विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/त्

विक्षनरी से

त्यक्त
वि० [सं०] छोड़ा हुआ । त्यागा हुआ । जिसका त्याग कर दिया गया हो । उ०—निकल गए सारे कंटक से व्यथा आप ही त्यक्त हुई ।—साकेत, पृ० ०७९ ।

त्यक्तजीवित
वि० [सं०] १. जो प्राण छोड़ने को तत्पर हो । मरने को तैयार । २. बड़े से बड़ा खतरा उठाने को तैयार [को०] ।

त्यक्तप्राण
वि० [सं०] दे० 'त्यक्तजीवित' [को०] ।

त्यक्तलज्ज
वि० [सं०] जिसने लज्जा त्याग दी हो । निर्लज्ज । बेहया [को०] ।

त्यक्तविधि
वि० [सं०] नियमों का अतिक्रमण करनेवाला । नियम न माननेवाला [को०] ।

त्यक्तव्य
वि० [सं०] जो छोड़ने योग्य हो । त्यागने योग ।

त्यक्तश्री
वि० [सं०] भाग्यहीन । अभागा [को०] ।

त्यक्ता
वि० [सं० त्यक्तृ] त्यागनेवाला । जिसने त्याग किया हो ।

त्यक्ताग्नि
वि० [सं०] गृहाग्नि का परित्याग करनेवाला (ब्राह्मण) ।

त्यक्तात्मा
वि० [सं० त्यक्तात्मन्] निराश । हताश [को०] ।

त्यग्नायि
संज्ञा पुं० [सं० त्यग्नायिस्] एक प्रकार का साम ।

त्यजण पु
संज्ञा पुं० [सं० त्यजनीय] त्याग । उ०—शब्दं स्पर्श रूप त्यजर्ण । त्यौ रसगंधं नाहीं भजणं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३७ ।

त्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] छोड़ने का काम । त्याग ।

त्यजनीय
वि० [सं०] जो त्यागने योग्य हो । त्याज्य ।

त्योज्यमान
वि० [सं०] जिसका त्याग कर दिया गया हो । जो छोड़ दिया गया हो ।

त्याँतिक पु
अव्य० [?] तब तब (टीका०) । उ०—पग्यो न दिल प्रभुरै पद पंकज, भिसत न त्यांतिक भेरै ।—रघु०, रू०, पृ० १८ ।

त्याँ पु
सर्व० [सं० तत्] दे० 'तिस' । उ०—ज्या की जोड़ी वी छड़ी त्याँ निसि नींद न आई ।—ढोला०, दू० ५८ ।

त्याँहा पु
सर्व० [सं० तत्] 'तूँ' सर्वनाम के कर्मकारक का रूप । उ०—चकवीकइ हर पखडी रयणि न भेलउ त्योह ।— ढोला०, दू० ७१ ।

त्या पु
प्रत्य० [सं० तत्] से । उ०—किसे दिवाने कहता मेरा जावे तन तूँ सब त्या न्यारा ।—दक्खिनी०, पृ० ९९ ।

त्याग
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ पर से अपना स्वत्व हटा लेने अथवा उसे अपने पास से अलग करने की क्रिया । उत्सर्ग ।क्रि० प्र०—करना । यौ०—त्यागपत्र । २. किसी बात को छोड़ने की क्रिया । जैसे असत्य का त्याग । ३. संबंध या लगाव न रखने की क्रिया । ४. विरक्ति आदि के कारण सांसारिक विषयों और पदार्थों आदि को छोड़ने की क्रिया । विशेष—हिंदुओं के धर्मग्रंथों में इस प्रकार के त्याग का बहुत कुछ माहात्म्य बतलाया गया है । त्याग करनेवाला मनुष्य निष्काम होकर परोपकार के तथा अन्यान्य शुभ कर्म करता रहता है और विषय वासना या सुखोपभोग आदि से किसी प्रकार का संबंध नहीं रहता । ऐसा मनुष्य मुक्ति का अधिकारी समझा जाता है । गीता में त्याग को संन्यास की ही एक विशेष अवस्था माना है । उसके अनुसार काम्य धर्म का परित्याग तो संन्यास है और कर्मों के फल की आशा न रखना त्याग है । मनु के अनुसार संसार की और सब चीजें तो त्याज्य हो सकती हैं, पर माता, पिता, स्त्री और पुत्र त्याज्य नहीं हैं । ५. दान । ६. कन्यादान (डिं०) ।

त्यागना
क्रि० स० [सं० त्याग] छोड़ना । तजना । पृथक् करना । त्याग करना । उ०—नाँ त्यागलो काम नाँ त्यागलो क्रोध ।—प्राण०, पृ० ११६ । संयो० क्रि०—देना ।

त्यागपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पत्र जिसमें किसी प्रकार के त्याग का उल्लेख हो । २. इस्तीफा । ३. तिलाकनामा ।

त्यागवान्
वि० [सं० त्यागवत्] [वि० स्त्री० त्यागवती] जिसने त्याग किया हो अथवा जिसमें त्याग करने की शक्ति हो । त्यागी ।

त्यागी
वि० [सं० त्यागिन्] जिसने सब कुछ त्याग दिया हो । स्वार्थ या सांसारिक सुख को छोड़नेवाला । विरक्त ।

त्याजक
वि० [सं०] तगनेवाला । त्यागी [को०] ।

त्याजन
संज्ञा पुं० [सं०] त्याग । त्याग करना [को०] ।

त्याजना पु
क्रि० स० [सं० त्यजन] त्यागना । उ०—अति उमंग अँग अँग भरे रंग, सुकर मुकर निरखत नहिं त्याजे ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३८० ।

त्याजित
वि० [सं०] १. जिससे त्याग कराया गया हो या छुड़वाया गया हो । २. जिसका अपमान कराया गया हो । ३. छोड़ा हुआ । त्यक्त [को०] ।

त्याज्य
वि० [सं०] त्यागने योग्य । जो छोड़ देने योग्य हो ।

त्यार †
वि० [हिं०] दे० 'तैयार' । उ०—एक कटे एकै पड़े एक कटने को त्यार । अड़े रहैं केते सुमन मीता तेरे द्वार ।—रस— निधि (शब्द०) ।

त्यारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तैयारी' । उ०—बाजराज बारण रथाँ, अवल, समाज अमाँम । हाजर तिणवारी हुआ, त्यारी करे तमाम ।—रघु० रू०, पृ० ९३ ।

त्यारे पु
सर्व० [हिं०] दे० 'तुम्हारे' । उ०—पितीआ के बोलत बोलने रे, त्यारै बिरँन दस मास ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३३ ।

त्युँहिज
वि० [हिं०] दे० 'त्यों' । उ०— करनहरौ खेमक्रंन, बाँध गरु बात न बौलै । वले जग्गै केहरी, त्युँहिज बोलै खग तोलै ।—रा० रु०, पृ० १५७ ।

त्युँ
क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'त्यों' ।

त्यूँरस †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरुस' ।

त्योँ (१)
क्रि० वि० [सं, तत्+एवम् या हिं०] १. उस प्रकार । उस तंरह । उस भाँति । उ०— ये अलि या बलि के अधरानि में आनि चढी कछु माधुरई सी । ज्यों पद्माकर माधुरी त्यों कुच दोउन की चढती उनई सी । ज्यों कुच त्यों ही नितंब चढे कछु ज्यों ही नितंब त्यों चातुरई सी । जानी न ऐसी चढ़ाचढी में किहिधौं कटि बीच ही लूटि लई सी ।— पदमाकर(शब्द०) । २. उसी समय । तत्काल । जैस,—ज्यों मैं वहाँ पहुँचा त्यों वह उठकर चल दिया । विशेष— इसका व्यवहार ज्यों के साथ संबंध पूरा करने के लिये होता है ।

त्यों पु (२)
संज्ञा स्त्री० [स० तन] ओर । तरफ । उ०— सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं । पूछति ग्रामबधू सिय सों कहौ साँवरे से सखि रावरे को हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्योरुस †
संज्ञा पुं० [हिं० (ति) +बरस] १. पिछला तीसरा वर्ष । वह वर्ष जिसे बीते दो बरस हो चुके हों । जैसे,— हम त्योरुस वहाँ गए थे ।२. आगामी तीसरा वर्ष । वह वर्ष जो दो वर्षों के बाद आनेवाला हो । विशेष— इस शब्द का प्रयोग कभी कभी विशेषण के रुप में भी होता है । जैसे, त्योरुस साल ।

त्योरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० त्रिकुटी, सं० त्रिकूट(=चक्र)] अवलोकन । चितवन । दृष्टि । निगाह । मुहा०— त्योरी चढना या बदलना = दृष्टि का ऐसी अवस्था में हो जाना जिससे कुछ क्रोध झलके । आँखे चढना । त्योरी में बल पडना = त्योरी चढना । त्योरी चढाना या बदलना = भौंहें चढाना । आँखें चढाना । दृष्टि या आकृति से क्रोध के चिह्न प्रकट करना । त्योरी में बल डालना = त्योरी चढाना ।

त्योहार
संज्ञा पुं० [सं० तिथि+वार ] वह दिन जिसमें कोई बडा धार्मिक या जातीय उत्सव मनाया जाय । पर्व दिन । जैसे, हिंदुओं के त्योहार— दसहरा, दीवाली, होली आदि, मुसल- मानों के त्योहार— इद, शब बरात आदि; ईसाइयों के त्योहार, बडा दिन, गुडफ्राइडे आदि । मुहा०—त्योहार मनाना = पर्व या उत्सव के दिन आमोद प्रमोद करना ।

त्योहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० त्योहार+ई० (प्रत्य०)] वह धन जो किसी त्योहार के उपलक्ष में छोटों, लड़कों या नौकरों आदि को दिया जाता है ।

त्यौँ
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'त्यों' ।

त्यौनार
संज्ञा पुं० [हिं०, (देश०)] १. ढंग । तर्ज । उ०— (क) आए हैं मनुहारि हित धारि अपूर बहार । लखि जीके नीके सुखद ये पीके त्यौनार ।— शृं० सत० (शब्द०) । (ख) रहौगुही बेनी लखैं गुहिबे के त्यौनार । लागे नीर चुचावने नीठि सुखाए बार ।— बिहारी (शब्द०) । किसी कार्य को विशेष कुशलता के साथ करने की योग्यता ।

त्यौर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरी' । उ०— (क) द्यौसक ते पिय चित चढी कहैं चढी है त्यौर ।— बिहारी (शब्द०) । (ख) तेह तरेरो त्यौर करि कत करियत दृग लोल । लीक नहीं यह पीक की स्रुति मणि झलक कपोल ।— बिहारी (शब्द०) ।

त्यौराना
क्रि० अ० [हिं० ताँवर] माथा घूमना । सिर में चक्कर आना ।

त्यौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'त्योरी' ।

त्यौरुस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्योरुस' ।

त्यौहार
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'त्योहार' ।

त्यौहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्योहारी' ।

त्रंग
संज्ञा पुं० [सं० त्रङ्ग] एक प्राचीन नगर का नाम जो पहले राजा हरिश्चंद्र का राजनगर था ।

त्रंबक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ञ्यंबक' । उ०— नयौ सिर नाग सुमंडिय जंग, घुरें सुर जोरय त्रंबक संग ।— पृ० रा० २४ । २२८ ।

त्रंबकसखा पु
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञ्यमबक+सखा ] शिव के मित्र । कुबेर ।उ०— गुह्यक पति त्रंबक सखा राजराज पुनि सोइ ।—अनेकार्थ०, पृ० २१ ।

त्रंबकी पु०
संज्ञा स्त्री० [राज० त्रंबाल] छोटा नगाडा । उ०— उभय सहस बाजित्त । ढोल त्रंबकी सुमत गुर ।—पृ० रा०, २५ ।३२० ।

त्रंबक्क पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ज्ञ्यंबक' । उ०—कलस बंक त्रंबक्क लोह संकर बर बंध्यौ ।—पृ०रा०, २४ । ४५ ।

त्रंबागल पु
संज्ञा पुं० [राज० त्रंबाल] नगाडा । उ०— त्रंबागल रिणतूर बिहद्दा बाजिया ।— रघु रु०, पृ० ९३ ।

त्र (१)
वि० [सं०] १, तीन । २. रक्षा करने वाला । रक्षक (समासांत में प्रयुक्त) ।

त्र (२)
प्रत्य एक प्रत्यय जो सप्तमी विभक्ति के रुपमे प्रयुक्त होता है ।

त्रइय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रयी'१ । उ०— चंद्र ब्रह्मा नख मंडि त्रइय सुनि श्रवननि धारहि ।— पृ० रासो, पृ० ३६ ।

त्रई पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रय' । उ०—मरन काल त्रई लोक में, अमर न दीषै कोय । — कबीर सा०, पृ० ९९२ ।

त्रकाल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिकाल' । उ०— साहाँ उर असुहावतौ, राजावाँ रखवाल । जाँ जसराज प्रतप्पियौ, ताँ सुर पूज त्रकाल ।— रा० रु०, पृ० १६ ।

त्रकुटाचल
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकूट+अचल] लंकास्थित त्रिकूट पर्वत । उ०— घिर जोघाँशी घेरियौ फिर त्रकुटाचल कीस ।— रा० रु०, पृ० ५७ ।

त्रण पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रि] दे० 'तीन' । उ०—तरुणी री पोसाक त्रण, जीवन मूली जाँण । — बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० २२ ।

त्रदस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिदश' । उ०— खत्रियाँ रा खटतीस कुल, त्रदस क्रोड तेतीस ।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १०५ ।

त्रन पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'तृन' । मुहा०— त्रन तोरना=दे० 'तृण तोडना' ('तृण' में) । उ०— तोरि त्रंन तरुनिय कहत । धरनि महौ तुम भार ।— पृ० रा०, १८ । ९४ ।

त्रपित पु
वि० [हिं०] दे० 'तृप्ति' । उ०— उमा त्रपति रुधिरं भई धनि सूरत भुज दंड ।— पृ० रा०, २५ ७४४ ।

त्रपत्त पु
वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०— तन ग्रीध महासद मन त्रपत्त । पूरिया रहै नित सगतपत्र । —रा० रु०, पृ० ७४ ।

त्रपनाना पु
वि० [सं० तर्पण] तर्पण । संध्या करनेवाले । उ०— तौ पंडित आये वेद भुलाये षटक रमाये त्रपनाये ।— सुंदर० ग्रं०, भा०१, पृ० २३७ ।

त्रप्पवर पु
वि० [सं० त्रपा] लज्जालु ।लज्जाशील । उ०— किं करै न तसकर त्रप्पवर अबुध इष्ट सत्तहु सुमन ।—पृ० रा०, १० ।१३३ ।

त्रपा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० त्रपमान्] १. लज्जा । लाज । शर्म । हया । उ०— ही लज्जा ब्रीडा त्रपा सकुच न करु बिनु काज । पिय प्यारे पै चलिय वलि औषध खात कि लाज । — नंददास (शब्द०) ।२. छिनाल स्त्री । पुंश्चली । यौ०—त्रपारंडा = १. छिनाल स्त्री । २. वेश्या । रंडी । ३. कीर्ति । यश ।

त्रपा (२)
वि० लज्जित । शरमिदा । उ०— भवधनु दलि जानकी विवाही भये विहाल नृपाल त्रपा हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रपानिरस्त
वि० [सं०] निर्लज्ज । धृष्ट [को०] ।

त्रपाहीन
वि० [सं०] निर्लज्ज । धृष्ट [को०] ।

त्रपारंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रपारणडा] वेश्या । रंडी [को०] ।

त्रपित
वि० [सं०] १. लज्जित । शरमिंदा ।२. लज्जालु । लज्जा- शील (को०) ।३. विनीत । विनम्र (को०) ।

त्रपिष्ठ
वि० [सं०] अत्यंत तृप्त । परितृप्त [को०] ।

त्रपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सीसा । २. राँगा ।

त्रपुकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खीरा । २. ककरी ।

त्रपुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची ।

त्रपुल
संज्ञा पु० [सं०] राँगा ।

त्रपुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. राँगा ।२. खीरा ।

त्रपुषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ककडी ।२. खीरा ।

त्रपुस
संज्ञा पुं० [सं०] १. राँगा । २. ककडी ।

त्रपुसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ककडी । २. खीरा ।३. बडा । इंद्रायन ।

