विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ना
इस लेख में विक्षनरी के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने हेतु अन्य लेखों की कड़ियों की आवश्यकता है। आप इस लेख में प्रासंगिक एवं उपयुक्त कड़ियाँ जोड़कर इसे बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। (मार्च २०१४) |
हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ नांत
वि० [सं० न + अन्त] अनंत। अंतहीन [को०]।
⋙ नांतरीयक
वि० [सं० नान्तरीयक] जो पृथक् करने योग्य न हो। घनिष्ट रूप से संबंद्ध या संबंधित [को०]।
⋙ नांत्र
संज्ञा पुं० [सं० नान्त्र] स्तुति। प्रशंसा [को०]।
⋙ नांदन (१)
वि० [सं० नान्दन] तोषकारक। हर्षकारक [को०]।
⋙ नांदन (२)
संज्ञा पुं० १. आनंदप्रद उपवन। २. स्वर्ग का उपवन [को०]।
⋙ नांदिकर
संज्ञा पुं० [सं० नान्दिकर] वह जो नांदी पाठ करे [को०]।
⋙ नांदी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नान्दी] १. अभ्युदय। समृद्धि। २. वह आशीर्वादात्मक श्लोक या पद्य जिसका पाठ सूत्रधार नाटक आरंभ करने के पहले करता है। मंगलाचरण। विशेष—संस्कृत नाटकों में विघ्नशांति के लिये इस प्रकार के मंगलपाठ की चाल है। साहित्य दर्पण के अनुसार नांदी आठ या बारह पदों की भी लिखी है। नांदीपाठ मध्यम स्वर में होना चाहिए।
⋙ नांदी (२)
संज्ञा पुं० [सं० नान्दिन्] १. नाटक के आरंभ में नांदीपाठ करनेवाला व्यक्ति। २.नाटक के आरंभ में मंगलवाद्य बजानेवाला व्यक्ति।
⋙ नांदीक
संज्ञा पुं० [सं० नान्दोक] १. तोरण का स्तंभ। २. नांदीमुख श्राद्ध।
⋙ नांदीकर
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीकर] नांदीपाठक। नांदीपाठ करनेवाला व्यक्ति [को०]।
⋙ नांदोघोष
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीघोष] मंगल वाद्यों की आवाज या ध्वनि [को०]।
⋙ नांदीनाद
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीनाद] प्रसन्नता या हर्ष की अधिकता में चिल्लाना [को०]।
⋙ नांदीनिनाद
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीनिनाद] दे० 'नांदीनाद' [को०]।
⋙ नांदीपट
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीपट] कुएँ का ढकना।
⋙ नांदीमुख
संज्ञा पुं० [सं० नान्दीमुख] १. कुँए का ढकना। २. एक आभ्युदयिक श्राद्ध जो पुत्रजन्म, विवाह आदि मंगल अवसरों पर किया जाता है। वृद्धिश्राद्ध। विशेष—निर्णयसिंधु में लिखा है कि पुत्र कन्या जन्म, विवाह, उपनयन, गर्भाधान, यज्ञ, पुंसवन, तड़ागादि प्रतिष्ठा, राज्याभिषेक, अन्नप्राशन इत्यादि में नांदीमुख श्राद्ध करना ही चाहिए। वृद्धि हुई हो तब दो यह श्राद्ध करना ही चाहिए, जिस कार्य से अभ्युदय या वृद्धि की संभावना हो उसमें भी इसे करना चाहिए। पहले माता का श्राद्ध करना चाहिए, फिर पिता का, उसके पीछे पितामह, मातामह आदि का। और श्राद्ध तो मध्याह्न में किए जाते हैं पर यह पूर्वाह्न में होता है। पुत्रजन्म के समय का नियम नहीं है।
⋙ नांदीमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० नान्दीमुखी] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, दो तगण और दो गुरु होते हैं। जैसे,—नित गहि दुइ पादै गुरू केर जाई। दशरथ सुत चारी लहे भोद पाई। हिय मँह धरि कै ध्यान शृंगी ऋषि को। मुदित मन कियो श्राद्ध नांदीमुखी को।
⋙ नाँउँ
संज्ञा पुं० [सं० नामन्] दे० 'नाम'। यौ०—नाँउँ गाँउँ।
⋙ नाँक पु
संज्ञा पुं० [सं० नासा] दे० 'नाक'। उ०—सुआ सो नाँक कठोर पँवारी। वह कोंवलि तिल पुहुप सँवारी।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १८९।
⋙ नाँको पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाका] १. भीतर घुसने का मार्ग। प्रवेशद्वार। २. मोड़। वह स्थान जहाँ से रास्ता दूसरी ओर मुड़ जाय। ३. कोई। प्रमुख स्थान। उ०—दसव दुआर गुपुत एक नाँकी। अगम चढा़व वाट सुठि बाँकी।—जायसी ग्रं०, पृ० २६५।
⋙ नाँखना पु
क्रि० स० [हिं०] १. डालना। २. परै करना। अलग रखना। उ०—मैं कहयौ सो सत्य मानों, सगुन डारौ नाँखि।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३१८।
⋙ नाँगट पु †
वि० [सं० नग्नाट] दे० 'नग्नाट'। उ०—एक तजों नाँगट अओके उमत।—विद्यापति, पृ० ६०५।
⋙ नाँगा (१)
वि० [हिं० नंगा] दे० 'नंगा'।
⋙ नाँगा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नंगा] एक प्रकार के साधु जो नंगा ही रहते हैं।
⋙ नाँगी
वि० स्त्री० [हिं०] नंगी। उ०—तुम यह बात असंभव भाषत नांगी आवहु नारी।—सूर (शब्द०)।
⋙ नाँघना †पु
क्रि० स० [सं० लङ्कन] लाँघना। इस पार से उस पार उछलकर जाना। उ०—जो नाँघइ सत जोजन सागर। करै सो राम काज अति आगर।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नाँठना पु
क्रि० अ० [सं० नष्ट] नष्ट होना। बिगड़ जाना। उ०—मुनि अति विकल मोह मति नाँठी। मणि गिरि गई छूट जनु गाँठी।—तुलसी (शब्द०)। वि० दे० 'नाठना'।
⋙ नाँद
संज्ञा स्त्री० [सं० नन्दक] मिट्टी का एक बडा़ और चौ़डा़ बरतन जिसमें पुशुओं को चारा पानी आदि दिया जाता है। हौदी। विशेष—यह बरतन पीतल इत्यादि धातुओं का भी बनता है। जिसमें गृहस्थ लोग पानी रखते हैं।
⋙ नाँदना पु (१)
क्रि० अ० [सं० नाद] १. शब्द करना। शोर करना। २. छींकना।
⋙ नाँदना (२)
क्रि० अ० [सं० नन्दन] १. आनंदित होना। खुश होना। उ०—नेकु न जानी परति यों पयो विरह तन छाम। उठति दिया लौं नाँदि हरि लिए तुम्हारो नाम।— बिहारी (शब्द०)। २. दीपक का बुझने के पहले कुछ भभककर जलना।
⋙ नाँयँ † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाम'।
⋙ नाँयँ † (२)
अव्य० [हिं०] दे० 'नहीं'।
⋙ नाँवँ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाम'।
⋙ नाँवरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० नाँव + रा (प्रत्य०)] दे० 'नाम'।
⋙ नाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० नाश] नाश करने या मारने की स्थिति या प्रकृति। उ०—जा मुख हाँसी लसी घनआनंद कैसे मुहाति बसी तहाँ नाँसी। ज्याय हितै हनिए न हितू हँसि बोलनि की कित कीजत हाँसी।—घनानंद, पृ० १३।
⋙ नाँह पु
संज्ञा पुं० [सं० नाथ] स्वामी। पति।
⋙ ना (१)
अव्य० [सं०] एक शब्द जिसका प्रयोग अस्वीकृति या निषेध सूचित करने के लिये होता है। नहीं। न।
⋙ ना पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० नर अथवा नृ] मनुष्य। (डिं०)।
⋙ ना पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० नाभि] नाभि। (डिं०)।
⋙ नाआगाह
वि० [फा़०] न जाननेवाला। अनजान [को०]।
⋙ नाआजमूदा
वि० [फा़० नाआजमूदह्] जिसे अनुभव या ज्ञान न हो [को०]। यौ०—नाआजमूदाकार = जो अनुभवी न हो। नाआजमूदाकारी = अनुभवहीनता।
⋙ नाआश्ना
वि० [फा़०] १. अपरिचित। २. अनभिज्ञ। अनाडी़ [को०]।
⋙ नाइंसाफ
वि० [फा़० ना + आ० इंसाफ] अन्यायी। न्याय न करनेवाला [को०]।
⋙ नाइंसाफी
संज्ञा स्त्री० [फा़० ना + इं साफ + फा़० ई (प्रत्य०)] अनीति। अन्याय। बेईमानी [को०]।
⋙ नाइक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नायक'।
⋙ नाइत्तिफाकी
संज्ञा स्त्री० [फा़० ना + अ० इत्तिफा़क + फा़० ई (प्रत्य०)] मेल का अभाव। फूट। मतभेद। विरोध। बिगाड़। रंजिश।
⋙ नाइन
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाई] १. नाई जाति की स्त्री। २. नाई की स्त्री।
⋙ नाइब पु
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'नायब'।
⋙ नाईँ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० न्याय] समान दशा। एक सी गति।
⋙ नाईँ (२)
वि० स्त्री० समान। तुल्य। उ०—समरथ को नहिं दोष गुसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाई।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नाई (१)
संज्ञा पुं० [सं० नापित] नाऊ। हज्जाम। नापति।
⋙ नाई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाकुली कंद।
⋙ नाउँ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० नाम] दे० 'नाम'। उ०—अति लालासा बसहिं मन माँहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं।—मानस, २।११०।
⋙ नाउ †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाव'।
⋙ नाउत
संज्ञा पुं० [देश०] मंत्र यंत्र से भूत प्रेत झाड़नेवाला। सयाना। झाड़ फूँक करनेवाला। ओझा।
⋙ नाउन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाऊ] दे० 'नाइन'।
⋙ नाउम्मेद
वि० [फा़० नाउम्मीद] निराश। हताश। हतोत्साह। हतसाहस। पस्तहौसला। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाउम्मेदी
संज्ञा स्त्री० [फा़० नाउम्मीदी] १. निराशा। मायूसी। २. उत्साहहीनता। पस्तहिम्मती (को०)।
⋙ नाऊँ पु
संज्ञा पुं० [हिं० नाउँ] नाम। उ०—ध्रुअ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। थापेउ अचल अनूपम ठाऊँ।—मानस, १।२६।
⋙ नाऊ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाई'।
⋙ नाकंद
वि० [फा़० ना + कँदह] बिना निकाला हुआ (घोडा़ आदि।) अल्हड़। अशिक्षित। बिना सिखाया हुआ। उ०— (क) नाकंद बछेडे़ कूद चुके अब और दुलत्तो मत छाँटो।—नजीर (शब्द०)। (ख) सुरँग बछेरे नैन तुव यद्यपि हैं नाकंद। मन सौदागर ने कह्यौ ये हैं बहुत पसंद।— रसनिधि (शब्द०)।
⋙ नाक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नक, पा० नक्क,] १. मुखमंडल की मांस- पोशियों और अस्थियों के उभार से बना हुआ लन के रूप का वह अवयव जिसके दोनों छेद मुखविवर और फुस्फुस से मिले रहते हैं और जिससे घ्राण का अनुभव और श्वास प्रश्वास का व्यापार होता है। सूँघने और साँस लेने की इंद्रिय। नासा। नासिका। विशेष—नाक का भीतरी अस्तर छिद्रमय मांस की झिल्ली का होता है जो बाराबर कपालधट और नेत्र के गोलकों तक गई, रहती है, इसी झिल्ली तक मस्तिष्क के वे संवेदनसूत्र आए रहते हैं जिनसे घ्राण का व्यापार अर्थात् गंध का अनुभव होता है। इसी से होकर वायु भीतर जाती है जिसमें गंधवाले अणु रहते हैं। इस झिल्ली का ऊपरवाला भाग ही गंधवाहक होता है, नीचे का नहीं। नीचे तक संवेदनसूत्र नहीं रहते। नासारंध्र का मुखविवर, नेत्रगोलक, कवालघट आदि से संबंध होने के कारण नाक से स्वर और स्वाद का भी बहुत कुछ साधन होता है तथा कपाल के भीतर कोशों में इकट्ठा होनेवाला मल और आँख का आँसू भी निकलता है। जीबविज्ञानियों का कहना है कि उठी हुई नाक मनुष्य की उन्नत जातियों का चिह्न है, हबशी आदि असभ्य जातियों की नाक बहुत चिपटी होती है। यौ०—नाक का बाँसा = दोनों नथुनों के बीच का परदा। नाक धिसनी = बिनती और गिड़गिडा़हट। नाककटी या नाक- कटाई = अप्रतिष्ठा। बेइज्जती। नाकबंद = घोडे़ की पूजी। मुहा०—नाक कटना = प्रतिष्ठा नष्ट होना। इज्जत जाना। नाक कटाना = प्रतिष्ठा नष्ट करना। इज्जत बिगड़वाना। नाक काटना = प्रतिष्ठा नष्ट करना। इज्जत विगाड़ना। नाक काटकर चूतड़ों तले रख लेना = लोक लज्जा छोड़ देना। निलंज्ज हो जाना। अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान छोड़ लज्जाजनक कार्य करना। बेहयाई करना। नाक कान काटना = कडा़ दंड देना। नाक का बाँसा फिर जाना = नाक का बाँसा टेढा़ हो जाना जो मरने का लक्षण समझा जाता है। (किसी की) नाक का बाल = वह जिसका किसी पर बहुत अधिक प्रभाव हो। सदा साथ रहनेवाला घनिष्ट मित्र या मंत्री। वह जिसकी सलाह से सब काम हो। नाक की सीध में = ठीक सामने। बिना इधर उधर मुडे़। नाक धिसना = दे० 'नाक रगड़ना'। नाक चढ़ना = क्रोध आना। त्योरी चढ़ना। नाक चढा़ना = (१) क्रोध से नथुने फुलाना। क्रोध की आकृति प्रकट करना। क्रोध करना। (२) धिन खाना। घृणा प्रकट करना अरुचि दिखाना। नापसंद करना। तुच्छ समझना। नाकों चने चबवाना = खूब तंग करना। हैरान करना। नाक चोटी काट कर हाथ देना = (१) कठिन दंड देना। (२) दुर्दशा करना। अपमान करना। नाक चोटी काटना = क़डा दंड देना। नाक तक खाना = बहुत ठूँसकर खाना। बहुत अधिक खाना। नाक तक भरना = (१) मुँह तक भरना (बरतन आदि को)। (२) खूब ठूँसकर खाना। बहुत अधिक खाना। नाक न दी जाना = बहुत दुर्गंधआना। बहुत बदबू मालूम होना। नाक पर उँगली रखकर बात करना = औरतों की तरह बात करना। नाक पकड़ते दम निकलना = इतना दुर्बल रहना कि छू जाने से भी मरने का डर हो। बहुत अशक्त होना। नाक पर गुस्सा होना = बात बात पर क्रोध आना। चिड़चिडा़ स्वभाव होना। (कोई वस्तु) नाक पर रख देना = तुरंत सामने रख देना। चट दे देना। (जब कोई अपने रुपए या और किसी वस्तु को कुछ बिगड़कर माँगता है तब उसके उत्तर में ताव के साथ लोग ऐसा कहते हैं)। नाक पर दीया बालकर आना = सफलता प्राप्त करके आना। मुख उज्वल करे आना।—(स्त्री०)। चाहे इधर से नाक पकड़ो चाहे उधर से = चाहे जिस तरह कहो या करो बात एक ही है। नाक पर पहिया फिर जाना = नाक चिपनी होना। नाक इधर कि नाक उधर = हर तरह से एक ही मतलब। नाक पर मक्खी नो बैठने देना = (१) बहुत ही खरी प्रकृति का होना। थोडा़ सा भी दोष या त्रुटि न सह सकना। (२) बहुत साफ रहना। जरा सा दाग न लगने देना। (३) किसी का थोडा़ निहोरा भी न लेना। जरा सा एहसान भी न उठाना। (किसी की) नाक पर सुपारी तोड़ना = खूब तंग करना। नाक फटने लगना = असह्य दुर्गंध होना। नाक बैठना = नाक का चिपटा हो जाना। नाक बहना = नाक में से कपाल- कोशों का मल निकलना। नाक बीधना = नथनी आदि पहनाने के लिय नाक में छेद करना। नाक भौं चढा़ना या नाक भौं सिकोड़ना = (१) अरुचि और अप्रसन्नता प्रकट करना। (२) घिनान और चिढ़ना। नापसंद करना। नाक में दम करना या नाक में दम लाना = खूब तंग करना। बहुत हैरान करना। बहुत सताना। नाक मारना = घृणा प्रकट करना। घिन करना। नापसंद करना। नाक में तीर करना या नाक में तीर डालना = खूब तंग करना। बहुत सताना या हैरान करना। नाक में तीर होना = बहुत हैरान होना। बहुत सताया जाना। नाक रगड़ना = बहुत गिड़गिडा़ना और विनती करना। मिन्नत करना। नाक रगडे़ का बच्चा = वह बच्चा जो देवताओं की बहुत मनौती पर हुआ हो। नाकों आना = हैरान हो जाना। बहुत तंग होना। उ०— नाक बनावत आयो हौं नाकहि नाही घिनाकिहि नेकु निहरो।—तुलसी (शब्द०)। नाक में बोलना = नासिका से स्वर निकालना। नकियाना। नाक लगाकर बैठना = बहुत प्रतिष्ठा पाना। बनकर बैठना। बडा़ इज्जतवाला बनना। नाक सिकोड़ना = अरुचि या घृणा प्रकट करना। घिनाना। उ०—सुनि अघ नरकहु नाक सिकोरी।— तुलसी (शब्द०)। २. कपाल के कोशों आदि का मल जो नाक से निकलता है। रेंट। नेटा। क्रि० प्र०—आना।—बहना। यौ०—नाक सिनकना = जोर से हवा निकालकर नाक का मल बाहर फेंकना। ३. चरखे में लगी हुई एक चिपटी लंकडी़ जो अगले खूँटे के आगे निकले हुए बेलन के सिरे पर लगी रहती है और जिसे पकड़कर चरखा घुमाते हैं। ४. लकडी़ का वह डंडा जिसपर चढा़कर बरतन खरादे जाते हैं। ५, प्रतिष्ठा की वस्तु। श्रेष्ठ बा प्रधान वस्तु। शोभा की वस्तु। जैसे,—वे ही तो इस शहर की नाक हैं। ६. प्रतिष्ठा। इज्जत। मान। उ०—नाक पिनाकहि संग सिधाई।—तुलसी (शब्द०)। यौ०—नाकवाला = इज्जतवाला। मुहा०—नाक रख लेना = प्रतिष्ठा की रक्षा कर लेना।
⋙ नाक (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नक्र] मगर की जाति का एक जलजंतु। विशेष—मगर से इसमें यह अंतर होता है कि यह उतनी लंवी नहीं होती, पर चौडी़ अधिक होती हैं। मुँह भी इसका अधिक चिपटा होता है और उसपर घडा़ या थूथन नहीं होता। पूँछ में काँटे स्पष्ट नहीं होते। यह जमीन पर मगर से अधिक दूर तक जाकर जानवरों को खींच ला सकती है। सरजू तथा उसमें मिलनेवाली और छोटी छोटी नदियों में यह बहुत पाई जाती है।
⋙ नाक (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। यौ०—नाकनटी। नाकपती। २. अंतरिक्ष। आकाश। ३. अस्त्र का एक आघात। ४. सूर्य (को०)।
⋙ नाक (४)
वि० [सं० न + अकम् (= दुःख] कष्टहीन। प्रसन्न। सुखी [को०]।
⋙ नाकचर
संज्ञा पुं० [सं०] देवता। सूर [को०]।
⋙ नाकट †
वि० [देश०] १. नाक कटानेवाला। आबरू उतारनेवाला। उ०—पेटकट, नाकट, कनकट, नाकट, मुणडफोलुट नडितोलुअ।—वर्ण०, पृ० १।
⋙ नाकडा़
संज्ञा पुं० [हिं० नाक + डा़ (प्रत्य०)] नाक का एक रोग जिसमें नाक के बाँसे के भीतर जलन और सूजन होती है और नाक पक जाती है।
⋙ ना कदर
वि० [फा़० ना + अ० कद्र] १. जिसकी कोई कदर न हो। जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। २. जो किसी की कदर करना न जानता हो। जिसमें गुणग्राहकता न हो।
⋙ ना कदरी
संज्ञा स्त्री० [फा़० ना + अ० कद्र + फा़० ई (प्रत्य०)] ना कदर होने की क्रिया या भाव।
⋙ ना कबूल
वि० [फा़० ना + अ० कबूल] आस्वीकृत। नामंजूर [को०]।
⋙ नाकनंटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नर्तकी। अप्सरा। उ०— सुमन बरसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटो नाचहि करि गाना।—मानस, १।३०९।
⋙ नाकनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्ग की गंगा या मंदाकिनी [को०]।
⋙ नाकना पु †
क्रि० स० [सं० लङ्घना, हिं० नांघना] १. लाँघना। उल्लंघन करना। पार करना। डाँकना। उ०—अति तनु धनु रेखा, नेक बाकी न जाकी। —केशव (शब्द०)। २. अतिक्रमण करना। पार करना। बढ़ जाना। मात करदेना। उ०—चैत्ररथ कामवन नंदन की नाकी छवि, कहैं रघुराज राम काम को समारा है।—रघुराज (शब्द०)। ३. चारों ओर से घेरना।
⋙ नाकनाथ
संज्ञा [सं०] स्वर्गपति। इंद्र [को०]।
⋙ नाकनायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नाकनाथ' [को०]।
⋙ नाकनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा [को०]।
⋙ नाकपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नाकनाथ'। उ०—सपने होई भिखारि नृप, रंक नाकपति होइ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०३।
⋙ नाकपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग।
⋙ नाकबुद्धि
वि० [हिं० नाक + बुद्धि] जिसका विवेक नाक ही तक हो। जो नाक से सूँघकर गंध द्वारा ही भक्ष्याभक्ष्य, भले बुरे आदि का विचार कर सके, बुद्धि द्वारा नहीं। तुच्छबुद्धि। क्षुद्र बुद्धिवाला। ओछी समझ का। उ०—अपने पेट दियो तैं उनकों नाकबुद्धि तिय सबै कहै री।—सूर (शब्द०)। विशेष—स्त्रियों की निंदा में प्रायः लोग कहते हैं कि उनकी बुद्धि नाक ही तक होती है, अर्थात् यदि उन्हें नाक न हो तो वे भक्ष्याभक्ष्य सब खा जायँ।
⋙ नाकवेसरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाक + बेसर] दे० 'नाकबेसर'। उ०—कासौं जाय बरनि बनक नाकबेसरि की।—नंद० ग्रं०, पृ० ४२०।
⋙ नाकर्दा
वि० [फा़० नाकर्दह] न किया हुआ। यौ०—नाकर्दाकरा = कोई विशेष का मन करनेवाला। अननुभवी। नाकर्दागुनाह = (१) न किया हुआ गुनाह। उ०—नाकर्दा- गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद। या रब आगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है।— गलिब०, पृ० ४१९। (२) जिसके कसूर न किया हो। नाकर्दाजुर्म = दे० 'नाकर्दागुनाह'।
⋙ नाकलोक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक। स्वर्ग [को०]।
⋙ नाकवनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नाकनटी'।
⋙ नाकवास
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का वास [को०]।
⋙ नाकपेधक
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।
⋙ नाकसद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. देव। देवता। २. गंधर्व [को०]।
⋙ नाका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाकना] १. किसी रास्ते आदि का वह छोर जिससे होकर लोग किसी ओर जाते मुड़ते, निकलते या कहीं घुसते है। प्रवेशद्वार। मुहाना। उ०—(क) हरीचंद तुम बिनु को रोकै ऐसे ठग को नाका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६५०। २. वह प्रधान स्थान जहाँ से किसी नगर, बस्ती आदि में जाने के मार्ग का आरंभ होता है। गली या रास्ते का आरंभस्थान। जैसे,—नाके नाके पर सिपाही तैनात थे कि कोई जाने न पावे। उ०—अबकी होरी धूम मचैगी, गलिन गलिन अरु नाके नाके।—घनानंद, पृ० ५८०। यौ०—नाकाबंदी। नाकेदार। ३. नगर, दुर्ग आदि का प्रवेशद्वार। फाटक। निकलने पैठने का रास्ता। जैसे, शहर का नाका। मुहा०—नाका छेंकना या बाँधना = आने जाने का मार्ग रोकना। ४. वह प्रधान स्थान या चौकी जहाँ निगरानी रखने, या किसी प्रकार का महसूल आदि वसूल करने के लिये तैनात हो। ५. सूई का छेद। ६. आठ गिरह लंबा जुलाहों का एक औजार जिसमें ताने के तागे बाँधे जाते हैं।
⋙ नाका (२)
संज्ञा पुं० [सं० नक्र] मगर की जाति का एक जलजंतु। नक्र। दे० 'नाक'।
⋙ नाकापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नाकनदी' [को०]।
⋙ नाकाबंदी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाका + फा० बंदी] १. प्रवेश- द्वार का अवरोध। किसी रास्ते से कहीं जाने या घुसने की रुकावट। २. फाटक आदि का छेंका जाना।
⋙ नाकाबंदी (२)
संज्ञा पुं० १. वह सिपाही जो फाटक या नाके पर पहरे के लिये खडा किया गया हो। १. सिपाही। कांस्टेबिल। चौकीदार। पहरेदार।
⋙ नाकाबिल
वि० [फा० ना + अ० काबिल] अयोग्य।
⋙ नाकाम (१)
वि० [फा०] १. जिसका अभीष्ट सिद्ध न हुआ हो। विफलमनोरथ। असफल। २. निराश। मायूस (को०)।
⋙ नाकाम (२)
वि० [हिं० ना + काम] [संज्ञा स्त्री० नाकामी] निरर्थक। बेकार। व्यर्थ। उ०—उनके साहस को नाकाम बना दिया था।—प्रेम० और गोर्की, पृ० २।
⋙ नाकामयाब
वि० [फा०] [संज्ञा स्त्री० नाकामयाबी] १. विफल- मनोरथ। ३. अनुत्तीर्ण। असफल [को०]।
⋙ नाकारा
वि० [फा० नाकारह्] १. निकम्मा। खराब। बुरा। निष्प्रयोजनी। २. व्यर्थ। बेकार (को०)।
⋙ नाकिस
वि० [अ० नाकिस] बुरा। खराब। निकम्मा। क्रि० प्र०— करना। — होना।
⋙ नाकिह
संज्ञा पुं० [अ०] विवाह करनेवाला। निकाह करनेवाला [को०]।
⋙ नाकी
संज्ञा पुं० [सं० नाकिन्] (नाक या स्वर्ग में रहनेवाला) देवता। उ०— ज्ञान कासिद बिबेक नाकी बने।— तुरसी० श०, पृ० २१।
⋙ नाकीव
संज्ञा पुं० [अ० नकीब] राजा, महाराजाओं या श्रेष्ठ पुरुषों की सवारी के आगे विरुद का उदधोष करनेवाला। चोबदार। छड़ीदार। दरबार में मुलाकातियों को पुकारकर उपस्थित करनेवाला। उ०— छरी बरदार चोपदार आसा लिए निकलि नाकीब सब हाँक पारी।— सं० दरीया, पृ० ७८।
⋙ नाकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीमक की मिट्टी का ढूह। वेमौट। वल्मीक। २. भीटा। टीला। ३. पर्वत। पहाड़। ४. एक मुनि का नाम।
⋙ नाकुल (१)
वि० [सं०] नेवले के ऐसा। नेवला संबंधी।
⋙ नाकुल (२)
संज्ञा पुं० १. नकुल की संतति। २. रास्ना। ३. सेमर का मूसला। ४. नव्य। ५. यवतिक्ता।
⋙ नाकुलक
वि० [सं०] नकुल का पूजक [को०]।
⋙ नाकुलि
संज्ञा पुं० [सं०] नकुल का वंशज। [को०]।
⋙ नाकुलो (१)
वि० [सं० नकुल] १. नेवला संबंधी। २. नकुल नामक पडित का बनाया हुआ। जैसे, नाकुली शालिहोत्र।
⋙ नाकुली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नकुल] १. एक प्रकार का कंद जो सब प्रकार के विषों, विशेषकर सर्प के विष को दूर करता है। विशेष— नाकुली दो प्रकार का होता है। एक नाकुली दूसरा गंधनाकुली। गुण दोनों का एक सा है। गंधनाकुली कुछ अच्छी होती है। प्रर्या०—नागसुगंधा। नकुलेष्टा। भुजंगाक्षी। सर्पांगी। विष- नाशिनी। रक्तपत्रिका। ईश्वरी। सुरसा। २. यवतिक्ता लता। ३. रास्ना। ४. चव्य। चविका। ५. श्वेत कंटकारी। सफेद भटकैया।
⋙ नाकू
संज्ञा पुं० [सं० नक्र] घडियाल या मगर नामक जलजंतु।
⋙ नाकूस
संज्ञा पुं० [अ० नाकूस] शंख। कंबु। उ०— तेरा दम भरते हैं हिंदू अगर नाकूस बजता है। तुझे ही शेख ने प्यारे अजाँ देकर पुकारा है।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५१।
⋙ नाकेदार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाका + फा० दार (प्रत्य०)] १. नाके या फाटक पर रहनेवाला सिपाही। २. वह अफसर या कर्मचारी जो आने जाने के प्रधान प्रधान स्थानों पर किसी प्रकार का कर महसूल आदि वसूल करने के लिये तैगात हो।
⋙ नाकेदार (२)
वि० जिसमें नाका या छेद हो। जैसे, नाकेदार सूई।
⋙ नाकेबंदी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाकाबंदी'।
⋙ नाकेबंदी (२)
संज्ञा पुं० दे० 'नाकाबंदी'।
⋙ नाकेश
संज्ञा पुं० [सं०] (स्वर्ग के अधिपति) इंद्र।
⋙ नाकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०]।
⋙ नाक्षत्र
वि० [सं०] नक्षत्र संबंधी। जैसे, नाक्षत्र दिन। नाक्षत्र मास, नाक्षत्र वर्ष। विशेष— जितने काल में चंद्रमा २७ नक्षत्रों पर एक बार घूम जाता है उसे नाक्षत्र मास कहते हैं। मास का प्रथम दिन वह समय माना जाता है जिसमें चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र पर रहता है। अश्विनी नक्षत्र पर चंद्रमा ६० दंड, भरणी पर ६३ दंड, इसी प्रकार सब नक्षत्रों पर कुछ काल तक रहता है। फलित ज्योतिष में आयुगणना आदि के लिये नाक्षत्र दिन मास आदि निकाले जाते हैं।
⋙ नाक्षत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक्षत्र मास।
⋙ नाक्षत्रिकी
वि० स्त्री० [सं०] नक्षत्र संबंधिनी। जैसे, नाक्षत्रिकी दशा। दे० 'दशा'।
⋙ नाख
संज्ञा स्त्री० [फा० नाशपाती] नाशपाती नाम का फल।
⋙ नाखना पु † (१)
क्रि० स० [सं० नष्ट] १. नाश करना। नष्ट कर देना। बिगाड देना। उ०— (क) जे नखचंद्र भजन खल नाखत रमा हृदय जेहि परसत। — सूर (शब्द०)। (ख) जो हरिचरित ध्यान उर राखै। आनंद सदा दुरित दुख नाखै।—सूर (शब्द०)। २. फेंकना। गिराना। डालना। उ०— जो उर झारन ही झरसी मृदु मालती माल वहै मग नाखै।— (शब्द०)।
⋙ नाखना (२)
क्रि० स० [हिं० नाकना]। उल्लंघन करना। उ०— (क) नील नल अंगद सहित जामवंत हनुमंत से अनंत जिन नीरनिधि नारुयोई। — केशव (शब्द०)। (ख) पाछे ते सीय हरी विधि मर्याद राखी। जो पै दसकंध बली रेखा क्यों न नाखी। — सूर (शब्द०)।
⋙ नाखलफ
वि० [फा० ना + अ० खलफ] जो लडका बाप के सदाचार पर न चले। कपूत। उ०— वज्रधर हुजूर नाखलफ हैं,और क्या कहू, खुदा सातवें दुश्मन को भी ऐसी औलाद न दे।— काया०, पृ० २१३।
⋙ नाखुन
संज्ञा पुं० [फा० नाखुन] नख [को०]। यौ०— नाखुनतराश = नहन्नी।
⋙ नाखुना
संज्ञा पुं० [फा० नाखूनह] १. आँख का एक रोग जिसमें एक लाल झिल्ली सी आँख की सफेदी में पैदा होती है और बढकर पुतली को भी ढक लेती है। २. मोटे लाला डोरे जो घोडों की आँख में पैदा हो जाते हैं। ३. चीरा बाँधने का नोकदार अंगुश्ताना।
⋙ नाखुर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नहँछू'।
⋙ नाखुश
वि० [फा० नाखुश] अप्रसन्न। नाराज। यौ०— नाखुशगंवार=अरुचिकर। नाखुशगवारी = (१) अप्रसन्नता। (२) अरुचि।
⋙ नाखुशी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाखुशी] १. अप्रसन्नता। नाराजी। २. क्रोध। गुस्सा (को०)। ३. बीमारी (को०)।
⋙ नाखून
संज्ञा पुं० [फा० नाखून] १. उँगलियों के छोर पर चिपटे किनारे वा नोक की तरह निकली हुई कडी वस्तु। नख। नँह। विशेष— नाखून वास्तव में ठोस और कडा जमा हुआ उपरी त्वक् है। पशुओ के सींग, खुर आदि भी इसी प्रकार ऊपरी त्वक् की जमावट से बनते हैं। मुहा०— नाखून लेना = नाखून काटकर अलग करना। नाखून नीले होना = मरने के लक्षण दिखाई पडना। मृत्यु के चिह्न प्रकट होना। ऐसे ऐसे नाखूनों में पडे हैं = ऐसे ऐसे बहुत देखे भाले हैं। ऐसों की गिनती नहीं। २. चौपायों के टाप या खुर का बढा हुआ किनारा। मुहा०— नाखून लेना= (१) नाखूना काटन। (२) घोडे का ठोकर लेना।
⋙ नाखूना
संज्ञा पुं० [फा०नाखूनह] १. दे० 'नाखूना'। २. गबरुन की तरह का एक कपडा जिसका ताना सफेद होता है और बाने में अनेक रंग की धारियाँ होती हैं। यह आगरे में बहुत बनता है। ३. बढइयों की बहुत पतली रुखानी जिससे बारीक काम किया जाता है।
⋙ नाख्वाँदा
वि० [फा० नाख्वाँदह्] १. निरक्षर। अनपढ। अशिक्षित। उ०— ताहम मेरा यह दावा जरुर है कि मेरे छंद ढोले ढोले नहीं होते। फिर भी हूँ, तो नाख्वाँदा ही। —कुंकुम (भू०), पृ० १९। २. अनिमंत्रित। अनाहूत।
⋙ नाग
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नागिन] १. सर्प। साँप। मुहा०— नाग खेलना = ऐसा कार्य करना जिसमें प्राण का भय हो। खतरे का काम करना।२. कद्रू से उत्पन्न कश्यप की संतान जिनका स्थान पाताल लिखा गया है। विशेष— वराहपुराण में नागो की उत्पत्ति के संबंध में यह कथा लिखी है। सृष्टि के आरंभ में कश्यप उत्पन्न हुए। उनकी पत्नी कद्रू से उन्हें ये पुत्र उत्पन्न हुए— अनंत, वासुकि, कंबल, कर्कोंटक, पद्य, महापद्य, शंख, कुलिक और अपराजित। कश्यप के ये सब पुत्र नाग कहलाए। इनके पुत्र, पौत्र बहुत ही क्रूर और विषधर हुए। इनसे प्रजा क्रमशः क्षीण होने लगी। प्रजा ने जाकर ब्रह्मा के यहाँ पुकार की, ब्रह्मा ने नागों को बुलाकर कहा, जिस प्रकार तुम हमारी सृष्टि का नाश कर रहे हो उसी प्रकार माता के शाप से तुम्हारा भी नाश होगा। नागों ने डरते डरते कहा— महाराज, आप ही ने हमें कुटिल और विषधर बनाया, हमारा क्या अपराध है? अब हम लोगों के रहने के लिये कोई अलग स्थान बतलाइए जहाँ हम लोग सुख से पडे रहें। ब्रह्मा ने उनके रहने के लिये पाताल, वितल और सुतल ये तीन स्थान या लोक बतला दिए। एक बार कद्रू और विनता में विवाद हुआ कि सूर्य के घोडे की पूँछ काली है या सफेद। विनता सफेद कहती थी और कद्रू काली। अंत में यह ठहरी कि जिसकी बात ठीक न निकले वह दूसरी की दासी होकर रहे। जब कद्रू ने अपने पुत्रों से यह बात कही तब उन्होंने कहा कि पूँछ तो सफेद है, अब क्या होगा ? अंत में जब सूर्य निकला तब सबके सब नाग उच्चैःश्रवा कीं पूँछ से लिपट गए जिससे वह काली दिखाई पडी। जिन नागों ने पूँछ को काला कहना अस्वीकार किया उन्हें कद्रू ने नष्ट होने का शाप दिया जिसके अनुसार वे जनमेजय के सर्पयज्ञ में नष्ट हुए। पुराणों में बहुत से नागों के नाम दिए हुए हैं। पर उनमें मुख्य आठ हैं— अनंत, वासुकि, पद्य, महापद्य, तक्षक, कुलीर, कर्कोटक और शंख। ये अष्टनाग और इनका कुल अष्टकुल कहलाता है। ३. एक देश का नाम। ४. उस देश में बसनेवाली जाति। विशेष— ऐतिहासिकों के अनुसार 'नाग' शक जाति की एक शाखा थी जो हिमालय के उस पार रहती थी। तिब्बतवाले अपने को नागवंशी और अपनी भाषा को नाग भाषा कहते हैं। जनमेजय की कथा से पुरुवंशियों और नागवंशियों के वैर का आभास मिलता है। यह वैर बहुत दिनों तक चल ता रहा। जब सिकंदर भारत में आया तब पहले पहल उससे तक्षशिला का नागवंशी राजा मिला जो पंजाब के पौरव राजा से द्रोह रखता था। सिकंदर के साथियों ने तक्षशिला के राजा के यहाँ बडे बडे साँप पले देखे थे जिनकी पूजा होती थी। विशेष— दे० 'नागवंश'। ५. एक पर्वत।— (महाभारत)। ६. हाथी। हस्ति। ७. रांगा। सीसा (धातु)। विशेष— भावप्रकाश में लिखा है कि वासुकि एक नागकन्या को देख मोहित हुए। उनके स्खलित वीर्य से इस धातु की उत्पत्ति हुई। मुहा०— नाग फूंकना = धातु फूँकना। ९. एक प्रकार की घास। १०. नागकेसर। ११. पुन्नाग। १२. मोथा। नागरमोथा। १३. पान। तांबूल। १४. नागवायु। १५. ज्योतिष के करणों में से तीसरे करण का नाम। १६. बादल। १७. आठ की संख्या। १८. दुष्ट या क्रूर मनुष्य। १९. अश्लेषा नक्षत्र।
