबल। ३. प्रणाली। रीती।उ०—गोकुल गाँव को पैंड़ो न्यारी (शब्द०)।

पैँडायत †
संज्ञा पुं० [हिं० पैड़ाँ] दे० 'पेड़ाइत'। उ०—पाँच पैँडायता प्रगट पैँडा दिया तास कै बीच कोई संत जीया।—राम० धर्म०, पृ० ३८१।

पैँड़िया †
संज्ञा पुं० [देश०] कोल्हू में गन्ने भरनेवाला।

पैँड़ो
संज्ञा पुं० [हिं०] प्रणाली। रीती। दे० 'पैंड़ा'। उ०— सुंदर कोउ न जानि सकै यह गोकुल गाँव कै पैंड़ो ही न्यारी।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६४३।

पैँत पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पणकृत, प्रा०, पणइत] १. दाँव। बाजी। उ०—(क) माँगे पैँच पावत पचारि पातकी प्रचंड काल की करालता भले को होतु पोच है।—तुलसी (शब्द०)। (ख) चोर पैठ जस सेंध सँवारी। जुवा पैँत जस लायजुआरी—जायसी (शब्द०)। २. जुआ खेलने का पासा। उ०—प्रमुदित पुलकि पैँत पूरे जनु विधि बस सुढर ढरे हैं।—तुलसी (शब्द०)।

पैँत (२)
संज्ञा पुं० [?] सात की संख्या (दलाल)।

पैँतरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैतरा'।

पैँतरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पग + तरी] पनही। पैतरी। उ०— वा के पग की पैँतरी, मेरे तन को चाम।—कबीर सा०, पृ० ५।

पैँतालिस (१)
वि० [सं० पञ्चचत्वारिंशत्, प्रा० पंचचतालीसति, अप०, पंचतालीस] जो गिनती में चालीस से पाँच अधिक हो। चालीस और पाँच।

पैँतालिस (२)
संज्ञा पुं० चालीस से पाँच अधिक की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४५।

पैँतालीस (३)
वि० [हिं०] दे० 'पैंतालिस'।

पैँती
संज्ञा स्त्री० [सं० पवित्री, प्रा०, पवित्ती, पइत्ती] १. कुश को ऐंठकर बनाया हुआ छल्ला जिसे श्राद्धादि कर्म करते समय उँगली में पहनते हैं। पवित्री। २. ताँबे या त्रिलोह की अँगूठी जो पवित्रता के लिये अनामिका में पहनी जाती है।

पैँतीस (१)
वि० [सं० पञ्चत्रिंशत्, प्रा० पञ्चत्तिसति, अप०, पंचतीस] जो गिनती में तीस से पाँच अधिक हो। तीस और पाँच।

पैँतीस (२)
संज्ञा पुं० तीस से पाँच अधिक की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—३५।

पैँधना †
क्रि० स० [हिं० पहनना] धारण करना। पहनना। उ०— नख सिख ले सब भुखन बनाई। बसन झलाझलि पैंधे आई।—सं० दरिया, पृ० ३।

पैँफ्लेट
संज्ञा पुं० [अं०] कुछ पन्नों की छोटी सी पुस्तक जिसमें किसी सामयिक विषय पर विचार किया गया हो। पुस्तिका। पर्चा।

पैँयाँ पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायँ] पैर। पाँव।

पैँसठ (१)
वि० [सं० पञ्चषष्टि, प्रा०, पंचसठ्ठि] जो गिनती में साठ से पाँच अधिक हो। साठ और पाँच।

पैँसठ (२)
संज्ञा पुं० साठ से पाँच अधिक की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—६५।

पै पु † (१)
अव्य [सं० परम्] १. पर। परंतु। लेकिन। उ०— बरजत बार बार हैं तुमको पै तुम नेक न मानौ।—सूर (शब्द०)। २. निश्चय। अवश्य। जरूर। उ०—सूख पाइहैं कान सुनें बतियाँ कल आपुस में कछु पै कहिहैं।—तुलसी (शब्द०)। ३. पीछे। अनंतर। बाद। उ०—(क) ऊधो। श्याम कहा पावैंगे प्रान गए पै आए—सूर (शब्द०)। (ख) कमल भानु देखे पै हँसा।—जायसी (शब्द०)। यौ०—जो पै = यदि। अगर। उ०—जो पै रहनि राम र्सों नाहीं। तौ नर खर कूकर सूकर से जाय जियत जग माहीं।—तुलसी (शब्द०)। तो पै = तो फिर। उस अवस्था में। उ०—होते जो न,शंभु रानी ! पद वरदानी तेरे तो पै कौन सुनतो कहानी दीनजन की।—चरणचंद्रिका (शब्द०)।

पै (२)
[हिं० पास, पहँया सं० प्रति, प्रा० पडि, पइ] १. पास। समीप। निकट। उ०—(क) परतिज्ञा राखी मनमोहन फिर ता पै पठयो।—सूर (शब्द०)। (ख) ता पै कही बहुत विधि सों हम नेकु न दीनों कान।—सूर (शब्द०)। २. प्रति। ओर। तरफ। उ०—सरसीरुह लोचन मोचत नीर चितै रघुनायक सीय पै है।—तुलसी (शब्द०)।

पै (३)
प्रत्य० [सं० उपरि, हिं० ऊपर] १. अधिकरण सूचक एक विभक्ति। पर। ऊपर। उ०—(क) चढ़े अश्व पै वीर धाए सबै (शब्द०)। (ख) कोपि चढ़े दशकंठ पै राम निशाचर सेन हिए हहरी।—शंकर (शब्द०)। (ग) बिहारी पै वारोंगी मालती भाँवरौ।—हितहरिवंश (शब्द०)। २. कारण सूचक विभक्ति। से। द्बारा। उ०—दीनदयाल कृपालु कृपानिधि का पै कह्यो परै।—सूर (शब्द०)।

