विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ध

विक्षनरी से




हिंदी या वर्णमाला का उन्नीसवाँ व्यंजन और तवर्ग का चौथा वर्ण जिसका उच्चारण स्थान दंतमूल है । इसके उच्चारण में आभ्यंतर प्रयत्न आवश्यक होता है और जीभ की नोक ऊपरी दाँतों की जड़ में लगानी पड़ती है । बाह्य प्रयत्न संवार, नाद, घोष महाप्राण हैं ।

धंकना पु
क्रि० अ० [हिं० धंका] क्रुद्ध होना । कुढ़ना । खीजना । उ०—छननंकि बान गजि मोम धंक । कायर पुलंत सूरा निसंक ।—पृ० रा०, १ । ६५८ ।

धंका पु
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'धक्का' । उ०—सिंह कीसिंह चपेट सहै गजराज सहै गजराज को धंका ।—भूषण ग्रं०, पृ० ९५ । २. चोट । आघात ।

धंग पु
संज्ञा पुं० [देश०] कीर्ति । यश । उ०—अब गाड़ी ढरकाय दे धवल धंग हिरदेश ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ८८ ।

धंगर
संज्ञा पुं० [देश०] चरवाहा । ग्वाल । अहीर ।

धंगरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घींगरी' । उ०—बात कहत मुँह फारि खात है मिली धमधुसरि धंगरिया—कबीर सा० सं०, पृ० ५६ ।

धंगा †
संज्ञा पुं० [देश०] खाँसी । ढाँसी ।

धंद पु
संज्ञा पुं० [सं० द्वन्द्व] धंधा । व्यवसाय । उ०—कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दूख चिंता औ धंदू ।—जायसी०, ग्रं०, पृ० २ ।

धंदर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा ।

धंध पु (१)
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'धुंध (१)' । उ०—राम बिना संसार धंध कुहेरा ।—कबीर ग्रं०, पृ० १९५ ।

धंध पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० धंधा] धोखा । कपट । छल । उ०—धंध धोखा किया कुमति ठानी ।—कबीर रे०, पृ० ८ ।

धंध पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धंधा' । उ०—दादू सतगुरु सो सगा, दूजा धंध विकार ।—दादू०, पृ० २७ ।

धंध पु (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'द्वंद्व' । उ०—पंच बिस जीव तत्व करत हैं धंध जू ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५८८ ।

धंध पु (५)
संज्ञा पुं० [देश०] ज्वाला । उ०—तूलन तोपिके ह्वै मतिअंघ हुतासन धंध पहारन चाहैं ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ८१ ।

धंधक (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धंधा] काम धंधे का अडंबर । जंजाल । बखेड़ा । उ०—तिन महँ पथम रेख जग मोरी । धिक धरम- घ्वज धधकघोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धंधक (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] एक प्रकार का ढोल ।

धंधकधोरी
संज्ञा पुं० [हिं० धंधक + धोरी] काम घंधे का बोझ लादे रहनेवाला । हर घड़ी काम में जुता रहनेवाला । उ०—तिन महँ प्रथम रेख जग मोरी । छिक धरमघ्वज धंधकधोरी ।— तुलसी (शब्द०) ।

धंधका †
संज्ञा पुं० [अनु०] [स्त्री० अल्पा० धधकी] एक प्रकार का ढोल ।

धंधरक
संज्ञा पुं० [हिं० धंधा] काम धंधे का आडंबर । जंजाल । बखेड़ा ।

घंधरकधोरो
संज्ञा पुं० [हिं० धंधरक + धोरी] काम धंधे का बोझ लादे रहनेवाला । हर घड़ी काम मे जुता रहनेवाला ।

धंधा
संज्ञा पुं० [सं० धनधान्य या देश०] १. धन या जीविका के लिये उद्योग । काम काज । जैसे,—वह घर का कुछ काम घंधा नहीं करती । यौ०—काम धंधा । गोरखधंधा । २. उद्यम । व्यावसाय । कार बार । पेशा । रोजगार । जैसे, (क) उसे किसी काम धंधे में लगा दो । (ख) आजकल कोई काम धघा नहीं है, खाली बैठे हैं । विशेष—इस शब्द का प्रयोग लिखने पढ़ने की भाषा में 'काम' शब्द के साथ अधिक होता हैं ।

धंधार
संज्ञा पुं० [देश०] लकड़ी का लंबा औजार जो भारी पत्थरों या लकड़ियों के उठाने के काम में आता है ।

धंधार † (२)
वि० [देश०] एकाकी । अकेला ।

धंधार (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धूमधार या देश०] ज्वाला । लपट ।

धंधारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धंधा] गोरखधंधा जिसे गोरखपंथी साधु लिये रहते हैं ।

धंधारी † (२)
संज्ञा स्त्री० १. एकांत । निर्जनता । अकेलापन । २. सुन- सान । सन्नाटा ।

धँधाला
संज्ञा स्त्री० [हिं० धंधा] कुटनी । दूती । दल्लाल ।

धंधालू
वि० [हिं० धधा] काम धंधे में लगा रहनेवाला । उ०—बहु धंधालू आव घरि कासूँ करइ वदेस ।—ढोला०, दू० १७८ ।

धंधु पु
संज्ञा पुं० [हिं० धंधा] उद्यम । काम । उ०—बंधु धंधु अवलोकि तुव जानि परै सब ढंग । बीस बिसे यह बसुमती जैहै तेरे संग ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६२ ।

धंधूणो पु
क्रि० वि० [सं० धूञ, प्रा० धूण] हिला डुलाकर । उ०—बोलइ नही ज बाल, धण धंधूणी जोइयउ ।—ढोला०, दू० ६०३ ।

धंमिल पु
संज्ञा पुं० [सं० तथा प्रा० धम्मिल्ल] स्त्रियों के बालों का जूड़ा । उ०—सीस जटा कवि गोविद एनहि, ओपन सों अति धंमिल जाल है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४३५ ।

धंस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ध्वस' । उ०—राम कुष्ण जय सूर ससि, करन मोह अघ धंस ।—भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० ३५७ ।

धँधरक
संज्ञा पुं० [हिं० धधा या ढंग + रच < ढोंग + रच] दे० 'धंघरक' । उ०—तिन यहँ प्रथम रेख जग मोरी । धिग घरमध्वज धँधरक धोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धँधरकधोरी
संज्ञा पुं० [हिं० धंधरक + धोरी] दे० 'धधरकधोरी' । उ०—तिनमहँ प्रथम रेख लग मोरी । धिग धरमध्वज धंधरक घोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धँधला
संज्ञा पुं० [हिं० धधा] १. छल छंद । कपठ का आडंबर । झूठा ढोंगा । ढंग । उ०—अंत काल कोइ काम न आवै । फोकट फाकट धंधला ।—सुदर ग्र०, भा० २, पु० ९०९ । २. हीला । बहाना । (स्त्रि०) । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—(किसी को) धँधले आते हैं = छल छंद का अभ्यास है ।

धँधलाना
क्रि० अ० [हिं० धंधला] छल छद करना । ढंग रचना ।

धँधार
संज्ञा पुं० [हिं०] ज्वाला । लपट । उ०—कंथा जरै आगि नभ लाई । बिरह धँधार जरत न बुझाई ।—जायसी (शब्द०) ।

धँधारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धंधा + स्री (प्रत्य०)] दे० 'धंधारी' । उ०—मेखल सिघी चक्र धँघारी । लीन हाथ तिरसूल सँभारी ।—जायसी (शब्द०) ।

धँधेरा
संज्ञा पुं० [देश०] राजपूतों की एक जाति ।

धँधोर
संज्ञा पुं० [अनु० धायँ धायँ (=आग दहकने की ध्वनि)] १. होलिका । होली । २. आग की लपट । ज्वाला । उ०—(क) रहै प्रेम मन उरझा लटा । बिरह धँधोर परहिं सिर जटा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) कंथा जरे अगिनि जनु लाए । बिरह धँधोर जरत न जराए ।—जायसी (शब्द०) ।

धँस
संज्ञा पुं० [हिं० धँसना] जल आदि में प्रवेश । डुबकी । गोता । क्रि० प्र०—लेना ।

धँसन
संज्ञा स्त्री० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया या ढंग । २. घुसने या पैठने का ढंग । गति । चास । उ०—तुलसी भेड़ी की घँसनि जड़ जनता सनमान ।—तुलसी (शब्द०) ।

धँसना (१)
क्रि० अ० [सं० दंशन (= दांत चुभना)] २. किसी कड़ी वस्तु का किसी नरम वस्तु के भीतर दाब पाकर घुसना । गड़ना । जैसे, पैर में काँटा घँसना, दीवार में कील धँसना, कीचड़ या दलदल में पैर धँसना । संयो० क्रि०—जाना । विशेष—'चुभना' और 'धँसना' में अंतर यह है कि 'चुभना' का प्रयोग विशेषतः जीवधारियों के शरीर में घुसने के अर्थ में होता है । जैसे, पैर में काँटा चुभना । दूसरी बात यह है कि 'चुभना' नुकीली वस्तुओं के लिये आता है, जैसे, काँटा, सूई आदि । मुहा०—जी या मन में धँसना = (१) चित्त में प्रभाव उत्पन्न करना । मन में निश्चय या विश्वास उत्पन्न करना । दिल में असर करना । जैसे,—उसे लाख समझाओ उसके मन में कोई बात धँसती ही नहीं । (२) हृदय में अंकित होना । अच्छा लगने के कारण ध्यान में बराबर रहना । चित्त से न हटना । ध्यान पर बराबर चढ़ा रहना । उ०—मन महँ धँसी मनोहर मूरति टरति नहीं वह टारे ।—सूर (शब्द०) । २. किसी ऐसी वस्तु के भीतर जाना जिसमें पहले से अवकाश न रहा हो । अपने लिये जगह करते हुए घुसना । उघर उधर दबाकर जगह खाली करते हुए बढ़ना या पैठना । जैसे, पानी में धँसना, भीड़ में धँसना, दलदल में धँसना । उ०—(क) जोर जगी जमुना जल धार में धाय धँसी जलकेलि की माती ।—(शब्द०) । (ख) आयो जौन तेरी धौरी धारा में धँसत जात तिनको न होत सुरपुर तें निपात है ।—पद्माकर (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना । पड़ना । पु †३. नीचे की ओर धीरे धीरे जाना । नीचे खसकना । उतरना । उ०—(क) खरी लसति गोरे गरे धँसति पान की पीक ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) जनु कलिंदनंदिनि मनि इंद्रनील सिखर परसि धँसति लसति हँस श्रेणि संकुलन अघिकौहैं ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) पति पहिचानि धँसी मंदिर तें, सूर, तिया अभिराम । आवहु कंत लखहु हरि को हित पाँव धारिए धाम ।—सूर (शब्द०) । ४. तल के किसी अंश का दबाव आदि पाकर नीचे हो जाना जिससे गड्ढ़ा सा पड़ जाय । नीचे की और बैठ जाना । जैसे,—(क) जहाँ गोला गिरा वहाँ जमीन नीचे धँस गई । (ख) बीमारी से उसकी आँखें धँस गई हैं । विशेष—पोली वस्तु के लिये इस अर्थ में 'पचकना' का प्रयोग होता है । ५. किसी गड़ी या नीवँ पर खड़ी वस्तु का जमीन में और नीचे तक चला जाना जिससे वह ठीक खड़ी न रह सके । बैठ जाना । जैसे,—इस मकान की नीवँ कमजोर हैं, बरसात में यह धँस जायगा ।

धँसना पु (२)
क्रि० अ० [सं० ध्वंसन] ध्वस्त होना । नष्ट होना । मिटना । उ०—निज आतम अज्ञान ते है प्रतीति जग खेद । घँसै सु ताके बोध ते यह भाखत मुनि वेद ।—विचारसागर (शब्द०) ।

धँसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धँसन' ।

धँसान
संज्ञा स्त्री० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया या ढंग । २. ऐसी जमीन जिसपर कीचड़ के कारण पैर धँसता हो । दलदल । ३. ऐसी दमीन जिसपर नीचे की ओर पैर फिसले । ढाल । उतार ।

धँसाना
क्रि० स० [हिं० धँसना] १. गड़ाना । चुमाना । नरम चीज में घुसाना । २. पैठाना । प्रवेश कराना । जैसे, जल में धँसाना । ३. तल या सतह को दबाकर नीचे की और करना । नीचे की ओर बैठाना ।

धँसाब
संज्ञा पुं० [हिं० धँसना] १. धँसने की क्रिया । २. ऐसी जमीन जिसपर पैर धँसे । दलदल ।

ध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. कुबेर । ३. गुण । नैतिक गुण । ४. धैवत स्वरसंकेत (संगीत) । ५. धर्म । ६. धन । संपत्ति [को०] ।

ध (२)
[प्रत्य०] धारण करनेवाला [को०] ।

धई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधा जिसकी जड़ या कंद को छोटा नागपुर की पहाड़ी जातियों के लोग खाते हैं ।

धउरहर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धीरहर' ।

धउल पु
वि० [हिं०] दे० 'धवल' । उ०—साने धरती धउल अकास ।—प्राण०, पृ० १ ।

धक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. दिल के धड़कने का शब्द या भाव । हृत्कंप का शब्द या भाव । हृदय के जल्दी जल्दी चलने, कूदने का भाव या शब्द । (भय या उद्वेग होने अर्थात् किसी बात से चौंक पड़ने पर जी में धड़कन होती है) । उ०—गुंधर हौं निरखीं अब लौं मुख पीरी परी छतियाँ धक छाई ।— गुंधर (शब्द०) । मुहा०—जी धक धक करना = भय या उद्वेग से जी धड़कना । जी धक हो जाना = (१) भय या उद्वेग से जी धड़क उठना । डर से जी दहल जाना । (२) चौंक उठना । जी धक होना, या धक से होना = (१) उद्वेग या घबराहट होना । (२) आशंका होना । भय होना । जी दहलना । धक से रह जाना = दे० 'जी धक होना या धक से रह जाना' । उ०—हुस्न आरा और उनकी कुल बहनें और भी मुगलानी और अब्बासी घक से रह गई ।—फिसाना०, आ० १, पृ० २९१ । विशेष—इस शब्द का प्रयोग खट, पट आदि और अनु० शब्दों के समान प्रायः से विभक्ति सहित क्रि० वि० वत् ही होता है । २. उमंग । उद्वेग । चोप । उ०—रहत अछक पै मिटै न धक जीवन की निपट जो नाँगी डर काहू के डरै नहीं ।—भूषण (शब्द०) ।

धक (२)
क्रि० वि० अचानक । एकबारगी । उ०—आनन सीकर सी कहिए धक सोवत तें अकुलाय उठी क्यों ?—केशव (शब्द०) ।

धक (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटी जूँ । लीख से बड़ी जूँ ।

धकधक
क्रि० वि० [अनु०] धक धक की ध्वनि के साथ । दहकता हुआ । उ०—भाल अनल धक धक कर जला ।—अपरा, पृ० ९ । क्रि० प्र०—जलना ।

धकधकाना
क्रि० अ० [अनु० धक] ११. (हृदय का) धड़कना । भय, उद्वेग आदि के कारण हृदय का जोर जोर से जल्दी जल्दी चलना । उ०—धकधकात जिय बहुत संआरै । क्यों मारौं सो बुद्धि विचारै ।—सूर (शब्द०) । †२. (आग का) दहकना । भभकना । लपट के साथ जलना ।

धकधकाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु० धक] १. जो धक धक करने की क्रिया या भाव । धड़कन । २. खटका । आशंका । ३. आगा पीछा ।

धकधकी
संज्ञा स्त्री० [अनु० धक] १. जी धक धक करने की क्रिया या भाव । जी की धड़कन । उ०—(क) आवत देख्यो विप्र जोरि कर रुक्मिनि धाई । कहा कहैगो आनि हिये धकधकी लगाई ।—सूर (शब्द०) । (ख) दसकंधर उर धकधकी अब जनि धावै धनुषारि ।—तुससी (शब्द०) । (ग) खरहू के खरकत धकधकी धरकत, भौन कोन सकुरत सरकत जातु है ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३३ । २. गले और छाती के बीच का गड्ढा जिसमें स्पंदन मालूम होता है । धुकधुकी । दुगदुगी । मुहा०—धुकधुकी धरकना = छाती धड़कना । जी धकधक करना । अकस्मात् आशंका या खटका होना । ऊ०—मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की । सुरगन सभय धकधकी धरकी ।— तुलसी (शब्द०) ।

धकना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'दहकना' । उ०—जियरा उडचौ सो डोलै हियरो धक्योई करै ।—घनानंद०, पृ० ७९ ।

धकपक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] जी की धड़कन । धकधकी । उ०— (क) जूझत हकीम खाँ अमीरनु कै धक सो ओ बकसी के जिय में परी है धकपक सी ।—सूदन (शब्द०) । (ख) इंद्र जू को अकबक, घाताजू की धकपक, संभू जी की सकपक केसोदास को कहै ? —केशव (शब्द०) ।

धकपक (२)
क्रि० वि० धड़कते हुए जी के साथ । दहलते हुए । डरते हुए ।

धकपकाना
क्रि० अ० [अनु० धक] जी में दहलना । दहशत खाना । डरना । उ०—भूषन भनत दिल्लीपति सों धकपकात धाक सुनि राज छत्रसाल मरदाने की ।—भूषन (शब्द०) ।

धकपक्काना पु
क्रि० अ० [हिं० धकपक] दहल जाना । डरना । उ०—धरनि धसत धकपक्क धीर धाराधर मुक्कत ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८५ ।

धकपेल
संज्ञा स्त्री० [अनु० धक + पेलना] धक्कमधक्का । रेलापेल । उ०—धमकंत सांग करें धकपेल ।—सूदन (शब्द०) ।

धका पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धक्का' । उ०—दुर्जन कुंभ कुम्हार का, एके धका दरार ।—तंतवाणी०, पृ० २० ।

धका (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] ओर । तरफ । उ०—खाग जरक्के लै गयों एक धके अखमाल ।—रा० रू०, पृ० ३३३ ।

धकाधक
वि० [अनु०] अत्यधिक मात्रा में । बहुत । उ०—आज तो तूने चकाचक भाँग और धकाधक जडुआन की अच्छी ठहराई ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १७० ।

धकाधकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धक्का] धककम धक्का । उ०—कीनी धकाधकी रिस मन मैं न आइयै ।—भक्तमाल, पृ० ४८८ ।

धकाधूम
संज्ञा स्त्री० [अनु० धक + धूम] भीड़भाड़ । रेलपेल ।

धकाना †
क्रि० स० [हिं० दहकाना] दहकाना । सुलगाना । जलाना । उ०—धूनी ध्यान धकाओ रैन दिन फिकिर फाहुरी खोई ।—कबीर (शब्द०) ।

धकापेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० धक्का + पेलना] धक्कम धुक्का । भीड़भाड़ में होनेवाली धक्केबाजी ।

धकार
संज्ञा पुं० [सं०] ध अक्षर ।

धकारा †
संज्ञा पुं० [अनु० धक] धकधकी । आशंका । खटका । उ०—तुम तो लीला करत सुरन मन परो धकारो ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना ।—होना ।

धकिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धक्का] धाक । प्रभाव । उ०—काल कराल जँजाल डरहिंगे अबिनासी की धकिया ।—भीखा० श०, पृ० ७२ ।

धकियाना †
क्रि० सं० [हिं० धक्का] धक्का देना । ढकेलना ।

धकेलना
क्रि० स० (हिं० धक्का) ढकेलना । ठेलना । धक्का देना । उ०—मेघों को एकत्रित करती हवा, हाथियों की धकेलती, उड़ चलो अरे लोगों उस निर्बल पुण्य पुरुष की करो मदद कुछ, तुम्हें चाहता था जौ इतना ।—दंदन०, पृ० १०२ । संयो० क्रि०—देना । विशेष—दे० 'ढकेलना' ।

धकेलू
संज्ञा पुं० [हिं० धकेलना] ढकेलनेवाला । धक्का देनेवाला ।

धकैत
वि० [हिं० धक्का + ऐत (प्रत्य०)] धक्का देनेवाला । धक्कम धक्का करनेवाला । उ०—द्रुत धीर धकैत गयौ धँसि कै ।— गोपाल (शब्द०) ।

धकोना
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'धकियाना' ।

धकौ पु
संज्ञा पुं० [हिं० धक्का] आक्रमण । हमला । उ०—धकौ न साहै मीरजाँ, वाहे सार गरज्ज ।—रा० रू०, पृ० ४६ ।

धक्क † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धक' ।

धक्क पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धक्का' । उ०—हा कहत उडत हाँ कहत ठड्ढ । गिर परत धक्क जिन कोट गड्ढ । —पृ० रा०, ६ । ११५ ।

धक्कपक्क
संज्ञा स्त्री० क्रि० वि० [हिं०] दे० 'धकपक' । उ०— अक्क सक्क, धक्क पक्क थरथरात आदित जात ।—सूदन (शब्द०) ।

धक्कमधक्का
संज्ञा पुं० [हिं० धक्का] १. बार बार बहुत अधिक या बहुत से आदमियों का परस्पर धक्का देने का काम । धकापेल । २. ऐसी भीड़ जिसमें लोगों के शरीर एक दूसरी से रगड़ खाते हों । रेलापेल । जैसे,—मंदिर के भीतर बहुत धक्कमधक्का है ।

धक्का
संज्ञा पुं० [सं० धम, हिं० घमक, घोंक या सं० धक्क (= नष्ट करना)] १. एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ ऐसा वेगयुक्त स्पर्श जिससे एक या दोनों पर एकबारगी भारी दबाव पड़ जाय अथवा गति के वेग का वह भारी दबाव जो एक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु के एकबारगी जा लगने से एक या दोनों पर पड़ता है । आघात या प्रतिघात । टक्कर । रेला । झोंका । जैसे,—(क) सिर में दीवार का धक्का लगना । (ख) चलती गाड़ी के धक्के से गिर पड़ना । क्रि० प्र०—देना ।—पहुँचना ।—पहुँचाना ।—मारना ।—लगना ।—लगाना ।—सहना । यौ०—धक्कापेल । धक्कमधक्का । विशेष—केवल गुरुत्व के कारण जो दबाब पड़ता है उसे 'धक्का' नहीं कह सकते, गति के वेग के अवरोध से जो दबाव एक- बारगी पड़ जाता है उसी को धक्का कहते हैं । २. किसी व्यक्ति या वस्तु को उसकी जगह से हटाने, खिसकाने गिराने आदि के लिये वेग से पहुँचाया हुआ दबाव अथवा इस प्रकार का दवाव पहुँचाने का काम । ढकेलने की क्रिया । झोंका । चपेट । जैसे,—इसे धक्का देकर निकाल दो । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—मारना ।—लगाना ।—सहना ।—होना । मुहा०—धक्का खाना = धक्का सहना । उपेक्षित होना । धक्के देकर निकालना = तिरस्कार और अपमान के साथ सामने से हठाना । ३. ऐसी भारी भीड़ जिसमें लागों के शरीर एक दूसरे से रगड़ खाते हों । कशमकश । कसामस । जैसे,—मंदिर के भीतर बड़ा धक्का है, मत जाओ । ४. शोक या दुःख का आघात । दुःख की चोट । संताप । जैसे,—भाई के मर जाने से उसे बड़ा धक्का पहुँचा । क्रि० प्र०—पहुँचना ।—पहुँचाना । ५. आपदा । विपत्ति । आफत । दुर्घटना । ६. हानि । टोटा । घाटा । नुकसान । जैसे,—इस व्यापार में उसे लाखों का धक्का बैठा । क्रि० प्र०—खाना ।—बैठना । ७. कुश्ती का एक पेंच जिसमें बायाँ पैर आगे रखकर विपक्षी की छाती पर दोनों हाथों से गहरा धक्का या चपेट देकर उसे गिराते हैं । छाप । ठोढ़ ।

धक्काड़
वि० [हिं० धक्का + अड़ना] प्रभावशली । जिसकी खूब चलती हो ।

धक्कामुक्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० धक्का + मुक्का] ऐसी लड़ाईजिसमें एक दूसरे को ढकेले और घूसों से मारे । मुठभेड़ । मारपीट ।

धखना पु
क्रि० अ० [हिं० धकना] जलना । प्रज्वलित होना । उ०—मद बक्कर भक्खर कोप धखै ।—ह० रासो, पृ० २१८ ।

धगड़
संज्ञा पुं० [सं० धव (= पति?)] जार । उपपति ।

धगड़बाज
वि० स्त्री० [हिं० धगड़ + फा० बाज] जार के पास आने जानेवाली व्यभिचारिणी । कुलटा ।

धगड़ा
संज्ञा पुं० [सं० धव (= पति?)] किसी स्त्री का जार । उपपति ।

धगड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धगड़ा] व्यभिचारिणी स्त्री । कुलटा स्त्री ।

धगधागना पु
क्रि० अ० [हिं० धकधकाना] धकधक करना । धड़कना (छाती या जी का) । उ०—जब राजा तेहि मारन लाग्यो । देवी काली मन धगधाग्यो ।—सूर (शब्द०) ।

धगरा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धगड़ा' ।

धगरिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाँगर] धाँगर जाति की स्त्री जो जन्मे हुए बच्चों का नाल काटती है ।

धगवरी
वि० [हिं० धगड़ा (= पति या यार)] १. पति की दुलारी । खसम की मुँहलगी । २. कुलटा । छिनाल । व्यभिचारिणी । उ०—जननी के खीझत हरि रोये झूठहिं मोहि लगावति धगरी ।—सूर(शब्द०) ।

धगा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धागा' (तागा) । उ०—सूरजदास कांच अरु कंचन एकहि धगा पिरोयो ।—सूर (शब्द०) ।

धगुला †
संज्ञा पुं० [देश०] हाथ में पहनने का कड़ा ।

धग्गड़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धगड़' ।

धचकचाना †
क्रि० स० [देश०] डराना । दहलाना ।

धचकना †
क्रि० अ० [देश०] दलदल में धँसना ।

धचका
संज्ञा पुं० [देश०] धक्का । झटका । झोंका । आधात । मुहा०—धचका उठाना = नुकसान उठाना । घाटा सहना ।

धच्छना पु
क्रि० स० [सं० धर्षण, हिं० धड़चना] मारना । वध करना । उ०—सुद्ध सहसच्छ के बिपच्छिन के धच्छिबे को मच्छ कच्छ आदि कला कच्छिबो करत हैं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २४३ ।

धज
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वज (= चिह्न, पताका)] १. सजावट । बनाव । सुंदर रचना । यौ०—सजधज = तैयारी । साज सामान । जैसे,—बरात बड़ी सजघज से निकली । २. सुंदर ढंग । मोहित करनेवाली चाल । तरह । ३. बैठने उठने का ढब । ठवन । ४. ठसक । नखरा । ५. रूप रंग । शोभा । आकृति या डील डौल । ६. झंडा । घ्वजा । पताका । उ०—रथ ऊपर घज फरहरई । खेहाडंबर नवि सूझइ भाण—बी० रासो, पृ० १२ ।

धजना पु
क्रि० अ० [हिं० धज] सजधज करना । सजना । उ०—आदर कियौ है धजि कै रीझेहि आए भजि कै ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ६१ ।

धजनेज पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धज + नेजा] नेजे में लगी हुई ध्वजा । उ०—धजनेज मोज नीसान ढल मनु वसंत रंज्जिय विपन ।— पृ० रा०, १ । ६१७ ।

धजबड़ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धज (= ध्वजा) + बड़ (=बढ़ानेवाला)] तलवार । (डिं०) । उ०—धजबड़ बल मेवाड़ धर, जीतौ तूँ यह जोध ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७२ ।