त्रप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमी हुई श्लेष्मा या कफ ।

त्रप्स्य
संज्ञा पुं०[सं०] मट्टा [को०] ।

त्रबाट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] नगारा । उ०— दलबल सज दुगम चढिय सुत दशरथ तहक तबल अत रुडत त्रवाट । —रघु० रु०, पृ० ११९ ।

त्रभंगी पु
संज्ञापुं० [हिं०] दे० 'त्रिभंगी (३)' । उ०—त्रभंगी छंदं पढे वु चंदं गुन वहि दंर्द गुन सोई । — पृ० रा०, २४ ।२४८ ।

त्रभवण पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिभुवन' । उ०— भुवण तजै रहियौ विखै, त्रभवम हंदौ राव ।—रा० रु०, पृ० ३६१ ।

त्रभुयण पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिभुवन' । उ०— आलस तज निज गरज अब, भज त्रभुयण भूपाल । — बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ४० ।

त्रमाला पु
संज्ञा पुं० [हिं० त्रंवागल] नगाडा । उ०—रिश बलवंता रुप परमसंता प्रतिपाला । तूझ भुजां हरितणाँ तहक वाजंत त्रमाला । —रघु० रु०, पृ०४ ।

त्रय (१)
वि० [सं०] १.तीन । उ०— महाधोर त्रय ताप न जरई ।— तुलसी (शब्द०) । २. तीसरा ।

त्रय पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिया' । उ०—त्रय जोरै कर हथ्थ को चीन संभरि वै राइ ।— पृ० रा० २५ । ७३० ।

त्रयदेव पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिदेव' । उ०— अब मैं तुम से कहों चिताई । त्रयदेवन की उत्पति भाई । — कबीर सा०, पृ० ८१७ ।

त्रयबिंसत
वि०[सं० त्रयोविंशति] तेईस । तेईसवाँ । उ०— अब सुनि त्रयबिंसत अध्याइ । द्विज अरु द्विजपतिनिन के भाइ ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३०० ।

त्रयलोकी पु
वि० [हिं० त्रिलोकी] त्रिलोकपति । तीनों लोकों के स्वामी । उ०— रामचंद्र वर्णन करुँ, त्रयलोकी हैं नाथ ।— कबीर सा०, पृ०८१३ ।

त्रयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीन वस्तुओं का समूह । तिगुह । तीखट । जैसे, ब्रह्मा, विष्णु और महेश । उ०— (क) वेद त्रयी अरु राजसिरी परिपूरनता शुभ योगमई है ।— केशव (शब्द०) । (ख) किधौं सिंगार सुखमा सुप्रेम मिले चले जग चित बित लेन । अद्रुत त्रयी किधौं पठई है विधि मग लोगन सुख देन०— तुलसी (शब्द०) । २. सोमराजी लता । ३. दुर्गा ।४. वह स्त्री जिसका पति और बच्चे जीवित हों (को०) । ५. बुद्धि । समझ (को०) ।

त्रयीतनु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. शिव (को०) ।

त्रयीधर्म
सज्ञा पुं० [सं०] वैदिक धर्म, जैसे, ज्योतिष्टोम यज्ञ आदि ।

त्रयीमय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य ।२. परमेश्वर ।

त्रयीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण ।

त्रयीविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रयी+ विद्या] ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ये तीन वेद । उ०— ऊपर की पंक्तियों में त्रयीविद्या अथवा प्रथम तीन वेदों के दर्शन एवं कर्मकांड के सिद्धातों की संक्षिप्त विवेचना की गई ।— सं० दरिया, (भू०) पृ० ५५ ।

त्रयोदश
वि० [सं०] १. तेरह ।२. तेरहवाँ (को०) ।

त्रयोदशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पक्ष तेरहवीं तिथि । तेरस । विशेष— पुराणानुसार यह तिथि धार्मिक कार्य करने के लिये बहुत उपयुक्त है ।

त्रयारुण
संज्ञा पुं० [सं०] पंद्रहवें द्वापर के एक व्यास का नाम ।

त्रयारुणि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जो भागवत के अनुसार लोमहर्षण ऋषि के शिष्य थे ।

त्रषेव
वि० [सं० तृषि] तृषायुक्त । प्यासा ।

त्रष्टा
संज्ञा पुं० [?] दे० 'तष्टा' (तश्तरी) । उ०— त्रष्टा अरु आधार भर्त के बहुत खिलौना । परिया टमरी अतरदान रुपे के सौना ।—सूदन (शब्द०) ।

त्रस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैन मत के अनुसार एक प्रकार के जीव । इन जीवों के चार प्रकार हैं—(क) द्वींद्रिय अर्थात् दो इंद्रियोंवाले जीव ।(ख) त्रींद्रिय अर्थात् तीन इंद्रियोंवाले जीव । (ग) चतुरिंद्रिय अर्थात् चार इंद्रियोंवाले जीव और (घ) पंचेंद्रिय अर्थात् पाँच इंद्रियोंवाले जीव । २. जंगल । वन ।३. जंगम । ४. त्रसरेणु ।

त्रस (२)
वि० सचल । जेगम [को०] ।

त्रसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भय । डर । २. उद्वेग ।

त्रसना पु †
क्रि० अ० [सं० त्रसन] भय से काँप उठना । डरना । खौफ खाना । उ०—(क) कछु राजत सूरज अरुन खरे । जनु लक्ष्मण के अनुराग भरे । चितवत चित्त कुमुदिनी त्रसै । चोर चकोर चिता सो लसै ।— केशव (शब्द०) ।(ख) नवल अनंगा होय सको मुग्धा केशवदास । खेलै बोलै बाल विधि हँसै त्रसै सविलास ।—कैशव (शब्द०) ।

त्रसर
संज्ञा पुं० [सं०] जोलाहों की ढरकी । तसर ।

त्रसरेणु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह चमकता हुआ कण जो छेद में से आती हुई धूप में नाचता या घूमता दिखाई देता है । सूक्ष्म कण । विशेष— मनु के अनुसार एक त्रसरेणु तीन परमाणुओं से मिलकर और वैद्यक के अनुसार तीन परमाणुओं से मिलकर बना होता है ।

त्रसरेणु (२)
संज्ञा स्त्री० पुराणानुसार सूर्य की एक स्त्री का नाम ।

त्रसरैनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'त्रसरेणु' । उ०— चंद चकोर की चाह करै, घनआनँद स्वाति पपीहा को धावै । त्यौं त्रसरैनि के ऐन बसै लबी, मीन पै दीन ह्वै सागर आवै । — घनानंद, पृ० ६५ ।

त्रसाना पु †
क्रि० स० [हिं० त्रसना] डरवाना । धमकाना । भय दिखाना । उ०— (क) सूर श्याम बाघे ऊखल गहि माता डरत न अति हि त्रसायो ।— सूर (शब्द०) । (ख) जाको शिव ध्यावत निसि बासर सहसासन जेहि गावै हो । सो हरि राधा बदन चंद को नैन चकोर त्रसावै हो ।—सूर (शब्द०) ।

त्रसित पु
वि० [सं०त्रस्त] १. भयभीत । डरा हुआ । उ०— सब प्रसंग महिसुरन सुनाई । त्रसित परयो अवनी अकुलाई ।— (शब्द०) । २. पीडित । सताया हुआ ।उ०—सीत त्रसित कहँ अग्नि समाना । रोग त्रसित कहँ औषधि जाना ।— गोपाल (शब्द०) ।

त्रसिबो पु
क्रि० अ० [हिं० त्रसना] भय खाना । डरना । उ०— त्रसिबो सदाई नटनागर गुरु जन ते । —नट०, पृ० ५८ ।

त्रसीग पु
वि० [सं० त्रासक?] जबरदस्त । उ०— राजा सिंहल दीपरे तोनूँ दीध त्रसींग । — बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ७२ ।

त्रसुर
वि० [सं०] भीरु । डरपोक ।

त्रस्त
वि० [सं०] १. भयभीत । डरा हूआ ।उ०— एक बार मुनिवर कौशिक के तपसे सुरपति त्रस्त हुआ । — शकूं०, पृ०२ । २. पीडित । दुःखित । जिसे कष्ट पहुँचा हो । ३. चकित । जिसे आश्चर्य हुआ हो ।

त्रस्नु
वि० [सं०] दे० 'त्रसुर' [को०] ।

त्रहक्कना पु
क्रि० अ० [सं० त्राहि] त्राहि त्राहि करना । त्रस्त । होना । उ०— लरै यों लुहानं अभंगं जुवानं । जसव्वंत जोर त्रहक्केति घोरं ।—पृ० रा०, ४ । ३० ।

त्राटंक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ताटंक' । उ०— त्राटंकन की उपमा इतनी ।जु कही कवि चंद सुरंग धनी ।— पृ० रा०, २१ । ७६ ।

त्राटक
संज्ञा पुं० [सं०] योग के षट्कर्मों में से छठा कर्म या साधन । इसमें अनिमेष रुप से किसी विंदु पर दृष्टि रखते हैं ।

त्राटिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्राटक] योगियों की एक क्रिया । उ०— रुद्र अगनि का त्राटिका नाम ।—गोरख०, पृ० २४६ ।

त्राण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा । बचाव । हिफाजन । २. रक्षा का साधन । कवच । विशेष— इस अर्थ में इसका व्यवहार यौगिक शब्दों के अंत में होता है ।जैसे, पादत्राण, अंगत्राण । ३.त्रायमाण लता ।

त्राण (२)
वि० जिसकी रक्षा की कई हो । रक्षित [को०] ।

त्राणक
संज्ञा पुं० [सं०] रक्षक ।

त्राणकर्ता
वि० पुं० [सं० त्राणकर्तृ] रक्षा करनेवाला । रक्षक [को०] ।

त्राणकारी
वि० [सं० त्राणकारिन्] रक्षा करनेवाला । रक्षक [को०] ।

त्राणदाता
संज्ञा पुं० [सं० त्राण+दातृ] त्राण देनेवाला । रक्षा करनेवाला । त्राणक ।त्राता । उ०— दयाशील त्राणदाता के मिलने से ।—प्रेंमघन०, भा० २, पृ० ३६७ ।

त्राणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रायमाण लता ।

त्रात
वि० [सं०] बचाया हुआ । रक्षिता [को०] ।

त्रातव्य
वि० [सं०] रक्षा करने के योग्य । बचाने के लायक ।

त्राता
संज्ञा पुं० [सं० त्रातृ] रक्षक । बचानेवाला । उ०— तप बल रचै प्रपंच विधाता । तप बल विष्णु सकल जगत्राता ।— तुलसी (शब्द०) ।

त्रातार
संज्ञा पुं० [सं०] रक्षक । उ०—मोक्षप्रदा अरु धर्ममय मथुरा मम त्रातार । — गोपाल (शब्द०) । विशेष—संस्कुत में यह त्रातृ (त्राता) शब्द का बहुवचन रुप है ।

त्रापुष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] राँगे का बना हुआ बरतन या और कोई पदार्थ ।

त्रापुष (२)
वि० राँगे का बना हुआ [को०] ।

त्रायंती
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रायन्ती] त्रायमाण लता ।

त्रायन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्राण' । उ०— ताडन छेदन त्रायन खेवन बहु विधि कर लो उपाई । — रै० बानी, पृ० १६ ।

त्रायमाण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बनफशे की तरह की एक प्रकार की लता जो जमीन पर फैलती है । विशेष—इसमें बीच बीच में छोटी छोटी डंडियाँ निकलती हैं जिनमें कसैले बीज होते हैं । इन बीजों का व्यवहार औषध में होता है । वैद्यक में इन बीजों को शीतल, दस्तावर और त्रिदोषनाशक माना है । पर्या०— अनुजा । अवनी । गिरिजा । देवबाला । बलभद्रा । पालिनी । भयनाशिनी । रक्षिणी ।

त्रायमाण (२)
वि० रक्षक । रक्षा करनेवाला ।

त्रायमाणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रायमाण लता ।

त्रायमाणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रायमाण' ।

त्रायवृंत
संज्ञा पुं० [सं०त्रायवृन्त] गंडीर या गुंडिरी नामक साग ।

त्रास
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डर । भय । उ०— जम की सब त्रास बिनास करी मुख ते निज नाम उचारन में ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२ । २. तकलीफ । ३. मणि का एक दोष ।

त्रासक
संज्ञा पुं० १. डरानेवाला । भयभीत करनेवाला ।२. निवा- रक । दूर करनेवाला । उ०— त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरुप सिंधु समुहानी । — तुलसी (शब्द०) ।

त्रासकर
संज्ञा पुं० [सं०] भयोत्पादक । त्रासक [को०] ।

त्रासद
वि० [सं०] त्रासकर । दुःखद । उ०— नाटकों में त्रासद (दुःखांत= द्रेजेडी) और हासद (सुखांत) का भेद किया जाता है । —स० शास्त्र, पृ० १२३ ।

त्रासदायी
वि० [सं० त्रासदायिन्] भयोत्पादक । डरानेवाला [को०] ।

त्रासदी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रासद+ हिं० ई (प्रत्य०)] दुःख से पूर्ण रचना विशेषतः नाटक जो दुःखांत हो ।

त्रासन
संज्ञा पुं० [सं० ] [वि० त्रामतीय] १. डराने का कार्य । २. डरानेवाला । भय दिखानेवाला ।

त्रासना
क्रि० स० [सं० त्रासन] डराना । भय दिखाना । त्रास देनाष उ०— काहे को कलह नाध्यो दारुण दाँवरि बाँध्यो कठिन लकुट लै त्रास्यो मेरो भैया? —सूर (शब्द०) ।

त्रासमान
वि० [सं०त्रास+मान्] वस्त । भीत । ड०— जोगी जती आव जो कोई । सुनतहि त्रासमान भा सोई ।—जायसी ग्रं०, पृ० ११५ ।

त्रासा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृषा' । उ०— करहा पाणी खंच पिउ त्रासा घणा सहेसि ।— ढोला०, दू० ४२६ ।

त्रासिका पु
वि० [सं० त्रासक] त्रास देनेवाली । दुःखद । उ०— दिषंत जोति नासिका । सु गति कीर त्रासिका । — पृ० रा०, २५ । १४४ ।

त्रासित
वि० [सं०] १. भयभीत । डराया हुआ ।२. जिसे कष्ट पहुँचाया गया हो । त्रस्त ।

त्रासिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रासिन्] डरानेवाली । भयदायिनी । उ०— दुर्मद दुरंत धर्म दस्युओं की त्रासिनी निकल, चली जा तू प्रतारण के कर से ।—लहर, पृ० ५८ ।

त्रासी
वि० [सं० त्रासिन्] डरानेवाला । त्रासक [को०] ।

त्राहि
अव्य० [सं०] बचाओ । रक्षा करो । त्राण दो । उ०— दारुण तप जब कियों राजसुत तब काँप्यो सुरलोक । त्राहि त्राहि हरि सौं सब भाष्यो दुर करो सब शोक । —सूर (शब्द०) । मुहा०—त्राहि त्राहि करना = दया या अभयदान के लिये गिड- गिडाना । दया या रक्षा के लिये प्रार्थना करना । त्राहि मचना = रक्षा के लिये चीख पुकरा होना । विपत्ति में पडे हुए लोगों के मुँह से त्राहि त्राहि की पुकार मचना । त्राहि त्राहि होना = दे० 'त्राहि त्राहि मचना' ।

त्रिंबक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्र्यंबक' । उ०— त्रिनयन, त्रिंबक, त्रिपुर अरि ईस, उमापति होई ।—नंद० ग्रं०, पृ० ९२ ।

त्रिंश
वि० [सं०] तीसवाँ ।

त्रिंशत्
वि० [सं०] तीस ।

त्रिंशत्पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कोई का फूल । कुमुदिनी ।