पै (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० आपत्ति (= दोप, भूल)] दोष। ऐब। नुक्स। क्रि० प्र०—धरना।—निकालना।

पै (५)
संज्ञा पुं० [सं० पय] दे० 'पय'। उ०—तन को तरसाइबो कौन बद्यौ मन तौ मिलिगौ पै मिले जल जैसो।—ठाकुर०, पृ० २९।

पै (६)
संज्ञा पुं० [सं० पद, पाद, प्रा०, पथ, पाथ या फा़०] पाँव। पैर। उ०—सा अंग बाल उतकंठ करि पै लग्गी परदच्छि फिरि।—पृ० रा०, २५।३५५।

पै (७)
संज्ञा पुं० [देश०] माड़ी देने की क्रिया। कलफ चढ़ाना। क्रि० प्र०—करना।

पैकंबर †
संज्ञा पुं० [फा़० पैगंबर] दे० 'पैगंबर'। उ०—पीर पैकंबर सबै सिधाए, मुहम्मद सिरषे रहन न पाए।—सुंदर ग्रं०, भा० २ पृ० ८४७।

पैकड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैकड़ा'। उ०—मेरी पग का पैकड़ा, मेरी गल की फाँसी।—कबीर सा०, पृ० ७७।

पैकर (१)
संज्ञा पुं० [फा़० पैकार(= इकट्ठा करनेवाला)] कपास से रुई इकट्ठी करनेवाला।

पैकर (२)
संज्ञा पुं० [फा़० पैकर] १. देह। शरीर। जिस्म। २. आकृति। शक्ल। उ०—उसी मसीह की पैकर की आमद, आमद है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९।

पैकरमा पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० परिक्रमा] दे० 'परिक्रमा'। उ०— दै पैकरमा सीस नवाऊँ सुनि सुनि बचन अघाउँ जी।—चरण० बानी, पृ० ६६।

पैकरा
संज्ञा स्त्री० [हिं० पाँय + कड़ा] पैरी। पाँव में पहनने का एक गहना।

पैकहिन †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दाई। बच्चा उत्पन्न करनेवाली स्त्री। उ०—नवाँ महीना जब लागे, सासु सोवै अँगना हो, ललना, पीरा कब उठ जाय, पैकहिन बुलवायय हो।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० १४३।

पैकाँ
संज्ञा पुं० [फा़०] तीर का नोक। बाण की अनी। उ०— तीरे मिजगाँ बरसते है मुझपर। आबे पैकाँ का इस तरफ है ढाल।—कविता को०, भा० ४, पृ० २०।

पैका पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० पैकार ?] पैसा। दमड़ी। उ०—गाँठि मैं न पैका कोऊ भयौ रहै साहूकार बातनि ही मुहर रुपैया गनि गाहिए।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४६४।

पैकान
संज्ञा पुं० [फा़०] १. बाण की नोक या अनी। २. बरछी की नोक [को०]।

पैकार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. थोड़ी पूँजी का रोजगारी। छोटा व्यापारी। फेरीवाल। फुटकर बेचनेवाला। २. युद्ध। लड़ाई। उ०—हुआ कैल आमादा पैकार को। न माना न जाना जहाँदार को।—कबीर मं०, पृ० ६८।

पैकारी
संज्ञा पुं० [फा़० पैकार] दे० 'पैकार'। उ०—पूँजी नामु निरंजनु राता। सवु पैकारी सचे माता।—प्राण०, पृ० १७५।

पैकी
संज्ञा पुं० [सं० पायिक (= हरकारा, फेरी लगानेवाला)] मेले तमाशे आदि में घूम घुमकर लोगों को हुक्का पिलानेवाला।

पैकेट
संज्ञा पुं० [अं०] पुलिंदा। मुट्ठा। छोटी गठरी। क्रि० प्र०—बाँधना।—भेजना। मुहा०—पैकेट लगाना = डाकघर में बाहर भेजने के लिये कोई पुलिंदा देना।

पैक्ट
संज्ञा पुं० [अं०] दो पक्षों में किसी विषय पर होनेवाला कौल करार। प्रण। शर्त। जैसे, बंगाल का हिंदू मुसलिम पैक्ट।

पैखरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पँखरी] दे० 'पँखुड़ी'। उ०—अवधू सहस दल अब देख। सेत रंग जहँ पैखरी छबि अग्र डोर बिसेख।—चरण० बानी, पृ० १२१।

पैखाना
संज्ञा पुं० [फा़० पाखानह्] दे० 'पाखाना'।

पैगंबर
संज्ञा पुं० [फा़ पयगामबर, पैगंबर] मनुष्यों के पास ईश्वर का सँदेसा लेकर आनेवाला। धर्मप्रवर्तक। जैसे, मूसा, ईसा, मुहम्मद।

पैगंबरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० पैगंबरी] १. पैगबंर होने का भाव। २. पैगंबर का कार्य या पद। ३. एक प्रकार का गेहूँ।

पैगंबरी
वि० पैगंबर संबंधी।

पैग पु †
संज्ञा पुं० [सं० पदक, प्रा० पअक, पग] डग। कदम। फाल। उ०—पैग पैग पर कुआँ बावरी। साजी बैठक और पाँवरी।—जायासी ग्रं०, पृ० ११।

पैगाम
संज्ञा पुं० [फा़० पैगाम] बात जो कहला भेजें। सँदेसा। संदेश। उ०—कासिदु की जबाँ से उसके आगे। पैगाम व सलाम कुछ न निकला।—कविता को०, भा० ४, पृ० ४०। २. विवाह संबंध बात जो कही या कहलाई जाय। मुहा०—पैगाम डालना = संबंध करने का सँदेशा भेजना। संबंध करने की बातचीत करना।