धजा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वज] १. ध्वाजा । पताका । उ०—सुभै सेत छत्रं धजा नेज माही ।—पृ० रा०, १ । ६३२ । २. कपड़े की धज्जी । कतरन । चीर । ३. धज । रूपरंग । डीलडौल ।

धजा पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धज] सजधज । सजावट । उ०—खिज्यौ रिष्षि भारी । दियो काम डारी । भयौ पुत्र तब्बं । धजा मोद सब्बं ।—पृ० रा०, १ । ५७ ।

धजी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धज्जी' । उ०—लाज लपेटी कहाँ जौं रहिय धुनि धीरज की करति धजी है ।—घनानंद, पृ० ३४७ ।

धजीला
वि० [हिं० धज + ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० धजीली] सजीला । तरहदार । सुंदर ढंग का ।

धज्जी
संज्ञा स्त्री० [सं० धटी] १. कपड़े, कागज, चमड़े इत्यादि (चद्दर के रूप की वस्तुओं) की कटी हुई लंबी पतली पट्टी । कटा हुआ लंबा पतला टुकड़ा । २. लोहे की चद्दर या लकड़ी के पतले तख्ते की अलग की हुई लंबी पट्टी । मुहा०—धज्जियाँ उड़ना = (१) फट या कटकर टुकड़े टुकड़े हो जाना । विदीर्ण होना । पुरजे पुरजे होना । (२) (किसी की) खूब दुर्गति होना । निंदा या तिरस्कार होना । दोषों का खूब उधेड़ा जाना । धज्जियाँ उड़ाना = (१) टुकड़े टुकड़े करना । विदीर्ण करना । खंड खंड करना । (२) (किसी के) दोषों को खूब उधेड़ना । दुंर्गति करना । निंदा या उपहास करना । उ०—धज्जियाँ उड़ाते दहलते जो नहीं । सिर उतारते किसलिये वे सी फरें ।—चुभते०, पु० ९ । (३) मारकर टुकड़े टुकड़े करना । बोटी बोटी काट डालना । धज्जियाँ लगना = गरीबी से कपड़े फटे रहना । बहुत गरीबी आना । धज्जियाँ लेना = निंदा या उपहास करना । (किसी के) दोषों को उधेड़ना । बनाना । दुगंति करना । धज्जी हो जाना = सूखकर ठठरी हो जाना । बहुत दुबला पतला हो जाना । अत्यंत दुर्बल और अशक्त हो जाना (रोग आदि के कारण) ।

धट
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुला । तराजू । २. तुला राशि । ३. तुला- परीक्षा । ४. धर्म ।

धटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तौल जो ४२ रत्तियों की होती थी ।

धटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाँच सेर की एक तौल । पंसेरी । २. चीर । वस्त्र । ३. कौपीन । लँगोटी । ४. गर्भ के पश्चात् स्त्री द्वारा पहना जानेवाला वस्त्र (को०) ।

धटी (१)
संज्ञा [स्त्री०] १. चीर । कपड़े की धज्जी । २. कौपीन ।लिंगोटी । ३. वह वस्त्र जो स्त्रियों को गर्भाधान के पीछे पहनने को दिया जाता था । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार गर्भाधान के पीछे मूल, श्रवण, हस्त, पुष्य, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्र या मृगशिरा नक्षत्रों में स्त्री को अच्छे दिन धटी वस्त्र पहनाना चाहिए । यौ०—धटीदान = गर्भाधान के बाद स्त्री को पुराना वस्त्र देना ।

धटी (२)
वि० [सं० धटिन्] [वि० स्त्री० धटिनी] तुलाधारक । डाँड़ी पकड़नेवाला ।

धटी (३)
संज्ञा पुं० तुला राशि । २. शिव । ३. व्यापारी । बनिया (को०) ।

धडंग
वि० [हिं० धड़ + अंग] नंगा । यौ०—नंग धड़ंग । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः अकेले नहीं होता 'नंग' शब्द के साथ समस्त रूप में होता है ।

धड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० धर(=धारण करनेवाला)] १. शरीर का स्थूल मघ्य भाग जिसके अंतर्गत छाती, पीठ और पेट होते हैं । सिर और हाथ पैर (तथा पशु पक्षियों में पूँछ और पंख) को छोड़ शरीर का बाकी भाग । सिर और हाथों को छोड़ कटि के ऊपर का भाग । उ०—धड़ सूली सिर कंगुरे, तउ न बिसारूँ तुज्झ ।—संतवाणी०, पृ० ३९ । यौ०—धड़टूटा । मुहा०—धड़ में डालना या उतारना = पेट में डालना । खा जाना । (किसी का) धड़ रह जाना = शरीर स्तब्ध हो जाना । देह सुन्न हो जाना । लकवा मार जाना । धड़ से सिर अलग करना = सिर काट लेना । मार डालना । २. पेड़ का वह सब मोटा कड़ा भाग जो जड़ से कुछ दूर ऊपर तक रहता है और जिससे निकलकर डालियाँ इधर उधर फैली रहती हैं । पेड़ी । तना ।

धड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो किसी वस्तु के एकबारगी गिरने, वेग से गमन करने आदि से होता है । जैसे,—(क) वह धड़ से नीचे गिरा । (ख) गाड़ी धड़ से निकल गई । यौ०—धड़ धड़ । विशेष—'खट' 'पट' आदि अनु० शब्दों के समान प्रायः इस शब्द का प्रयोग भी 'से' विभाक्ति के साथ क्रि० वि० वत् ही होता है ।

धड़क
संज्ञा स्त्री० [अनु० धड़] १. हृदय का स्पंदन । हृदय के आकुंचन प्रसारण की क्रिया जो हाथ रखने से मालूम होती है । दिल के चलने या उछलने की किया । हृदय के स्पंदन का शब्द । दिल के कूदने की आवाज । तड़प । तपाक । ३. भय, आशंका आदि के कारण हृदय का अधिक स्पंदन । अंदेशे या दहशत से दिल का जल्दी जल्दी और जोर जोर से कूदना । जी धक धक करने की क्रिया । ४. आशंका । खटका । अंदेशा । भय । यौ०—बेधड़क = बिना किसी खटके के । बिना किसी असमंजस या आगा पीछा के । निद्वँद्व । बिना किसी रुकावट या संकोच के । जैसे,—तुम बेधड़क भीतर चले जाओ । ५. हिचक । झिझक । संकोच ।

धड़कन
संज्ञा स्त्री० [हिं० धड़क] हृदय का स्पंदन । दिल का कूदना ।

धड़कना
क्रि० अ० [हिं० धड़क] १. हृदय का स्पंदन करना । दिल का उछलना या कूदना । छाती का धक धक करना । संयों० क्रि०—उठना । मुहा०—छाती, जी या दिल धड़कना = भय या आशंका से हृदय का जोर जोर से और जल्दी जल्दी उछलना । जी दहलना । हृदय काँपना । २. धड़ धड़ शब्द करना । किसी भारी वस्तु चे गिरने का सा शब्द करना । जैसे, गोला धड़कना ।

धड़का
संज्ञा पुं० [अनु० धड़] १. दिल की धड़कन । २. दिल के धड़कने का शब्द । ३. खटका । अंदेशा । भय । मुहा०—धड़का खुलना = साहस होना । भय जाता रहना । ४. गिरने पड़ने का शब्द । ५. पयाल का पृतला या डंडे पर रखी हुई काली हांड़ी आदि जिसे चिड़ियों को डराकर भगाने के लिये खेतों में रखते हैं । धोखा ।

धड़काना
क्रि० स० [हिं० धड़क] १. दिल में धड़क पैदा करना । जी घक धक कराना । २. जी दहलाना । डराना । खटका या आशंका उत्पन्न करना । संयो० क्रि०—देना । ३. धड़ धड़ शब्द उत्पन्न कराना । कोई ऐसी वस्तु फेंकना, गिराना या छोड़ना जिससे भारी शब्द हो । जैसे, गोला धड़काना ।

धड़क्का
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धड़का' । यौ०—धूम धड़क्का = खूब भीड़ भाड़ और धूम धाम । गहरा समारोह और ठाटबाट ।

धड़चना पु †
क्रि० स० [सं० धर्षण] १. मारना । उ०—जोराँवराँ बीत भुज जेहाँ, धड़चै सो तू हिञ अवघेस ।—रघु० रू०, पृ० २८३ । फाड़ना । विदीर्ण करना । उ०—धड़च कनाताँ धार सूँ, गौरहवास झझार ।—रा० रू०, पृ० २८३ ।

धड़चा पु
संज्ञा पुं० [हिं० धड़का] भय । आशंका ।

धड़च्छना पु
क्रि० अ० [हिं०] १. दे० 'धड़कना' । उ०—सुत आणंद महेस, खगे पँडवेस घड़च्छे ।—रा० रू०, पृ० २०६ ।

धड़टूटा
वि० [हिं० धड़ + टूटना] १. जिसकी कमर झुकी हुई हो । २. कुबड़ा ।

धड़धड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. किसी भारी वस्तु के एकबारगी गिरने, फेंके जाने, गमन करने या छूटने से उत्पन्न लगातार होनेवाला भीषण शब्द । २. धड़कन । उ०—जैसा उनके क्षुव्व हृदय में धड़ धड़ धड़ था ।—साकेत, पृ० ४०३ ।

धड़धड़ (२)
क्रि० वि० १. धड़ धड़ शब्द के साथ । जैसे, धड़ धड़ गोले छूट रहे हैं । २. बेधड़क । बिना रुकावट के ।

धड़धड़ाना
क्रि० अ० [अनु० धड़धड़] धड़ धड़ शब्द करना ।भारी चीज के गिरने, पड़ने की सी आवाज करना । जैसे,— गोले धड़धडा रहे हैं । मुहा०—धड़धड़ाता हुआ = (१) धड़ धड़ शब्द और वेग के साथ । गड़गड़ाहट और झोंक के साथ । जैसे,—गाड़ी धड़धड़ाती हुई निकल गई । (२) बिना रुकावट के और झोंक के साथ । बिना किसी प्रकार के खटके या संकोच के । बेधड़क । जैसे,— तुम धड़धड़ाते हुए भीतर चले जाना ।

धड़ल्ला
संज्ञा पुं० [अनु० धड़] १. धड़ धड़ शब्द । धड़ाका । वेग के साथ गिरने, पड़ने, गमन करने आदि का शब्द । मुहा०—धड़ल्ले से या धड़ल्ले के साथ = (१) बिना किसी रुकावट के । झोंक से । (२) बेधड़क । बिना किसी प्रकार के भय या संकोच के । जैसे, जो कुछ कहना हो धड़ल्ले के साथ कहो । २. धूमधड़ाका । भीड़ भाड़ और धूमधाम । ३. कशमकश । कसामस । गहरी भीड़ ।

धड़वा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मैना ।

धड़वाई
संज्ञा पुं० [हिं० धड़ा] तौलनेवाला ।

धड़हड़ना पु
क्रि० अ० [अनु०] काँपना । लरजना । उ०—सुंदर धरती धड़ेहड़ै गगन लगै उडि धूरि ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३९ ।

धड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० धट] १. पत्थर लोहे आदि का बोझ जो बँधी हुई तौल का होता है और जिसे तराजू के एक पलड़े पर रखकर दूसरे पलड़े पर उसी के बराबर चीज रखकर तौलते हैं । बाट । बटखरा । मुहा०—धड़ा करना = कोई वस्तु रखकर तौलने के पहले तराजू के दोनों पलड़ों को बराबर कर लेना । विशेष—जब किसी वस्तु को बरतन के सहित तौलना रहता है तब पहले बरतन को पलड़े पर रखकर दोनों पलड़ों को बराबर कर लेते हैं । इसी को धड़ा करना कहते हैं । धड़ा बाँधना = (१) दे० धड़ा करना । (२) दोषारोपण करना । कलंक लगाना । २. चार सेर की एक तौल । विशेष—कहीं कहीं पाँच सेर का धड़ा माना जाता है । ३. तराजू । तुला । मुहा०—धड़ा उठाना = तौलना । वजन करना ।

धड़ा (२)
संज्ञा पुं० [हि० धड़क्का] दल । जत्था । झुंड । समूह । मुहा०—धड़ा बाँधना = दल बाँधना ।

धड़ाक †
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'धड़ाका' ।

धड़ाका †
संज्ञा पुं० [अनु० धड़] 'धड़' 'घड़' शब्द । किसी भारी चीज से गिरने, छूटने, चलने आदि से उत्पन्न घोर शब्द । धमाके या गड़गड़ाहट का शब्द । जैसे, बंदूक का धड़ाका, दीवार गिरने का धड़ाका । क्रि० प्र०—होवा । मुहा०—धड़ाके से—झट से । जल्दी से । चटपट । बिना रुकावट के । जैसे,—धड़ाके से यह काम कर डालो ।

धड़ाधड़
क्रि० वि० [अनु० धड़] १. लगातार 'धड़' 'धड़' शब्द के साथ । बार बार धड़ाके के साथ । जैसे,—ऊपर से धड़ाघड़ ईटें गिर रही हैं । उ०—(क) धक्कों की धड़ाधड़ अडंग की अडाअड़ में, ह्वै रहै कड़ाकड़ सुदंतों की कड़ाकड़ी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०७ । (ख) चली तोप धाँ धाँ धधाँ धाँइ जग्गी । धड़ाधड़ धड़ाधड़ धड़ा होने लागी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११ । २. एक दूसरे के पीछे लगातार । बराबर जल्दी जल्दी । बिना रुके हुए । जैसे,—वह सब बातों का धड़ाधड़ जबाब देता गथा ।

धड़ाबंदो
संज्ञा स्त्री० [हिं० धड़ा + फा० बंदी] १. धड़ा बाँधने का काम । २. लड़ाई के पहले दो पक्षों का अपनी अपनी सेना का बल एक दूसरे के बराबर करना ।

धड़ाम
संज्ञा पुं० [अनु० धड़] ऊपर से एकबारगी कूद या गिरकर जोर से जमीन पानी आदि पर पड़ने का शब्द । जैसे,—छत पर से वह धड़ाम से कूद पड़ा । विशेष—खट, पट आदि अनु० शब्दों के समान इस शब्द का प्रयोग केवल 'से' विभक्ति के साथ क्रि० वि० वत् ही होता है ।

धड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० धटिका, धटी] १. चार या पाँच सेर की एक तौल । उ०—कहा बोझ सीरा में कहिये सौ ऊपर एक धड़ी ।—संतवाणी० पू० ७७ । मुहा०—धड़ी भरना = वजन करना । घड़ी धड़ी करके लुटना = तिनका तिनका लुटना । इस प्रकार लुटना कि पास में कुछ भी न रह जाय । धड़ी धड़ी करके लूटना = तिनका तिनका लूटना । खूब लूटना । कुछ भी न छोड़ना । धड़ियों = ढेर का ढेर । बहुत सा । बहुत अधिक । २. पाँच सौ रुपए की रकम । ३. रेखा । लकीर । ४. वह लकीर जो मिस्सी लगाने या पान खाने से ओठों पर पड़ जाती हैं । क्रि० प्र०—जमाना = ओठों पर मिस्सी की तह जमाना ।—लगाना = दे० 'घड़ी जमाना' ।

धडुकना पु
क्रि० अ० [हिं० धड़कना] गरजना । गड़गड़ाना । उ०—धुरि असाढ़ धडुकया मेह ।—बी० रासो, पृ० ७० ।

धण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धन्या] स्त्री । पत्नी । उ०—धणक बोल बस्यो मनै माँहि ।—बी० रासो, पृ० ३३ ।

धणी पु
संज्ञा पुं० [हिं० धनी] स्वामी । मालिक । अधिपति । उ०—सोनीगरा का हूँ करूँ बषाण, हाडा बुंदी का धणी ।— वी० रासो० पृ० ३१८ ।

धत्
अव्य० [अनु०] १. दुतकारने का शब्द । तिरस्कार के साथ हटाने का शब्द । दूर हो । हट जा । २. हाथी को पीछे हटाने का शब्द ।

धत
संज्ञा स्त्री० [सं० रत, हिं० लत] लत । बुरी बान । खराब आदत । टेव । क्रि० प्र०—पड़ना ।

धतकारना
क्रि० स० [अनु० धन्] १. दुतकारना । दुरदुराना ।तिरस्कार के साथ हटाना । २. धिक्कारना । लानत, मला- मत करना । संयो० क्रि०—देना ।

धता
वि० [अनु० धत्] चलता । हटा हुआ । जो दूर हो गया हो या किया गया हो । भागा या भगाया गया हो (बाजारू) । मुहा०—धता करना = चलता करना । हटाना । भगाना । टालना । धता बताना = (१) चलता करना । हटाना । उ०—जब सौ डेढ़ सौ रुपए हो जाते, तो वह नौकरी को धता बता देते । किन्नर०, पृ० १०० । (२) जो किसी बात के लिये अड़ा हो उससे इधर उधर का बहाना करके अपना पीछा छुड़ाना । धोखा देकर टालना । टालटूल करना । धता होना = चलता होना । चल देना ।

धतिंगड़
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'धतींगड़' ।

धतिया
वि० [हिं० धत] जिसे किसी बात की धत पड़ गई हो । बुरी लत वाला । लत्ती ।

धतींगड़
संज्ञा पुं० [देश०] १. बड़े डील का । बेडौल आदमी । मोटा ताजा आदमी । सुर्स्टड । २. जारज । दोगला ।

धतींगड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धतींगड़' ।

धतूर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० धर्तूर] दे० 'धतूरा' ।

धतूर (२)
संज्ञा पुं० [अनु० धू + सं० तूर] नरसिंहा नाम का बाजा । धूतु । सिंहा । तुरही । उ०—दसएँ मास मोहन भए मेरे आँगन बाजै धतूर । —सूर (शब्द०) ।

धतूरा
संज्ञा पुं० [सं० धुस्तूर अथवा सं० धत्तूरक] दो तीन हाथ ऊँचा एक पौधा जिसके पत्ते सात आठ अंगुल तक लंबे और पाँच छह अंगुल चौड़े तथा कौनदार होते हैं । विशेष—इसमें घंटो के आकार के बड़े बड़े और सुहांवने सफेद फूल लगते हैं । फल इसके अंडी के फलों के समान गोल और काँटेदार पर उनसे बड़े बड़े होते हैं । अंडी के फल के उपर जो काँटे निकले होते हैं वे घने लंबे और मुलायम होते हैं, पर धतूरे के फल के ऊपर काँटे कम, छोटे और कुछ अधिक कड़े होते हैं । कंटकहीन फलवाला धतूरा भी होता है । फलों के भीतर बीज भरे होते हैं जो बहुत विषैले होते है । जब ये बीज पुष्ट हो जाते हैं तब फल फट जाते हैं । धतूरे कई प्रकार के होते हैं पर मुख्य भेद दो माने जाते है । सफेद धतूरा और काला धतूरा । कहीं कहीं पीला धतूरा भी मिलता है । इसके फूल सुनहले रंग के होते हैं । काले धतूरे के डंठल, टहनियाँ और पत्तों की नसे गहरे बगनी रंग की होते है तथा फूलों के निचले भाग भी कुछ दूर तक रक्तकृष्णाभ होते हैं । साधारणतः लोगों का विश्वास है कि काला घतूरा अधिक विषेला होता है, पर यह भ्रम है । औषध में लोग काले धतूरे का व्यवहार अधिक करते है । वैद्य लोग धतूरे के बीज तथा पते के रस का दमें सें सेवन कराते और वात की पीड़ा में उसका बाहरी प्रयोग करते हैं । डाक्टरों ने भी परीक्षा करके इन दोनों रोगों में धतूरे को बहुत उपकारी पाया है । सुखे पत्तों या बीजों के घुएँ से भी दय का कष्ट दूर होता है । पहले डाक्टर लोग धतूरे के गुणों से अनभिज्ञ थे पर अब वे इसका उपयोग करने लगे हैं । पागल कुत्ते के काटने में भी धतूरा बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है । धतूरे के फूल फल शिव को चढ़ाए जाते हैं । वैद्यक में धतूरा कसैला, उष्ण, गुरु तथा मंदाग्नि और वातकारक माना जाता है । औषध के अतिरिक्त विषप्रयोग और मादकता के लिये भी धतूरे का प्रयोग होता है । इसके बीज भाँग और शराब को तेज करने के लिये कभा कभी मिलाए जाते हैं । धतूरा प्रायः गरम देशों में पाया जाता है । भारतवर्ष में यह सर्वत्र मिलता है । प्रदेशभेद से पौधों में थोड़ा बहुत भेद पाया जाता है । दक्षिण, देश का धतूरा उत्तराखंड के धतूरे से देखने में कुछ भिन्न मालूम होता है । काश्मीर, काबुल और फारस तक से इसके बीज हिंदुस्तान में आते हैं । फारस से ये ये बीज तागे में गूँथकर माला के रूप में आते हैं और बंबई में 'बर- मूली' के नाम से बिकतेक हैं । पर्या०—उन्मत्त । कितव । धूर्त । कनक । कनकाह्वय । मातुल । मदन । धत्तूर । शाठ । श्याम । शिवशेखर । खर्जुघ्न । काहलापुष्प । लल । कंटफल । मौहन । कृलभ । मत्त । शैव । देविका । तूरी । महामोह । शिवप्रिय । मुहा०—धतूरा खाए फिरना = पागल बना फिरना । उन्मत्त के समान घूमना । उ०—सूरदास प्रभु दरसन कारन मानहुँ फिरत धतूरा खाए । —सूर (शब्द०) ।

धतूरिया
संज्ञा पुं० [हिं० धतूर + इया (प्रत्य०)] ठगों का वह दल या संप्रदाय जो पथिकों को धतूरा खिलाकर बेहोश करता और लूटता था ।

धत्ता (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक छंद जिसके विषम (पहले और तीसरे) चरणों में १८ और सम (दूसरे, चौथे) चरणों में १६ मात्राएँ हौती हैं । अंत में तीन लघु होते हैं । यह छंद द्विपदी धत्ता कहलाता है और दो ही पंक्तियों में लिखा जाता है । जैसे,—श्रीकृष्णमुरारी कुंजविहारी कर, भजु जन मन- रंजन पदन । घ्यावो बनवारी जनदुखहारी, जिहि नित जप गंजन मदन ।

धत्ता (२)
संज्ञा पुं० [देश०] थाली की बारी का ढालुवाँ भाग ।

धत्ता पु
वि० [हिं०] दे० 'धता' । उ०—धन घाइ सघत्ता सूर सरता । मैंगल मत्ता करि धत्ता ।—पृ० रा०, २५ । ५४ ।

धत्तानंद
संज्ञा पुं० [?] एक छंद जिसकी प्रत्येक पंक्ति में ११ + ७ + १३ के विश्राम से ३१ मात्राएँ होती हैं । अंत में एक नगण होता है । जैसे,—जय कंदिय कुल कंस, बलिविध्वंस, केशिय बक दानव दरन । सो हरि दीनदयाल, भक्तकृपाल, कवि सुखदेव कृपा करन—सुखदेव (शब्द०) ।

धत्ती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धरती' । उ०—सिद्ध कहत सुनु राजन बत्तिय । जो तू तजि आयौ निज धत्तिय ।—पृ० रा०, १ । ३९८ ।

धत्तूर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा ।

धेत्तूरक
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०] ।

धत्तूरका
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०] ।

धधक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. आग की लपट के ऊपर उठने की क्रिया या भाव । आग की भड़क । २. आँच । लपट । लौ । उ०—मकर तार मारग लखि पावा ता बिच धधक चढ़ाई ।—घट०, पृ० ३११ । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना ।

धधकना
क्रि० अ० [हिं० धधक] आग का इस प्रकार जलना कि लपट ऊपर उठे । लपट के साथ जलना । धायँ धायँ जलना । दहकना । भड़कना । संयो० क्रि०—उठना ।

धधकाना
क्रि० स० [हिं० धधकना] १. आग को इस प्रकार जलाना कि उसमें से लपट उठे । २. दहकाना । प्रज्वलित करना । संयो० क्रि०—देना ।

धधकार † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धधकना] गर्जन । उ०—गगन गुमठ धधकार सुनाऊँ ।—घट०, पृ० ३७१ ।

धधकार पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुधुकार' । उ०—धुन धधकार चढ़ अगम झूला ।—तुरसी श०, पृ० २२ ।

धधकारना पु
क्रि० स० [हिं० धधकार] जलाना । प्रज्वलित करना । उ०—ब्रह्म अगिन अंदर धधकारी ।—धरम०, पृ० १८ ।

धधाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'धधकाना' । उ०—आग सी धधात ताती लपट सिराय गई । पौन पुरवाई लागो सीतल सुहान री ।—ठाकुर०, पृ० २० ।

धनंजय (१)
वि० [सं० धनञ्जय] धन को जीतने अर्थात् प्रास करनेवाला ।

धनंजय (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि । उ०—असंजोग ते कहुँ कहैं, एक अर्थ कबिराई । कहें धनंजय धूम बिनु, पावक जान्यों जाइ ।— भिखारी०, ग्र०, भा० २, पृ० ७ । विशेष—इनकी पूजा से धन की प्राप्त होती है । २. चित्रक वृक्ष । चीता । ३. अर्जुन का एक नाम । ४. अर्जुन वुक्ष । ५. विष्णु । ६. एक नाग का नाम जो जलाशयों का अधिपति कहा गया है । ७. शरीरस्थ पाँच वायुओं में से एक । विशेष—यह वायु पोषण करनेवाली मानी गई है (वेदांतसार) । सुबोधिनी टोका में लिखा है कि यह मरने पर भी वनी रहती है । इससे शरीर फूलता है । ललाट, स्कंध, हृदय, नाभि, अस्थि और त्वचा इसके रहने के स्थान कहे गए हैं ।

धनंत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धन्वंतरि' । उ०—सु पारिजात पानयं । सुरा धनंत मानयं ।—पृ० रा० १ । १२३ ।

धनंतर (१)
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्तरि] दे० 'धनंतरि' ।

धनंतर (२)
संज्ञा पुं० [सं० जन्वन्तरु(=सोम का एक भेद)] एक पौधा जिसकी पत्तियाँ मोटी और फूल नीली होते है ।

धनँतर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धन्वंतरि' । उ०—रिषिकेस दिय ब्रह्मा, ताहि धनंतर पद सोहै ।—पृ० रा०, २१ । १५३ ।

धन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु या वस्तुओं की सअष्टि जिससे किसी उपयोगी या इष्ट अर्थ की सिद्धि होती है और जो श्रम, पूँजी या समय लगाने से प्राप्त होती है विशेषतः अधिक परिमाण में संचित उपयोग को सामग्री । रुपया पैसा, जमीन, जायदाद इत्यादि । जीवनोपाय । संपत्ति । द्रव्य । दौलत । क्रि० प्र०—कमाना ।—भोगना ।—लगाना । यौ०—धनधान्य । मुहा०—घन उड़ाना = धन को चटपट व्यर्थ खर्च कर डालना । २. चौपायों का झुंड जो किसी के पास हो । गाय, भैंस आदि । गोधन । ३. स्नेहपात्र । अत्यंत प्रिय व्यक्ति । जीवनसर्वस्व । जैसे, आणधन, जीवनधन । ४. गणित में जोड़ी जानेवाली संख्या या जोड़ का चिह्व । योग संख्या या योग (+) । ऋण या क्षय का उलटा । ५. वह द्रव्य जिसमें वृद्धि या व्याज न संमिलित हो । मूल । पूंजी । ३. जन्मकुंडली में जन्मलग्न से दूसरा स्थान । विशेष—इसे देखकर यह विचार किया जाता है कि बच्चा धनी होगा या निर्धन । जैसे, यदि सूर्य धन स्थान में हो तो मनुष्य धनहीन होगा, चंद्रमा हो तो धनधान्य से पूर्ण होगा, इत्यादि । अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ये धनप्रयोग नक्षत्र कहलाते हैं । ७. कच्ची धातु । खान से निकली हुई बिना साफ या शुद्ध की हुई धातु (खानवाले) । ८. लूट का माल (को०) । ९. पुरस्कार (कौ०) । १० प्रतिद्वंदिता । होड़ । मुकाबिला (को०) । ११. आवाज । शब्द । ध्वनि (को०) । १२. धनिष्ठा नक्षत्र (को०) ।