त्रिशांश
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ का तीसवाँ भाग । किसी चीज के तीस भागों में से एक भाग ।२. एक राशि का तीसवाँ भाग (या डिग्री) जिसका विचार फलित ज्योतिष में किसी बालक का जन्मफल निकालने के लिये होता है । विशेष— फलित ज्योतिष में मेंष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ ये छह राशियाँ विषम और वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन ये छह राशियाँ सम मानी जाती हैं । त्रिंशांश का बिचार करने में प्रत्येक विषम राशि के ५, ५, ८, ७ और ५ त्रिंशांशों के क्रमशः मंगल, शनि, बृहस्पति, बुध और शुक्र अधिपति या स्वामी माने जाते हैं और सम ५, ७, ८, ५, और ५ त्रिशांशों के स्वामी ये ही पाँचों ग्रह विपरीत क्रम से— अर्थात् शुक्र, बुध, बृहस्पति, शनि और मंगल माने जाते हैं । अर्थात् — प्रत्येक विषम राशि के १  से  ५ त्रिंशांश  तक के  अधिपति — मंगल ६  "  १०  "  "  "  — शनि ११  "  १८  "  "  "  — बृहस्पति १९  "  २५  "  "  "  —बुध २६  "  ३०  "  "  "  —शुक्र माने जाते हैं । पर सम राशियों में त्रिंशांशों और ग्रहों के क्रम उलट जाते हैं और प्रत्येक राशि कै । १  "  ५  त्रिंशांश  तक के  अधिपति —शुक्र ६  "  १२  "  "  "  — बुध १३  "  २०  "  "  "  —बृहस्पति २१  "  २५  "  "  "  —शनि २६  "  ३०  "  "  "  —मंगल माने जाते हैं । प्रत्येक ग्रह के त्रिंशांश में जन्म का अलग अलग फल माना जाता है । जैसे,— मंगल के त्रिंशांश में जन्म होने का फल स्त्रीविजयी, धनहीन, क्रोधी और अभिमानी आदि होना और बुध के त्रिंशांश में जन्म होने का फल बहुत धनवान् और सुखी होना माना जाता है ।

त्रि० (१)
वि० [सं०] तीन । विशेष— इसका व्यवहार यौगिक शब्दों में, आरंभ में, होता है । जैसे, त्रिकाल, त्रिकुट, त्रिफला आदि ।

त्रि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रि' । उ०— राजमती तुं भोजकुमार तो सम त्रि नहीं इणौई संसार । बी० रासो, पृ० ४६ ।

त्रिअषिरी पु
संज्ञा स्त्री० [त्रिअक्षर] ओम् । गोरख संप्रदाय का मंत्र विशेष । उ०— त्रिअषिरी त्रिकोटी जपीला ब्रह्मकुंड निजथान । गोरख०, पृ० १०२ ।

त्रिकंट
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकणट] दे० 'त्रिकंटक' ।

त्रिकंटक (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकणटक] १. गोखरु । २. त्रिशूल । ३. तिधारा थूहर । ४. जवासा । ५. टेंगरा मछली ।

त्रिकंटक (२)
वि० जिसमें तीन काँटे या नोकें हों ।

त्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन का समूह । जैसे, त्रिकमय, त्रिफला, त्रिकुटा और त्रिभेद । २. रीढ के नीचे का भाग जहाँ कूल्हे की हड्डियाँ मिलती हैं ।३. कमर ।४. त्रिफला ।५. त्रिमद । ६. तिरमुहानी ।७. तीन रुपए सैकडे का सूद या लाभ आदि (मनु) ।

त्रिक (२)
वि० १. तेहरा । तिगुना । त्रिविध ।२. तीन का रुप लेनेवाला । तीन के समूह में आनेवाला । ६. तीन प्रतिशत । ४. तीसरी बार होनेवाला [को०] ।

त्रिककुद् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्रिकूट पर्वत । २. विष्णु ।(विष्णु । ने एक बार वाराह का अवतार धारण किया था, इसी से उनका यह नाम पडां) । ३. दस दिनों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।

त्रिककुद् (२)
वि० जिसे तीन शृंग हों ।

त्रिककुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदान वायु जिससे डकार और छींक आती है । २. नौ दिनों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।

त्रिकट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिकंट' ।

त्रिकटु
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ, मिर्च और पीपल ये तीन कटु वस्तुएँ । विशेष— वैद्यक में इन तीनों के समूह को दीपन तथा खाँसी, साँस, कफ, मेंह, मेद, श्लीपद और पीनस आदि का नाशक माना है ।

त्रिकटुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिकटु' ।

त्रिकत्रप
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिफला, त्रिकुटा और त्रिमेद । अर्थात् हड, बहेडा और आँवला; सोंठ, मिर्च और पीपल तथा मोथा, चीता और बायबिडंग इन सब का समूह ।

त्रिकर्मा
वि० [सं०त्रिकर्मन्] वह जो पढे, पढाए, यज्ञ करे और दान दे । द्विज ।

त्रिकल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन मात्राओं का शब्द । प्लुत । २.दोहे का एक भेद जिसमें ९ गुरु और ३० लघु अक्षर होते हैं । जैसे, — अति अपात जो सरितवर, जो नृप सेतु कराहिं । चढि पिपीलिका परम लघु, बिन श्रम पारहि जाहिं ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रिकल (२)
वि० जिसमें तीन कलाएँ हों ।

त्रिकलिंग
संज्ञा पुं० [सं०त्रिकलिङ्ग] दे० 'त्तैलंग' ।

त्रिकशूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वातरोग जिसमें कमर की तीनों हड्डियों, पीठ की तीनों हड्डियों और रीढ में पीडा उत्पन्न हो जाती है ।

त्रिकस्थान
पुं० [सं० त्रिक+स्थान] दे० 'त्रिक २' ।उ०— वायु गुदा में स्थित होने से त्रिकस्थान, हृदय, पीठ इनमें पीडा होती है ।—माधव० पृ० १३४ ।

त्रिकांड (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकाण्ड] १. अमरकोष का दूसरा नाम । (अमरकोष में तीन कांड हैं, इसी से उसका यह नाम पडा) २. निरुक्त का दुसरा नाम । (निरुक्त में भी तीन कांड हैं, इसी से उसका यह नाम पडा) ।

त्रिकांडी (२)
वि० जिसमें तीन कांड हों ।

त्रिकांडी (१)
वि० [सं० त्रिकाण़डीय] जिसमें तीन कांड हों । तीन काडोंवाला ।

त्रिकांडी (२)
संज्ञा स्त्री० जिस ग्रंथ में कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों का वर्णन हो अर्थात् वेद ।

त्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुएँ पर का वह चौखटा जिसमें गराडी लगी होती है । २. कुएँ का ढक्कन (को०) ।

त्रिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव ।

त्रिकार्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ, अतीस और मोथा इन तीनों का समूह ।

त्रिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीनों समय— भूत, वर्तमान और भविष्य । २. तीनों समय— प्रातः मध्याह्न और सायं ।

त्रिकालज्ञ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भूत, वर्तमान और भविष्य का जाननेवाला व्यक्ति । सर्ज्ञ ।

त्रिकालज्ञ (२)
वि० तीनों कालों की बातों को जाननेवाला ।उ०— त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ तुम्ह गति सर्वत्र तुम्हारि ।— मानस, १ । ६६ ।

त्रिकालज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीनों कालों का बातें जानने की शक्ति या भाव ।

त्रिकालदरसी पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रिकालदर्शी' । उ०— तुम्ह त्रिकालदरसी मुनिमाथा । विस्व बदर जिमि तुम्हरे हाथा ।— मानस, २ ।१२५ ।

त्रिकालदर्शक (१)
वि० [सं०] तीनों कालों को जाननेवाला । त्रिकालज्ञ ।

त्रिकालदर्शक (२)
संज्ञा पुं० ऋषि ।

त्रिकालदर्शिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीनों कालों की बातों को जानने का शक्ति या भाव । त्रिकालज्ञता ।

त्रिकालदर्शि (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकालदर्शिन्] तीनों कालों की बातों को देखनेवाला या जाननेवाला व्यक्ति । त्रिकालज्ञ ।

त्रिकालदर्शी (२)
वि० तीनों कालों को बातों की जाननेवाला । त्रिकालज्ञ [को०] ।

त्रिकुट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिकूट' ।

त्रिकुटा (१)
संज्ञा पु० [सं० त्रिकटु] सोंठ, मिर्च और पीपल इन तीनों वस्तुओं का समूह ।

त्रिकुटा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिकुटी' । उ०—त्रिकुटा ध्यान तीन गुन त्यागै ।—प्राण०, पृ० २ ।

त्रिकुटाअचल पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकूट + अचल] त्रिकूट पर्वत । उ०—संपातरा सुण वयण सारा गहर नद गाजे । चित्त चाव त्रिकुटा अचल चढ़िया, कुटवा काजे ।—रघु० रू०, पृ० १६२ ।

त्रिकूटिनी
वि० स्त्री० [सं० त्रिकूट] तीन कूट या चोटीवाली । उ०—यंत्रों मंत्रों तंत्रों की थी वह त्रिकूटिनी माया सी ।— साकेत, पृ० ३८८ ।

त्रिकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिकूट] त्रिकूट चक्र का स्थान । दोनों भौंहों के बीच के कुछ ऊपर का स्थान । उ०—पूरन कुंभक रेचक करहू । उलट ध्यान त्रिकुटी को धरहू ।—विश्राम- (शब्द०) ।

त्रिकुल
संज्ञा पुं० [सं०] पितृकुल, मातृकुल और श्वसुरकुल ।

त्रिकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन शृंगोंवाला पर्वत । वह पर्वत जिसकी तीन चोटियाँ हों । २. वह पर्वत जिसपर लंका बसी हुई मानी जाती है । देवी भागवत के अनुसार यह एक पीठस्थान है और यहाँ रूपसुंदरी के रूप में भगवती निवास करती हैं । उ०—गिरि त्रिकूट एक सिंधु मँझारी । विधि निर्मित दुर्गम अति भारी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. सेंधा नमक । ४. एक कल्पित पर्वत जो सुमेरु पर्वत का पुत्र माना जाता है । विशेष—वामन पुराण के अनुसार यह क्षीरोद समुद्र में है । यहाँ देवर्षि रहते हैं और विद्याधर, किन्नर तथा गंधर्व आदि क्रीडा करने आते हैं । इसकी तीन चोटियाँ हैं । एक चोटी सोने की है जहाँ सूर्य आश्रय लेते हैं और दूसरी चोटी चाँदी की जिसपर चंद्रमा आश्रय लेते हैं । तीसरी चोटी बरफ से ढकी रहती है और वैदूर्य, इंद्रनील आदि मणियों की प्रभा से चमकती रहती है । यही उसकी सवसे ऊँची चोटी है । नास्तिकों और पापियों को यह नहीं दिखलाई देता ।

त्रिकूटलवण
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री नमक [को०] ।

त्रिकूटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक भैरवी ।

त्रिकूर्चक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार फोडे़ आदि चीरने का एक शस्त्र जिसका व्यवहार बालक, वृद्ध, भीरु, राजा आदि की अस्त्रचिकित्सा के लिये होना चाहिए ।

त्रिकोटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिकुडी' । उ०—त्रिआषिरी त्रिकोटी जपीला ब्रह्मकुंड निज थांनं ।—गोरख०, पृ० १०२ ।

त्रिकोण
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन कोने का क्षेत्र । त्रिभुज का क्षेत्र । जैसे,/?/। २. तीन कोनेवाली कोई वस्तु । ३. तीन कोटियोंवाली कोई वस्तु । ४. योनि । भग । ५. कामरूप के अंतर्गत एक तीर्थ जो सिद्धपीठ माना जाता है । ६. जन्मकुंडली में लग्नस्थान से पाँचवाँ और नवाँ स्थान ।

त्रिकोणक
संज्ञा पुं० [सं०] तीन कोश का पिंड । तिकोना पिंड ।

त्रिकोणघंटा
संज्ञा पुं० [सं० त्रिकोण घण्टा] लोहे की मोटी सलाख का बना हुआ एक प्रकार का तिकोना बाजा जिसपर लोहे के एक दूसरे टुकडे़ से आघात करके ताल देते हैं । इसका आकार ऐसा है—)

त्रिकोणफल
संज्ञा पुं० [सं०] सिंघाडा़ । पानीफल ।

त्रिकोणभवन
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मकुंडली में लग्न से पाँचवाँ और नवाँ स्थान । दे० 'त्रिकोण' ।

त्रिकोणमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गणित शास्त्र का वह विभाग जिसमें त्रिभुज के कोण, बाहु, वर्ग, विस्तार आदि की नाप निकालने की रीति तथा उनसे संबंध रखनेवाले अन्य अनेक सिद्धांत स्थिर किए जाते हैं । विशेष—आजकल इसके अंतर्गत त्रिभुज के अतिरिक्त चतुर्भुज और बहुभुज के कोण नापने की रीतियाँ तथा बीजगणित संबंधी बहुत सी बातें भी आ गई हैं ।

त्रित्क्षार
संज्ञा पुं० [सं०] जवाखार, सज्जी और सुहागा इन तीनों खारों का समूह ।

त्रित्क्षुर
संज्ञा पुं० [सं०] ताल मखाना ।

त्रिख
संज्ञा पुं० [सं०] खीरा ।

त्रिखा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं] दे० 'तृषा' ।

त्रिखित पु
वि० [हिं०] दे० 'तृषित' । उ०—त्रिखित लोचन जुगल पान हित अमृतवपु विमल बृंदाविपिन भूमिचारी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४ ।

त्रिगंग
संज्ञा पुं० [सं० त्रिगङ्ग] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ का नाम ।

त्रिगंधक
संज्ञा पुं० [सं० त्रिगन्धक] दे० 'त्रिजातक' ।

त्रिगंभीर
संज्ञा पुं० [सं० त्रिगम्भीर] वह जिसका सत्त्व [आचरण], स्वर और नाभि गंभीर हो । लोगों का विश्वास है कि ऐसा पुरुष सदा सुखी रहता है ।

त्रिगढ़ पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रि + गढ़] ब्रह्मांड । सहस्रार । उ०—कूढ़ अरु कपट की झपट कूँ छाँडि़ दे त्रिगढ़ सिर बाय अनहद्द तूरा ।—राम० धर्म०, पृ० १३७ ।

त्रिगण
संज्ञा पुं० [सं०] 'त्रिवर्ग' ।

त्रिगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तर भारत के उस प्रांत का प्राचीन नाम जिसमें आजकल पंजाब के जालंधर और कांगडा़ आदि नगर हैं । इस देश का निवासी ।

त्रिगर्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिनाल स्त्री । पुंश्चली । वह स्त्री जिसे पुरुषप्रसंग की इच्छा हो ।

त्रिगर्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिगर्त' ।

त्रिगामी पु
वि० [सं० त्री + गामिन्] तीन लोकों में बहनेवाली । त्रिपथगा । उ०—त्रिपत्थी त्रिगामी विराजंत गंगा । महा स्रग्ग लोकं नरं नारि अंगा ।—पृ० रा०, १ ।१६२ ।

त्रिगुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सत्व, रज, और तम इन तीनों गुणों । का समूह । तीन मुख्य प्रकृतियों का समूह । दे० 'गुण' । उ०—त्रिगुण अतीत जैसे, प्रतिबिंब मिटि जात ।—संत- वाणी०, पृ० ११५ ।

त्रिगुण (२)
वि० [सं०] १. तीन गुना । तिगुना । २. तीन धागोंवाला । जिसमें तीन धागे हों (को०) । ३. सत, रज, तम इन तीन गुणोंवाला (को०) ।

त्रिगुण (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. माया । तंत्र में एक प्रसिद्ध बीज ।

त्रिगुणात्परा
वि० [सं० त्रिगुणात् + परा] त्रिगुणों से परा । उ०—इस अग्निदेवता का निवास है त्रिगुणमयी यह निंखिल सृष्टि । पर प्रथम चरम आलोकधाम त्रिनयन की त्रिगुणात्परा दृष्टि ।—अग्नि०, पृ० ४० ।

त्रिगुणात्मक
वि० पुं० [सं०] [स्त्री० त्रिगुणात्मिका] तीनों गुणयुक्त । जिसमें तीनों गुण हों । उ०—नारी के नयन ! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात किसको प्रमत्त नहीं करते ।—लहर, पृ० ७१ ।

त्रिगुणित
वि० [सं०] तीन गुना किया हुआ । तिगुना किया हुआ [को०] ।

त्रिगुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेल का पेड़ । विशेष—बिल के पत्ते तीन तीन एक साथ होते हैं इसी से इसका यह नाम पडा़ ।

त्रिगुन पु
वि० [सं० त्रिगुण] सत रज तम इन तीन गुणोंवाला । उ०—कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावौ त्रिगुन मिथ्या भेष ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३१८ ।