पैगामवर
संज्ञा पुं० [फा़० पैगामबर] संदेशवाहक। दूत [को०]।

पैगामो
संज्ञा पुं० [फा़० पैगामी] वह जो दूत का काम करे [को०]।

पैगोडा
संज्ञा पुं० [ बरमी] बौद्ध मंदिर।

पैज पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिजञा > प्रतिज्ञा, प्रा० पतिञ्ञा, अप० पइज्जाँ] १. प्रतिज्ञा। प्रण। टेक। हठ। उ०—(क) पैज करी हनुमान निशाचर मारि सीय सुधि लाऊँ।—सूर (शब्द०)। (ख) पैज करि कही हरि तोहि उबारौं।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—बाँधना। २. प्रतिद्वंद्विता। होड़। किसी के विरोध में किया हुआ हठ। रीस। लागडाठ। जिद। जैसे,—कुछ नहीं वह मेरी पैज से वहाँ जा रहा है। मुहा०—पेज पड़ जाना = प्रतिद्वंद्विता हो जाना। चखाचखी हो जाना। लागडाट हो जाना।

पैज (२)
संज्ञा पुं० [सं० पद्य, प्रा० पज्ज] पेतरा। क्रि० प्र०—करना।

पैजनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैजनी'।

पैजनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैजनी'।

पैजा
संज्ञा पुं० [ सं० पाद हिं० पाय + सं० जट, हिं० जड़] लोहे का कड़ा जो किवाड़ के छेद में इसलिये पहनाया रहता है जिसमें किवाड़ उतर न सके। पायना।

पैजामा
संज्ञा पुं० [फा़० पेजामह्] दे० 'पायजामा'।

पैजार
संज्ञा पुं० [फा़० पैजार] जूता। पनही। जोड़ा। उ०— काल के सिर पैजार मारि के पार उतरना।—पलटू०, पृ० ८४। यौ०—जूती पेजार = जूते से मारपीट। जूता चलाना। लड़ाई झगड़ा।

पैझना †
क्रि० अ० [सं० प्रविध्य, प्रवेध] प्रवेश। करना। पैठना। उ०—रहै इकत शब्दु निरवाण। दरगहि पैझे पति परवाण।—प्राण०, पृ० १०१।

पैटन
संज्ञा पुं० [अं०] ढाँचा। स्वरूप। उ०—यह फूल कभी अप्रीतिकर या तुम्हारे पैटर्न में बेमेल नहीं होगा यही मानती हूँ।—नदी०, पृ० ३५७।

पैट्रोमैक्स
संज्ञा पुं० [अं०] छोटी गैस, जिसका आकार लालटेन की तरह होता है। लालटेन गैस। उ०—बड़े कमरे में पैट्रो- मैक्स जल रहा था।—वो दुनियाँ, पृ० ९७।

पैठ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रविष्ट, प्रा० पइठ्ठ] १. घुसने का भाव। प्रवेश। दखल। यौ०—घुस पैठ। २. गति। पहुँच। आना जाना। जैसे,—इस दरबार में उनकी पैठ नहीं है।

पैठ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैंठ] दे० 'पैठ'।

पैठना
क्रि० अ० [हिं० पैठ + ना (प्रत्य०)] घुसना। प्रविष्ट होना।प्रवेश करना। किसी वस्तु के भीतर या बीच में जाना। जैसे, घर में पैठना, पानी में पैठना। उ०—चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा।—तुलसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।

पैठाना
क्रि० स० [हिं० पैठना] प्रवेश कराना। घुसाना। भीतर ले जाना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।

पैठार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पैठ + आर (प्रत्य०)] १. पैठ। प्रवेश उ०—असगुन होंहिं नगर पैठारा रटहि कुभाँति कुखेत करारा।—तुलसी (शब्द०)। २. प्रवेशद्वार। फाटक। दरवाजा। मुहाना।

पैठारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैठार] १. पैठ। प्रवेश। २. गति। पहुँच।

पैठी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैठ] बदला। एवज।

पैठीनसि
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्मृतिकार ऋषि [को०]।

पैड
संज्ञा पुं० [अं०] एक सोख्ता या स्याहीसोख कागज की गद्दी। २. छोटी मुलायम गद्दी। जैसे इंक पैड। ३. पत्र आदि लिखने के लिये कागजों की एक प्रकार की कापी। जैसे, लेटर पैड।

पैडिक
वि० [सं०] पिडिका या पिटिका संबंधी। फुंसी संबधी [को०]।

पैड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैर] १. वह जिसपर पैर रखकर ऊपर चढ़ें। सीढ़ी। जैसे, हर की पैड़ी। २. कुएँ पर चरसा खींचनेवाले बैलों के चलने के लिये बना हुआ ढालवाँ रास्ता। ३. वह स्थान जहाँ सिंचाई के लिये जलाशय से पानी लेकर ढालते हैं। पौदर।

पैतरा
संज्ञा पुं० [सं० पदान्तर, प्रा० पयांतर] १. पटा। तलवार चलाने या कुश्ती लड़ने में घूम फिरकर पैर रखने की मूद्रा। वार करने का ठाट। मुहा०—पैतरा बदलना = पटा चलाने या कुश्ती लड़ने में ढब के साथ इधर उधर पैर रखना। पैतरा भाँजना = घूमते हुए पैर रखना और हाथ घुमाना। यौ०—पेतरेबाजी = धोखेबाज। चालबाज। धूर्त। पेतरेबाजी = धोखेबाजी। चालाकी। २. धूल पर पड़ा हुआ पदचिह्न। पैर का निशान। खोज।

पैतरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैतरा] रेशम फेरने की परेती।

पैतरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पग + हिं० तरी] जूती। पनही।

पैतल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैदल'। उ०—पाँच पायक पेल पैतल मान का गढ़ लीण।—राम० धर्म०, पृ० १५५।