धन पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धनी] युवती स्त्री । वधू । उ०—(क) पुनि धन भरि अंजुलि जल लीन्हा । नखत मोछ न्योछावरि कीन्हा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) सूरदास सोभा क्यों पावै पिय विहोन धन मटके ।—सूर (शब्द०) । (ग) नूपुर पायँ उठे झननाय सु जाय लगी धन धाय झरोखे ।—देव (शब्द०) ।

धन † (३)
वि० [सं० धन्य] दे० 'धन्य' । उ०—धन वे पुरष बड़ा पणधारी ।—र० रू०, पृ० २४ ।

धनक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन की इच्छा । २. राजा कृतवीर्य के पिता ।—(भागवत) ।

धनक (२)
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्] १. धन की इच्छा । २. राजा कृतवीर्य के पिता ।—(भागवत) ।

धनक (२)
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्] १. धनुष । कमान । उ०—धनक पिनाक चढ़ाय धरै ।—रघु० रू०, पृ० ७४ । २. एक प्रकार का पतला गोठा जिसे टोपी आदि में लगातै हैं । ३. एक प्रकार की ओढ़नी ।

धनक पु (३)
वि० [हिं०] दे० धनिक' । उ०—पट्टन धनकनि देह दुष गेह कटन ग्रह हथ्थ ।—पृ० रा०, १ । ४२२ ।

धनकटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धान + कढना] १. धान की कटाई का समय । २. एक प्रकार का कपड़ा ।

धनकर
संज्ञा पुं० [हिं० धान + करना] १. वह कड़ी मट्टी जिसमें धान बोया जाता है और जिसमे बिना अच्छी वर्षा हुए हल नहीं चल सकता । २. वह खेत जिसमें धान बोया जाता हो । ३. धान । धान की फसल ।

धनकाम, धनकाम्य
वि० [सं०] लोभी [को०] ।

धनकुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धान + कूटना] १. धान कूटने का काम । २. धान कूटने के औजार, ओखली, मूसल । मुहा०—धनकुट्टी करना = मारते मारते कचूमर निकालना । बहुत पीठना । ३. उड़नेवाला लाल रंग का एक छोटा (जौ के बराबर) कीड़ा जिसका मुँह काला होता है । यह अपना अगला धड़ इस प्रकार नीचे नीचे ऊपर हिलाता है जैसे धान कूटने की ढेकली । उ०—कोउ धनकुट्टी कोउ टोड़िन पाँखिन गहि छोड़ी ।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० ४९ ।

धनकुबेर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो धन में कुबेर के समान हो । अत्यंत धनी मनुष्य ।

धनकेलि
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।

धनकोटा
संज्ञा पुं० [देश०] एक झाड़ या पौधा जो हिमालय के कम ठढे स्थानों में होता है और जिससे नैपाली कागज बनता है । चमोई । सतबरवा । सतपुरा ।

धनखर
संज्ञा पुं० [हिं० धान] वह खेत जिसमें (कुआरी) धान वोया जाता हो । धनाऊँ ।

धनचिड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धान + चिड़ी] एक प्रकार की चिड़िया ।

धनतेरस
संज्ञा स्त्री० [हिं० धन + तेरस] कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी जो दोवाली के दो दिन पहले होती है । विशेष—इस दिन रात को लक्ष्मी की पूजा होती है ।

धनदंड
संज्ञा पुं० [सं० धनदण्ड] वह दंड जिसमें अपराधी को कुछ धन देना पड़ता है । जुरमाना ।

धनद (१)
वि० [सं०] धन देनेवाला । दाता ।

धनद (२)
संज्ञा पुं० १. कुबेर । उ०—ध्याय चुको धनद कमाय चुको कामतरु पाय चुको पारस रिझाय चुको राम को ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३१० । २. हिज्जल वृक्ष । समुद्रफल । ३. धनपति वायु । ४. अग्नि । ५. चित्रकवृक्ष । चीता । ६. हिमालय या उत्तराखंड के एक देश का नाम । (महाभारत) ।

धनदतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेरतीर्थ जो ब्रज के अंतर्गत है ।

धनददिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तर दिशा [को०] ।

धनदा (१)
वि० स्त्री० [सं०] धन देनेवाली ।

धनदा (२)
संज्ञा स्त्री० आश्विन कृष्ण एकादशी का नाम ।

धनदाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लता करंज ।

धनदायन
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधा जिसके काढ़े से ऊनी कपड़ों पर माड़ी देते हैं ।

धनदायी
संज्ञा पुं० [सं० धनदायिन्] अग्नि [को०] ।

धनदेव
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।

धनधन पु
वि० [हिं० धन + धन] धन्य । धन्य धन्य । उ०—गुरु देव संग भाँवरि लेइहों धन धन भाग हमार ।—कबीर श०, पृ० ८० ।

धनधन्नि पु
वि० [हिं० धनधन्न] धन्य धन्य । उ०—धनवन्नि नरिंद सुलोइ नरं ।—पृ० रा०, १२ । १४३ ।

धनधानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खजाना [को०] ।

धनधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] धन और अन्न आदि । सामग्री और संपत्ति । जैसे, धन—धान्य—पूर्ण देश ।

धनधाम
संज्ञा पुं० [सं०] घरबार और रुपया पैसा ।

धनधारी
संज्ञा पुं० [सं० धन + धारी] १. कुबेर । उ०—राम निछावरि लेन को हठि होत भिखारी । बहुत्यित तेहि देखिए मानहु धनधारी ।—तुलसी (शब्द०) । २. बहुत बड़ा अमीर । परम धनवान् ।

धननंद
संज्ञा पुं० [सं० धननन्द] सिंहल के महार्वश नामक ग्रंथ के अनुसार मगध के नंदवंश का अंतिम राजा जिसका चाणक्य द्वारा नाश हुआ । दे० 'नंदवंश' ।

धननाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर ।

धनपति पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर । २. पुराण के अनुसार वायु का नाम । विशेष—वराहपुराण में लिखा है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि की तब उनके मुख से वायु देवता निकले । ब्रह्मा ने उनसे मूर्तिमान होकर शांत भाव धारण करने के लिये कहा और वर दिया कि 'देवताओं' का जितना धन है सबके रक्षक तुम हो । जो एकादशी के दिन आग में पका अन्न न खायगा उसके प्रति प्रसन्न होकर तुम धनधान्य दोगे' ।

धनपत्ति पु
संज्ञा पुं० [सं० धनपति] दे० 'धनपति' । उ०—जीव जीव धनपत्ति सुहाइय ।—प०—रासो, पृ० १४ ।

धनपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बही खाता ।

धनपातर पु
संज्ञा पुं० [सं० धनपात्र] दे० 'धनपात्र' । उ०—पूछेसि इहाँ साहु कोउ अहई । धनपातर जा कहँ जग कहई ।—चित्रा०, पृ० २३४ ।

धनपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] धनवान । धनी ।

धनपाल (१)
वि० [सं०] १. धन का रक्षक । २. खजांची (को०) ।

धनपाल (२)
संज्ञा पुं० कुबेर ।

धनपिशाच
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अर्थपिशाच' ।

धनपिशाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अविवेकपूर्वक धनसंग्रह करने की वृत्ति । धनकोलुपता । [को०] ।

धनपिशाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनलोलुपता [को०] ।

धनप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] धन को किसी व्यापार में लगाने या ब्याज पर उधार देने का कार्य । रुपया लगाने का काम । विशेष—मुहूर्तचिंतामणि, ज्योतिप्रकाश आदि फलित ज्यौतिष के ग्रंथों में इस बात का विचार किया गया है कि किन किन नक्षत्रों या दिनों में धनप्रयोग करना चाहिए, किन किन में नहीं ।

धनप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छोटा जामुन ।

धनमद
संज्ञा पुं० [सं०] धन का घमंड ।

धनमान पु
वि० [हिं०] दे० 'धनवान' । उ०—संमति हम लोग अपने विख्यात कुलीन धनमानों को देंगें ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७९ ।

धनमाली
संज्ञा पुं० [सं० धनमालिन्] एक अस्त्र का संहार ।

धनमूल
संज्ञा सं० [सं०] पूँजी । मूलधन [को०] ।

धनराज पु
संज्ञा पुं० [सं० धन + राज] धनी । धनवान । उ०— थानि गथ्थिरा दामा दयाल । धनराज कींण भोगी भुआल ।— पृ० रा०, ६६ । १५३ ।

धनवंत
वि० [हिं०] दे० 'धनवान' । उ०—(क) आशा तृष्णा जेहि घर व्यापै धनवंता सौ सो चाह मिलापै ।—कबीर सा०, पृ० ४८५ । (ख) तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलिकौतुक तात न जात कही ।—मानस, ७ ।

धनवती (१)
वि० स्त्री० [सं०] धन रखनेवाली ।

धनवती (२)
संज्ञा स्त्री० धनिष्टा गक्षत्र ।

धनवा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धान] एक प्रकार की घास ।

धनवा (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धन्वा' । उ०—भए कर अगले अंग जाके । खैंचत बार बार धनवा कै ।-शकुंतला, पृ० ३१ ।

धनवान्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० धनवती] जिसके पास धन हो । धनी । दौलतमंद ।

धनवारा पु
वि० [हिं० धन + वाला (प्रत्य०)] धनी । उ०— सोऊ नहीं मनभावन नायक, आवत जो बहुतै धनवारो ।— मति० ग्रं०, पृ० २९० ।

धनशाली
वि० [सं० धनशालिन्] [वि० स्त्री० धनशालिनी] धनवान् । धनिक ।

धनसार
संज्ञा पुं० [हिं० धान + सार (शाला)] अनाज भरने की कोठरी या घेरा जिसमे केवल दो खिड़कियाँ अनाज रखने और निकालने के लिये होती हैं ।

धनसिरी
संज्ञा स्त्री० [सं० धन + श्री] एक चिड़िया ।

धनसुंघा
संज्ञा पुं० [हिं० घन + सूँघना] घन सूँघनेवाले । सूँघकर घन की जानकारी करनेवाले । उ०—कुछ लौग धनसुंधा होते हैं, और बिना देखे ही जान जाते हैं कि किस चीज में रुपया छिपाया गया है ।—जिप्सी, पृ० ३३ ।

धनसू
संज्ञा पुं० [सं०] धनेस नाम की चिड़िया ।

धनस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. खजाना । २. कुंडली में लग्न से दूसरा स्थान जिसमें पड़े ग्रहों की स्थिति के आधार पर किसी का धनी या निर्धन होना जाना जाता है [को०] ।

धनस्यक (१)
वि० [सं०] धन की लालसा रखनेवाला ।

धनस्यक (२)
संज्ञा पुं० गोक्षुरक । गोखरू ।

धनस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० धनश्वामिन्] कुबेर ।

धनहटा
संज्ञा स्त्री० [सं० धन + हिं० हाट] धान्यहाट । अनाज की मंडी । उ०—मचूर पोरेजन पद सम्हार सम्हींत, धनहटा, हटा, पनहटा, पक्कानहटा, मछहटा करेजो सुख रवकथा कहंते ।—कीर्ति०, पु० २८ ।

धनहर (१)
वि० [सं०] धन हरनेवाला ।

धनहर (२)
संज्ञा पुं० १. चोर । लुटरा । २. चोर नामक गंधद्रव्य । ३. उत्तराधिकारी । वारिस (को०) ।

धनहार्य
वि० [सं०] जिसे धन देकर वशीभूत किया जाय [को०] ।

धनहीन
वि० [सं०] निर्धन । दरिद्र । कंगाल ।

धना (१)
संज्ञा स्त्री० [?] एक रागिनी ।

धना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धनिका, हिं० धनिया (=युवती)] युवती । वधू (गीत या कविता) ।

धनाढ्य
वि० [सं०] धनवान् । मालदार ।

धनाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] धन या संपत्ति का अधिकार [को०] ।

धनाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर ।

धनाधीश
संज्ञा पुं० [सं० धन + अर्धाश] धनपति । धनिक । उ०— जो सैकड़ों धनाधाशों की कामना है ।—ज्ञान०, पृ० ५० ।

धनाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं० धन + अर्धाश] धनपति । धनिक । उ०— जो सैकड़ों धनाधाशों की कामना हौ ।—ज्ञान०, पृ० ५० ।

धनाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. खजानचो ।२. कुबेर ।

धनाना
क्रि० अ० [सं० धेनु (=नवसूतिका गाय)] १. गाय का गर्भवती होना । बच्चे से होना । २. गाय का बरदाना । गाय का साँड़ से संयोग करना ।

धनानी पु
संज्ञा पुं० [सं० धन] धनी । धनिक । उ०—किंन्नर अरु विद्याधरा यक्षादि धनानी ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २०६ ।

धनापहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्थदड । २. लूट ।[को०] ।

धनार्चित
वि० [सं०] मूल्यवान उपहारों को देकर संतुष्ट किया हुआ [को०] ।

धनावह
वि० [सं० धन + वाह] धनी । धनपति । उ०—मेरा पति धनावह सेठ्ठि सहस्रभार स्वर्ण का अधिपति था ।—वैशाली०, पृ० १७१ ।

धनाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनप्राप्ति की आशा [को०] ।

धनाश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो हनुमान् के मत से श्री राग की तीसरी पत्नी मानी जाती है । विशेष—इसकी जाति षाड़व, ऋषभ वर्जित गृहांशन्यास षड़ज है । गाने का समय किसी किसी के मत से दिन का दूसरा पहर और किसी के मत से तीसरा पहर है । इसका प्रयोग वीर रस में विशेष होता है । इसका सरगम इस प्रकार है— स । ग । म । प । ध । नि । स । भरत के मत से यह गांधार राग की भार्या और कल्लिनाथ के मत से मेघराग की चतुर्थ भार्या है ।

धनि पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धनी] युवती । वधू । उ०—धनि वै धनि सावन की रतियाँ पिय की छर्तियाँ लगि सोवति हैं ।—(शब्द०) ।

धनि (२)
वि० [सं० धन्य] दे० 'धन्य' । उ०—धनि धनि भारत की छत्रानी ।—हरिश्चंद्र (शब्द) ।

धनि पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धनी' । उ०—जी ने धनि का हुकुम किया । जी ने बोध का प्याल पिया ।—दक्खिनी०, पृ० १२२ ।

धनिक (१)
वि० [सं०] १. धनी । जिसके पास धन हो । २. गुणयुक्त (को०) ।

धनिक (२)
संज्ञा पुं० १. धनी मनुष्य । २. पति । स्वामी । ३. रुपया उधार देनेवाला मनुष्य । महाजन । उत्तमर्ण । ४. धनिया । ५. ईमानदार बनिया । व्यापारी (को०) ।६. प्रियंगु का पेड़ (को०) ।

धनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनी स्त्री । २. अच्छी स्त्री । वधू । युवती । ३. प्रियंगु वृक्ष ।

धनिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनीपना । धनाढ्यता ।

धनिप
संज्ञा पुं० [सं०] धनी । स्वामी । उ०—पट्ठाम सहस पर जित्ति चलिव दिल्लिय धनिप ।—प० रासो, पृ० ३८ ।

धनिया (१)
संज्ञा पुं० [सं० धन्याक, घनिका अथवा धनीयक] एक छोटा पौधा जिसके सुगंधित फल मसाले के काम में आते हैं । विशेष—यह पौधा हिंदुस्तान सें सर्वत्र बोया जाता है । प्राचीन काल में धनिया प्रायः भारतवषं ही से मिस्त्र आदि पश्चिम के देशों में जाता था पर अब उत्तरी अफ्रिका तथा रूस, हंगरी आदि योरप के कई देशो में इसकी खेती अधिक होने लगी है । धनिए का पौधा हाथ भर से बड़ा नहीं होता था । इसकी टहनियाँ बहुत नरम और लता की तरह लचीली होती हैं । पत्तियाँ बहुक छोटी और कुछ बोलाई लिए होती है पर उनमें टेढ़े मेढ़े तथा इधर उधर निकले हुए बहुत से कटाव होते हैं । इन पत्तियों की सुगंध बड़ी मनोहर होती है जिससे वे चटनी में हरी पीसकर डाली जाती हैं । टहनियों के छोर पर इधर उधर कई सींकें निकलती हैं जिनके सिरों पर छत्ते की तरह फैले हुए सफेद फूलों के गुच्छे लगते हैं । फूलों के झ़ड़ जाने पर गैहूँ से भी छोटे छोटे लंबातरे फल लगते हैं जो सुखाकर काम में लाए जाती हैं । भारतवर्ष में इसकी खेती भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न ऋतुओं में होती है । जैसे, बगाल और उत्तरप्रदेश में जाड़े में, बंबई प्रदेश में बरसात में और मदरास में शिशिर ऋतु में । मसाले के अतिरिक्त योरप में धनिए का तेल भी भबके से अर्क निकालकर निकाला जाता है, जो खाने और दवा के काम में आता है । वैद्यक में धनिया शीतल, स्निग्ध, दीपन, पाचन, वीर्यकारक कृमिनाशक तथा पित्तज्वर, खाँसी, प्यास और दाह को दूर करनेवाला माना जाता है । डाक्टर लोग भी पेट की वायु दूर करने और शरीर में फुरती लाने के लिये इसका प्रयोग करते हैं । पर्या०—धन्याक । धनिक । धानक । धनिका । छत्राधान्य । कुस्तुंबुरु । वितुन्नक । सुगंधि । सूक्ष्मपत्र । जनप्रिय । वेधक । वजिधान्य । मुहा०—धनिए की खोपड़ी में पानी पिलाना = प्यासों मारना । बहुत कठिन दंड देना । बहुत तंग करना ।(स्त्रि०) ।

धनिया पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धनिका (=युवती)] युवती । बधू । स्त्री । उ०—संहसानन गुन गनैं गनत न बनियाँ । सूर स्याम सू भूलीं गोप धनियोँ ।—सूर (शब्द०) ।

धनियामाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० धनी + माला] गले में पहनने का एक गहना ।

धनिष्ठ
वि० [सं०] धनी । धनाढ़्य ।

धनिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सत्ताईस नक्षत्रों में से तेईसवाँ नक्षत्र जो ९ ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में से है और जिसमें पाँच तारे संयुक्त हैं । इसके अधिपति देवता वसु हैं और इसकी आकृति मृदंग की सी है । फलित ज्योतिष के अनुसार धनिष्ठा नक्षत्र में जिसका जन्म हो वह दीर्घकाय, कामातुर, कफयुक्त, उत्तम शास्त्रवेत्ता और कीर्त्तिमान् होता है । पर्या०—श्रविष्ठा । वसुदेवता । भूति । निधान । धनवती । विशेष— दे० 'नक्षत्र' ।

धनी (१)
वि० [सं० धनिन्] १. धनवान् । जिसके पास धन हो । मालदार । रुपए पैसेवाला । दौलतमंद । यौ०—धनी धोरी = मर्यादावाला । थापवाला । धनी मानी= धनी और प्रतिष्ठित । मुहा०—बात का धनी = बात का सच्चा । दृढ़प्रतिज्ञ । २. जिसके पास कोई गुण आदि हो । दक्षतासंपन्न । जैसे, तलवार का धनी ।

धनी (२)
संज्ञा पुं० १. धनवान पुरुष । मालदार आदमी । २. रखनेवाला आदमी । वह जिसके अधिकार में कोई हो । अधिपति । मालिक । स्वामी । जैसे, कोशलधनी । उ०—सो राम रमानिवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. पति । शोहर ।

धनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] युवती स्त्री । वधू । उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्याम तमालै उठँगि बैठी धनी ।—हरिदास (शब्द०) ।

धनीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] युवती । तरुणी [को०] ।

धनीमानी पु
संज्ञा पुं० [सं० धन + मान + ई (प्रत्य०)] धनी । धनवान् । उ०—सभी धनीमानी एवं गुणी व्यक्तियों में साहित्यिक अभिरुचि जाग्रत थी ।—अकबरी०, पृ० १९ ।

धनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया ।

धनुःपट
संज्ञा पुं० [सं०] पियाल वृक्ष ।

धनुःशाखा
संज्ञा पुं० [सं०] पियाल वृक्ष ।

धनुःश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुर्वा । मुर्रा । २. महेंद्रवारुणी ।

धनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुस् । चाप । कमान । विशेष— दे० 'धनुस्' । २. ज्योतिष की बारह राशियों में से नवीं राशि जिसके अंतर्गत मूल और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र तथा उत्तराषाढ़ा का एक चरण आता है । इसे तौक्षिक भी कहते हैं । विशेष— दे० 'राशि' । ३. फलित ज्योतिष में एक लग्नविशेष जिसका परिमाण ५ । १७ । २० है । विशेष—प्रत्येक दिन रात में बारह लग्न माने जाते हैं । पूस के महीने में सूर्येदय धनु लग्न में होता है ।४. हठयोग के एक आसन का नाम । ५. पियाल् वृक्ष । ६. चार हाथ की एक माप । ७. गोल क्षेत्र के आधे से कम अंश का क्षेत्र । ८. रेतीला तट (को०) । ९. तीरंदाज (को०) ।

धनुआ
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्, धन्वा] १. धनुष । कमान । २. ताँत की डोरी की लंबी कमान जिससे धुनिए रुई धुनते हैं ।

धनुई †
संज्ञा स्त्री० [सं० धनु + ई(प्रत्य०)] छोटा धनुष ।

धनुक
संज्ञा पुं० [सं० धनुस्] दे० 'धनुस्' । उ०—भोंहै घनुक अनुक पै हारा । नैनन्हि साध बान बिष मारा ।—जायसी (शब्द०) ।

धनुकना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'धुनकना' ।

धनुकबाई
संज्ञा पुं० [हिं० धनुक + बाई] लकवे की तरह का एक वायुरोग जिसमें जबड़े बैठ जाते हैं, और मुँह नहीं खुलता ।

धनुजाग पु
संज्ञा पुं० [सं० धनु + यज्ञ] धनर्यज्ञ । उ०—हिय मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कबि धनुजाग की ।— तुलसी ग्र०, पृ० ५५ ।

धनुधर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धनुर्धर'-१ । उ०—जनु धनुधर सपनि लरत मारत धार सों धाइ ।—नंद० ग्रं० पृ० ३९६ ।

धनुराकार
वि० [सं०] धनुष की आकृति था । वक्र । टेढ़ा [को०] ।

धनुरासन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आसन [को०] ।

धनुर्
संज्ञा पुं० [सं०] धनुस् का समासगत रूप ।

धनुर्गुण
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष की डोरी । पतंचिका । चिल्ला ।

धनुर्गुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा । मरोर फली । चुरनहार ।

धनुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुर्धर । २. धनुर्विद्या । ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । ४. एक परिमाण जो २७ अंगुल के बराबर थी (को०) ।

धनुर्ग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] धनुर्धर [को०] ।

धनुर्ज्या
संज्ञा स्त्री [सं०] धनुष की डोरी । प्रत्यंचा [को०] ।

धनुर्द्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस ।

धनुदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मरुस्थल से सुरक्षित स्थान [को०] ।

धनुद्धर
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष धारण करनेवाला पुरुष । कमनैत । तीरदाज । २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । ३. विष्णु (को०) । ४. धनु राशि (को०) ।

धनुर्द्धारी (१)
वि० [सं० धनुर्द्धारिन्] [स्त्री० धनुर्द्धारिणी] धनुष धारण करनेवाला ।

धनुर्द्धारी (२)
संज्ञा पुं० धनुर्धर । कमनैत । वीर योद्धा ।

धनुर्भृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष धारण करनेवाला योद्धा । वीर । २. विष्णु (को०) । ३. धनु राशि (को०) ।

धनुर्मख
संज्ञा पुं० [सं०] धनुर्यज्ञ ।

धनुर्मार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष की तरह टेढ़ी रेखा [को०] ।

धनुर्माला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्वा । चुरनहार । मरोरफली । मुर्रा ।

धनुर्मास
संज्ञा पुं० [सं०] वह अवधि जब सूर्य धनु राशि में स्थित होता है [को०] ।

धनुर्मुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] २७ अंगुल का एक परिमाण [को०] ।

धनुर्यज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] धनुस् संबंधी उत्सव । एक यज्ञ जिसमें धनुस् का पूजन तथा उसके चलाने आदि की परीक्षा भी होती थी । विशेष—मिथिला के राजा जनक ने अपनी कन्या सीता के विवाहार्थ वर चुनने कै लिये इस प्रकार का यज्ञ किया था । कंस ने भी छलपूर्वक कुष्ण कौ बुलाने के लिये इस प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान किया था ।

धनुर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] जवासा ।

धनुर्लता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सोमलता । २. धनुष (को०) ।

धनुर्वक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम ।

धनुर्वात
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुकबाई । २. एक वायुरोग जिसमें शरीर धनूस् की तरह झुककर टेढ़ा हो जाता है ।

धनुर्विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनुस् चलाने की विद्या । तीरंदाजी का हुनर । विशेष— दे० धनुर्वेद ।

धनुर्वृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. धामिन का पेड़ । २. बाँस । ३. मिलावाँ । ४. पीपल का पेड़ ।

धनुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें धनुष चलाने की विद्या का निरूपण हो । विशेष—प्राचीन काल में प्रायः सब सभ्य देशों में इस विद्या का प्रचार था । भारत के अतिरिक्त फारस, मिस्त्र, यूनान, रोम आदि के प्राचीन इतिहासों और चित्रों आदि के देखने से उन सब देशों में इस विद्या के प्रचार का पता लगता है । भारतवर्ष में तो इस विद्या के बड़े बड़े ग्रंथ थे जिन्हें क्षत्रियकुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे । मधुसूदन सरस्वती ने अपने प्रस्थानभेद नामक ग्रंथ में धनुवेंद को यजुर्वेद का उपवेद लिखा है । आजकल इस विद्या का वर्णन कुछ ग्रंथों में थोड़ा बहुत मिलता है । जैसे, शुक्रनीति, कामंदकीनीत, अग्निपुराण, वीरचिंतामाणि, वृद्धशार्ङ्गधर, युद्धजयार्णव, युक्तिकल्पतरु, नीतिमयूख, इत्यादि । धनुर्वेदसांहिता नामक एक अलग पुस्तक भी मिलती है पर उसकी प्राचीनता और प्रामाणिकता में संदेह है । अग्निपूराण में ब्रह्मा और महेश्वर इस वेद के आदि प्रकटकर्ता कहे गए हैं । पर मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं कि विश्वामित्र ने जिस धनुर्वेद का प्रकाश किया था, यजुर्वेद का उपवेद वही है । उन्होंने अपने प्रस्थानभेद में विश्वामित्रकृत इस उपवेद का कुछ संक्षिस ब्योरा भी दिथा है । उसमें चार पाद हैं— दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद । प्रथम दीक्षापाद में धनुर्लक्षण (धनुस् के अंतर्गत सब हथियार लिए गए हैं) और अधिकारियों का निरूपण है । आयुद चार प्रकार के कहे गए हैं—मुक्त, अनुक्त, मुक्तामुक्त, और यंत्रमुक्त । मुक्त आयुध, जसे चक्र । अमुक्त आयुध, जैसे, खङ्ग । मुक्ता- मुक्त, जैसे, भाला, बरछा । मुक्त को और अमुक्त कोशस्त्र कहते हैं । अधिकारी का लक्षण कहकर फिर दीक्षा, अभिषेक, शकुन आदि का वर्णन है । संग्रहपाद में आचार्य का लक्षण तथा अस्त्रश स्त्रादि के संग्रह का वर्णन है । तृतीयपाद में संप्रदाय सिद्ध विशेष विशेष शस्त्रों के अभ्यास, मंत्र, देवाता और सिद्धि आदि विषय हैं । प्रयोग नामक चतुर्थ पाद में देवाचंन, सिद्धि, अस्त्रशस्त्रादि के प्रयोगों का निरूपण है । वैशंपायन के अनुसार शाङ्गं धनुस् में तीन जगह झुकाव होता है पर वैणव अर्यात् बाँस के धनुस् का झुकाव बराबर क्रम से होता है । शाङ्ग धनुस् ६ । । हाथ का होता है और अश्वा- रोहियों तथा गजारोहियों के काम का होता है । रथी और पैदल के लिये बाँस का ही धनुस् ठीक है । अग्निपुराण के अनुसार चार हाथ का धनुस् उत्तम, साढ़े तीन हाथ का मध्यम और तीन हाथ का अधम माना गया है । जिस धनुष के बाँस में नौ गोँठे हों उसे कोदंड कहना चाहिए । प्राचीन काल में दो डोरियों की गुलेल भी होती थी जिसे उपलक्षेपक कहते थे । डोरी पाट की और कनिष्ठा उँगली के बराबर मोटी होनी चाहिए । बाँस छीलकर भी डोरी बनाई जाती है । हिरन या भैंसे की ताँत की डोरी भी बहुत मजबूत बन सकती है ।—(वृद्धशाङ्गधर) । बाण दो हाथ से अधिक लंबा और छोटी उँगली से अधिक मोटा न होना चाहिए । शर तीन प्रकार के कहे गए हैं—जिसका अगला भाग मोटा हो वह स्त्रीजातीय हैं, जिसका पिछला भाग मोटा हो वह पुरुषजातीय और जो सर्वत्र बराबार हो वह नपुंसक जातीय कहलाता है । स्त्रीजातीय शर बहुत दूर तक जाता है । पुरुषजातीय भिदता खूब है और नपुंसक जातीय निशाना साधने के लिये अच्छा होता है । बाण के फल अनेक प्रकार के होते हैं । जैसे, आरामुख, क्षुरप्र, गोपुच्छ, अर्धचंद्र, सूचीमुख, भल्ल, वत्सदंत, द्विभल्ल, काणिक, काकतुंड, इत्यादि । तीर में गति सीधी रखने के लिये पीछे पखों का लगाना भी आवश्यक बताया गया है । जो बाण सारा लोहे का होता है उसे नाराच कहते हैं । उक्त ग्रंथ में लक्ष्यभेद, शराकर्षण आदि के संबध में बहुत से नियम बताए गए है । रामायण, महाभारत, आदि में शब्द- भेदी बाण मारने तक का उल्लेख है । अंतिम हिंदू सम्राट् महाराज पृ्थ्वीराज के संबंध में भी प्रसिद्ध है कि वे शब्दभेदी बाण मारते थे ।

धनुर्वेदी (१)
संज्ञा पुं० [सं० धनुर्वेदिन्] शिव । महादेव [को०] ।

धनुर्वेदी (२)
वि० धनुर्वेद जाननेवाला [को०] ।

धनुवाँ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धनुआ' । उ०—सुरति मोड़ नरियर को फोड़ौ । अगम पान चढ़ि धनवाँ तोड़ो ।—घट०, दृ० २४५ ।

धनुष
संज्ञा पुं० [सं० धनुस्] दे० 'धनुस्' ।

धनुषधरन पु
वि० [सं० धनुष् + हिं० धरना] धनुष धारण करनेवाला । धनुर्धर । उ०—ओहि अवधेश ओही ब्रज जीवन, धनुवधरत अरु माखनचोर ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२३ ।

धनुषमख
संज्ञा पुं० [सं०] धनुषयज्ञ । उ०—रामहिं चले लिवाइ धनुषमख मिसु करि ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८ ।

धनुषाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनुष का आकार या आकृति । उ०— मेटत मेटत द्वै धनुषाकृति मेचकताई के रेख गई रहि ।— भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १०१ ।

धनुषाकार
वि० [सं०] धनुष के आकार का । धनुष जैसा झुका हुआ [को०] ।

धनुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुर्धर । २. धनुषनिर्माता [को०] ।

धनुष्कांड
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्काण्ड] धनुष और बाण [को०] ।

धनुष्कार
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष बनानेवाला [को०] ।

धनुष्कोटि
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष का छोर । २. एक तीर्थ जो बदरिकाश्रम के मार्ग में स्थित है (को०) । ३. रामेश्वर के दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित एक तीर्थ (को०) ।

धनुष्कोटितीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] रामेश्वर से दक्षिणपूर्व एक स्थान जहाँ समुद्र में स्नान करने का माहात्म्य है ।

धनुष्माणि
वि० [सं०] जिसके हाथ में धनुष हो [को०] ।

धनुष्मान्
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्मत्] १. उत्तर दिशा का एक पर्वत । (बृहत्संहिता) । २. धनुर्धर (को०) ।

धनुस
संज्ञा पुं० [सं०] १. फलदार तीर फेकने का वह अस्त्र जो बाँस या लोहे के लचीली डंडे को झुका कर और उनके दोनों छोरों के वीच डोरी या ताँत बाँधकर बनाया जाता है । कमान । यौ०—धनुर्धर । धनुर्विद्या । धनुर्वेद । विशेष०—दे० 'धनुर्वेज' । २. ज्योतिष में एक राणि । धनु राशि । ३. एक लग्न । ४. हठयोग का एक आसन । ५. पियाल वृक्ष । ६. चार हाथ की एक माप । ७. गोल क्षेत्र के आधे से कम अंश का क्षेत्र ।

धनुस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० धनुस्तम्भ] वातजन्य एक रोग जिसमें शरीर धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है । उ०—जो वायु धनुष के समान शरीर को बाँका कर दे उसको धनुस्तंभ कहते हैं ।— माधव, पृ० १३८ ।

धनुहा †
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्] [स्त्री० धनुही] धनुष ।

धनूहाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धनु + हाई] धनुस् की लड़ाई । उ०— परम कृपाल जे नृपाल लोक, पालनि पै धनुहाई ह्वै है मन अनुमान कै ।—तुलसी (शब्द०) ।

धनुहिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धनुही' ।

धनुही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धनु + ही (प्रत्य०)] लड़कों के खेलने की कमान । उ०—बहु धनुही तोरेउँ लरिकाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

धनू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनुष । २. अन्न का भंडार [को०] ।

धनूर्क पु
संज्ञा पुं० [सं० धनुष्] दे० 'धनुक' । उ०—धनूर्क पिनाकं धरै वाम हस्ते ।—पृ० रा०, १ ।३९० ।

धनेयक
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया ।

धनेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन का स्वामी । २. कुबेर । ३. लग्न से दूसरा स्थान । ४. विष्णु ।

धनेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन का स्वामी । २. कुबेर । ३. विष्णु ।

धनेस (१)
संज्ञा पुं० [सं० धनस्?] बगले के आकार की एक चिड़िया जिसकी गरदन और चोंच लंबी होती है । विशेष०—यह बैर, बरगद आदि के पेड़ों पर रहती हैं । लोग खाने के लिये इसका शिकार करते हैं । इसे पकाकर एक प्रकार का तेल भी निकालते हैं जो वात के दर्द में लगाया जाता है ।

धनेस पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० धनेश] कुबेर । उ०—कहै पदमाकर प्रमानमाला पुन्यन की गंगाजू की धार धनमाला है धनेस की ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २६९ ।

धनैया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धनु + इया (प्रत्य०)] छोटा धनुष । उ०—नंददास प्रभु जानि तोरयो है पिनाक तानि बाँस की धनैया जैसे बालक तनक की ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२४ ।

धनैषण
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन की इच्छा [को०] ।

धनैषी
वि० [सं० धनैषिन्] धन का इच्छुक । धन चाहनेवाला ।

धनोष्मा
संज्ञा स्त्री० [सं० धनोष्मन्] धन की गरमी [को०] ।

धन्न पु
वि० [सं० धन्य] धन्य । उ०—सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १. पृ० ४७३ ।

धन्नधान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धनघान्य' । उ०—कप्पूर चीर सागर सुनीर । सह धन्नधान जौहर सुहीर ।—पृ रा०, ४ ।१६

धन्ना
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरना' ।

धन्नासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसका ग्रह षडज है और जो ऋवर्जित है । यह वीर और शृंगार रस के लिये गाई जाती है ।

धन्नासेठ
संज्ञा पुं० [हिं० धन + सेठ] बहुत धनी आदमी । प्रसिद्ध धनाढय । भारी मालदार । मुहा०—धन्नासेठ का नाती = बहुत धनाढ्य कुल का (व्यंग्य) ।

धन्नि पु †
वि० [सं० धन्य] धन्य । उ०—धन्नि पुरुष अस नवै न नाए । औ सुपुरुख होइ देस पराए ।—जायसी (शब्द०) ।

धन्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० (गो) धन] १. गायों बैलों की एक जाति जो पंजाब में नमकवाले पहाड़ों के आसपास पाई जाती है । २. घोड़े की एक जाति । उ०—धन्नी, भीमाथली, काठिया, मारवाड़, मधिदेशी ।—रघुराज (शब्द०) । ३. बेगार का आदमी ।

धन्यंमन्य
वि० [सं०] अपने आपको भाग्यशाली या धन्य माननेवाला [को०] ।

धन्य (१)
वि० [सं०] १. पुण्यवान् । सुकृती । श्लाघ्य । प्रशंसा के योग्य । बड़ाई के योग्य । कृतार्थ । भाग्यशली । विशेष—इस शब्द का प्रयोग साधुवाद देने के लिये प्रायः होता है । जैसे, किसी को कोई अच्छा काम करते देख या सुनकर लोग बोल उठते हैं—धन्य ! धन्य ! ! २. धन देनेवाला । जिससे धन प्राप्त हो ।

धन्य (२)
संज्ञा पुं० १. अश्वकर्ण वृक्ष । २. धनिया । ३. विष्णु । ४. नास्तिक । ५. भाग्यशाली व्यक्ति (को०) ।

धन्य (३)
अव्य० साधुवाद या धन्यवाद का व्यँजक [को०] ।

धन्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धन्य होने की स्थिति [को०] ।

धन्यवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधुवाद । शाबाशी । प्रशंसा । वाह वाह । २. किसी उपकार या अनुग्रह के बदले में प्रशंसा । कृतज्ञतासूचक शब्द । शुक्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—लेना ।

धन्यधाम
संज्ञा पुं० [सं० धन्य + धाम] भाग्यशाली घर । अच्छा घर । उ०—देखा 'सरोज' को धन्यधाम ।—अनामिका, पृ० १२८ ।

धन्या (१)
वि० स्त्री० [सं०] प्रशंसायोग्य । पुण्यशील । भाग्यशालिनी ।

धन्या (२)
संज्ञा स्त्री० १. उपमाता । २. वनदेवी । ३. मनु की एक कन्या जिसका विवाह ध्रुव के साथ हुआ था । ४. आमलकी । छोटा आँवला । ५. धनियाँ ।

धन्याक
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया ।

धन्वँग
संज्ञा पुं० [सं० धन्वङ्ग] धामिन का पेड़ ।

धन्वंतर
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्तर] चार हाथ की एक माप ।

धन्वंतरि
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्तरि] १. देवताओं के वैद्य जो पुराणा- नुसार समुद्रमंथन के समय और सब वस्तुओं के साथ समुद्र से निकले थे । विशेष—हरिवंश में लिखा है कि जब ये समुद्र से निकले तब तेज से दिशाएँ जगमगा उठीं । ये सामने विष्णु को देखकर ठिठक रहे, इसपर विष्णु भगवान् ने इन्हें अब्ज कहकर पुकारा । भगवान् के पुकारने पर इन्होंने उनसे प्रार्थना की कि यज्ञ में मेरा भाग और स्थान नियत कर दिया जाय । विष्णु ने कहा भाग और स्थान तो बँट गए हैं पर तुम दूसरे जन्म में विशेष सिद्धिलाई करोगे, अणिमादि सिद्धियाँ तुम्हें गर्भ से ही प्राप्त रहेंगी और तुम सशरीर देवत्वलाभ करोगे । तुम आयुवेद को आठ भागों में विभक्त करोगे । द्वापर युग में काशिराज 'धन्व' ने पुत्र के लिये तपस्या और अब्जदेव की आराधना की । अब्जदेव ने धन्व के घर स्वयं अवतार लिया और भरद्वाज ऋषि से आयुर्वेद शास्त्र अध्ययन करके प्रजा को रोगमुक्त किया । भावप्रकाश में लिखा है कि इंद्र ने आयुर्वेद शास्त्र सिखाकर धन्वंतरि को लोक के कल्याण के लिये पृथ्वी पर भेजा । धन्वंतरि काशी में उत्पन्न हुए और ब्रह्मा के वर से काशी के राजा हुए । महाराज विक्रमादित्य की सभा के जो नव- रत्न गिनाए गए हैं उनमें भी एक धन्वंतरि का नाम है । पर जब नवरत्नवाली बात ही कल्पित है तब इन धन्वंतरि का पता लगना कठिन ही है । २. विकमादित्य के नवरत्नों में से एक (को०) । ३. सूर्य (को०) ।

धन्वंतरिग्रस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० धन्वन्तरिग्रस्ता] कुटकी ।

धन्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्] १. मरुभूमि । मरुस्थल । २. तट । तीर । ३. आकाश । ४. धनुष [को०] ।

धन्व (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुस् । २. मरुस्थल । रेगिस्तान (को) ।

धन्वचर
वि० [सं०] १. मरुस्थल में चलने या रहनेवाला [को०] ।

धन्वज
वि० [सं०] मरुदेश में उत्पन्न ।

धन्वदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसे दुर्ग या गढ़ जिनके चारों ओर पाँच पाँच योजन तक निर्जल और मरुभूमि हो ।

धन्वधि
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष की खीली [को०] ।

धन्वन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धामिन का पेड़ । २. धनुष (को०) । ३. इंद्रधनुष (को०) । ४. धनु राशि (को०) ।

धन्वयवास
संज्ञा पुं० [सं०] दुरालभा । जवासा ।

धन्वयवासक
संज्ञा पुं० [सं०] दुरालभा । जवासा [को०] ।

धन्वयास
संज्ञा पुं० [सं०] दुरालभा । जवासा [को०] ।

धन्वा
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्] १. धनुस् । कमान । उ०—प्रभु धन्वा न चढ़ा सके यदि ?—साकेत, पृ० ३५५ । २. जलहीन देश । मरुभूमि । रेगिस्तान । ३. स्थल । सूखी जमीन । ४. आकाश । अंतरिक्ष ।

धन्वाकार
वि० [सं०] धनुष के आकार का । कमान की सूरत का । गोलाई के साथ झुका हुआ । टेढ़ा ।

धन्वायी (१)
वि० [सं० धन्वायिन्] धनुर्धर ।

धन्वायी (२)
संज्ञा पुं० रुद्र ।

धन्विन
संज्ञा पुं० [सं०] शूकर । सूअर ।

धन्वी (१)
वि० [सं० धन्विन्] १. धनुर्धर । कमनैत । उ०—फूल सरन को मुगधनि बस कै जाहिरे भो जग मनमथ धन्वी ।-भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २१४ । २. निपुण । चतुर । चालाक ।

धन्वी (२)
संज्ञा पुं० १. दुरालभा । जवासा । २. अर्जुन वृक्ष । ३. बकुल । मौलसिरी । ४. अर्जुन पांडव । ५. विष्णु । ६. शिव । ७. तामस मनु के एक पुत्र । ८. धनु राशि (को०) । यौ०—धन्वीस्थान = धनुर्धर की एक मुद्रा या स्थिति । धन्वियों की मुद्राएँ वैक्लव, समपाद, वैशाख, मंडल, लीढ और प्रत्यालीढ कही गई हैं—वैक्लवं समपार्द च वैशाखं मण्डलं तथा । प्रत्यालीढं तथा लीढं स्थान्येतानि धन्विनाम् ।

धप (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किसी भारी और मुलायम चीज के गिरने का शब्द ।

धप (२)
संज्ञा पुं० धोल । थप्पड़ । तमाचा । क्रि० प्र०—देना ।—मारना ।

धपना
क्रि० अ० [सं० धावन या हिं० धाप] १. जोर से चलना । दौड़ना । २. झपटना । लपकना । उ०—शीला नाम ग्वालिनी तेहि गहे कृष्ण धपि धाइ हो ।—सूर (शब्द०) ।

धपाड़ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धपना] धपने की क्रिया या स्थिति ।

धपाना †
क्रि० स० [हिं० धपना] १. दौड़ाना । २. इधर उधर फिराना । घुमाना । सैर कराना । टहलाना ।

धप्पा
संज्ञा पुं० [अनु० धप] १. थप्पड़ । धौल । तमाचा । २. हानि का आघात । घाटा । टोटा । नुकसान । क्रि० प्र०—बैठना ।—लगना । मुहा०—धप्पा मारना = नुकसान करा देना । धोखा देकर कुछ माल ले लेंना । उड़ा लेना ।

धप्पाड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० धप] दौड़ ।

धब धब
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. किसी भारी और मुलायम चीज के गिरने का शब्द । २. भद्दे, मोटे आदमी के पैर रखने का शब्द ।

धबला
संज्ञा पुं० [देश०] १. कटि के नीचे का अंग ढाँकने के लिये कोई ढीलाढाल पहनावा । ढीला पायजामा । २. स्त्रियों का लहँगा । घाघरा ।

धबीला
वि० [हिं० धब्बा + ईला (प्रत्य०)] धब्बेदार । धब्बेवाला ।

धब्बा
संज्ञा पुं० [देश०] १. किसी सतह के ऊपर थोड़ी दूर तक फैला हुआ ऐसा स्थान जो सतह के रंग के मेल में न हो और भद्दा लगता हो । दाग पड़ा हुआ चिह्न जो देखने में बुरा लगे । निशान । जैसे, कपड़े पर स्याही का धब्बा । क्रि० प्र०—पड़ना ।—लगना । २. कलंक । दोष । ऐब । क्रि० प्र०—लगना ।—लगाना । मुहा०—नाम में धब्बा लगाना = कीर्ति को मिटानेवाला काम करना । (किसी पर) धब्बा रखना = कलंक लगाना । दोषा- रोपण करना ।

धमंकना पु
क्रि० अ० [हिं० धमक] त्रस्त होना । दहलना । उ०—तहाँ तेज सो हैं तबल्लौ तमंके । गजे बीर बानैत धू लौं धमंके ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २४८ ।

धम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कृष्ण । ३. यमराज । ४. ब्रह्मा [को०] ।

धम (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भारी चीज के गिरने का शब्द । धमाका । जैसे, धम से गिरना, धम से कुएँ में कूदना । विशेष—खट, पट, आदि और अनु० शब्दों के समान इसका प्रयोग भी अधिकतर 'से' विभक्ति के साथ ही क्रि० वि० वत् होता है ।

धम पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धर्म' ।

धमक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० धम] १. भारी वस्तु के गिरने का शब्द । भार डालते हुए जमीन पर पड़ने की ध्वनि । आघात का शब्द । २. पैर रखने की आवाज । पैर की आहट । ३. वह कंप जो किसी भारी वस्तु की गति के कारण इधर उधर मालूम हो । आघात आदि से उत्पन्न कंप या विचलता । जैसे,—(क) पत्थर इतने जौर से गिरा कि धमक से मेज हिल गई । (ख) रेल के पास आने पर जमीन में धमक सी मालूम होती हैं । ४. आघात । चोट । ५. वह आघात जो किसी भारी शब्द से हृदय पर मालूम हो । दहल । ६. गड्ढा (पालकीवाले) ।

धमक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० धमिका] १. धौंकनेवाला । २. लौहार । कर्मकार ।

धमकना
क्रि० अ० [हिं० घमक] १. धम शब्द के साथ गिरना । धमाका करना ।मुहा०—आ धमकना = आ पहुँचना । तुरंत आ जाना । देखते देखते उपस्थित होना । जा धमकना = जा पहुँचना । धमक पड़ना = दे० 'आ धमकना' । २. आघात सा होता हुआ जान पड़ना । रह रहकर दर्द करना । व्यथित होना । (सिर के लिये) । जैसे, सिर धमकना । ३. धूम धाम करना । उ०—रमकि झमकि चमकत चपला सी धमकत मिलि इकठोरी ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६५ । ४. बजना । उ०—धमकत ढोल, बजत डफ, झाँझ अनेक एक संग ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ३४ । ५. वेग दिखलाना । उ०—(क) प्रथम पैठि पाताल सूँ धमकि चढ़ै आकास ।—दरिया०, पृ० १३ । (ख) ते ऊँचे चढ़ि कै खरहरे । धमकि धमकि नरकन मैं परे ।—नंद० ग्रं, पृ० २२६ ।

धमका
संज्ञा पुं० [सं० धमा] गरमी । ऊमस । उ०—सेनापति नैक दुपहरी के ढरत, होत धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत है ।—कवित्त०, पृ० ५८ ।

धमकाना
क्रि० स० [हिं० धमक] १. डराना । भय दिखाना । दंड देने या अनिष्ट करने का विचार प्रकट करना । २० डाँटना । घुड़कना । संयो० क्रि०—देना ।

धमकार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धमक] धमक की आवाज । उ०— धम धमकार टेर सुन मुरली फुरक फुरक फुरकाना ।—राम० धर्म०, पृ० ३६७ ।

धमकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दंड देने या अनिष्ट करने का विचार जो भय दिखाने के लिये प्रकट किया जाय । डर दिखाने की क्रिया । त्रास दिखाने की क्रिया । २. घुड़की । डाँट डपट । क्रि० प्र०—देना । मुहा०—धमकी में आना = डराने से डरकर कोई काम कर बैठना ।

धमक्का †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धमाका' ।

धमगजर
संज्ञा पुं० [अनु० धम + सं० गर्जन] १. उत्पात । ऊधम । उपद्रव । २. लड़ाई । युद्ध ।

धमण पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धौंकनी' । उ०—जउ ते आरण धमण जिमि, दम गमिया बहु दीहु ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४० ।

धमधम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के गण जो पार्वती के क्रोध से उत्पन्न हुए थे (हरिवंश) ।

धमधम (२
/संज्ञा पुं० [अनु०] धूमधाम । ठाटबाट । उ०—तुम्ह जानहु आवै पिय साजा । यह धमधम सब मोकहुँ बाज ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३११ ।

धमधमाना
क्रि० अ० [अनु० धम] 'धम धम' शब्द करना । कूद फाँद या चल फिरकर कंप और शब्द उत्पन्न करना । जैसे,— घोड़े धमधमाते हुए आ पहुँचे ।

धमधुसरि पु
वि० [हिं०] दे० 'धमधूसर' । उ०—बात कहत मुँह फारि खातु है मिली धमधुसरि घँगरिया ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ५६ ।

धमधूसर
वि० [अनु० घम + सं० धूसर (= मटमैला या गदहा)] भद्दा । मोटा आदमी । स्थूल और बेडौल मनुष्य । उ०—धमधूसर होइ रहे बात में सबसे लड़ते ।—पलटू०, भा० १, पृ० १८ ।

धमन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवा से फूँकने का काम । २. पोली नली जिसमें हवा भरकर फूँके । फुँकनी । धौंकनी । ३. नरकट । नरसल । नल नामक तृण । ४. गलाना । पिघलाना (को०) ।

धमन (२)
वि० १. फूँकनेवाला । २. क्रूर । निष्ठुर [को०] ।

धमना (१)
क्रि० स० [सं० धमन] धौंकना । फूँकना । नल आदि में हवा भरकर वेग से छोड़ना ।

धमना पु (२)
क्रि० अ० जलना । प्रज्वलित हौना । उ०—जति जति धमिअ अनल, अधिक विमल हेम ।—विद्यापति, पृ० १०२ ।

धमनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धमनी । नाड़ी । २. प्रह्लाद के भाई ह्लाद की स्त्री । वातापि और इल्लव की माँ । ३. वाक् । शब्द । ४. नरकट (को०) । ५. कंठ । ग्रीवा (को०) ।

धमनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तूर । तुरही । बाजा । [को०] ।

धमनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर के भीतर की वह छोटी या बड़ी नली जिसमें रक्त आदि का संचार होता रहता है । विशेष—सुश्रुत के अनुसार धमनियाँ २४ हैं और नाभि से निकलकर १० ऊपर की ओर गई हैं, १० नीचे की और तथा चार बगल की ओर । ऊपर जानेवाली धमनियों द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, प्रश्वास, जँभाई, छींक, हँसना, रोना, बोलना इत्यादि व्यापार होते हैं । ये ऊर्ध्वगामिनी धमनियाँ हृदय में पहुँचकर तीन तीन शाखाओँ में विभक्त होकर ३० हो जाती हैं । इनसें से २ वातवहा, २ पित्तवहा, २ कफवहा, २ रक्तवहा और २ रसवहा, दस तो ये हैं । इनके अतिरिक्त ८ शब्द, रूप, रस और गंध को वहन करनेवाली है । फिर २ से मनुष्य बोलता है, २ से घोष करता है, २ से सोता है, २ से जागता है, २ धमनियाँ अश्रुवाहिनी हैं और २ स्त्रियों के स्तनों में दूध या पुरुषों के शरीर में शुक्र प्रवर्तित करनेवाली हैं । यह तो हुई ऊर्ध्वगामिनी धमनियों की बात । अब इसी प्रकार अधोगामिनी धमनियाँ वात, मूत्र, पुरीष, वीर्य, आर्तव इनको नीचे की ओर ले जाती हैं । ये धमनियाँ पहले पित्ताशय में जाकर खाए पीए हुए रस को उष्णता से शुद्ध करके उसे ऊर्ध्वगामिनी और तियँग्गामिनी धमनियों तथा सारे शरीर में पहुँचाती हैं । ये १० अधोगामिनी धमनियों भी आमाशय और पक्वाशय के बीच में पहूँचकर तीन तीन भागों में विभक्त होकर ३० हो जाती हैं । इनमें से दो दो धमनियाँ वायु, पित्त, कफ, रक्त और रस की वहन करने के लिये हैं । आँतों से लगी हुई २. अन्नवाहिनी हैं, २ जलवाहिनी है और २ मूत्रवाहिनी । मूत्रवस्ति से लगी हुई २ धमनियाँ शुक उत्पन्न करनेवाली और २ प्रवर्तित करने या निकालनेवाली हैं । मोटी आँत सें लगी हुई २ मल को निका- लेती हैं । बाकी ८ धमानियाँ तिरछी जानेवाली धमनियों कौ पसीना देतो हैं । ४. तिर्यग्गामिनी धमनियाँ हैं । उनकी सहस्त्रों लाखों शाखाएँ होकर आरीर के भीतर जाल की तरह फैली हुई हैं ।२. वह नली जिसमें हृदय से शुद्ध लाल रक्त हृदय के स्पँदन द्वारा क्षण क्षण पर जाकर शरीर में फैलता रहता है । नाड़ी (आधुनिक) । विशेष—'धमनी' शब्द 'धम' धातु से बना है जिसका अर्थ है धौंकना । हृदय का जो स्पदन होता है वह भाथी के फूलने पचकने के समान होता है । अतः शुद्ध रक्तवाहिनी नाड़ियों को धमनी कहना बहुत उपयुक्त है । दे० 'नाड़ी' । ३. हलदी । ४. कंठ । ग्रीवा । गर्दन (को०) । ५. वाक् । वाणी (को०) । ६. नरकट (को०) ।