⋙ नागकंद
संज्ञा पुं० [सं० नागकन्द] हस्तिकंद।
⋙ नागकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नागकन्या' [को०]।
⋙ नागकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाग जाति की कन्या। विशेष— पुराणों में नागकन्याएँ बहुत सुंदर बतलाई गई हैं।
⋙ नागकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथी का कान। २. एरंड। अंडी का पेड।
⋙ नागकिंजल्क
संज्ञा पुं० [सं० नागकिञ्जल्क] नागकेसर।
⋙ नागकुमारिका
संज्ञा स्त्री० [स्त्री०] १. गुरुच। गिलोय। २. मजीठ। मंजिष्ठा।
⋙ नागकेसर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नागकेशर या नागकेसर] एक सीधा सदाबहार पेड जो देखने में बहुत सुंदर होता है। विशेष— यह द्विदल अंगुर से उत्पन्न होता है। पत्तियाँ इसकी बहुत पतली और घनी होती हैं, जिससे इसके नीचे बहुत अच्छी छाया रहती है। इसमें चार दलों के बडे़ और सफेद फूल गरमियों में लगते हैं जिनमें बहुत अच्छी महक होती है। लकड़ी इसकी इतनी कडी और मजबूत होती है कि काटनेवाले की कुल्हाडियों की धारें मुड मुड जाती है; इसी से इसे वज्रकाठ भी कहत हैं। फलों में दो या तीन बीज निकलते हैं। हिमालय के पूरबी भाग, पूरबी बंगाल, आसाम, बरमा, दक्षिण भारत, सिहल आदि में इसके पेड बहुतायत से मिलते हैं। नागकेसर के सूखे फूल औषध, मसाले और रंग बनाने के काम में आते हैं। इनके रंग से प्रायः रेशम रँगा जाता है। सिंहल में बीजों से गाढा, पीला तेल निकालते हैं, जो दीया जलाने और दवा के काम में आता है। मदरास में इस तेल को वातरोग में भी मलते हैं। इसकी लकड़ी से अनेक प्रकार के सामान बनते हैं। लकड़ी ऐसी अच्छी होती है कि केवल हाथ से रँगने से ही उसमें वरानिश की सी चमक आ जाती है। बैद्यक में नागकेसर कसेली, गरम, रुखी, हलकी तथा ज्वर, खुजली, दुर्गंध, कोढ, विष, प्यास, मतली और पसीने को दूर करनेवाली मानी जाती है। खूनी बवासीर में भी वैद्य लोग इसे देते हैं। इसे नागचंपा भी कहते हैं।
⋙ नागकेसर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शुद्ध लोहा या फौलाद [को०]।
⋙ नागखंड
संज्ञा पुं० [सं० नागखण्ड] पुराणानुसार जंबूद्वीप के अंतर्गत भारतवर्ष के नौ खंडों या भागों में से एक।
⋙ नागगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० नागगन्धा] नकुलकंद।
⋙ नागगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी ग्रह की वह गति जो उस समय होती है जब वह अश्विनी, भरणी और कृत्तिका नक्षत्र में रहता है (ज्योतिष)।
⋙ नागगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूर।
⋙ नागचंपा
संज्ञा पुं० [सं० नागचम्पक] नागकेसर का पेड़।
⋙ नागचूड
संज्ञा पुं० [सं० नागचूड] शिव। महादेव। यौ०— नागचूडज = (१) सिंदूर। (२) राँगा।
⋙ नागच्छन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदंती।
⋙ नागज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंदूर।२. बंग।
⋙ नागजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनंतमूल। २. शारिवा।
⋙ नागाजिह्विका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनःशिला। मैनसिल।
⋙ नागजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] बंग। फूँका हुआ राँगा।
⋙ नागझाग पु
संज्ञा पुं० [हिं० नाग + झाग] अहिफेन। अफीम।
⋙ नागदंत
संज्ञा पुं० [सं० नागदन्त] १. हाथीदाँत। २. दीवार में गडी हुई खूँटी।
⋙ नागदंतक
संज्ञा पुं० [सं० नागदन्तक] दे० 'नागदंत'।
⋙ नागदंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० नागादन्तिका] वृश्चिकाली का पौधा।
⋙ नागदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० नागदन्ती] नखी नामक गंधद्रव्य।
⋙ नागदमन
संज्ञा पुं० [सं०] नागदौने का पौधा।
⋙ नागदमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदौने का पौधा।
⋙ नागदला
संज्ञा पुं० [सं० नाग+दल] एक पेड जो बंगाल, आसाम, बरमा, मालाबार और सिहंल में होता है। बंगाल में इसे 'पोसुर' कहते हैं। विशेष— सुंदर वन से इसकी लकड़ी आती है जो बहुत कडी और मजबूत होती है। यह पानी में साखू से भी अधिक दिनों तक रह सकती है। इससे गाडी के पहिए, नाव और अनेक प्रकार के सामान बनते हैं । इसके बीजों का गाढा तेल जलाने के काम में आता है।
⋙ नागदलोपम
संज्ञा पुं० [सं०] परुष फल। फालसा।
⋙ नागदवनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नागदमनी] दे० 'नागदौन' उ०— नागदवनि जरजरी राम सुमिरन बरी भनत रैदास चेत- निमेता।— रै० बानी, पृ० २०।
⋙ नागदुमा
वि० [सं० नाग + फा० दुम] (हाथी) जिसकी पूँछ का सिरा सर्प के फन की तरह का हो। विशेष— ऐसा हाथी ऐबी समझा जाता है।
⋙ नागदौन
संज्ञा पुं० [सं० नागदमन] १. छोटे आकार का एक पहाडी पेड जो शिमले और हजारे में बहुत मिलता है। विशेष— इसकी लकड़ी भीतर से सफेद और मुलायम होती है और विशेषतः छडियाँ बनाने के काम में आती है। लोगों का विश्वास है कि इस लकड़ी के पास साँप नहीं आते। २. दे० 'नागदौना'।
⋙ नागदौना
संज्ञा पुं० [सं० नागदमन] १. एक पौधा जिसमें डालियाँ और टहनियाँ नहीं होती। विशेष— इसके जड के ऊपर से ग्वारपाठे की सी पत्तियाँ चारों ओर निकलती हैं। ये पत्तियाँ हाथ हाथ भर लंबी और दो ढाई अंगुल चौडी होती है। ग्वारपाठे की पत्तियों की तरह इन पत्तियों के भीतर गूदा नहीं होता। इससे इनका दल बहूत मोटा नहीं होता। पत्तियों का रंग गहरा हरा होता है पर बीच बीच में हलकी चित्तियों सी होती हैं। नागदौने की जड कंद के रूप में नीचे की ओर जाती है। वैद्यक में नागदौना चरपरा, कडुआ, हलका, त्रिदोषनाशक, कोठे को शुद्ध करनेवाला, विषनाशक तथा सूजन, प्रमेह और ज्वर को दूर करनेवाला माना जाता है। पर्या०— नागदमनी। वला। मोटा। विषापहा। नागपत्रा। महायोगेश्वरी। जांबवती। वुक्का। जांबवी। मलध्नी। दुर्धर्षा। दुःसहा। विफला। वनकुमारी। श्रीकंदा। कंदशालिनी। २. एक प्रकार का कडुआ और कँटीला दौना जिसके पेड लंबे लंबे होते हैं। विशेष— इसकी सूखी पत्तियाँ लोग कागजों और कपडों की तहों के बीच उन्हें कीडों से बचाने लिये रखते हैं।
⋙ नागद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नागद्रुम' [को०]।
⋙ नागद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेंहुड। थूहर। २. नागफनी।
⋙ नागद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के नौ भागों में से एक।
⋙ नागधर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव। शिव।
⋙ नागध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी जो मल्लार और केदार वा सूहा अथवा कान्हडे और सारंग के योग से बनी है। विशेष— इसका सरगम इस प्रकार है— नि सा ऋ ग म प।
⋙ नाग नक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अश्लेषा नक्षत्र।
⋙ नागनग पु
संज्ञा पुं० [सं०] गजमुक्ता। उ०— निज गुण घटत न नागनग परखि न पहिरत कोल। तुलसी प्रभु भूषण किए गुंजा बढै न मोल।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ नागनामक
संज्ञा पुं० [सं०] राँगा। टीन [को०]।
⋙ नागनामा
संज्ञा स्त्री० [सं० नागनामन्] तुलसी [को०]।
⋙ नागनायक
संज्ञा पुं० [सं०] २. आश्लेषा नक्षत्र। २. नागों में अनंत आदि आठ प्रमुख सर्प [को०]।
⋙ नागनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथी का शुंड [को०]।
⋙ नागनिर्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] दीवार की बडी खुँटी [को०]।
⋙ नागपंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० नागपंचमी] सावन सुदी पंचमी। विशेष— इस तिथि को नागदेवता की पूजा होती है। पुराण में लिखा है कि इस पंचमी तिथि को ही नागों को ब्रह्मा ने शाप और वर दिया था। इससे यह उन्हें अत्यंत प्रिय है। इस तिथि को नाग की पूजा भारत में स्त्रियाँ प्रायः सर्वत्र करती हैं।
⋙ नागपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्पों का राजा वासुकि। २. हाथियों का राजा ऐरावत।
⋙ नागपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागदमनी।
⋙ नागपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्षणा नाम का कंद।
⋙ नागपद
संज्ञा पुं० [सं०] संभोग का एक आसन [को०]।
⋙ नागपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान।
⋙ नागपाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण के एक अस्त्र का नाम जिससे शत्रुओं को बाँध लेते थे। २. शत्रु को बाँधने के लिये एक प्रकार का बंधन या फंदा। विशेष— वाल्मीकि रामायण में मेघनाद का इंद्र से इस अस्त्र को प्राप्त करना लिखा है। पुराणों में भी इसका उल्लेख है। तंत्र में लिखा है कि ढाई फेरे के बंधन को नागपाश कहते हैं। ३. नागों का पाश या बंधन (को०)।
⋙ नागपाशक
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रतिबंध [को०]।
⋙ नागपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोगवती नाम की नगरी जो पाताल में मानी गई है। २. हस्तिनापुर। ३. अग्निपुराण के अनुसार एक स्थान। ४. मध्य प्रेदश का एक नगर। विशेष— अग्निपुराण में लिखा है कि जब गंगा महादेव जी की जटा से निकल हेमकूट, हिमालय आदि को लाँघकर आई तब स्वलील नामक एक दानव पर्वत के रूप में मार्ग रोकने के लिये खडा हो गया। भगीरथ ने कौशिक को प्रसन्न करके उनसे एक नागवाहन प्राप्त किया जिसने उस पर्वतरूपी दैत्य को विदीर्ण किया। जिस स्थान पर यह दैत्य विदीर्ण किया गया, उसका नाम नागपुर रखा गया।
⋙ नागपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. नागकेसर। २. पुन्नाग का पेड। ३. चंपा।
⋙ नागपुष्पफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेठा।
⋙ नागपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीली जूही। २. नागदौना।
⋙ नागपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदमनी। २. मेढासिंगी।
⋙ नागपूत
संज्ञा पुं० [सं० नागपुत्र] कचनार की जाति की एक लता जो सिकिम, बंगाल और बरमा में बहुत होती है।
⋙ नागफनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाग + फन] १. थूहर की जाति का एक पौधा जिसमें टहनियाँ नहीं होतीं। विशेष— इस पौधे में साँप के फन के आकार के गूदेदार मोटे दल एक दूसरे के ऊपर निकलते चले जाते है। ये दल कुछ नीलापन लिए हरे और काँटेदार होते हैं। काँटे बडे विषैले होते हैं। उनके चुभने पर ब़डी पीडा होती है। दलों के सिरे पर पीले रंग के बडे बडे फूल लगते हैं। फूल का निचला भाग छोटी गुल्ली के रूप का होता है जिसमें लाल रंग का रस भऱा रहता है। यही गुल्ली फूलों के झड जाने पर बढकर गोल फल के रूप में हो जाती है। ये फल खाने में खटमीठे होते हैं और दवा के काम आते हैं। अचार और तरकारी भी इन फलों की बनती है। नागफनी के पौधे किसी स्थान कौ घेरने के लिये बाडों में लगाए जाते हैं। काँटों के कारण इन्हें पार करना कठिन होता है। २. सिंघे का आकार का एक बाजा जिसका प्रचार नैपाल में है। ३. कान में पहनने का एक गहना। उ०— विकट भृकुटि मुखमानिधि आनन कल कपोल काननि नगफनियाँ।— तुलसी (शब्द०)। ४. नागे साधुओं का कौपीन।
⋙ नागफल
संज्ञा पुं० [सं०] परवल।
⋙ नागफाँस
संज्ञा पुं० [सं० नागपाश] दे० 'नागपाश'। उ०— नागफाँस लीने घट भीतर, मूसनि सब जग झारी। — घट०, पृ० ३६२।
⋙ नागफेन
संज्ञा पुं० [सं०] अफीम। अहिफेन।
⋙ नागबंध
संज्ञा पुं० [सं० नागबन्ध] १. नाग या सर्प का बंधन। २. एक वृत्त का नाम [को०]।
⋙ नागबंधक
संज्ञा पुं० [सं० नाबन्धक] हाथी फँसानेवाला [को०]।
⋙ नागबंधु
संज्ञा पुं० [सं० नागबन्धु] पीपल का पेड़।
⋙ नागबल
संज्ञा पुं० [सं०] भीम का एक नाम। विशेष— भीम को दस हजार हाथियों का बल था, इससे यह नाम पडा। यह बल उन्हें उस समय प्राप्त हुआ था जब दुर्योधन ने उन्हें बिश देकर जल में फेंक दिया था और वे नागलोक में जा पहुँचे थे। नागलोक में गिरने पर नागों ने उन्हें खूब डसा जिससे स्थावर विष का प्रभाव उतर गया और वे स्वस्थ होकर उठ बैठे। वहाँ पर कुंती के पिता के मामा ने भीम को पहचाना। अंत में वासुकि की कृपा से उन्हें उस कुंड का रसपान करने को मिला जिसके पीने से हजारों हाथियों का बल हो जाता है।
⋙ नागबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगेरन। गुलसकरी।
⋙ नागबेल
संज्ञा स्त्री० [सं० नागवल्ली] १. पान की बेल। पान। २. कोई सर्पाकार बेल जो किसी वस्तु पर बनाई जाय। ३. घोडे की आडी तिरछी चाल।
⋙ नागभगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वासुकि की बहन जरत्कारु।
⋙ नागभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का भारी सर्प।
⋙ नागभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। रुद्र [को०]।
⋙ नागमंडलिक
संज्ञा पुं० [सं० नागमण्डलिक] १. साँप खेलानेवाला। सँपेरा। मदारी। २. साँप पकड़नेवाला [को०]।
⋙ नागमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता का नाम।
⋙ नागमरोड
संज्ञा पुं० [हिं० नाग + मरोडना] कुश्ती का एक पेंच जिसमें जोड को अपनी गर्दन के ऊपर से या कमर पर से एक हाथ से घसीटते हुए गिराते हैं। विशेष— यह पेच धोबी पछाड ही जैसा होता है, अंतर इतना होता है कि धोबी पछाड में दोनों हाथों से जोड़ के पीठ पर से घसीटते हुए फेंकते हैं।
⋙ नागमल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत।
⋙ नागमाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागों की माता। कद्रू। २. सुरसा। विशेष— रामायण में लिखा है कि जिस समय हनुमान समुद्र लाँघ रहे थे, देवताओं ने उनके बल की परीक्षा के लिये नागों की माता सुरसा को भेजा था। २. मनःशिला। मैनसिला। ३. मनसा देवी। (ब्रह्मवैवर्त पु०)।
⋙ नागमार
संज्ञा पुं० [सं०] केशराज। काला भँगरा। कुकुर भँगरा।
⋙ नागमुख
संज्ञा पुं० [सं०] गणेश।
⋙ नागयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लकडी या पत्थर का वह खंभा जो पुष्करिणी या तालाब के बीचोबीच जल में खडा किया जाता है। लाट। लट्ठा। विशेष— हयशीर्ष और बृहस्पति के अनुसार यह लाट बेल, पुत्राग, नागकेसर, चंपा या बरने की लकडी की होनी चाहिए। लकडी सीधी और सुडौल हो। जलाशयोत्सर्गतत्व में लिखा है कि पहले आठों नागों के नाम अलग अलग पत्रों पर लिखकर जल से भरे कुंडों में डाल देने चाहिए। फिर जल को खूब हिलाकर एक पत्र हाथ में उठा लेना चाहिए। जिस नाग का नाम उस पत्र पर हो वही बनवाए हुए जलाशय का अधिपति होगा। उस नाग की पायस नैवेद्य से पूजा करके तब नागयष्टि की स्थापना करनी चाहिए।
⋙ नागरंग
संज्ञा पुं० [सं० नागरङ्ग] नारंगी।
⋙ नागर (१)
वि० [सं०] [स्त्री० नागरी] १. नगर संबंधी। २. नगर में रहनेवाला या बोला जानेवाला। ३. नगर में उत्पन्न या घोषित (को०)। ४. नगर में बोली जानेवाली या बोला जानेवाला (को०)। ५. सभ्य। शिष्ट। नम्र (को०)। ६. चतुर। सयाना (को०)। ७. दुष्ट। धूर्त। बुरा। जिसमें नगर संबंधी। दोष हों (को०)। ८. नामहीन (को०)।
⋙ नागर (२)
संज्ञा पुं० १. नगर में रहनेवाला मनुष्य। २. चतुर आदमी। सभ्य, शिष्ट और निपुण व्यक्ति। ३. देवर। ४. सोंठ। ५. नागरमोथा। नारंगी। ७. गुजरात में रहनेवाले ब्राह्मणों की एक जाति। ८. व्याख्याता (को०)। ९. क्लांति। श्रम। कठिनाई (को०)। १०. मोक्ष की इच्छा (को०)। ११. एक रतिबंध (को०)। १२. नागरी लिपि अथा अक्षर (को०)। १३. राजकुमार जो युद्धरत हो (को०)।१४. किसी नक्षत्र का दूसरे नक्षत्र से विरोध (ज्योतिष) (को०)। १५. ज्ञान या जानकारी का अस्वीकार (को०)। १६. वास्तुकला की तीन पद्धतियों में से एक जो चतुरस्र या चतुष्कोण होती है (को०)।
⋙ नागर (३)
संज्ञा पुं० [सं० नाग(=साँप)] दीवार का टेढा़पन जो जमीन की तंगी के कारण होता है।
⋙ नागरक (१)
संज्ञा [सं०] १. शिल्पी। कारीगर। २. चोर। ३. नगर का शासनकर्ता। नागरिक प्रणिधि (को०)।४. नागरिक। नगरवासी (को०)। ५. नम्र या अनुकूल नायक (को०)। ६. नगर के दोषों से युक्त व्यक्ति (को०)। ७. नगरव्यवस्था करनेवाले राजपुरुषों या पुलिस का प्रधान (को०)। ८. एक रतिबंध (को०)। ९. एक दूसरे के विरोधी नक्षत्र (को०)।
⋙ नागरक (२)
वि० १. नगर में उत्पन्न या घोषित। २. नम्र। अनुकूल। ३. विदग्ध। चतुर [को०]।
⋙ नागरक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प या हाथी का रक्त। २. सिंदूर।
⋙ नागरघन
संज्ञा पुं० [सं०] नागरमोथा।
⋙ नागरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागरिकता। शहरातीपन। २. नगर का रीति व्यवहार। सभ्यता। उ०— सबै हँसत करताल दै नागरतात के नाँव। गयो गरब गुन को सबै बसे गँवारे गाँव।— बिहारी (शब्द०)। ३. चतुराई।
⋙ नागरबेल
संज्ञा स्त्री० [सं० नागवल्ली] पान की बेल। पान। तांबूल।
⋙ नागरमुस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।
⋙ नागरमोथा
संज्ञा पुं० [सं० नागरमुस्ता] एक प्रकार का तृण या घास। विशेष— इसमें इधर उधर फैली या निकली हुई टहनियाँ नहीं होतीं जड के पास चारों ओर सीधी लँबी पत्तियाँ निकलती हैं जो शर या मूँज की पत्तियों की सी नोकदार और बहुत कम चौड़ाई की होती हैं। पत्तियों के बिचोबीच एक सीधी सींक निकलती है जिसके सिरे पर फूलों की ठोस मंजरी होती है। यह हाथ भर तक ऊँचा होता है और तालों के किनारे प्रायः मिलता है। इसकी जड़ सूत में फँसी हुई गाँठों के रूप की और सुगंधित होती है। नागरमोथे की जड़ मसाले और औषध के काम में आती है। वैद्यक में नागरमोथा चरपरा, कसैला, ठंढा तथा पित्त, ज्वर, अतिसार, अरुचि, तृषा और दाह को दूर करनेवाला माना जाता है। जितने प्रकार के मोथे होते हैं उनमें नागरमोथा उत्तम माना जाता है। पर्या०— नागरमुस्ता। नादेयी। बृषध्मांक्षी। कच्छरुहा। चूडाला। पिडमुस्ता। नागरोत्था। कलापिनी। चक्रांक्षा। शिशिरा। उच्चटा।
⋙ नागराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्पों में बडा सर्प। २. शेषनाग। ३. हाथियों में बड़ा हाथी। ४. ऐरावत। ५. 'पंचामर' या 'नाराच' छंद का दूसरा नाम।
⋙ नागराह्व
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ।
⋙ नागरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारी। उ०— प्रेम बिबस डोलत नर नागरि हित गति की अधिकाई।— घनानंद, पृ० ५६०।
⋙ नागरिक (१)
वि० [सं०] १. जिसे लोकतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्रात्मक आदि पद्धति द्वारा शासित राष्ट्रों कै सामान्य निर्वाचनों में मतदान का अधिकार प्राप्त हो। २. नगर संबंधी। ३. नगर का। ४. नगर में रहनेवाला। शहराती। ५. चतुर। सभ्य। दे० 'नागरक'।
⋙ नागरिक (२)
संज्ञा पुं० १. लोकतंत्रात्मक आदि पद्धति द्वारा शासित राष्ट्र का वह निवासी जिसे सामान्य निर्वाचन आदि में मताधिकार प्राप्त हो। २. नगरनिवासी। शहर का रहनेवाला आदमी। दे० 'नागरक'।
⋙ नागरिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरिक होने का भाव। नागरिक के स्वत्व और अधिकारों से युक्त होने की अवस्था। नागरिक जीवन।
⋙ नागरिपन पु
संज्ञा पुं० [सं० नागरि + पन (प्रत्य०)] चातुरी। चतुरता। उ०— नागरिपन किछु कहवा चार। कहलहु बुहए सयानी।—विद्यापति, पृ० ८२।
⋙ नागरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नगर की रहनेवाली स्त्री। शहर की औरत। २. चतुर स्त्री। प्रवीण स्त्री। ३. स्नुही। थूहर।४. भारतवर्ष की वह प्रधान लिपि जिसमें संस्कृत, हिंदी, मराठी, पाली प्राकृत आदि आजकल प्रायः लिखी और मुद्रित की जाती है। विशेष— दे० 'देवनागरी'। ५. पत्थर की मोटाई को एक बड़ी माप। ६. पत्थर की बहुत मोटी पटिया। बड़ा भोट।
⋙ नागरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नागरबेल] पान। नागबल्ली। उ०— बाड़ी में है नागरी पान देशांतर जाय। जो वहाँ सूखै वेलड़ी तौ परन वहाँ विनसाय।— दरिया० बानी, पृ० २।
⋙ नागरीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंपट। व्यभिचारी। २. जार। ३. वह जो विवाह कराए। घटक (को०)।
⋙ नागरुक
संज्ञा पुं० [सं०] नारंगी।
⋙ नागरेणु
संज्ञा पुं० [सं०] सिंदूर।
⋙ नागरोत्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] नागरमोथा।
⋙ नागर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. नागरिकता। शहरातीपन। २. चतुराई। बुद्धिमानी।
⋙ नागल
संज्ञा पुं० [देश०] १. हल। २. जूए की रस्सी जिससे बैल जोडे़ जाते हैं।
⋙ नागलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पान की लता। पान। २. शिश्न। लिंग (को०)।
⋙ नागलोक
संज्ञा पुं० [सं०] पाताल।
⋙ नागवंश
संज्ञा पुं० [सं०] १. नोगों की कुलपरंपरा। २. शक जाती की शाखा। विशेष— प्राचीन काल में नागवंशियों का राज्य भारतवर्ष के कई स्थानों में तथा सिंहल में भी था। पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि सात नागवंशी राजा मथुरा भोग करेंगे, उसके पीछे गुप्त राजाओं का राज्य होगा। नौ नाग राजाओं के जो पुराने सिक्के मिले हैं उनपर बृहस्पति नाग, देव नाग, गणपति नाग इत्यादि नाम मिलते हैं; ये नागगण विक्रम संवत् १५० और २५० के बीच राज्य करते थे। इन नव नागों की राजधानी कहाँ थी इसका ठीक पता नहीं है पर अधिकांश विद्वानों का मत यटही है कि उनकी राजधानी नरवर थी। मथुरा और भरतपुर से लेकर ग्वालियर और उज्जैन तक का भूभाग नागवंशियों के अधिकार में था। इतिहासों में यह बात प्रसिद्ध है कि महाप्रतापी गुप्तवंशी राजाओं ने शक या नागवंशियों को परास्त किया था। प्रयाग के किले के भीतर जो स्तंभ है उसमें स्पष्ट लिखा है कि महाराज समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को पराजित किया था। इस गणपति नाग के सिक्के बहुत मिलते हैं। महाभारत में भी कई स्थानों पर नागों का उल्लेख है। पांडवों ने नागों के हाथ से मगध राज्य छीना था। खांडव वन जलाते समय भी बहुत से नाग नष्ट हुए थे। जनमेजय के सर्प यज्ञ का भई यही अभिप्राय मालूम होता है कि पुरुवंशी आर्य राजाओं से नागवंशी राजाओं का विरोध था। इस बात का समर्थन सिकंदर के समय के प्राप्त वृत्त से होता है। जिस समय सिकंदर भारवर्ष में आया उससे पहले पहल तक्षशिला का नागवंशी राजा ही मिला। उस राजा ने सिकंदर का कई दिनों तक तक्षशिला में आतिथ्य किया और अपने शत्रु पौरव राजा के विरुद्ध चढ़ाई करने में सहायता पहुँचाई। सिकंदर के साथियों ने तक्षशिला में राजा के यहाँ भारी भारी सर्प पले देखे थे जिनकी नित्य पूजा होती थी। यह शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती अपनी भाषा को नागभाषा कहते हैं।
⋙ नागवंशी
वि० [सं०नागवंशिन्] नागों के वंश या कुल का।
⋙ नागवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान।
⋙ नागवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान की बेल। पान। तांबूल।
⋙ नागवार
वि० [फा०] १. असह्य। २. जो अच्छा न लगे। अप्रिय। क्रि० प्र०—होना।—गुजरना।
⋙ नागवारिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा का हाथी। राजकुंजर। २. महावत। फीलवान। ३. मयूर। मोर। ४. गरुड़। ५. गजराज। हाथियों के झुंड का नायक। ६. किसी सभा या राजसभा का प्रधान व्यक्ति [को०]।
⋙ नागवोथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शुक्र ग्रह की चाल में वह मार्ग जो स्वाती, भरणी और कृत्तिका नक्षत्रों में हो (बृहत्संहिता)। विशेष— तीन तीन नक्षत्रों में एक एक वीथी मानी गई है। २. कश्यप की एक पुत्री का नाम। (ब्रह्मवैवर्त)।
⋙ नागवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेशर।
⋙ नागशत
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक पर्वत का नाम।
⋙ नागशुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० नागशुण्डी] डंगरी फल। एक प्रकार की लकड़ी।
⋙ नागशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नया घर बनवाने में नागों की स्थिति का विचार। विशेष— फलित ज्योतिष के ग्रंथों में लिखा है कि भादों, कुआर और कार्तिक इन तीन महीनों में नागों का सिर पूरब की ओर; अगहन, पूस और माघ में दक्षिण की ओर, फागुन चैत और बैसाख में पच्छिम की ओर तथा जेठ, असाढ़ और सावन में उत्तर की ओर रहता है। पहले पहल नींव डालते समय यदि नागों के मस्तक पर आघात पड़ा तो घर बनवानेवाले की मृत्य, पीठ पर पड़ा तो स्त्री पुत्र की मृत्यु होती है। पेट पर आघात पड़ने से शुभ होता है।
⋙ नागसंभव
संज्ञा पुं० [सं० नागसम्भव] १. सिंदूर। २. एक प्रकार का मोती (जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह वासुकि, तक्षक आदि नागों के सिर में होता है)।
⋙ नागसंभूत
संज्ञा पुं० [सं० नागसम्भूत] दे० 'नागसंभव'।
⋙ नागसाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिनापुर।
⋙ नागसुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० नागसुगन्धा] सर्पसुगंधा। एक प्रकार की रास्ना। रायसन।
⋙ नागस्तोकक
संज्ञा पुं० [सं०] वत्सनाभ विष। अमृत विष।
⋙ नागस्फोता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. दंती।
⋙ नागहंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० नागहन्त्री] वंध्या कर्कोटकी। बाँझ ककोड़ा। बाँझ खखसा।
⋙ नागहनु
संज्ञा पुं० [सं०] नख नामक गंधद्रव्य।
⋙ नागहाँ
क्रि० वि० [फा०] एकाएक। अचानक। अकस्मात्।
⋙ नागहानी
वि० स्त्री० [फा०] अकस्मात् आई हुई। जो एकाएक टूट पड़ी हो। जैसे, नागहानी आफत।
⋙ नागांग
संज्ञा पुं० [सं० नागाङ्ग] हस्तिनापुर [को०]।
⋙ नागांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० नागाङ्गना] १. करिणी। हाथिनी (को०)। २. पुराणानुसार नागलोक या पाताल लोक निवासियों की स्त्री। ३. ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन भारत की 'नाग' जाति की अंगना। ४. हाथी का शुंड। सूँड़ (को०)।
⋙ नागांचला
संज्ञा स्त्री० [नागाञ्चला] नागयष्टि।
⋙ नागांजना
संज्ञा स्त्री० [सं० नागाञ्जना] नागयष्टि।
⋙ नागांतक
संज्ञा पुं० [सं० नागान्तक] १. गरुड़। २. मयूर। ३. सिंह।
⋙ नागा (२)
संज्ञा पुं० [सं० नग्न, हिं० नंगा] उस संप्रदाय का शैव साधु जिसमें लोग नंगे रहते हैं। उ०— जंगम सिवरा जरै जरै नागा वैरागी। तपसी दूना जरै बचै नहीं कोऊ भागी।— पलटू०, भा० १, पृ० १०४। विशेष— नागे पहले किसी प्रकार का वस्त्र धारण नहीं करते थे, एक दम नगे रहते थे। अब अँग्रेजी राज्य में एक कौपीन लगाकर निकलते हैं जिसे नागफनी कहते हैं। ये सिर की जटाओं को रस्सी की तरह बट कर पगड़ी के आकार में लपेटे रहते हैं और शरीर में भस्म पोतते हैं। ये अपने पास भस्म का एक गोला रखते हैं जिसकी नित्य पूजा करते हैं। इनकी उद्दंडता और वीरता प्रसिद्ध है। अँगरेजी राज्य के पहले ये बड़ा उपद्रव भी करते थे। वैष्णव वैरागियों से इनकी लड़ाई प्रायः हुआ करती थी जिसमें बहुत से वैरागी मारे जाते ये। नागों के भी कई अखाडे़ हेते हैं जिनमें निरंजनी और निर्वाणी दो मुख्य हैं। २. नंगा। नग्न। आच्छादनसहित। उ०— भूका पोसणहार यूँ ज्यूँ जग कमलाकंत। नागां ढाकणहार इम, जिम तरवरा वसंत।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५६।
⋙ नागा (२)
संज्ञा पुं० [सं० नागा] १. आसाम के पूर्व की पाहाड़ियों में बसनेवाली एक जंगली जाति। जिनका प्रेदश 'नागा लैंड' कहा जाता है। २. आसाम में वह पहाड़ या स्थान जिसके आसपास नागा जाति की बस्ती है।
⋙ नागा (३)
संज्ञा पुं० [तु० नागह] किसी नित्य या निरंतर होनेवाली अथवा नियत समय पर बराबार होनेवाली बात का किसी दिन या किसी नियत अवसर पर न होना। चलती हुई कार्य- परंपरा का भंग। अंतर। बीच। जैसे,— (क) रोज काम पर जाना, किसी दिन नागा न करना। (ख) तुम्हारे कई नागे हो चुके, तनख्वाह कटेगी। क्रि० प्र०—करना ।—होना। मुहा०— नागा देना = बीच डालना। अंतर डालना। —जैसे, रोज न आओ, एक दिन नागा देकर आया करो।
⋙ नागाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर।
⋙ नागानन
संज्ञा पुं० [सं०] गजानन। गणेश।
⋙ नागाभिम्
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव का एक नाम।
⋙ नागाजिन
संज्ञा पुं० [सं०] हीथी का चमड़ा [को०]।
⋙ नागाराति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंध्या कर्कोटकी। बाँझ ककोड़ा। २. गरुड़ (को०)। ३. मयूर (को०)। ४. सिंह (को०)।
⋙ नागारि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नागाराति'।