त्रिगूढ़
संज्ञा पुं० [सं० त्रिगूढ़] स्ञीयों के वेष में पुरुर्षो का नृत्य ।

त्रिगूढ़क
संज्ञा पुं० [सं० ञिगूढक] दे० 'ञिगूढ़' ।

त्रिग्गन पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रि + गण] तीन का समुदाय । उ०— बहु विवेक कल मान ताल मंडै त्रिग्गन सुर ।—पृ० रा०, २५ ।१५७ ।

त्रिघंटा
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिघण्टा] एक कल्पित नगर जो हिमालय की चोटी पर अवस्थित माना जाता हैं । कहते हैं, यहाँ विद्याधर आदि रहते हैं ।

त्रिघट
संज्ञा पुं० [सं० त्रि + घट] स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूप तीन शरीर । उ०—थुंगनि थुंगनि थुंगनि थुंगा त्रिघट उघटितत तुरिय उतंगा ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ८३४ ।

त्रिघाई पु
क्रि० वि० [देश०] त्रिरावृत्ति । बार बार । उ०—नचै नद्द नंदो त्रिघाई त्रिघावै ।—पृ० रा०, २५ ।२२४ ।

त्रिघाना पु
क्रि० अ० [सं० तृप्त] तृप्त होना । संतुष्ट होना । उ०— नचैं कर बैताल त्रिघाई । नारद नद्द करै किलकाइ ।— पृ० रा०, १९ ।२१४ ।

त्रिचक
संज्ञा पुं० [सं०] अश्विनीकुमारों का रथ ।

त्रिचत्क्षु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिचक्षुस्] महादेव ।

त्रिचित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की गार्हपत्याग्नि ।

त्रिजग पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० तिर्यक्] आडा़ चलनेवाले जंतु । पशु तथा कीडे़ मकोडे़ । तिर्यक् । उ०—(क) त्रिजग देव नर जोतनु धरऊँ । तहँ तहँ राम भजन अनुसर ऊँ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) यहि विधि जीब चराचर जेते । त्रिजग देव नर असुर समेते । अखिल विश्व यह मम उपजाया । सब पर मोरि बराबर दाया ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रिजग (२)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिजगत्] तीनों लोक—स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल । उ०—किहिं विधि त्रिपथगामिनि त्रिजग पावनि प्रसिद्ध भई भले ।—पद्याकर (शब्द०) ।

त्रिजगत
संज्ञा पुं० [सं० त्रिजगत्] आकाश, पाताल और पृथ्वी ये तीनों लोक [को०] ।

त्रिजगती
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाश, पाताल और पृथ्वी ये तीनों लोक [को०] ।

त्रिजट
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । शिव । २. एक ब्राह्मण का नाम जिसको वनयात्रा के समय रामचंद्र जी ने बहुत सी गाएँ दान दी थीं ।

त्रिजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विभीषण की बहन जो अशोक- वाटिका में जानकी जी के पास रहा करती थी । २. बेल का पेड़ ।

त्रिजटी (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिजटिन् या त्रिजट] महादेव । शिव ।

त्रिजटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिजटा' ।

त्रिजड़
संज्ञा पुं० [डिं०] १. कटारी । २. तलवार ।

त्रिजमा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रियामा' । उ०—तेही त्रिजमा राय सरेखा । पहिली रात कि मूरत देखा ।—इंद्रा०, पृ० १० ।

त्रिजात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिजातक' ।

त्रिजातक
संज्ञा पुं० [सं०] इलायची (फल), दारचीनी (छाल) और तेजपत्ता (पत्ता) इन तीन पर्कार के पदार्थों का समूह जिसे त्रिसुगंधि भी कहते हैं । यदि इसमें नागकेसर भी मिला दिया जाय तो इसे चतुर्जातक कहेंगे । विशेष—वैद्यक में इसे रेचक, रूखा, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, मुँह की दुर्गंध दूर करनेवाला, हलका, पित्तवर्धक, दीपक तथा वायु और विषनाशक माना है ।

त्रिजामा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रियामा] रात्रि । रजनी । उ०— (क) युग चारि भए सब रैनि याम । अति दुसह बिथा तनु करी काम । यहि ते दयाइ मानौ विरंचि । सब रैनि त्रिजामा कीन्ह संचि ।—गुमान (शब्द०) । (ख) छनदा छपा तमस्विनी तमी तमिश्रा होय । निशिश्री सदा विभावरी रात्रि त्रिजामा सोय ।—नंददास (शब्द०) ।

त्रिजीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीन राशियों अर्थात् ९० अंशों तक फैले हुए चाप की ज्या ।

त्रिज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वृत्त के केंद्र से परिधि तक खिंची हुई रेखा । व्यास की आधी रैखा ।

त्रिड़ना पु
क्रि० अ० [अनु० तड़तड़; राज० तिडकणो; हिं० तड़कना] दे० 'तड़कना' । उ०—जिणि दीहे तिल्ली त्रिड़इ, हिरणी झालइ गाम । ताँह दिहाँरी गोरडी़, पड़तउ झालइ आम ।—ढोला०, दू० २८२ ।

त्रिण पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तृण' । उ०—मीढ सहस्साँ मत्थणे लक्ख गिणे त्रिणमत्त ।—रा० रू०, पृ० ११५ ।

त्रिणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनुष ।

त्रिणव
पुं० [सं०] साम गान की एक प्रणाली जिसमें एक विशेष प्रकार से उसकी/?/सत्ताईस आवृत्तियाँ करते हैं ।

त्रिणाचिकेत
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजुर्वेद के एक विशेष भाग का नाम । २. उस भाग के अनुयायी । ३. नारायण । ४. अग्नि (को०) ।

त्रिणीता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी । विशेष—यह माना जाता है कि पुरुष पति प्राप्त करने के पूर्व कन्या का संबंध सोम, गंधर्व और अग्नि से होता है ।

त्रितंत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रितन्त्रिका] दे० 'त्रितंत्री' । [को०] ।

त्रितंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रितन्त्रिका] कच्छपी वीणा की तरह की प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा जिसमें तीन तार लगे होते थे ।

त्रित
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा के मानस- पुत्र माने जाते हैं । २. गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक जो अपने दोनों भइयों से अधिक तेजस्वी और विद्वान् थे । विशेष—एक बार ये अपने भाइयों के साथ पशुसंग्रह करने के लिये जंगल में गए थे । वहाँ दानों भाइयों ने इनके संग्रह किए हुए पशु छीनकर और इन्हें अकेला छोड़कर घर का रास्ता लिया । वहाँ एक भेड़िए को देखकर ये डर के मारे दौड़ते हुए एक गहरे अंधे कुएँ में जा गिरे । वहीं इन्होंने सोमयाग आरंभ किया जिसमें देवता लोग भी आ पहुँचे । उन्हीं देवताओं ने उस कुएँ से इन्हें निकाला । महाभारत में लिखा है कि सरस्वती नदी इसी कुएँ से निकली थी ।

त्रितय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] धर्म, अर्थ और काम इन तीनों का समूह ।

त्रितय (२)
वि० जिसके तीन भाग हों । तेहरा [को०] ।

त्रिताप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ताप' ।

त्रितिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृतीया' । उ०—त्रितिया सों, सप्तमी कौ एक बचन कबिराइ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५३० ।

त्रितीया पु
वि० [हिं०] दे० वंधेज ।—प्राण०, पृ० ३९ ।

त्रिदंड
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदण्ड] १. संन्यास आश्रम का चिह्न, बाँस का एक डंडा जिसके सिरे पर दो छोटी छोटी लकड़ियाँ बँधी होती हैं । २. मन, वचन और कर्म का संयम (को०) । ३. दे० 'त्रिदंडी' (को०) ।

त्रिदंडी
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदणिडन्] १. मन, वचन और कर्म तीनों को दमन करने या वश में रखनेवाला व्यक्ति । २. संन्यासी । परिव्राजक । २. यज्ञोपवीत । जनेऊ ।

त्रिदल
संज्ञा पुं० [सं०] बेल का वृक्ष ।

त्रिदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोधापदी । हंसपदी ।

त्रिदलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का थूहर जिसे चर्मकशा या सातला कहते हैं ।

त्रिदश
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । उ०—(क) कंदर्प दर्प दुर्गम दवन उमारवन गुन भवन हर । तुलसीस त्रिलोचन त्रिगुन पर त्रिपुर मथन जय त्रिदशवर ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) निरखत बरखत कुसुम त्रिदश जन सूर सुमति मन फूल ।—सूर (शब्द०) । २. जीव ।

त्रिदशगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के गुरु बृहस्पति ।

त्रिदशगोप
संज्ञा पुं० [सं०] बीरबहूटि नाम का कीडा़ ।

त्रिदशदीर्घिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गगा । आकाशगंगा ।

त्रिदशपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।

त्रिदशपुंगव
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदशपुङ्गव] विष्णु [को०] ।

त्रिदशपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] लौंग ।

त्रिद्शमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिदशमञ्जरी] तुलसी ।

त्रिदशवधू, त्रिदशवतिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्सरा ।

त्रिदशवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदशवर्त्मन्] आकाश [को०] ।

त्रिदशश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. ब्रह्म [को०] ।

त्रिदशसर्षप
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की सरसों । देवसर्षप ।

त्रिदशांकुश
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदशाङ्कुश] वज्र ।

त्रिदशाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र ।

त्रिदशाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिदशायन' ।

त्रिदशायन
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

त्रिदशायुध
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र ।

त्रिदशारि
संज्ञा पुं० [सं०] असुर ।

त्रिदशालय
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । २. सुमेरु पर्वत ।

त्रिदशाहार
संज्ञा पुं० [सं०] अमृत ।

त्रिदशेश्वरी
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्गा ।

त्रिदालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चामरकषा । सातला ।

त्रिदिनस्पृश्
संज्ञा पुं० [सं०] वह तिथि जो तीन दिनों को स्पर्श करती हो । अर्थात् जिसका थोडा़ बहुत अंश तीन दिनों में पड़ता हो । विशेष—ऐसे दिन में स्नान और दानादि के अतिरिक्त और कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए ।

त्रिदिव
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । उ०—अनुज ! रहना उचित तुमको यहीं है, यहाँ जो है त्रिदिव में भी नहीं है ।—साकेत, पृ० ६५ । २. आकाश । ३. सुख ।

त्रिदिवाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र । २. देवता (को०) ।

त्रिदिवि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिदिव' । उ०—स्वर्ग, नाक, स्वर, द्यौ, त्रिदिवि, दिँव, तिरिविष्टप होइ ।—नंद० ग्रं० पृ० १०८ ।

त्रिदिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. इंद्र (को०) ।

त्रिदेवोद्भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.बडी़ इलायची । २. गंगा ।

त्रिदिवौका
संज्ञा पुं० [सं० त्रिदिवौकस्] देवता [को०] ।

त्रिदृश्
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।

त्रिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तीनों देवता ।

त्रिदोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष । दे० 'दोष' । उ०— गदशत्रु ञिदोष ज्यों दूरि करै वर । त्रिशिरा सिर त्यौं रघुनंदन के शर ।—केशव (शब्द०) । २. वात, पित्त और कफ जनित रोग, सन्निपात । उ०—यौवन ज्वर जुवती कुपत्थ करि भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रिदोषज (१)
वि० [सं०] तीनों दोषों अर्थात् वात, पित्त और कफ से उत्पन्न ।

त्रिदोषज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सन्निपात रोग ।

त्रिदोषजा
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिदोषज' । उ०—पूर्वोक्त ञिदो- षजा अश्मरी विशेष करके बालकों के होती है ।—माधव०, पृ० १८० ।

त्रिदोषना पु †
क्रि० अ० [सं० ञिदोष] तीनों दोषों के कोप में पड़ना । उ०—कुलहि लजावैं बाल बालिस बजावैं गाल कैधौं कर काल वश तमकि त्रिदोषे है ।—तुलसी (शब्द०) । २. काम क्रोध और लोभ के फंदों में पडना । उ०—(क) कालि की बात बालि की सुधि करी समुझि हिताहित खोलि झरोखे । कह्यो कुरोधित को न मानिए बडी़ हानि जिय जानि झरोखे । कह्यो कुरोधित को न मानिए बडी़ हानि जिय जानि त्रिदोषे ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रिधनी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की रागिनी ।

त्रिधन्वा
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार सुधन्वा राजा के एक पुत्र का नाम ।

त्रिधर्मा
संज्ञा पुं० [सं० त्रिधमंन्] महादेव । शिव ।

त्रिधा (१)
क्रि० वि० [सं०] तीन तरह से । तीन प्रकार से ।

त्रिधा (२)
वि० [सं०] तीन तरह का । यौ०—त्रिधात्व = तीन प्रकारकता । तीन प्रकार का होना ।

त्रिधातु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गणेश । २. सोना, चाँदी और ताँबा ।

त्रिधाम
संज्ञा पुं० [सं० त्रिधामन्] १. विष्णु । २. शिव । ३. अग्नि । ४ मृत्यु । ५. स्वर्ग । ६. व्यास मुनि (को०) ।

त्रिधामूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर जिसके अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु, और महेश तीनों हैं ।

त्रिधारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बडा़ नागरमोथा । गुँदला । २. कसेरू का पेड़ ।

त्रिधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीन धारावाला सेहुड़ । २.स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों में बहनेवाली, गंगा ।

त्रिधाविशेष
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के अनुसार सूक्ष्म, मातापितृज और महाभूत तीनों प्रकार के रूप धारण करनेवाला, शरीर ।

त्रिधासर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दैव, तियंग् और मानुष ये तीनों सर्ग जिसके अंतर्गत सारी सृष्टि आ जाती है । विशेष—दे० 'सर्ग' ।

त्रिन पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तृण' । उ०—पदतल इन कर्ह दलहु कीट त्रिन सरिस जवनचय ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५४० ।

त्रिनयन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।

त्रिनयन (२)
वि० जिसकी तीन आँखें हों । तीन नेत्रोंवाला ।

त्रिनयना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

त्रिनवत
वि० [सं०] तिरानबेवाँ [को०] ।

त्रिनवति
वि० स्त्री० [सं०] तिरानबे । नब्बे और तीन [को०] ।

त्रिनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

त्रिनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । शिव । २. सोना । स्वर्ण ।

त्रिनेत्रचूडा़मणि
संज्ञा पुं० [सं० ञिनेञचूडामणि] चंद्रमा [को०] ।

त्रिनेत्ररस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस । विशेष—यह शोधे हुए पारे, गंधक और फूँके हुए ताँबे को बराबर बराबर भागों में लेकर एक विशेष क्रिया से तैयार किया जाता है और जो सन्निपात रोग में दिया जाता है ।

त्रिनेत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाराहीकंद ।

त्रिनैत पु
वि० [सं० तिर्यक् + नेत्र] तिर्यक् नेत्रवाला । उ०—चढ्यौ भोजराजं पहारं त्रिनैतं ।—पृ० रा०, २५ ।२१८ ।

त्रिनैन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिनयन' । उ०— भरि भरि नैन त्रिनैन मनावै । प्रौढा़ विप्रलब्ध सु कहावै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५४ ।

त्रिन्न पु
संज्ञा पुं० [हिं०]दे० 'तृण' । उ०—पेट काज तरु, तुंग । त्रिन्न परि घर पर ढारैं ।—पृ रा०, १ ।७६४ ।

त्रिपंखो पु
संज्ञा पुं० [डिं०] एक प्रकार का डिंगल गीत । उ०—मंद सुकवि इण भेल, गीत त्रिपंखो गुण इणाँ ।—रघु० रू०, पृ० १६० ।

त्रिपंच
वि० [सं० त्रिपञ्च] तिगुना पाँच अर्थात् पंद्रह [को०] ।

त्रिपंचार्श
वि० [सं० त्रिपञ्चाश] तिरपनवाँ [को०] ।

त्रिपटु
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँच । शीशा । २. ललाट की तीन आडी़ रेखाएँ या बल [को०] ।

त्रिपत
वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०—बरंगाँ राल बरमाल सूरा वरैं । त्रिपत पंखाल पिल खुल ताला ।—रघु० रू०, पृ० २० ।

त्रिपताक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह माथा या ललाट जिसमें तीन बल पडे़ हों । २. हाथ की एक मुद्रा जिनमें तीन उँगलियाँ फैली हों (को०) ।

त्रिपति पु (१)
वि० [सं० तृप्त > त्रिपित त्रिपति] दे० 'तृप्त' । उ०— त्रिय त्रिघाइ पूरन भए त्रिपति उमापति मुंड ।— पृ० रा०, २५ ।७४४ ।