धमनील
वि० [सं०] धमनी से युक्त [को०] ।

धमरोल
संज्ञा स्त्री० [देश०] बहुतायत । अधिकता । उ०—चौथा सुंदर आप दूधै दूर्धा को धमरोल ।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ४३ ।

धमल पु
वि० [हिं०] दे० 'धवल' । उ०—बंस के धमल ताको समय आयौ ।—रा० रू०, पृ० १५० ।

धमस
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. श्रमज्ञन्य अनुभूति । थकान । उ०— प्यारी थी वह हुमस धमस भी, खूब पसीने बहते थे ।— मिट्टी०, पृ० ६८ । २, चोट । आघात । उ०—ज्यों धोबी की धनस सहि ऊजल होय सुचीर ।—रज्जब०, पृ० २० ।

धमसा
संज्ञा पुं० [देश०] धौंसा । नगाड़ा ।

धमसोल पु
संज्ञा पुं० [अनु० धम + सोल(= शोर, शेर)] ऊधम । धमाचौकड़ी । उ०—धाम धम बहुतै करी अंध धंध धमसोल ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३१९ ।

धमाका
संज्ञा पुं० [अनु०] १. भारी वस्तु के करने का शब्द । ऊपर से वेग के साथ नीचे पड़ने या कूदने का शब्द । २. बंदूक का शब्द । ३. आघात । धक्का । ४. पथरकला बंदूक । हाथी पर लादने की तोप ।

धमाचौकड़ी
संज्ञा स्त्री० [अनु० धम + हिं० चौकड़ी] १. उछल कूद । कूदफाँद । कई आदमियों का एक साथ दौड़ना, कूदना, हाथ पैर चलाना या हल्ला करना । उपद्रव । ऊधम । जैसे,— लड़को, यहाँ धमाचौकड़ी मत मचाओ और जगह खेलो । २. धींगाधींगी । मारपीट । क्रि० प्र०—मचाना ।—मचना ।—होना । मुहा०—धमाचौकड़ी मचाना = उपद्रब हौना । ऊधम होना । उ०—आखिरश कुछ कहो तो यह क्या धमाचौकड़ी मची- थी ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २१५ ।

धमाड़ना †
क्रि० स० [अनु०] मारना । प्रहार करना ।

धमाधम (१)
क्रि० वि० [अनु० धम] १. लगातार कई बार 'धम' 'धम' शब्द के साथ । लगातार कई घमाकों के साथ । लगातार गिरने का शब्द करते हुए । जैसे, लड़के धमाधम नीचे गिरे । २. लगातार कई प्रहार शब्दों के साथ । कई आघातों के शब्द के साथ । लगातार मारने या पीटने की आवाज के साथ । जैसे—(क) वह उसे धमाधम मार रहा है । (ख) इसपर घमाघम घन मारो तब यह टूटेगा ।

धमाधम (२)
संज्ञा स्त्री० १. कई बार गिरने से लगातार धम धम शब्द । लगातार गिरने पड़ने की आवाज । २. आघात । प्रतिघात । प्रहार । मार पीट । उपद्रव । उत्पात । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना ।—होना ।

धमार (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. उछलकूद । उपद्रव । उत्पात । धमाचौकड़ी । उ०—बसंत झलकी आम के मौर लगे जिन पर भौर के डेरा जमे, धमार की मार होने लगी ।— श्यामा०, पृ० ८० । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना ।—होना । २. नटों की उछलकूद । कलावाजी । क्रि० प्र०—करना ।—खेलना । ३. विशेष प्रकार के साधुओँ की दहकती आग पर कूदने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

धमार (२)
संज्ञा पुं० १. होली के गाने का एक ताल । २. होली में गाने का एक प्रकार का गीत ।

धमारि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] धमाचौकड़ी । उ०—विधि न करए हर खेलए पासा सारि । सापक संगे सिवे रचलि धमारि ।—विद्यापति, पृ० ५११ ।

धमारिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धमार] १. उछलकूद करनेवाला नट । कलाबाज । २. होली के धमार गानेवाला । ३. आग में कूदनेवाला । साधु ।

धमारिया (२)
वि० उपद्रव करनेवाला । शांत न रहनेवाला । उत्पाती ।

धमारो (१)
वि० [हिं० धमार] उपद्रवी । उत्पाती ।

धमारो पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धमार] धमाचौकड़ी । उत्पात । उ०—पिंड सँजोग धनि जोबन बारी । भँवर पुहुप सन करहिं धमारी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४८ ।

धमाल
संज्ञा पुं० [हिं० धमार] दे० 'धमार' । उ०—लगु गुरु मोहरा लेखवै धारो गीत धमाल ।—रघु, रू०, पृ० १२८ ।

धमासा †
संज्ञा पुं० [सं० यवासा] जवासा । हिंगुवा । दुलाह ।

धमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूँकने की क्रिया [को०] ।

धमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लोहारिन । लोहार की स्त्री ।

धमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] आग जलाने का एक साधन । धौंकनी [को०] ।

धमिल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धम्मिल्ल' । उ०—धमिल खोलि कहुँ पकरावै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५७ ।

धमूका
संज्ञा पुं० [अनु० धम] १. धमाका । प्रहार । आघात । उ०—सतगुरु शब्दी खेल है सहै धमूका साध ।—चरण० बानी, पृ० ३ । २. घूँसा । मुक्का ।

धमेख
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मचक्र] काशी से दी कोस पर वह स्तूप जो उस स्थान पर बनाया गया था जहाँ बुद्धदेव ने अपना धर्मचक्र अर्थात् धर्मोपदेश आरंभ किया था । दे० 'सारनाथ' ।

धमोड़ना पु
क्रि० स० [अनु०] आघात करना । प्रहार करना ।उ०—(क) धत सत्राँ मुँह आछू घोड़े, धीप पाड़िथा सेल धमोड़े ।—रा० रू०, पृ० २५८ । (ख) उर सेल धमोड़ै वेल एम ।—रा० रू०, पृ० २४९ । (ग) पूगा हायी खाँत रै, देता कुंत धमोड़ ।—रा० रू०, पृ० ८७ ।

धम्म पु (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'धम' । उ०—मजदूर लकड़ी का बोझ मुकाम पर लाकर धम्म से फेंककर निश्चिंत हुआ ।— गीतिका (भू०), पृ० ६ ।

धम्मन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास । दे० 'चरवा' ।

धम्मल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धम्मिल्ल' [को०] ।

धम्माल
संज्ञा स्त्री० पुं० [हिं० धमाल] दे० 'धमार' ।

धम्मिल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धम्मिल्ल' [को०] ।

धम्मिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. लपेटकर बाँधे हुए बाल । बँधी चोटी । जूड़ा़ । २. मोतियों, फूलों आदि से सजाया हुआ जूड़ा़ या केशकलाप (को०) ।

धम्हा †
संज्ञा पुं० [देश०] धातु गलाने की भट्ठी ।

धय
वि० [पुं०] पीनेवाला । चूलनेवाला । जैसे, स्तनंधय । विशेष—केवल लमासांत रूप में इसका व्यवहार होता है ।

धयना पु
क्रि० अ० [हिं०] दौड़ना । उ०—देवीसिंह उदंत अखौसिंह बीर हैं । ए सुजान के संग धए धरि धरि हैं ।— सुजान०, पृ० १२३ ।

धरंग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धड़' । उ०—तरंफंत सीसं धरंगं निनारे ।—पृ० रा०, १३ ।११७ ।

धरंत
वि० [हिं० धरना] धरा हुआ । रखा हुआ ।

धरंता पु †
वि० [हिं० धरना] धरनेवाला । पकड़नेवाला ।

धरंनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणी] दे० 'धरणी' । उ०—पृ० रा०, पृ० १४० ।

धर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० धरा, धरी] १. धारण करनेवाला । ऊपर लेनेवाला । सँभालनेवाला । जैसे, अक्षधर, अंशुधर, असृग्धर, गदाधर, गंगाधर, दिव्यांबरधर, भूधर, महीधर आदिं । उ०—स्वाद तोष सम सुगंति सुधा के । कमठ सेष सम धर वसुधा के ।—मानस, १ ।२० । २. ग्रहण करनेवाला । थामनेवाला । जैसे, चक्रधर, धनुर्धर, मुरलीधर । विशेष—इन अर्थो में इस शब्द का प्रयोग समस्त पदों में ही होता हैं ।

धर (२)
संज्ञा पुं० १. पर्वत । पहाड़ । २. कपास का डोडा । ३. कूर्म- राज । कच्छप जो पृथ्वी को ऊपर लिए है । ४. एक वसु का नाम । ५. विष्णु । ६. श्रीकृष्ण । ७. विट । व्यभिचारी पुरुष ।

धर (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धरा] पृथ्वी । धरती । उ०—(क) धर, कोइ जीव न जानौं मुख रे बकत कुबोल ।—जायसी ग्रं० पृ० ८३ । (ख) कान्ह जनमदिन सुर नर फूले । नभ धर निसिबासर समतूले ।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० २२९ ।

धर (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना] धरने या पकड़ने की क्रिया । यौ०—धर पकड़ = भागते हुए आदमियों को पकड़ने का व्यापार । गिरफ्तारौ । उ०—जैसे, जब धर पकड़ी होने लगी तब लुटेरे इधर उधर भाग गए ।

धर पु (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० धरा] पृथ्वी । धरती । उ० —(क) मानहु नेष अशेषधर धरनहार बरिबंड ।—केशव (शब्द०) । (ख) सरजू सरिता तट नगर बसै बर । अवधनाम यशधाम धर ।—केशव (शब्द०) ।

धर पु † (६)
संज्ञा सं० [हिं० धड़] दे० 'धड़' । उ०—लाल अधर में कै सुधा, मधुर किए बिनु पान । कहा अधर में लेत हौ, धर में रहत न प्रान ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० २४२ ।

धरक (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धड़क' ।

धरक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज की मंडी में अनाज तोलने का काम करनेवाला । बया ।

धरकना
क्र० अ० [हिं०] दे० 'धड़कना' । उ०—धरकी हमारी फेरि छतियाँ कहुँ धौं बीर ।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० २१५ ।

धरकार
स्त्री० पुं० [देश०] बाँस की डलिया आदि बनानेवाली एक जाति । बँसोर ।

धरक्कना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'धरकना' । उ०—धरक्कै धरन्नी करक्कै सुसोय ।—प० रासो, पृ० ८५ ।

धरण
संज्ञा पुं० [पुं०] १ धारण । रखने , थामने, ग्रहण करने या सँभालने की क्रिया । २. एक तौल जो कहीं २४ रत्ती, कहीं १० पल, कहीं १६ माशे, कही १/१० शतमान, कहीं १९ निष्याव, कहीं २/५ कर्ष, कहीं १/१० पल की मानी गई है । ३.बाँध । पुल । ४. संसार । जगत् । ५. सूर्य । ६. स्तन । ७. धान । ८. एक नाग का नाम । ९. पहाड़ का किनारा (को०) । १०. हिमालय (को०) । ११. सहारा । आधार (को०) ।

धरणप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जैन देवी जो १९ वें अर्हत के अनुशासन में रहती है [को०] ।

धरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । २ शाल्मालि वृक्ष । ३. नाड़ी (को०) । ४. शहतीर (को०) ।

धरणिधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी को धारण करनेवाला । २. कच्छप । ३. पर्वत । ४. विष्णु । ५. शिव । ६. शेषनाग । ७. राजा । (को०) ।

धरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । उ०—केवल उनके ही लिये नहीं यह धरणी । है औरों की भी भार धारिणी भरिणी ।— साकेत० पृ० २१३ । २. शाल्मलि वृक्ष । ३. नाड़ो । ४. शहतीर (को०) ।

धरणीकँद
संज्ञा पुं० [सं०] एक कंद का नाम । बनकंद ।

धरणीकीलक
संज्ञा पुं० [सं०] (पृथ्वी को कील की तरब दबाए रहनेवाला) पर्वत । पहाड़ । विशेष—पुराँणों के अनुसार पृथ्वी को पहाड़ दबाकर सँभाले हुए हैँ ।

धरणीकोश
संज्ञा पुं० [सं०] एक कोश ग्रंथ जिसके रचयिता का नाम घरणीदास था ।

धरणीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल । २. नरकासुर [को०] ।

धरणीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता [को०] ।

धरणीधर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धरणिधर' ।

धरणीधृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत । २. विष्णु । ३. शेषनाग [को०] ।

धरणीपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०] ।

धरणीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल । २. नरकामुर । [को०] ।

धरणीपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता [को०] ।

धरणीपूर
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र ।

धरणीप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र [को०] ।

धरणीभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. पर्वत । ३. बिष्णु । ४. शेषनाग [को०] ।

धरणीमंड़ल
संज्ञा पुं० [सं० धरणीमण्ड़ल] भूमंडल [को०] ।

धरणीय
वि० [सं०] १. जिसे धारण किय़ा जा सके । २. जिसका सहारा लिया जा सके [को०] ।

धरणीरुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष [को०] ।

धरणीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. विष्णु । ३. शिव [को०] ।

धरणीसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल । २. नरकासुर ।

धरणीसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता ।

धरता
संज्ञा पुं० [हिं० धरना या वैदिक धर्तृ] १. किसी का रुपया धरनेवाला । देनदार । ऋणी । कर्जदार । २. किसी रकम को देते हुए उसमें से कुछ बँधा हक या धर्मार्थ द्रव्य निकाल लेना । कटौती । ३. धारण करनेवाला । कोई कार्य आदि अपने ऊपर लेनेवाला । यौ०—कर्ता धरता = सब कुछ करने धरनेवाला ।

धरती
संज्ञा स्त्री० [सं० धरित्री] १.पृथ्वी । जमीन । मुहा०—धरती का फूल = (१) खुमी । छत्रक । कुकुरमुत्ता । (२) नया उभरा हुआ धनी । नया निकला हुआ अमीर । (३) मेढक । धरती बाहना = (१) जमीन जीतना । (२) परिश्रम करना । मशक्कत करना । २. संसार । दुनिय़ा । जगत् ।

धरत्ती पु
संज्ञा स्त्री० [धरती] दे० 'धरती' । उ०—चूँड़ी वीरम धर चक्रवत्ती । धार सार मुँह लयी धरत्ती ।—रा०, रू०, पृ० १४ ।

धरधर पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धराधर' ।

धरधर (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'धड़धड़' ।

धरधर (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरहर' ।

धरधरा पु †
संज्ञा पुं० [अदु०] धड़कन । धकधकाहट । उ०—कर धर देखो धरधरा अर्जो न उर ते जात ।—बिहारी (शब्द०) ।

धरधराना (१)पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'धड़धड़ाना' ।

धरधराना (२)
क्रि० सं० दे० 'धड़धड़ाना' ।

धरधार पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धराधर' । उ०—घरी एक रव रंग, तुट्टि धरधार गही धर ।—पृ० रा०, १ ।६५४ ।

धरन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना] १. धरने की क्रिया, भाव, ढंग । उ०—ऐसी धरन धरे जो कोई, निश्चय पार पाइहै ,सोई— कबीर०, सा०, पृ० १०१७ । २. लकड़ी लोहे आदि का वह लंबा लट्ठा जो इसी प्रकार के और लट्ठों के साथ दो खड़ी समानांतर दीवारों या ऊँचे पर ठहराए हुए दी समानांतर लट्ठों पर इसलिये आड़ा रखा जाय जिसमें उसके ऊपर पाटन (छत आदि) या कोई बोझ ठहर सके । कड़ी । धरनी । ३. वह नस जो गर्भाशय को द्दढ़ता से जकडे़ रहती है जिससे वह इधर उधर नहीं टलता । गर्भाशय का आधार । मुहा०—धरन टलना, डिगना, खसकना = गर्भाशय की नस का अपनी जगह से हट जाना जिससे गर्भाशय़ इधर उधर हो जाता है । ४. गर्भाशय । ५. टेक । हठ । अड़ ।

धरन (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धराना' । उ०—सिंधुतीर रघुबीर गए पुनि कियो धरन उतरन को ।—रघुराज (शब्द०) ।

धरन † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणि] धरती । जमीन ।

धरन † (४)
वि० [सं० धरण] धारण करनेवाला । उ०—कलप कमल बर बिंबन के बैरी बंधु जीवन के बंधु लाल लीला के धरन हैं ।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० २५ ।

धरनहार
वि० [हिं० धारना + हार (प्रत्य०)] धारण करनेवाला । उ०—मानहु शेष अशेष धर धरनहार बरिबंड ।—केशव (शब्द०) ।

धरना (१)
क्रि० सं० [सं० धरण] १. किसी वस्तु को इस प्रकार द्दढ़ता से स्पर्श करना या हाथ में लेना कि वह जल्दी छूट न सके अथवा इधर उधर जा या हिल न सके । पकड़ना । थामना । ग्रहण करना । जैसे,—(क) चोर धरना । (ख) इसका हाथ लोर से धर रहो, नहीं तो भार जायगा । (ग) यह चिमटा अच्छी तरह धरती नहीं । य़ौ०—करना धरना । धरना पकड़ना । संयो० क्रि०—लेना । मुहा०—धर दबाना या दबोचना = (१) पकड़कर वश में कर लेना । बलपूर्वक अधिकार में कर लेना । किसी पर इस प्रकार आ पड़ना कि वह विरोध या बचाव न कर सके । आक्रांत करना । जैसे,—कुत्ते ने बिल्ली को धर दबोचा । (२) तर्क या बिवाद में परास्त करना । धर पकड़कर = जबरदस्ती । बलात् । जैसे,—धर पकड़कर कहीं काम होता है ? २. स्थापित करना । स्थित करना । रखना । ठहराना । जैसे,— (क) पुस्तक आले पर घर दो । (ख) बोझ सिर पर धर लो । उ०—कौल खुले कच गूँदती मूँदती चारु नखक्षत अंगद के तरु । दोहद में राति के स्रमभार बड़े बल कै धरती पग भू परु ।—भिखारी ग्रं०, २, पृ० २३७ । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ३. पास रखना । कक्षा में रखना ।जैसे,—(क) वह हमारी पुस्तक धरे हुए है देता नहीं । (ख) यह चीज उनके यहाँ धर दो, कहीँ जायगी नहीं । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । यौ०—धर रखना ।मुहा०—धरा ढका = समय पर काम आने के लिये बचाकर रखी हुई वस्तु । संचित वस्तु । जैसे,—कुछ धरा ढका होगा, लाओ । धरा रह जाना = काम न आना । व्यर्थ हो जाना । ४. धारण करना । देह पर रखना । पहनना । जैसे, सिर पर टीपी धरना । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ५आरोपित करना । अवलंबन करना । अंगीकार करना । जैसे, रूप धरना, वेश धरना, धैर्य धरना । ६. व्यवहार के लिये हाथ में लेना । ग्रहण करना । जैसे, हथियार धरना । ७. सहायता या सहारे के लिये किसी को घेरना । पल्ला पकड़ना । आश्रय ग्रहण करना । जैसे—उन्हीं को धरो, वे ही कुछ कर सकते है । ५. किसी फैलनेवाली वस्तु का किसी दूसरी वस्तु में लगाना या छू जाना । जैसे,—फूस गोला है इसी से आग धरती नहीं है । ९. किसी स्त्री को रखना । बैठा लेना । रखेली की तरह रखना । उ०—ब्याहो लाख, धरौ दस कुबरी अतहि कान्ह हमारी ।—सूर (शब्द०) । १०. गिरवी रखना । गहन रखना । रेहन रखना । वंधक रखना । जैसे,—(क) अपनी चीज धरकर तब रुपया लाए है । (ख) कोई चीज धरकर भी तो रुपया नहीं देता । १४. अपनाना । ग्रहण करना । उ०—पर जो मेरा गुण, कर्म, स्वभाव धरेंगे वे औरो को भी तार पार उतरेंगे ।—साकेत०, पृ० २१६ ।

धरना (२)
संज्ञा पुं० कोई बात या प्रार्थना पूरी कराने के लिये किसी के पास या द्बार पर अड़कर बैठना और जबतक वह बात या प्रार्थना पूरी न कर दी जाय तबतक अन्न न ग्रहण करना । जैसे—हमारा रुपया न दोगे तो हम तुम्हारे दरवाजे पर धरना देंगे । दे० 'धरन' । क्रि प्र०—देना ।—बैठाना ।

धरनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणि] दे० 'धरणी' । उ०—धुरबाँ होहिं न अलि यहै धुआँ धरनि चहुँ कोद । जारत आवत जगत को पावस प्रथम पयोद ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४९५ ।

धरनिधनी पु
संज्ञा पुं० [सं० धरणि + हिं० धनी (= स्वामी)] राजा । भूपति । उ०—या जग में धनि धन्य तू सहज सलोने गात । धरनिधनो जौ बस कियौ कहा ओर की बात ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० १३० ।

धरनिधर पु
संज्ञा पुं० [सं० धरणिधर] १. पर्वत । भूधर । उ०— गुननिंधान हिमवान धरनिधर धुरधनि, मैना तासु परनि घर त्रिभुवन तियमनि ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २९ । २. हिमालय । पार्वती के जनक । उ०—लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर । कन्यादान संकलप कीन्ह धरनिधर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १४ । ३. दे० 'धरणीधर' ।

धरनिसुता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणिसुता] जानकी । सीता । उ०—सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि । धरनिसुता धीरजु धरेउ समउ सुधरमु विचारि ।—मानस, २ । २८५ ।

धरनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणी] दे० 'धरणी' । उ०—अगनित पूरन ससि मनौ घरनी पर धाबै ।—घनानंद, पृ० ४५५ । मुहा०—धरनी मिलाना = मिट्टी में मिलाना । समाप्त करना । उ०—हते अष्टऊ सूर धरनी मिलायौ ।—प० रासो, पृ० ४५ ।

धरनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धारना या सं धारण] किसी बात पर दृढ़तापूर्वक अडे़ रहना । टेक । उ०—तुलसी अब राम को दास कहाइ हिये धरु चातक की धरनी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धरनीतल
संज्ञा पुं० [हिं० धरनी + तल] पृथ्वी की सतह । समस्त पृथ्वी । उ०—दारिद दौ करि बारिद सों दलि त्यों धरनीतल सीतल कीनो ।—भूषण ग्रं०, पृ० ४८ ।

धरनीधर पु
संज्ञा पुं० [सं० धरणीधर] १. शेषनाग । उ०— तुलसी जिन्हैं धाए धुकै धरनीधर धौर धकानि सों मेरु हले हैं । ते रनतीर्थनि लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १९० । २. विष्णु या राम । उ०— जड़ पंच मिलै जेहि देह करो, करनी लख धौं धरनीघर की । जन की कहु क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचर की ।—तुलसी ग्रँ०, पृ० २०४ । ३. दे० 'धरणीधर' ।

धरनीधरन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरणीधर' । उ०—शेष, महाधहि, सर्पपति, धरनीधरन, अनंत ।-अनेकार्थ०, पृ० ९० ।

धरनेत
संज्ञा पुं० [हिं० धरना + एत (प्रत्य०)] धरना देनेवाला । किसी बात के लिये अड़कर बैठनेवाला ।

धरन्नी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धरनो' । उ०—अनल पंख मनु परिय टूटि आकास धरन्निय । भयौ सोर बर्र सद्द परयौ माहि छञ बरन्निय़ ।—हम्मीर रा०, पृ० ११३ ।

धरपकड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + पकड़ना] १. गिरफ्तारी । पकड़ धकड़ । २. रोकथाम । नियंत्रण ।

धरपत्ती पु
संज्ञा पुं० [सं० धर + पति] राजा । उ०—धर हर अंस हुए धरपत्ती ।—रा० रू०, पृ० ९ ।

धरम पु †
संज्ञा पुं० [सं० धर्म] दे० 'धर्म' ।

धरमदुवार पु
संज्ञा पुं० [हिं० धरम + दुवार] धर्मद्बार । स्वर्ग । उ०—धरम दुवार गयौ छोडे धर ।—रा० रू०, पृ० २९४ ।

धरमपण पु
वि० [हिं०] दे० 'धर्मपरायण' । उ०—दइबाण रुद्र एकादशाँ प्राणपूर पति धरमपण ।—रघु० रू०, पृ० ३ ।

धरमबहिर्मुख
वि० [हिं० धरम + सं० बहीर्मुख] धर्मविरोधी । उ०—जेन असर्धा निंदक नास्तिक धरम बहिर्मुख ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४ ।

धरमराइ पु
संज्ञा पुं० [हिं० धरम + राइ] धर्मराज । उ०— धरमराइ नीरंजन होई ।—घट०, पृ० २१४ ।

धरमसार †
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मशाला] १. धर्मशाला । २. सदावर्त । खेरातखाना । उ०—रानी धरमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा ।—जायसी (शब्द०) ।

धरमाच्छे पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + आक्षेप] धर्माक्षेप । उ०— घर्माच्छेप सदा इहै बरनत सब सुख पाइ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४५८ ।

धरमादी पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अधीन] धर्मात्मा । धार्मिक । उ०—चित्रगुप्त धरमादी राजा ।—धरनी०, पृ० ५३ ।

धरमावतार पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अवतार] दे० 'धर्मावतार' । उ०—अरु ह्वदय भए कामा उदार । करदन तैं भौ धरमा- वतार—हम्मीर रा०, पृ० ५ ।

धरमी पु
वि० [हिं०] दे० 'धर्मी' । उ०— (क) अरु यह तुम्हारौ रूप धरमि के धरमहि मोहै ।—नंद ग्रं०, पृ० ११ । (ख) जे अनभजतनि भजें तौन धरमी सुखकारी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१ ।

धरम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म] दे० 'धर्म' । उ०—भड़ पूँतारे आपरा धारे साँय धरम्म ।—रा० रू०, पृ० २६० ।

धरम्मूरत
वि० [हिं० धरम + मूरत] धर्ममूर्ति । साधु । धरम्मूरत मैं तो आवैई हो ।—श्री निवास० ग्रं०, पृ० ५६ ।

धरवान पु
संज्ञा पुं० [हिं० धर] धरा । पृथ्वी । भूमि । उ०— जाइ सपत्तो समर चँपि ढिल्लो धरवानं । चहुआना रै हथ्थ दूत दीनो फुरमान ।—पृ० रा०, २४ । ३६ ।

धरवाना
क्रि० सं० [हिं० धरना का प्रे रूप] १.धरने का काम कराना । पकड़ना । अमाना । २, रखवाना । ३. गिरफ्तार या बंदी कराना ।

धरपना पु
क्रि० सं० [सं० धर्षण] १. दबाना । मर्दन । करना । उ०— (क) रिपुबल धरषि हरषि कपि बालितनय बलपुंज । पुलक शरीर नयन जल गहे राम पदकंज ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) डगे दिगकुंजर कमठ कोल कलमले डोले धराधर धारि धराधर धरषा ।—तुलसी (शब्द०) । २, चूर्ण करना (को०) । ३. फाड़ना (को०) ।

धरसना (१)
क्रि० अ० [सं० धर्षण] दब जाना । ड़र जाना । सहम जाना । उ०—विलसत उर बरहार लसत मणि उड़गन धरसत ।—गोपाल (शब्द०) ।