⋙ नागार्जुन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन बौद्ध महात्मा या बोधिसत्व जो माध्यमिक शाखा के प्रवर्तक थे। विशेष— ऐसा लिखा है कि ये विदर्भ देश के ब्राह्मण थे। किसी किसी के मत से ये ईसा से सौ वर्ष पूर्व और किसी किसी के मत से ईसा से १५०-२०० वर्ष पीछे हुए थे। पर तिब्बत में लामा के पुस्तकालय में एक प्राचीन ग्रंथ मिला है जिसके अनसार पहला मत ही ठीक सिद्ध होता है। बौद्ध धर्म को दार्शनिक रूप पहले पहल नागार्जुन ही ने दिया, अतः इनके द्वारा सभ्य और पठित समाज में बौद्ध धर्म का जितना प्रचार हुआ उतना किसी के द्वारा नहीं। इनके दर्शन ग्रंथ का नाम माध्यमिक सूत्र है। इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म संबंधी इन्होंने और कई ग्रंथ लिखे। इन्होंने सात वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उपदेश और शास्त्रार्थ करेक बहुत से लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। अंत में ये भोजभद्र नामक प्रधान राजा को दस हजार ब्राह्मणों के सहित बौद्धधर्म में लाए। इनका दर्शन दो भागों में विभक्त है— एक संवृति सत्य दूसरा परमार्थ सत्य। संवृति सत्य में इन्होंने माया का मूल तथ्य निरूपित किया है और परमार्थ सत्य में यह प्रतिपादित किया है कि चिंतन और समाधि के द्वारा महात्मा को किस प्रकार जान सकते हैं। महात्मा को जान लेने पर माया दूर हो जाती है। माध्यमिक दर्शन का सिद्धांत यही है कि समाधारण नितिधर्म के पालन से ही प्राणी पुनर्जन्म से रहित नहीं हो सकता। निर्वाणप्राप्ति के लिये दानशील, शांति, वीर्य, समाधि और प्रज्ञा इन गुणों के द्वारा आत्मा को पूर्णत्व को पहुँचाना चाहिए। ये कहते थे कि विष्णु, शिव, काली, तारा, इत्यादि देवी देवताओं की उपासना सांसारिक उन्नति के लिये करनी चाहिए। नागार्जुन ने बौद्ध धर्म को जो रूप दिया वह 'महायन' कहलाया और उसका प्रचार बहुत शीघ्र हुआ। नैपाल, तिब्बत, चीन, तातार, जापान इत्यादि देशों में इसी शाखा के अनुयायी हैं। तांत्रिक बौद्ध धर्म का प्रवर्तक कुछ लोग नागर्जुन ही को मानते हैं। काश्मीर में बौद्धों का जो चौथा संघ हुआ था वह इन्होंने किया था। ये चिकित्सक भी अच्छे थे। चक्रपाणि पंडित (विक्रम सँबत् १००० के लगभग) ने अपने चिकित्सासंग्रह में नागार्जुन कृत नागार्जुनाजन और नागार्जुनयोग नामक औषधों का उल्लेख किया है। चक्रपाणि ने लिखा है कि पाटलिपुत्र नगर में उन्हें ये दोनों नुसखे पत्थर पर खुदे मिले थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये पत्थरों पर इस प्रकार के नुसखे खुदवाकर उन्हें स्थान स्थान पर गड़वा देते थे। कक्षपूट, कौतूहल- चिंतामणि, योगरत्नमाला। योगरत्नावली और नागार्जुनीय(चिकित्सा) ये और ग्रंथ इनकै नाम से प्रसिद्ध हैं। रस चिकित्सा पद्धति को इन्होंने प्रचारित किया।
⋙ नागार्जुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुद्धी। दुधिया धास।
⋙ नागालावु
संज्ञा पुं० [सं०] गोल धीया। गोल गद्दू। गोल लोकी।
⋙ नागाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरुड़। १. मयूर। ३. सिंह।
⋙ नागाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिकंद।
⋙ नागाह्व
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर।
⋙ नागाह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मणा कंद।
⋙ नागिन
संज्ञा स्त्री० [ हिं० नाग] १. नाग की स्त्री। साँप की माता। विशेष— ऐसा प्रसिद्ध है कि नागिन में बहुत विष होता है, इससे कुटिल और दुष्ट स्त्री के लिये इस शब्द का प्रयोग प्रायः करते हैं। २. रोयों की लंबी भौंरी जो पीठ या गरदन पर होती है। विशेष— स्त्रियों में ऐसी भौंरी का होना कुलक्षण समझा जाता है। ३. बैल, घोडे़ आदि चौपायों की पीठ पर रोयों की एक विशेष प्रकार की भौंरी जो अशुभ मानी जाती है।
⋙ नागिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाग] दे० 'नागिन'।
⋙ नागी
संज्ञा पुं० [सं० नागिन्] (नागवाले) शिव। महादेव।
⋙ नागीगायत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] २४ वर्णों का एक वैदिक छंद जिसके प्रथम दो चरणों में नौ नौ वर्ण होते हैं और तीसरे चरण में केवल छह वर्ण।
⋙ नागुला
संज्ञा पुं० [सं०नकुल] १. नेवला। २. नाकुली नामक जड़ी।
⋙ नागेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० नागेन्द्र] १. बड़ा सर्प। २. शेष, वासुकि आदि नाग। ३. बड़ा हाथी। ४. ऐरावत।
⋙ नागेश
संज्ञा [सं०] १. शेषनाग। २. प्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण नागेश भट्ट। ३. पतंजलि (को०)।
⋙ नागेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शेषनाग। २. ऐरावत। ३. नागकेसर।
⋙ नागेश्वर रस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध रसौषध। विशेष— पारा, गंधक, सीसा, राँगा, मैनासिल, नौसादर, जवाखार, सज्जी, सोहागा, लोहा, ताँबा और अभ्रक इन सबको बराबर बराबर लेकर थूहर के दूध में मले। फिर चीते, अडूसे और दंती के क्वाथ में मलकर उरद की दाल के बराबर गोली बना डाले।
⋙ नागेसर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नागकेसर'।
⋙ नागेसरी
वि० [हिं० नागेसर] नागकेसर के रंग का पीला।
⋙ नागोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे का वह तवा या बकतर जिसे अस्त्रों को आघात से बचाने के लिये छाती पर पहनते थे। सीनाबंद। २. एक प्रकार का गर्भरोग। गर्भोपद्रव विशेष (को०)।
⋙ नागोदर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नागोद'।
⋙ नागोदरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] युद्ध में हाथ की रक्षा के लिये पहना जानेवाला दस्ताना। (को०)।
⋙ नागौर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नब + नगर] मारवाड़ के अंतर्गत एक नगर जो गायों और बैलों के लिये भारतवर्ष भर में प्रसिद्ध है। विशेष— ऐसी जनश्रुति है कि दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज ने कोई ऐसा स्थान ढूँढ़ने की आज्ञा दी जो गोपोषण के लिये सबसे अनुकूल हो। लोग चारों ओर छूटे। उनमें से एक ने जंगल में देखा कि तुरंत की ब्याई हुई गाय अपने बछडे़ की रक्षा एक बाध से कर रही है। बाध बहुत जोर से मारता है पर गाय उसे सींगो से मार मारकर हटा देती है। महाराज के यहाँ जब यह समाचार पहुँचा तब उन्होंने उसी जंगल को पसंद किया और वहाँ नागौर या नवनगर नाम का नगर और गढ़ बनवाया।
⋙ नागौर (२)
वि० [हिं० नागौर] [वि० स्त्री० नागौरी] नागौर का, अच्छी जाति का (बैल, गाय, बछड़ा आदि)।
⋙ नागौरी (१)
वि० [हिं० नागौर] [स्त्री० नागौरी] नागौर का, अच्छी जाति का (बैल, गाय, बछड़ा इत्यादि)।
⋙ नागौरी (१)
वि० [हिं० नागौर] नागौर का। अच्छी जाति का (बैल, बछड़ा आदि)।
⋙ नागौरी (२)
वि० स्त्री० नागौर की। अच्छी जाति की (गाय)।
⋙ नाघना
क्रि० स० [सं० लङ्घन] पार करना। डाँकना। उलाँघना। उ०— देहली नाघ कर, दहलीज के उधर, धनौची पर उधर, घडे़ रक्खे बरन।— आराधना, पृ० ७८।
⋙ नाच
संज्ञा पुं० [सं० नृत्य, प्रा० णच्य, नच्च] १. वह उछल कूद जो चित्त की उमंग से हो। अंगों की वह गति जो हृदयोल्लास के कारण मनमानी अथवा संगीत के मेल में ताल स्वर के अनुसार और हावभाव युक्त हो। उ०— करि सिंगार मनमोहनि पातुर नाचहिं पाँच। बादशाह गढ़ छेंका, राजा भूला नाच।— जायसी (शब्द०)। विशेष— नाच की प्रथा सभ्य असभ्य सब जातियों में आदि से ही चली आ रही हैं, क्योंकि यह एक स्वाभाविक वृत्ति है। संगीतदामोदर में नृत्य का यह लक्षण है— देश की रुचि के अनुसार ताल मान और रस का आश्रित जो अंगविक्षेप हो उसे नृत्य कहते हैं। नृत्य दो प्रकार का होता है— तांडव और लास्य। पुरुष के नाच को तांडव और स्त्री के नाच को लास्य कहते हैं। ताडंव के दो भेद हैं— पेलवि और वहुरुप। अभिनयशून्य अंगविक्षेप को पेलवि और अनेक प्रकार कै हावभाव, वेशभूषा से युक्त अंग-गति को बहुरूप कहते हैं। लास्य के भी दो भेद हैं— छुरित और यौवत। नायक नायिका परस्पर आलिंगन, चुंबन आदि पूर्वक जो नृत्य करते हैं उसे छुरित कहते हैं। एक स्त्री लीला और हावभाव के साथ जो नाच नाचती है उसे यौवत कहते हैं। इनके अतिरिक्त अंग प्रत्यंग की चेष्टा के अनुसार ग्रंथों में अनेक भेद किए गए हैं। पर प्राचीन काल में नृत्य विद्या राजकुमार भी सीखते थे। अर्जुन इस विद्या में निपुण थे। भारतवर्ष में नाचने का पेशा करनेवाले पुरुषों को नटकहते थे। स्मृतियों में नट निकृष्ट जातियों में रखे गए हैं। नाचना अनेक प्रकार के स्वाँगों के साथ भी होता हैं, जैसे, नाटक, रासलीला आदि में। विशेष दे० 'नाटक'। क्रि० प्र०—करना, नाचना, होना। यौ०— नाचकूद। नाच तमाशा। नाच रंग। मुहा०— नाच काछना= नाचने के लिये तैयार होना। उ०— मैं अपनो मन हरि सों जोरयो। नाच कछयो घूँघट छोरयो तब लोकलाज सब फटकि पछोरयो।— सूर (शब्द०)। नाच दिखाना = (१) किसी के सामने नाचना। (२) उछलना कूदना। हाथ पैर हिलाना। (३) विलक्षण आचरण करना। जैसे, रास्ते में उसने बडे़ बडे़ नाच दिखाए। नाच नचाना = (१) जैसा चाहना वैसा काम कराना। उ०— (क) कबिरा बैरी सबल है एक जीब रिपु पाँच। अपने अपने स्वाद को बहुत नचावै नाच।— कबीर (शब्द०)। (ख) जो कछु कुबजा के मन भावै सोई नाच नचावै।— सूर (शब्द०)। (२) दिक करना। हैरान करना। तंग करना। उ०— जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं। तुलसी (शब्द०)। २. नाट्य। खेल। क्रीड़ा। उ०— टूटे नौ मन मोती कूटे दस मन काँच। लिय समेटि सब अभरन होइगा दुख कर नाच।— जायसी (शब्द०)। ३. कृत्य। धधा। कर्म। प्रयत्न। उ०— साँच कहौं नाच कौन सो जो न मोहिं लोभ लघु निलज नचायो।— तलुसी (शब्द०)।
⋙ नाचकूद
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाच + कूद] १. नाच। तमाशा। उ०— कतहूँ करथा कहै कछु कोई। कतहूँ नाच कूद भल होई।— जायसी (शब्द०)। २. आयोजन। प्रयत्न। ३. गुण, योग्यता बड़ाई आदि प्रकट करने का उद्योग। डींग। ४. क्रोध मे उछलना, पटकना।
⋙ नाचघर
संज्ञा पुं० [हिं० नाच + घर] वह स्थान जहाँ नाचना गाना आदि हो। नृत्यशाला।
⋙ नाचना
क्रि० अ० [हिं० नाच] १. चित्त की उमंग से उछलना, कूदना तथा इसी प्रकार की और चेष्टा करना। हृद के उल्लास से अंगों को गति देना। हर्ष के मारे स्थिर न रहना। जैसे,— इतना सुनते ही वह आनंद से नाच उठा। उ०— (क) आजु सूर दिन अथवा आजु रैनि ससि बूड़। आजु नाचि जिउ दीजै आजु आगि हमैं जूड़।— जायसी (शब्द०) । (ख) सुनि अस ब्याह सगुन सब नाचे। अब कीन्हें विरंचि हम साँचे।— तुलसी (शब्द०)। (ग) लछिमन देखहु मोर गन नाचत वारिद पेखि।— तुलसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—उठना।— पडना। २. संगीत के मेल से ताल स्वर के अनुसार हावभाव पूर्वक उछलना, कूदना, फिरना तथा इसी प्रकार की और चेष्टाएँ करना। थिरकना। नृत्य करना। उ०— (क) करि सिंगार मन मोहनि पातुर नाचहिं पाँच। बादशाह गढ़ छेंका राजा भूला नाच।— जायसी (शब्द०)। (ख) कबहूँ करताल बजाइ कै नाचत मातु सबै मोद भरैं।— तुलसी (शब्द०)। ३. भ्रमण करना। चक्कर मारना। घूमना। जैसे, लट्टू का नाचना। मुहा० — सिर पर नाचना—(१) घेरना। ग्रसना। आक्रांत करना। प्रभाव डालना। जैसे, सिर पर पाप, अदृष्ट, दुर्भाग्य आदि नाचना। (२) पास आना। जैसे, सिर पर काल या मृत्यु का नाचना। उ०— जेहि घर काल मजारी नाचा। पंखिहि नावँ जीव नहिं बाँचा।— जायसी (शब्द०)। सीस पर नाचना = दे० 'सिर पर नाचना'। उ०— लखी नरेस बात सब साँची। तिय मिस मोचु सीस पर नाची।— तुलसी (शब्द०)। विशेष— इस मुहाविरे का प्रयोग काल, मृत्यु, अदृष्ट, दुर्भाग्य, पाप, ऐसे कुछ शब्दों के साथ ही होता है। आँख के सामने नाचना= अंतःकरण में प्रत्यक्ष के समान प्रतीत होना। ध्यान में ज्यों का त्यों होना। जैसे,— (क) उसमें ऐसा सुंदर वर्णन है कि दृश्य आँख के सामने नाचने लगता है। (ख) उसकी सूरत आँख के सामने नाच रही है। ४. इधर से उधर फिरना। दौड़ना धूपना। उद्योग या प्रयत्न में घूमना। स्थिर न रहना। जैसे,— एक जगह बैठते क्यों नहीं, इधर उधर नाचते क्या हो? उ०— जब माला छापा तिलक सरै न ऐकौ काम। मन काँचे, नाचे वृथा साँचे राचे राम।— बिहारी (शब्द०)। ५. थर्राना। काँपना। उ०—बाजा बान जाँघ जस नाचा। जिव गा स्वर्ग परा मुँह साँचा। — जायसी (शब्द०)। ६. क्रोध में आकर उछलना। कूदना। क्रोध से उद्विग्न और चंचल होना। बिगड़ना। जैसे,— तुम सबको कहते हो, पर तुम्हें जह भई कोई कुछ कहता है तो नाच उठते हो। संयो० क्रि०—उठना।
⋙ नाचमहल
संज्ञा पुं० [हिं० नाच + महल] उ०— नाचमहल महँ बैठो भीमा। दीप बूझाय क्रोध करि जी मा।— सबल (शब्द०)।
⋙ नाचरंग
संज्ञा पुं० [हिं० नाच + रंग] आमोद प्रमोद। जलसा। क्रि० प्र०—करना।—मचना।— होना।
⋙ नाचाक
वि० [फा० ना + तु० चाक] जो स्वस्थ न हो। अस्वस्थ। बीमार [को०]।
⋙ नाचाकी
संज्ञा स्त्री० [नाचाक फा० ना + तु० चाक + फा० ई (प्रत्य०)] १. बिगाड़। अनबन। लड़ाई। वैमनस्य। मन- मुटाव। २. बीमारी। रोग (को०)।
⋙ नाचार (१)
वि० [फा०] १. विवश। लाचार। असहाय। २. तुच्छ। व्यर्थ। उ०— इच्छायुत बैराग को करै जो चित्त विचार। सदाचार को वेद मत यह विचार नाचार।— केशव (शब्द०)।
⋙ नाचार (२)
क्रि० वि० विविश होकर। हारकर। मजबूरन। उ०— सुलतान रुकनुद्दीन फीरोजशाह इतनी शराब पिता था कि आखिर नाचार उसके अमीरों ने उसे कैद कर लिया।— शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ नाचारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'लाचारी'।
⋙ नाचिकेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. नचिकेता नामक ऋषि।
⋙ नाचीज
वि० [फा० नाचीज] १. तुच्छ। पोच। उ०— अब उनकोनाचीज फौजी गोरे अपने बूट से कुचलने लगे।—सरस्वती (शब्द०)। २. निकम्मा।
⋙ नाचीन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देश जो दक्षिण में है। २. इस देश का राजा (महाभारत)।
⋙ नाज † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अनाज] १. अनाज। अन्न। उ०— खलन को योग जहाँ नाज ही में देखियत माफ करबे ही माँह होत करनाशु है।— गुमान (शब्द०)। २ खाद्य द्रव्य। भोजन सामग्री। खाना। उ०— तुलसी निहारि कपि भालु किलकत ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाज की।— तुलसी (शब्द०)। विशेष-दे० 'अनाज'।
⋙ नाज (२)
संज्ञा पुं० [फा० नाज] १. ठसक। नखरा। चोचला। हाव भाव। उ०— अदा में नाज में चंचल अजब आलम दिखाती है। व सुमिरन मोतियों की उँगलियों में जब फिराती है।— नचीर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—नाज अदा, नाज नखरा = (१) हावभाव। (२) चटक मटक। बनाव सिंगारा। मुहा०— नाज उठाना = चोचला सहना। नाज से पालना = बडे़ लाड़ प्यार से पालना। २. घमंड़। अभिमान। गर्व। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाजनी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाजनी] १. सुंदरी स्त्री। २. नाजुक बदनवाली औरत। कोमलांगी (को०)।
⋙ नाजबरदार
वि० [फा० नाजबरदार] नाज बरदाश्त करनेवाला। आशिक।
⋙ नाजबरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाजबरदारी] नाज बरदाश्त करना। आशिकी।
⋙ नाजबू
संज्ञा स्त्री० [फा० नाजबू] मरुवे का पौधा।
⋙ नाजाँ
वि० [फा० नाजाँ] घमंड करनेवाला। गर्वित। क्रि० प्र०—होना।
⋙ नाजायज
वि० [फा० ना + अ० जायज] जो जायज न हो। जो नियमविरुद्ध हो। अनुचित।
⋙ नाजिम (१)
वि० [अ० नाज्रिम] प्रबंधकर्ता।
⋙ नाजिम (२)
संज्ञा पुं० [अ०] मुसलमानी राज्यकाल में वह प्रधान कर्मचारी जिसके ऊपर किसी देश या राज्य के समस्त प्रबंध का भार रहता था। उ०— हुमायूँ तख्त पर बैठा। उसका भाई कामराँ पहले से काबुल का नाजिम था।— शिवप्रसाद (शब्द०)। विशेष—यह राजपुरुष उस देश का कर्ता धर्ता होता था और उसकी नियुक्ति सम्राट की ओर से होती थी।
⋙ नाजिर (१)
वि० [अ० नाजिर] १. देखनेवाला। दर्शक।
⋙ नाचिर (२)
संज्ञा पुं० १. निरीक्षक। देखभाल करनेवाला। २. लेखकों का अफसर। प्रधान लेखक। ३. ख्वाजा। महलसरा। ४. वह दलाल जो वेश्याओं को गाने बजाने के लिये ठीक करता और लाता हो।
⋙ नाजिरात
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाजिर + आत (प्रत्य०)] वह दलाली जो नाजिर को नाचले गानेवाली वेश्या आदि से मिलती है।
⋙ नाजी
संज्ञा पुं० [जर्मन नात्सी] प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच का एक प्रबल जर्मन राजनीतिक दल। नात्सी। विशेष— जर्मनी के अधिनायक हिटलर के नेतृत्व में यह दल जर्मनी का प्रमुख दल हो गया था।
⋙ नाजी दर्शन
संज्ञा पुं० [अं० नाजी + हिं० दर्शन] नाजी जर्मनी का एक राजनीतिक सिद्धांत। वि० दे० 'नाजीवाद'। उ०— मानव मन की दुर्बलता से लाभ उठानेवाले नाजी दर्शन ने जनता पर बरसों डोरे डाले। —हंस०, पृ०३९।
⋙ नाजीवाद
संज्ञा पुं० [अं० नाजी + वाद] जर्मनी के नाजियों का राजनीतिक सिद्धांत। विशेष— नाजीवाद फासिज्म के समान जनतंत्र, व्यक्ति- स्वतंत्रता, अंतरराष्ट्रीय शांति आदि का विरोधी तथा अधिनायकतंत्र का प्रबल पोषक था। हिटलर के काल में यह अपनी चरम सीमा पर पहुँचा।
⋙ नाजुक
वि० [फा० नाजु़क] १. कोमल। सुकुमार। उ०— गडे़ नुकीले लाल के नैन रहै दिन रैनि। तव नाजुक ठोडी़न में गाड परै मृदु वैन।— शृं० सत० (शब्द०)। यौ०—नाजुक बदन। नाजुक दिमाम। २. पतला। महीन। बारीक। ३. सूक्ष्म। गूढ। जैसे, नाजुक खयाल। ४. थोडे ही आघात से नष्ट हो जानेवाला। जरा से झटके या धक्के से टूट फूट जानेवाला। थोडी असावधानी से भी जिसके टूटने का डर हो। जैसे,— शीशे की चीजें नाजुक होती हैं; सँभालकर लाना। यौ०—नाजुक मिजाज = जो थोडा सा कष्ट भी न सह सके। ५. जिसमें हानि या अनिष्ट की आशंका हो। जोखों का। जैसे, नाजुक वक्त, नाजुक हालत, नाजुक मामला।
⋙ नाजुकखयाल
वि० [फा० नाजुक + खयाल] कोमल भावनाओंवाला। सदाशय। उच्च विचारोंवाला।
⋙ नाजुकखयाली
संज्ञा स्त्री० [फा० नाजुकखयाली] काव्य में गूढता या सूक्ष्माता का भाव। उ०— कला पर एक प्रकार की रीतिकालीन छाप और उर्दू कविता की नाजुकखायली का का प्रभाव है। —स० शास्त्र, पृ० १०६।
⋙ नाजुकदिमाग
वि० [फा० नाज्रुक + अ० दिमाग] १. जो रुचि के प्रतिकूल (जैसे दुर्गंध, कर्कश स्वर आदि) थोडी सी बात भी सहन कर सके। जो जरा जरा सी बात नाक भौं सिकोडे। २. तुनक मिजाज। चिडचिडा।
⋙ नाजुकबदन
वि० [फा० नाजु़कबदन] १. कोमल और सुकुमार शरीर का। २. डोरिए की तरह का एक महीन कपडा़। ३. एक प्रकार गुललाला।
⋙ नाजुकमिजाज
वि० [फा० नाजुक मिजाज] दे० 'नाजुकदिमाग'।
⋙ नाजो
संज्ञा स्त्री० [फा० नाज] १. नाज करनेवाली। चटक मटकवाली स्त्री। ठसकवालो स्त्री। २. लाड़ली प्यारी स्त्री।
⋙ नाटं (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाय] १. नृत्य। नाच। २. नकल। स्वाँग। उ०— पंथी इतनी कहियो बात। तुम बिनु यहाँ कुँवर वर मेरे होत जिते उत्पात।....गोपी गाइ सकल लघु दीरध पीत बरन कृस गात। परम अनाथ देखियत तुम बिनु केहि अबलंबिए प्रात। कान्ह कान्ह कै टेरत तब धौं अब कैसे जिय मानत। यह व्यौहार आजु लौं हे ब्रज कपट नाट छल ठानत। — सूर (शब्द०)। ३. एक देश का नाम। विशेष— यह देश कर्नाक के पास था। ४. नाट देशवासी पुरुष। ५. एक राग का नाम। विशेष— इसे कोई मेघ राग का और कोई दीपक राग का पुत्र मानते हैं। इस राग मे वीर रस गाया जाता है।
⋙ नाट पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] बाण की गाँसी। नाटसाल। उ०— तिय तन वितन जु पंच सर, लगे पंच ही बाट। चुँबक साँवरे पी बिनु, क्यों निकसहिं ते नाट। — नंद० ग्रं०, पृ० १३५।
⋙ नाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाटय या अभिनय करनेवाला। नट। २. रंगशाला में नटों की आकृति, हाव भाव, वेश और वचन आदि द्वारा घटनाओ का प्रदर्शन। वह दृश्य जिसमें स्वाँग के द्वारा चरित्र दिखाए जाएँ। अभिनय। ३. वह ग्रंथ या काव्य जिसमें स्वाँग के द्वारा दिखाया जानेवाला चरित्र हो। दृश्यकाव्य, अभिनयग्रंथ। विशेष— नाटक की गिनती काव्यों में है। काव्य दो प्रकार के मान गे हैं— श्रव्य और दृश्य। इसी दृश्य काव्य का एक भेद नाटक माना गया है। पर मुख्य रूप से इसका ग्रहण होने के कारण दृश्य काव्य मात्र को नाटक कहने लगे हैं। भरतमुनि का नाटयशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है। अग्निपुराण में भी नाटक के लक्षण आदि का निरूपण है। उसमें एक प्रकार के काव्य का नाम प्रकीर्ण कहा गया है। इस प्रकीर्ण के दो भेद है— काव्य और अभिनेय। अग्निपुराण में दृश्य काव्य या रूपक के २७भेद कहे गए हैं— नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीनिगदित, नाटयरासक, रासक, उल्लाप्यक और प्रेक्षण। साहित्यदर्पण में नाटक के लक्षण, भेद आदि अधिक स्पष्ट रूप से दिए हैं। ऊपर लिखा जा चुका है कि दृश्य काव्य के एक भेद का नाम नाटक है। दृश्य काव्य के मुख्य दो विभाग हैं— रूपक और उपरूपक। रूपक के दस भेद हैं— रूपक, नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, ड़िम, ईहामृग, अंकवीथी और प्रहसन। 'उपरूपक के अठारह भेद हैं— नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिका, हल्लीशा और भणिका। उपर्युक्त भेदों के अनुसार नाटक शब्द दृश्य काव्य मात्र के अर्थ में बोलते हैं। साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक किसी ख्यात वृत्त (प्रसिद्ध आख्यान, कल्पित नहीं)' की लेकर लिखाना चाहिए। वह बहुत प्रकार के विलास, सुख, दुःख, तथा अनेक रसों से युक्त होना चाहिए। उसमें पाँच से लेकर दस तक अंक होने चाहिए। नाटक का नायक धीरोदात्त तथा प्रख्यात वंश का कोई प्रतापी पुरुष या राजर्षि होना चाहिए। नाटक के प्रधान या अंगी रस शृंगार और वीर हैं। शेष रस गौण रुप से आते हैं। शांति, करुणा आदि जिस रुपक में में पधान हो वह नाटक नहीं कहला सकता। संधिस्थल में कोई विस्मयजनक व्यापार होना चाहिए। उपसंहार में मंगल ही दिखाया जाना चाहिए। वियोगांत नाटक संस्कृत अलंकार शास्त्र के विरुद्ध है। अभिनय आरंभ होने के पहले जो क्रिया (मंगलाचरण नांदी) होती है, उसे पूर्वरंग कहते हैं। पूर्वरंग, के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार, जिसे स्थापक भी कहते हैं, आकर सभा की प्रशंसा करता है फिर नट, नटी सूत्रधार इत्यादि परस्पर वार्तालाप करते हैं जिसमें खेले जानेवाले नाटक का प्रस्ताव, कवि-वंश-वर्णन आदि विषय आ जाते हैं। नाटक के इस अंश को प्रस्तावना कहते हैं। जिस इतिवृत्त को लेकर नाटक रचा जाता है उसे वस्तु कहते हैं। 'वस्तु' दो प्रकार की होती है—आधिकारिक वस्तु और प्रासंगिक वस्तु। जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है उसे 'अधिकारी' कहते हैं। इस अधिकारी के संबंध में जो कुछ वर्णन किया जाता है उसे 'आधिकारिक बस्तु' कहते हैं; जैसे, रामलीला में राम का चरित्र। इस अधिकारी के उपकार के लिये या रसपुष्टि के लिये प्रसंगवश जिसका वर्णन आ जाता है उसे प्रासगिक वस्तु कहते हैं; जैसे सुग्रीव, आदि का चरित्र। 'सामने लाने' अर्थात् दृश्य संमुख उपस्थित करने को अभिनय कहते हैं। अतः अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वाँग का नाम ही अभिनय है। अभिनय चार प्रकार का होता है— आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। अंगों की चेष्टा से जो अभिनय किया जाता है उसे आंगिक, वचनों से जो किया जाता है उसे वाचिक, भैस बनाकर जो किया जाता हैं उसे आहार्य तथा भावों के उद्रेक से कंप, स्वेद आदि द्वारा जो होता है उसे सात्विक कहते हैं। नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पाँचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि होती है। जो बात मुँह से कहते ही चारों ओर फैल जाय और फलसिद्धि का प्रथम कारण हो उसे बीज कहते हैं, जैसे वेणीसंहार नाटक में भीम के क्रोध पर युधिष्ठिर का उत्साहवाक्य द्रौपदी के केशमोजन का कारण होने के कारण बीज है। कोई एक बात पूरी होने पर दूसरे वाक्य से उसका संबंध न रहने पर भी उसमें ऐसे वाक्य लाना जिनकी दूसरे वाक्य के साथ असंगति न हो 'बिंदु' है। बिच में किसी व्यापक प्रसंग के वर्णन को पताका कहते हैं— जैसे उत्तरचरित में सुग्रीव का और अभिज्ञान- शांकुतल में विदूषक का चरित्रवर्णन। एक देश व्यापी चरित्रवर्णन को प्रकरी कहते हैं। आरंभ की हुई क्रिया की फलसिद्धि के लिये जो कुछ किया जाय उसे कार्य कहते हैं; जैसे, रामलीला में रावण वध। किसी एक विषयकीचर्चा हो रही हो, इसी बीच में कोई दूसरा विषय उपस्थित होकर पहले विषय से मेल में मालूम हो वहाँ पताकास्थान होता है, जैसे, रामचरित् में राम सीता से कह रहे हैं—'हे प्रिये ! तुम्हारी कोई बात मुझे असह्य नहीं, यदि असह्य है तो केवल तुम्हारा विरह, इसी वीच में प्रतिहारी आकर कहता है : देव ! दुर्मुख उपस्थित। यहाँ ' उपस्थित' शब्द से 'विरह उपस्थित' ऐसी प्रतीत होता है, और एक प्रकार का चमत्कार मालूम होता है। संस्कृत साहित्य में नाटक संबंधी ऐसे ही अनेक कौशलों की उदभावना की गई है और अनेक प्रकार के विभेद दिखाए गए हैं। आजकल देशभाषाओं में जो नए नाटक लिखे जाते हैं उनमें संस्कृत नाटकों के सब नियमों का पालन या विषयों का समावेश अनावश्यक समझा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं—'संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में उनका अनुसंधान करना य़ा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर नाटक लिखना व्यर्थ है; क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उलटा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है। भारतवर्ष में नाटकों का प्रचार बहुत प्राचीन काल से हैं। भरत मुनि का नाटयशास्त्र बहुत पुराना है। रामायण, महाभारत, हरिवंश इत्यादि में नट और नाटक का उल्लेख है। पाणिनि ने 'शिलाली' और 'कृशाश्व' नामक दो नटसूत्रकारों के नाम लिए हैं। शिलाली का नाम शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण और सामवेदीय अनुपद सूत्र में मिलता हैं। विद्वानों ने ज्योतिष की गणना के अनुसार शतपथ ब्राह्मण को ४००० वर्ष से ऊपर का बतलाया है। अतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह राय कि ग्रीस या यूनान में ही सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भव हुआ, ठीक नहीं है। हरिवंश में लिखा है कि जब प्रद्यु्म्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे। पहले उन्होंने नेपथ्य बाँधा था जिसके भीतर से स्त्रियों ने मधुर स्वर से गान किया था। शूर नामक यादव रावण बना था, मनोवती नाम की स्त्री रंभा बनी थी, प्रद्युम्न नलकूबर और सांब विदूषक बने थे। विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट स्वीकार किया हैं कि हिंदुओं ने अपने यहाँ नाटक का प्रादुर्भाव अपने आप किया था। प्राचीन हिंदू राजा बडी बडी रंगशालाएँ बनवाते थे। मध्यप्रदेश में सरगुजा एक पहाड़ी स्थान है, वहाँ एक गुफा के भीतर इस प्रकार की एक रंगशाला के चिह्न पाए गए हैं। यह ठीक है कि यूनानियों के आने के पूर्व के संस्कृत नाटक आजकल नहीं मिलते हैं, पर इस बात से इनका अभाव, इतने प्रमाणों के रहते, नहीं माना जा सकता। संभव है, कलासंपन्न युनानी जाति से जब हिंदू जाति का मिलन हुआ हो तब जिस प्रकार कुछ और और बातें एक ने दूसरे की ग्रहण कीं इसी प्रकार नाटक के संबंध में कुछ बातें हिंदुओं ने भी अपने यहाँ ली हों। बाहयपटी का 'जवनिका' (कभी कभी 'यवनिका') नाम देख कुछ लोग यवन संसर्ग सूचित करते हैं। अंकों में जो 'दृश्य' संस्कृत नाटकों में आए हैं उनसे अनुमान होता है कि इन पटों पर चित्र बने रहते थे। अस्तु अधिक से अधिक इस विषय में यही कहा जा सकता है कि अत्यंत प्राचीन काल में जो अभिनय हुआ करते थे। उनमें चित्रपट काम में नहीं लाए जाते थे। सिकंदर के आने के पीछे उनका प्रचार हुआ। अब भी रामलीला, रासलीला बिना परदों के होती ही हैं।
⋙ नाटकशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह घर या स्थान जहाँ नाटक होता है।
⋙ नाटका देवदारु
संज्ञा पुं० [हिं० नाटक + देवदारु] एक छोटा पेड़ या झाड जो भारत के दक्षिण और लंका में मिलता है। विशेष— इसकी लकडी से एक प्रकार का तेल निकलता है जो नावों में लगाया जाता है। इस पेड के फल और पत्तियों में पाचन, स्वेदन और भेदन शक्तियाँ होती हैं। भारतवर्ष में इसकी पत्तियाँ और फल दुर्भिक्ष में खाए जाते हैं। और मिर्च के साथ लोग पत्तियों का शाक बनाकर भी खाते हैं।
⋙ नाटकावतार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नाटक के अभिनय के बीच दूसरे नाटक का अभिनय। जैसा 'उत्तररामचरित' में एक दूसरे नाटक का अभिनय दिखाया गया है। विशेष— शेक्सपियर के 'हैमलेट' में भी इसी प्रकार अभिनय होना दिखाया गया है।
⋙ नाटकिया
संज्ञा पुं० [सं० नाटक + हिं० ईया (प्रत्य०)] १. नाटक में अभिनय करनेवाला। स्वाँग करनेवाला। वहुरुपिया।
⋙ नाटकी
संज्ञा पुं० [हिं० नाटक] नाटक करनेवाल। नाटक करके जीविका करनेवाला। उ०— कहूँ नृत्यकारी नचि गावै। कहूँ नाटकी स्वाँग दिखावैं।— सबल (शब्द०)।
⋙ नाटकीय
वि० [सं०] १. नाटक संबंधी। नाटक के ढंग का। २. अभिनयपूर्ण। अभिनयात्मक (को०)।
⋙ नाटना (१)
क्रि० अ० [सं० नाटय (= बहाना)] किसी ऐसी बात को अस्वीकार कर जाना जिसके लिये वचन दिया हो। प्रतिज्ञा आदि पर स्थिर न रहना। इनकार करना। निकल जाना।
⋙ नाटना (२)
क्रि० स० [हिं० नटना] अस्वीकार करना। इनकार करता। उ०— जो कोउ धरी घरोहरि नाटै। अरु पच्छिन के पर जो काटै।— विश्राम (शब्द०)।
⋙ नाटवसंत
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग।
⋙ नाटा (१)
वि० [सं० नत (= नीचा)] [वि० स्त्री० नाटी] जिसका डील ऊँचा न हो। छोटे डील का। छोटे कद का। (प्राणियों के लिये) जैसे, नाटा आदमी, नाटा बैल। उ०— नेपाल आदि उत्तराखंड के देशों में लोग नाटे होते हैं।— शिवप्रसाद (शब्द०)।
⋙ नाटा
संज्ञा पुं० [स्त्री० नाटी] छोटे डील का बैल या गाय। उ०— उ०— सिगरोइ दूध पियो मेरे मोहन बलिहि देहु नहिं बाँटी। सूरदास नंद लेहू दोहनी दुही लाला की नाटी।— सूर (शब्द०)।
⋙ नाटा करंज
संज्ञा पुं० [हिं० नाटा + करंज] एक प्रकार का करंज।
⋙ नाटार
संज्ञा पुं० [सं०] अभिनेत्री का पुत्र [को०]।
⋙ नाटाम्र
संज्ञा पुं० [सं०] तरबूज।
⋙ नाटिक पु
संज्ञा पुं० [सं० नाट] नर्तक। नाचनेवाला। उ०— कहै कबीर नट नाटिक थाके, मँदला कौन बजावै। गए पषनियाँ उझरी बाजी को काहू के आवै। — कबीर ग्रं० पृ० ११७।