त्रिपति पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० तृप्ति] दे० 'तृप्ति' । उ०—न हिय राज कहु छिन त्रिपति ।— पृ० रा०, १ ।४८४ ।

त्रिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेल का पेड़ जिसके पत्ते एक साथ तीन तीन लगे होते हैं । २, पलाश का पेड़ (को०) ।

त्रिपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलाश का वृक्ष । ढाक का पेड़ । २. तुलसी, कुंद और बेल के पत्ते का समूह ।

त्रिपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरहर का पेड़ । २. तिपतिया घास ।

त्रिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्म, ज्ञान और उपासना इन तीनों मागों का समूह । उ०—कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान विहीन । तुलसी त्रिपथ विहायगो रामदुआरे दीन ।—तुलसी (शब्द०) । २. तीनों लोकों (आकाश, पाताल और मर्त्य लोक) के मार्ग (को०) । ३. वह स्थान जहाँ तीन पथ मिलते हैं । तिराहा (को०) ।

त्रिपथगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा । उ०—मानो मूल भाषा त्रिपथगा की तीन धारा हो बहीं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७० । विशेष—हिंदुओं का विश्वास है कि स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों लोकों में गंगा बहती हैं, इसीलिये इसे त्रिपथगा कहते हैं ।

त्रिपथगामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा० दे० 'त्रिपथगा' ।

त्रिपथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'त्रिपथगा' । उ०—पथ देख रही तरंगिणी, त्रिपथा सी वह संग रंगिणी ।—साकेत, पृ० ३६३ । २. मथुरा (को०) ।

त्रिपद (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिपद] १. तिपाई ।२. त्रिभुज । ३. वह जिसके तीन पद या चरण हों । ४.यज्ञों की वेदी नापने की प्राचीन काल की एक नाप जो प्रायः तीन हाथ से कुछ कम होती थी । ५. विष्णु (को०) । ६. ज्वर (को०) ।

त्रिपद (२)
वि० [सं० त्रिपद] १. तीन पैरोंवाला । २. तीन पाएवाला । ३. तीन चरणवाला । ४. तीन पदों का (शब्दसमूह) [को०] ।

त्रिपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गायत्री । विशेष—गायत्री में केवल तीन ही पद होते हैं इसलिये इसका यह नाम पडा़ । २. हंसपदी । लाल रंग का लज्जू ।

त्रिपदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.तिपाई की तरह का पीतल आदि का वह चौखटा जिसपर दिवपूजन के समय शंख रखते हैं । २. तिपाई । ३. संकीर्ण राग का एक भेद । (संगीत) ।

त्रिपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसपदी । २. तिपाई । ३. हाथी की पलान बाँधने का रस्सा । ४. गायत्री । ५. तिपाई के आकार का शंख रखेने का धातु का चौखटा । ६. गोधापदी लता (को०) ।

त्रिपन्न
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा के दस घोड़ों में से एक ।

त्रिपरिक्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपरिकान्त] १. वह ब्राह्मण जो यज्ञ करे, पढे़ पढा़वे और दान दे । २. वह व्यक्ति जिसने काम, क्रोध और लोभ को जीत लिया हो [को०] ।

त्रिपरिक्रांत (२)
वि० जो हवन की परिक्रमा करे [को०] ।

त्रिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] पलास का पेड़ । किंशुक वृक्ष ।

त्रिपर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] पलास का पेड़ ।

त्रिपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.शालपर्णी । २. बनकपास । ३. एक प्रकार की पिठवन लता ।

त्रिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का क्षुप जिसका कंद औषध में काम आता है । २. शालपर्णी । ३. बनकपास ।

त्रिपल पु
संज्ञा पुं० [?] त्रिविध प्राणायाम रेचक पूरक, कुंभक ।उ०—ताडी़ लागी त्रिपल पलटियै छूटै होई पसारी ।—कबीर ग्रं०, पृ० २२८ ।

त्रिपाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोंच [को०] ।

त्रिपाठी
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपाठिन्] १. तीन वेदों का जाननेवाला पुरुष । त्रिवेदी । २. ब्राह्मणों की एक जाति । त्रिवेदी । तिवारी ।

त्रिपाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सूत जो तीन बार भिगोया गया हो (कर्मकांड) । वल्कल । छाल ।

त्रिपात्, त्रिपात
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपाद' [को०] ।

त्रिपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्वर । बुखार । २. परमेश्वर ।

त्रिपादिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तिपाई । २. हंसपदी लता । लाल रंग का लज्जालू ।

त्रिपाप
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिसके अनुसार किसी मनुष्य के किसी वर्ष का शुभाशुभ फल जाना जाता है ।

त्रिपिंड
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपिण्ड] पार्वण श्राद्ध में पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से दिए हुए तीनों पिंड (कर्मकांड) ।

त्रिपिटक
संज्ञा पुं० [सं०] भगवान् बुद्ध के उपदेशों का बडा़ संग्रह जो उनकी मृत्यु के उपरांत उनके शिष्यों और अनुयायियों ने समय समय पर किया और जिसे बौद्ध लोग अपना प्रधान धर्मग्रंथ मानते हैं । विशेष—यह तीन भागों में, जिन्हें पिटक कहते हैं, विभक्त है । इनके नाम ये हैं—सूत्रपिटक, विनयपिटक, अभिधर्मपिटक । सूत्रपिटक में बुद्ध के साधारण छोटे और बडे़ ऐसे उपदेशों का संग्रह है जो उन्होंने भिन्न भिन्न घटनाओं और अवसरों पर किए थे । विनयपिटक में भिक्षुओं और श्रावकों आदि के आचार के संबंध की बातें हैं । अभिधर्मपिटक में चित्त, चैतिक धर्म और निर्वाण का वर्णन है । यही अभिधर्म बौद्ध दर्शन का मूल हो । यद्यपि बौद्ध धर्म के महायान, हीनयान और मध्यमयान नाम के तीन यानों का पता चलता है और इन्हीं के अनुसार त्रिपिटक के भी तीन संस्करण होने चाहिए, तथापि आजकल मध्ययमान का संस्करण नहीं मिलता । हीन- यान का त्रिपिटक पाली भाषा में है और बरमा, स्याम तथा लंका के बौद्धों का यह प्रधान और माननीय ग्रंथ है । इस यान के संबंध का अभिधर्म से पृथक् कोई दर्शन ग्रंथ नहीं है । महायान के त्रिपिटक का संस्करण संस्कृत में है और इसका प्रचार नेपाल, तिब्बत, भूटान, आसाम, चीन, जापान और साइबैरिया के बौद्धों में है । इस यान के संबंध के चार दार्शनिक संप्रदाय हैं जिन्हें सौत्रांतिक, माध्यमिक, योगाचार और वैभाषिक कहते हैं । इस यान के संबंध के मूल ग्रंथों के कुछ अंश नेपाल, चीन, तिब्बत और जापान में अबतक मिलते हैं । पहले पहल महात्मा बुद्द के निर्वाण के उपरांत उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों का संगह राजगृह के समीप एक गुहा में किया था । फिर महाराज अशोक ने अपने समय में उसका दूसरा संस्करण बौद्धों के एक बडे़ संघ में कराया था । हिनयान—* वाले अपना संस्करण इसी को बतलाते हैं । तीसरा संस्करण कनिष्क के समय में हुआ था जिसे महायानवाले अपना कहते हैं । हीनयान और महामान के संस्करण के कुछ वाक्यों के मिलान से अनुमान होता है कि ये दोनों किसी ग्रंथ की छाया हैं जो अब लुप्तप्राय है । त्रिपिटक में नारा- यण, जनार्दन शिव ब्रह्मा, वरुण और शंकर आदि देवताओं का भी उल्लेख है ।

त्रिपिताना (१)
क्रि० अ० [सं० तुप्ति + आना (प्रत्य०)] तृप्ति पाना । तृप्त होना । अघा जाना । उ०—(क) कैसे तृषावंत जल अँचवत वह तो पुनि ठहरात । यह आतुर छबि लै उर धारति नेकु नहीं त्रिपितात ।—सूर (शब्द०) । (ख) जे षटरस मुख भौग करत हैं ते कैसे खरि खात । सूर सुनो लोचन हरि रस तजि हम सों क्यों त्रिपितात ।—सूर (शब्द०) ।

त्रिपिताना (२)
क्रि० स० तृप्त करना । संतुष्ट करना ।

त्रिपिब
संज्ञा पुं० [सं०] वह खसी, पानी पोने के समय जिसके दोनों कान पानी से छू जाते हों । ऐसा बकरा मनु के अनुसार पितृकर्म के लिये बहुत उपयुक्त होता है ।

त्रिपिष्टप
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुंड] भस्म की तीन आड़ी रेखाओं का तिलक जो शिव या शक्ति लोग ललाट पर लगते हैं । उ०—गौर शरीर भूति भलि भ्राजा । भाल विशाल त्रिपुंड विराजा ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—देना ।—रमाना ।—लगाना ।

त्रिपुंड्र
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुण्ड्र] त्रिपुंड ।

त्रिपुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोखरू का पेड़ । २. मटर । ३. खेसारी । ४. तीर । ५. ताला । ६. एक हाथ की लंबाई (को०) । ७. किनारा । तट (को०) । ८. बाण (को०) । ९. छोटी या बड़ी एला या इलायची (को०) । १०.मल्लिका (को०) । ११. एक प्रकार का फोड़ा (को०) । १२. ताल । तलैया (को०) ।

त्रिपुट (२)
वि० [सं०] त्रिभुजाकार [को०] ।

त्रिपुटक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेसारी । २. फोड़े का एक आकार ।

त्रिपुटक (२)
वि० तिकोना या त्रिभुजाकार (फोड़ा) ।

त्रिपुटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेल का पेड़ । २. छोटी इलायची । ३. बड़ी इलायची । ४. निसोथ । ५. कनफोड़ा बेल । ६. मोतिया । ७. तांत्रिको की एक देवी जो अभीष्टदात्री मानी गई है ।

त्रिपुटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निसोथ । २. छोटी इलायची । २. ३. तीन वस्तुओं का समूह । जैसे, ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान; ध्याता, ध्येय और ध्यान? द्रष्टा, द्दश्य और दर्शन आदि । उ०— ज्ञाता, ज्ञेय अरु ज्ञान जो ध्याता, ध्येय अरु ध्यान । द्रष्टा, दृश्य अरु दरश जो त्रिपुटी शब्दभान ।—कबीर (शब्द०) ।

त्रिपुटी (२)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुटिन्] १. रेड़ का पेड़ । २. खेसारी ।

त्रिपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाणासुर का एक नाम । २. तीनों लोक । ३. चंदेरी नगर ।—(डिं०) । ४. महाभारत के अनुसार वे तीनों नगर जो तारकासूर के तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नाम के तीनों दैत्यों मै मय दानव से अपने लिये बनवाए थे । विशेष—इनमें से एक नगर सोने का और स्वर्ग में था, दूसराअंतरिक्ष में चाँदी का था और तीसरा मर्त्यलोक में लोहे का था । जब उक्त तीनों असुरों का अत्याचार और उपद्रव बहुत बढ़ गया तब देवताओं के प्रार्थना करने पर शिव जी ने एक ही बाण से उन तीनों नगरों को नष्ट कर दिया और पीछे से उन तीनों राक्षसों को मार डाला ।

त्रिपुरआराति
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुर + आराति] कामारि । महादेव ।

त्रिपुरआरती पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुर + आराति] दे० 'त्रिपुर आराति' । उ०—जदपि सती पूछा बहु भाती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ।—मानस, १ ।५७ ।

त्रिपुरघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव ।

त्रिपुरदहन
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव ।

त्रिपुरदाहक
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुर + दाहक] दे० 'त्रिपुरदहन' । उ०—त्रिपुरदाहक शिव भद्रवट पर था ।—प्रा०, भा० सं०, पृ० १०८ ।

त्रिपुरभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक का एक रस जो सन्निपात रोग में दिया जाता है । विशेष—इसके बनाने की विधि यह है—काली मिर्च ४ भर, सोंठ ४ भर, शुदध तेलिया सोहागा ३ भर, और शुद्ध सींगी मोहरा १ भर लेते हैं और इन सब चीजों को पीसकर पहले तीन दिन तक नीबू के रस में फिर पाँच दिन तक अदरक के रस में और तब तीन दिन तक पान के रस में अच्छी तरह खरल करके एक एक रत्ती की गोलियाँ बना लेते हैं । यह गोली अदरक के रस के साथ दी जाती है ।

त्रिपुरभैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम ।

त्रितूरमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मल्लिका ।

त्रिपुरहर
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव [को०] ।

त्रिपुरसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिपुरसुन्दरी] दुर्गा [को०] ।

त्रिपुरांतक
संज्ञा पुं० [सं० त्रिपुरान्तक] शिव । महादेव ।

त्रिपुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामाख्या देवी की एक मूर्ति ।

त्रिपुरारि
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

त्रिपुरारि रस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे, ताँबे, गंधक, लोहे, अभ्रक आदि के योग से बनाया जाता है । इसका व्यवहार पेट के रोगें को नष्ट करने के लिये होता है ।

त्रिपुरारी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिपुरारी' । उ०—मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दक्षकुमारी ।— मानस, १ । ४८ ।

त्रिपुरासुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपुर' ।

त्रिपुरुष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिता, पितामह और प्रपितामह । २. संपत्ति का वह भोग जो तीन पीढ़ियाँ अलग अलग करें । एक एक करके तीन पीढ़ियों का भोग ।

त्रिपुरुष (२)
वि० जिसकी लंबाई उतनी हो । जितनी तीन पुरूषों के मिलने पर होती है [को०] ।

त्रिपुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ककड़ी । २. खीरा । ३. गेहूँ ।

त्रिपुषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काला निसोथ ।

त्रिपुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक योग जो पुनर्वसु, उत्तराषाढा, कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वभाद्रपद और विशाखा इन नक्षत्रों, रवि, मंगल और शनि इन तिथियों में से किसी एक नक्षत्र एक बार और एक तिथि के एक साथ पड़ने से होता है । विशेष—इस योग में यदि कोई मरे तो उसके परिवार में दो आदमी और मरते हैं और उसके संबंधियों को उनेक प्रकार के कष्ट होते है । इसमें यदि कोई हानि हो तो वैसी ही हानि और दो बार होती है और यदि लाभ हो तो वैसा ही लाभ और दो बार होता है । बालक के जन्म के लिये यह योग जारज योग समझा जाता है ।

त्रिपूरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपुरुष' [को०] ।

त्रिपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] जैनियों के मन से पहले वासुदेव ।

त्रिपौरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपुरुष' ।

त्रिपौलिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तिरपौलिया' ।

त्रिप्त पु
वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०—सूनत सुनत तन त्रिप्त भई ।—केशव०, अमी०, पृ० १० ।

त्रिप्तासना पु
क्रि० स० [सं० तृप्ति] तृप्त करना । संतुष्ट करना । उ०—अभ्रित नामु भोजन त्रिप्तासै । गुर कै शब्दि कवल पर गासै ।—प्राण०, पृ० १८२ ।

त्रिप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में दिशा, देश और काल संबंधी प्रश्न ।

त्रिप्रस्तुत
संज्ञा पुं० [सं०] वह हाथी जिसके मस्तक, कपोल और नेत्र इन तीनों स्थानों से मद झड़ता हो ।

त्रिप्लत्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक बहुत प्राचीन देश का नाम जिसका उल्लेख वैदिक ग्रंथों में आया है ।

त्रिफला
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँवले, हड़ और बहेड़े का समूह । विशेष—यह आँखों के लिये हितकारक, अग्निदीपक, रुचिकारक, सारक तथा कफ, पित्त, मेह, कुष्ट और विषमज्वर का नाशक माना जाता हैं । इससे वैद्यक में अनेक प्रकार के घृत आदि बनाए जाते हैं । पर्या०—त्रिफली । फलत्रय । फलत्रिक । २. वह चूर्ण जो इन तीनों फलों से बनाय जाता है । विशेष—यह चूर्ण बनाते समय एक भाग हड़, दो भाग बहेड़ा और तीन भाग आँवला लिया जाता है ।

त्रिबंक (१)पु
वि० [सं० त्रि + हिं० बंक] तीन जगह से टेढ़ा । उ०— बंक दासी सँग बैठि चितहू त्रिबंक भो ।—नट०, पृ० ३९ ।