धरसना (२)
क्रि० सं० दबाना । अपमानित करना ।

धरसनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घर्षणी' ।

धरहर † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + हर (प्रत्य०)] । १.धर पकड़ । लोगों को इस प्रकार पकड़ने का कार्य कि वे इधर उधर भाग न सकें । गिरपतारी । क्रि० प्र०—होना । २. दो अधिक लड़नेवालों को धर पकड़कर लड़ाइ गंड करने का कार्य । बीच बिचाव । उ०—ललित अहिसिलु निकर मनहु ससि सन समर लरत धरहरि करत/?/जनु जुग फनी ।—तुलसी (शब्द०) । ३, मारे या कपड़े जाने से बचाने का काम । बचाव । रक्षा । ४. धैर्य ।/?/। उ०—सन सूक्यो, बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि । हरी हरी अरहर अजौं धर धरहर हिय नारि ।—बिहादी (शब्द०) ।

धरहर पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरहरा' । उ०—धरहर तिप्ते बरषे इंदु ।—प्राण०, पृ० ९९ ।

धरहरना पु
क्रि० अ० [अनु०] धड़धड़ाना । धड़ धड़ शब्द करना । उ०—रथ राजत चाका धरहरै पर परजा का घर हरै ।—गोपाल (शब्द०) ।

धरहरा
संज्ञा पुं० [सं० धवल गृह] खंभे की तरह ऊपर बहुत दूर तक गया हुआ मकान का भाग जिसपर चढ़ने के लिय़े भोतर ही भीतर सीढ़ियाँ बनी हों । धौरहर । मीनार, । जैसे, माधव- राय का धरहरा ।

धरहाराना पु
क्रि० स० [हिं० धरहरना] घबराना । धड़कन पैदा होना । उ०—थरथरात देश देश के गणपति सुन घाक धरहरात ।अकबरी०, पृ० १०८ ।

धरहरि पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धरहर (२)' । उ०—(क) जो पहिले अपुने सिर परई । सो का काहु कै धरहरि करई ।—जायसी ग्रं०, पृ० २५७ । (ख) जब जमजाल पसार परैगो हरि विनु कौन करैगी धरहरि ।—सूर (शब्द०) ।

धरहरि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धैर्य?] दृढ़ विश्वास । निश्चय । उ०—जम करि मुँह तरहरि परयौ इहि धरहरि चित लाउ । विषयतृषा परिहरि अजौ नरहरि के गुन गाउ ।—बिहारी (शब्द०) ।

धरहरिया †
संज्ञा पुं० [हिं० धरहरि] बीच बिचाव करा देनेवाला । धर पकड़ करके बचानेवाला । बचाव करनेवाला । रक्षक । उ०—जनहु दीन्ह ठगला़ड़ू देख आय तस मीच । रहा न कोउ धरहरिया करै जो दोउ महँ बीच ।—जायसी (शब्द०) ।

धरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । जमीन । धरती । २. संसार दुनिया । उ०—धरा को प्रमाण यही तुलसी जो फरा सो झरा सो बरा लो बुताना ।—तुलसी (शब्द०) । ३. गर्भाशय । ४. एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण और गुरु होता है । जैसे,—राधा कहौ बाधा टरै । श्यामा कहौ कामा । सरै । ५. मेद । ६. नाड़ी । ७. भेंट । भेंट या दान स्वरुप ब्राह्मणों को दी जानेवाली स्वर्ण आदि की शशि (को०) । ८. मज्जा (को०) ।

धरा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं धड़ात्] १. तौल की बराबरी । किसी वस्तु की तौल के बराबर का बाट या बोझ । बटखरा । क्रि० प्र०—बाँधना ।—साधना । २. चार सेर की एक तौल ।

धराउर †
संज्ञा पुं० [हिं०] १.धरोहर । २. जतन से रखी हुई चीज या वस्तु ।

धराऊ
वि० [हिं० धरना + आऊ (प्रत्य०)] जो साधारण से अधिक अच्छा होने के कारण नित्य व्यवहार में न लाया जाय, यन्त के साथ रखा रहे और कभी कभी विशेष अवसरों पर निकाला जाय । मामूली से अच्छा । बहुमूल्य । जैसे, धराऊ कपड़ा, धराऊ जो़ड़ा ।

धराक पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धड़ाक' ।

धराकदंब
संज्ञा पुं० [सं० धराकदम्ब] एक प्रकार का कदंब । धाराकदंब ।

धराका †
संज्ञा पुं० [हिं० धड़ाका] दे० 'धड़ाका' ।

धरातल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी । धरती । २. सतह । केवल लंबाई चौड़ाई का गुणनफल जिसमें मोटाई मोटाई गहराई या ऊँचाई का कुछ भी विचार न किया जाय । ३. रकबा । लंबाई और चौड़ाई का गुणनफल ।

धरात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगलग्रह । २. नरकासुर ।

धरात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता ।

धरादेव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण [को०] ।

धराधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पृथ्वी को धारण करे । राजा । उ०—कहत धरेस सब धराधर सेस ऐसो, और धरा- धरन को मेट्यो अहमेव है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ५१ । २. शेष- नाग । ३. पर्वत । ४. बिष्णु ।

धराधरन पु
संज्ञा पुं० [सं० धरा + धरण] दे० 'धराधर' ।

धराधरा
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल का नाम ।

धराधव
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. विष्णु [को०] ।

धराधार
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग । यौ०—धराधारधारी = महादेव ।

धराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०] ।

धराधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा ।

धराधीश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा ।

धराना
क्रि० सं० [हिं० धरना का प्रे० रूप] । १. पकड़ाना । थमाना । २. धारण कराना । पहनाना । उ०—तब श्री गुसाँई जी ने एक बागा तो श्री नवनीतप्रिय जी कों धरायो ।—दो सौ बावन, भा० १, पृ० १७२ । संयो० क्रि०—देना ।—लेना । ३. स्थिर करना । ठहराना । निश्र्चित कराना । मुकर्रर कराना । जैसे, दिन धराना, नाम धराना ।उ०—(क) राम तिलक हित लगन धराई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सुदिन, सुन- खत, सुधरी सोचाई । वेगि वेद विधि लगन धराई ।—तुलसी (शब्द०) ।

धरापति
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. विष्णु [को०] ।

धरापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मंगलग्रह । उ०—धरापुत्र ज्यों स्वर्णमाला प्रकाशै ।—केशव (शब्द०) ।

धरापृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० धरा + पुष्ठ] धरती की सतह । धरतीतल । भूतल । पृथ्वी । उ०—जब उसके अभिमान और गौरव की वस्तु धरापृष्ठ पर नहीं बची ।—कंकाल, पृ० ७८ ।

धराभुक्
संज्ञा पुं० [सं० धराभुक् या धराभुज्] राजा [को०] ।

धराभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत [को०] ।

धरामर
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण [को०] ।

धरारी पु
वि० [हिं० धरना] धारण करनेवाली । उ०—चित्ररेष अपछरि सगीन अति रूप धरारी ।—पृ० रा०, २५ ।७२ ।

धराव
संज्ञा पुं० [हिं० धरना + आव (प्रत्य०)] १. पकड़ने की क्रिया या स्थिति । २. पकड़ । ३. पहुँच ।

धरावट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + आवट (प्रत्य०)] जमीन की वह माप या क्षेत्रफल जो कूतकरं गान लिया गया ही ।

धरावना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'धराना' ।

धराशायी
वि० [सं० धराणयिन्] १. धरती पर गिरा हुआ । गिरा हुआ । पराजित । उ०—आज धराशायी है मानव, गिरा नजर से मै तौ क्या ।—मिट्टी०, पृ० १०६ । २. धरती पर सोनेवाला । ३. युद्ब में मृत ।

धरासुत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धरासूनु' [को०] ।

धरासुर
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण । उ०—भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ।—तुलसी (शब्द०) ।

धरासूनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगलग्रह । २. नरकासुर [को०] ।

धरास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अस्त्र । विशेष—विश्वामित्र और वशिष्ठ की लड़ाई में विश्वामित्र ने वशिष्ठ पर यह अस्त्र चलाया था ।

धराहर
संज्ञा पुं० [हिं० धुर(= ऊपर) + धर] खंभे के तरह ऊपर बहुत दूर तक गया हुआ मकान का भाग जिसपर चढ़ने के लिये भीतर ही भीतर साढ़ियाँ लगी हों । मीनार । उ०— देखि धराहर कर उजियारा । छिपि गय चाँद सुरुज औ तारा ।—जायसी (शब्द०) ।

धरिंगा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का चावल ।

धरित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरती । पृथ्वी । यौ०—धरित्रीभुत् = राजा ।

धरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० धरिमन्] १. तराजू । २ आकार शाकल [को०] ।

धरिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धरना] पृथ्वी । धरती । उ०—पवन को पलट कर सुन्न में घर किया, धिरिया में अधर भरपूर देखा ।— कबीर श०, भा० १, पृ० ९६ ।

धरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरा] चार सेर की एक तौल ।

धरो (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना] रखनी । रखेली स्त्री ।

धरी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ढार] ढार । बिरिया । कान में पहनने का स्त्तियों का एक गहना ।

धरुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्म । २. स्वर्ग । ३. जल । पानी । ४. संमति । राय । ५. वस्तु को सुरक्षित रखने का स्थान । ६. अन्गि । ७. दूध पीनेवाला बछड़ा । ८. आधार । सहारा । ९. कड़ी मिट्टि । १०. हौज [को०] ।

धरेचा
संज्ञा पुं० [हिं० घरना + एचा (प्रत्य०)] दे० 'धरेला' ।

धरेजा पु (१)
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का शस्त्र । उ०—चल्लै चक्र त्रिसूल सूनेजा । सक्ति पास धनू बाँन धरेजा ।—हम्मोर रा०, पृ० १०५ ।

धरेजा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० धरना + एजा (प्रत्य०)] १. किसी स्त्री को मर जाने पर दूसरी स्त्री को बिना ब्याह किए पत्नी की तरह रखना । विशेष—इसमें भात लेकर बिरादरीवाले उस स्त्री को जाति के भीतर स्थान देते है ।

धरेजा (३)
संज्ञा स्त्री० दे० 'धरेल' ।

धरेध
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + एला (प्रत्य०)] रखेली स्त्री । ऐसी स्त्री जिसे कोई बिना ब्याह के घर में रख ले ।

धरेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + एल (प्रत्य०)] उपपत्नी । रखेल ।

धरेला
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + एला (प्रत्य०)] वह पति जिसे कोई स्त्री बिना ब्याह के ही ग्रहण कर ले ।

धरेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना + एली (प्रत्य०)] उपपत्नी । रखेली ।

धरेश
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०] ।

धरेस पु
संज्ञा पुं० [सं० धर + ईश] राजा । धरारति । उ०— कहत धरेस सब धराधर सेस ऐसी, और धराधरन को मेटो अहमेव है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ५१ ।

धरैया †
संज्ञा पुं० [हिं० धरना + ऐया (प्रत्य०)] १.धरनेवाला । पकड़नेवाला । २.धारण करनेवाला । उ०—(क) घँसिधँसि धरनि धर के धरैया कहत जमकातर रुठे ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १६ । (ख) धौसा धुकारन धसमसै धर के धरैया कसमसै ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८ ।

धरोड़ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बरोहर' ।

धरोहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरना (धर) + देशी० ओहर] वह वस्तु या द्रव्य जो किसी के पास इस विश्वास पर रखा हो कि उसका स्वामी जब माँगेगा तब वह दे दिया जायगा । थाती अमानत । उ०—(क) प्रान धरोहर है धन आनँद लेहु न तो अब लेहिंगे गाहक ।—घनानंद (शब्द०) । (ख) जो कोई धरी धरोहर नाटै । अरु पच्छिन के पर जो काटै । साधुहिं दोष लगावे जोई । सोइ विष्ठा कर कीरा होई ।—विश्राम (शब्द०) । क्रि० प्र०—धरना ।—रखना ।

धरोहरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरहरा' उ०—जस धुआँ के धरोहरा, जस बालू कै रेत । हवा लगे सब मिटि गए, जस करतब कै प्रेत ।—धरम०, पृ० ८ ।

धरौली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छोटा पेड़ जो भारतवर्ष में प्रायः सब जगह बिशेषतः हिमालय की तराई में व्यास नदी के किनारे से लेकर सिक्किम तक पाया जाता है । य़ह अफ्रिका और आस्ट्रेलिया के गरम भागों में भी होता है । विशेष—इसकी टहनियाँ लंबी और पत्तिय़ाँ सींक के दोनों और आमने सामने लगती हैं । इसमें सफेद लाल या पीले फूल लगते हैँ । इस पेड़ के किसी भाग में यदि घाव किया जाय तो उसमें से पीला दूध निकलता है जिसे पानी में घोलने से खासा पीला रंग तैयार हो सकता है । इसके बीजों के ऊपर कुछ रोई सी हीती है । बीजों का तेल दवा के काम में आता है । छाल और ज़ड साँप काटने और विच्छू के डंक मारने की दवा समझी जाती है । लकड़ी इसकी भीतर से सफेद चिकनि और मजबूत निकलती है और इसपर खराद और नक्काशी का काम बहुत इच्छा होता है ।

धरौवा
संज्ञा पुं० [हिं० धरना + औवा(प्रत्य०)] बिना विधिपूर्वक विवाह किए स्त्री को रखने की चाल ।

धर्णास, धर्णासि, धर्णी
वि० [सं०] १. टेकनेवाला । २. बलवान । समर्थ । ३. टिकाऊ । सुद्दढ़ [को०] ।

धर्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० वैदिक धर्तृ] १. धारण करनेवाला । २. कोई काम ऊपर लेनेवाला ।

धर्ता पु † (२)
वि० [हिं० धरना या धार] ऋणी । कर्जदरा । यौ०—कर्ता धर्ता = जिसे सब कुछ करने धरने का अधिकार हो ।

धर्ती †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धरती] दे० 'धरती' ।

धर्तूर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०] ।

धर्नि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धरणी' । उ०—सो फरो धर्नि मुच्छा सु खाय ।—हम्मारी रा०, पृ० ४९ ।

धर्नी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धरणी] दे० 'धरणी' । उ०—हन्यों अस्व मलखान धर्नो मिलाय ।—प० रा०, पृ० ८४ ।

धर्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर । भवन । २. यज्ञ । ३.गुण । नैति- कता । ४. सहारा । टेक । ५. पुण्य [को०] ।

धर्म
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम । जैसे, आँख का धर्म देखना, शरीर का धर्म क्लांत होना सर्प का धर्म् काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना । विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है । २. अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो । वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है । जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरंण, इस उदाहरण में कोमलचा और ललाई साधारण् धर्म है । ३. किसी मान्य ग्रँथ, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्पि के अर्थ किया जाय । वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो । जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि । शुभद्दष्टि । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—धर्म कर्म । विशेष—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे । यद्दापि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाड़ ही की ओर था । ४.वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्यबिभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उवित हो । वह काम जिसे मनुष्य़ को किसीबिशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यबहार । कर्तव्य़ । फर्ज । जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि । विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्बारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्बर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है । इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गुह्स्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे व्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि । गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्शमास, बलिकर्म आदि करना इत्यादि । संन्यासी के लिय़े सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्बारा निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना । यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । दन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं । जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना । जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना । निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय । जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्द करने पर प्रायश्चित करना । इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है । ५. वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो । वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले । कल्पाणकारी कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म । विशेष—स्मृतिकारौ ने वणं, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आलश्यक है । मनु ने वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चारी न करना), शौच इंद्रिथनिग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध । मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है । वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती । मनु ने कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रंक्षा करता है । अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतिय़ों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, यहाँ तक कि परलोक आदि पर विश्वास न रखनेवाले योरप के आधिभौतिक तत्ववेत्ताओं को भी समाज की रक्षा के निमित्त इस समान्य धर्म का स्वीकारक करना पड़ा है । उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है । बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है । जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा—धर्म कमाना = धर्म करके उसका फल संचित करना । धर्म की धूम = धर्म का अत्याधिक प्रतार । उ०—पवित्र वैदिक धर्म की ही धूम थी ।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ३७५ । धर्म खाना = धर्म की शपथ खाना । धर्म की दुहाई देना । धर्म बिगाड़ना = (१) धर्म के विरुद्ध आचरण करना । धर्म- भ्रष्ट करना । (२) स्त्री का सतीत्व नष्ट करना । धर्म रखना = धर्म के विरुद्ध आचरण करने से बचना या बचाना । धर्म लगती कहना = धर्म का ध्यान रखकर कहना । ठीक ठीक कहना । सत्य कहना । उचित बात कहना । जैसे,—हम तो धर्म लगती कहैंगे चाहे किसी को भला लगे या बुरा । धर्म से कहना = सत्य सत्य़ कहना । ठीक ठीक कहना । उचित बात कहना । ६.किसी आचार्य या महात्मा द्बारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली । उपासनाभेद । मत । संप्रदाय । पंथ । मजहब । जैसे, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, इसलाम धर्म । क्रि० प्र०—छोड़ना ।—बदलना । विशेष—इस अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग प्राचीन नहीं है । ७. परस्पर व्यवहार संबंधी नियम जिसका पालन राजा, आचार्य या मध्यस्थ द्बारा । कराया जाय । नीति । न्याय- व्यवस्था । कायदा । कानून जैसे, हिंदू धर्मशास्त्र । यौ०—धर्मराज । धर्माधिकारी । धर्माध्यक्ष । विशेष—आचार और व्यवहार दोनों का प्रतिपादन स्मृतियों में हुआ है । आज्ञवल्कप स्मृति में आचाराध्याय और व्यव- हारध्याय अलग अलग है । दायविभाग, सीमाविवाद, ऋणादान, दंडयोग्य अपराध आदि सब विषय अर्थात् दीवानी और फौजदारी के सब मामलें व्यवहार के अंतर्गत हैं । राजसभामें या धर्माध्यक्ष के सामनें इन सब व्यवहारों (मुक- दमों) का निर्णय होता था । ८. उचित अनुचित का विचार करनेवाली चित्तबृत्ति । न्याय- बुद्बि । विवेक । ईमान । उ०—जैसा तुम्हारे धर्म में आवे करो, मारो चाहे छोड़ो ।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०) । मुहा०—धर्म में आना = अंतःकरण में उचित जान पड़ना । ९. धर्मराज । यमराज । १०. धनुष । कमान । ११. सोमपायी । १२. वर्तमान अवसर्पिणी के १५ वें अर्हत् का नाम (जैन) । १३. जन्मलग्न से नवें स्थान का नाम जिसके द्वारा यह विचार किया जाता है कि बालक कहाँ तक भाग्यवान् और धार्मिक होगा । १४. युधिष्ठिर । धर्मराज (को०) । १५. सत्संग (को०) । १६. प्रकृति । स्वभाव । तरीका । ढंग । १७. आचार (को०) । १८. अहिंसा (को०) । १९. एक उपनिषद् (को०) । २०. आत्मा (को०) । २१. निष्पक्ष होने का बाव या स्थिति (को०) ।

धर्मकथक
संज्ञा पुं० [सं०[ विधि, नियम या कानून का व्याख्याता [को०] ।

धर्मकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कर्म या विधान जिसका करना किसी धर्मग्रंथ में आवश्यक ठहराया गया हो । जैसे, संध्यो- पासन आदि । २. विहित या उचित कर्म (को०) ।

धर्मकाम
वि० [सं०] १. धर्मकृत्य में संलग्न । उचित कार्य करनेवाला [को०] ।

धर्मकाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध । २. एक जैन मुनि [को०] ।

धर्मकारण
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म का प्रेरक हेतु [को०] ।

धर्मकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] धार्मिक कृत्य । धर्म का काम [को०] ।

धर्मकील
संज्ञा पुं० [सं०] १. राज्यशासन । शासन । २. पति (को०) ।

धर्मकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म के विचार से किसी कार्य को किया जाय या न किया जाय, यह द्धैधीभाव । धर्मपालन के मार्ग में उत्पन्न बाधक स्थिति [को०] ।

धर्मकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] धार्मिकि कार्य या कर्मकांड [को०] ।

धर्मकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कश्यपवंशीय सुकेतु राजा के पुत्र का नाम २. बुद्धदेव ।

धर्मकोश, धर्मकोष
संज्ञा पुं० [सं०] कानूनों या नियमों का संग्रह । विधानकोश [को०] ।

धर्मक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] धार्मिक कृत्य । धर्मकार्य [को०] ।

धर्मक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुरुक्षेत्र । २. भारतवर्ष जो धर्म के संचय के लिये कर्मभूमि माना गया है । ३. धार्मिक पुरुष (को०) ।

धर्मगुप्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।

धर्मगुप्त (२)
वि० धर्म का रक्षण और पालन करनेवाला [को०] ।

धर्मग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० धर्मग्रंन्थ] वह ग्रंथ या पुस्तक जिसमें किसी जनसमाज के आचार व्यवहार और उपासना आदि के संबंध में शिक्षा हो ।

धर्मघट
संज्ञा पुं० [सं०] सुंगंधित जल से भरा हुआ घड़ा जिसके वैशाख में दान देने का माहात्म्थ काशीखंड़, हेमाद्रि दानखंड़ आदि में है ।

धर्मघड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्म + हिं० घड़ी] बड़ी धड़ी जो ऐसे स्थान पर लगी हो जिसे सब कोई देख सके ।

धर्मघ्न
वि० [सं०] धर्मघातक । धर्महीन । अधार्मिक [को०] ।

धर्मचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का समूह । २.प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र (वाल्मीकि०) । ३. बुद्ब की धर्मशिक्षा जिसका आरंभ काशी से हुआ था । ४. बुद्धदेव । ५. अशोक स्तंभ पर निर्मित चक्र जो तिरंगे झंड़े पर है । उ०—धर्मचक्र रक्षित तिरंग ध्वज उठ अविजित फहराता ।—युगपथ, पृ० ८८ ।

धर्मचरण
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'धर्मचर्या' [को०] ।

धर्मचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्म का आचरण ।

धर्मचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी । २. पतिव्रता [को०] ।

धर्मचारी
वि० [सं० धर्मचारिन्] [वि० स्त्री० धर्मचारिणी] धर्म का आचरण करनेवाला ।

धर्मचिंतक
वि० [सं० धर्माचिन्तक] १.धर्म का विचार करनेवाला । २. स्मृतिकार [को०] ।

धर्मचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० धर्मचिन्तन] धर्म की भावना । धर्मसंबंधी बातों का विचार ।

धर्माचिंता
संज्ञा पुं० [सं० धर्मचिन्ता] दे० 'धर्मचिंतन' [को०] ।

धर्मच्छल
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म का अतिक्रमण या उल्लंघन [को०] ।

धर्मच्युत
वि० [सं०] धर्मभ्रष्ट । पतित [को०] ।

धर्मज (१)
वि० [सं०] धर्म से उत्पन्न ।

धर्मज (२)
संज्ञा पुं० १धर्मपत्नी से उत्पन्न प्रथम औ रस पुत्र (क्योंकि उसके द्बारा पिता पितृऋण से मुक्त होता है) । धर्मपुत्र युधिष्ठिर । ३. एक बुद्ध का नाम । ४. नरनारायण ।

धर्मजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० धर्मजन्मन] युधिष्ठिर [को०] ।

धर्मजन्य
वि० [सं०] धर्म से संबंधित । धर्म विषयक [को०] ।

धर्मजिज्ञासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धर्म के विषय में जानकारी करने की इच्छा । २. धर्मानुकूल आचरण की जिज्ञासा [को०] ।

धर्मजीवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मकृत्य कराकर जीविका अर्जन करनेवाला ब्राह्मण ।

धर्मजीवन
वि० १. जाति धर्म के अनुकूल आचरण करनेवाला । धर्मानुकूल आचरण करनेवाला [को०] ।

धर्मज्ञ
वि० [सं०] धर्म को जाननेवाला ।

धर्मण
संज्ञा पुं० [सं०] १. धार्मिक वृक्ष । २. धामिन साँप । ३. धामिन पक्षी ।

धर्मतः
अव्य० [सं०] धर्म से । धर्म का ध्यान रखते हुए । धर्म को साक्षी करके । सत्य सत्य । जैसे,—जो कुछ हुआ हो मुझसे धर्मतः कहो ।

धर्मतात
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + तात] युधिष्ठिर । उ०—धर्मतात सु अजातरिपु कौतेय कुरुराइ ।—अनेकार्थ०, पृ० ३४ ।

धर्मत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] १.धर्म का आचरण न करना । २. अपना धर्म छोड़ देना [को०] ।

धर्मद (१)
वि० [सं०] अपने धर्म का फल दूसरे को देनेवाला [को०] ।

धर्मद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय का एक अनुचर [को०] ।

धर्मदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धार्मिक कर्म करानेवाले को दिया जानेवाला द्रव्य या धन [को०] ।

धर्मदा
वि० स्त्री० [सं० धर्म + दा] धर्म प्रदान करनेवाली । उ०— धरा जिनको देहदा । जिनको न भूमा धर्मदा ।— अग्नि०, पृ० ६२ ।

धर्मदान
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी निमित्त से या विशेष फल को प्राप्ति (जैसे, ग्रहों की शांति आदि) के अर्थ न किया जाय, केवल धर्म या सात्विक बुद्दि की प्रेरणा से किया जाय ।

धर्मदापन
संज्ञा पुं० [सं०] समझने बुझाने से या अपने आप जब ऋणी ऋण का धन लौटावे, तो उसकी धर्मदापन कहते है ।

धर्मदार
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मपत्नी ।

धर्मदारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मपत्नी । ब्याह कर लाई हुई स्त्री० [को०] ।

धर्मदुघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जिसका दूध केवल धार्मिक कृत्यों के लिये दुहा जाता हो [को०] ।

धर्मदेशक
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मोपदेशक [को०] ।

धर्मद्रवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा नदी ।

धर्मद्रोही (१)
वि० [सं०] धर्म न माननेवाला । अधर्मी [को०] ।

धर्मद्रोही (२)
संज्ञा पुं० राक्षस । दैत्य [को०] ।

धर्मधक्का
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + हिं० धक्का] १. वह कष्ट जो धर्म के लिये उठाना पड़े । वह हानि या कठिनाई जो परोपकार आदि के लिय़े सहनी पड़े । २. वह कष्ट या प्रयत्न जिससे निज का कोई लाभ न हो । व्यर्थ का कष्ट ।

धर्मधातु
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्बदेव ।

धर्मधारी
वि० [सं० धर्म + धारिन्] धार्मिक । धर्मानुकूल आचरण करनेवाला । उ०—महा धर्मधारी । करमचंद भूप । तिनवके रनंसिंघ मनमथ्यरूपं ।—प० रासो, पृ० ९ ।