⋙ नाटिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का दृश्य काव्य। विशेष—यह एक प्रकार का नाटक ही है जिसमें चार अंक होते हैं। पर इसकी कथ कल्पित होती है। नायिका राजकुलोद- भवा और नवानुरागिणी और नायक धीर ललित होता है। इसमें स्त्री पात्र अधिक होते हैं। २. एक रागिनी। विशेष—यह नटनारायण, हम्मीर और अहीरी राग के योग से बनती है और संपूर्ण जाति की मानी जाती हैं। नारद के मत से यह कर्णाटकी और हनुमत के मत से दीपक की पत्नी है। इसका स्वरग्राम यह है— सा, रे, ग, म, प, ध नि, सा।
⋙ नाटिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाडी] दे० 'नाडी'। उ०— नाहीं पाँच नत्तु तुम साधा। नाहीं नवो नाटिका राधा।—सं० दरिया, पृ० ४९।
⋙ नाटित (१)
वि० [सं०] जिसका अभिनय किया गया हो। अभिनीत।
⋙ नाटित (२)
संज्ञा पुं० अभिनय।
⋙ नाटितक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनुकृति। २. स्वाँग। अभिनय [को०]।
⋙ नाटिन
संज्ञा स्त्री० [सं० नटिनी] दे० 'नटिनी'। उ०— नई नागरी नारि नाटिन नचावै।—धरनी०, पृ० ९।
⋙ नाटेय
संज्ञा पुं० [सं०] अभिनेत्री या नर्तकी का पुत्र। [को०]।
⋙ नाटेर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नाटेय'। [को०]।
⋙ नाटेश्वर
संज्ञा पुं० [हिं० नाट + ईश्वर] नटराज। शिव। नाट्या- चार्य। उ०— जैसे कोऊ अर्धनारी नाटेश्वर रुप धरै, एक बीज ही तें दीइ दालि नाम पाए हैं।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६५१।
⋙ नाटय
संज्ञा पुं० [सं०] १. नटों का काम। नृत्य गीत और वाद्य। पर्या०—तौर्यत्रिक। २. स्वाँग के द्वारा चरित्रप्रदर्शन। अभिनय। यौ०—नाट्यमंदिर। नाट्यकार। नाट्यशाला। नाट्यरासक। नाट्यशास्त्र। ३. नकल। स्वाँग। चेष्टा के द्वारा प्रदर्शन। क्रि० प्र०—करना। ४. वह नक्षत्र जिनमें नाट्य का आरंभ किया जाता है। विशेष—अनुराधा, धनिष्ठा, पुष्य, हस्त चित्रा, स्वाती, ज्येष्ठा, शतभिषा और रेवती इन नक्षत्रों में नाटक आरंभ करना चाहिए। ५. अभिनेता का परिधान या वेशभूषा (को०)। ६. अभिनेता (को०)।
⋙ नाट्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक करनेवाला। नट।
⋙ नाट्यधर
वि० [सं०] अभिनेता का वेश धारण करनेवाला [को०]।
⋙ नाट्यधर्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभिनय के नियम या विधान [को०]।
⋙ नाट्यधर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नाट्यधर्मिका' [को०]।
⋙ नाट्यप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव (जिन्हें नाचना प्रिय है)।
⋙ नाट्यमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० नाट्यमन्दिर] नाट्यशाला।
⋙ नाट्यरासक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उपरुपक। दृश्य काव्य। विशेष— इसमें केवल एक ही अंक होता है। नायक उदात्त, नायिका वासकसज्जा, उपनायक पीठमर्द होते हैं। इसमें अनेक प्रकार के गान और नृत्य होते हैं।
⋙ नाटयवेद
संज्ञा पुं० [सं०] अभिनयसंबंधी शास्त्र। नाट्यशास्त्र। [को०]।
⋙ नाट्यवेदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रंगमंच। २. दृश्य [को०]।
⋙ नाट्यशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँपर अभिनय किया जाय। नाटकघर।
⋙ नाट्यशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य, गीत और अभिनय की विद्या। २. एक प्राचीन ग्रंथ जिसकी रचना भरत मुनि ने की थी। विशेष— इसका उपदेश आदि में शिव जी ने ब्रह्मा जी को किया था। ब्रह्मा जी ने इंद्र की प्रार्थना पर अनिरुद्धावतार ग्रहण करके नाट्यवेद नामक उपवेद की रचना की। इसी की गंधर्व- वेद भी कहते हैं। इसमें नृत्य-वाद्य-गीतादि की शिक्षा थी। ब्रह्मा जी से भरत मुनि ने यह उपवेद पाकर संसार में इसका प्रचार किया।
⋙ नाटयांग
संज्ञा पुं० [सं० नाटयाङ्ग] नाटय के दस अंग जिसके अंतर्गत गेयपद, स्थितपाठ्य, आसीन, पुष्पगंडिका, प्रच्छेदक, त्रिगूढक, सैंधव, द्विगूढक, उत्तमोत्तमक, उक्तप्रयुक्त का समावेश है [को०]।
⋙ नाटयागार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नाटयशाला' [को०]।
⋙ नाटयाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] नाटयकला विशारद। अभिनय का निर्देशक। अभिनय की शिक्षा देनेवाला।
⋙ नायालंकार
संज्ञा पुं० [सं० नाटयालङ्कार] वह विशेष अलंकार जिसके आने से नाटक का सौंदर्य अधिक बढ जाता है। विशेष—साहित्यदर्पण में ऐसे अलंकारों की संख्या तैतीस मानी गई है— आशीर्वाद, आक्रंद, कपट, अक्षमा, गर्व उद्यम, आश्रय, उत्प्रासन, स्पृहा, क्षोम, पश्चात्ताप, उपपत्ति, आशंसा, अध्यव- साय, विसर्प, उल्लेख, उत्तेजन, परीवाद, नीति, अर्थविशेषण, प्रोत्साहन, साहाय्य, अभिमान, अनुवर्तन, उत्कीर्तन, यांचा, परिहार, निवेदन, प्रवर्तन, आख्यान, युक्ति, प्रहर्ष और शिक्षा (उपदेशन)।
⋙ नाटयालय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नाटयशाला'। उ०— राजकुमारियोंके महलों के नाटयालयों में...। —प्रेमघन०, भा० २, पृ० २८।
⋙ नाटयालाबु
संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति की लौकी [को०]।
⋙ नाटयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वे विशेष विशेष संबोधन शब्द जो विशेष विशेष व्यक्तियों के लिये नाटकों में आते हैं। जैसे,— ब्राह्मण के लिये आर्य, क्षत्रिय के लिये महाराज, पति के लिये आर्यपुत्र, राजा के साले के लिये राष्ट्रीय, राजा के लिये देव, वेश्या के लिये अज्ज्का, कुमार के लिये युवराज, विद्वान् के लिये भाव। २. नाटयसंबंधी उक्ति। जैसे,— स्वगत, प्रकाश, अपवरहित, जनांतिक (को०)।
⋙ नाठ पु
संज्ञा पुं० [सं० नष्ट, प्रा० नट्ठ] १. नाश। ध्वंस। २. अभाव। अनस्तित्व। ३. वह जायदाद जिसका कोई वारिस न हो। मुहा०— नाठ पर बैठना = किसी लावारिस माल का आधिकारी होना।
⋙ नाठना (१)पु
क्रि० स० [सं० नष्ट, प्रा० नट्ठ] नष्ट करना। ध्वस्त करना। उ०— मुनि अति विकल मोह माति नाठी। मनि गिरि गई छूटि चनु गाँठी। — तुलसी (शब्द०)।
⋙ नाठना (२)
क्रि० अ० नष्ट होना। ध्वस्त होना।
⋙ नाठना (३)
क्रि० अ० [हिं० नाटना] भागना। हटना। उ०— (क) कोटि पापी इक पासंग सेरे अजामिल कौन बेचारो। नाठयौ धर्म नाम सुनि मेरो नरक दियों हठि तारो।— सूर (शब्द०)। (ख) राम से साम किए नित है हित, कोमल काज न कीजिए टाँठे। आपनि सूझि कहौं पिय बुझिए जुझिबै जोग न ठाहरु नाठे।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ नाठा
संज्ञा पुं० [सं० नष्ट] वह जिसके आगे पीछे कौई वारिस न हो।
⋙ नाड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाल, नाड] ग्रीवा। गर्दन। दे० 'नार'।
⋙ नाड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाड] मोटी डोरी या रस्सी। पगहा। उ०— लाता मारियो पिच्छाड। गल में घाल घींस्यो नाड।— राम० धर्म०, पृ, १६७।
⋙ नाडा़
संज्ञा पुं० [सं० नाड] १. सूत की वह मोटी डोरी जिससे स्त्रियाँ घाँघरा या धोती बाँधती हैं। इजारबंद। नीबी। मुहा०— (किसी का) नाडा़ खोलना = संभोग करने के लिये नीवी खोलना। संभोग करना (मारवाड़ स्त्रि०)। नाडा छूट करना = पेशाब करना (मारवाड़ स्त्रि०)। २. लाल या पोला रँगा हुआ गंडेदार सूत जो देवताओं को चढा़या जाता है। कलाया। कलाबा।
⋙ नाड़िंधम (१)
वि० [सं० नाडिन्धम] १. नली को फूँकनेवाला। २. नाड़ियों को हिलानेवाला। ३. श्वास को जल्दी जल्दी चलानेवाला। हँफानेवाला। ४. जिसे देखते ही नाड़ि हिल जाय। दहलानेवाला। भयंकर।
⋙ नाड़िंधम (२)
संज्ञा पुं० सोनार।
⋙ नाड़िंधय
वि० [सं नाडिन्धय] नलिका द्वारा पीने या चुसने- बाला [को०]।
⋙ नाड़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० नाडि] १. नाड़ी। २. नली [को०]।
⋙ नाड़िक
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का साग जिसे पटुआ भी कहते हैं। २. नाड़ी। ३. घटिका। दंड।
⋙ नाड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० नाडिका] १. घड़ी का काल। घड़ी। २. नली (को०)। ३. किसी वनस्पति का तने या विस्तार का वह भाग जो भीतर पोला होता है। पोला डंठल (को०)। ४. नासूर (को०)। ५. सूर्यकिरण (को०)। ६. घडियाल जिसे बजाकर घडी बीतने की सूचना दी जाती है (को०)। ७. आधे दंड का कालमान (को०)।
⋙ नाड़िकेल
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल] दे० 'नारियल'।
⋙ नाड़िपत्र
संज्ञा पुं० [सं० नाडिपत्र] एक शाक [को०]।
⋙ नाड़िया
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ी] (नाड़ी पकड़नेवाला) वैद्य। चिकित्सक।
⋙ नाड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० नाड़ी] १. नली। २. साधारणतः शरीर के भीतर की वे नलियाँ जिनमें होकर रक्त बहता है, विशेषतः वे जिनमें हृदय से शुद्ध रक्त क्षण क्षण पर जाता रहता है। धमनी। विशेष— वे नलियाँ, जिनसे शरीर भर में रक्त का प्रवाह होता है, दो प्रकार की होती हैं— एक वे जो शुद्ध रक्त को हृदय से लेकर और सब अंगों को पहुँचाती है, दूसरी वे जो सब अंगों से अशुद्ध रक्त को इकट्ठा करके उसको हृदय में प्राणवायु के द्वारा शुद्ध होने के लिये लौटाकर ले जाती हैं। पहले प्रकार की नलियाँ ही विशेषतः नाड़ियाँ कहलाती हैं। क्योंकि स्पंदन अधिकतर उन्हीं में होता है। अशुद्ध रक्त को हृदय में पहुँचानेवाली नलियों या शिराओं में प्रायः स्पंदन नहीं होता। अशुद्ध रक्तवाहिनी शिराओं के द्वारा अशुद्ध रक्त हृदय के दाहिने कोठे में पहुँचता है, वहाँ से फिर वह फुफ्फुस में जाता हैं, फुफ्फुस में वह शुद्ध होता है। शुद्ध होने पर वह फिर हृदय के बाएँ कोठे में पहुँचता है। हृदय का क्षण-क्षण पर आकुंचन और प्रसारण होता रहता है—वह बराबर सिकुडता और फैलता रहता है। हृदय जिस क्षण सिकुड़ता है उसमें भरा हुआ रक्त वृहन्नाड़ी के खुले मुंह में क्षिप्त होता है और फिर बड़ी नाड़ी से उसकी शाखा प्रशाखाओं में पहुँचता है। सबसे पतली नाड़ियाँ इतनी सूक्ष्म होती हैं कि सूक्ष्मदर्शक यंत्र के बिना नहीं देखी जा सकतीं। नाड़ियाँ अधिकतर मांस और पीले तंतुओं की बनी हुई होती हैं। अतः इनमें लचीलापन होता है— ये खींचने से बढ़ जाती हैं। अधिक भर जाने अर्थात भीतर से जोर पड़ने पर ये फैलकर चौड़ी हो जाती है और जोर हटने पर फिर ज्यों की त्यों हो जाती हैं। हृदय का बायाँ कोठा सिकुड़कर बंडे़ वेग के साथ १ १/२ छँटाक रक्त बड़ी नाड़ी में ढकेलत हैं। नाड़ियों में तो हर समय रक्त भरा रहता है, अतः जब बड़ी नाड़ी में यह डेढ़ छटाँक रक्त पहुँचता है तब हृदय के समीप का भाग बढ़कर फैल जाता है। फिर जब रक्त का दूसरा झोंका हृदय से आता है तब उसके आगे का भाग फैलता है। इसीआकुंचन प्रसारण के कारण नाड़ियों में स्पंदन या गति होती है। यह स्पंदन बड़ी नाड़ियों में ही मालूम होता है, छोटी छोटी नलियों में नहीं; क्योंकि अत्यंत सूक्ष्म नाड़ियों में पहुँचते पहूँचते लहरों का वेग बहुत कम हो जाता है — और फिर जब शिराओं में यही रक्त अशुद्ध होकर पलटता है तब लहर रह ही नहीं जाती। जब कोई नाड़ी कट जाती है तब उसमें से रक्त उछल उछलकर निकलता है; जब कोई अशुद्ध रक्तवाहिनी शिरा कटती है तब उसमें से रक्त धीरे धीरे निकलता है। नाड़ियों के भीतर का रक्त लाल होता है पर अशुद्ध रक्तवाहिनी शिराओं के भीतर का रक्त कालापन लिए होता है। नाड़ियों का स्पंदन या फड़क इन स्थानों में उँगली दबाने से मालूम हो सकती है— कनपटी मे, ग्रीवा में के टेंटुए के दहने और बाएँ, उरुसंधि के बीच, पैर के अँगूठे की ओर के गट्टे के नीचे, शिश्न के ऊपर की तरफ, कलाई में और बाहु में (बगल की ओरवाले किनारे में)। नाड़ी एक मिनट में उतनी ही बार फड़कती है जितनी बार हृदय धड़कता है। नाड़ीपरीक्षा से हृदय और रक्तभ्रमण की दशा का ज्ञान होता है, उससे नाड़ियों और हृदय के तथा और भी कई अंगों के रोगों का पता लग जाता है। आयुर्वेद कै ग्रंथों में रक्तवाहिनी नलियों के स्पष्ट और ठीक विभाग नहीं किए गए हैं। सुश्रुत ने ७०० शिराएँ लिखी हैं जिनमें ४० मुख्य हैं— १० रक्तवाहिनी, १० कफवाहिनी, १० पित्तवाहिनी और १० वायुवाहिनी। इसके अतिरिक्त शुद्ध और अशुद्ध रक्त के विचार से कोई विभाग नहीं किया गया है। २४ धमनियों के जो ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी और तिर्यग्गामिनी ये तीन विभाग किए गए हैं, उनमें भी उपयुक्त विभाग नहीं हैं। सुश्रुत ने शिराओं और धमनियों का मूल स्थान नाभि बतलाया है। आधुनिक प्रत्यक्ष शारीरक की दृष्टि से कुछ लोगों ने शुद्ध रक्तवाहिनी नाड़ियों का 'धमनी' नाम रख दिया है। यह नाम सुश्रुत आदि के अनुकूल न होने पर भी उपयुक्त है क्योंकि धात्वर्थ का यदि विचार किया जाय तो 'धम' कहते हैं 'धौकने' या 'फूँकनै' को। जिस प्रकार धौंकनी फूलती और पचकती है उसी प्रकार शुद्ध रक्तवाहिनी नाड़ियाँ भी। दे० 'शिरा', 'धमनी'। नाड़िपरीक्षा का विषय भा सुश्रुत में नहीं मिलता है, इधर के ही ग्रंथों में मिलता है। आर्ष ग्रंथों में न होने पर भी पीछे आयुर्वेद में नाड़ीपरीक्षा को बड़ी प्रधानता दी गई, यहाँ तक की 'नाड़ीप्रकाश' नाम का स्वतंत्र ग्रंथ ही इस विषय़ पर लिखा गया। मुहा०— नाड़ी चलना = कलाई की नाड़ी में स्पंदन या गति होना। विशेष— नाड़ी का उछलना प्राण रहने का चिह्न समझा जाता है और उसके अनूसार रोगी की दशा का भी पंता लगाया जाता है। नाड़ी छूट जाना = (१) नाड़ी का न चलना। दबाकर छूने से नाड़ी मे गति न मालूम होना। (२) प्राण न रह जाना। मृत्यु हो जाना। (३) संज्ञा न रहना। मूर्छा आना। बेहोशी आना। नाड़ी देखना = कलाई की नाड़ी दबाकर रोगी की अवस्था का पता लगाना। नाड़ीपरीक्षा करके रोगी का निदान करना। नाड़ी धरना या पकड़ना = दे० 'नाड़ी देखना'। नाड़ी दिखाना या धराना = रोग के निदान के लिये वैद्य से नाड़ीपरीक्षा कराना। नब्ज दिखाना। नाड़ी न बोलना = (१) नाड़ी न चलना। नाड़ी में गति न मालूम होना। (२) प्राण न रहना। (३) मूर्छा आना। बेहोशी आना। ३. हठयोग के अनुसार ज्ञानवाहिनी, शक्तिवाहिनी और श्वास- प्रश्वास-वाहिनी नलियाँ। विशेष— योगियों का कहना है कि मेरुदंड या रीढ़ के एक इस तरफ और एक उस तरफ ऐसी दो नालियाँ हैं। इनमें जो बाई और है उसे इला या इड़ा और जो दाहिनी ओर हैं उसे पिंगला कहते हैं। इन दोनों के बीच में सुपु्म्ना नाम की नाड़ी हैं। स्वरोदय तथा तंत्र के अनुसार बाएँ नथुने से जो साँस आती जाती है वह इड़ा नाड़ी से होकर और दाहिनै नथुने से जो निकलती है वह पिंगला से होकर। यदि श्वास कुछ क्षण बाएँ और कुछ क्षण दहिने नथुने से निकले तो समझना चाहिए कि वह सुपुम्ना नाड़ी से आ रहा है। श्वास की गति के अनुसार स्वरोदय में शुभाशुभ फल भी कहे गए हैं। इड़ा नाड़ी में चंद्र की अवस्थिति रहती है और पिंगला में सूर्य की। अतः इड़ा का गुण शीत और पिंगला का उष्ण है। सुषु्म्ना नाड़ी त्रिगुणमयी और चंद्रसूर्याग्नि स्वरुपा है। यह नाड़ी ब्रह्मस्वरुपा है, इसी में जगत् प्रतिष्ठित है। बिना इन नाड़ियों के ज्ञान के योगा- भ्यास में सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती। जो योगाभ्यास करना चाहते हैं वे पहले इड़ा, फिर पिंगला और फिर सुषुम्ना को लेकर चलते हैं। सुषु्म्ना के सबसे नीचे के भाग को योगी कुंडलिनी मानते हैं जिसे जगाने का यत्न वे करते हैं। सच पूछिए तो उसी को जगाने के लिये ही योग का अभ्यास किया जाता है। जाग्रत होनेपर कुंडलिनी चंचल होकर सुषु्म्ना नाड़ी के भीतर भीतर सिर की और चढने लगती है और बारह चक्रों को पार करती हुई ब्रह्मरंध्र तक चली जाती है। जैसे जैसे वह ऊपर की ओर चढ़ती जाती है, योगी के सांसारिक बधन ढीले पड़ते जाते हैं और अलौकिक शक्तियाँ उसे प्राप्त होती जाती हैं, यहाँ तक कि मन और शरीर से उसका संबंध छूत जाता है और वह परमानंद में मग्न होकर परमात्मा का शुद्ध रुप देखने लगता है। निरुत्तर तंत्र में दस नाडियाँ लिखी हैं जिनमें ऊपर लिखी तीन मुख्य हैं। धेरंडसंहिता आदि योग के ग्रंथों को देखने से पता लगता है कि अँतड़ियाँ भी नाड़ियों के अंतर्गत मानी गई हैं। प्रक्षालन क्रिया में शक्तिवाहिनी नाड़ी को निकालकर उसके भीतर के मल को धोने का विधान है। यौ०—नाड़ीब्रण।४. ब्रणरंध्र। नासूर का छेद। ५. बंदूक की नली। ६. काल का एक मान जो छह क्षण का होता है। ७. गंडदूर्वा। ८. वंशपत्री। ८. किसी तृण का पोला डंठल। १०. छद्य। कपट। मक्कारी। ११. वर वधू की गणना बैठाने में कल्पित चक्रों में स्थित नक्षत्रसमूह। दे० 'नाड़ीनक्षत्र'। १२. मृणाल, पद्यदड (को०)। १३. घड़ी (को०)। १४. फुँककर ब्याजा जानेवाला (वंशी आदि) वाद्य (को०)। १५. चमड़े की नली (को०)। १६. बुनकरों का एक औजार (को०)।
⋙ नाड़ीक
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीक] एक प्रकार का साग। पटुआ साग।
⋙ नाड़ीकलापक
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीकलापक] सर्पाक्षी। भिड़नी नास की घास।
⋙ नाड़ीकूट
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीकूट] नाड़ीनक्षत्र।
⋙ नाड़ीकेल
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीकेल] नारियल।
⋙ नाड़ीच
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीच] पटूआ साग।
⋙ नाड़ीचक्र
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीचक्र] १. हठयोग के अनुसार नाभिदेश में कल्पित एक अंडाकार गाँठ जिससे निकलकर सब नाडियाँ फैली हैं। २. फलित ज्योतिष में नक्षत्रों के उन भेदों को सूचित करनेवाला कोष्ठ या चक्र जिन्हें नाड़ी कहते हैं। दे० 'नाड़ीनक्षत्र'।
⋙ नाड़ीचरण
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीचरण] पक्षी।
⋙ नाड़ीचीर
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीचीर] १. एक प्रकार का छोटा नरसल। २. बुनकरों का वह पोला औजार जिसमें कपड़े का बुना हुआ भाग लिपटता जाता है [को०]।
⋙ नाड़ीजंघ
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीजङ्घ] १. काक। कौआ। २. एक मुनि का नाम। २. महाभारत के अनुसार एक बगला जो कश्यप का पुत्र, ब्रह्मा का अत्यंत प्रिय पात्र और दीर्घजीवी था।
⋙ नाड़ीतरंग
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीतरङ्ग] १. काकोल। २. हिंडक। ३. लंपट। व्यभिचारी (को०)। ४. ज्योतिषी (को०)।
⋙ नाड़ीतिक्त
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीतिक्त] नेपाली नीम। नेपाल- निंब।
⋙ नाड़ीदेह (१)
वि० [सं० नाड़ीदेह] अत्यंत दुबला पतला।
⋙ नाड़ीदेह (२)
संज्ञा पुं० शिव के एक द्वारपाल का नाम।
⋙ नाड़ीनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीनक्षत्र] वरवधू की गणना बैठाने के लिये कल्पित चक्रों में स्थित नक्षत्र। (फलित ज्योतिष)। विशेष— जिस नक्षत्र में मनुष्य का जन्म होता है। उसे तथा उससे दसवें, सोलहवें, अठारहवें, तेईसवें और पचीसवें नक्षत्र को नाड़ीनक्षत्र या नाड़ी कहते हैं। जन्म नाड़ी को आद्य, दसवीं को कर्म, सोलहवीं को सांघातिक, अठारहवीं को समुदय, तेईसवीं को विनाश और पचीसवीं को मानस कहते हैं।
⋙ नाड़ीपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० नाड़ीपरीक्षा] रोग का निदान करने में वैद्य द्वारा नाड़ी देखने का कार्य। [को०]।
⋙ नाड़ीपात्र
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीपात्र] एक प्रकार की जलघड़ी [को०]।
⋙ नाड़ीमंडल
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीमणडल] विषुपत् रेखा। आकाशीय क्रांतिवृत्त।
⋙ नाड़ीयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीगन्त्र] सूश्रुत के अनुसार शस्त्र- चिकित्सा या चीरफाड़ का एक औजार को शरीर की नाड़ियों या स्रोतों में घुसी हुई चीज की बाहर निकालने के काम में आता था।
⋙ नाड़ीवलय
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीवलय] काल या समय निश्चित् करने का एक यंत्र। एक प्रकार की घड़ी। (सिद्धांतशिरो- मणि)।
⋙ नाड़ीविग्रह
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीविग्रह] शिव का गण भृंगी जो अत्यंत कृशकाय था। नाडीदेह [को०]।
⋙ नाड़ीवृत्त
संज्ञा पुं० [सं० नाडीवृत्त] १. क्रांतिवृत्त। २. एक प्राचीन समयसूचक यंत्र [को०]।
⋙ नाड़ीव्रण
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीव्रण] वह घाव जिसमें भीतर ही भीतर नली की तरइ छेद हो जाय और उसमें से बराबर मयाद निकला करे। नासूर।
⋙ नाड़ीशाक
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीशाक] पटुआ शाक।
⋙ नाड़ीसंस्थान
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीसंस्थान] नाड़ीजाल [को०]।
⋙ नाड़ीस्नेह
संज्ञा पुं० [सं० नाडीस्नेह] दे० 'नाड़ीदेह' [को०]।
⋙ नाड़ीस्वेद
संज्ञा पुं० [सं० नाडीस्वेद] नलिका द्वारा संपादित बाष्प- स्नान [को०]।
⋙ नाड़ीहिंगु
संज्ञा पुं० [सं० नाड़ीहिङ्गु] १. एक वृक्ष जिसमें से एक प्रकार की हींग या गोंद निकलता है। विशेष— यह गोंद औषध के काम में आता है। इस वृक्ष के पत्ते वटमोगरा के पत्तों जैसे होते हैं, फूल सफेद और फल पोस्ते के ढेढ के समान होते हैं। २. उस वृक्ष से निकली हींग या गोंद। विशेष— वैद्यक में यह हींग चरपरी, तीक्ष्ण, उष्ण, अग्निदीपक, तथा कफ, वात और मोह को दूर करनेवाली मानी गई है। पर्या०—पलाशाख्य। जंतुका। रामठी। वंशपत्री। पिंडाह्वा। सुवीर्या। वेणुपत्री। पिंडा। हिंगु। शिवादिका। हिगुनाडिका।
⋙ नाडूदाना
संज्ञा पुं० [देश०] बैलों की एक जाति जो मैसूर में होती हैं। विशेष— इस जाति के बैल बहुत बड़े नहीं होते पर मेहनती और मजबूत अधिक होते हैं।
⋙ नाडूक
संज्ञा पुं० [सं० ना़डूक] १. धातु। २. निष्क। ३. अंकित मुद्रा। सिक्का।
⋙ नाणक
संज्ञा पुं० [सं०] सिक्का। प्राचीन भारत का सिक्का [को०]। यौ०—नाणकपरीक्षा = सिक्के के खोटे खरे होने की जाँच। नाणकपरीक्षी =सिक्के की परख करनेवाला व्यक्ति।
⋙ नाणा पु †
संज्ञा पुं० [सं० नाणक] १. रुपया पैसा। धन दौलत।उ०— नरहर समरता जह वीते नाणों, लवसूँ तिको न लेवै।— रघु० रु०, पृ० २७। २. खरीज। खुदरा। छोटे सिक्के जिनसे बडे़ सिक्कों को भुनाया जाता है।
⋙ नात †
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञाति, प्रा० णाति] १. नातेदार। संबंधी। उ०— जब राजा भाखै तेहि पाहीं। बिना वुलाए नात न जाहीं। —रघुराज (शब्द०)। २. नाता। संबंध। उ०— यह विचार नहिं करहुँ हठ झूठ सनेह बढा़इ। मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ नातर पु †
अव्य० [हिं० नातरु]दे० 'नातरु'। उ०— जातू विष्णु कहा सुन मोरा। नातर चक्षु हीन होय तोरा।— कबीर सा०, पृ० ६७।
⋙ नातरा
संज्ञा पुं० [हिं० नात + रा (प्रत्य०)] १. दे० 'नाता'। २. विवाह संबंध। ३. विधवा के साथ विवाह। उ०— राणी राजानूँ कहइ, ओ म्हाँ नातरउ कीध। — ढोला०, दू० ३।
⋙ नातरु
अव्य० [हिं० न + तो + अरु] और नहीं तो। अन्यथा उ०— (क) भली भई जो गुरु मिले नातरु होती हानि। दीपक ज्योति पतंग ज्यों पडता आप निदान। कबीर (शब्द०)। (ख) कोऊ खवावै तौ कछु खाहीं। नातरु बैठे हो रहि जाहीं। — सूर (शब्द०)। (ग) नातरु हौं करिहौं बनवास। लैहौं योग छाँड़ि सब आस।— लल्लू (शब्द०)।
⋙ नातवाँ
वि० [फा०] दुर्बल। हीन। निर्बल। अशक्त।
⋙ नातवान
वि० [फा० नातवाँ] दे० 'नातवाँ '। उ०— (क) नातवान तन पै सुनो एती ताकत है न। मत झुकाव मों सामुहै गज मतवारे नैन।— रसनिधि (शब्द०)। (ख) मै नातवान हुआ इस कदर कि मुद्दत से। न लब से नाला सीने से आह निकले हैं।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४५।
⋙ नाता
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञाति, प्रा० णाति, हिं० नात] १. दो या कई मनुष्यो के बीच वह लगाव जो एक ही कुल में उत्पन्न होने या विवाह आदि के कारण होता है। कुटुंब की घनिष्ठता। ज्ञाति सबध। रिश्ता। क्रि० प्र०—जोडना।—टूटना।—तोड़ना।—लगाना। २. संबंध। लगाव। उ०— (क) कह रघुपति सुनि भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता। —तुलसी (शब्द०)। सूरदास सिय राम लखन बन कहा अवध सों नाता।—सूर (शब्द०)। यौ०—नाता गोता = स्वजन। संबंधी। उ०— अभी तो इनके नाते गोते के लोग फेरे के लिये आ जा रहे हैं। — झाँसी०, पृ० १५७।
⋙ नाताकत
वि० [फा० ना + अ० ताकत] जिसे ताकत या बल न हो। निर्बल। अशक्त।
⋙ नाताकती
संज्ञा स्त्री० [फा़० ना + अ० ताकत + फा० ई (प्रत्य०)] नाताकत होने का भाव। दुर्वलता। कमजौरी।
⋙ नातिदूर
वि० [सं०] जो बहुत दूर न हो। कुछ ही दूर का। उ०—उससे नातिदूर लोहार का चश्मा भी कुछ इसी तरह का है।—किन्नर० , पृ० ४७।
⋙ नातिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाती] लड़की की लड़की। बेटी की बेटी।
⋙ नाती
संज्ञा पुं० [सं० नप्तृ० प्रा० नत्ति] [स्त्री० नतिनी, नातिन] लड़की या लड़के का लड़का। नप्ता। बेटी या बेटे का बेटा। उ०— (क) नाती पूत कोटि दस अहा। रोबनहार न एकौ रहा।—जायसी (शब्द०)। (ख) उत्तम कुल पुलसत्य कर नाती। —तुलसी (शब्द०)।
⋙ नाते
क्रि० वि० [हिं० नाता] १. संबंध से। उ०— सखि हमरे आरति अति ताते। कबहुँक ए आवहिं एहि नाते। —तुलसी (शब्द०)। २. हेतु। वास्ते। लिथे। उ— दूध दही के नाते बनवत बातें बहुत गोपाल। गढ़ि गढ़ि छोलत कहा रावरे लूटत हौ ब्रजबाल।—सूर (शब्द०)।
⋙ नातेदार
वि० [हिं० नाता + फा० दार (प्रत्य०)] [संज्ञा नातेदारी] संबंधी। रिश्तेदार। सगा। उ०—हे सुत है नहि दुःख को सामा। नातेदार सौरि तब मामा। —गोपाल (शब्द०)।
⋙ नात्र
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।
⋙ नात्रात †
संज्ञा पुं० [राज० नाता + रा (प्रत्य०)] राजपूतों की एक जाति। उ०— उनमें नाता (नात्रा = विधवा विवाह) होता है, जिससे वे नात्रात (नात्रायत) राजपूत कहलाते हैं। —राज०, पृ० ५०४।
⋙ नाथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभु। स्वामी। अधिपति। मालिक। २. पति। ३. वह रस्सी जिसे बैल भैंसे आदि की नाक छेदकर उसमें इसलिये डाल देते हैं जिसमें वे वश में रहें। उ०— रंगनाथ ही जाकर हाथ ओही के नाथ। गहे नाथ सो खींचै फेरत फिरै न माथ। —जायसी (शब्द०)। ४. मत्स्येंद्रनाथ के अनुयायी योगियों की एक उपाधि। गोरखपंथी साधुओं की एक पदवी जो उनके नामों के साथ ही मिली रहती है। ५. नाथ सिद्धों का परम तत्व। उ०—पिंड प्राण की रक्षा श्री नाथ निरंजन करे।—रामानंद०, पृ० ३। ६. एक प्रकार के मदारी जो साँप पालते और नचाते हैं। मुहा०—नाथ पड़ना = जिम्मेदारी आना।
⋙ नाथ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाथना] १. नाथने की क्रिया या भाव। उ०— रंग नाथ हौं जाकर हाथ ओहि के नाथ। गहे नाथ सो खींचै फेरे फिरै न माथ। —जायसी (शब्द०)।
⋙ नाथ † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नथ]दे० 'नथ'। उ०— परी नाथ कोइ छुवै न पारा। मारग मानुस सोन उछारा। —जायसी (शब्द०)।
⋙ नाथता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रभुता। स्वामित्व।
⋙ नाथत्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभुत्व। स्वामित्व।
⋙ नाथद्वारा
संज्ञा पुं० [सं० नाथद्वार] उदयपुर राज्य के अंतर्गत बल्लभ संप्रदाय के वैष्णवों का एक प्रसिद्ध स्थान जहाँ श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित है। विशेष— औरंगजेब ने जब मथुरा की सब कुष्णमूर्तियों को तोड़नेका विचार किया तब सन् १६७१ में उदयपुर के महाराणा राजसिंह श्रीनाथ जी की मूर्ति को मथुरा से उदयपुर की ओर लेकर धूमधाम के साथ चले। इस स्थान पर जब रथ पहुँचा तव पहिया कीचड़ में धँस गया। लोगों ने कहा कि श्रीनाथजी की इच्छा इसी स्थान पर रहने की है। महाराणा ने भारी मंदिर बनवाकर मूर्ति वहीं स्थापित कर दी।
⋙ नाथना
क्रि० स० [हिं० नाथ] १. बैल, भैंसे आदि की नाक छेदकर उसमें इसलिये रस्सी डालना जिसमें वे वश में रहें। नकेल डालना। नाक छेदना। उ०—(क) आजु खसे रावन दस माथा। आजु कान्ह कारे फन नाथा। —जायसी (शब्द०)। (ख) काली नाग नाथि हरि लाए सुरभी ग्वाल जिवाए।—सूर (शब्द०)। (ग) सात बैल नाथन के कारण आप अयोध्या आए।—सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना। मुहा०—नाक पकड़कर नाथना = बलपूर्वक वश में करना। २. किसी वस्तु को छेदकर उसमें रस्सी या तागा डालना। ३. किसी वस्तु या कई वस्तुओं के कई भागों को छेदकर रस्सी या तागे के द्वारा एक में जोड़ना। नत्थी करना। जैसे,—इन सब कागजों को एक में नाथकर रख दो। ४. लड़ी के रुप में जोड़ना।
⋙ नाथवत्
वि० [सं०] १. स्वामी या रक्षक से युक्त। २. पराधीन [को०]।
⋙ नाथवान्
वि० [सं० नाथवत्] दे० 'नाथवत्'।
⋙ नाथ संप्रदाय
संज्ञा पुं० [सं० नाथ + सम्प्रदाय] गोरखनाथ का चलाया हुआ एक पंथ।उ०— नाथ संप्रदाय के आदि प्रवर्तक 'आदि नाथ' शिव ही कहे जाते हैं।—पू० म० भा०, पृ० ३३५।
⋙ नाथहिर
संज्ञा पुं० [सं०] पशु।
⋙ नाथित
संज्ञा पुं० [सं०] प्रार्थना। अनुरोध। याचना [को०]।
⋙ नाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द। ध्वनि। आवाज। २. वर्णों का अव्यक्त मूल रूप। विशेष— संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। संगीतदर्पण मे लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है। अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया है—प्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव। जो सुख आदि अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा आदि से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी से निकाला जाता है वह उभय- संभव है। नाद के बिना गीत, स्वर, राग आदि कुछ भी संभव नहीं। ज्ञान भी उसके बिना नहीं हो सकता। अतः नाद परज्योति वा ब्रह्मरुप है और सारा जगत् नादात्मक है। इस दृष्टि से नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। इठयोग दीपिका में लिखा है कि जिन मूढों को तत्वबोध न हो सके वे नादोपासना करें। अँतस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। आँख, कान, नाक, मुँह सबका व्यापार बंद कर दे। अभ्यास की अवस्था में पहले तो मेघगर्जन, भेरी आदि की सी गंभीर ध्वनि सुनाई पडे़गी, फिर अभ्यास बढ़ जाने पर क्रमशः वह सूक्ष्म होती जायगी। इन नाना प्रकार की ध्वनियों में से जिसमें चित्त सबसे अधिक रमे उसी में रमावे। इस प्रकार करते करते नादरुपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा। ३. वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है। ४. अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। सानुनासिक स्वर। अर्धचंद्र। पर्या०—अर्धेदु। अर्धमात्रा। कलाराशि। सदाशिव। अनुच्चर्या। तुरीया। परा। विश्वमातृकला। ५. संगीत। यौ०—नादविद्या = संगीत शास्त्र।