त्रिबंक (२)पु
संज्ञा स्त्री० तीन जगह से टेढ़ी, कुब्जा । उ०—हम सूधी को टेढ़ी गनी गनिका वा त्रिबंक को अंक धरी सो धरी ।— नट०, पृ० ३१ ।

त्रिबलि
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'त्रिबली' ।

त्रिबली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वे तीन जो पेट पर पड़ते हैं । इन बलों की गणना सौंदर्य में होती है । उ०—त्रिबली पा पहँ ललित, रोम राजी मन मोहै ।—ह० रासो, पृ० २५ । २. भिक्षुणी (को०) ।

त्रिबलीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु । २. मलद्बार । गुदा ।

त्रिबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुद्र के एक अनुचर का नाम । २. तलवार का एक हाथ ।

त्रिबिद्धि पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रिविध' । उ०—बहैं बहुभाँति त्रिबिद्धि समीर ।—ह० रासो, पृ० २३ ।

त्रिबिध पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रिबिध' । उ०—दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १. पृ० २८२ ।

त्रिबीज
संज्ञा पुं० [सं०] साँवाँ [को०] ।

त्रिबीणी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिवेणी' । उ०—तत्तु त्रिबीणी खुलै दुआरू ।—प्राण०, पृ० १११ ।

त्रिबेनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिवेणी' ।

त्रिभंग (१)
वि० [सं० त्रिभङ्ग] तीन जगह से टेढ़ा । जिसमें तीन जगह बल पड़ते हों । उ०—जैसे को तैसो मिले तब ही जुरत सनेह । ज्यों त्रिभंग तनु स्याम को कुटिल कूबरी देह ।— पझाकर (शब्द०) ।

त्रिभंग (२)
संज्ञा पुं० खड़े होने की एक मुदा जिसमें पेट कमर और गरदन में कुछ टेढ़ापन रहता है । विशेष—प्रायः श्रीकृष्ण के ध्यान में इस प्रकार खड़े होकर बंसी बजाने की भावना की जाती है ।

त्रिभंगी (१)
वि० [सं० त्रिभङ्गिन्] तीन जगह से टेढ़ा । तीन मोड़ का । त्रिभंग । उ०—करौ कुबत जग कुटिलता, तजौं न दीन दयाल । दुखी होहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल ।— बिहारी (शब्द०) ।

त्रिभंगी (२)
संज्ञा पुं० १. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद जिसमें एक गुरु, एक लघु और एक प्लुत मात्रा होती है । २. शुद्ध राग का एक भेद । ३. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३२ मात्राएँ होती हैं और १०, ८, ८, ६, मात्राओं पर यति होती है । जैसै—परसद पद पावन, शोक नसावन, प्रगट भई तप पुंज सही । ४. गणत्मक दंडक का भेद जिसके प्रत्येक चरण में ६ नगण, २ सगण, भगण मगण, सगण और अंत में एक गुरु होता है अर्थात् प्रत्येक चरण में ३४ अक्षर होते हैं । जैसे—सजल जलद तनु लसत विमल तनु श्रम कण त्थों झलकों हैं उमगो है बुंद मनो है । भ्रुव युग मटकनि फिरि लटकनि आनिमिष नैनन जो है हरषो है ह्लैँ मन मोहै । ५. दे० 'त्रिभंग' ।

त्रिभंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिभण्डी] निसोथ ।

त्रिभ (१)
वि० [सं०] तीन नक्षत्रों से युक्त । जिसमें तीन नक्षत्र हों ।

त्रिभ (२)
संज्ञा पुं० चंद्रमा के हिसाब से रेवती, अश्विनी और भरणी नक्षत्रयुक्त आशिवन; शतभिषा, पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद नक्षत्रयुक्त भाद्रमास; और पूर्वकाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रयुक्त फाल्गुन मास ।

त्रिभग पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रिभंग' । उ०—मुरली सुर नट बाद त्रिभग उर आयत कंबी ।—पृ० रा०, २ । ४२६ ।

त्रिभजीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यास की आधी रेखा । त्रिज्या ।

त्रिभज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिभजीया । त्रिज्या ।

त्रिभद्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहवास । स्त्रीप्रसंग [को०] ।

त्रिभुअन पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिभुवन] दे० 'त्रिभृवन' । उ०—कर्म सुत तें बली नाहिं त्रिभुअन में कोई ।—नंद०, ग्रं०, पृ० १७६ ।

त्रिभुक्ति
संज्ञा पुं० [सं०] तिरहुत या मिथिला देश ।

त्रिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] तीन भुजाओं का क्षेत्र । वह धरातल जो तीन भुजाओं या रेखाओं से घिरा हो । जैसे/?/।

त्रिभुवन
संज्ञा पुं० [सं०] तीन लोक अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल ।

त्रिभुवनगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । उ०—तुम्ह त्रिभुवनगुरु वेद बखाना । आन जीवन पाँवर का जाना ।—मानस, १ ।

त्रिभुवननाथ
संज्ञा पुं० [सं० त्रिभुवन + नाथ] जगदीश । परमेश्वर । उ०—त्यौं अब त्रिभुवननाथ ताड़का मारो सहसुत ।—केशव (शब्द०) ।

त्रिभुवनराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिभुवन + राज] तीन लोकों का स्वामी ।

त्रिभुवनराई पु
संज्ञा पुं० [सं० त्रिभुवनराज] तीन लोकों का स्वामी उ०—हम तीनों हैं त्रिभुवन राई ।—कबीर सा०, पृ० ५८३ ।

त्रिभुवनसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिभुवनसुन्दरी] १. दुर्गा । २. पार्वती ।

त्रिभूम
संज्ञा पुं० [सं०] तीन खंडोंवाला मकान । तिमहला घर ।

त्रिभोलग्न
संज्ञा पुं० [सं०] क्षितिज वृत्त पर पड़नेवाले क्रांतिवृत्त का ऊपरी मध्य भाग ।

त्रिमंडला
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिमण्डला] एक प्रकार की जहरीली मकड़ी ।

त्रिमद
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मोथा, चीता और बायविडंग इन तीनों चोजों का समूह । २. परिवार, विद्या और धन इन तीनों कारणों से होनेवाला अभिमान ।

त्रिमधु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋग्वेद के एक अंश का नाम । २. वह व्यक्ति जो विधिपूर्वक उक्त अंश पढ़े । ३. ऋग्वेद का एक यज्ञ । ४. घी, शहद और चीनी इन तीनों का समूह ।

त्रिमधुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपधु' ।

त्रिमात
वि० [सं०] दे० 'त्रिमात्रिक' ।

त्रिभात
वि० [सं०] त्रिमात्रिक [को०] ।

त्रिमातिक
वि० [सं०] तीन मात्राओं का । तीन मात्राओंवाला । जिसमें तीन मात्राएँ हों । प्लुप्त ।

त्रिमार्गगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

त्रिमार्गगामिगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

त्रिमार्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा । २. तिरमुहानी ।

त्रिमुंड
संज्ञा पुं० [सं० त्रिमुण्ड] १. त्रिशिरा राक्षस । २. ज्वर । बुखार ।

त्रिमुकुट
संज्ञा पुं० [सं०] वह पहाड़ जिसकी तीन चोटियाँ हों । त्रिकूट ।

त्रिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाक्यमुनि । २. गायत्री जपने की चौवीस मुद्राओं में से एक मुद्रा ।

त्रिमुखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिमुखी' ।

त्रिमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता, मायादेवी । विशेष—महायान शाखा के बौद्ध देवी रूप से इनकी उपासना करते हैं ।

त्रिमुनि
संज्ञा पुं० [सं०] पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि ये तीनों मुनि ।

त्रिमुहानी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तिमुहानी' ।

त्रिमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्रा, विष्णु और शिव ये तीनों देवता । २. सूर्य ।

त्रिमूर्ति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्म की एक शक्ति । २. बोद्धों की एक देवी ।

त्रिमृत
संज्ञा पुं० [सं०] निसोथ ।

त्रिमृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिमृत' ।

त्रियंग पु
वि० [सं० त्रि + अङ्ग] तीन रूप का । तीन तरह का । उ०—तहाँ बिट्टियं दंति ऊमत्त मत्तं । तहाँ छत्र रंगं त्रियंगे ढरंतं ।—पृ० रा०, १९ ।१४९ ।

त्रिय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिया' । उ०—एहि कर नामु सुमिरि संसार । त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा ।—मानस, १ ।६७ ।

त्रियडंडी पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रिदंडी' । उ०—एक डंडी दुडंडी त्रिय- डंडी भगवान हूवा ।—गोरख०, पृ० १३२ ।

त्रियलोक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिलोक' । उ०—एकै सतगुरु सूर सम तिमिर हरै त्रियलोक ।—रज्जब०, पृ० १९ ।

त्रियव
संज्ञा पुं० [सं०] एक परिमाण जो तीन जौ के बराबर या एक रत्ती के लगभग होता है ।

त्रियष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] पितपापड़ा । शाहतरा ।

त्रियन पु
वि० [हिं०] दे० 'तीन' । उ०—त्रियन बरस त्रिय मास दिन त्रिप घटी पल उन्न ।—पृ० रा०, २३ ।१३ ।

त्रिया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] औरत । स्त्री । यौ०—त्रियाचरित्र = स्त्रियों का छल कपट जिसे पूरुष सहज में नहीं समझ सकते ।

त्रियाइ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिया' । उ०—जलधर बिन यों मेदिनी । ज्यों पतिहीन त्रियाइ ।—पृ० रा०, २५ ।४४ ।

त्रियाजीत पु
वि० [हिं० त्रिया + जीत] स्त्री के वश में न आनेवाला उ०—त्रियाजीत ते पुरिषागता मिलि भानँत ते पुरिषागता । गोरख०, पृ० ७९ ।

त्रियातीत पु
वि० [सं० त्रि + अतीत] तीन अर्थात् त्रिगुण से परे । उ०—त्रियातीत की श्रेणी जिनको वेद सबसे बढ़कर बतलाता है ।—कबीर मं०, पृ० १२६ ।

त्रियान
संज्ञा पुं० [सं०] बोद्धों के तीन प्रधान भेद या ज्ञान—महायान हीनयान और मध्यमयान ।

त्रियामक
संज्ञा पुं० [सं०] पाप ।

त्रियामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि । विशेष—रात के पहले चार दंडों और अंतिम चार दंडों की गिनती दिन में की जाती है, जिससे रात में केवल तीन ही पहर बच रहते हैं । इसी से उसे त्रियामा कहते हैं । २. यमुना नदी । ३. हलदी । ४. नील का पेड़ । ५. काला निसोथ ।

त्रियासंग
संज्ञा पुं० [हिं० त्रिया + संग] स्त्रीप्रसंग । सहवास । उ०—राजयोग । के चिह्ल ये जानै बिरला कोय । त्रियासंग मति कीजियह जो ऐसा नहि होय ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ६०४ ।

त्रियुग
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. वसंत, वर्षा और शरद् ये तीनों ऋतुएँ । ३. सत्ययुग, द्बापर और त्रेता ये तीनों युग ।

त्रियूह
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद रंग का घोड़ा ।

त्रियोदश पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रयोदश' । उ०—रवि अयन अंस अठ बीस मानि । ससि जन्म त्रियोदस अंस ज्यानि ।—ह० रासो, पृ० २९ ।

त्रियोनि
संज्ञा पुं० [सं०] एक मुकदमा जो कोध, लोभ और मोह के कारण होता है [को०] ।

त्रिरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध, धर्म और संघ का समूह । (बौद्ध) ।

त्रिरश्मि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिकोण' ।

त्रिरसक
संज्ञा पुं० [सं०] वह मदिरा जिसमें तीन प्रकार के रस या स्वाद हों ।

त्रिरात्रि
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन रात्रियों (और दिनों) का समय । २. एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिनों तक उपवास करना पड़ता है । ३. गर्ग त्रिरात्र नामक योग ।

त्रिराव
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम [को०] ।

त्रिरूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध यज्ञ के लिये एक विशेष प्रकार का घोड़ा ।

त्रिरूप (२)
वि० तीन रंगों या आकृतियोंवाला [को०] ।

त्रिरेख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शंख ।

त्रिरेख (२)
वि० तीन रेखऔंवाला । जिसमें तीन रेखाएँ हों ।

त्रिल
संज्ञा पुं० [सं०] नगण, जिसमें तानों वर्ण लघु होते हैं ।

त्रिलघु
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगण, जिसमें तीनों वर्ण लघु होते हैं । २. वह पुरुष जिसकी गर्दन, जाँघ और मूत्रेंद्रिय छोटी हो । पुरूष के लिये ये लक्षण शुभ माने जाते हैं ।

त्रिलवण
संज्ञा पुं० [सं०] सेंधा, साँसर और सोचर (काला) । नमक ।

त्रिलिंग
संज्ञा पुं० [हिं० तैलंग] तैलंग शब्द का बनावटी संस्कृत रूप ।

त्रिलोक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग, मर्त्य और पाताल ये तीनों लोक । यौ०—त्रिलोकनाथ । त्रिलोकपति ।

त्रिलोकनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीनों लोकों का मालिक या रक्षक, ईश्वर । २. राम । ३. कृष्ण । ४. विष्णु का कोई अवतार । ५. सूर्य ।

त्रिलोकपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिलोकनाथ' ।

त्रिलोकमणि
संज्ञा पुं० [?] सूर्य । उ०—निरबीज करूँ राकस निकर, मेटूँ फिकर त्रिलोकमणि ।—रघु० रू०, पृ० ४८ ।

त्रिलोकी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिलोक' ।

त्रिलोकीनाथ
संज्ञा पुं० [ हिं० त्रिलोकी + नाथ] दे० 'त्रिलोकनाथ' ।

त्रिलोकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईश्वर । २. सूर्य ।

त्रिलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

त्रिलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिलोचनी' ।

त्रिलोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । २. व्यभिचारिणी (को०) ।

त्रिलोह
संज्ञा पुं० [सं०] सोना, चाँदी और ताँबा ।

त्रिलोहक
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिलोह [को०] ।

त्रिलौह
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिलोह [को०] ।

त्रिलौही
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक प्रकार की मुद्रा जो सोने, चाँदी और ताँबे को मिलाकर बनाई जाती थी ।

त्रिवट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिवण' ।

त्रिवण
संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जो दोपहर के समय गाया जाता है । विशेष—इसे कुछ लोग हिंडोल राग का पुत्र मानते हैं ।

त्रिवणी
संज्ञा पुं० [?] एक संकर रागिनी जो संकराभरण, जयश्री और नरनारायण के मेल से बनती है ।

त्रिवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्थ, धर्म और काम । २. त्रिफला । ३. त्रिकुटा । ४. वुद्धि, स्थिति और क्षय । ५. सत्व, रज और तम ये तीनों गुण । ६. ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों प्रधान जातियाँ । ७. सुगति । ८. गायत्री ।

त्रिवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट [को०] ।

त्रिवर्ण (२)
वि० तीन रंगवाला [को०] ।

त्रिवर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोखरू । २. त्रिफला । ३. त्रिकुटा । ४. काला, लाल और पीला रंग । ५. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों प्रधान जातियाँ ।

त्रिवर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनकपास ।

त्रिवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मोती । विशेष—कहते हैं, जिसके पास यह मोती होता है उसकी दरिद्र कर देता है ।

त्रिवर्त्मा (१)
वि० [सं० त्रिवर्त्मन्] तीन मार्गो से जानेवाला [को०] ।

त्रिवर्त्मा (२)
संज्ञा पुं० जीव [को०] ।

त्रिवलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिबली' ।

त्रिवलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिबली' ।

त्रिवली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिबली' ।

त्रिवल्य
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था ।

त्रिवार
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम ।

त्रिवाहु
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार के ३२ हाथों में से एक हाथ ।

त्रिविक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वामन का अवतार । २. विष्णु ।

त्रिविदु
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने तीनों वेद पढ़े हों ।

त्रिबिद्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो तीनों वेदों का ज्ञाता हो [को०] ।

त्रिविध (१)
वि० [सं०] तीन प्रकार का । उ०—त्रिविध ताप त्रासक त्रिमुहानी । राम स्वरूप सिंधु समुहानी ।—तुलसी (शब्द०) ।