पैतला
वि० [हिं० पायँ + थल] उथला। छिछला। पायाब। पैथला।

पैतलाय
वि० [?] सत्रह। १७। (दलाल)।

पैताना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पायँता'।

पैतामह
वि० [सं०] पितामह संबंधी।

पैतामहिक
वि० [सं०] पितामह से प्राप्त (धन आदि)।

पैतृक (१)
वि० [सं०] १. पितृ संबंधी। २. पुश्तैनी। पुरखों का। जैसे, पैतृक भूमि, पैतृक संपत्ति।

पैतृक (२)
संज्ञा पुं० पितरों के लिये किया जानेवाला एक श्राद्ध [को०]।

पैतृमत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविवाहित स्त्री का पुत्र। २. महान् व्यक्ति का पुत्र [को०]।

पैतृष्वसेय, पैतृष्वसीय
संज्ञा पुं० [सं०] फुफेरा भाई [को०]।

पैत्त
वि० [सं०] पित्तज। पित्त से उत्पन्न।

पैत्तल
वि० [सं०] पीतल का बना हुआ [को०]।

पैत्तिक
वि० [सं०] पित्त संबंधी। पित्त का। पित्त से उत्पन्न।

पैत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अँगूठे और तर्जनी के बीज का भाग। पितृतीर्थ। २. पितृ संबंधी श्राद्ध आदि। ३. पितरों के लिये पवित्र दिन, मास या वर्ष (को०)।

पैत्र (२)
वि० १. पितरों से संबंधित (श्राद्ध आदि)।

पैत्र्य
वि० [सं०] पितृ संबंधी।

पैथला †
वि० [हिं० पायँ + थल] उथला। छिछला। पायाब।

पैद पु
क्रि० वि० [हिं० पैदल] दे० 'पैदल'। उ०—दोय लक्ख पैद चहुँ गढ़न कौद।—ह० रासो, पृ० ६०।

पैदर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैदल'। उ०—बिस सहस पैदर तुम लिष्षहु। गैरज गंमन मम रज रष्षहु।—प० रासो०, पृ० १३७।

पैदल (१)
वि० [सं० पादतल, प्रा० पायतल] जो पाँव पाँव चले। जो सवारी आदि पर न हो। पैरों से चलनेवाला। जैसे, पैदल सिपाही, पैदल सेना।

पैदल (२)
क्रि० वि० पावँ पावँ। पैरों से। सवारी आदि पर नहीं। जैसे, पैदल चलना, पैदल घूमना।

पैदल (३)
संज्ञा पुं० १. पाँव पावँ चलना। पादचारण। जैसे, पैदल का रास्ता, पैदल का सफर। २. पैदल सिपाही। पाँव पाँव चलनेवाला योद्धा। पदाति। जैसे,—उसके साथ ५ हजार सवार और बीस हजार पैदल थे। ३. शतरंज में वह नीचे दरजे की गोटी जो सीधा चलती और आड़ा मारती है।

पैदा (१)
वि० [फा़०] १. उत्पन्न। जन्मा हुआ। प्रसूत। जो पहले न रहा हो, नया प्रकट हुआ हो। जैसे, लड़का पैदा होना, अनाज पैदा होना। २. प्रकट। आविर्भूत। घटित। उपस्थित। जैसे, झगड़ा पैदा होना। ३. प्राप्त। अर्जित। हासिल। कमाया हुआ। जैसे, रुपया पैदा करना, कमाल पैदा करना। क्रि० प्र०—करना। होना ।

पैदा ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० आय। आमदनी। अर्थागम। लाभ। जैसे,—उस नौकरी में बड़ी पैदा है।

पैदाइश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] उत्पत्ति। जन्म।

पैदाइशी
वि० [फा़०] १. जन्म का। जब से जन्म हुआ तभी का। बहुत पुराना। जैसे, पैदाइशी रोग। २. स्वाभाविक। प्राकृतिक। जैसे,—यह हुनर पैदाइशी होता है।

पैदावार
संज्ञा स्त्री० [फा़०] अन्न आदि जो खेत में बोने से पाप्तहो। उपज। फसल। जैसे,—इस खेत की पैदावार अच्छी नहीं है।

पैदावारी ‡
संज्ञा स्त्री० [फा़० पैदावार] 'पैदावार'।

पैदाश पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० पैदाइश] दे० 'पैदाइश'। उ०—कहता हूँ मैं मरिअम का पैदाश अव्वल। करूँ जिक्र ईसा का पीछे नकल।—दक्खिनी०, पृ० ३५०।

पैधा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पाधा'। उ०—गुरमुखि पैधा शब्द हजूरा।—प्राण०, पृ० १६७।

पैन (१)
संज्ञा पुं० [ सं० प्राण, हिं० पयान] १. नाली। २. पनाला।

पैन (२)
वि० [सं० पैण (= घिसना), हिं० पैना] दे० 'पैना'। उ०— मोसों क्यों न कहै इहा मैन हनै सर पैन। राजिव नैन बसे कहा नहिं आए रंग ऐन।—स० सप्तक, पृ० २३५।

पैनणा †
संज्ञा पुं० [हिं० पहनना] दे० 'पहनना'। उ०—खाणा पीणा पैनण मन की खुशी खुआरु।—प्राण०, पृ० २८५।

पैना (१)
वि० [सं० पैण (= घिसना, टेना)] [वि० स्त्री० पैनी] जिसकी धार बहुत पतली या काटनेवाली हो। चोखा। धारदार। तीक्ष्ण। तेज। उ०—परनारी, पैनी छुरी कबहुँ न लावो अंग (शब्द०)।

पैना (२)
संज्ञा पुं० १. हलवाहों की बैल हाँकने की छोटी छड़ी। २. लोहे का नुकीला छड़। अंकुश।

पैना (३)
संज्ञा पुं० [?] धातु गलाने का मसाला।

पैना † (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पैन (१)'।

पैनाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैना +ई (प्रत्य०)] पैनापन। उ०— खांड़ै चाहि पैनि पैनाई। बार चाहि चाहि पातरि पतराई।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२६।