⋙ नादना पु (१)
क्रि० स० [सं० नदन या हिं० नाद] बजाना। उ०— (क) काहू बीन गहा कर गाहू नाद मृदंग। सब दिन अनंद बधाबा रहस कूद इक संग। —जायसी (शब्द०)। (ख) इन ही के आए ते बधाए ब्रज नित नए नादत बढ़त सब सब सुख जियो है।— तुलसी (शब्द०)।
⋙ नादना (२)
क्रि० अ० १. बजना। शब्द करना। उ०— शून्य ज्ञान सुषुप्ती होय। अकुलाहट सेना ही सोय।— कबीर (शब्द०)। २. चिल्लाना। गरजना। उ०— मनु करि दल लखि वृद्ध हरि नादि उठयो कंदर निकर।— गोपाल (शब्द०)।
⋙ नादना (३)
क्रि० अ० [सं० नन्दन] लहकना। लहलहाना। प्रफुल्लित होना। उ०— नैकु न जानी परति यों परयो विरह तन माय। उठति दिया लौं नादि हरि लिए तिहारो नाम।— बिहारी (शब्द०)।
⋙ नादमुद्रा
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र की एक मुद्रा। विशेष— इसमें दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर अँगूठे को ऊपर की ओर उठाए रहना पड़ता है।
⋙ नादवान्
वि० [सं० नादवत्] स्वरमय। ध्वनिमय। ध्वनित [को०]।
⋙ नादली
संज्ञा स्त्री० [अ० नाद + अली] संग यशब नामक पत्थर की चौकोर टिकिया जिसपर कुरान की एक विशेष आयत खुदी रहती है और जिसे रोगबाध दूर करने के लिये यंत्र की तरह पहनते हैं। हौलदिली। विशेष— आयत का आरंभ 'नाद अलियन' इस वाक्य से होता है। इसी से यंत्र को नादली कहते हैं। हकीमों का कथन हैं किउक्त पत्थर में कलेजे की घड़क आदि दूर करने का विशेष गुण है। छाती पर उसका संसर्ग रहने से हौलदिल तथा दिल घड़कने की बीमारी अच्छी हो जाती है। कुछ लोगों का विश्वास हैं कि बिजली का असर भी जहाँ यह पत्थर रहता है वहाँ नहीं होता।
⋙ नादाँ
वि० [फा०] दे० 'नादान'। उ०— (क) दिले नाँदा तुझे हुआ क्या है। अखिर इस मर्ज की दवा क्या है—गालिब०, पृ० ३०४। (ख) फायदा क्या सोच आखिर तू भी है दाना असद। दोस्ती नादाँ की है जी का जियाँ हो जायगा।— गलिब०, पृ० ६६।
⋙ नादान
वि० [फा़०] [संज्ञा नादानी] नासमझ। अनजान। मूर्ख। उ०— कबीर मारी अल्लाह की ताको कहत हराम। हलाल कहै अपनी मारी यह नादान कलाम।— कबीर (शब्द०)।
⋙ नादानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] अज्ञान। नासमझी।
⋙ नादार
वि० [फा०] १. जो अपने पास कुछ न रखता हो। जिसके पास कुछ न हो। अकिंचन। निर्धन। कंगाल। उ०— बाद अज जिके कल्बी लेवे दिल में मखफी बूझ। जिन ताकूँ नादार झंकारे तो मजिल मलकूत तूज।—दक्खिनी, पृ० ५६। २. गंजीफे के खेल में बिना रंग या मीर की बाजी।
⋙ नादारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] गरीबी। निर्घनता। उ०— स्त्री को नादारी में जाँचिए।— लल्लू (शब्द०)।
⋙ नादि
वि० [सं०] १. शब्द करनेवाला।२. गर्जन करनेवाला। [को०]।
⋙ नादित
वि० [सं०] शब्द करता हुआ। बजाया हुआ।
⋙ नादिम
वि० [अ०] लज्जित। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नादिया
संज्ञा पुं० [सं० नन्दी] १. नंदी। २. वह बैल जिसे जोगी लेकर भीख माँगते हैं। विशेष— ऐसे बैलों को कोई न कोई अंग अधिक (जैसे टाँग) रहता है जिससे लोगों को कुतूहल होता है।
⋙ नादिर
वि० [फा़०] अदभुत। अनोखा। उ०— औरंगजेब बादशाह के कोका फिदाई खाँ का बाग बहुत नादिर बना है।— शिवप्रसाद (शब्द०)। यौ०—नादिर कलाम= उत्तम वाणी। अच्छी वाणी। उ०— मेकाइल जिब्रैल नादिर कलाम। फरिश्त्याँ कूँ ले सात कीते सलाम। —दक्खिनी०, पृ० ३४४।
⋙ नादिरशाह
संज्ञा पुं० [फा़०] फारस का एक क्रूर और प्रतापी बादशाह। विशेष— इसने सन् १७३८ में दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह पर चढा़ई की और १७३८ में दिल्ली नगरवासियों की हत्या कराई। प्रातः काल से सूर्यास्त तक यह हत्याकांड जारी रहा जिसमें लाखों मनुष्य मारे गए।
⋙ नादिरशाही (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] ऐसा अंधेर जैसा नादिरशाह ने दिल्ली में मचाया था। भारी अँधेर या अत्याचार।
⋙ नादिरशाही (२)
वि० नादिरशाह के ऐसा। बहुत ही कठोर और उग्र। जैसे, नादिरशाही हु्क्म।
⋙ नादिरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. एक प्रकार की सदरी या बंडी जो मुगल बादशाहों को समय में पहनी जाती थी। इसके किनारे पर कुछ काम होता था। इसे कभी कभी खिलअत में दिया करते थे। २. गंजीफे का वह पत्ता जो खेल के समय निकालकर अलग रख दिया जाता है। मुहा०—नादिरी चढा़ना =बेतरह मात करना।
⋙ नादिहंद
वि० [फा०] न देनेवाला। जिससे रकम वसूल न हो।
⋙ नादिहंदी
संज्ञा स्त्री० [फा०] किसी को कुछ न देने की प्रवृत्ति। अदातव्यता।
⋙ नादी
वि० [सं० नादिन्] [वि० स्त्री० नादिनी] १. शब्द करनेवाला। २. बजनेवाला। ३. गर्जन करनेवाला।
⋙ नादेअली
संज्ञा स्त्री० [अ०] कुरान की एक आयत जो नाद अलियन से शुरु होती है और संग यशब के छोटे चौकोर टुकडे़ पर खुदी रहती है जिसे रोगबाधा से बचने के लिये गल में पहलते हैं। दे० 'नादली' [को०]।
⋙ नादेय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० नादेयी] १. नदी संबंधी। नदी का। २. नदी मे होनेवाला।
⋙ नादेय (२)
संज्ञा पुं० १. सेंधा नमक। २. सुरमा। ३. काँस नाम की घास। ४. जलबेत। अंबुवेतस। ५. नदी (गंगा) के पुत्र। गांगेय। भीष्म।
⋙ नादेयी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. नदी संबंधिनी। नदी की। २. नदी में होनेवाली।
⋙ नादेयी (२)
संज्ञा स्त्री० १. अंबुवेतस। जलबेत। २. भूमिजंबुक। भुइँजामुन। ३. वैजयंतिका। बैजयंती। ४. नारंगी। ५. जपा। अड़हुल। ६. अग्निमंथ वृक्ष। अँगेथू।
⋙ नादेहंद
वि० [फा० नादिहंद] दे० 'नादिहंद'।
⋙ नाद्य (१)
वि० [सं०] १. नदी संबंधी। २. नदी में उत्पन्न [को०]।
⋙ नाद्य (२)
संज्ञा पुं० कमल [को०]।
⋙ नाधन
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाधना] चरखे के तकले में तागे की रोक के लिये लगी हुई एक गोल टिकिया। दिमरखा। विशेष— यह टिकिया पिसी हुई मेथी में रुई आदि डालकर बनाते हैं और लिपटे हुए तागे के आगे छेदकर पहना देते हैं।
⋙ नाधना
क्रि० स० [सं० नद्ध (= बँधा या जुडा हुआ)] १.रस्सी या तस्मे के द्वारा बैल, घोडे़ आदि को उस वस्तु के साथ जोड़ना या बाँधना जिसे उन्हें खींचकर ले जाना होता है। जोतना। जैसे, बैल को गाडी या हल में नाधना। उ०— (क) खसम बिनु तेली के बैल भयो। बैठत नाहिं साधु की सँगति नाधे जनम गयो। —कबीर (शब्द०)। (ख) बहत वृषभ बहलन मँह नाधे। — रघुराज (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना। मुहा०—काम में नाधना = काम में लगाना। २. जोडना। संबद्ध करना। उ०— तुम्हें देखि पावै, सुख बहु भाँति ताहि दीजै नेकु निरखि नतीजा नेह नाधे को।—कालिदास (शब्द०)। ३. गूँथना। गुहना। उ०— देव जगामग जोतिन की, लर मोतिंन की लरकीन सों नाधी।— देव (शब्द०)। ४. (किसी काम को) ठानना। अनुष्ठित करना। आरंभ करना। जैसे, काम नाधना। उपद्रव नाधना। उ०— (क) मेरी कही न मानत राधे। ये अपनी मति समुझत नाहीं कुमति कहा पन नाधे। —सूर (शब्द०)। (ख) याही को कहायो ब्रजराज दिन चार ही में करिहै उजियारी ब्रज ऐसी रीति नाधी है।— मतिराम (शब्द०)।
⋙ नाधा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाधना] वह रस्सी या चमडे़ की पट्टी जिससे हल या कोल्हू की हरिस जुए में बाँधी जाती है। नारी।
⋙ नाधा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० नाँद] वह स्थान जहाँ पर पानी, कूएँ, जलाशय आदि से निकालकर फेंका जाता है और जहाँ से नालियों में होता हुआ वह सिंचाई के लिये खेतों में जाता है।
⋙ नान
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. रोटी। चपाती। २. एक प्रकार की मोटी खमीरी रोटी जो तंदूर में पकाई जाती है। यौ०—नानखताई। नानबाई। नानपाव।
⋙ नानक
संज्ञा पुं० पंजाब के एक प्रसिद्ध महात्मा जो सिख संप्रदाय के आदि गुरु थे। विशेष— इनका जन्म रावी नदी के किनारे तिलौंडा नामक गाँव में (आधुनिक रायपुर) संवत् १५२७ में कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम कालू था। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि पिता ने एक बार इन्हें ४०) नमक खरीदने के लिये दिए। पे नमक खरीदने चले पर बीच में कुछ भूखे साधु मिले और इन्होंने सब रुपयों का अन्न लेकर उन्हें खिला दिया। इन्हें काम काज के योग्य न देख पिता ने इन्हें इनकी बहिन के पास सुलतानपुर (कपुरथले में) नामक स्थान में भेज दिया। वहाँ का नबाब उस समय दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी का संबंधी दौलत खाँ नामक पठान था। उसके यहाँ ये मोदीखाने में नौकर हुए। वहाँ भी इन्होंने साधुओं को खिलाना अरंभ किया जिससे इनपर रुपया खाने का आरोप लगाया गया। पर जव हिसाब लिया गया तब सब ठीक उतरा। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में गुरुदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्ष्मी से हुआ था। जिस समय ये दौलत खाँ के यहाँ थे उसी समय ३२ वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र हरीचंद्र का जन्म हुआ। चार वर्ष पीछे दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत नानक ने घरबार छोड़ दिया और मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर वे भ्रमण के लिये निकल पडे़। ये चारों ओर घूमकर उपदेश करने लगे। इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है उसकी उपासना हिंदू मुसलमान दोनों के लिये है। मुर्तिपुजा, बहुदेवोपासना को ये अनावश्यक कहते थे। हिंदु और मुसलमान दोनों पर इनके मत का प्रभाव पड़ता था। लोगों ने तत्कालीन इब्राहीम लोदी से इनकी शिकायत की और ये बहुत दिनों तक कैद रहे। अंत में पानीपत की लड़ाई में जब इब्राहीम हारा और बाबर के हाथ में राज्य गया तब इनका छुतकारा हुआ। पिछले दिनों में इनकी ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं विरक्त होकर ये अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और दान पुण्य, भंडारा आदि करने लगे। जलंधर जिले में इन्होंने कर्तारपुर नामक एक नगर बसाया और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर आश्वन कृष्ण १०, संवत् १५९७ को इनका परलोकवास हुआ। यह सिखों का एक पवित्र स्थान है।
⋙ नानकपंथ
संज्ञा पुं० [हिं० नामक + पंथ] गुरु नामक द्धारा प्रवर्तित मत। सिख धर्म।
⋙ नानकपंथी
संज्ञा पुं० [हिं० नानक + पंथ + ई (प्रत्य०)] गुरु नानक का अनुयायी। सिख। नानकशाही।
⋙ नानकशाही
वि० [हिं० नानकशाह + ई (प्रत्य०)] गुरु नानक से संबंध रखनेवाला। जैसे, नानकशाही मत। २. नानकशाह का शिष्य या अनुयायी। जैसे, नानकशाही साधु।
⋙ नानकार
संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार की माफी जिसके अनुसार जमींदार को कुछ जमीन की मालगुजारी नहीं देनी पड़ती। विशेष—इस प्रकार की माफी अवध के नवाबों के समय से चली आ रही है। नानकार दो तरह का होता है—नानकार देही और नानकार इस्मी। यदि किसी गाँव में कुच जमीन की या किसी तअल्लुके में कुछ गाँवों की मालगुजारी माफ है और वह माफी उस गाँव या तअल्लुके के साथ लगी हुई है तो वह नानकार देही कहलाती है। इस प्रकार की माफी में गाँव के हर एक हिस्सेदार का हक होता है। यदि माफी किसी खास आदमी के नाम से होती है तो उसे 'नानकार इस्मी' कहते हैं। इसमें हिस्सेदारों का हक नहीं होता पर व्यवहार में यह बहुत कम माना जाता है।
⋙ नानकीन
संज्ञा पुं० [चीनी नानकिङ्] एक प्रकार का सूती कपड़ा जो चीन देश से बाहर को जाता था। विशेष—यह कपड़ा मटमैले रंग का होता था। पहले पहल इसका बुनना चीन के नानकिङ् नामक नगर में प्रारंभ हुआ था। आजकल इस प्रकार का कपड़ा युरोप आदि अनेक देशों में बनता है और इसी नाम से जाना जाता है।
⋙ नानकोआपरेशन
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'असहयोग—२'।
⋙ नानखताई
संज्ञा स्त्री० [फा० नानखताई] टिकिया के आकार की एक सोंधी खस्ता मिठाई। विशेष—धो और चीनी के साथ घुले हुए चावल के आटे की टिकिया (बताशे की आकार की) लोहे की एक चद्दर पररखते हैं फिर चद्दर को दहकते अंगारों से भरे हुए दो थालों के बीच इस प्रकार रखते हैं कि आंच ऊपर और नीचे दोनों ओर से लगे। जब टिकियाँ पक जाती हैं और उनमें से सोधाहट आने लगती है तब चद्ददर निकाल दी जाती है।
⋙ नानख्वाह
संज्ञा पुं० [फा० नानख्याह] अजवाइन [को०]।
⋙ नानपज
संज्ञा पुं० [फा० नानपज] नानबाई [को०]।
⋙ नानपजी
संज्ञा स्त्री० [फा० नानपजी] नानबाई का धंधा [को०]।
⋙ नानपाव
संज्ञा पुं० [फा०] खमीरी आटे की बनी एक प्रकार की रोटी। पावरोटी [को०]।
⋙ नानपेरिल
संज्ञा पुं० [अं० नाँनपेरेल] एक प्रकार का छोटा टाइप। ६. पाईँट का टाइप।
⋙ नानबाई
संज्ञा पुं० [फा० नानबा, नानबाफ़] रोटियाँ पकाकर बेचनेवाला।
⋙ नानस
संज्ञा स्त्री० [हिं० 'ननिया सास' का संक्षिप्त रुप] ननिया ससुर। पति या स्त्री का नाना (स्त्रि०)।
⋙ नानसरा
संज्ञा पुं० [हिं० 'ननिया ससुर' का संक्षिप्त रुप] ननिया ससुर। पति या स्त्री का नाना (स्त्रि०)।
⋙ नाना (१)
वि० [सं०] १. अनेक प्रकार के। बहुत तरह के। विविध। २. अनेक। बहुत।
⋙ नाना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० नानी] माता का पिता। माँ का बाप। मातामह। उ०—सो लंका तव नाना केरी। बसे आप मम पितहि खदेरी।—विश्राम(शब्द०)।
⋙ नाना † (३)
क्रि० स० [सं० नमन] १. झुकाना। नम्र करना। उ०—(क) बुद्धि जो गई आव बोराई। गरब गए तरहीं सिर नाई।—जायसी (शब्द०)। (ख) इंद्र डरै नित नावहि माथा।—सुर (शब्द०)। २. नीचा करना। ३. डालना। फेंकना। ४. घुसाना। प्रविष्ट करना। संयो०क्रि०—देना।—लेना।
⋙ नाना (४)
संज्ञा पुं० [अ०] पुदीना। यौ०—अर्कनान = सिरके के साथ भबके में उतारा हुआ पुदीने का अर्क।
⋙ नानाकंद
संज्ञा पुं० [सं०] पिंडालु।
⋙ नानाजातीय
वि० [सं०] जिसकी बहुत सी किस्में हों। अनेक प्रकार का [को०]।
⋙ नानात्मवादी
वि० [सं० नानात्मवादिन्] साँख्य दर्शन को माननेवाला। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा की पृथक् सत्ता स्वीकार करनेवाला [को०]।
⋙ नानात्यय
वि० [सं०] विभिन्न प्रकार का। अनेक विधि [को०]।
⋙ नानात्व
संज्ञा पुं० [सं०] वैविध्य। अनेकता [को०]।
⋙ नानाध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनेक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करनेवाला वाद्ययंत्र। जैसे, वीणा, सितार आदि [को०]।
⋙ नानारस
वि० [सं०] जिसमें अनेक स्वाद हों। अनेक स्वाद—युक्त [को०]।
⋙ नानारुप
वि० [सं०] १. अनेक रुपोंवाला। बहुरुपी। २. नानाविध। बहुविध [को०]।
⋙ नानार्थ
वि० [सं०] १. अनेक उद्देश्योंवाला। बहुद्देशीय। २. अनेक अर्थोंवाला। बहुअर्थी [को०]।
⋙ नानवर्ण
विभिन्न रंग का। बहुरंगा। अनेक रंगोंवाला [को०]।
⋙ नानाविध
वि० [सं०] अनेक प्रकार का। विभिन्न [को०]।
⋙ नानाश्रय
वि० [सं०] अनेक आश्रयवाला। जिसके रहने के अनेक स्थान या ठौर ठिकाने हों।
⋙ नानिहाल
संज्ञा पुं० [हिं० नानी + आल सं० (आलय)] नानी का घर। नान नानी के रहने का स्थान।
⋙ नानी
संज्ञा स्त्री० [देश०] माँ की माँ। माता की माता। मातामही। विशेष—इस शब्द के आगे 'इया' प्रत्यय लगाकर संबंधसूचक विशेषण भी बनाते है। जैसे, ननिया सास। मुहा०—नानी मर जाना=होश ठिकाने हो जाना। प्राण सुख जाना। आपत्ति सी आ जाना। संकट या दुःख सा पड जाना। उ०—हरमोहन की नानी तो थानेवालों को देखते ही मर गई थी।—अयोध्या (शब्द०)। नानी याद आना = दे० 'नानी मर जाना'।
⋙ ना नुकर
संज्ञा पुं० [हिं० न + करना] नाहीं। इनकार। क्रि० प्र०—करना।
⋙ नान्ह †
वि० [सं० न्यञ्च (= नाटा, छोटा या न्युन)] १. छोटा। लघु। नन्हा। २. नीच। क्षुद्र। उ०—कहै कबीर सुनो हो बाछा। नान्ह जाति लतिआए आछा।—कबीर (शब्द०) ३. पतला। बारीक। महीन। मुहा०—नान्ह कातना = (१) बहुत बारीक काम करना। (२) कठिन था दुष्कर कार्य करना। उ०—अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी कब कान्ह ? तुलसी लोग रिझाइबो करहि कातिबो नान्ह।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नान्हक
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नानक'।
⋙ नान्हरिया पु †
वि० [हिं० नान्ह + र, इया (प्रत्य०)] छोटा नन्हा। उ०—मेरो नान्हरिया गोपाल बेगि बड़ो किन होहि। यहि मुख मधुरे बचन हँसि कबहुँ जननि कहोगे मोहि।—सुर (शब्द०)।
⋙ नान्हा पु †
वि० [सं० न्यञ्च (= नाटा, छोटा) या सं० न्युन] [वि० स्त्री० नान्ही] १. छोटा। लघु। नन्हा। उ०—सर्बस मैं पहले ही दीनो नान्ही नान्ही दँतुली दु पर।—सुर (शब्द०)। २. पतला। बारीक। महीन। उ०—मन मनसा की मारि के नान्हा करिके पीस। तब सुख पावै सुंदरी पदम झलक्कै सीस।—कबीर (शब्द०)। ३. नीच। क्षुद्र। उ०—खेलत खात रहे ब्रज भीतर। नान्हे लोग तनक धन ईतर।—सुर (शब्द०)।
⋙ नान्हा (२)
संज्ञा पुं० छोटा बच्चा। लड़का। यौ०—नान्हा बारा = छोटा बालक। उ०—काली जी की छोहरी सेई नान्ही बारि।—देवस्वामी (शब्द०)।
⋙ नाप
संज्ञा स्त्री० [सं० मापन, हिं० माप] १. किसी वस्तु काविस्तार जिसका निर्धारण इस प्रकार किया जाय कि वह एक निर्दिष्ट विस्तार का कितना गुना है। किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई या गहराई जिसकी छोटाई बडा़ई (या न्युनता अधिकता) का निश्चय किसी निर्दिष्ट लंबाई के साथ मिलाने से किया जाय। परिमाण। माप । जैसे,— यह धोती नाप मै पाँच गुण हैं। २. विस्तार का निर्धारण। किसी वस्तु कौ लंबाई चौड़ाई आदि कितनी है इसको ठीक ठीक स्थिर करने के लिये की जानेवाली क्रिया। नापने का काम। जैसे,—जमीन की नाप हो रही है। यौ०—नाप जोख। नाप तौल। ३. वह निर्दिष्ट लंबाई जिसे एक मानकर वस्तु का विस्तार कितना है, यह स्थिर किया जाता है। मान। जैसे,—यहाँ की नाप कुछ छोटी है इसी से कपड़ा घटा। ४. निर्दिष्ट लंबाई की वह वस्तु जिसका व्यवहार करके स्थिर किया जाय कि कोई वस्तु कितनी लंबी, चौड़ी आदि है। नापने की वस्तु। मानदंड। नपना। पैमाना।
⋙ नापजोख
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाप + जोख] दे० 'नापतौल'।
⋙ नापतौल
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाप + तौल] १. नापने और तौलने की क्रिया। २. परिमाण या मात्रा जो नाप या तौलकर स्थिर की जाय। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नापदान †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाबदान'।
⋙ नापना
क्रि० स० [सं० मापन] १. किसी वस्तु का विस्तार इस प्रकार निर्धारित करना कि वह एक नियत विस्तार का कितना गुना है। किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई वा गहराई कितनी है, यह निश्चित करना। लंबाई, चौडाई आदि की परीक्षा करना। मापना। आयत परिमाण निर्दिष्ट करना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। मुहा०—सिर नापना = सिर काटना। २. अंदाज करना। कोई वस्तु कितनी है इसका पता लगाना। जैसे, दुध नापना, शराब नापना।
⋙ नापसंद
वि० [फा०] १. जो पसंद न हो। जो अच्छा न लगे। अनसुहाता। जैसे,—चीज नापसंद हो तो दाम वापस। २. अप्रिय। अरुचिकर। जो न जैचे। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नापाक
वि० [फा०] १. अशुद्ध। अशुचि। अपवित्र। भ्रष्ट। २. मैला कुचैला। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नापाकी
संज्ञा स्त्री० [फा०] अपवित्रता। अशुद्धता।
⋙ नापायदार
वि० [फा०] १. जो अधिक ठहरने या चलनेवाला न हो। जो टिकाऊ न हो। क्षणभंगुर। २. जो दृढ या मजबुत न हो।
⋙ नापायदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. अस्थायित्व। क्षणभंगुरता। २. अदृढ़ता। अस्थिरता।
⋙ नापास
वि० [हिं० ना + अं० पास] जो पास या मंजुर न हो। जो स्वीकृत न हो। नामजुर। अस्वीकृत। (क्व०)। जैसे,— कौसिल में उनका बिल नापास हुआ।
⋙ नापित
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो सिर के बाल मुँड़ने (या काटने), और नाखुन आदि काटने का काम करता हो। नाई। नाऊ। हज्जाम। विशेष—धर्मशास्त्र में नापित की गणना अच्छे शुद्रों में है। स्मृतियों में नापित संकर जाति के अंतर्गत माने गए हैं। पराशर स्मृति में लिखा है कि शुद्रा के गर्भ से ब्राह्मण द्धारा उत्पन्न संतान का यदि ब्राह्मण द्धारा संस्कार न हुआ हो तो वह नापित कहलाता है। पर परशुराम के अनुसार कुबेरी पुरुष और पट्टिकारी स्त्री के संयोग से नापितों की उत्पत्ति हुई। मनु ने नापितों की गिनती भोज्यान्न शुद्रों में की है। पर्या०—क्षुरी। मुंडी। दिवाकीर्ति। अंत्यावसायी। सुत्री। नखकुट्ट। ग्रामीणी। चंद्रिल। भांडपुट।
⋙ नापितायनि
संज्ञा पुं० [सं०] नाई का पुत्र [को०]।
⋙ नापित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाई का धंधा। २. नाई का बेटा [को०]।
⋙ नापैद
वि० [फा० ना+ पैदा] १. जो पैदा न होता हो। २. न मिलनेवाला। अप्राप्य।
⋙ नाफ
संज्ञा स्त्री० [फा० नाफ०] १. नाभि। २. केंद्र। मध्य [को०]।
⋙ नाफरमा
संज्ञा पुं० [फा० नाफरमाँ] गुलेलाला का एक भेद जो कुछ नीलापन लिए होता है।
⋙ नाफा
संज्ञा पुं० [फा० नाफ] मृगमद कोश। कस्तुरी की थैली जो कस्तुरीमृगों की नाभि में होती है।
⋙ नाबदान
संज्ञा पुं० [फा० नाव (=नाली)] वह नाली जिससे होकर घर का गलीज, मैला पानी आदि बाहर बहकर जाता है। पनाला। नरदा। मुहा०—नाबदान में मुँह मारना = घृणित कर्म करना। बुरा और घिनौना काम करना।
⋙ नाबालिग
वि० [फा० नाबालिग्] जिसका लड़कपन अभी दुर न हुआ हो। जो अपनी पुरी अवस्था को न पहुँचा हो। जो पुरा जवान न हुआ हो। अप्राप्तवयस्क। विशेष—कानून में कुछ बातों के लिये २१ वर्ष और कुछ के लिये १८ वर्ष से कम अवस्था का मनुष्य नाबालिग समझा जाता है।
⋙ नाबालिगी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाबालिगी] नाबालिग रहने की अवस्था।
⋙ नाबुद
वि० [फा०] जिसका अस्तित्व न रहा हो। नष्ट। ध्वस्त। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाभ
संज्ञा स्त्री० [सं० 'नाभि' का सामासांत रुप] १. नाभि। ढोंढी। धुनी।२. शिव का एक नाम। ३. भागवत मे वर्णित एक सुर्यवंशी राजा जो भगीरथ के पुत्र थे। ४. अस्त्रों का एक संहार।
⋙ नाभक
संज्ञा पुं० [सं०] हरीतकी। हड़।
⋙ नाभस
वि० [सं०] नभस् संबंधी। आकाश संबंधी। आकाशीय [को०]।
⋙ नाभा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रसिद्ध भक्त जिनका नाम नारायण— दास था। विशेष—कहते हैं, ये जाति के डोम थे और दक्षिण देश में उत्पन्न हुए थे। भक्तमाल के कुछ टीकाकारों मे लिखा है कि इनका जन्म हनुमान वंश में हुआ था। मारवाड़ी भाषा में डोम शब्द का अर्थ हनुमान है। शायद इसीलिये इन टीकाकारों ने इन्हें हनुमानवंशीय लिखा है। पर गद्य भक्त— माल में लिखा है कि तैलंग देश में गोदावरी के समीप उत्तर रामभद्राचल पर्वत पर रामदास नामक एक ब्राह्मण हनुमान जी के अंशावतार रहते थे। इन्हीं के पुत्र नामा थे। पर कोई कारणों से इनका नीच कुल में उत्पन्न होना ही ठीक प्रतीत होता है। ये जन्मांध कहे जाते हैं। बचपन में ही इनके देश में घोर अकाल पड़ा। माता इन्हें पाल न सकी, वन में छोड़कर चली गई। कील्ह जी अपने शिष्य अग्रदास के साथ उस वन में होकर जा रहे थे। उन्होने बच्चे को उठा लिया और जयपुर के पास गलता नामक स्थान में ले गए। वहाँ महात्माओं की कृपा से और साधुऔं का प्रसाद खाते खाते इनकी आँख भो अच्छी हो गई और बुद्धि भी निर्मल हो गई। अपने गुरु अग्रदास की आज्ञा से इन्होनै 'भक्तमाल' लिखा जिसमें अनेक नए पुराने भक्तों के चरित्र वर्णित है। अनुमान से भक्तमाल ग्रंथ संवत् १६४२ और संवत् १६८० के बीच मे बनाया गया क्योंकि भक्तमाल में गोसाई गिरधंर जी के विषय में लिखा है कि 'बिट्ठले नंदन सुभग जग कोऊ नहिं ता समान। श्री वल्लभ जू के वंश में सुरतरु गिरघर भ्राजमान।' यह बात निश्चित है कि संवत् १६४२ में श्री बिट्ठलनाथ गोसाई का परलोक हुआ और उनके पुत्र गद्दी पर बैठे। इस पद से गोस्वामी तुलसीदास जी का भी भक्तमाल बनने के समय वर्तमान रहना पाया जाता है—रामचरन रस मत्त रहत अहनिसि ब्रतधारी। संवत १६८० गोस्वामी जी का मृत्युकाल प्रसिद्ध ही है।
⋙ नाभा (२)
पंजाब की एक (राज्य) रियासत जो भारतवर्ष की स्वतंत्रता के पुर्व प्रसिद्ध थी।
⋙ नाभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाल्मीकि के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा जो ययाति के पुत्र थे। विशेष—नाभाग के पुत्र अज और अज के पुत्र दशरथ हुए। रामायण की वंशावली के अनुसार राजा अंबरीष नाभाग के प्रपितामह थे, पर भागवत में अंबरीष को नाभाग का पुत्र लिखा है। २. मार्कंडेय पुराण के अनुसार कारुष वंश के एक राजा जो दिष्ट के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा उक्त पुराण में इस प्रकार है—जब ये युवावस्था को प्राप्त हुए तब एक वैश्य की कन्या को देखकर मोहित हो गए और उस कन्या के पिता द्धारा अपने पिता से विवाह की आज्ञा माँगी। ऋषियों की सम्मति से पिता ने आज्ञा दी कि पहले एक क्षत्रिय कन्या से विवाह करके तब वैश्य कन्या से विवाह करो तो कोई दोष नहीं। नाभाग ने पिता की बात न मानी। पिता पुत्र में युद्ध छिड़ गया। पिरव्राट् मुनि ने यह युद्ध शांत किया। नाभाग वैश्य कन्या का पाणिग्रहण करके वैश्यत्व को प्राप्त हुए। प्रमति मुनि ने नल को व्यवस्था दी थी के यदि कोई क्षत्रिय उनकी कन्या को बलपुर्वक विवाह लेगा तो उनका वैश्यत्व छुट जायगा। अंत में नाभागा भी इसी रीति से फिर क्षत्रिय हो गए।
⋙ नाभागारिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र।
⋙ नाभारत
संज्ञा स्त्री० [सं० नाभ्यावर्त] वह भौरी जो घोड़े की नाभि नीचे हो। यह दुषित मानी जाती है।
⋙ नाभि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चक्रमध्य। पहिए का मध्य भाग। नाह। २. जरायुज जंतुओं के पेट की बीचोबीच वह चिह्न या गड्ढा जहाँ गर्भावस्था में जरायुनाल जुड़ा रहता है। ढोंढी। धुन्नी। तुन्नी। तुंदी। तुंदिका। तुंदकुपी। ३. कस्तुरी।
⋙ नाभि (२)
संज्ञा पुं० १. प्रधान। राजा। २. प्रधान व्यक्ति या वस्तु। ३. गोत्र। ४. क्षत्रिय। महादेव। ६. प्रियव्रत राजा के पौत्र (ब्रह्मांड पुराण)। ७. भागवत के अनुसार आग्नीघ्र राजा के पुत्र जिनकी पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषिभदेव की उत्पत्ति हुई थी। विशेष—इनकी कथा इस प्रकार है। नाभि ने पत्नी के सहित पुत्र की कामना से बड़ा भारी यज्ञ किया। उस यज्ञ में प्रसन्न होकर विष्णु भगवान् साक्षात् प्रकट हुए। नाभि ने वर माँगा कि मेरे तुम्हारे ही ऐसा पुत्र हो। भगवान् ने कहा मेरे ऐसा दुसरा कौन हौ ? अतः मै ही पुत्र होकर जन्म लुँगा। कुछ काल के पीछे मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव उत्पन्न हुए जो विष्णु के २४ अवतारों में माने जाते हैं। जौनों के आदि तीर्थकर भी ऋषभदेव माने जाते हैं।
⋙ नाभिकंटक
संज्ञा पुं० [सं० नाभिकण्टक] निकली हुई तुंदी या ढींढी।
⋙ नाभिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटभी वृक्ष।
⋙ नाभिगुडक
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि का आवर्त। तुंदी का उभरा अंश।
⋙ नाभिगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियव्रत राजा के पुत्र जिनके नाम पर कुश द्धीप के बीच एक वर्ष हुआ।
⋙ नाभिगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि का आवर्त। तुंदी का उभरा अंश।
⋙ नाभिछेदन
संज्ञा पुं० [सं०] तुरत के जन्मे हुए बच्चे के नाल काटने की क्रिया।
⋙ नाभिज
संज्ञा पुं० [सं०] (विष्णु की नाभि से उत्पन्न) ब्रह्मा।
⋙ नाभिजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० नाभिजन्मन्] दे० 'नाभिज'।
⋙ नाभिनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाभि की नाड़ी जो गर्भकाल में माता की रसवहा नाड़ी से जुड़ी रहती है।
⋙ नाभिनाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाभि की नाली [को०]।
⋙ नाभिपाक
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों का एक रोग जिसमें नाभि में घाव हो जाता और वह पक जाती है।
⋙ नाभिभू
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा [को०]।
⋙ नाभिमूल
संज्ञा पुं० [सं०] नाभि का मध्यभाग [को०]।
⋙ नाभिल
वि० [सं०] उभरी हुई नाभिवाला। निकली हुई तुंदीवाला।
⋙ नाभिवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] नाभिछेदन। नाल काटने की क्रिया।
⋙ नाभिवर्प
संज्ञा पुं० [सं०] जंबुद्धीप के नौ वर्षों में से एक। भारतवर्ष। विशेष—आग्नीघ्र राजा ने अपने नौ पुत्रौं को जंबु द्धीप के नौ खंड दिए। नीभि को जो खंड मिला उसका नाम नाभिवर्ष हुआ। पीछे नाभि के पौत्र भरत के नाम पर वह भारतवर्ष कहा जाने लगा।
⋙ नाभिसंबंध
संज्ञा पुं० [सं०] गोत्रसंबंध।
⋙ नाभी
संज्ञा स्त्री० [सं० नाभि] दे० 'नाभि'।
⋙ नाभील
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों के कटि के नीचे का भाग। उरुसंदि। २. नाभि की गहराई। नाभि का गड्ढा। ३. कुच्छ। कष्ट। ४. नाभि जो उभरी हुई हो (को०)।
⋙ नाभ्य (१)
वि० [सं०] नाभि संबंधी।
⋙ नाभ्य (२)
संज्ञा पुं० शिव। महादेव।
⋙ नामंजुर