त्रिविध (२)
क्रि० वि० [सं०] तीन प्रकार से ।

त्रिविनत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसमें देवता, ब्राह्मण और गुरू के प्राति बहुत श्रद्रा और भक्ति हो ।

त्रिविष्टप
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग । २. तिव्वत देश ।

त्रिविस्तीर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरूष जिसका ललाट, कमर और छाती ये तीनों अंग चोड़े हो । विशेष—ऐसा मनुष्य भाग्यवान् समझा जाता है ।

त्रिवृत (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रिवृत्] १. एक प्रकार का यज्ञ । २. निसोथ ।

त्रिवृत (२)
संज्ञा स्त्री० तीन लड़ों की करधनी [को०] ।

त्रिवृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिवृत' ।

त्रिवृत्करण
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि, जल और पृथ्वी इन तीनों तत्वों मे से प्रत्येक में शेष दोनों तत्वों का समावेश करके प्रत्येक की अलग अलग तीन भागों में विभक्त करने की क्रिया । विशेष—इस विचारपद्धति के अनुसार प्रत्येक तत्व में शेष तत्वों भी समावेश माना जाता है । उदाहरण के लिये अग्नि को लीजिए । अग्नि में अग्नि, जल और पृथ्वी का समावेश माना जाता है; और इन तीनों तत्वों के अस्तित्व के प्रमाणस्वरूप अग्नि की ललाई, सफेदी और कालिमा उपस्थित की जाती है । अग्नि की ललाई उसमें अग्नितेज के होने का, उसकी सफेदी उसमें बल के होने का और उसमें की कालिमा उसमें पृथ्वी तत्व होने का प्रमाण माना जाता है । छांदोग्योपविषद् के छठे प्रपाठक के चोथे खंड में इसका पूरा विवरण दिया हुआ है । जान पड़ता है, उस समय तक लोगों को केवल तीन ही तत्वों का ज्ञान हुआ था और पीछे से जब और दो तत्वों का ज्ञान हुआ तब तत्वों के पंचीकरणवाली पद्बति निकली ।

त्रिवृत्त
वि० [सं०] तिगुना ।

त्रिवृत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिवृत्ति' ।

त्रिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ ।

त्रिवृत्पर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरहर । हिलमोचिका ।

त्रिवृद्बेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋक्, यजु और साम ये तीनों वेद । २. प्रणव ।

त्रिवृष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानूसार ग्यारहवें द्बापर के व्यास का नाम ।

त्रिवेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीन नदियों का संगम । २. तीन नदियों की मिली हुई धारा । ३. गंगा, यमुना और सरस्वती का संगमस्थान जो प्रयाग में है । विशेष—यह तीर्थस्थान मान जाता है और वारुणी तथा मकर संक्राति आदि के अवसरों पर याहाँ स्नान करनेवालों की बहुत भीड़ होती है । ४. हठयोग के अनुसार इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना इन तीनों वाड़ियों का संगम स्थान ।

त्रिवेणु
संज्ञा पुं० [सं०] रथ के अगले भाग के एक अंग का नाम ।

त्रिवेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋक, यजु और साम ये तीनों वेद । २. इन तीनों बेदों में बतलाए हुए क्रम । ३. वह जो इन तीनों का ज्ञाता हो ।

त्रिवेदी
संज्ञा पुं० [सं० त्रिवेदिन्] १. ऋक्, यजु और साम इन तीन वेदों का जाननेवाला । २. ब्राह्मणों का एक भेद ।

त्रिवेनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिवेणी' ।

त्रिवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ ।

त्रिशंकु
संज्ञा पुं० [सं० तिशङ्कु] १. बिल्ली । २. जुगुनू । ३. एक पहाड़ का नाम । ४. पपीहा । ५. एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा का नाम जिन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की कामना से यज्ञ किया था पर जो इंद्र तथा दूसरे देवताओं के विरोध करने के कारण स्वर्ग न पहुँच सके । विशेष—रामायण में लिखा है कि सशरीर स्वर्ग पहुँचने की कामना से त्रिशांकु ने अपने गुरु वशिष्ठ से यज्ञ कराने की प्रार्थना की पर वशिष्ठ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार न की । इसपर वह वशिष्ठ के पुत्रों के पास गए; पर उन लोगों ने भी उनकी बात न मानी, उलटे उन्हें शाप दिया कि तुम चाँडाल हो लाओ । तदनुसार राजा चाँडाला होकर विश्वामित्र की शारण में पहुँचे और हाथ जोड़कर उनसे अपनी अभिआषा प्रकट की । इसपर विश्वामित्र ने बहुत से ऋषियों को बुलाकर उरसे यज्ञ करने के लिये कहा । ऋषियों ने विश्वामित्र के कोप से डरकर यज्ञ आरंभ किया जिसमें स्वयं विश्वामित्र अध्वर्यु बने । जब विश्वामित्र ने देवताओं को उनका हवि- र्भाग देना चाहा तब कोई देवता न आए । इसपर विश्वा- मित्र बहुत बिगड़े और केवल अपनी तपस्या के बल से ही त्रिशंकु को लशरीर स्वर्ग भेजने लगे । जब इंद्र ने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग की और लाते हुए देखा तब उन्होंने वहीं से उन्हें मर्त्यलोक की ओर लौटाया । त्रिशंकु जब उलटे होकर नीचे गिरने लगे तब बड़े जोर से चिल्लाए । विश्वामित्र ने उन्हें आकाश में ही रोक दिया और क्रुद्ब होकर दक्षिण की और दूसरे सप्तर्षियों ओर नक्षत्रों की रचना आरंभ की । सब देवता भयभीत होकर विश्वामित्र के पास पहुँचे । तब विश्वा- मित्र ने उनसे कहा कि मैने त्रिशुंकु को सशरीर स्वर्ग पहुँ- चाने की प्रतिज्ञा की है । अतः अब वह जहाँ के तहाँ रहेंगे और हमारे बनाए हुए सप्तर्षि और नक्षत्र उनके चारों ओर रहेंगे । देवताओं ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली । तब से त्रिशंकु वहीं आकाश में नीचे सिर किए हुए लटके हैं और नक्षत्र उनकी परिक्रमा करते हैं । लेकिन हरिवंश में लिखा है कि महाराज त्रयारुण का सत्यव्रत नामक एक पुत्र बहुत ही पराक्रमी राजा था । सत्यव्रत ने एक पराई स्त्री को घर में रख लिया था । इससे पिता ने उन्हें शाप दे दिया कि तुम चांडाल हो जाओ । तदनुसार सत्यव्रत चांडाल होकर चांडालों के साथ रहने लगे । जिस स्थान पर सत्यव्रत रहते थे उसके पास ही विशवामित्र ऋषि भी वन में तपस्या करते थे । एक बार उस प्रांत में बारह बर्षा तक वृष्टि ही न हुई, इससे विश्वामित्र की स्त्री अपने बिचले लड़के को गले में बाँधकर सौ गायों को बेचने निकली । सत्यव्रत ने उस लड़के को ऋषिपत्नी से लेकर उसे पालना आरंभ किया, तभी से उस लड़के का नाम गालव पड़ा । एक बार मास के अभाव के कारण सत्यव्रत ने वशिष्ठ की कामधेनु गौ को मारकर उसका मांस विश्वामित्र से लड़कों को खिलाया था और स्वयं भी खाया था । इसपर वशिष्ठ ने उनसे कहा कि एक तौ तुमने अपने पिता को असंतुष्ट किया, दूसरे अपने गुरु की गौ मार डाली और तीसरे उसका मांस स्वर्य खाया और ऋषिपुत्रों को खिलाया । अब किसी प्रकार तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती । सत्यव्रत ने ये तीन महापातक किए थे, इसी से वह त्रिशंकु कहलाए । उन्होंने विश्वामित्र की स्त्री और पुत्रों की रक्षा की थी इसलिये ऋषि ने उनसे वर माँगने के लिये कहा । सत्यव्रत ने सशरीर स्वर्ग जाना चाहा । विश्वा- मित्र ने पहले तो उनकी यह बात मान ली, पर पीछे से उन्होंने सत्यव्रत को उनके पैतृक राज्य पर अभिषिक्त किया और स्वयं उनके पुरोहित बने । सत्यव्रत ने केकय वंश की सप्तरथा नामक कन्या से विवाह किया था जिसके गर्भ से प्रसिद्ध सत्यव्रती महाराज हरिशचंद्र ने जन्म लिया था । तैत्ति- रीय उपनिषद् के अनुसार त्रिशंकु अनेक वैदिक मंत्रों के ऋषि थे । ६. एक तारा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह वही त्रिशंकु है जो इंद्र के ढकेलने पर आकाश से गिर रहे थे और जिन्हें मार्ग में ही विश्वामित्र ने रोक दीया था ।

त्रिशंकुज
संज्ञा पुं० [सं० त्रिशङ्कृज] त्रिशंकु के पुत्र, राजा हरिश्चंद्र ।

त्रिशंकुयाजी
संज्ञा पुं० [सं० त्रिशङ्कुयाजिन्] त्रिशंकु को यज्ञ करानेवाले, विश्वामित्र ऋषि ।

त्रिशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इच्छा ज्ञान, और क्रिया रूपी तीनों ईश्वर शक्तियाँ । २. महत्तव्व जो त्रिगुणात्मक है । बुद्धितत्व । ३. तांत्रिकों की काली, तारा और त्रिपुरा ये तीनोंदेवियाँ । ४. गायत्री । यौ०—त्रिशक्तिधृत् ।

त्रिशक्तिधृत्
संज्ञा पुं० [सं०] परमेश्वर । २. विजिगीषु राजा का एक नाम ।

त्रिशत
वि० [सं०] तीन सौ [को०] ।

त्रिशरण
संज्ञा पुं० [सं०] १.बुद्ध । २. जैनियों के एक आचार्य का नाम ।

त्रिशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़, चीनी और मिस्त्री इन तीनों का समूह ।

त्रिशला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्तमान अवसर्पिणी के चोबीस तीर्थ- करों में से अंतिम तीर्थकर वर्धमान या महावीर स्वामी की माता का नाम ।

त्रिशाख
वि० [सं०] जिसमें आगे की ओर तीन शाखाएँ निकली हों ।

त्रिशाखपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बेल का पेड़ ।

त्रिशाल
संज्ञा पुं० [सं०] तीन कमरोंवाला मकान [को०] ।

त्रिशालक
संज्ञा पुं० [सं०] वृहत्संहिता के अनुसार वह इमारत जिसके उत्तर ओर और कोई इमारत न हो । विशेष—ऐसी इमारत अच्छी समझी जाती है ।

त्रिशिख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्रिशूल । २. किरीट । ३. रावण के एक पुत्र का नाम । ४. बेल का पेड़ । ५. तामस नामक मन्वंतर के इंद्र के नाम ।

त्रिशिख (२)
वि० जिसकी तीन शिखाएँ हों । तीन चोटियोंवाला ।

त्रिशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] वह पहाड़ जिसकी तीन चोटियाँ हों । त्रिकूट पर्वत ।

त्रिशिखदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालाकंद नाम की लता अथवा उसका कंद (मूल) ।

त्रिशिखी
वि० [सं०] दे० 'त्रिशिख' ।

त्रिशिर
संज्ञा पुं० [सं० त्रिशिरस्] १. रावण का एक भाई जो खर- दूषण के साथ दंडक वन में रहा करता था । २. कुबेर । ३. एक राक्षास जिसका उल्लेख महाभारत में है । ४. त्वष्टा प्रजा- पति के पुत्र का नाम । हरिवंश के अनुसार ज्वरपुरुष । विशेष—इसे दानवों के राजा बाण की सहायता के लिये महादेव जो ने उत्पन्न किया था और जिसके तीन सिर, तीन पैर, छह हाथ और नौ आँखे थीं ।

त्रिशिरा
संज्ञा पुं० [त्रिशिरस्] दे० 'त्रिशिर' ।

त्रिशीर्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन चोटीयोंवाला पहाड़ । त्रिकूट । त्वष्टा प्रजापति के पुत्र का नाम ।

त्रिशीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिशूल ।

त्रिशुच
संज्ञा पुं० [सं०] १.धर्म, जिसका प्रकाश स्वर्ग, अंतरिक्ष और पृथिवी तीनों स्थानों में है । २. वह जिसे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के दु; ख हों ।

त्रिशूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का अस्त्र जिसके सिरे पर तीन फल होते हैं । यह महादेव जी का अस्त्र माना जाता है । यौ०—त्रिशूलधर = महादेव । २. दैहिक, दैविक और भौतिक्र दुःख । ३. तंत्र के अनुसार एक प्रकार की मुद्रा जिसमें अंगूठे को कनिष्ठा उँगली के साथ मिलाकर बाकी तीनों अँगलीयों को फैला देते हैं ।

त्रिशूलधात
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ जहाँ स्नान और तर्पण करने से गाणपत्य देह प्राप्त होती है ।

त्रिशूलधारी
संज्ञा पुं० [सं० त्रिशूलधारिन्] शिव [को०] ।

त्रिशूली
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिशूलिन्] त्रिशूल को धारण करनेवाला, महादेव ।

त्रिशूली
संज्ञा स्त्री० दुर्गा ।

त्रिशृंग
संज्ञा पुं० [सं० त्रिश्रृङ्ग] १. त्रिकूट पर्वत जिसपर लंका बसी थी । २. त्रिकोण ।

त्रिशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिसङ्गी] टेगना नचली जिसके सिर पर तीर काँटे होते हैं ।

त्रिशोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीव, जिस आधिदैविक, आधिमौतिक, आध्यात्मिक ये तीन प्रकार के शोक होते हैं । २. कराव ऋषि के एक पुत्र का नाम ।

त्रिश्रुतिमध्वम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विकृत स्वर । विशेष—यह संदीपनी नाम की श्रुति से आरंभ होता है । इसमें चार श्रुतियाँ होती हैं ।

त्रिषरण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातः मध्याह्न और सायं ये तीनों काल । त्रिकाल ।

त्रिषष्ठ
वि० [सं०] तिरसठवाँ । क्रम में तिरसठ के स्थान पर पड़नेवाला ।

त्रिषष्ठि
संज्ञा स्त्री० [सं०] साठ और तीन की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६३ ।

त्रिषष्ठि (२)
वि० साठ और तीन । तिरसठ [को०] ।

त्रिषा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तृषा' । उ०—अमर भेद साहिब कहि दीजे । त्रिषा बुझाय अमीरस पीजे ।—कबीर सा०, पृ० ९९२ ।

त्रिषाली पु †
वि० [ हिं० त्रिषा] तुषातुर । प्यासा । उ०—पिछल्या रहे त्रिषाली अगल्यों आव मिल ।—नट० पृ० १६८ ।

त्रिषित पु
वि० [हिं०] दे० 'तृषित' । उ०—आतुर गति मनो चंद उदै भए धावत त्रिषित चकोरी ।—नंद० ग्रं०, ३३२ ।

त्रिषु
संज्ञा पुं० [सं०] तीन बाणों तक की दूरी का स्थान ।

त्रिषुक
संज्ञा पुं० [सं०] तीन बाणोंवाला धनुष ।

त्रिषुपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिसुपर्ण' ।

त्रिष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की वैदिक अग्नि ।

त्रिष्टुप
संज्ञा पुं० [सं० त्रिष्टुप्] दे० 'त्रिष्टुभ्' ।

त्रिष्टुभ्
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ग्यारह अक्षर होते हैं । विशेष—इसका गोत्र कौशिक, वर्ण लोहित, स्वर धैवत, देवता इंद्र और उत्पत्ति प्रजापति के मांस से मानी जाती है । इसकेसुमुखी, इंद्रवज्रा, उर्पेद्रवज्रा, कीर्ति, वारणी, माला, शाला, हंसी, माया, जाया, बाला, आर्द्रा, भद्रा, प्रेमा, रामा, रथोद्धता, दोधक, ऋद्धि और सिद्धि या बुद्धि आदि प्रधान भेद हैं ।

त्रिष्टोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो क्षत्रधृति यज्ञ के पहले और पीछे किया जाता है ।

त्रिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] तीन पहियोंवाला रथ या गाड़ी ।

त्रिसंक
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिशंकु' । उ०—कमल भवाज त्रिसंक वह बध चम आदि सदैव । होहि हलंत कदापि नहि, आइ करे जो दैव ।—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५३४ ।