पैनाक
वि० [सं०] पिनाक संबंधी।

पैनाना † (१)
क्रि० स० [हिं० पैना] छुरे आदि की धार को रगड़कर पैनी करना। चोखा। करना। टेना।

पैनाना पु (२)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनाना'। उ०—सिरि खुरि पैधा प्रभि पैनाया।—प्राण०, पृ० ११२।

पैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीनता। मोटापा। २. घनापन [को०]।

पैन्हना ‡
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहनना'।

पैप्पल
वि० [सं०] पीपल की लकड़ी का बना हुआ [को०]।

पैप्पलाद
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद की एक धारा [को०]।

पैमक
संज्ञा स्त्री० [?] कलाबत्तू की बनी हुई एक प्रकार की सुनहरी गोट जिसे अँगरखे, टोपी आदि के किनारे पर लगाते हैं। लेस।

पैमाइश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] मापने की क्रिया या भाव। माप। जैसे, जमीन या खेत की पैमाइश।

पैमाना
संज्ञा पुं० [फा़०] वह वस्तु (छड़, डंडा, सूत, डोरी, बरतन आदि) जिससे कोइ वस्तु मापी जाय। मापने का औजार। मानदंड।

पैमाल पु ‡
वि० [फा़० पामाल] दे० 'पामाल'। उ०—काम दल जीत कर क्रोध पैमाल कर, परम सुख धाम तहाँ सुर्त मेलै।— कबीर श०, भा० १, पृ० ९७।

पैयाँ ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायँ] पावँ। पैर। उ०—गूरु पैयाँ लागौ नाम लखा दीजो रे।—धरम० श०, पृ० १९।

पैया (१)
संज्ञा पुं० [सं० पाय्य (= निकृष्ट)] १. बिना सत का अनाज का दाना। मारा युआ दाना। खोखला दाना। उ०— मातु पिता कहैं सब धन तेरो मोरे लेखै पछोरल पैया।— कबीर (शब्द०)। २. खुब्ख। दीन हीन।

पैया (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस। विशेष—यह पूरबी बंगाल, चटगाँव और बरमा में बहुत होता है। इसमें बड़े बड़े फल लगते हैं जो खाए जाते हैं। बंसलोचन भी इस बांस में बहुत निकलता है। यह बाँस बहुत सीधा जाता है और गाँठें भी इसंमें दूर दूर पर होती हैं। चटगाँव में इसकी चटाइयाँ बहुत बनती हैं। घरों में भी यह लगता है। इसे मूलीमतंगा और तराई का बाँस भी कहते हैं।

पैया ‡ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पहिया] दे० 'पहिया'।

पैया पु (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पाँव'। उ०—दास गरीब दरस भए, पैयन लगी जो लाय।—कबीर मं० पृ० ५८८।

पैर (१)
संज्ञा पुं० [सं० पद + दण्ड, प्रा० पयदण्ड, अप० पयँड़] १. वह अंग या अवयव जिसपर खड़े होने पर शरीर का सारा भार रहता है और जिससे प्राणी चलते फिरते हैं। गतिसाधक अंग। पाँव। चरण। विशेष—दे० 'पाँव'। पैर शब्द से कभी कभी एड़ी से पंजे तक का भाग ही समझा जाता है। मुहा०—पैर छूटना = मासिक धर्म अधिक होना। रज?स्राव अधिक होना। पैर की जूती = अत्यंत तुच्छ। दासी। सेविका। उ०—खैर, पैर की जूती जोरू, न सही एक, दूसरी आती, पर जवान लड़के की सुध कर साँप लोटते, फटती छाती।— ग्राम्या, पृ० २५। (और मुहा० दे० 'पाँव' शब्द)। २. धूल आदि पर पड़ा हुआ पैर का चिह्न। पैर का निशान। जैसे,—बालू पर पडे हुए पैर देखते चले जाओ।

पैर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पायल, पायर] १. वह स्थान जहाँ खेत से कटकर आई फसल दाना झाड़ने के लिये फैलाई जाती है। खलियान। २. खेत से कटकर आए डंठल सहित अनाज का अटाला।

पैर † (३)
संज्ञा पुं० [सं० प्रदर] प्रदर रोग।

पैर उठान
संज्ञा पुं० [हिं० पैर + उठाना] कुश्ती का एक पेंच जिसमें बाँया पैर आगे बढ़ाकर बाएँ हाथ से जोड़ की छाती पर धक्का देते और उसी समय दहने हाथ से उसके पैर के घुटने को उठाकर और बायाँ पैर उसके दहने पैर में अड़ाकर फुरती से उसे अपनी ओर खींचकर चित कर देते हैं।

पैरगाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैर +गाड़ी] वह हलकी गाड़ी जो बैठे बैठे पैर दबाने से चलती है। जैसे, बाइसिकिल, ट्राइ- सिकिल।

पैरना (१)
क्रि० अ० [सं० प्लवन, प्रा० पवण, हिं० पौड़ना] तैरना।पानी के ऊपर हाथ पैर चलाते हुए जाना। उ०—(क) पैरत थाके केसवा सूझ वार न पार।—संतवाणी०, पृ० ९६। (ख) पैरवार दृग ललन के पैर न पावत पार।—स० सप्तक पृ० ३५३। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—पैरा हुआ = पारंगत। दक्ष। निपुण।

पैरना † (२)
क्रि० स० [हिं० पहिरना] दे० 'पहनना'। उ०—हरे रंग की अँगिया जो पैरे, जाइ रीझै लंबरदार।—पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ८७७।

पैरबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैर + फा़० बाज + ई (प्रत्य०)] नृत्य में पैरों की कुशल गति। उ०—नाच में इनके न तो कोई गति है, न तोड़ा, न कोई पैरबाजी।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५५।

पैरवार पु
वि० [हिं० पैरना + वार (प्रत्य०)] पैरनेवाला। तैरनेवाला। उ०—रूपसिंधु मुख रावरी लसै अनूप अपार। पैरवार दृग ललन के पैर न पावत पार।—स० सप्तक पृ० ३५३।