वि० [फा० ना+ अ० मंजुर] जो मंजूर न हो। जो माना न गया हो। जो कबूल न किया गया हो। अस्वीकृत। जैसे, अरजी नामंजुर होना। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० नामन्, तुल० फ़ा० नाम] [वि०नामो] १. वह शब्द जिससे किसी वस्तु, व्यक्ति या समूह का बोध हो। किसी वस्तु या व्यक्ति का निर्देश करनेवाला शब्द। संज्ञा। आख्या। अभिख्या। आह्या। जैसे,—इस आदमी का नाम रामप्रसाद है, इस पेड़ का नाम अशोक है। मुहा०—नाम उछलना = बदनामी होना। अपकीर्ति फैलना। निंदा होना। नाम उछालना = अपकीर्ति फैलाना। चारों ओर निंदा कराना। जैसे,—क्यों ऐसा काम करके अपने बाप दादों का नाम उछाल रहे हो ! नाम उठ जाना = नाम न रह जाना। चिह्न मिट जाना या चर्चा बंद हो जाना। लोक में स्मरण भी न रह जाना। जैसे,—उसका तो नाम ही संसार से उठ जायगा। नाम करना = नाम रखना। पुकारने के लिये नाम निश्चित करना। किसी दूसरे का नाम करना = दूसरे का नाम लगाना। दूसरे पर दोष लगाना। दुसरे के सिर दोष मढ़ना। जैसे,—आप चुराकर दुसरे का नाम करता है। (किसी बात का) नाम करना=कोई बात पुरी तरह से न करना, कहने भर के लिये थोड़ा सा करना। दिखाने या उलाहना छुड़ाने भर के लिये थोड़ा सा करना। जैसे,—पढ़ते क्या हैं नाम करते हैं। नाम का =(१) नामधारी। जैसे,—इस नाम का कोई आदमी यहाँ नहीं। (२) कहने सुनने भर को। उपयोग के लिये नहीं। काम कै लिये नहीं। जैसे,—वे नाम के मंत्री हैं, काम तो और ही करते हैं। (किसी के) नाम का कुत्ता न पालना = किसी से इतना बुरा मानना या घृणा करना कि उसका नाम लेना या सुनना भी नापसंद करना। नाम से चिढ़ना। नाम के लिये = (१) कहने सुनने भर के लिये। थोड़ा सा। अणु मात्र। (२) उपयोग के लिये नहीं। काम के लिये नहीं। नाम को = (१) कहने सुनने भर को। ऐसा नहीं जिससे काम चल सके। (२) केवल इतना जितने से कहा जा सके कि एकदम अभाव नही है। बहुत थोड़ा। अत्यंत अल्प। नाम को नहीं = जरा सा भी नहीं। अणु मात्र भी नहीं। कहने सुनने को भी नहीं। एक भी नहीं। जैसे,—(क) उस मैदान में नाम को भी पेड़ नहीं है। (ख) घर में नाम को भी नमक नहीं है। (ग) उसने नाम को भी जीवजंतु न छोड़ा। नाम चढ़ना = किसी नामावली में नाम लिखा जाना। नाम दर्ज होना। नाम चढ़ाना = किसी नामवली में नाम लिखना। नाम दर्ज कराना। नाम चमकना = चारों ओर अच्छा नाम होना। कीर्ति फैलना। यश फैलना। प्रसिध्ध होना। नाम चलना = लोगों में नाम का स्मरण बना रहना। यादगार बनी रहना। जैसे,—संतान से नाम चलता है। नामचार को = (१) नामोच्चार भर के लिये। नाम को। कहने सुनने भर को। पूरे तौर से या मन से नहीं। जैसें,— नामचार को वह यहाँ आता है, कुछ काम तो करता नहीं। (२) बहुत थोड़ा। किचिन्मात्र। नाम जगाना = नाम की याद कराते रहना। स्मारक बनाए रखना। ऐसा काम करना कि लोगों में स्मरण बना रहे। नाम जपना = (१) बार बार नाम लेना। बार बार नाम का उच्चारण करना। नाम रटना। (२) भक्ति या प्रेम से ईश्वर या देवता का नाम (माला फेरते हुए या यौं ही) बार बार लेना। नाम स्मरण करना। ईश्वर या देवता का स्मरण करना। नाम देना = (१) नाम रखना। नामकरण करना। (२) किसी देवता के नाम का मंत्र देना। सांप्रदायिक मंत्र का उपदेश देना। नामधरता = नाम रखनेवाला। नामकरण करनेवाला पिता। बाप। (किसी का) नाम धरना = (१) नाम स्थिर करना। नाम रखना। नामकरण करना। (२) बदनामी करना। बुरा कहना। दोष लगाना। जैसे,—ऐसा काम क्यों करो जिससे दस आदमी नाम धरे। (३) अपनी वस्तु का मोल माँगना। अपनी चीज का दाम कहना। जैसे,—पहले तुम अपनी चीज का नाम धरो, जो जँचेगा मैं भी कहुँगा। (किसी को) नाम धरना = (१) बदनाम करना। बुरा कहना। दोष लगाना। (२) दोष निकालना। ऐब बताना। जैसे, —हमारी पसंद की हुई चीज का तुम नाम नहीं धर सकते। नाम धरवाना = दे० 'नाम धराना'। नाम (नाँव) धराना = (१) नामकरण कराना। (२) बदनामी कराना। निंदा कराना। उ०—(क) फिरत धरावत मेरो नामा। मातु न देति होयगी धामा। (ख) डारि दियो गुरु लोगन को डर, गाँव चवाव में नाँव धरायो। —मतिराम (शब्द०) नाम न लेना = अरुचि, घृणा, भय आदि के कारण चर्चा तक न करना। दूर रहना। बचना। संकल्प या विचार तक न करना। जैसे,—(क) उसने मुझे बहुत दिक किया, अब उसका कभी नाम न लुँगा। (ख) उसका स्वाद इतना बुरा है कि एक बार खाओगे तो फिर कभी नाम न लोगे। (ग) अव वह यहाँ आने का नाम तक नहीं लेता। तो मेरा नाम नहीं = तो मैं कुछ भी नहीं। तो मुझे तुच्छ समझना। जैसे,—यदि सबेरे मैं उसे न लाऊँ तो मेरा नाम नहीं। नाम निकल जाना = किसी (भली या बुरी) बात के लिये नाम प्रसिद्ध हो जाना। किसी विषय में ख्याति हो जाना। किसी बात के लिये मशहुर या बद— नाम हो जाना। जैसे,—जिसका नाम निकल जाता है वह अगर कुछ न करे तो भी लोग उसी को कहते हैं। नाम निकलना = (१) किसी बात के लिये नाम प्रसिद्ध होना। (२) तंत्र आदि की युक्ति से किसी वस्तु को चुराने वाले का नाम प्रकट होना। (३) नाम का कहीं प्रकट या प्रकाशित होना। जैसे, गजट में नाम निकलना। नाम बिकलवाना = (१) बदनामी कराना। नाम में कलंक लगवाना। (२) मंत्र, तंत्र आदि द्धारा चोर का नाम प्रकट कराना। (३) किसी नामवली में से नाम कटवाना। किसी विषय से किसी को अलग कराना। नाम निकलना = (१) (भली या बुरी) बात के लिये नाम प्रसिद्ध करना। यश फैलाना या बदनामी करना। (२) मंत्र, तंत्र आदि द्वारा चोर का नाम प्रगट करना। (३) किसी नामवली से नाम काटना। किसी विषय से अलग करना। नाम पड़ना = नाम रखा जाना। नाम करण होना। नाम निश्चित होना। किसी के नाम =(१) किसी के लिये। किसी के पक्ष में। किसी के व्यवहार या उपयोग के लिये। किसी के अधिकार में। किसी को कानून द्धारा प्राप्त। जैसे,—(क) उसकी सब जायदाद स्त्री के नाम है। (ख) उसने अपनी संपत्ति भतीजे के नाम कर दी। (२) किसी को लक्ष्य करके। किसी के संबंध में। जैसे,—उसके नाम वारंट निकला है। (३) किसी के प्रति। किसी को संबोधन करके। किसी के हाथ में पड़ने के लिये। किसी को दिए जाने के लिये। जैसे,—किसी के नाम चिट्ठी आना, संमन जारी होना इत्यादि। किसी के नाम पर = किसी को अर्पित करके। किसी के निमित्त। किसी के स्मारक या तुष्टि के लिये। किसी का नाम चलाने या किसी के प्रति आदर, भक्ति प्रकट करने के लिये। जैसे, —(क) ईश्वर के नाम पर कुछ दो। (ख) उसने अपने बाप के नाम पर यह धर्मशाला बनवाई है। किसी के नाम पड़ना = किसी के नाम के आगे लिखा जाना। जिम्मेदार रखा जाना। किसी के नाम डालना = किसी के नाम के आगे लिखना। किसी के जिम्मी रखना। जैसे,— अगर उनसे रुपया वसुल न हो तो मेरे नाम डाल देना। (किसी के) नाम पर मरना या मिटना = किसी के प्रेम में लीन होना। किसी के प्रेम में खपना। प्रेम के आवेश में अपने हानि लाभ या कष्ट की ओर कुछ भी ध्यान न देना। (किसी के) नाम पर जूता न लगाना = किसी को अन्यंत तुच्छ समझना (किसी के) नाम पर बैठना = (१) किसी के भरोसे संतोष करके स्थिर रहना। किसी के ऊपर यह विश्वास करके धैर्य धारण करना या उद्योग छोड़ देना कि जो कुछ उसे करना होगा, करेगा। जैसे,—अब तो ईश्वर के नाम पर बैठ रहते हैं, जो कुछ होना होगा सो होगा। (२) किसी के आसरे में या किसी के ख्याल से कोई ऐसा काम न करना जिसका करना स्वाभाविक या आवश्यक हो। जैसे,—(क) यह स्त्री कब तक अपने पति के नाम पर बैठी रहेगी ओर दूसरा विवाह न करेगी? (ख) कब तक अपने मित्र के नाम पर बैठे रहोगे, उठो तैयारी करो। नाम पुकारना = ध्यान आकर्षित करने या बुलाने के लिये किसी का नाम लेकर चिल्लाना। (किसी का) नाम बद करना = बदनामी करना। कलंक लगाना। दोष लगाना। नाम बदनाम करना = कलंक लगाना। ऐब लगाना। बदनामी करना। (किसी का) नाम बद होना = किसी बुरी बात के लिये किसी का नाम प्रसिद्ध हो जाना। नाम निकल जाना। नाम बाकी रहना = (१) मरने या कहीं चले जाने पर भी कीर्ति का बना रहना। लोगों में स्मरण बना रहना। (२) केवल नाम ही नाम रह नाम और कुछ न रहना। पुरानी बातों के कारण प्रसिद्ध मात्र रह जाना पर उन बातों का न रहना। जैसे,—सिर्फ नाम बाकी रह गया है कुछ जायदाद अब उनके पास नहीं है। नाम बिकना = नाम प्रसिद्ध हो जाने के कारण किसी की वस्तु का आदर होना। नाम मशहूर होने से कदर होना। नाम बिगाड़ना = (१) कोई बुरा कान करके बदनामी करना। (२) बदनामी करना। कलंक लगाना। नाम मिटना = (१) नाम जाता रहना नाम न रहना। स्मारक या कीर्ति का लोप होना। (२) नाम तक शेष न रहना। कोई चिह्न न रह जाना। एक दम अभाव हो जाना। नाम मात्र = नाम लेने भर को। बहुत थोड़ा। अत्यंत अल्प। (कोई) नाम रखना = (१) नाम निश्चित करना। नामकरण करना। (किसी का) नाम रखना = (१) नाम निश्चित करना। नामकरण करना। (२) कीर्ति सुरक्षित रखना। अच्छा या बड़ा काम करके यश को स्थिर रखना। नाम डूबने न देना। जैसे,—यह लड़का अपने बाप का नाम रखेगा। (३) बदनामी करना। निंदा करना। बुरा कहना। दे० 'नाम धरना'। (किसी को) नाम रखना = (१) बदनाम करना। बुरा कहना। दोष लगाना। (२) दोष निकालना। नुक्स निकालना। ऐब बताना। दे० 'नाम धरना'। नाम लगना = किसी दोष या अप- राध के संबंध में नाम लिया जाना। दोष लगना। कलंक मढ़ा जाना। जैसे,—किया किसी ने और नाम लगा हमारा। नाम लगाना = किसी दोष या अपराध के संबंध में नाम लेना। दोष मढ़ना। अपराध लगाना। कलंक लगाना। जैसे,—खुद तुम्हीं ने यह काम किया और अब दूसरे का नाम लगाते हो। (किसी का) नाम लिखना = किसीकार्य या विषय में सम्मिलित करने के लिये रजिस्टर, बही आदि में नाम लिखना। किसी मंडली, संस्था, कार्यालय आदि में सम्मिलित करना। जैसे,—इन लड़के का नाम अभी स्कुल में नहीं लिखा है। (किसी के) नाम लिखना = किसी के नाम के आगे लिखना। किसी के जिम्मे लिखना या टाँकना। जैसे,—इसका दाम हमारे नाम लिख लो। नाम लिखाना = किसी विषय या कार्य में सम्मिलित होने के लिये रजिस्टर बही आदि में नाम लिखाना। किसी मंडली, संस्था या कार्यलय आदि में सम्मिलित होना। जैसे,—इसका नाम स्कुल में जल्दी लिखाओ। (किसी का) नाम लेकर = (१) किसी प्रसिद्ध या बड़े आदमी के नाम से लोगों का ध्यान आकर्षित करके। नाम के प्रभाव से। जैसे,—यह अपने बाप का नाम लेकर भीख माँगेगा और क्या करेगा ? (२) (किसी देवता या पूज्य पुरुष का) स्मरण करके। जैसे,— अब तो भगवान का नाम लेकर इस काम को कर चलते हैं। नाम लेना = (१) नाम का उच्चारण करना। नाम कहना। (२) फलप्राप्ति के लिये या भक्तिवश ईश्वर या देवता का नाम बार बार उच्चारण करना। नाव जपना। नाम स्मरण करना। जैसे,—इस उपकार के लिये वे सदा आपका नाम लेते रहेंगे। (४) चर्चा करना। जिक्र करना। जैसे,—फिर वहाँ जाने का नाम लेते हो। (५) नाम बदनाम करना। दोष लगाना। जैसे,—क्यों व्यर्थ किसी का नाम लेते हो, न जाने किसने यह काम किया है। नाम व निशान = ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे किसी वस्तु के होने का प्रमाण मिले। पता। खोज। जैसे,—यहाँ बस्ती का तो कहीं नाम व निशान नहीं है। नाम व निशान मिट जाना = पता न रह जाना। एकदम नाश हो जाना। नाम व निशान न होना = एकदम अभाव होना। बिल्कुल न होना। एक भी या लेशमात्र न होना। (किसी) नाम से = शब्द द्वारा निर्दिष्ट होकर या करके। जैसे, किसी नाम से पुकारना। (किसी) के नाम से = (१) चर्चा से। जिक्र से। जैसे,— मुझे तो उसके नाम से चिढ़ है। (२) (किसी का) संबंध बताकर। नाम लेकर। यह प्रकट करके कि कोई बात किसी की ओर से है। (किसी की) जिम्मेदारी बताकर। जैसे,—जितना रुपया चाहना मेरे नाम से ले लेना। (३) (किसी को) हकदार या मालिक बनाकर। (किसी के) उपयोग या भोगे के लिये। जैसे,—वह लड़के के नाम से जायदाद खरीद रहा है (४) नाम के प्रभाव से। नाम लेकर। ध्यान आकर्षित करेक। जैसे,—अपने बड़ों के नाम से भीख माँग खाओगे। (५) नाम लेते ही। नाम का उच्चारण होते ही। जैसे,—उसके नाम से वह काँपता है। नाम से काँपना = नाम सुनते ही डर जाना। बहुत भय मानना। नाम होना = (१) नाम लगना। दोष मढ़ा जाना। कलंक लगाना। जैसे,—बुराई कोई करे, नाम हो हमारा। (२) नाम प्रसिद्ध होना। जैसे,—काम तो दूसरे करते हैं, नाम उसका होता हैं। २. अच्छा नाम। सुनाम। प्रसिद्धि। ख्याति। यश। कीर्ति। जैसे,—इधर उनका बड़ा नाम है। क्रि० प्र०—होना। मुहा०—नाम कमाना = प्रसिद्धि प्राप्त करना। कीर्तिलाभ करना। मशहूर होना। नाम करना = कीर्तिलाभ करना। मशहूर होना। नाम करना = कीर्ति लाभ करना। प्रख्यात होना। जैसे,—उसने लड़ाई में बड़ा नाम किया। नाम को धब्बा लगाना = दे० 'नाम पर धब्बा लगना'। नाम को मरना = सुयश के लिये प्रयत्न करना। अच्छा नाम पाने के लिये उद्योग करना। कीर्ति के लिये जी तोड़ परिश्रम करना। नाम चलना = यश स्थिर रहना। कीर्ति का बहुत दिनों तक बना रहना। नाम जगना = नाम चमकना। कीर्ति फैलना। ख्याति होना। नाम जगना = नाम चमकना। उज्वल कीर्ति फैलाना। नाम डुबाना = नाम को कलंकित करना। यश और कीर्ति का नाश करना। मान और प्रतिष्ठा खोना। नाम डूबना = (१) नाम कलंकित होना। यश और कीर्ति का नाश होना। (२) नाम न चलना। किर्ति का लुप्त होना। स्मारक न रहना। नाम पर धब्बा लगाना = नाम को कलंकित करना। यश पर लांछन लगाना। बदनामी करना। जैसे,—क्यों ऐसा काम करके बड़ों के नाम पर धब्बा लगाते हो? नाम पाना = प्रसिद्ध प्राप्त करना। मशहूर होना। नाम रह जाना = लोगं में स्मरण बना रहना। कीर्ति की चर्चा रहना। यश बना रहना। जैसे,—मरने के पीछे नाम ही रह जाता है। नाम के पुजना = नाम प्रसिद्ध होने के कारण आदर पाना। नाम से बिकना = नाम प्रसिद्ध हो जाने से आदर पाना। नाम ही नाम रह जाना = पुरानी बातों के कारण लोगों में प्रसिद्ध मात्र रह जाना, पर उन बातों का न रहना। जैसे,—नाम ही नाम रह गया है, उनके पास अब कुछ है नहीं।
⋙ नाम (२)
संज्ञा पुं [फा०] १. प्रसिद्ध। इज्जत। धाक। दबदबा। २. कुल। वंशपरंपरा। नस्ल। ३. यादगार। स्मारक। ४. कलंक। लांछन [को०]।
⋙ नामक
वि० [सं०] नाम से प्रसिद्ध। नाम धारण करनेवाला। जैसे,—बिहार में पटना नामक एक नगर है।
⋙ नामकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाम रखने का काम। पहचान के लिये नाम निश्चित करने की क्रिया। २. हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से एक जिसमें बच्चो का नाम रखा जाता है। विशेष—यह पाँचवाँ संस्कार है। जन्म से ग्यारहवें था बारहवें दिन बच्चे का नामकरण संस्कार होना चाहिए। ग्यारहवाँ दिन इसके लिये बहुत अच्छा है, यदि ग्यारहवें दिन न हो सके तो बारहवें दिन होना चाहिए। गोभिल गृह्यसूत्र में ऐसी ही व्यवस्था है। स्मृतियों में वर्ण के अनुसार व्यवस्था मिलती है, जैसे क्षत्रिय के लिये तेरहवें दिन, वैश्य के लिये सोलहवें दिन और शूद्र के लिये बाईसवें दिन। गोभिल गृह्यसूत्र मेंनामकरण का विधान इस प्रकार है : बच्चे को अच्छे कपड़े पहनाकर माता वाम भाग में बैठे हुए पिता की गोद में दे। फिर उसकी पीठ की ओर से परिक्रमा करती हुई उसके सामने आकर खड़ी हो। इसके अनंतर पति वेदमंत्र का पाठ करके बच्चे को फिर अपनी पत्नी की गोद में दे दे। फिर होम आदि करके नाम रखा जाय। नामकरण पद्धति में यह विधान, इस रूप में हो गया हैः नामकरण के दिन पिता गौरी, षोडशमात्रिका आदि का पूजन और वृद्धिश्राद्ध करके अपनी पत्नी को वाम भाग में बैठावे, फिर पत्थर की पटरी पर दो रेखाएँ खींचे, फिर दीपक जलाकर यदि लड़का हो तो उसके दाहिने कान के पास 'अमुक देव शर्मा' इत्यादि और लड़की हो तो 'अमुक देवी' इत्यादि कहकर नामकरण करे। नाम के अंत में यदि ब्राह्मण हो तो शर्मा और देव, क्षत्रिय हो तो वर्मा या त्राता, वैश्य हो तो भूमि या गुप्त, और शूद्र हो तो दास होना चाहिए। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार पुरुष का नाम तद्धितांत न होना चाहिए, पर स्त्री का नाम यदि ताद्धितांत हो तो उतना दोष नहीं, जैसे, गांधारी कैकेयी।
⋙ नामकर्म
संज्ञा पुं० [सं० नामकर्मन्] १. नामकरण संस्कार। २. जैन शास्त्रनुसार कर्म का वह भेद जिससे जीव गति और जाति आदि पर्यायों का अनुभव करता है। विशेष—नामकर्म ३४ प्रकार के माने गए हैं—जैसे नरक गति, तिर्यक्, गति, द्विंद्रिय जाति, चतुर्रिद्रिय जाति, अस्थिर, शुभ, अशुभ, स्थावर, सूक्ष्म इत्यादि।
⋙ नामकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर के नाम का जप या उच्चारण। भगवान् का भजन।
⋙ नामकृत
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार असली चीज का नाम छिपाना और उसका दूसरा नाम बताना। कल्पित नाम बतलाना।
⋙ नामग्रह, नामग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] नाम के साथ उल्लेख। नाम लेकर कहना या पुकारना [को०]।
⋙ नामग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] नाम और पता।
⋙ नामजद
वि० [फा० नामजद] १. जिसका नाम किसी बात के लिये निश्चित कर लिया गया हो या चुन लिया गया हो। जैसे,—वे इस साल तहसीलदारी के लिये नामजद हो गए हैं। २. प्रसिद्ध। मशहूर।
⋙ नामजदगी
संज्ञा स्त्री० [फा० नामजादगी] किसी बात या काम के लिये नाम निश्चित करना [को०]।
⋙ नामजाद पु
वि० [फा० नामजद] दे० 'नामजद्—२'। उ०—षाइ लौन स्याम कौ हराम षोर कौसे होइ नामजाद जगत मैं जीत्यौ पन तीनौ हौ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ४८५।
⋙ नामतः
अव्य० [सं० नामतस्] नाम के द्वारा। नाम से [को०]।
⋙ नामदार
वि० [फा०] जिसका बड़ा नाम हो। नामी। प्रसिद्ध।
⋙ नामदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण के उपासक एक प्रसिद्ध भक्त। विशेष—नाभा जी कृत भक्तमाल में इनकी कथा इस प्रकार लिखी है। नामदेव वामदेव जी के नाती (दौहित्र) थे। वामदेव कृष्ण के उपासक थे उसके नामदेव में भी बाल्यावस्था से ही कृष्ण की सच्ची भक्ति थी। वामदेव कुछ दिनों के लिये बाहर गए और अपने दौहित्र नामदेव से कृष्ण की प्रतिमा को प्रति दिन दूध चढ़ाने के लिये कहते गए। नामदेव ने मूर्ति के आगे दूध रखा और पीने की प्रार्थना का। जब मूर्ति ने दूध न पिया तब नामदेव आत्महत्या करने पर उद्यत हुए। इस पर कृष्ण भगवान् ने प्रकट होकर दूध पिया। वामदेव जब लौटकर आए तब उन्हें यह व्यापार देख बड़ा आश्चर्य हुआ। धीरे धीरे यह बात बादशाह के कानों तक पहुँची। उसने नामदेव को बुलाकर करामात दिखाने के लिये कहा। नामदेव ने स्वीकार नहीं किय। एक दिन संयोगवश एक गाय का बछड़ा मर गया और वह उसके शोक में बहुत व्याकुल हुई। नामदेव ने बछड़े को जिला दिया। २. महाराष्ट्र देश के एक प्रसिद्ध कवि जो सन् १३०० के लगभग वर्तमान थे।
⋙ नामद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्रत जिसमें अगहन सुदी तीज को गौरी, काली, उमा, भद्रा दुर्गा काँति सरस्वती, मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा और नारायणी इन बारह देवियों की पूजा होती है (देवीपुराण)।
⋙ नामधन
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर राग जो मल्लार, शंकराभरण, बिलावल, सूहे और केदारे के योग से बना माना जाता है।
⋙ नामधराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाम + घरना] बदनामी। निंदा। अपकीर्ति। क्रि० प्र०—करना।—कराना।—होना।
⋙ नामधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्याकरण में नाम अर्थात् संज्ञा पदों से निर्मित धातु [को०]।
⋙ नामधाम
संज्ञा पुं० [हिं० नाम + धाम] नाम और पता। नाम ग्राम। पता ठिकाना।
⋙ नामधारक
वि० [सं०] केवल किसी नाम को धारण करनेवाला, उस नाम के अनुसार कर्म न करनेवाला। नाम मात्र का। विशेष—जो ब्राह्मण वेदपाठ आदि कर्म न करते हों उन्हें पराशर स्मृति में 'नामधारक' कहा गाय है।
⋙ नामधारी
वि० [सं०] नाम धारण करनेवाला। नामवाला। नामक।
⋙ नामधेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाम। अभिधान। आख्या। निदर्शक। शब्द। २. नामकरण।
⋙ नामधेय (२)
वि० नामवाला। नाम का।
⋙ नामना पु †
क्रि० स० [सं० नमन्] झुकाना। नवाना। प्रणमन करना। उ०—नामौ सीस अनेक नरैसुर, रैत सुखी अणरैह।—रघु० रू० पृ० ६२।
⋙ नामनाभिक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०]।
⋙ नामनिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] नामस्मरण (जैन)।
⋙ नामनिर्देश
संज्ञा पुं० [सं०] नाम का कथन उल्लेख [को०]।
⋙ नामनिशान
संज्ञा पुं० [फा०] चिह्न। पता। ठिकाना। जैसे,— उस मैदान में बस्ती का नाम निशान भी नहीं है।
⋙ नामबोला
संज्ञा पुं० [हिं० नाम + बोलना] नाम लेनेवाला। नाम जपनेवाला। विनय और भक्तिपूर्वक नामस्मरण करनेवाला।
⋙ नाममात्र
वि० [सं०] १. नाम लेने भर का। अत्यंत अल्प। कहने भर को [को०]।
⋙ नाममाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाम अर्थात् संज्ञा शब्दों का क्रमबद्ध संग्रह या अभिधान। पर्यायवाची या अनेकर्थक शब्दों का कोश। जैसे, अनेकार्थ नाममाला।
⋙ नाममुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मुहर जिस पर नाम खुदा हो। वह अँगूठी जिस पर नाम हो [को०]।
⋙ नामयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो यज्ञ केवल नाम या धुमधाम के लिये किया जाय। २. भगवन्नामसंकीर्तन का अनुष्ठान या आयोजन।
⋙ नामरासी
वि० [सं० नाम + राशि] एक ही नामवाला। समान नाम का।
⋙ नामरूप
संज्ञा पुं० [सं०] सबसे आधार स्वरूप अगोचर वस्तु तत्व के परिवर्तनशील नाम रूप या आकार जो इंद्रियों को जान पड़ते हैं तथा उनके भिन्न भिन्न नाम जो भेदज्ञान के अनुसार रखे जाते हैं। विशेष—वेदाँत के अनुसार एक ही अगोचर नित्य तत्व है। जो अनेक भेद दिखाई पड़ते हैं वे वास्तिविक नहीं है। वे केवल रूपों या आकारों के कारण हैं जो इंद्रियों या मन के संस्कार मात्र हैं। समुद्र और तरंग अथवा सोना और गहना दो भिन्न भिन्न नाम है। एकीकरण द्वारा आत्मा सोने और गहने में अथवा समुद्र और तरंग में सामान्य गुणवाला एक ही पदार्थ देखती है। सोना एक पदार्थ है पर भिन्न भिन्न अवसरों पर बदलनेवाले आकारों के जो संस्कार इंद्रियों द्वारा मन पर होते हैं उनके कारण सोने को ही कभी कड़ा, कभी कंगन, कभी अँगूठी इत्यादि कहते हैं। इसी प्रकार जगत् में यावत् दृश्य हैं सब केवल नामरूपात्मक हैं। उनके भीतर वस्तुसत्ता छिपी हुई है। वेदांत में सदा बदलते रहनेवाले नामरूपात्मक रूप दृश्य जगत् को 'मिथ्या' और 'नाशवान्' और नित्य वस्तुतत्व को सत्य वा अमृत कहते हैं।
⋙ नामर्द
वि० [फा०] १. जिसमें पुरुष की शक्ति विशेष न हो। नपुंसक। क्लीव। २. भीरु। डरपोक्। कायर।
⋙ नामर्दा
वि० [फा० नामर्दह्] दे० 'नामर्द'।
⋙ नामर्दी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. नपुंसकता। क्लीवता। २. कायरपन। भीरुता। साहस का अभाव।
⋙ नामलेवा
संज्ञा पुं० [हिं० नाम + लेना] १. नाम लेनेवाला। नाम स्मरण करनेवाला। २. उत्तराधिकारी। संतति। वारिस। जैसे,—नामलेवा रहा न पानी देवा।
⋙ नामवर
वि० [फा०] जिसका बड़ा नाम हो। नामी। प्रसिद्ध। मशहूर।
⋙ नामवरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] कीर्ति। प्रसिद्धि। शुहरत।
⋙ नामवर्जित
वि० [अ०] १. नाम से रहित। नामहीन। २. मूर्ख। बेवकूफ [को०]।
⋙ नामवाचक (१)
वि० [सं०] नाम व्यक्त करनेवाला।
⋙ नामवाचक (२)
संज्ञा पुं० १. नाम। २. व्यक्तिवाचक संज्ञा।
⋙ नामशेष
वि० [सं०] १. जिसका केवल नाम बाकी रह जाय। हो। जो न रह गया हो। नष्ट। ध्वस्त। २. मृत। गत। मरा हुआ। उ०—नामशेष रह जायँ वाम बैरी बस अब से।—साकेत, पृ० ४२०।
⋙ नामष (२)
संज्ञा पुं० मृत्यु। मौत [को०]।
⋙ नामसत्य
संज्ञा पुं० [सं०] किसी व्यक्ति या वस्तु का ठीक ठीक नामकथन चाहे वह नाम उसकी अवस्था या गुण के अनुकूल न हो। जैसे,—लक्ष्मीपति यदि दरिद्र है तो भी उसे लोग लक्ष्मीपति ही कहेंगे। (जैन)।
⋙ नामांक
वि० [सं० नामाङ्क] दे० 'नामांकित' [को०]।
⋙ नामांकित
वि० [सं० नामाङ्कित] जिसपर नाम लिखा हुआ हो या खुदा हो।
⋙ नामांतर
संज्ञा पुं० [सं० नामान्तर] द्वितीय नाम। उपनाम।
⋙ नामा (१)
वि० [सं० नामन्] नामवाला। नामधारी। विशेष—इस शब्द का प्रयोग बहुब्रीहि समास के उत्तर पद में होता है।
⋙ नामा (२)
संज्ञा पुं० नामदेव भक्त।
⋙ नामाकूल
वि० [फा० ना + अ० माकूल] १. अयोग्य। २. अयुक्त। अनुचित।
⋙ नामानुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] अभिधान। कोश [को०]।
⋙ नामापराध
संज्ञा पुं० [सं०] किसी प्रतिष्ठित का नाम लेकर अपशब्द प्रयोग [को०]।
⋙ नामाभिधान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नामानुशासन' [को०]।
⋙ नामावर
संज्ञा पुं० [फा० नामवर] पत्रवाहक। उ०—व कातिल के यहाँ खत ले गया है। खुदा खैर कीजी नामावर की।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० २९।
⋙ नामालूम
वि० [फा० ना + अ० मालूम] जो मालूम न हो। अज्ञात।
⋙ नामावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नामों की पंक्ति। नामों की सूची। २. वह कपड़ा जिसपर चारों ओर भगवान का नाम छपा होता है और जिसे भक्त लोग औढ़ते हैं। रामनामी।
⋙ नामि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।
⋙ नामिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाम संबंधी। संज्ञा संबंधी।
⋙ नामित
वि० [सं०] झुकाया हुआ।
⋙ नामिनेटेड
वि० [अं०] जो किसी पद के लिये चुना गया हो। जो किसी स्थान के लिये पसंद किया गया हो। मनोनीत। नामजद। जैसे, नामिनेटेड मेंबर।
⋙ नामिनेशन
संज्ञा पुं० [अं०] किसी पद के लिये किसी का मनोनीत किया जाना। नामजदगी।
⋙ नामी
संज्ञा पुं० [हिं० नाम + ई (प्रत्य०) अथवा सं० नामिन्] १. नामधारी। नामवाला। जैसे,—रामप्रसाद नामी एक मनुष्य। २. जिसका बड़ा नाम हो। प्रसिद्ध। विख्यात। मशहुर जैसे, नामी आदमी। यौ०—नामी गिरामी।
⋙ नामगिरामी
वि० [फा०; मि० सं० नामग्राम] जिसका बड़ा नाम हो। प्रसिद्ध। विख्यात।
⋙ नामुनासिब
वि० [फा०] अनुचित। अयोग्य। गैरवाजिब।
⋙ नामुमकिन
वि० [फा० ना + अ० मुमकिन] जो कभी न हो सके। असंभव।
⋙ नामुराद
वि० [फा०] जिसका अभीष्ट सिद्ध न हुआ हो। विफलमनोरथ। विशेष—पश्चिम में इस शब्द का प्रयोग प्रायः गाली के रूप में होता है।
⋙ नामुवाफिक
वि० [फा० ना + अ० मुवाफिक] जो मुवाफिक या अनुकूल न हो। प्रतिकूल। विरुद्ध।
⋙ नामूसी
संज्ञा स्त्री० [अ० नामूस (=इज्जत)] बेइज्जती। अप्र- तिष्ठा। बदनामी। निंदा। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नामेहरबान
वि० [फा०] जो मेहरबान न हो। अकृपालु।
⋙ नाम्ना
वि० [वि० स्त्री० नाम्नी] नामवाला। नामधारी।
⋙ नाम्य
वि० [सं०] झुकाने योग्य।
⋙ नायँ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाम] दे० 'नाम'।
⋙ नायँ (२)
अव्य० [हिं०] दे० 'नहीं', 'नाहीं'।
⋙ नाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नय। नीति। २. उपाय। युक्ति। ३. नेता। अगुआ। ४. नेतृत्व। अगुआई।
⋙ नाय † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाव] नाव। नौका। किश्ती।
⋙ नायक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नायिका] १. जनता को किसी ओर प्रवृत्त करने का अधिकार या प्रभाव रखनेवाला पुरुष। लोगों को अपने कहे पर चलानेवाला आदमी। नेता। अगुआ। सरदार। जैसे, सेना का नायक। २. अधिपति। स्वामी। मालिक। जैसे, गणनायक। ३. श्रेष्ठ पुरुष। जननायक। उ०—सब नायक होई जाय बैल फिर कौन लदावै।—पलटू०, भा० १, पृ० ५। ४. साहित्य में शृंगार का आलंबन या साधक रूप-यौवन-संपन्न अथवा वह पुरुष जिसका चरित्र किसी काव्य या नाटक आदि का मुख्य विषय हो। विशेष—साहित्यदर्पण में लिखा है कि दानशील, कृती, सुश्री, रूपवान, युवक, कार्यकुशल, लोकरंजक, तेजस्वी, पंडित और सुशील ऐसे पुरुष को नायक कहते हैं। नायक चार प्रकार कै होते हैं—घीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशांत। जो आत्मश्लाघाराहित, क्षमाशील, गंभीर, महाबलशाली, स्थिर और विनयसंपन्न हो उसे धीरोदात्त कहते हैं। जैसे, राम, युधिष्ठिर। मायावी, प्रचंड, अहंकार और आत्मश्लाधा- युक्त नायक को धीरौद्धत कहते हैं। जैसे, भीमसेन। निश्चित मूदु और नृत्यगीतादिप्रिय नायक को धीरललित कहते हैं। त्यागी और कृती नायक धीरप्रशांत कहलाता है। इन चारों प्रकार के नायकों के फिर अनुकूल, दक्षिण, धृष्ट और शठ ये चार भेद किए गए हैं। श्रृगांर रस में पहले नायक की तीन बेद किए गए हैं—पति, उपपति और वैशिक (वेश्यानुरक्त)। पति चार प्रकार के कहे गए हैं— अनुकूल, दक्षिण, धृष्ट और शठ। एक ही विवाहित स्त्री पर अनुरक्त पति को अनुकूल, अनेक स्त्रियों पर समान प्रीति रखनेवाले को दक्षिणा, स्त्री के प्रति अपराधी होकर बार बार अपमानित होने पर भी निर्लज्जतापूर्वक विनय करनेवाले को धृष्ट और छलपूर्वक अपराध छिपाने में चतुर पति को शठ कहते हैं। उपपति दो प्रकार के कहे गए हैं—वचनचतुर और क्रियाचतुर। ५. हार के मध्य की मणि। माला के बीच का नग। ६. संगीत कला में निपुण पुरुष। कलावंत। ७. एक वर्णवृत्त का नाम। ८. एक राग जो दीपक राग का पुत्र माना जाता है। ९. दस सेनापतियों के ऊपर का अधिकारी। १०. कौटिल्य के अनुसार बीस हाथियों तथा घोड़ों का अध्यक्ष। ११. शाक्य मुनि का नाम (को०)।
⋙ नायका
संज्ञा स्त्री० [सं० नायिका] १. दे० 'नायिका'। २. वेश्या की माँ। ३. कुटनी। दूती।
⋙ नायकाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा। नरेश [को०]।
⋙ नायकी
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग का नाम।
⋙ नायकी कान्हड़ा
संज्ञा पुं० [सं० नायकी + हिं० कान्हड़ा] एक राग, जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
⋙ नायकी मल्लार
संज्ञा पुं० [सं० नायक + मल्लार] संपूर्ण जाति का एक रोग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
⋙ नायणी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नायन] दे० 'नायन'। उ०—सहज ललाई साँपरत प्रीतम प्यारी पाय। निरखै भरमै नायणी जावक दे मिलि जाय।—बाँकौ० ग्रं०, भा० ३, पृ० ३८।
⋙ नायत
संज्ञा पुं० [डिं०] वैद्य।