धर्मधुर्य
वि० [सं०] जो न्याय करने में सबसे आगे हो [को०] ।

धर्मध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का आडंबर खड़ा करके स्वार्थ साधनेवाला मनुष्य । धार्मिकों का सा वेश और ढंग बनाकर लोगों से पुजानेवाला मनुष्य । पाखंड़ी । उ०—धिक धर्मध्वज धधक धोरी ।—तुलसी (शब्द०) । २. मिथिला के एक जनक- वंशीय राजा जिनकी कथा महाभारत के शांतिपर्व में है । ये संन्यासधर्म और मोक्षधर्म के जाननेवाले परम ब्रह्मज्ञानी राजा थे । विशेष—एक बार सुलभा नाम की एक संन्यासिनी सारी पृथ्वी पर घूमती हुई धर्मध्वज की परीक्षा के लिये उनकी सभा में योगबल से अत्यंत मनोहर रूप धारण करके आई । राजा चकित होकर उसका परिचय आदि पूछ ही रहे थे कि उसने अपनी बुद्बि द्बारा राजा की बुद्बि में और नेत्र द्बारा राजा के नेत्र में यह देखने के लिये प्रवेश किया कि वे मोक्षधर्म के वेत्ता है या नहीं । राजा उसका अभिप्राय समझ गए और लिंग शरीर धारण करके उससे उसका परिचय पूछने लगे और उसे उसके आचरण के लिये भला बुरा कहने लगे । राजा ने कहा—'तुमने अपनी बुद्बि द्बारा जो हमारे शरीर में प्रवेश किया उससे अनुचित सहयोग हुआ, इससे तुम्हें तो व्यभिचार द्बोष लगा ही,मैं भी उसका भागी हुँगा' । सुलभा ने आत्मज्ञान की अनेक बातें कहकर राजा को इस प्रकार समझया—'मेरा संपर्क तो अपने शरीर के साथ नहीं है, आपके शरीर के साथ क्योंकर हो सकता है? मैंने अपने सत्वगुण के बल से आपके शरीर में प्रवेश किया । यदि आप जीवन्मुक्त हैं तो मेरे प्रवेश से आपका कोई अपकार नहीं हो सकता । वन के बीच शून्य कुटी में प्रवेश करना संन्यासी का धर्म है अतः मैंने भी आपके बेधशून्य शरीर में प्रवेश किया है और आज भर रहकर कल चली जाउँगी । राजा यह सुनकर चुप हो रहे ।

धर्मध्वजी
संज्ञा पुं० [सं० धर्मध्वजिन्] पाखंडी । दे० 'धर्मध्वज' ।

धर्मनंदन
संज्ञा पुं० [सं० धर्मनन्दन] युधिष्ठिर [को०] ।

धर्मनंदी
संज्ञा पुं० [सं० धर्मनन्दिन्] एक बौद्ब पंडित जिन्होंने कई बौद्बशास्त्रों का चीनी भाषा में अनुवाद किया था ।

धर्मनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनों के पद्रहवें तीर्थकर । विशेष—जैन ग्रंथों के अनुसार ये रत्नपुरी नाम की नगरी में इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुए थे । इनके पिता का नाम भानुराज और माता का नाम सुव्रता देवी था । इनका ड़ील४५धनुष का और आयु दस लाख वर्ष की थी । दीक्षा के लिये इन्होने दो दिन का उपवास किया था । दधिवर्ण वृक्ष इनका दीक्षावृक्ष था । शुक्ला महात्रयोदशी को इनकी दीक्षा हुई थी । दीक्षा के पीछे दो वर्षो तक ये छद्मस्थ रहे, फिर पूस की पूर्णिमा को इन्होने ज्ञानलाभ किया ।

धर्मनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. एक नदी का नाम ।

धर्मनिरपेक्ष
वि० [सं० धर्म + निरपेक्ष] (वह राज्य या शासन) जहाँ किसी धर्म की मुख्यता नही, सभी धर्मों का समान आदर हो ।

धर्मानिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म में भक्ति या निष्ठा [को०] ।

धर्मानिष्ठ
वि० [सं०] धर्मपरायण । धर्म में जिसकी आस्था हो । धार्मिक ।

धर्मनिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्म में आस्था । धर्म में श्रद्बा, भक्ति और प्रवृत्ति ।

धर्मनिष्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कर्तव्यपालन । २. नैतिक या धार्मिक आचरण [को०] ।

धर्मपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यवस्थापत्र जो किसी राजा या धर्माधिकारी की ओर से दिया जाय ।

धर्मपति
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म पर अधिकार रखनेवाला पुरुष । धर्मात्मा । २. वरुण देवता ।

धर्मपत्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार कुर्मविभाग में दक्षिण देश के पास का एक जनस्थान जो कदाचित् आधुनिक धर्मापटम (जिला मलाबार) के आसपास रहा हो । २. आवस्ती नगरी । ३. गोल मिर्च ।

धर्मपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके साथ धर्माशास्त्र की रीति से विवाह हुआ हो । विवाहिता स्त्री । विशेष—दक्षस्मृति में लिखा है कि प्रथमा स्त्री ही धर्मपत्नी है । व्याह कर लाई दुसरी स्त्री को कामपत्नी कहा गया है ।

धर्मपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गूलर (जिसके पत्ते यज्ञदि धर्मकायों में काम आते हैं) ।

धर्मपथ
संज्ञा पुं० [सं०] धर्ममार्ग । नैतिक मार्ग [को०] ।

धर्मपर
वि० [सं०] धर्मानुयायी । धर्मानुकूल आचरण करने वाला [क०] ।

धर्मपरायण
वि० [सं०] धर्मानुयायी । धर्मानुसार कार्य करनेवाला [को०] ।

धर्मपरिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] योग दर्शन के अनुसार सब भूतों और इंद्रियों के रूप या स्थिति से दूसरे रूप या स्थिति में प्राप्त होने की वृत्ति । एक धर्म के नेवृत्त होने पर दुसरे धर्म की प्राप्ति । जैसे, मिट्टी के पिंडतारूप धर्म के निवृत्त होने पर घटत्वरूप धर्म की प्राप्ति । विशेष—पतंजलि ने अपने योगदर्शन में चित्त के जिस प्रकार निरोध, समाधि और एकाग्रता ये तीन परिणाम कहे हैं उसी प्रकार सूक्ष्म, स्थूल भूतों तथा इंद्रियों के भी तीन परिणाम बतलाए हैं ।—धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम और अवस्थापरिणाम । पुरुष के अतिरिक्त और सब वस्तुएँ इन परिणामों के अधीन अर्थात् परिणामी हैं । प्रत्येक धर्मी अर्थात् प्राकृतिक द्रव्य तीन प्रकार के धर्मो से युक्त हैं ।—शांत, उदित और अव्यपदेश्य । वस्तु का जो धर्म अपना व्यापार कर चुका हो, वह शांतधर्म कहलाता है । जैसे, धट के फूट जाने पर घटत्व बीज के अंकुरित हो जाने पर बीजत्व । जो धर्म विद्यमान रहता है उसे उदित कहते है, जिसे, घट के बने रहने पर घटत्व । जो धर्म प्राप्त । होनेवाला है और व्यक्त या निदिंष्ट न हो सकने पर भी शक्ति रूप से स्थित या निहित रहता है उसे लब्ययदेश्य कहते हैं, जैसे बीज में वृक्ष होने का धर्म ।

धमपरिषद्
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मसभा । न्याय करनेवाली सभा । न्यायाध्यक्षों का मंड़ल ।

धर्मपाठक
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र का अध्यापक [को०] ।

धर्मपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का पालन या रक्षा करनेवाला । २. दंड (जिसके भय से लोग धर्म का पालन करते हैं) ३. राजा दशरथ के एक मंत्री का नाम ।

धर्मपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का प्रधान स्थान । २. काशी । ३. वह स्थान जहाँ धर्म की व्यवस्था मिले ।

धर्मपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मपीड़ा] धर्म या न्याय के विरुद्ध आचरण ।

धर्मपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म के पुत्र युधिष्ठिर । २. नरनाराण । ३. धर्मानुसार पुत्र कहकर जिसका ग्रहण किया गया हो ।

धर्मपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमपुरी जहाँ शरीर छूटने पर प्राणियों के किए हुए धर्म अधर्म का विचार होता है । २. कचहरी । न्य़ायालय ।

धर्मपुस्तक
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्म + पुस्तक] धर्म विषयक पुस्तक । धर्मग्रंथ [को०] ।

धर्मप्रचार
संज्ञा पुं० [सं०] (लाक्ष०) तलवार [को०] ।

धर्मप्रतिरूपक
संज्ञा पुं० [सं०] परायों को दिया हुआ ऐसे सशक्त और संपन्न मनुष्य का दान जिसके अपने लोग (कुंटुंबी आदि) कष्ट में हो । विशेष—मनु ने कीर्ति, यश आदि के लिये दिए हुए ऐसे दान को धर्म नहीं कहा है, धर्म का प्रतिरूपक (नकल) कहा है ।

धर्मप्रधान
वि० [सं०] जिसमें धर्म मुख्य या निर्दिष्ट हो [को०] ।

धर्मप्रभास
संज्ञा पुं० [सं०] बृद्ब का एक नाम ।

धर्मप्रवक्ता
संज्ञा पुं० [सं० धर्मप्रवक्तृ] १. नियम या कानून का व्याख्याता । २. धर्म का अध्यापक [को०] ।

धर्मप्रवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ब का एक नाम । २. धर्म की व्यवस्था या कर्तव्यशास्त्र (को०) । ३. नियम या कानून की व्याख्य़ा । (को०) ।

धर्मबल
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म के आचरण का दल [को०] ।

धर्मबाणिजिक
संज्ञा पुं० [सं०] १.वह जो बनिए के सामन धर्म द्बारा लाभ पाने की चेष्टा करता हैं । २. वह जो धार्मिक कार्य़ फलाशा से करता है, जैसे लाभ की आशा से बनिया व्यापार करता है [को०] ।

धर्मबाह्य
वि० [सं०] धर्मविरुद्ब [को०] ।

धर्मबुद्धि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्म अधर्म का विवेक । विवेक । भले बुरे का विचार ।

धर्मबुद्बि (२)
वि० १. धर्मानुकूल आचरण करनेवाला । २. उचित अनुचित का विचार करनेवाला [को०] ।

धर्मभगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जो धर्म के नाते बहन हो । २. गुरुकन्या [को०] ।

धर्मभागिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मपरायण पत्नी [को०] ।

धर्मभाणक
संज्ञा पुं० [सं०] कथा पुराण बाँचनेवाला । कथक्कड़ ।

धर्मभ्राता
संज्ञा पुं० [सं० धर्मभ्रातृ] १. गुरुभाई । २. धर्माँ के नाते भाई । ३. गुरुपुत्र [को०] ।

धर्मभिक्षुक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने धर्मार्थ भिक्षावृत्ति ग्रहण की ही । विशेष—मनु ने नो प्रकार के धर्मभिक्षुक गिनाएँ हैं—पुत्र कीकामना से विवाह चाहनेवाला; यज्ञ की इच्छा रखनेवाला; पथिक; जो यज्ञ में अपना सर्वस्व लगाकर निर्धन हो गया हो; गुरु माता और पिता के भरणपोषण के लिये धन चाहनेवाला; अध्ययन की इच्छा रखनेवाला विद्यार्थी और रोगी । ये नव धर्मभिक्षुक ब्राह्मण श्रेष्ठ स्नातक हैं । इन्हें यज्ञ की वेदी के भीतर बैठाकर दक्षिणा के सहित अन्नदान देना चाहिए । इनके अतिरिक्त जो ओर ब्राह्मण हों उन्हें वेदी के बाहर बैठाना चाहिए ।

धर्मभोरु
वि० [सं] जिसे धर्म का भय हो । जो अधर्म करते हुए बहुत ड़रता हो ।

धर्मभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. धर्मपरायण व्यक्ति । धर्म- निष्ठ ब्यक्ति [को०] ।

धर्मभ्रष्ट
वि० [सं०] वह जो धर्म से पतित हो गया हो । धर्मच्युत [को०] ।

धर्ममति
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धर्मबुद्बि' ।

धर्ममहापात्र
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मविभाग का मंत्री [को०] ।

धर्ममूल
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म के आधार वेद [को०] ।

धर्ममेघ
संज्ञा पुं० [सं०] योग में असंप्रज्ञात समाधि के अंतर्गत एक समाधि जिसमें वैराग्य के अभ्यास से चित्त सब वृत्तियों से रहित हो जाता है अर्थात इतना असमर्थ हो जाता है, कि उसका रहना न रहना बराबर हो जाता है, केवल कुछ संस्कार मात्र रह जाता है ।

धर्मयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा यज्ञ जिसमें किसी की बालि न दी जाय [को०] ।

धर्मयुग
संज्ञा पुं० [सं०] सत्ययुग ।

धर्मयुद्ब
संज्ञा पुं० [सं०] १.वह युद्ध जिसमें किसी प्रकार का अन्याय या नियम का भंग न हो । २. धर्म की रक्षा या प्रचार के लिये किया जानेवाला युद्ब । जिहाद ।

धर्मयूप, धर्मयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।

धर्मरक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] योग (यवन) देशीय एत बौद्ब धर्मों- पदेशक या स्थविर जिसे महाराज अशोक ने अपरातक (बिलूचिस्तान) देश में उपदेश देने के लिये भेजा था ।

धर्मरत
वि० [सं०] धर्मानुयायी । धर्मपरायण । [को०] ।

धर्मरति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मानुराग । धर्मप्रेम [को०] ।

धर्मरति (२)
वि० धर्मपरायण [को०] ।

धर्मराइ, धर्मराई पु
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + राज] दे० 'धर्मराज' । उ०—तीजे अकास रहे धर्मराई । नर्क सुर्ग जिन लीन बनाई । करमन फल जीवन भुगताई ।—ऐसा अदल पसारा है ।—कबीर श०, भा० १, पृ० ६२ ।

धर्मराज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का पालन करनेवाला, राजा । २.युधिष्ठिर । ३. यमराज । ४. जिन । ५. न्यायकर्ता । न्यायाधीश । उ०—सेनापति बुधजन, मंगल गुरुगण, धर्मराज मन बुद्धि घनी ।—केशव (शब्द०) ।

धर्मराज (२)
वि० धर्मशील [को०] ।

धर्मराज (३)
संज्ञा पुं० [सं० धर्मराजन्] युधिष्ठिर [को०] ।

धर्मराजपरीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मृतियों के अनुसार धर्म में अभि- युक्त दोषी है या निर्दोष, इसकी एक दिव्य परीक्षा । विशेष— बृहस्पति, पितामह आदि स्मृतिकारों ने जो विधान लिखे हैं वे थोडे़ बहुत भिन्न होने पर भी वस्तुतः एक ही से हैं । धर्म और अधर्म की दो श्वेत और कृष्ण मूर्तियाँ भोजपत्र पर बनाकर औऱ उनकी प्राण प्रतिष्ठापूर्वक पूजा करके मिट्टौ के दे बराबर पिंड़ों में उन्हें रखे । फिर दोनों पिंड़ों को दो नए घड़ों में रखकर अभियुक्त को बुलावे और किसी घडे़ पर हाथ रखने के लिये कहे । यदि उसका हाथ धर्मपिंडवाले घडे़ पर पडे़ तो उसे निर्दोष समझे ।

धर्मराजिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारनाथ का एक बौद्ध स्तूप [को०] ।

धर्मराय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मराज] यम । दे० 'धर्मराज' । उ०— धोखे जीव विगोयहो धर्मराय धरि खाय ।—कबीर सा०, पृ० १५२२ ।

धर्मरोधी
वि० [सं० धर्मरोधिन्] धर्मविरुद्ध । अन्यायपूर्ण । [को०] ।

धर्मलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म या व्यवस्था का मूल चिह्न या लक्षण । २. बेद [को०] ।

धर्मलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीमांसा दर्शन [को०] ।

धर्मलुप्ता उपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उपमा जिसमें धर्म अर्थात् उपमान और उपमेंय में समान रूप से पाई जानेवाली बात का कथन न हो । दे० 'उपमा' ।

धर्मलोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधर्म । अनाचार । २. कर्तव्य का लोप [को०] ।

धर्मवत्सल
वि० [सं०] जिसे धर्म वा कर्तव्य प्यारा हो [को०] ।

धर्मवर्ती
वि० [सं० धर्मवर्तिन्] धर्मिक । धर्मानुयायी । धर्माचरण करनेवाला [को०] ।

धर्मवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

धर्मवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० धर्मवर्मन्] धर्मरक्षक [को०] ।

धर्मवाद
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म या कर्तव्य के विषय में उत्पन्न वाद पर विचार [को०] ।

धर्मवान्
वि० [सं० धर्मवत्] धर्मनिष्ट । धर्मात्मा [को०] ।

धर्मवासर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्णिमा । २. बीता हुआ दिन या कल [को०] ।

धर्मवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका वाहन धर्म हो । शिव । २. धर्मराज का वाहन महिष । भैंसा ।

धर्मविजयी
संज्ञा पुं० [सं०] बह जो नम्रता या विनय ही से संतुष्ट हो जाय । विशेष— कौटिल्य के अनुसार दुर्बल राजा को पहले धर्मविजयी राजा का सहारा लेना चाहिए ।

धर्मविद्
वि० [सं०] धर्मज्ञाता [को०] ।

धर्मविद्या
स्त्री० [सं०] धर्मबिधान या कर्तव्य का ज्ञान [को०] ।

धर्मविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धर्म संबंधी व्यवस्था । २. नियम या कानून की व्यवस्था [को०] ।

र्धमविप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म का व्यतिक्रम । २. धार्मिक क्रांति या उथल पुथल [को०] ।

धर्मविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मपरिवर्तन । उ०— अकबर के पूर्व मुसलमानों के जो आक्रमण हुए थे उनमें मूर्तियों के खडन, अनेक अनाचार तथा अत्याचार, धर्मविपर्यय आदि के दृश्यों ने जनता में अवतारवाद के विरुद्ध भावना भर दो ।— अकबरी० (भू०), पृ० ३ ।

धर्मविवेचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म के संबंध में चितन । २. धर्म अधर्म का विचार । ३. दूसरे के किए हुए कर्म का विचार कि वह सदोष है या निर्दोष । किसी के दोषी या निर्दोंष होने का निर्णय ।

धर्मवीर
संज्ञा पुं० [सं०] वरह जो धर्म करने में साहसी हो । विशेष— रमनिर्णय के ग्रंथों में वीररस के अंतर्गत चार प्रकार के वीर कहे गए हैं— युद्धवीर, धर्मवीर, दानवीर और दयावीर ।

धर्मवृद्ध
वि० [सं०] जो धर्माचरण द्वारा श्रेष्ठ हो ।

धर्मवैतंसिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो पाप के द्वारा धन कमाकर लोगों की दिखने और धार्मिक प्रसिद्धि होने के लिये बहुत दानपुण्य करता हो ।

धर्मव्यवस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी प्रश्न पर अधिकारी विद्वानों द्वारा प्रदत्त धर्मानुमोदित मत या निर्णय । २. निर्णय । फैसला [को०] ।

धर्मव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] मिथिलापुर निवासी एक व्याध जिसने कौशिक नामक एक तपस्वी वेदाध्यायी ब्राह्मण को धर्म का तत्व समझाया था । विशेष— महाभारत (वन पर्व) में इसकी कथा इस प्रकरा है । कौशिक नामक एक तपस्वी ब्राह्मण एक पेड़ के नीचे बैठकर वेदपाठ कर रहै थे इतने में एक बगली ने पेड़ पर से उनके ऊपर चीट कर दी । कौशिक ने कुछ क्रुद्ध होकर उसकी और देखा और वह मरकर गिर पड़ी । इसपर कौशिक को बड़ा दुःख हुआ और वे भिक्षा माँगने के लिये एक परिचित गृहस्थ के घर पुहँचे । उसकी गृहिणी उन्हें बैठाकर भीतर अन्न आदि लाने गई । पर इसी बीच में उसका पति भूखा प्यासा गहीं से आ गया और वह उसकी सेवा में लग गई । पीछे जब उसे द्वार पर बैठे हुए ब्राह्मण की सुध हुई तब वह भिक्षा लेकर तुरंत बाहर आई ओर विलंब का कारण बताकर क्षमाप्रार्थना करने लगी । कौशिक इसपर बहुत बिगडे़ और ब्राह्मण के कोप का भयंकर फल बताकर उसे डराने लगे । इसपर उस स्त्री ने कहा— 'मैं बगलरी नहीं हूँ । आपके क्रोध से मेरा क्या हो सकता है ? मैं पति को अपना परम देवता समझती हूँ । उनकी सेवा से छुट्टी पाकर तब मैं मिक्षा लेकर आई हूँ । क्रोध बहुत बुरी वस्तु है । जो क्रोध के वश में नहीं होता देवता उसी को ब्राह्मण समझते हैं । यदि आपको धर्म का यथार्थ तत्व जानना हो तो मिथिला में धर्मव्याध के पास जाइए' । कौशिक अवाक् हो गए और अपने को धिक्कारते हुए मिथिला की ओर चल पडे़ । वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि धर्मव्याध नाना प्रकार के पशुओं का मांस रखकर बेच रहा है । धर्म- व्याध ने ब्राह्मण देवता को देखते ही आदर से उठकर बैठाया और कहा—'आपको एक ब्राह्मणी ने मेरे पास भेजा है ।' कौशिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने धर्मव्याध से कहा—'तुम इतने ज्ञानसंपन्न होकर ऐसा निकृष्ट कर्म क्यों करते हो'? धर्मव्याध ने कहा, 'महाराज ! यह पितृपरंपरा से चला आता हुआ मेरा कुलधर्म है; अतः मैं इसी में स्थित हूँ । मैं अपने, माता पिता और अतिथियों की सेवा करता हूँ । देवपूजन और शक्ति के अनुसार दान करता हूँ, झूठ नहीं बोलता, बेईमानी नहीं करता । जो मांस बेचता हूँ वह दूसरों के मारे हुए पशुओं का होता है । मेरी वृत्ति भयंकर अवश्य है, पर किया क्या जाय ? मेरे लिये वही निर्दिष्ट की गई है । वही मेरा कुलोचित कर्म है, उसका त्याग करना उचित नहीं । पर साथ ही सदाचार के आचरण मैं मुझे कोई बाधा नहीं । इसके उपरांत धर्मव्याध ने अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत इस प्रकार सुनाया— मैं पूर्वजन्म में वेदाध्यायो ब्राह्मण था । मैं एक दिन अपने मित्र एक राजा के साथ शिकार में गया और वहाँ जाकर मैंने एक मृगी के ऊपर तीर चलाया । पीछेजान पड़ा कि मृगी के रूप में एक ऋषि थे । ऋषि न् मुझे शाप दिया कि 'तूने मुझे बिना अपराध मारा इससे तू शूद्रयोनि में जाकर एक व्याध के घर उत्पन्न होगा ।'

धर्मव्रत
वि० [सं०] धर्म का व्रत लेनेवाला । धर्मपरायण [को०] ।

धर्मव्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विश्वरूपा के गर्भ से उत्पन्न धर्म नामक एक राजा की कन्या । विशेष— वायुपुराण में आख्यान है कि इसने पातिव्रत्य की प्राप्ति के लिये घोर तप किया था । मरीचि ऋषि ने उसे पृथ्वी पर सब से बड़ी पतिव्रता देख उसके साथ विबाह किया था ।

धर्मशाला
संज्ञा पुं० [सं०] वह मकान जो पथिकों या यात्रियों के टिकने के लिये धर्मार्थ बना हो और जिसका कुछ भाड़ा आदि न लगता हो । २. वह स्थान जहाँ पुण्य के लिये नियमपूर्वक दान आदि दिया जाता हो । सत्र । ३. वह स्थान जहाँ धर्म अधर्म का निर्णय हो । न्यायालय । विचारालय ।

धर्मशासन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धर्मशास्त्र' [को०] ।

धर्मशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी जनसमूह के लिये उचित आचार व्यवहार की व्यवस्था जो किसी महात्मा या आचार्य की ओर से होने के कारण मान्य समझी जाती हो । वह ग्रंथ जिसमें समाज के शासान के निर्मित्त नीति और सदाचार संबंधी नियम हों । जैसे, मानव धर्मशास्त्र । विशेष— हिंदुओं के धर्मशास्त्र 'स्मृति' के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन में मनुस्मृति सबसे प्रधान समझी जाती है । मनु के अतिरिक्त यम, वशिष्ठ, अत्रि, दक्ष, बिष्णु, अगिरा, उशना, बृहस्पति, व्यास, आपस्तंब, गौतम, कात्यायन, नारद, याज्ञवरुक्य,पराशर, संवर्त्त, शंख और हारीत भी स्मृतिकार हुए हैं । दे० 'स्मृति' ।

धर्मशास्त्री
संज्ञा पुं० [सं० धर्मशास्त्रिन्] धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवस्था देनेवाला । धर्मशास्त्र जाननेवाला पडित ।

धर्मशील
वि० [सं०] धर्म के अनुसार आचरण करनेवाला ।

धर्मशीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्मशील होने का भाव । धर्माचरण की वृत्ति ।

धर्मसंकट
संज्ञा पुं० [सं० धर्मसङ्कट] बिवेक की वह स्थिति जिसमें किसी कार्य को करना भी उचित लगे और न करना भी उचित । कार्य को करने की कठिनाई [को०] ।

धर्मसंग
संज्ञा पुं० [सं० धर्मसङ्ग] १. धर्मानुराग । धर्म से लगाव । २. ढोंग [को०] ।

धर्मसंगीति
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मसङ्गाति] १. धर्म के सबंध में बाद- विवाद । २. बौद्धों का धर्मसंमेलन [को०] ।

धर्मसंघ
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + सङ्घ] धर्म का संगठन । धर्मसभा [को०] ।

धर्मसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विधि विधानों का समुच्चय, जिनकी रचना मनु और याज्ञवल्क्य जैसे ऋषियों ने की है [को०] ।

धर्मसभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. न्यायालय । कचहरी । वह स्थान जहाँ बैठकर न्यायाधीश न्याय करे । अदालत । उ०— धर्मसभा महँ रामहिं जानी । श्वान चलो निज पीर बखानो ।— केशव (शब्द०) । २. वह स्थान जहाँ धार्मिक विषयों की चर्चा या उपदेश हो ।

धर्मसमय
संज्ञा पुं० [सं०] नियम या कानून की अनिवार्यता [को०] ।

धर्मसहाय
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मकृत्यों में साथ देनेवाला [को०] ।

धर्मसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुण्य कर्म । उत्तम कर्म । २. धर्मतत्व [को०] ।

धर्मसारी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मशाला] धर्मशाला । उ०— राज इक पंडित पौरि तुम्हारी ।...हूँट पैंड दे बसुधा हमको तहाँ रचौ धर्मसारी ।— सूर (शब्द०) ।

धर्मसावर्णि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणों के अनुसार ग्यारहवें मनु ।

धर्मसीलता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्मशीलता] दे० 'धर्मशीलता' । उ०— यह कपि धर्मसीलता तोरी । हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ।— मानस, ६ । २२ ।

धर्मसुत
संज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठर [को०] ।

धर्मसू
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्मप्रेरक । २. धूम्याट पक्षी ।

धर्मसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जैमिनि प्रणीत धर्मनिर्णय पर एक ग्रंथ ।

धर्मसेतु
संज्ञा पुं० [सं०] सेतु की तरह धर्म को धारण करनेवाला ।

धर्मसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन महास्थिविर या बौद्ध महात्मा जो ऋषिपत्तन (सारनाथ, काशी) संघ के प्रधान थे । विशेष— अनुराधापुर (सिंहलद्वीप) के राजा दुःखगामिनी ने जब महास्तूप की स्थापना की थी (ई० पू० १५७) तब ये बारह हजार अनुचरों के साथ उपस्थि हुए थे । २. जैनों के द्वादश अंगविदों में से एक ।

धर्मसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म का आचरण या पालन [को०] ।

धर्मस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० धर्मस्कन्ध] धर्मस्तिकाय पदार्थ । (जैन) ।

धर्मस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] धर्माध्यक्ष । न्यायाधीश । विशेष— भारतीय आर्यों में लोक को व्यवस्थित करनेवाले नियम जिनका पालन राज्य करता था, धर्म ही कहलाते थे । कानून भी धर्म कहलाते थे । कानून धर्म से अलग नहीं माना जाता था ।

धर्मस्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धार्मक कार्य करनेवाली सस्था या समाज [को०] ।