पैरवी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. कदम बा कदम चलना। अनुगमन। अनुसरण। २. आज्ञापालन। ३. पक्ष का मंडन। पक्ष लेना। किसी बात के अनुकूल प्रयत्न। कोशिश। दौड़धूप। जैसे, मुकदमे की पैरवी करना, किसी के लिये पैरवी करना। क्रि० प्र०—करना।—होना।

पैरवीकार
संज्ञा पुं० [फा़०] पैरवी करनेवाला।

पैरहन
संज्ञा पुं० [फा़०] चौंगे की तरह का एक लंबा पहनावा। उ०—खड़ा रहूँ दरबार तुम्हारे ज्यों घर का बंदाजावा। नेकी की कुलाह सिर दीए, गले पैरहन साजा।—संतवाणी०, पृ० १०३।

पैरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पैर] १. आया हुआ कदम। पड़े हुए चरण। पौरा। जैस,—बहू का पैरा न जाने कैसा है कि जबसे आई है कोई सुख से नहीं हैं। २. एक प्रकार का कड़ा जो पैर में पहना जाता है। ३. किसी ऊँची जगह चढ़ने के लिये लकड़ियों के बल्ले आदि रखकर बनाया हुआ रासता। उ०— मन गरूवो कुच गिरिन पै सहजै पहुँचि सकै न। याही तें लै डीठि के पैरे बाँधत नैन।—स० सप्तक, पृ० १९६।

पैरा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की दक्खिनी कपास जिसके पेड़ बहुत दिनों तक रहते है। विशेष—इसके डंठल लाल रंग के होते हैं। रूई इसकी बहुत साफ नहीं होती, उसमें कुछ ललाईपन या भूरापन होता है। यह कपास मध्यभारत से लेकर मदरास तक होती है।

पैरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० पिटक, प्रा० पिडा] लकड़ी का खाना जिसमें सोनार अपने काँटे बाट रखता है।

पैरा (४)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'पयाल'।

पैरा (५)
संज्ञा पुं० [अं०] १. लेख का उतना अंश जितने में कोई एक बात पूरी हो जाय और जो इसी प्रकार के दूसरे अंश से कुछ जगह छोड़कर अलग किया गया हो। विशेष—जिस पंक्ति पर एक पैरा समाप्त होता है, दूसरा पैरा उस पंक्ति को छोड़कर और किनारे से कुछ हटाकर आरंभ किया जाता है। ५. टिप्पणी। छोटा नोट। जैसे,—संपादक ने इस विषय पर एक पैरा लिखा है।

पैराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैरना, √ पैर + आई (प्रत्य०)] १. पेरने या तैरने की क्रिया या भाव। २. तैरने की कला। ३. तैरने की मजदूरी।

पैराउ, पैराऊ पु
संज्ञा पुं० [हिं० पैरना] दे० 'पैराव'। उ०— (क) ग्रीषम हूँ रितु मैं भरी दुहूँ पैराउ। खारे जल की बहति है नदी तिहारे गाउ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४९। (ख) धरनी बरषै बादल भीजै भीट भया पैराऊ। हंस उड़ाने ताल सुखाने चहले बीघा पाऊ।—कबीर (शब्द०)।

पैराक
संज्ञा पुं० [हिं० पैरना] १. तैरनेवाला। तैराक। † २. चतुर। कुशल। प्रवीण। उ०—सज असि त्रांण पैराक वप बप साजिया। गयण छिबता माहा भयानक गाजिया।— रघु० रू०, पृ० १८८।

पैराकी †
वि० [हिं० पैरना] १. चतुर। प्रवीण। उ०—जिण साथ पैराकी जंगारा, अब प्रक्रम दीख्या अंगारा।—रघु० रू०, पृ० १५८।

पैराग्राफ
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'पैरा'।

पैराना
क्रि० स० [हिं० पैरना का प्रे० रूप] पैरने का काम कराना। तैराना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।

पैरारा पु †
वि० [हिं० पैरना + आरा (प्रत्य०)] पैरनेवाले। पेराक। तैरनेवाले। तैराक। उ०—धन द्दग मतवारे पैरारे। चितवन बीच सिधु जा ढारे।—इंद्रा०, पृ० ४५।

पैराव
संज्ञा पुं० [हिं० पैरना + आव (प्रत्य०)] इतना पानी जिसे केवल तैरकर ही पार कर सकें। डुबाव।

पैराशूट
संज्ञा पुं० [अं०] एक बहुत बड़ा छाता जिसके सहारे बैलून (गुब्बारा) धीरे धीरे जमीन पर उतरता और गिरकर टूटता फूटता नहीं।

पैरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैर] १. पैर में पहनने का एक चौड़ा गहना जो फूल या काँसे का बनता है और जिसे नीच जाति की स्त्रियाँ पहनती हैं। २. अनाज के कटे हुए पौधे जो दाँयने के लिये फैलाए जाते हैं। ३. अनाज के सूखे पौधों पर बैल चलाकर और डंडा मारकर दाना झाड़ने की क्रिया। दायने का काम। दवाँई। क्रि० प्र०—करना।—होना। ४. भेड़ों के बाल कतरने का काम। ५. पैड़ी। सीढ़ी। ६. पु पैड़ी। पीढी। पुश्त (लाक्ष०)। उ०—तिनकी तरै पैरी पचास सुवास तें फिरि नहि फिरै।—पदमाकर ग्रं०, पृ० १५।

पैरेखना †
क्रि० स० [ सं० परीक्षण] दे० 'परेखना'।

पैरोकार
संज्ञा पुं० [फा़० पैरवीकार] दे० 'पैरवीकार'।

पैरोल
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'पेरोल'।

पैल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत में वर्णित एक ब्राह्मण जिन्होंने वेदव्यास के संहिता विभाग करने पर ऋग्वेद का अध्ययन किया था।