⋙ नायन, नायनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाई] [स्त्री० नाइन] नाई की स्त्री। नापित का काम करनेवाली स्त्री। उ०— औरन के पाइन दियो, नायनि जावक लाला। प्रान पियारी रावरी परखत तुम्हें रसाल।—मति० ग्रं०, पृ० २९३।
⋙ नायब
संज्ञा पुं० [अ०] १. किसी की ओर से काम करनेवाला। किसी के काम की देखरख रखनेवाला। मुनीम। मुख्तार। २. काम में मदद देनेवाला छोटा अफसर। सहायक। सहकारी। जैसे, नायब दीवान, नायब तहसीलदार।
⋙ नायबी
संज्ञा स्त्री० [अ० नायब + ई (प्रत्य०)] १. नायब का काम। २. नायब का पद।
⋙ नायाब
वि० [फा०] १. जो न मिलता हो। अप्राप्य। २. उत्कृष्ट।
⋙ नायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रूप-गुण-संपन्न स्त्री। वह स्त्री जो शृंगार रस का आलँबन हो अथवा किसा काव्य, नाटक आदि में जिसके चरित्र का वर्णन हो। विशेष—शृंगार में प्रकृति के अनुसार नायिकाओं के तीन भेद बतलाए गए हैं—उत्तमा, मध्यमा, और अधमा। प्रिय के अहितकारी होने पर भी हितकारिणी स्त्री को उत्तमा प्रिय के हित या अहित करने पर हित या अहित करनेवाली स्त्री को मध्यमा और प्रिय के हितकारी होने पर भी अहितकारिणी स्त्री को अधमा कहते हैं। धर्मानुसार इनके तीन भेद हैं— स्वकीया, परकीया और सामान्य। अपने ही पति में अनुराग रखनेवाली स्त्री को स्वीया या स्वकीया, परपुरुष में प्रेंम रखनेवाली स्त्री को परकीया या अन्या और धन के लिये प्रेम करनेवाली स्त्री को सामान्य साधारण या गणिका कहेत हैं। वयःक्रमानुसार स्वकीया तीन प्रकार की मानी गई हैं—मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा। कामचेष्टारहित अंकुरितयौवना को मुग्धा कहते हैं जो दो प्रकार की कही गई है—अज्ञातयोवना और ज्ञातयौवना। ज्ञातयौवना के भी दो भेद भेद किए गए हैं—नवोढ़ा जो लज्जा और भय से पतिसमागम की इच्छा न करे ओर विश्रब्धनवोढ़ा जिसे कुछ अनुराग और विश्वास पति पर हो। अवस्था के कारण जिस नायिका में लज्जा और कामवासना समान हो उसे मध्या कहते हैं। कामकला मे पूर्ण रूप से कुशल स्त्री कौ प्रौढ़ा कहते हैं। इनमें से मध्या और मुग्धा ये दो भेद केवल स्वकीया में ही माने गए है, फिर मध्या और प्रौढ़ा के घीरा, अधीरा और धीराधीरा ये तीन भेद किए गए हैं। प्रिय में परस्त्रीसमागत के चिह्न देख धैर्यसहित सादर कोप प्रकट करनेवाली स्त्री को धीरा, प्रत्यक्ष कोप करनेवाली स्त्री को अधीरा तथा कुछ गुप्त और कुछ प्रकट कोप करनेवाली स्त्री को धीराधीरा कहते हैं। परकीया के प्रथम दो भेद किए गए हैं—ऊढ़ा और अनूढ़ा। विवाहिता स्त्री यदि परपुरुष में अनुरक्त हो तो उसे ऊढ़ा या परोढा और अविवाहिता स्त्री यदि अनुरक्त हो तो उसे अनूढ़ा या कन्यका कहते हैं। इसके अतिरिक्त व्यापारभेद से भी कई भेद किए गए है—जैसे, गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता इत्यादि। नायिकाओं के अट्ठाईस अलंकार कहे गए हैं। इनमें हाव भाव और हेला ये तीन अंगज कहलाते हैं। शोभा, कांति दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य और धैर्य से सात अयलसिद्ध कहे जाते हैं। लीला, विलास, विच्छित्ति, विच्वोक, किल- किंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, विभ्रम, लिलत मद, विकृत, तपन, मौग्ध, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि ये अठारह स्वभावज कहलाते हैं। २. पुराणानुसार दुर्गा की शक्ति। दे० 'अष्टनायिका' (को०)। ३. स्त्री। पत्नी (को०)। ४. एक प्रकार की कस्तूरी (को०)।
⋙ नारंग
संज्ञा पुं० [सं० नारङ्ग] १. नारंगी। २. गाजर। ३. पिप्पलीरस। ४. यमज प्राणी। ५. विट (को०)। ६. पंजाबी ब्राह्मणों की एक उपाधि।
⋙ नारंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [दे० नारङ्ग, अ० नारंज] १. नीबू की जाति का एक मझोला पेड़ जिसमें मीठे सुगंधित और रसीले फल लगते हैं। विशेष—पेड़ इसका नीबू ही का सा होता है। नारंगी का छिलका मुलायम और पीलापन लिए हुए लाल रंग का होता है और गूदे से अधिक लगा न रहने के कारण बहुत सहज में अलग हो जाता है। भीतर पतली झिल्ली से भढ़ी हुई फाँकें होती हैं जिसनें रस से भरे हुए गूदे के रवे होते हैं। एक एक फाँक के भीतर दो या तीन बीज होते हैं। नारंगी गरम देशों में होती है। एशिया के अतिरिक्त युरोप के दक्षिण भाग, अफ्रिका के उत्तर भाग और अमेरिका के कई भागों में इसके पेड़ बीगीचों में लगाए जाते हैं और फल चारों ओर भेजे जाते हैं। भारत में जो मीठी नारंगियाँ होती हैं दे और कई फलों के समान अधिकतर आसाम होकर चीन से आई हैं, ऐसा लोगों का मत है। भारतवर्ष में नारंगियों के लिये प्रसिद्ध स्थान हैं सिलहट, नागपुर, सिकिम, नैपाल, गढ़वाल, कुमायूँ, दिल्ली, पूना और कुर्ग। नारंगी के प्रधान चार भेद कहे जाते हैं—संतरा, कँवला, माल्टा और चीनी। इनमें संतरा सबसे उत्तम जाति है। संतरे भी देशभेद से कई प्रकार के होते हैं। चीन और भारतवर्ष के प्राचीन ग्रंथों में नारंगी का उल्लेख मिलता है। संस्कृत में इसे नागंरंग कहते हैं। 'नाग' का अर्थ है सिंदूर। छिलके के लाल रंग के कारण यह नाम दिया गया। सुश्रुत में नागरंग का नाम आया है। इसमें कोई संदेह न हीं कि युरोप में यह फल अरबवालों के द्वारा गया। २. नारंगी के छिलके का सा रंग। पीलापन लिए हुए लाल रंग।
⋙ नारंगी (२)
वि० पीलापन लिए हुए लाल रंग का।
⋙ नार (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाल, नाड़] १. गला। गरदन। ग्रीवा। मुहा०—नार नवाना =(१) गरदन झुकाना। सिर नीचे की ओर करना। (२) लज्जा, चिंता, संकोच, मान आदि के कारण सामने न ताकना। दृष्टि नीची करना। लज्जित होने, चिंता करने या रूठने का भाव प्रकट करना। उ०—समुझि निज अपराध करनी नार नावति नीचि। बहुत दिन तें बरति है कै आखि दीजै सींधि।—सूर (शब्द०)। नार नींचो करना = दे० 'नार नवाना'। उ०—मान मनायो राधा प्यारी।....कत ह्वै रही नार नीची करि देखत लोचन झूले। सूर (शब्द०)। २. जुलाहों की ढरकी। नाल। ३, पु कमल की डंडी। मृणाल की नाल। उ०—बरनौं गीवँ कूज कै रीसी। कंज नार जनु लागेउ सीसी।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १९२।
⋙ नार † (२)
संज्ञा पुं० १. उल्व नाल। आँवल नाल। वह गर्भस्थ सूत्र जिससे जन्म से पूर्व गर्भस्थ शिशु बँधा रहता है। वि० दे० 'नाल२'। यौ०—नाद्द बेवार। २. नाला। ३. बहुत मोटा रस्सा। ४. सूत की डोरी जिससे स्त्रियाँ घाँघरा कसती हैं अथवा कहीं कहीं धोती की चुनन बाँधती हैं। नारा। नाला। ५. जुबा जोड़ने की रस्सी या तस्मा। ६. चरने के लिये जानेवाले चौपायों का झुंड।
⋙ नार † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० नारी] दे० 'नारी'।
⋙ नार (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरसमूह। मनुष्यों की भीड़। २. तुरंत का जनमा हुआ गाय का बछड़ा। ३. जल। पानी। उ०— हम घट बिरह दून कै दहा। लोयन नार समुँद होइ बहा।— चित्रा०, पृ० १७१। ४. सोंठ। शुंठी।
⋙ नार (५)
वि० १. नरसंबंधी। मनुष्यसंबंधी। २. परमात्मासंबंधी।
⋙ नार (६)
संज्ञा पुं० [फा०] अनार [को०]।
⋙ नार (७)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. आग। अग्नि। उ०—भसम होवे एक दिन में धर दुख की नार।—दक्खिनी०, पृ० १४०। २. नरक (को०)।
⋙ नारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरक। २. नरकस्थ प्राणी। नरक में रहनेवाला व्यक्ति।
⋙ नारक (२)
वि० नरक संबंधी। नरक का [को०]।
⋙ नारकिक
वि० [सं०] नारकी [को०]।
⋙ नारकी
वि० [सं० नारकिन्] नरक भोगनेवाला या नरक में जाने योग्य कर्म करनेवाला। पापी।
⋙ नारकीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कीड़ा। अश्मकीट। २. किसी को आशा देकर निराश करनेवाला अधम मनुष्य।
⋙ नारकीय
वि० [सं०] नरक संबंधी। नरक का। उ०—काली नारकीय छाया निज छोड़ गया वह मेरे भीतर। पैशाचिक सा कुछ दुःखों से मनुज गया शायद उसमें मर।—ग्राम्या, पृ० ३०।
⋙ नारजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना [को०]।
⋙ नारद
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा के पुत्र कहे जाते हैं। ये देवर्षि माने गए हैं। विशेष—वेदों में ऋग्वेद मंडल ८ और ९ के कुछ मंत्रों के कर्ता एक नारद का नाम मिलता है जो कहीं कण्व और कतहीं कश्यपवंशी लिखे गए हैं। इतिहास और पुराणों में नारद देवर्षि कहे गए हैं जो नाना लोकों में विचरते रहते हैं और इस लोक का संवाद इस लोक में दिया करते है। हरिवंश में लिखा है कि नारद ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं। ब्रह्मा ने प्रजासृष्टि की आभिलाषा करके पहले मरीचि, अत्रि आदि को उत्पन्न किया, फिर सनक, सनंदन, सतातन, सनत्कुमार, स्कंद, नारद और रुद्रदेव उत्पन्न हुए (हरिवंश अ० १)। विष्णु पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा ने अपने सब पुत्रों को प्रजासृष्टि करने में लगाया पर नारद ने कुछ बाधा की, इसपर ब्रह्मा ने उन्हें शाप दिया कि 'तुम सदा सब लोकों में मे घूमा करोगे; एक स्थान पर स्थिर होकर न रहोगे।' महाभारत में इनका ब्रह्मा से संगीत की शिक्षा लाभ करना लिखा है। भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि पीछे के पुराणों में नारद के संबंध में लंबी चौ़ड़ी कथाएँ मिलती हैं। जैसे, ब्रह्मावैवर्त में इन्हें ब्रह्मा के कठ से उत्पन्न बताया है और लिखा है कि जब इन्होंने प्रजा की सृष्टि करना अस्वीकार किया तब ब्रह्मा ने इन्हों शाप दिया और गधमादत पर्वत पर उपवर्हण नामक गंधर्व हुए। एक दिन इंद्र की सभा में रंभा का नाच देखते ये कामनीय हो गए। इसपर ब्रह्मा ने फिर शाप दिया कि 'तुम मनुष्य हो'। द्रुमिल नामक गोप की स्त्री कलावती पति की आज्ञा से ब्रह्मवीर्य की प्राप्ति के लिये निकली और उसने काश्यप नारद से प्रार्थना की। अंत में काश्यप नारद के वीर्यभक्षण से उसे गर्भ रहा। उसी गर्भ से गंधर्व देह त्याग नारद उत्पन्न हुए। पुराणों में नारद बड़े भारी हरिभक्त प्रसिद्ध हैं। ये सदा भगवान् का यश वीणा बजाकर गाया करते हैं। इनका स्वभाव कलहप्रिय भी कहा गया है इसी से इधर की उधर लगानेवाले को लोग 'नारद' कह दिया करते हैं। २. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम (महाभारत)। ३. एक प्रजापति का नाम। ४. कश्यप मुनि की स्त्री से उत्पन्न एक गंधर्व। ५. चौबीस बुद्धों में से एक। ६. शाकद्वीप का एक पर्वत (मत्यस्य पु०)। ७. वह व्यक्ति जो लोगों में परस्पर झगड़ा लगाता हो। लड़ाई करनेवाला। ८. जलद।
⋙ नारदपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अठारह महापुराणों में से एक। इसमें सनकादिक ने नारद को संबोधन करके कथा कही है और उपदेश दिया है। इसमें कथाओं के अतिरिक्त तीर्थों और व्रतों के महत्स्य बहुत अधिक दिए हैं। २. बृहन्नारदीय नामक एक उपपुराण।
⋙ नारदान पु
संज्ञा पु० [हिं०] जल निकलने की नाली। दे० 'नाबदान'। उ०—न्यारे न्यारे नारदान मूँदौंगी झरोखा जाल, पाइहै न पानी, पौन आवन न पावौगी।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १५६।
⋙ नारदी
संज्ञा पुं० [सं० नारदिन्] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ नारदीय
वि० [सं०] नारद का। नारद संबंधी। जैसे, नारदीय पुराण।
⋙ नारना
क्रि० स० [सं० ज्ञान, प्रा० णाण + हिं०ना] थाह लगाना। पता लगाना। भाँपना। ताड़ना। उ०—राधा मन में यहै विचारति।...मोहू ते ये चतुर कहावति ये मन ही मन मोको नारति। ऐसे बचन कहूँगी इन पै चतुराई इनकी मैं झारति।—सूर०, १०। १७७१।
⋙ नारफिक
संज्ञा पुं० [अं०] विलायती घोड़ों की एक जाति जो नारफाक प्रदेश में पाई जाती है। इस जाति के घोड़े डीलडौल में बड़े, सुंदर और मजबूत होते हैं।
⋙ नार बेवार †
संज्ञा पुं० [हिं० नार + सं० बिवार (= फैलाव)] आँवला नाल। नाल और खेड़ी आदि। नारापोटी। उ०—नार बेवार समेत उठावा। लै वसुदेव चले तम छावा।—विश्राम (शब्द०)।
⋙ नारमन
संज्ञा पुं० [अं०] १. फ्राँस के नारमंडी प्रदेश का निवासी। २. जहाज का रस्सा बाँधने का खूँटा।
⋙ नारबोर †
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल] नारियल। उ०—कहुँ केर केलं कहूँ नारबोरं।—प० रासी, पृ० ५५।
⋙ नारसिंह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरसिंह रूपधारी विष्णु। विशेष—तैत्तिरीय आरण्यक में नारसिंह की गायत्री मिलती है। २. एक तंत्र का नाम। ३. एक उपपुराण जिसमें नरंसिंह अवतार की कथा है। ४. १६ वें कल्प का नाम (को०)।
⋙ नारसिंह (२)
वि० दे० 'नारसिंही'।
⋙ नारसिंही
वि० [सं० नारसिंह + ई (प्रत्य०)] नारसिंह संबंधी। यौ०—नारसिंही टोना = बड़ा गहरा टोना।
⋙ नारांतक
संज्ञा पुं० [सं० नारन्तक] एक राक्षक जो रावण के पुत्रों में कहा गया है।
⋙ नारा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जल (मनु०)।
⋙ नारा (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाल, हिं० नार] १. सूत की डोरी जिससे स्त्रियाँ घाघरा कसती हैं अथवा कहीं कहीं धोती की चुनन बाँधती हैं। इजारबंद। नीबी। दे० 'नाड़ा'। उ०—नाराबंधन सुथन जथन।—सूर (शब्द०)। २. लाल रंग हुआ कच्चा सूत जो पूजन में देवताओं को चढ़ाया जाता है। मौली। कुसुंभ सूत्र। ३. हल के जुवे में बँधी हुई रस्सी। ४. बरसाती पानी के बहने का प्राकृतिक मार्ग। छोटी नदी। नाला। उ०—(क) चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।—मानस, १। १३३। (ख) बिच बिच खोह नदी औ नारा।—जायसी ग्रं०, (गुप्त०), पृ० २१२। ५. दे० 'नार (२)'।
⋙ नारा (३)
संज्ञा पुं० [फा० नालहु] १. आवाज। शोर। २. सामूहिक आवाज। किसी माँग की और ध्यान दिलाने या प्रसन्नता और उत्साह व्यक्त करने के लिये बार बार बुलंद की जानेवाली सामूहिक आवाज।
⋙ नाराइन
संज्ञा पुं० [सं० नारायण] दे० 'नारायण'।
⋙ नाराच
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे का बाण। वह तीर जो सारा लोहे का हो। विशेष—शर में चार पंख लगे रहते हैं और नाराच में पाँच। इसका चलाना बहुत कठिन है। २. वाण। तीर। ३. दुर्दिन। ऐसा दिन जिसमें बादल घिरा हो, अंघड़ चले और इसी प्रकार के और उपद्रव हों। ४. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और चार रगण होते हैं। इसे 'महामालिनी' और 'तारका' भी कहते हैं। ५. २४ मात्राओं का एक छंद। जैसे,—तवै ससैन काल जीत बाल तीर जाय कै। ६. जलहस्ती (को०)। ७. एक प्रकार का घृत (वैद्यक)।
⋙ नाराचघृत
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक घृत जो घी में चीते की जड़, त्रिफला, भटकैया, बायबिडंग, आदि पकाकर बनाया जाता है और उदररोग में दिया जाता है।
⋙ नाराचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नाराची' [को०]।
⋙ नाराची
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा तराजू जिसमें बहुत छोटी छोटी चीजों तौली जाती हैं। सुनारों का काँटा।
⋙ नाराज
वि० [फा० नाराज] अप्रसन्न। रुष्ट। नाखुश। खफा। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाराजगी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाराजगी] अप्रसन्नता।
⋙ नाराजी
संज्ञा स्त्री० [फा० नाराजी] अप्रसन्नता। अकृपा। कोप।
⋙ नारायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। भगवान। ईश्वर। विशेष—इस शब्द की व्युत्पत्ति ग्रथों में कई प्रकार से बतलाई गई हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि 'नर' परमात्मा का नाम है। परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने का कारण जल को 'नारा' कहते हैं। जल जिसका प्रथम अयन या अधिष्ठान है उस परमात्मा का नाम हुआ 'नारायण'। महाभारत के एक श्लोक के भाष्य में कहा गया है कि नर नाम है आत्मा या परमात्मा का। आकाश आदि सबसे पहले परमात्मा से उत्पन्न हुए इससे उन्हें नारा कहते हैं। यह 'नारा' कराणस्वरूप होकर सर्वत्र व्याप्त है इससे परमात्मा का नाम नारायण हुआ। कई जगह ऐसा भी लिखा है कि किसी मन्वतंर में विष्णु 'नर' नामक ऋषि के पुत्र हुए थे जिससे उनका नाम नारायण पड़ा। ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में और भी कई प्रकार की व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हैं। तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण की गायत्री है जो इस प्रकार है—'नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है। जैन लोग नरनारायण को ९ वासुदेवों में से आठवाँ वासुदेव कहते हैं। २. पूस का महीना। ३. 'अ' अक्षर का नाम। ४. कृष्ण यजुर्वेद के अंतर्गत एक उपनिषद्। ५. नर ऋषि के सखा। उ०— नर नारायण की तुम दोऊ।—मानस, ४। ५। ६. अजामिल का एक पुत्र (को०)। ७. नारायणी सेना (महाभारत)। ८. एक प्रकार का चूर्ण जो दवा के काम में आता है (को०)। ९. धर्मपुत्र नामक एक ऋषि। १०. एक अस्त्र का नाम।
⋙ नारायणक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा के प्रवाह से चार हाथ तक की भूमि (बृहदधर्म पुराण)।
⋙ नारायणतैल
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद में एक प्रसिद्ध तैल। विशेष—तिल के तेल में असगंध, भटकटैया, बेल की जड़ की छाल, देवदार, जटामासी इत्यादि बहुत सी दवाएँ पकाकर इस तेल कौ तैयार करते हैं।
⋙ नारायणप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. सहदेव। ३. पीतचंदन।
⋙ नारायणबलि
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मघात द्वारा बुरी तरह से मरनेवाले पतित मृतक के प्रायश्चित्त के लिये एक बलिकर्म जो नारायण आदि पाँच देवताओं के उद्देश्य से किया जाता है। विशेष—आत्महत्या करनेवाले के और्ध्वदैहिक क्रिया नियमा- नुसार समय पर नहीं की जाती। मृत्यु के एक वर्ष पर नारायणबलि और पर्णनर दाह (फूस के पुतले का दाह) करके तब श्राद्धिदिक किए जाते हैं। आत्मघाती का जो दाह आदि करता है उसे भी प्रायश्चित करना चाहिए।
⋙ नारायणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. गंगा। ४. सतावर। ५. मुद्गल मुनि की स्त्री का नाम। ६. श्रीकृष्ण की सेना का नाम जिसे उन्होने कुरुक्षेत्र के युद्ध में दुर्योधन की सहायता के लिये दिया था। ७. सदानीरा नदी जिसमें नारायणशिला मिलती है।
⋙ नारायणी (२)
विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
⋙ नारायणीय (१)
वि० [सं०] नारायणसंबंधी।
⋙ नारायणीय (२)
संज्ञा पुं० महाभारत का एक उपाख्यान जिसमें नारद और नारायण ऋषि की कथा है। यह शांति पर्व में है।
⋙ नाराशंस (१)
वि० [सं०] प्रशंसासंबंधी। जिसमें मनुष्यों की प्रशंसा हो। स्तुतिसंबंधी।
⋙ नाराशंस (२)
संज्ञा पुं० १. वेदों के वे मंत्र जिनमें कुछ विशेष मनुष्यों, जैसे, राजाओ आदि को प्रशंसा होती है। प्रशस्ति। दानस्तुति आदि।२. वह चमचा जिससे पितरों को सोमपान दिया जाता है। ३. पितरों के लिये चमचे में रखा हुआ सोम। ४. पितर।
⋙ नाराशंसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनुष्यों को प्रशंसा। २. वेद में मंत्रो का वह भाग जिसमें राजाओं के दान आदि की प्रशसा है।
⋙ नारिग पु
संज्ञा पुं० [सं० नारङ्ग] नारंगी। उ०—कच मग्ग भूमि चिहुकोद गस्सि। नारंगि सुमन दारिम विगस्सि।—पृ० रा०, १४। ६६।
⋙ नारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० नारी] १. दे० 'नारी'। उ०—ऐहैं पीव बिचारि यों नारि फेर फिरि जाय।—मति० ग्रं०, पृ० ३०६। २. ग्रीवा। गर्दन। उ०—तुम सुनिओ सासु हमारी, मेरी नारि कौ हंसुला भारी। तुम सुनिओ जेठानी हमारी मेरे बाँह बाजूबद भारी।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४।
⋙ नारिक
वि० [सं०] १. जलील। जल का। जलसंबंधी। २. आत्मसंबंधी। आध्यात्मिक।
⋙ नारिकेर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नारिकेल'।
⋙ नारिकेल
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल।
⋙ नारिकेलक्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारियल की गिरी की बनी हुई एक प्रकार की खीर या मिठाई। विशेष—गिरी के महीन महीन टुकड़ों को घी और चीनी के साथ गाय के दूध में पकाते हैं, गाढ़ा होने पर उतार लेते हैं।
⋙ नारिकेलखंड
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल खण्ड] एक औषध जो नारियल की गिरी से बनती है। विशेष—नारियल की गिरी को पीसकर घी में मिलावे और फिर चीनी मिले हुए नारियल के पानी में उसे डालकर पक डाले। पक जाने पर उसमें धनिया, पीपल, वंशलोचन, इलायची, नागकेसर, जीरे और तेजपत्ते का चूर्ण डालकर मिला दे। इसके सेवन से अम्लपित्त, अरुचि, क्षयरोग, रक्तपित्त और शूल दूर होना है तथा पुरुषत्व की वृद्धि होती है।
⋙ नारिकेली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नारियल की बनी मदिरा। २. नारियल [को०]।
⋙ नारिगोरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाल + गोली] बारूद। बंदूक की गोली। उ०—नारिगोरि सा बत्ति राज मंडी चावद्दिसि।—पृ० रा०, २६। ७५।
⋙ नारियल
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल] १. खजूर की जाति का एक पेड़ जिसके फल की गिरी खाई जाती है। विशेष—खंभे के रूप में इसका पेड़ पचास साठ हाथ तक ऊपर की ओर जाता है। इसके पत्ते खजूर की के से होते हैं। नारियल गरम देशों में ही समुद्र का किनारा लिए हुए होता है। भारत के आस पास के टापुओं में यह बहुत होता है। भारतवर्ष में समुद्रतट से अधिक से अधिक सौ कोस तक नारियल अच्छी तरह होता है, उसके आगे यदि लगाया भी जाता है तो किसी काम का फल नहीं लगता। फूल इसके सफेद होते हैं जो पतली पतली सींकों में मंजरी के रूप में लगते हैं। फल गुच्छों में लगते हैं जो बारह चौदह अंगुल तक लंबे और छह सात अंगुल तक चौड़े होते हैं। फल देखने में लंबोतरे और तिपहले दिखाई पड़ते हैं। उनके ऊपर एक बहुत कड़ा रेशेदार छिलका होता है जिसके नीचे कड़ो गुठलो ओर सफेद गिरी होती है जो खाने में मीठी होती है। नारियल के पेड़ लगाने की रीति यह है कि पके हुए फलों को लेकर एक या डेढ़ महीने घर मे रख छोड़े। फिर बरसात में हाथ डेढ़ हाथ गड्ढे खोदकर उनमें गाड़ दे और राख और क्षार ऊपर से डाल दे। थोड़े ही दिनों में कल्ले फूटेंगे क्षौर पौधे निकल आवेगे। फिर छह महीने या एक वर्ष में इन पौधों को खोदकर जहाँ लगाना हो लगा दे। भारतवर्ष में नारियल बंगाल, मदरास और बबई प्रांत में लगाए जाते हैं। नारियल कई प्रकार के होते हैं। विशेष भेद फलों के रंग और आकार में होता है। कोई बिल्कुल लाल होते हैं, कोई हरे होते हैं और कोई मिले जुले रंग के होते हैं। फलों के भीतर पानी या रस भरा रहता है जो पीने में मीठा होता है। नारियल बहुत से काभों में आता है। इसके पत्तों की चटाई बनती है जो घरों में लगती है। पत्तों की सींकों के झाड़ू बनते हैं। फलों के ऊपर जो मोटा छिलका होता हैं उससे बहुत मजबूत रस्से तैयार होते हैं। खोपड़े या गिरी के ऊपर के कड़े कोश को चिकना और चमकीला करके प्याले और हुक्के बनाते हैं। गिरी मेवों में गिनी जाती है। गिरी से एक मीठा गाढ़ा जमनेवाला तेल निकलता है जिसे लोग खाते भी हैं और लगाते भी। पूरी लकड़ो के घर की छाजन में इसका बरेरा लगता है। बबई प्रांत में नारियल से एक प्रकार का मद्य या ताड़ी बनाते है। वैद्यक में नारियल का फल, शीतल, दुर्जर, वृष्य तथा पित्त और दाहनाशक माना जाता है। नाजे फल का पानी शीतल, हृदय को हितकारी, दीपक और वीर्यवर्द्धक माना जाता है। एशिया में रूप और मडागास्कर द्विप से लेकर पूर्व की ओर अमेरिकी के तट तक नारियल के जो नाम प्रचलित हैं वे प्रायः सं० नारिकेल शब्द ही के विकृत रूप हैं। यह बात प्रायः सर्वसम्मत है कि नारियल का आदिस्थान भारत और बरमा के दक्षिण के द्विप (मालद्विप, लकद्विप, सिंहल, अंडमान, सुमात्रा, जावा इत्यादि) ही है। नारिकेल का उल्लेख वैदिक ग्रंथों में तो नहीं मिलता पर महाभारत,सुश्रुत आदि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। कथासरित्सागर में 'नारिकेल द्विप' का उल्लेख है। पर्या०—नारिकेल। लांगली। सदापुष्प। शिरःफल। रसफल। सुतुंग। कूच्चंशेखर। दृढ़नील। नीलतरु। मंगल्य। तृणराज। स्कधतरु। दक्षिणात्य। त्र्यंबकफल। दृढ़फल। तुंग। सवाफल। कौशिकफल। फलमुंड। विश्वामित्राप्रिय। यौ०—नारियल का खोपड़ा = नारियल की कड़ी गुठली जिसके भीतर गिरी की तह रहती है। मुहा०—नारियल तोड़ना = मुसलमानों की एक रीति जो गर्भ रहने पर की जाती है। नारियल तोड़कर उससे लड़का या लड़की पैदा होने का शकुन निकालते हैं। २. नारियल का हुक्का।
⋙ नारियलपूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [देश०] दक्षिण देश (बंबई प्रांत) का एक त्योहार जिसमें लोग नारियल ले लेकर समुद्र में फेंकते हैं। यह आषाढ़ सावन में होती है।
⋙ नारियली
संज्ञा स्त्री० [हिं० नारियल] १. नारियल का खोपड़ा। २. नारियल का हुक्का। ३. नारियल की ताड़ी।
⋙ नारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। औरत। २. तीन गुरु वर्णों की एक वृत्ति। जैसे—माधो ने। दी तारी। गोपों की। है नारी।
⋙ नारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाडि] पानी के किनीरे रहनेवाली एक चिड़िया जिसके पैर ललाई लिए भूरे होते हैं। पीठ और पूँछ भी भूरी होती है।
⋙ नारी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नार] १. वह रस्सी जिससे जुए में हल बाँधते हैं। नार। २. रथ और अश्व को युक्त करने वाली रज्जु या चमड़े का तस्मा। उ०—सुंदर रथ न चलै बिन नारी।—सुंदर०, भा० १, पृ० ३५३।
⋙ नारी पु † (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० नाड़ी] दे० 'नाड़ी'।
⋙ नारी पु † (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'नाली'।
⋙ नारीकवच
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यवंशीय मूलक राजा। विशेष—यह अश्मक का पुत्र और सौदास का पौत्र था। जब परशुराम क्षत्रियों का नाश कर रहे थे तब इन्हें स्त्रियों ने घेरकर बचा लिया था इसी से यह नाम पड़ा। इन्ही से क्षत्रियों का फिर वंशविस्तार हुआ, इससे इन्हें मूलक कहते हैं।
⋙ नारीकेल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० नारीकेली] नारियल।
⋙ नारीच
संज्ञा पुं० [सं०] नालिता शाक।
⋙ नारीतरंगक
संज्ञा पुं० [सं० नारीतङ्गक] स्त्रियों के चित्त को चंचल करनेवाल पुरुष। जार। व्यभिचारी।
⋙ नारीतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक तीर्थ जहाँ पाँच अप्सराएँ ब्राह्मण के शाप से जलजंतु हो गई थीं। अर्जुन ने इनका शाप से उद्धार किया था।
⋙ नारीदूषण
संज्ञा पुं० [सं०] मनु द्वार कथित नारियों के दस दोष [को०]।
⋙ नारीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार कूर्म विभाग से नैऋर्त की ओर एक देश।
⋙ नारीष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मल्लिका। चमेली।
⋙ नारुंतुद
वि० [सं० नारुन्तुद] १. जिसके शरीर पर किसी प्रकार का आघात न लग सके। अनाहत। २. जो अरुंतुद (मर्मपीड़क) न हो।
⋙ नारु पु †
संज्ञा पुं० [सं० नाल] उल्व नाल। आवल नाल। दे० 'नाल'। उ०—आवौ, आवौ, दाई री मेरी आवौ, नेक हँसि के नारु कटावौ।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ९१३।
⋙ नारू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. जूँ। ढोल। २. एक रोग। विशेष—इस रोग में शरीर पर विशेषतः कटि के नीचे जंघा, टाँग आदि में फुंसिया सी हो जाती हैं और उन फुंसियों में से सूत सा निकलता है। यह सूत वास्तव में कीड़ा होता है जो बढ़ते बढ़ते कई हाथ की लंबाई का हो जाता है। ये कीड़े जब त्वचा के तंतुजाल में होते हैं तब नारू या नहरुवा होता है, जब रक्त की नालियों में होते हैं तब श्लीपद या फीलापाव रोग होता है। नारू का रोग प्रायः गरम देशों में ही होता है। ये कीड़े कई प्रकार के होते हैं। अधिकतर तो जीवधारियों के शरीर के भीतर रहते हैं पर कुछ तालों और समुद्र के जल में भी पाए जाते हैं। सिरके का कीड़ा इसी जाति का होता है। ये कीट यद्यपि पेट के केचुए से सूक्ष्म होते हैं तथापि इनकी शरीररचना केचुओं की अपेक्षा अधिक पूर्ण रहती है। इन्हें मुँह होता है, अलग अँतड़ी होती है, इनमें भेद होता है।
⋙ नारू † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० नाली, पुं० हिं० नारी] वह बोआई जो क्यारियों में होती है।
⋙ नारेल पु †
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल] नारियल। उ०—खिरनी सकेलि नारेल बृंद।—ह० रासो, पृ० ३५६।
⋙ नार्थ
संज्ञा पुं० [अं०] उत्तर दिशा।
⋙ नार्पत्य
वि० [सं०] नृपसंबंधी। राजा से संबंध रखनेवाला।
⋙ नार्मद (१)
वि० [सं०] नर्मदासंबंधी। नर्मदा नदी का।
⋙ नार्मद (२)
संज्ञा पुं० शिवलिंग जो नर्मदा में पाया जाता है।
⋙ नार्मर
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेद में वर्णित एक असुर जिसे इंद्र ने मारा था।
⋙ नार्यंग
संज्ञा पुं० [सं० नार्यङ्ग] नारंगी।
⋙ नार्यतिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] चिरायता।
⋙ नालंदा
संज्ञा पुं० [देश०] बौद्धों का एक प्राचीन क्षेत्र और विद्यापीठ जो मगध में पटने से तीस कोस दक्खिन और बड़गाँव से ग्यारह कोस पश्चिम था। किसी किसी का मत है कि यह स्थान वहाँ था जहाँ आजकल तेलाढा है। विशेष—बौद्ध यात्रियों के विवरण से जाना जाता है कि पहले पहल महाराज अशोक ने नालंदा में एक मठ स्थापित किया। चीनी यात्री उएनचांग (ह्वैन साँग) ने लिखा है कि पीछे शंकर और मृग्दगोमी नामक दो ब्राह्मणों ने इस मठ कोफिर से बड़े विशाल आकार में बनवाया। इसकी दीवारेँ जो इधर उधर खड़ी मिलती हैं उनमें से कई तीस बत्तीस हाथ ऊँची हैं। कहते हैं, इस विद्यापीछ में रहकर नागार्जुन ने कुछ दिनों तक उक्त शंकर नामक ब्राह्मण से शास्त्र पढ़ा था। सन् ६३७ ईसवी में प्रसिद्ध चीनी यात्री उएनचांग ने इस विद्यापीठ में जाकर प्रज्ञाभद्र नामक एक आचार्य से विद्याध्ययन किया था। उस संय इतना बड़ा मठ और इतना बड़ा विद्यापीठ भारत में और कहीं नहीं था। जहाँ सैकड़ों आचार्य और दस हजार से ऊपर ऊपर याजक और शिष्य निवास करते थे। जिस समय काशी में बुद्धपक्ष नामक राजा राज्य करते थे उस समय इस मठ में आग लगी और बहुत सी पुस्तकें जल गई।