धर्मस्व (२)
वि० धर्मकार्यों के लिये समर्पित (द्रव्य आदि) ।

धर्मस्थीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायालय ।

धर्मस्थाय (२)
वि० धर्म विषयक । नियम या कानून संबंधी [को०] ।

धर्मस्वामी
संज्ञा पुं० [सं० धर्मस्वामिन्] बुद्ध [को०] ।

धर्मांग
संज्ञा पुं० [सं० धर्माङ्ग] बक । बगला (जिसका अंग धर्म के समान शुभ्र होता है) ।

धर्मांतर
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अन्तर] भिन्न धर्म ।

धर्मांतरण
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अन्तरण] धर्म परिवर्तन । भिन्न धर्म स्वीकार करना [को०] ।

धर्मांध
वि० [सं० धर्म + अन्ध] धर्म में अंध श्रद्धा रखनेवाला । कट्टर धार्मिक [को०] ।

धर्मांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।

धर्मांसु पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धर्मांशु' । उ०— जयति धर्मांसु संदग्ध संपाति नवपच्छ लोचन दिव्य देह दाता ।—तुलसी (शब्द०) ।

धर्मा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धर्म' । उ०— कर्मा धर्मा स्रावग जैनी ।— घट०, पृ० २९३ ।

धर्मागम
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + आगम] धर्मग्रंथ [को०] ।

धर्माचरण
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + आचरण] धर्मानुसार आचरण । पुण्य कृत्य [को०] ।

धर्माचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म की शिक्षा देनेवाला गुरु । २. ऋग्वेदियों में उन ऋषियों में एक जिनके निमित्त तर्पण किया जाता है ।

धर्मातिक्रमण
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अतिक्रमण] धर्म का उल्लंघन । धर्म या औचित्य का विरोध [को०] ।

धर्मात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठिर [को०] ।

धर्मात्मा
वि० [सं० धर्मात्मन्] धर्मशील । धर्म करनेवाला । धार्मिक ।

धर्मादा
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + दाय] धर्म कार्य के लिये निकाला हुआ धन [को०] ।

धर्माधर्म
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अधर्म] धर्म और अधर्म [को०] ।

धर्माधर्मविद
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अधर्म + विद्] धर्म और अधर्म का ज्ञाता । मीमांसक [को०] ।

धर्माधिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ राजा व्यवहारों (मुकदमों) पर विचार करता है । विचारालव ।

धर्माधिकरणिक
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म अधर्म की व्ववस्था देनेवाला । विचारक । न्यायाधीश [को०] ।

धर्माधिकरणी
संज्ञा पुं० [सं० धर्माधिकरणिन्] दे० 'धर्माधिकरणिक' [को०] ।

धर्भाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्मकृत्यों का निरीक्षण । २. न्याय व्यवस्था । ३. न्यायाधीश का पद [को०] ।

धर्माधिकारी
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म अधर्म की व्यवस्था देनेवाला । विचारक । न्यायाधीश । २. वह जो किसी राजा या बडे़ आदमी की ओर से धर्मार्थ निकाले हुए द्रव्य को पात्रापात्र का विचार करके बाँटने आदि का प्रबंध करता है । पुण्य खाते का प्रबंधकर्ता । दानाध्यक्ष ।

धर्माधिकृत
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अधिकृत] धर्माध्यक्ष । [को०] ।

धर्माधिष्ठान
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायालय [को०] ।

धर्माध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्माधिकारी । २. विष्णु । ३. शिव ।

धर्मानुप्राणित
वि० [सं० धर्म + अनुप्राणित] धर्म से प्रभावित । धर्मजय । उ०— भारतीय प्रत्येक कार्य धर्मानुप्राणित होता है ।—स० शास्त्र, पृ० १२७ ।

धर्मानुष्टान
संज्ञा पुं० [सं०] धर्माचरण ।

धर्मानुस्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं० धर्म + अनुस्मृति] धर्म के विषय में चिंतन [को०] ।

धर्मापेत (१)
वि० [सं०] धर्मरहित । अन्यायपूर्ण [को०] ।

धर्मापेत (२)
संज्ञा पुं० १. अधर्म । २. अन्याय [को०] ।

धर्माभास
संज्ञा पुं० [धर्म + आभास] धर्म का भ्रम । श्रुति स्मृति से भिन्न शास्त्रों द्वारा निरूपित असद्धर्म [को०] ।

धर्माभिनिवेश
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + अभिनिवेश] धर्म का प्रवेश । धर्म का ग्रहण । उ०— वह कहते हैं कि धर्मग्राह (धर्माभि- निवेश) दो प्रकार का है । सहज और विकाल्पित ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३३६ ।

धर्मारण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तपोवन । २. एक तीर्थ जिसके विषय में वराहपुराण में यह कथा लिखी है कि जब चंद्रमा ने गुरुपत्नी तारा का हरण किया तब धर्म व्याकुल होकर एक सधन वन में घुस गया । उस वन का नाम ब्रह्मा ने धर्मारण्य रखा । ३. गया के अंतर्गत एक तीर्थस्थान । ४. कूर्मविभाग के मध्य भाग में एक देश (बृहत्संहिता) ।

धर्मार्थ
क्रि० वि० [सं०] धर्म के निमित्त । केवल धर्म या पुण्य के उद्देश्य से । परोपकार के लिये । जैसे,— उसने १०० धर्मार्थ दिए हैं ।

धर्मावतार
संज्ञा पुं० [सं०] १. साक्षात् धर्मस्वरूप । अत्यंत धर्मात्मा । विशेष— इस शब्द का प्रयोग संबोधन के रूप में छोटों की ओर से बड़ों के प्रति आदरार्थ होता है । २. धर्माधर्म का निर्णय करनेवाला पुरुष । न्यायाधीश । ३. युधिष्ठिर ।

धर्मावसथि
संज्ञा पुं० [सं०] पुण्य विभाग का अधिकारी । विशेष— चाणक्य के समय में इसका कार्य यात्रियों तथा वैरागियों को सहर में ठहरने के लिये स्थान देना था । कारीगर तथा शिल्पी अपनी जिम्मेवारी पर रिश्तोदारों, साधुओं संन्यासियों तथा श्रोत्रियौं को अपने मकन में बसाते थे । यही बात व्यापारियों के करनी पड़ती थी ।

धर्मावस्थीयी
संज्ञा पुं० [सं०] पुण्य विभाग का अधिकारी । दे० 'धर्मावसिथि' ।

धर्माश्रित
वि० [सं०] १. धर्मानुसारी । धर्मसम्मत । २. न्यायपूर्ण [को०] ।

धर्मासन
संज्ञा पुं० [सं०] वह आसन या चौकी जिसपर बैठकर न्यायधीश न्याय करता है । उ०— हे प्रतिहारी, तू हमारा नाम लेकर पिशुन मंत्री से कह दे कि बहुतद जागने से हममें धर्मामन पर बैठने की सामर्थ नहीं रही इसलिये जो कुछ काम काज प्रजासंबंधी हो, लिखकर हमारे पास यहीं भेज दे ।—लक्ष्मण सिंह (शब्द०) ।

धर्मास्तिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार छह द्रव्यों में से एक जो एक अरूपी पदार्थ है और जीव और पुदगख की गति का आधार या सहायक होता है ।

धर्मिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी । २. रेणुका ।

धर्मिणी (२)
वि० धर्म करनेवाली । विशेष— हिंदी में इसका प्रयोग समस्त पदों में ही होता है, जैसे, सहधर्मिणी ।

धर्मिष्टी पु
वि० [सं० धर्मिक] धर्माचरण करनेवाला । धार्मिक । उ०— बरनौं राजकुँअर की बानी । धर्मिष्टि औ पंडित ज्ञानी ।—इंद्रा०, पृ० ९ ।

धर्मिष्ठ
वि० [सं०] धार्मिक । पुण्यात्मा । सदाचारी ।

धर्मी (१)
वि० [सं० धर्मिन्] [स्त्री० धर्मिणी] १. जिसमें धर्म हो । धर्म या गुणविशिष्ट । जैसे, प्रसवधर्मी । २. धार्मिक । पुण्यात्मा । ३. मत या धर्म को माननेवाला । जैसे, भिन्नधर्मी ।

धर्मी (२)
संज्ञा पुं० १. धर्म का आधार । गुण या धर्म का आश्रम । जैसे, द्रवत्व धर्म का आधार जल है । २. धर्मात्मा मनुष्य । ३. बिष्णु ।

धर्मीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] नट । नाटक का कोई पात्र या अभिनयकर्ता ।

धर्मेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० धर्मेंन्द्र] १. यमराज । २. युधिष्ठिर [को०] ।

धर्मेयु
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुवंशी । राजा रौद्राश्व का एक पुत्र ।

धर्मेश, धर्मेंश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज [को०] ।

धर्मोंत्तर
वि० [सं० धर्म + उत्तर] धर्म से परे । धर्म से बड़ा । महान् । दैवी । उ०— है काम तुम्हारा धर्मोत्तर ।—अपरा, पृ० १७८ ।

धर्मोंन्माद
संज्ञा पुं० [सं० धर्म + उन्माद] धार्मिक या सांप्रदायिक कट्टरता या असहिष्णुता जनित पागलपन ।

धर्मोपदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्म की शीक्षा । वह कथन या व्याख्यान जो धर्म का तत्व समझाने या धर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिये हो । २. धर्म की व्यवस्था । धर्माशास्त्र ।

धर्मोपदेशक
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म का उपदेश देनेवाला ।

धर्मोपाध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] पुरोहित ।

धर्म्य
वि० [सं०] जो धर्म के अनुकूल हो । धर्म या न्याययुक्त ।

धर्म्यविवाह
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों में जो विवाह गिनाए गए हैं उन में से ब्राह्म, दैव, आर्ष, गांधर्व और प्राजापत्य ये पाँच धर्म्यविवाह कहलाते हैं ।

धर्राट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'धड़धड़ाहट१' । उ०— घोड़ों और सामान का बाहर निकलना था क्रि तबेला 'धरर धर्राट' करके गिर गया ।—सुंदर ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० ३९ ।

धर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविनीत व्यवहार । अविनय । धृष्टता । गुस्ताखी । संकोच या शिष्टता का अभाव । २. असहनशीलता । तुनुकमिजाजी । ३. धैर्य का अभाव । अधीरता । बेसब्री । ४. शक्तिबंधन । अशक्त होने या करने का भाव । बेकाम करने या होने का भाव । ५. रोक । दबाव । ६. नामर्द करने या होने का भाव । ७. नामर्द । नपुंसक । हिजड़ा । ८. हिंसा । जी दुखाने का कार्य । ९. अनादर । अपमान । हतक । १०. (स्त्री का) सतीत्वहरण ।

धर्षक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दबानेवाला । दमन करनेवाला । २. अपमान करनेवाला । तिरस्कार करनेवाला । ३. असहनशील । ४. सतीत्वहरण करनेवाला । व्यभिचारी । ५. अभिनय करनेवाला । नकल करनेवाला । नट ।

धर्षक (२)
वि० १. दमन करनेवाला । २. अपमान या तिरस्कार करनेवाला । ३. व्यभिचारी । ४. ढिठाई करनेवाला [को०] ।

धर्षकारी
वि० [सं० धर्षकारिन्] [वि० स्त्री० धर्षकारिणी] १. दबाने या दमन करनेवाला । हरानेवाला । नीचा दिखानेवाला । २. अपमान करनेवाला । अपज्ञा करनेवाला ।

धर्षकारिणी
वि० [सं०] जिसका सतीत्व नष्ट हुआ हो । असती । व्यभिचारिणी ।

धर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० धर्षणीय, धर्षित] १. अनादर । अपमान । अवज्ञा । २. दबोचना । आक्रमण । दबाव या दमन करने का कार्य । हराने का कार्य । नीचा दिखाने का कार्य । ३. असहनशीलता । ४. एक अस्त्र का नाम । ५. स्त्रीप्रसंग । रति । ६. शिव ।

धर्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अवमानना । अवज्ञा । हतक । २. दबाने या हराने का कार्य । नीचा दिखाने का कार्य । ३. सतीत्वहरण । ४. संभोग । रति ।

धर्षणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] असती स्त्री । कुलटा [को०] ।

धर्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] असती स्त्री । कुलटा ।

धर्षणीय
वि० [सं०] धर्षण के योग्य ।

धर्षित (१)
वि० [सं०] १. जिसका धर्षण किया गया हो । दबाया या दमन किया हुआ । परिभूत । हराया हुआ । २. जिसे नीचा दिखाया गया हौ । अपमानित ।

धर्षित (२)
संज्ञा पुं० १. रति । मैथुन । २. अभिमान (को०) । ३. असहिष्णुता (को०) ।

धर्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा । व्याभिचारिणी स्त्री [को०] ।

धर्षी
वि० [सं० धर्षिन्] [वि० स्त्री० धर्षिणी] १. धर्षण करनेवाला । २. धर दबानेवाला । आक्रमण करनेवाला । दबोचनेवाला । ३. हरानेवाला । ४. नीचा दिखानेवाला । ५. अपमान करनेवाला । ५. संभोग करनेवाला (को०) ।

धलंड
संज्ञा पुं० [सं० धलण्ड़] अंकोल का पेड़ । ढे़रा ।

धव
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक जंगली पेड़ जिसकी पत्तियाँ अमरूद या शरीफे की पत्तियों जैसी होती हैं । उ०— कुतक खिदर धव काठरा, विदर पजावण वेस ।—बाँकी०, ग्रं०, भा० २, पृ० ८६ । विशेष— इसकी छाल सफेद और चिकनी तथा हीर की लकड़ी बहुत कड़ी और चमकीली होती है । फल छोटे छोटे होते हैं । इसकी कई जातियाँ होती हैं जो हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण भारत तक पाई जाती हैं । बड़ी जाति का जो पेड़ होता है उसे धौरा या बासली कहते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है और नाव, खेती के सामान आदि बनाने के काम में आती है । कोयला भी इसका बहुत अच्छा होता है । पत्तियों से चमड़ा सिझाया और कमाया जाता है । इसके पेड़ से एक प्रकार का गोंद निकलता है जिसे छींट छापनेवाले काम में लाते हैं । छोटी जाति का पेड़ विंध्य पर्वत पर तथा दक्षिण भारत की ओर होता है । धव के नाम से प्रायः यही अधिक प्रसिद्ध है और दवा के काम में आता है । वैद्यक में धव चरपरा कसैला, कफवातनाशक, पित्तनाशक, दीपन, रुचिवर्धक और पांडुरोग को दूर करनेवाला माना जाता है । पत्ती, फल और जड़ तीनों दवा के काम में आते हैं । पर्या०—पिशाचवृक्ष । शकटाख्य । धुरंधर । दृढ़तरु । गौर । कषाय । मधुरत्वक् । शुष्कांग । पांडुवरु । धवल । पांडुर । घट । नंदितरु । स्थिर । पीतफल । २. पति । स्वामी । जैसे, माधव । ३. पुरुष । मर्द । ४. धूर्त । आदमी । ५. एक वसु का नाम ।

धवई
संज्ञा स्त्री० [सं० धातकी, धावनी] एक पेड़ जो हिमालय से लेकर सारे उत्तरीय भारत में अधिकता से होता है । दक्षिण में यह कम मिलता है । इसे धाय भी कहते हैं । विशेष— इसकी पत्तियाँ अनार की पत्तियौं से मिलती जुलती पर कुछ पीलापन लिए और खुरदुरी होती हैं । फूल लाल रंग के होते हैं और दवा तथा रँगाई के काम में आते हैं । ये फूल शिशिर से वसंत तक लगते हैं और इकट्ठे करके सुखाए जाते हैं । प्रदर रोग में वैद्य लोग इन फूलों का काढ़ा देते हैं । छाल भी दवा के काम में आती है । वैद्यक में धवई या धाय चरपरी, शीतल, कसैली, मदकारक, कडुई, रक्तप्रवाहिका, तथा पित्त, तृषा विसर्प व्रण, कृमि और अतिसार को दूर करनेवाली मानी जाती हैं । पर और अंगों की अपेक्षा फूलों में अधिक गुण कहा जाता है । धवई के पेड़ से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है । पर्या०— धाय । धातकी । ताम्रपुष्पी । धात्री । धावनी । धातुपुष्पिका ।वहिपुष्पी । अग्निज्वाला । सुभिक्षा । पार्वती । कुमुदा । सीधुपुष्पी । कुंजरा । माद्यवासिनी । गुच्छपुष्पी । वह्निंशिखा । इत्यादि ।

धवणि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धवनी' । उ०— धवणि धवंती रह गई, पुझि गये अंगार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७५ ।

धवन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धावन' । उ०— पृथिवी रमन धवन नहीं करिया । पैठि पताल नहीं बलि छलिया ।—कबीर बी० पृ० २६९ ।

धवना पु
क्रि० स० [हिं० धौकना] धौकना । उ०— धवणि धर्वती रही गई बुझि गे अंगार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७५ ।

धवनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धमनी] लोहारों की धौंकनी । भाथी । उ०— भट्ठी मोह कृशानु रवि धवनि स्वास मद दारु । निसि दिन धन दरवी बरष क्रम कुट काल लोहारु ।— (शब्द०) ।

धवनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शालिपर्णी । सरिवन ।

धवर (१)
संज्ञा पुं० [सं० धबल] एक पक्षी जिसका कंठ लाल और सारा शरीर सफेद होता है । विशेष— भावप्रकाश में धवल पक्षी का मांस वातध्न बताया गया है ।

धवर पु † (२)
वि० [सं० धवल] सफेद । उजला ।

धवरहर
संज्ञा पुं० [सं० धवल + गृह] खंभे की तरह ऊपर दूर तक गया हुआ मकान का एक भाग जिसपर चढ़ने के लिये भीतर सीढ़ियाँ बनी हों । धरहरा । मीनार । उ०— चढ़ि धवरहर विलोकि दखिन दिसि बूझ धौं पथिक कहाँ ते आए वे हैं ।— तुलसी (शब्द०) ।

धवरा †
वि० [सं० धवल] [वि० स्त्री० धवरी] उजला । सफेद ।

धवराना पु
क्रि० स० [!] स्तन पिलाना । उ०— पेट धरे जायो पेछे, धवरायो मल धोय ।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३० ।

धवराहर
संज्ञा पुं० [हिं० धवरहर] दे० 'धवरहर' । उ०— सात खंड धवराहर साजा ।— जायसी (शब्द,) ।

धवरी (१)
वि० स्त्री० [हिं० धवरा] सफेद । उजली ।

धवरी (२)
संज्ञा स्त्री० १. धवर पक्षी की मादा । २. सफेद रंग की गाय ।

धवल (१)
वि० [सं०] १. श्वेत । उजला । सफेद । २. निर्मल । झकाझक । ३. सुंदर । मनोहर ।

धवल (२)
संज्ञा पुं० १. धव का पेड़ । २. चीनिया कपूर । ३. सिंदूर । ४. सफेद मिर्च । ५. धवर पक्षी । सफेद परेवा । ६. भारी बैल । महोक्ष । उ०— तू क्यूँ गणपत नाम लै, जोति धवलो ज्यार ।— बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ३७ । ७. छप्पय छंद का ४५ वाँ भेद । ८. अर्जुन वृक्ष । ९. श्वेत कुष्ठ । सफेद कोढ़ । १०. एक राग जो भरत के मत से हिंडोल राग का आठवाँ पुत्र माना जाता है । ११. सफेद रंग । श्वेत वर्ण (को०) ।

धवल पु (३)
संज्ञा पुं० [सं०] महल । आराम करने का स्थान । निवास? उ०— गुरु वारं सुभ जोगं । राजा संपन्न धवल मभझेनं ।—पृ० रा०, २४ । २८२ ।

धवलकौष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं० धवलकोष्ठिन्] वैश्यों की एक जाति ।

धवलगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम । धवलागिरि ।

धवलगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूना से पुता हुआ ऊँचा भवन । २. महल [को०] ।

धवलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेदी । उजलापन ।

धवलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सफेदी । उजलापन ।

धवलना पु
क्रि० स० [सं० धवल] उज्वल करना । निखारना । चमकाना । प्रकाशित करना । उ०— स्वामिकाज करिहौं रन- रारी । जस धवलिहौं भुवन दस चारी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धवलपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्ल पक्ष । उजला पाख । २. हंस (जिसके पर सफेद होते हैं) ।

धवलमृत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] खरिया मिट्टी । दुद्धी ।

धवलश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रामिनी जिसमें पंचम और गांधार वर्जित हैं ।

धवलहर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धवरहर' । उ०— धणी बिहूँणा धवलहर ढहि ढहि ढेर थियाह ।— राम० धर्म०, पृ० ६८ ।

धवलांग
संज्ञा पुं० [सं० धवलाङ्ग] हंस ।

धवला (१)
वि० स्त्री० [सं०] सफेद । उजली ।

धवला (२)
संज्ञा स्त्री० १. सफेद गाय । २. गौर वर्णवालो स्त्री (को०) ।

धवला (३)
संज्ञा पुं० [सं० धवन] सफेद बैल ।

धवला पु (४)
संज्ञा पुं० [देश०] लहँगा । उ०— लाला की मौंसी आवैगी, धवला में सोंठि चुरावैगी ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९२५ ।

धवला पु (५)
संज्ञा पुं० [सं० धवल] १. सफेदी । श्वेतता । २. वृद्धावस्था । उ०— जब जोबन जासी धवला आसी तब करि बैठासी ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २३६ ।

धवलाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० धवल + आई (प्रत्य)] सफेदी । उजलापन ।

धवालगिरि
संज्ञा पुं० [सं० धवल + गिरि] हिमालय पहाड़ की एक प्रख्यात चोटी ।

धवलित
वि० [सं०] १. जो सफेद किया गया हो । जैसे, तुषार- धवलित शृंग । २. जो साफ झक किया गया हो ।

धवलिमा
संज्ञा पुं० [सं० धवलिमन्] १. सफेदी । श्वेतता । २. पीलापन । पांडुर वर्ण [को०] ।

धवली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफेद गाय । २. एक रोग जिसमें बाल सफेद हो जाते हैं । ३. सफेद मिर्च ।

धवलीकृत
वि० [सं०] जो सफेद किया गया हो ।

धवलीभूत
वि० [सं०] जो सफेद हुआ हो ।

धवलोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] कुमुद ।

धवस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धौंसा' । उ०— यह कहि धुकार धवसन लगिय सत्तर सहस पलानियव ।—प० रासो, पृ० १३४ ।

धवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धव' ।

धवाणक
संज्ञा पुं० [सं०] वायु ।

धवान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुआँ' । उ०— धवान दै दवान की कृपान हीय सज्जियो ।— सुजान०, पृ० ३० ।

धवाना
क्रि० स० [हिं० धावना का प्रे० रूप] दौड़ाना । उ०— (क) तहाँ सुधन्वा रथहिं धवाई । अर्जुन दल बानन झरि लाई ।— रघुराज (शब्द०) । (ख) तिनके काज अहीर पठाए । विलम करहु जिनि तुरत धवाए ।—सूर (शब्द०,) ।

धवित्र
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन के चमडे़ का पंखा [को०] ।

धस
संज्ञा पुं० [हिं० धंसना (= पैठना)] १. जल आदि में प्रवेश । डुबकी । गोता । उ०— (क) जो पथ मिला महेसहिं सेई । भयो समुद ओही धस लेई ।— जायसी (शब्द०) । (ख) जस धस लीन्ह समुद्र भरजीया ।— जायसी (शब्द०) । (ग) तेहि का कहिय रहन कहँ जो है प्रीतम लाग । जो वहि सुनै लेइ धस, का पानी का आग ।—जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—लेना । २. एक प्रकार की जमीन या मिट्टी जो भुरभुरी होती है ।

धसक (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. ठन ठन शब्द जो सूखी खाँसी में गले से निकलता है । २. सूखी खाँसी । ढसक ।

धसक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धसकना] १. किसी के लाभ या बढ़ती को देख दुःख से दब जाने की वृत्ति । डाह । ईर्ष्या ।

धसक (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धसकना] १. धसकने की क्रिया या भाव । २. डर । भय । दहशत । जैसे,— उनके मन में कुछ धसक बैठ गई ।

धसमन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धसक' ।

धसकना (१)
क्रि० अ० [हिं० धँसना] १. नीचे को धंस जाना । नीचे को खसक जाना । दब जाना । बैठ जाना । उ०— (क) दीखत पंडू रेत में नए खोज या द्वार । आगे उठि पाछे धसकि रहे नितंबन भार ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) । (ख) तजो धीर दरनि धरनिधर धसकत धराधर धीर भार सहि न सकतु है ।— तुलसी (शब्द०) । २. किसी का लाभ या बढती देख दुःख से दबना । डाह करना । ईर्ष्या करना ।

धसकना (२)
क्रि० अ० [हिं० धँसना] मन में भय उत्पन्न होना । जी दहलना । उ०—गवनचार पदमावति सुना । उठा धसकि जिउ औ सिर धुना ।— जायसी (शब्द०) ।

धसका
संज्ञा पुं० [हिं० धसक] चौपायों का एक रोग जो फेफड़ों में होता है । यह रोग छूत से फैलता है ।

धसना पु (१)
क्रि० अ० [सं० ध्वंसन] ध्वस्त होना । नष्ट होना । मिटना । उ०— निज आतम अज्ञान ते हैं प्रतीत जग खेद । धसै सुता के बोध ते यह भाखत मुमि वेद ।—निश्चल (शब्द०) ।

धसना (२)
क्रि० अ० [हिं० धँसना] दे० 'धँसना' । उ०— उनके मग में जग जय मसका । उनके डग से कुल क्षय धसका ।— अर्चना, पृ० ४७ ।

धसनि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धँसनि', 'धसन' ।

धसमसकना पु
[हिं० धसना + मसकना] धसमसाना । काँपना । उ०— धसमसक दरणी कसक कूरम, ससक नासा सेस ।— रघु० रू०, पृ० २२० ।

धसमसाना पु †
क्रि० अ० [हिं० धँसना] धँस जाना । धरती में समाना । उ०— मेरु धसमसै समुद सुखाई ।— जायसी (शब्द०) ।

धसरना
क्रि० अ० [हिं० धसना का अनु०] धँसना । प्रवेश करना । उ०— बर बारन ज्यौं जल मैं धसरै । सत सत धनु चहुँ दिसि पय पसरै ।— नंद० ग्रं०, पृ० २८० ।

धसान (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धँसना] दे० 'धँसान' ।

धसान (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धशार्ण] एक छोटी नदी जो पूरबी मालवा और बुँदेलखंड से होकर बहती है । विशेष— पूरबी मालवा प्राचीन काल में दशार्ण देश कहलाता था और यह नदी भी उसी नाम से प्रसिद्ध थी ।

धसाना
क्रि० स० [हिं०धँसाना] दे० 'धँसाना' ।

धसाव
संज्ञा पुं० [हिं० धँसाव] दे० 'धँसाना' ।

धसोरा पु
संज्ञा पुं० [?] दोष अन्याय । धाँधली । उ०— हरै धन विराना धसोरा लगावै ।—धरनी०, पृ० ९ ।

धह पु
क्रि० वि० [सं० धावन्] दौड़ाकर । उ०— धह मंगि ध्रंसि मंगल पवन । सबै होइ जोजन समष ।—पृ० रा०, २५ । ५३ ।

धहधहाना
क्रि० अ० [अनु०] धधकना । उ०— हाँ अब तक एक कलेजे में दुख की आग धहधहा रही है, अब तक एक जन की आँखों से आँसू बहता है, वह देववाला के लिये बावला बन रहा है ।— ठेठ०, पृ० ७६ ।

धहलना पु
क्रि० अ० [हिं० दहलना] दहलना । डरना । उ०— इम उलट कमला कदम आयों, पुरी लंक प्रजाल । तो लंकाल जी लंकाल कपडर धहलियों लंकाल । रघु० रू०, पृ० १६४ ।