पैल ‡ (२)
अव्य० [अप० पइल] दे० 'पहले'। उ०—आवी करूँगा तेरा तमाशा। पैल तेरी गुंडी काटूँगा।—दक्खिनी०, पृ० ६०।

पैल † (३)
संज्ञा पुं० [सं० पृथुल या हिं० फैलना] अधिकता। बहु- तायत। उ०—भीज रीझ झेली भली, पावस पाणी पैल।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ८।

पैलगी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पायँ + लगना] प्रणामा। अभिवंदन। पालागन।

पैलग्गी †
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० पैलगी।

पैलना पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पैरना] तैरना। पैरना। उ०—मोह पवन झकोर दारुन दूर पैलव तीर।—चरण० बानी, पृ० ६०।

पैलव
वि० [सं०] १. पीलू के पेड़ का। २. पीलू संबंधी। ३. पीलू की लकड़ी का बना हुआ।

पैला † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पैली] १. नाँद के आकार का मिट्टी का बरतन जिससे दूध दही ढाँकते हैं। बड़ी पैली। उ०—श्याम सब भाजन फोरि पराने। हाँक देत पैठत हैं पैला नेकृ न मनहि डराने।—सूर (शब्द०)। २. चार सेर अनाज नापने की डालिया। चार सेर नाप का बरतन।

पैला (२)
क्रि० वि० [देशी पहिल्ल, अप० पइल, हिं० पहला] १. पहले। उ०—जाँण भलक्कौ जामगी, पैले दग्गी नाल।— रा० रू०, पृ० ३१०। २. उस ओर। उस पार। परला।

पैली † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पातिली, प्रा० पाइली] १. मिट्टी का एक चौड़ा बरतन जिसमें अनाज या तेल रखते हैं। २. अनाज या तेल नापने का मिट्टी का बरतन।

पैली पु (२)
वि० स्त्री० [हिं० परली] उस ओर का। दूसरी ओर का। परली। उ०—सतगुरू काढ़े केस गहि ड़ूबत इहि संसार। दादू नाव चढ़ाइ करि, कीए पैली पार।—दादू, पृ० ४।

पैवंद
संज्ञा पुं० [फा़०] १. कपड़े आदि का वह छोटा टुकड़ा जो किसी बड़े कपड़े आदि का छेद बंद करने के लिये जोड़कर सी दिया जाता है। चकती। थिगली। जोड़। क्रि० प्र०—लगाना। मुहा०—पैवंद लगाना = (१) बात में बात जोड़ना। मेल मिलाना। जैसे,—सारा लेख उनका लिखा है बीच बीच में आप भी पैवंद लगाए हैं। (२) अधूरी या बिगड़ी हुई बात में नई बात जोड़कर उसे पूर करना या सुधारना। २. किसी पेड़ की टहनी काटकर उसी जाति के दूसरे पेड़ की टहनी में जोड़कर बाँधना जिससे फल बढ़ जायँ या उनमें नया स्वाद आ जाय। क्रि० प्र०—लगाना। ३. मेल जोल का आदमी। इष्ट मित्र। संबंधी।

पैवंदी (१)
वि० [फा़०] १. पैवंद लगाकर पैदा किया हुआ। कलम और पैवंद द्वारा बड़ा और मीठा बनाया हुआ (फल)। कलमी। जैसे, पैवंदी बेर। यौ०—पैवंदी मूँछ = चिपकाई हुई मरोड़दार मूँछ। २. वणँसंकर। दोगला।

पैवंदी (२)
संज्ञा पुं० बड़ा आँड़। शफतालू।

पैवस्त, पैवस्ता
वि०[फा० पैवस्तह्] (जल, दूध, घी आदि द्रव पदार्थ) जो भीतर घुसकर सब भागों में फैल गया हो। जिसने भीतर बाहर फैलकर तर कर दिया हो। सोखा हुआ। समाया हुआ। जैसे, सिर में तेल पैवस्त होना, दूध का रोटी में पैवस्त होना। उ०—चमत्कृत चीजों से वह आरास्ता और पैवस्ता है।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २३४। क्रि० प्र०—करना।—होना।

पैशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेशलता। कोमलता। २. कुशलता। कौशल (को०)।

पैशाच (१)
वि० [सं०] १. पिशाच संबंधी। पिशाच का। पिशाच का बनाया या किया हुआ। २. पिशाच देश का। जैसे, पैशाच भाषा।

पैशाच (२)
संज्ञा पुं० १ पिशाच।२. एक आयुधजीवी संध का नाम। एक लड़ाका दल। ३. एक प्रकार का हीन विवाह। दे० 'पैशाच विवाह'।

पैशाचकाय
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत में कहे हुए कायों (शरीरों) में एक जो 'राजस काय' के अंतर्गत है। विशेष—जूठा खाने की रुचि, स्वभाव का तीखापन, दुःसाहस, स्त्रीलोलुपता और निर्लज्जता 'पैशाच कार्य' के लक्षण है।

पैशाच विवाह
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रकार के विवाहों में से एक जो सोई हुई कन्या का हरण करके या मदोन्मत्त कन्या को फुसलाकर छल से किया गया हो। विशेष—स्मृतियों में इस प्रकार का विवाह बहुत निंदनीय कहा गया है।

पैशाचिक
वि० [सं०] पिशाच संबंधी। पिशाचों का। राक्षसी। घोर और बीभत्स। जैसे, पैशाचिक कांड, पैशआचिक कर्म।

पैशाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिशाच देश की भाषा। एक प्रकार की प्राकृत भाषा। विशेष—कहा जाता है कि गुणढ्य की 'बड्डकहा' इसी भाषा में थी। २. किसी धार्मिक कृत्य पर दी जानेवाली भेंट (को०)। ३. रात्रि। रात (को०)।