⋙ नालंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० नालम्बी] शिव की वीणा [को०]।
⋙ नाल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमल, कुमुद, आदि फूलों की पोलो लंबी डंडी। डांड़ी। २. पौधे का डंठल। कांड। ३. गेहूँ, जो आदि की पतली लंबी डंडी जिसमें बाल लगती है। ४. नली। नल। ५. बंदुक की नली। बंदुक के आगे निकला हुआ पोला डंडा। ६. सुनारों की फुँकनी। ७. जुलाहों की नली जिसमें वे सूत लपेटकर रखते हैं। छूँछा। कैंडा। छुज्जा। ८. वह रेशा जो कलम बनाते समय छिलने पर निकलता है। विशेष—डंठल या डंडी के अर्थ में पूरब में इसे पुं० बोलते हैं। पुरानी कविताओं में भी प्रायः पुं० मिलता है।
⋙ नाल (२)
संज्ञा पुं० १. रक्त की नालियों तथा एक प्रकार के मज्जातंतु से बनी हुई रस्सी के आकार की वस्तु जो एक ओर तो गर्भस्थ बच्चे की नाभि से और दूसरी ओर गोल थाली के आकार में फैलकर गर्भाशय की दीवार से मली होती है। आँवल नाल। उल्लनाल। नार। नार। विशेष—इसी नाल के द्वारा गर्भस्थ शिशु माता के गर्भ से जुड़ा रहता है। गर्भाशय की दीवार से लगा हुआ जो उभरा हुई थाली की तरह का गोल छत्ता होता है उसमें बहुत सी रक्तवाहिनी नसें होती हैं जो चारों ओर से अनेक शाखा प्रशाखाओं में आकार छत्ते के केंद्र पर मिलती हैं जहाँ से नाल शिशु की नाभि की ओर गया रहता है। इस छत्ते और नाल के द्वार माता के रक्त के योजक द्रव्य शिशु के शरीर में आते जाते रहते हैं, जिससे शिशु के शरीर में रक्तसंचार, श्वास प्रश्वास और पोषण की क्रिया का साधन होता है। यह नाल पिंडल जीवों ही में होता है इसी से वे जरायुज कहलाते हैं। मनुष्यों में बच्चा उत्पन्न होने पर यह काटकर अलग कर दिया जाता है। क्रि० प्र०—काटना। मुहा०—क्या किसी का नाल काटा है ? = क्या किसी की दाई है। क्या किसी को जनानेवाली है। क्या किसी की बड़ी बूढ़ी है। जैसे,—क्या तूने ही नाल काटा है ? (स्त्रि०)। कहीं पर नाल गड़ना =(१) कोई स्थान जन्मस्थान के समान प्रिय होना। किसी स्थान से बहुत प्रेम होना, जल्दी न हटना। (२) किसी स्थान पर अधिकार होना। दावा होना। जैसे,—यहाँ क्या तेरा नाल गड़ा है? नाल छीनना= नाल काटना। २. लिंग। ३. हरताल। ४. जल बहने का स्थान। ५. जल में होनेवाला एक पौधा। ६. एक प्रकार का बाँस जो हिमालय के पूर्वभाग, आसाम और बरमा आदि में होता है। टोली। फफोल।
⋙ नाल (३)
संज्ञा पुं० [अ० नाल] १. लोहे का वह अर्धचंद्राकार खंड जिसे घोड़ो की टाप के नीचे या जूतों की एड़ी के नीचे रगड़ से बचाने के लिये जड़ते हैं। क्रि० प्र०—जड़ना।—बाँधना। २. तलवार आदि के म्यान की साप जो नोक पर मढ़ी होती है। ३. कुंडलाकार गढ़ा हुई पत्थर का भारी टुकड़ा जिसके बीचोबीच पकड़कर उठाने के लिये एक दस्ता रहता है। इसे बलपरीक्षा या अभ्यास के लिये कसरत करनेवाले उठाते हैं। क्रि० प्र०—उठाना। ४. लकड़ी का वह चक्कर जिसे नीचे डालकर कुएँ की जोड़ाई होती है। ५. वह रुपया जिस जुआरी जुए का अड्डा रखनेवाले को देता है। ६. जुए का अड्डा। क्रि० प्र०—रखना। ६. † पर्वत की घाटी। उ०—नाल वपत कुरमालरी, आयो भाल जवन्न।—रा० रू०, पृ० ३४०।
⋙ नालकटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाल + कटाई] १. तुरत के जनमे हुए बच्चे की नाभि में लगे हुए नाल को काटने का काम। २. नाल काटने की मजदूरी।
⋙ नालकी
संज्ञा स्त्री० [सं० नाल (=डंडा)] इधर उधर से खुली पालकी जिसपर एक मिहराबदार छाजन होती है। ब्याह में इसपर दूल्हा बैठकर जाता है। उ०—चढ़ि नालकी नरेश तहँ संयुत चारि कुमार। रंगमहल गवनत भए संग सचिव सरदार।—(शब्द०)।
⋙ नालकेर
संज्ञा पुं० [सं० नारिकेल] दे० 'नारियल'। उ०—कहूँ नालकेरं रुचेरू बदामं।—प० रासो, पृ० ५५।
⋙ नालत †
संज्ञा स्त्री० [फा० लानत] लानत। धिक्कार। उ०— नालत इस दुनियाँ को जो दीन से बेदीन करै। खाक ऐसे खआने जिन ईमान बेंच लिया है।—मलूक०, पृ० ३१।
⋙ नालबंद
संज्ञा पुं० [अ० नाल + फा० बंद] जूते की एड़ी या घोड़े की टाप में नाल जड़नेवाला आदमी।
⋙ नालबंदी
संज्ञा स्त्री० [अ०] नाल जड़ने का कर्म।
⋙ नालबाँस
संज्ञा पुं० [सं० नल + हिं० बाँस] एक प्रकार का बाँस जो हिमालय के अंचल में जमुना के किनारे से लेकर पूरबी बंगाल और आसाम तक होता है। यह सीधा, मजबूत ओर कड़ा होने के कारण बहुत अच्छा समझा जाता है।
⋙ नालवंश
संज्ञा पुं० [सं०] नल। नरसल। नरकट।
⋙ नालशतीरी
संज्ञा पुं० [अ० नाल + फा० शहतीर] लकड़ी की एक प्रकार की मेहराब जिसमें कई छोटी मेहराबें कटी होती हैं।
⋙ नालशाक
संज्ञा पुं० [सं०] सूरन की नाल जिसकी तरकारी बनाकर लोग खाते हैं।
⋙ नाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाल, नालक] [स्त्री० अल्पा० नाली] १. पृथ्वी पर लकीर के रूप में दूर तक गया हुआ गड्ढा जिससे होकर बरसाती पानी किसी नदी आदि में जाता है। जलप्रणाली। २. उक्त मार्ग से बहता हुआ जल। जलप्रवाह। क्रि० प्र०—बहना। ३. रंगीन गंडेदार सूत। दे० 'नाड़ा'।
⋙ नाला (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाल] कमल का दंड [को०]। यौ०—नालायंत्र = बंदूक। आग्नेयास्त्र।
⋙ नाला (३)
संज्ञा पुं० [फा०] पुकार। आर्तनाद। चिल्लाहट। जोर की आवाज [को०]।
⋙ नालयक
वि० [फा० ना + अ० लायक] अयोग्य। निकम्मा। मूर्ख।
⋙ नालायकी
संज्ञा स्त्री० [फा० ना + अ० लायक] नालायक का भाव। अयोग्यता।
⋙ नालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'नाली (२)'।
⋙ नालिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. भैंसा। ३.एक अस्त्र का नाम जिसकी नली में कुछ भरकर चलाते थे। ४. एक प्रकार की बाँसुरी (को०)।
⋙ नालिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी नाल या डंठल। २. नाली। ३. जुलाहों की नली जिसमें वे लपेटा हुआ सूत रखते हैं। ४. नालिया शाक। पटुआ साग। ५. हाथी के कान छेदने का उपकरण या औजार (को०)। ६. घटी। २४ अथवा ९० मिनट का समय (को०)। ६. एक प्रकार का गंधद्रव्य।
⋙ नालिकेर
संज्ञा पुं० [सं०] नारिकेल। नारियल।
⋙ नालिकेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का शाक।
⋙ नालिकेलि, नालिकेली
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारियल [को०]।
⋙ नालिजंघ
संज्ञा पुं० [सं० नालिजङ्घ] द्रोणकाक। डोम कौवा।
⋙ नालिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पटुआ जिसके कोमल पत्तों का साग बनता हैं।
⋙ नालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाक के एक छेद अर्थात् नथने का तांत्रिक नाम।
⋙ नालियर पु
संज्ञा पुं० [सं० नालिकेर] दे० 'नारियल'। उ०—जैसे बक नालियर चूँच मारि लटकत सुंदर दुःख देषि याही लाहे तें।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५८०।
⋙ नालिश
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. किसी के द्वारा पहुँचे हुए दुःख या हानि का ऐसे मनुष्य के निकट निवेदन जो उस का प्रतिकार कर सकता हो। किसी के विरुद्ध अभियोग। फरियाद। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—नालिश दागना = नालिश करना।
⋙ नाली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाला] १. जल बहने का पतला मार्ग। लकीर के रूप में दूर तक गया हुआ पतला गड्ढा जिससे होकर पानी बहता हो। जल-प्रवाह-पथ। २. गलीज आदि बहने का मार्ग। मोरी।३. वह गहरी लकीर जो तलवार के बीचोबीच पूरी लंबाई तक गई होती है। ४. डंड करने गड्ढा जिसमें होकर छाती निकल जाय। मुहा०—नाली के डंड = वह डंड जो नाली में से बदन निकालकर किया जाय। नाली में डंड पेलना=स्त्रीसंभोग करना (बाजारू)। ५. कुम्हार के आँवें का वह नीचे की ओर गया हुआ छेद जिससे आग डालते हैं। ६. घोड़े की पीठ का गड्ढा। ७. बैल आदि चौपायों को दबा पिलाने का चोंगा। ढरका।
⋙ नाली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नालिका] १. नाड़ी। घमती। रक्त आदि बहने की नली। २. करेमू का साग जिसके डंठल नली की तरह पोले होते हैं। ३. हाथियों की नकछेदनी। ४. घड़ी। घटीयंत्र। ५. घटिका। २४ मिनट का काल (को०)। ६. कमल की नाल (को०)। ७. कमल।
⋙ नालीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का छोटा बाण जो नली में रखकर चलाया जाता था। तुफंग। २. पद्मसमूह। ३. कमल की नाल। कमलदंड (को०)। ४. कमंडलु या जलपात्र जो नारियल का बना हो (को०)।
⋙ नालीकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पद्यसमूह। कमल की ढेरी। २. पद्मयुक्त सरोवर [को०]।
⋙ नालीदोज
संज्ञा पुं० [फा० नालीदोज] नाली साफ करनेवाला। भंगी। उ०—नालीदोज हनोज बेबखत कमि खिजमतगार तुम्हारा।—रे० बानी, पृ० ५१।
⋙ नालीप
संज्ञा पुं० [सं०] नीप। कदंब [को०]।
⋙ नालीव्रण
संज्ञा पुं० [सं० नाडीव्रण] नासूर।
⋙ नालुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधद्रव्य।
⋙ नालुक (२)
वि० कृश। दुबला।
⋙ नालौट
वि० [हिं० लोटना? या देश०] बात कहकर पलट जानेवाला। मुकर जानेवाल। इनकार करनेवाला। मुहा०—नालौट हो जाना = मुकर जाना। साफ इनकार कर जाना। बात से पलट जाना।
⋙ नालौर
वि० [हिं०] दे० 'नालौट'।
⋙ नावँ †
संज्ञा पुं० [सं० नाम] दे० 'नाम'। उ०—सब पूँछहिं बस जोगी जाति जनम औ नावै।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २९५।
⋙ नाव
संज्ञा स्त्री० [सं० नौ का बहुब० फा०] लकड़ी लोहे आदि की बनी हुई जल के ऊपर तैरने या चलनेवाली सवारी। जलयान। नौका। किश्ती। विशेष—नावें बहुत प्राचीन काल से बनती आई हैं। भारतवर्ष, मिस्र, चीन इत्यादि देशों के निवासी व्यापार के लिये समुद्रयात्रा करते थे। ऋग्वेद में समुद्र मे चलनेवाली नावों काउल्लेख है। प्राचीन हिंदू सुमात्रा, जावा, चीन आदि की ओर बराबर अपने जहाज लेकर जाते थे। ईसा से तीन सौ वर्ष पहले कलिंग देश से लगा हुआ ताम्रलिप्त नगर भारत के प्रसिद्ध बंदरहगाहों में था। वहीं जहाज पर चढ़ सिंहल के राजा ने प्रसिद्ध बोधिद्रुम को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया था। ईशा की पाँचवी शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान बौद्ध ग्रंथों की नकल आदि लेकर ताम्रलिप्त ही से जहाज पर बैठ सिंहल गया था। पश्चिम में फिनीशिया के निवासियों ने बहुत पहले समुद्रयात्रा आरंभ की थी। टायर, कार्थेज आदि उनके स्थापित बड़े प्रसिद्ध बंदरगाह थे जहाँ ईसा से हजारों वर्ष पहले युरोप तथा उत्तरी अफ्रीका से व्यापार होता था। उनके पीछे यूनान और रोमवालों का जलयात्रा में नाम हुआ। पूर्वीय और पश्चिमी देशों के बीच का व्यापार बहुत दिनों तक अरबवालों के हाथ में भी रहा है। भारतवर्ष में यान दो प्रकार के कहे जाते थे—स्थलपान और जलपान। जलपान को निष्पद यान भी कहते ते। युक्तिकल्प- तरु नामक ग्रंथ में नौका बनाने की युक्ति का वर्णन है। सबसे पहले लकड़ी का विचार किया गया है। काष्ठ की भी चार जातियाँ स्थिर की गई हैं—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ओर शूद्र। जो लकड़ी हलकी मुलायम और गढ़ने योग्य हो उसे ब्राह्मण जो कड़ी, हलकी और न गढ़ने योग्य हो उसे क्षत्रिय, जो मुलायम और भारी हो उसे वैश्य तथा जो कड़ी और भारी हो से शूद्र कहा है। इनमें तीन द्विजाति काष्ठ हो नौका के लिये अच्छे कहे गए हैं। सामान्य छोटी नाव दस प्रकार की कही गई है—क्षुद्रा, मध्यमा, भीमा, चपला, पटला, अभया, दीर्घा, पत्रपुटा, गर्भरा और मँथरा। इसी प्रकार जहाज या बड़ी नाव भी दस प्रकार की बतलाई गई हैं—दीर्घिका, तरणि, लौला, गत्वरा, गामिनी, तरि, जंघला, प्लाविनी, धरणी और वेगिनी। जिन नावों पर समुद्रयात्रा गोती थी उन्हें प्राचीन भारतवासी साधारण 'यान' मात्र कहते थे। पर्या०—नौ। तारिका। तरणि। तरी। तरंडी। तरंड। पादलिंद। तटलवा। होड। वार्वट। वहित्र। पोत। वहन। क्रि० प्र०—खेना। चलाना। मुहा०—सुखे में नाव नहीं चलती = बिना कुछ खर्च किए नाम नहीं होता। उदारता के बिना प्रसिद्धि नहीं होती। सूखे में नाव चलाना = असंभव कार्य करने की चेष्टा करना। नाव में घूल उड़ाना = (१) बिना सिर पैर की बात कहना। सरासर झूठ कहना। (२) झूठ अपराध लगाना। व्यर्थ कलंक लगाना।
⋙ नावक (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. एक प्रकार का छोटा बाण। एक खास तरह का तीर। उ०—(क) नावक सर में लाय कै तिलक तरुनि इति नाकि। पावक झर सी झमकि कै गई झरोखे झाँकि।—बिहारी (शब्द०)। (ख) सतसैया के दोहरे जनु नावक के तीर। देखत में छोटे लगैं बेधैं सकल शरीर।— (शब्द०)। २. मधुमक्खी का डँक।
⋙ नावक (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाविक] केवट। माझी। मल्लाह। उ०—पुनि गौतमधरनी जानत है नावक शवरी जान।— सूर (शब्द०)।
⋙ नावघाट
संज्ञा पुं० [हिं०] नावों के ठहरने का घाट। नदी, झील आदि के किनारे का वह स्थान जहाँ नावें ठहरती हों।
⋙ नावडिया †
संज्ञा पुं० [हिं० नाव + डिया (प्रत्य०)] मल्लाह। नाववाला। उ०—नाव तिरे नहँनीर में निबलाँ नावाड़ियाँह्न।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १५।
⋙ नावना †
क्रि० स० [सं० नामन] १. झुकना। नवाना। उ०— असुपतीक सिरमौर कहावइ। आँकुस गज नावइ। उ०— जायसी (शब्द०)। २. डालना। फेंकना। गिराना। उ०—माखन तनक आपने कर लै तनक बदन मै नावत।—सूर (शब्द०)। ३. प्रविष्ट करना। घुसाना।
⋙ नावनीत (१)
वि० [सं०] मुलायम। कोमल। मृदुल [को०]।
⋙ नावनीत (२)
संज्ञा पुं० मक्खन का घी। मक्खन से बना घी।
⋙ नावर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाव] १. नाव। नौका। उ०—को करि सकै सहाय बहै करिया बिनु नावर।—गिरिधर (शब्द०)। २. नाव की एक क्रीड़ा जिसमें उसे बीच में ले जाकर चक्कर देते हैं। उ०—बहु भट बहहिं चढ़ें खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं जल माहीं।—तुलसी (शब्द०)।
⋙ नावरा
संज्ञा पुं० [देश०] दक्षिण में होनेवाला एक पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत साफ, चिकनी और मजबूत होती है। मेज, कुरसी आदि सजावट के समान इसके बहुत अच्छे बनते हैं।
⋙ नावरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नाव की क्रीड़ा। दे० 'नावर'।
⋙ नावाँ
संज्ञा पुं० [सं० नामन्] वह रकम जो किसी के नाम लिखी हो।
⋙ नावाकिफ
वि० [फा० ना + अ० वाकिफ] अनजान। अनभिज्ञ।
⋙ नावाज
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लाह।
⋙ नावाजिब
वि० [फा०ना + अ० वाजिब] जो वाजिब या ठीक न हो। अनुचित।
⋙ नाविक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मल्लाह। माझी। केवट। २. नाव पर यात्रा करनेवाला व्यक्ति। नौकारोही (को०)।
⋙ नावी (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाविन्] दे० 'नाविक' [को०]।
⋙ नावी पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० नापित] नाई। हज्जाम। उ०—नावी फीरइ उतावला, स्वामनी नक्षत्र आठमी परणीत।—बी० रासो, पृ० २०।
⋙ नावेल
संज्ञा पुं० [अ०] उपन्यास।
⋙ नावेलिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] उपन्यासकार।
⋙ नाव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाव] १. नूतनता। नवीनता। नयापन। २. गहरा जल या नदी आदि जो नौका से पार करने योग्य हो [को०]।
⋙ नाव्य (२)
वि० [सं०] १. नाव से पार करने योग्य। २. प्रशंसा योग्य। प्रशंसनीय [को०]।
⋙ नाव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी जो नाव से पार की जाय [को०]।
⋙ नाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. न रह जाना। लोप। ध्वंस। बरबादी। क्रि० प्र०—करना।—होना। विशेष—सांख्यावाले कारण में लय होने को ही नाश कहते हैं क्योकि जो वस्तु है उसका अभाव नहीं हो सकता। कारण में लय हो जाने से सूक्ष्मता के कारण वस्तु का बोध नहीं होता। जब कोई कार्य कारण में इस प्रकार लीन हो जाता है कि वह फिर कार्यरूप में नहीं आ सकता तब आत्यंतिक नाश होता है। नैयायिक नाश को ध्वंसाभाव मानते हैं। २. गायब होना। अदर्शन। ३. पलायन। ४. संकट (को०)।५. निधन (को०)।६. अनुपलंभ (को०)।
⋙ नाशक
वि० [सं०] १. नाश करनेवाला। ध्वंस करनेवाला। बरबाद करनेवाला। २. मारनेवाला। वध करनेवाला। ३. दूर करनेवाला। न रहने देनेवाला। जैसे, रोगनाशक।
⋙ नाशकारी
वि० [सं० नाशकारिन्] [वि० स्त्री० नाशकारिणी] नाश करनेवाला।
⋙ नाशन (१)
वि० [सं०] नाश करनेवाला। विध्वंस करनेवाला। नाशक। उ०—जानत है किधौं जानत नाहिन तू अपने मद नाशन को।—केशव (शब्द०)।
⋙ नाशन
संज्ञा पुं० १. मृत्यु। मरण। २. विस्मरण। भूलना। ३. नष्ट करना। नाश करना। ४. हटाना। दूर करना [को०]।
⋙ नाशना पु
क्रि० स० [सं० नाशन] दे० 'नासना'।
⋙ नाशपाती
संज्ञा स्त्री० [तु०] मझोले डोल डौल का एक पेड़ जिसके फल मेवों में गिने जाते हैं। विशेष—इसकी पत्तियाँ अमरूत की पत्तियों के इतनी वड़ी पर चिकनी और चमकीली होती हैं। फूल सफेद होते है पर फूलों के केसर हलके बैगनी होते हैं। फल गोल और उनके् गूदे की बनावट कुछ दानेदार होती हैं। बीज गूदे के भीतर बीचों बीच चार छोटे कोशों में रहते हैं। फल का विशेष अंश सफेद कड़ा गूदा ही होता है इससे इसके टुकड़े कटे हुए कड़े मिस्त्री के टुकड़ों के समान जान पड़ते हैं। काश्मीर में नाशपाती के पेड़ जंगली मिलते हैं। काश्मीर के अतिरिक्त हिमालय के किनारे सर्वत्र, दक्षिण में नीलागिरि, बंगलौर आदि में तथा भारतवर्ष मे थोड़े बहुत सब स्थानों में इसके पेड़ लगाए जाते हैं। कलम और पैबंद से भी इसके पेड़ लगते हैं जो डील डौल में छोटे होते हैं। काश्मीर की नाशपाती अच्छी होती है और नाख या नाक के नाम से प्रसिद्ध है। नाशपाती युरोप और अमेरिका के प्रायः उन सब स्थानों में होती है जहाँ सरदी अधिक नहीं पड़ती। युरोप में नाशपाती की लकड़ी पर नक्काशी होती है और उसके हलके सामान बनते हैं। आयुर्वेद में नाशपाती का नाम अमृतफल (इससे इसे कहीं कहीं अमरूद भी कहते हैं) भी है जो धातुवर्धक, मधुर भारी, रेचक तथा अमल-वात-नाशक माना गया है। सेब और नाशपाती एक ही जाति के पेड़ हैं।
⋙ नाशवान्
वि० [सं० नाशवत्] नाश को प्राप्त होनेवाला। नश्वर। अनित्य।
⋙ नाशाइस्ता
वि० [फा० नाशाइस्तह्] अनुचित। नामुनासिब। उ०—ऐसे नाशाइस्ता कल्मे भूलकर भी जबान पर न लाना।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० १५७।
⋙ नाशित
वि० [सं०] जिसका नाश किया गया हो।
⋙ नाशी
वि० [सं० नाशिन्] [वि० स्त्री० नाशिनी] १. नाश करनेवाला। नाशक। २. नष्ट होनेवाला। नश्वर।
⋙ नाशुक
वि० [सं०] नष्ट होनेवाला। नश्वर।
⋙ नाशुक्री
संज्ञा स्त्री० [फा०] अकृतज्ञता। एहसान फरामोशी। उ०—जहाँ खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहाँ उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है।—मानसरोवर, भा० १, पृ० १३८।
⋙ नाश्ता
संज्ञा पुं० [फा० नाश्तह्] कलेवा। जलपान। प्रातःकाल का अल्पाहार। पनपियाव। क्रि० प्र०—करना।—होना।
⋙ नाश्य
वि० [सं०] नाश को योग्य। ध्वंसनीय।
⋙ नाष्टिक
वि० [सं०] जिस की वस्तु नष्ट हुई हो। (स्मृति)।
⋙ नाष्टिकधन
संज्ञा पुं० [सं०] खोया हुआ धन। (स्मृति)।
⋙ नास (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० नासा] १. वह द्रव्य जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सुरकी या सूँधी जाय। क्रि० प्र०—लेना। २. सुँघनी। ३. नासिका। नाक (बोलचाल)।
⋙ नास पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाश] नाश। उ०—चढयौ कोप आँमावती भूप ऐसे। कढयौ दैत्य के नास जंभारि जैसे।— सुजान०, पृ० २९।
⋙ नासक पु
वि० [सं० नाशक] दे० 'नाशक'। उ०—भ्रम तम नासक प्रेम प्रकासक मुखससि सारद नमो नमो।—घनानंद, पृ० ४६२।
⋙ नासदान
संज्ञा पुं० [हिं० नास + दान (< सं० आधान)] सुँघनी की डिबिया।
⋙ नासत्य
संज्ञा पुं० [सं०] अश्विनिकुमार।
⋙ नासत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी नक्षत्र।
⋙ नासना पु
क्रि० स० [सं० नाशन] १. नष्ट करना। बराबाद करना। २. मार डालना। वध करना।
⋙ नासपाल
संज्ञा पुं० [फा०] १. कच्चे अनार का छिलका जो रंग निकालने के काम में आता है। २. कच्चा अनार। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी।
⋙ नासपाली
वि० [फा०] नासपाल के रंग का। कच्चे अनार के छिलके के रंग का।
⋙ नासबूर पु
वि० [हिं० ना + फा० सब्र] बेसब्र। धैर्यहीन। उ०—तु साहेब लीये खड़ा वंदा नासबूरा।—मलूक०, पृ० २४।
⋙ नासमझ
वि० [हिं० ना + समझ] जिसे समझ न हो। जो समझदार न हो। जिसे बुद्धि न हो। निर्बुद्धि। बेवकूफ।
⋙ नासमझी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नासमझ] मूर्खता। बेवकूफी।
⋙ नासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० नास्य] १. नासिका। नाक। २. नासारंध्र। नाक का छेद। नथना। ३. द्वार के ऊपर लगी हुई लकड़ी। भरेटा। ४. हाथी की सूँड। हस्तिशुंड (को०)। ५. अडूसा।
⋙ नासाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का अगला भाग। नाक की नोक।
⋙ नासाछिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नासा (२)'।
⋙ नासाज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह ज्वर जो नाक के भीतर प्याज की गाँठ की तरह का फोड़ा होने से होता है। इस ज्वर में सिर औरह रीढ़ में बड़ा दर्द होता है।
⋙ नासादारु
संज्ञा पुं० [सं०] भरेटा [को०]।
⋙ नासानाह
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का एक रोग जिसमें वायु के साथ कफ मिलकर नाक के छेद को बंद कर देता है। प्रतिनाह। प्रतीनाह।
⋙ नासापरिस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नासास्त्राव'।
⋙ नासापरिशोष
संज्ञा पुं० [सं०] नासाशोष रोग।
⋙ नासापाक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का एक रोग जिसमें नाक में बहुत सी फुंसियाँ निकलने के कारण नाक पक जाती हैं।
⋙ नासापुट
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का वह चमड़ा जो छेदों के किनारे परदे का काम देता है। नथना।
⋙ नासाबेध
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का वह छेद जिसमें नथ आदि पहली जाती है।
⋙ नासायोनि
संज्ञा पुं० [सं०] वह नपुंसक जिसे घ्राण करने पर उद्दीपन हो। सौगंधिक नपुंसक।
⋙ नासारंध्र
संज्ञा पुं० [सं० नासारन्ध्र] नाक का छिद्र। नथना।
⋙ नासारोग
संज्ञा पुं० [सं०] नाक में होनेवाले रोग जिनकी संख्या सुश्रुत के अनुसार ३१ और भावप्रकाश के मत से ३४ है। विशेष—सुश्रुत के अनुसार इनके नाम इस प्रकार है—अपनीस्य (पीनस), पूतिनस्य, नासापाक, रक्तपित्त, पूयशोणित, क्षवथु, भ्रंशथु, दीप्ति, प्रतिनाह, परिस्त्राव, नासाशोष, ४ प्रकार के अर्श, ४ प्रकार के शोथ, ७ प्रकार के अर्बुद और ५ प्रकार के प्रति- श्याय। भावप्रकाश में इससे इतनी विशेषता की है कि एक रक्तपित्त के स्थान पर चार प्रकार के रक्तपित्त लिख दिए हैं।
⋙ नासालु
संज्ञा पुं० [सं०] कायफल।
⋙ नासावंश
संज्ञा पुं० [सं०] नाक के ऊपर बीचबीच गई हुई पतली हड्डी। नाक का बाँसा।
⋙ नासाविवर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नासारंध्र'।
⋙ नासाशोष
संज्ञा पुं० [सं०] नाक में कफ सूख जाने का रोग।
⋙ नासासंवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] कांडबेल। चिटचिटा। चिचड़ी।
⋙ नासास्राव
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का एक रोग जिसमें नाक से सफेद और पीला मवाद नकला करता है।
⋙ नासिकंधम
वि०, संज्ञा पुं० [सं० नासिकन्धम] नासिका से फूँकने अथवा स्वर निकालनेवाला [को०]।
⋙ नासिकंधय
वि० [सं० नासिकन्धय] नासिका से पान करनेवाला [को०]।
⋙ नासिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० नासिक्य] महाराष्ट्र देश में एक तीर्थ जो उस स्थान के निकट है जहाँ से गोदावरी निकलती है। इसी के पास पंचवटी वन है जहाँ वनवास के समय रामचंद्र ने कुछ काल निवास किया था और लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाम कान काट थे।
⋙ नासिक पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० नासिका] नाक। नासिका। उ०— नासिक देखि लजानेउ सूआ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२९।
⋙ नासिक (३)
वि० [फा० नाकिस] दे० 'नाकिस'। उ०— बड़ी नासिक जात है महतो किसी की नहीं होती।—गोदान, पृ० ३४।
⋙ नासिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाक। नासा। २. हाथी की सूँड़ (को०)। ३. नाक के आकार की वस्तु (को०)। ४. भरेटा (को०)। ५. अश्विनी नक्षत्र (को०)। यौ०—नासिकामल।
⋙ नासिका (२)
वि० श्रेष्ठ। प्रधान।
⋙ नासिक्य (१)
वि० [सं०] नासिका से उत्पन्न।
⋙ नासिक्य (२)
संज्ञा पुं० १. नासिका। २. आश्विनीकुमार। ३. बृहत्संहिता के अनुसार दक्षिण का एक देश। नासिक। ४. अनुनासिक स्वर।
⋙ नासिक्यक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक। नासिका [को०]।
⋙ नासिर
संज्ञा पुं० [अ०] १. गद्यलेखक। गद्यकार। २. मददगार। सहायक। ३. विजयी। विजेता [को०]।
⋙ नासी पु
वि० [सं० नाशी] दे० 'नाशी'।
⋙ नासीर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सेनानायक के आगे चलनेवाला दल जो जयनाद उच्चारण करता चलना था। सेनाग्र। हरावल।
⋙ नासीर (२)
वि० १. आगे बढकर युद्ध करनेवाला। २. अग्रेसर। अगुआ [को०]।
⋙ नासूत
संज्ञा पुं० [अ०] संसार। उ०—फैल्या मुकाम शैतानी कहना मंजिल नासूत केरी। शरिअत की जब बाट लगे ना क्यों कर उतरे धेरी।—दक्खिनी०, पृ० ५४।
⋙ नासूर
संज्ञा पुं० [अ०] घाव, फोड़े आदि के भीतर दूर तक गया हुआ नली का सा छेद जिससे बराबर मवाद निकला करता है और जिसके कारण घाव जल्दी अओच्छा नहीं होना। नाड़ीव्रण। क्रि० प्र०—पड़ना। मुहा०—नासूर डालना = नासूर पैदा करना। घाव करना। छाती में नासूर डालना = बहुत कुढ़ाना। बहुत तंग करना। नासूर भरना = नासूर का घाव अच्छा हो जाना।
⋙ नास्ता
संज्ञा पुं० [फा० नाश्तह्] जलपा। सूक्ष्म आहार। कलेवा। उ०—करत नास्ता इक रोटी की पुनि उठि कै झट।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २०।
⋙ नास्ति
अव्य० [सं०] नहीं है। अविद्यमानता। अनस्तित्व। उ०— जेहि ते वद्ध होय सो इच्छा कहावै, जेहि ते नास्ति होय ऐसी अनइच्छा कहावै।—कबीर सा०, पृ० ९२२।
⋙ नास्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो ईश्वर, परलोक आदि को न माने। ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकार करनेवाला। विशेष—जो हेतुशास्त्र अर्थात् तर्क का आश्रय लेकर वेद को अस्वीकार करे, उसका प्रमाण न माने, हिंदू शास्त्र में उसको भी नास्तिक कहा है। हिंदू शास्त्रकारो के अनुसार चार्वाक, बौद्ध और जैन ये तीना नास्तिक मत हैं। इन मतों में सृष्टि को उत्पन्न करने और चलानेवाला कोई नित्य और स्थिर चेतन नहीं माना गया है। नास्तिकों को बार्हस्पत्य, चार्वाक और लोकायतिक भी कहते हैं।
⋙ नास्तिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नास्तिक होने का भाव। ईश्वर, परलोक आदि को न मानने की बुद्धि।
⋙ नास्तिकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नास्तिकता'। उ०—नास्तिकत्व, का प्रवेश करा पीछे से पछताना ब्यर्थ है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०८।
⋙ नास्तिक दर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] नास्तिकों का दर्शन। वि० दे० 'दर्शन'।
⋙ नास्तिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] नास्तिकता। ईश्वर, परलोक आदि में अविश्वास।
⋙ नास्तितद
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ नास्तिद
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।
⋙ नास्तिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] नास्तिकों का तर्क।
⋙ नास्य (१)
वि० [सं०] १. नासिका संबंधी। नाक का। २. नासिका से उत्पन्न।
⋙ नास्य (२)
संज्ञा पुं० बैल की नाक में लगी हुई रस्सी। नाथ।
⋙ नाह पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० नाथ, प्रा० नाह] १. नाथ। स्वामी। मालिक। २. स्त्री का पति।
⋙ नाह (२)
संज्ञा पुं० [सं० नाम] पहिए का छेद। नाभि।
⋙ नाह (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंधन। २. हिरन फँसाने का फंदा। ३. कोष्ठबद्धता। कब्जियत (को०)।
⋙ नाहक
क्रि० वि० [फा० ना + अ० हक] वृथा। व्यर्थ। बेफायदा। बेमतलब। निष्प्रयोजन।
⋙ नाहट †
वि० [देश०] बुरा। नटखट।
⋙ नाहनूह पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाहीं] 'नहीं, नहीं' शब्द। इनकार।
⋙ नाहमवार
वि० [फा०] १. जो हमवार या समतल न हो। ऊबड़ खाबड़। ऊँचा नीचा। २. असभ्य। उजड्ड (को०)।
⋙ नाह (१)
संज्ञा पं० [सं० तरहरि] [स्त्री० नाहरी] १. सिंह। शेर। २. वाघ।
⋙ नाहर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] टेसू का फूल।
⋙ नाहरसाँस
संज्ञा पुं० [हिं० नाहर + साँस] घोड़ों की एक बीमारी जिसमें उनका दम फूलता है।
⋙ नाहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० नाहर] सिंहिनी। शेरनी। उ०— नारि कहों की नाहरी, नख सिख से यह खाय। जल बूड़ा तो ऊघरै भग बूड़ा तो जाय।—संतवणी० पृ० ५८।
⋙ नाहरू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] नारू नाम का रोग। नहरुवा।
⋙ नाहरू (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'नाहर'।
⋙ नाहिन पु
अब्य० [हिं० नाहि + न (प्रत्य०)] नहीं। उ०— नाहिन रहो मन में ठौर।— पोद्दार अभि०, ग्रं० पृ०, १७८।
⋙ नाहिनै पु (१)
वाक्य [हिं० नाही] नहीं है।
⋙ नाहिनै (२)
अव्य० [हिं०] नाहिन। नहीं। उ०— ब्रजपति हूँ के मन भय भयों। नामकरन जु नाहिनै भयो।—नंद० ग्रं० पृ० २४३।
⋙ नाहीं
अव्य० [हिं०] दे० 'नहीं'।
⋙ नाहुष, नाहुषि
संज्ञा पुं० [सं०] नहुष के पुत्र ययाति।