पैशाच्य
संज्ञा पुं० [सं०] पिशाच होने का भाव। क्रुरता। निदंयता [को०]।

पैशुन
संज्ञा पुं० [सं०] पिशुनता। चुगुलखोरी।

पैशुन्य
संज्ञा पुं० [सं०] पिशुनता। चुगुलखोरी।

पैष्ट
वि० [सं०] पिष्ट से निर्मित। आटा आदि का बना हुआ [को०]।

पैष्टिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो, चावल आदि अन्नों को सड़ाकर बनाया हुआ। मद्य। २. आँटे आदि का तैयार पदार्थ, रोटी आदि [को०]।

पैष्टिक (२)
वि० आटे का बना हुआ। आटे का [को०]।

पैष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैष्टिक। यवादि अन्न निर्मित सुरा।

पैसना †
क्रि० अ० [सं० प्रविश, प्रा० पइस+ हिं० ना (प्रत्य०)] घुसना। पैठना। प्रवेश करना। उ०—(क) मेरे हित करिबे हरि कैसे। कुत्सित उदर दरी में पैसे।—नंद० ग्रं०, पृ० २१९। (ख) देवालै पैसि अंबिका दरसे घणै भाव हित प्रीति घणी। बेलि०, दू० १०८।

पैसरा †
संज्ञा पुं० [सं० परिश्रम] जंजाल। झझट। बखेड़ा। प्रयत्न। व्यापार। उ०—ऐसो है हरि पूजन तात। पुनि पैसरे केरि नहिं बाता।—विश्राम (शब्द०)।

पैसा
संज्ञा पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय (=चौथाई)+ अंश, प्रा० अस, या सं० पणांश] १. ताँबे का सबसे अधिक चलता सिक्का जो पहले आने का चौथा और रुपए का चौसठवाँ भाग होता था। पाव आना। तीन पाई का सिक्का। विशेष—अब स्वतंत्र भारत में दशमिक प्रणाली के सिक्के का प्रचलन हो गया है, जिसमें पैसा दशमिक प्रणाली के आधार पर रुपए का सौवाँ भाग होता है और आजकल यह सिक्का अलमूनियम का होता है। २. रुपया पैसा। घन। दौलत। माल। जैसे,—उसके पास बहुत पैसा है। उ०—साईँ या संसार में मतलब का व्यवहार। जब तक पैसा पास में तबतक हैं सब यार।—गिरिधर (शब्द०)। मुहा०—पैसा उठना = धन खर्च होना। पैसा उठाना =धन व्यर्थ नष्ट करना। फजूलखर्ची करना। पैसा कमाना = धन उपार्जित करना। रुपया पैदा करना। पैसा डुबना =लगा हुआ रुपया नष्ट होना। घाटा होना। पैसा ढो ले जाना= सब धन खींच ले जाना। पैसा धोकर उठाना = किसी देवता की पूजा की मनौती करके अलग पैसा निकालकर रखना। पैसे का पचास होना =अत्यंत साधारण होना। टके मोल बिकना। उ०—गुरुआ तो सस्ता भया पैसा केर पचास। राम नाम को बेचिके, करै सिष्य की आस।—कबीर सा० सं०, पृ० १५।

पैसार †
संज्ञा पुं० [हिं० पैसन] १. पैठ। प्रवेश। उ०—कायापुर में अलख झुलै, तहाँ करु पैसार।—धरनी०, पृ० ३३। २. भीतर जाने का मार्ग। प्रवेशद्धार।

पैसारना
क्रि० अ० [हिं० पैसार] घुसना। प्रवेश करना। पैठना।

पैसारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पैसार] पैठ। पैसार। प्रवेश। उ०— आय नगर पैसारी कीन्हा। घर पूछै कै चितवन कीन्हा।— कबीर सा०, पृ० ४२३।

पैसिंजर गाडी़
संज्ञा स्त्री० [अं० पैसिंजर + हिं० गाडी़] मुसाफिरों को ले जानेवाली रेलगाडी़। यात्री गाडी़।

पैसेवाला
संज्ञा पुं० [हिं० पैसा + वाला (प्रत्य०)] १. धनवान। मालदार। धनी। २. सराफ। ३. पैसा बेचनेवाला। बट्टो पर रेजगी देनेवाला। बट्टोवाला।

पैहचानना पु †
क्रि० स० [हिं० पहचानना] दे० 'पहचानना'। उ०—उपजी प्रीति काम अंतर गत, तब नागर नागरि पैहचानी।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३५।

पैहचाना, पैहच्वाना †
क्रि० स० [ प्रा०, अप० पहुच] दे० 'पहुँचाना'। उ०— (क) पथो एक सँदेसड़उ ढोलइ लग पैहचाइ।—ढोला०, दू० १२३। (ख) लग ढोलइ पैहच्वाई।—ढोला०, दू० १२८।

पैहम
क्रि० वि० [फा़०] अनवरत। लगातार। निरंतर। बराबर। उ०—कि चश्मे खूँ चकाँ से लख्ते दिल पैहम निकलते हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८४८।

पैहरना पु †
क्रि० स० [हिं० पहिरना] दे० 'पहनना'। उ०— पैहर न आछी चूनडी़।—बी० रासो, पृ० ५५।

पैहरा
संज्ञा पुं० [देश०] कपास के खेत में रूई इकट्ठी करनेवाला। पैकर। बनिया।

पैहरावना †
क्रि० स० [हिं० पहिराना] दे० 'पहनाना'। उ०— लेत बलाइ भाइ नव उपजत रीझि रसाल माल पैहरावत।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३९१।

पैहारी
वि० [सं० पयस + आहारी] केवल दूध पीकर रहनेवाला (साधु)।

पैहेरना ‡
क्रि० स० [हिं० पहिरना] दे० 'पहनना'। उ०—सोंधे न्हाइ बैठी पैहेरि पट सुंदर, जहाँ फुलवारी तहँ सुखवत अलकै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १९२१।