त्रिसंगम
संज्ञा पुं० [सं० त्रिसङ्गम] १. तीन नदियों के मिलन का स्थान । त्रिवेणी । २. किसी प्रकार की तीन चीजों का मेल ।

त्रिसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिसन्धि] एक प्रकार का फूल जो लाल, सफेद और काला तीन रंगों का होता है । इसे फगुनियाँ भी कहते हैं । वैद्यक में इसे रुचिकारक और कफ, खाँसी तथा त्रिदोष का नाशक माना है । पर्या०—सांध्यकुसुमा । संधिवल्ली । सदाफला । त्रिसंध्यकुसुमा । कांडा । सुकुमारा । संधिजा ।

त्रिसंध्य
संज्ञा पुं० [सं० त्रिसन्ध्य] प्रातः मध्याह्न् और सायं ये तीनों काल । विशेष—जो तिथि त्रिसंध्यव्यापिनी, अर्थात् सूर्यादय से लेकर सूर्यास्त तक रहती है वह सब कार्यों के लिये ठीक मानी जाती है ।

त्रिसंध्यकुसुम
संज्ञा पुं० [सं० त्रिसन्ध्यकुसुम] दे० 'त्रिसंधि' ।

त्रिसंध्यव्यापिनी
वि० स्त्री० [सं० त्रिसन्ध्यव्यापिनी] (वह तिथि) जो बराबर सूर्योदय से सूर्यास्त तक हो । विशेष—ऐसी तिथि शुद्ध और सब कामों के लिये ठीक मानी जाती है ।

त्रिसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिसन्ध्या] प्रातः, मध्याह्न और सायं ये तीनों संध्याएँ ।

त्रिसप्तति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्तर और तीन का जोड़ । तिहत्तर । २. तिहत्तर की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—७३ ।

त्रिसप्ततितम
वि० [सं०] तिहत्तरवाँ । जो क्रम में तिहत्तर के स्थान पर हो ।

त्रिसम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ, गुड़ और हड़ इन तीनों का समूह ।

त्रिसम (२)
वि० जिसकी तीनों भुजाएँ बराबर हों (ज्या०) ।

त्रिसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेसारी । २. तीन लड़ियों का मोतियों का हार (को०) । ३. दूध में मिलाकर पका हुआ तिल और चावल (को०) ।

त्रिसरैनु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रसरेणु] दे० 'त्रसरेणु' । उ०—उपजत भ्रमत फिरत गहिं चैनु । जैसें जालरंध्र । त्रिसरैनु ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७० ।

त्रिसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सत्व, रज और तम तीनों गुणों का सर्म । सृष्टि ।

त्रिसल पु †
संज्ञा स्त्री० [?] त्रिरेखा । त्रिपुंड । उ०—मन माया लालव लियाँ, त्रिसलो लियाँ लिलाट ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३६ ।

त्रिसामा (१)
संज्ञा पुं० [सं०त्रिसामन्] परमेश्वर ।

त्रिसामा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भागवत के अनुसार एक नदी जो महेंद्र पर्वत से निकलती है ।

त्रिसिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्रिशकंरा' ।

त्रिसुगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिसुगन्धि] दालचीनी, इलायची और तेजपात इन तीनों सुगंधित मसालों का समूह ।

त्रिसुद्ध पु
वि० [सं० त्रि + शुद्ध] तीनों तरह से शुद्ध । उ०—जूझै जू सुद्ध त्रिसुद्ध तौ स्वर्गापवगंहिं पावही ।—पझाकर ग्रं०, पृ० १५ ।

त्रिसुपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋग्वेद के तीन विशिष्ट मंत्रों का नाम । २. यजुर्वेद के तीन विशिष्ट मंत्रों का नाम ।

त्रिसुपर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जो त्रिसुपर्ण का ज्ञाता हो ।

त्रिसूल पु
संज्ञा पुं० [हिं० त्रिसल] चिंता या क्रोधावेश में ललाट पर उभड़ आनेवाली त्रिशूल की आकृति की रेखा । उ०— माथि त्रिसूलउ नाक सल, कोइ विणट्ठा कज्ज ।—ढोला०, दू० २१६ ।

त्रिसौपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्रिसुपर्णिक । २. परमेश्वर । परमात्मा ।

त्रिस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० त्रिस्कन्ध] ज्योतिष शास्त्र जिसके संहिता, तंत्र और होरा ये तीन स्कंध है ।

त्रिस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गायत्री । २. महाभारत के अनुसार एक राक्षसी जिसके तीन स्तन थे ।

त्रिस्तवन
संज्ञा पुं० [सं०] तीन दिनों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।

त्रिस्तावा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वमेध यज्ञ की वेदी जो साधारण वेदी से तिगुनी बड़ी होती थी ।

त्रिस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] काशी, गया और प्रयाग ये तीन पुण्य स्थान ।

त्रिस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों स्थानों में रहनेवाला, परमेश्वर ।

त्रिस्पृशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की एकादशी । विशेष—यह उस समय होती है जब एक ही सायन दिन में उदयकाल के समय थोड़ी सी एकादशी और रात के अंत में त्रयोदशी होती है । ऐसी एकादशी बहुत उत्तम और पुण्य कार्यों के लिये उपयुक्त मानी जाती है ।

त्रिस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] सबेरे, दोपहर और संध्या तीनों सम्य का स्नान । विशेष—यह वानप्रस्थ आश्रम में रहनेवाले के लिये आवश्यक है । कई प्रायश्चितों में भी त्रिस्नान करना पड़ता है ।

त्रिस्त्रोता
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रिस्त्रोतस्] १. गंगा । उ०—भस्म त्रिपुं— ड्रक शौभिजै वर्णत बुद्धि उदार । मनो त्रिस्रोता सोतद्युति वदंत लगी लिलार ।—केशव (शब्द०) । २. उत्तर बंगाल की एक बड़ी नदी जिसे तिस्ता कहते हैं ।

त्रिहायण
वि० [सं०] जिसकी अवस्था तीन वर्ष की हो [को०] ।

त्रिहायणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रौपदी ।

त्रिहूत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तिरहूत' ।

त्री पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रिया' । उ०—गुण गजबंध तणा कब गावै । दुंरस परायण स्त्री दरसावै ।—रा० रू०, पृ० १६ ।

त्री पु (२)
वि० [हिं०] दे० 'त्रि' । उ०—त्री अस्थान निरंतरि निरधार । तहँ प्रभु बैठे सभ्रथ सार ।—दादू०, पृ० ६७५ ।

त्रीकुटा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिकुटा' । उ०—मोथा और पटोल दल आनी । त्रिफला औ त्रीकृटा समानी ।—इंद्रा०, पृ० १५१ ।

त्रीगुन पु
वि० [सं० त्रिगुण] तिगुणा । उ०—इंद्र बीराइ बल इंद्र जोर । त्रीगुन विलास तन हरत रोर ।—पृ० रा०, ६ ।८० ।

त्रीघटना पु
क्रि० अ० [हिं० घटना] घटित होना । होना । उ०— पाथरी घड़ी यों कै त्रीघट लोह ।—बी० रासो, पृ० ६४ ।

त्रीछन पु
वि० [हिं०] दे० 'तीक्षण' । उ०—अगिनि तत्तुसुर ऊपर बहई । त्रीछन चाल पवन कर अहई ।—सं० दरिया, पृ० २५ ।

त्रीजइ पु
वि० [सं० तृतीय] दे० 'तीसरा' । उ०—त्रीजइ पुहरि उलाँघियउ, आउ वलारउ घट्ट ।—ढोला०, दू० ४२४ ।

त्रिस पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'तुषा' । उ०—भूख नहीं त्रीस ऊछली ।—बी० रासो, पृ० ६७ ।

त्रीयाँ पु
वि० [सं० त्रि] तीनों । उ०—मारू मारइ पहिपड़ा, जउ पहिरइ सोवन्न । दंती चूड़इ मोतियाँ, त्रीयाँ हेक वरन्न ।— ढोला०, दू० ४७५ ।

त्रुगटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] —दे० 'त्रिकुटी' । उ०—त्रुगुणी त्रुगटी मनकर अरधा संपट ध्यान धरीजै ।—रामानंद०, पृ० २७ ।

त्रुगुणी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रुगुणी' । उ०—त्रुगुणी त्रुगटी मनकर अरधा संपट ध्यान धरीजै ।—रामानंद०, पृ० २७ ।

त्रुटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमी । कसर । न्यूनता । २. अभाव । ३. भूल । चूक । ४. वचनभंग । ५. छोटी इलायची । एला । ६. संशय । संदेह । ७. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम । ८. समय का एक अत्यंत सूक्ष्म विभाग जो दो क्षणी के बराबर और किसी के मत से प्रायः चार क्षण के बराबर होता है ।

त्रुटित
वि० [सं०] १. कटा या टूटा हुआ । २. जिसपर आघात लगा हो । ३. आहत ।

त्रुटिबीज
संज्ञा पुं० [सं०] अरुई । कच्चू । धुइँया ।

त्रुटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'त्रुटि' ।

त्रुटी पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रुटि' । उ०—त्रुटी परे है या मेरा मैय जीवरो बहु दुख पावै ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५१ ।

त्रुटना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'टूटना' । उ०—संगेसउ जिन पाठवइ, मरिस्यऊँ हीया फूटि । पारेवा का झूल जिउँ, पड़िनई आँगणि त्रूटि ।—ढोला०, दू० १४३ ।

त्रेटकु पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्राटक' । उ०—त्रेटकु भेष न चेटकु कोई ।—प्राण०, पृ० ११० ।

त्रेटना पु †
क्रि० अ० [सं० त्रुटि] तोड़ना । चोट मारना । उ०— कंटक काल फिरि कदे न त्रेटे ।—प्राण०, पृ० १०९ ।

त्रेता
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार युगों में से दूसरा युग जो १२९६०० वर्ष का होता है । विशेष—पुराणानुसार इस युग का जन्म अथवा आरंभ कार्तिक शुक्ला नवमी को होता है । इस युग में पुराण के तीन पाद और पाप का एक पाद होता है और सब लोग धर्मपरायण होते हैं । पृराणानुसार इस युग में मनुष्यों की आयु दस हजार वर्ष तथा मनु के अनुसार तीन सौ वर्ष होती है । परशुराम और रघुवंशी राम के अवतार का इसी युग में होना माना जाता है । मुहा०—त्रेता के बीजों में मिलना = सत्यानाश होना । नष्ट होना । (एक शाप) । २. दक्षिण, गर्हपत्य और आहवनीय, ये तीनों प्रकार की अग्नियाँ । ३. जुए में तीन कोड़ियों का अथवा पासे के उस भाग का चित पड़ना जिसपर तीन बिंदियाँ हों ।

त्रेताग्नि
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण, गाहँपत्य और आहवनीय ये तीनों प्रकार की अग्नियाँ ।

त्रेतायुग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रेता' ।

त्रेतायुगाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिक शुक्ला नवमी, जीस दिन त्रेता का जन्म या आरंभ होना माना जाता है । विशेष—इसकी गणना पुराय तिथियों में है ।

त्रेतिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह क्रिया जो दक्षिण, गर्हपत्य और आहवनीय तीनों प्रकार की अग्नियों से हो ।

त्रेधा
क्रि० वि० [सं०] तीन प्रकार से अथवा तीन भागों में [को०] ।

त्रेन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तृण' । उ०—नैहर नेह नहि त्रेन तन तोरो । पुष्प पलंग पर प्रेम प्रिति जोरो ।—सं० दरिया, पृ० १७२ ।

त्रै
वि० [सं० त्रय] तीन । उ०—ज्यों अति प्यासी पावै मग में गंगाजल । प्यास न एक बुझाय बुझँ त्रै ताप बल ।—केशव (शब्द०) । यौ०—त्रैकालिक ।

त्रैकंटक
संज्ञा पुं० [सं० त्रैकण्टक] दे० 'त्रिकंटक' ।

त्रैककुद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिककुद्' ।

त्रैककुभ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिककुभ' ।

त्रैकालज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिकालज्ञ' ।

त्रैकालिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० त्रैकालिकी] वह जो त्रिकाल में होता हो । तीनों कालों में या सदा होनेवाला ।

त्रैकाल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीन काल—भूत, वर्तमान औरभविष्यत् । २. सूर्याद, अपराह्न और सुर्यास्त । ३. तीन का समूह । ४. तीन दशाएँ—उत्पात्ति, रक्षण और विनाश [को०] ।

त्रैकूटक
संज्ञा पुं० [सं०] कलचूरी राजवंश के समय का एक प्राचीन राजवंश ।

त्रैकोणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसके तीन पार्श्व हों । तिपहला । २. वह जिसके तीन कोण हों ।

त्रैकोन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रिकोण' । उ०—मध्यचरन त्रैकोन है अमृत कलश कहूँ देख ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३३ ।

त्रैगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्रिगर्त देश का रहनेवाला । २. त्रिगर्त देश का राजा ।

त्रैगुणिक
वि० [सं०] १. तेहरा । तीनगुना । २. तीन गुणों से संबंधित [को०] ।

त्रैगुण्य
संज्ञा पुं० [सं०] त्रिगुण का धर्म या भाव । सत्व, रज और तम इन तीनें गुणों का धर्म या भाव ।

त्रैता पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रेता' । उ०—त्रैता राम रूप दशरथ गृह रावन कुलहि सँघारयो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १६२ ।

त्रैदशिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उँगली का अगला भाग, जो तीर्थ कहलाता है ।

त्रैदशिक (२)
वि० १. ईश्वरीय । २. देवताओं से संबंधित [को०] ।

त्रैध
वि० [सं०] तेहरा । तिगुना [को०] ।

त्रैधातवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ ।

त्रैपन पु
वि० [हिं०] दे० 'तिरपन' । उ०—हवसीह संग त्रैपन हजार । कर धरें कहर कर्ता बजार । पृ० रा०, १३ । १७ ।

त्रैपुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्रिपुर' ।

त्रैपुरुष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० त्रैपुरुषी] पुरुषों की तीन पीढ़ी तक चलनेवाला [को०] ।

त्रैफल
संज्ञा पुं० [सं०] चक्रदत्त के अनुसार वैद्यक में एक प्रकार का घृत जो त्रिफला आदि के संयोग से बनाया जाता है और जिसका व्यवहार प्रदर आदि रोगों में होता है ।

त्रैबलि
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जिनका उल्लेख महाभारत में है ।

त्रैमातुर
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मण । विशेष—लक्ष्मण जी सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे पर सुमित्रा ने चरु का जो अंश खाया था वह पहले कौशल्या और केकयी को दिया गया था और उन्हीं दोनों से सुमित्रा को मिला था, इसीलिये लक्ष्मण का नाम त्रैमातुर पड़ा ।

त्रैमासिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० त्रैमासिकी] हर तीसरे महीने होनेवाला । जो हर तीसरे महीने हो । जैसे, त्रैमासिक पत्र ।

त्रैमास्य
संज्ञा पुं० [सं०] तीन महीने का समय [को०] ।

त्रैयंबक (१)
संज्ञा पुं० [सं० त्रैयम्बक] एक प्रकार का होम ।

त्रैयंबक (२)
वि० [सं०] त्र्यंबक संबंधी । जैसे, त्रैयंबक बलि ।

त्रैयंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० त्रयम्बिका] गायत्री ।

त्रैराशिक
संज्ञा पुं० [सं०] गणित की एक क्रिया जिसमें तीन ज्ञात राशियों की सहायता से चौथी अज्ञात राशि का पता लगाया जाता है ।

त्रैलोक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०] ।

त्रैलोक (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'त्रैलोक्य' ।

त्रैलोक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग मर्त्य और पाताल ये तीनों लोक । २. २१ मात्राओं का कोई छंद ।

त्रैलोक्यकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० त्रैलोक्यकर्तृ] शिव [को०] ।

त्रैलोक्यचिंतामणि
संज्ञा पुं० [सं० त्रैलोक्यचिन्तामणि] १. वैद्यक में एक प्रकार का रस जो सोने, चाँदी और अभ्रक के मेल से बनाया जाता है । विशेष—इसका व्यवहार क्षय, खाँसी, प्रमेह, जीर्णज्वर और उन्माद आदि रोगों में किया जाता है । २. वैद्यक में एक प्रकार का रस जो हीरे, सोने और मोती के संयोग से बनाया जाता है ।

त्रैलोक्यनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] राम [को०] ।

त्रैलोक्यबंधु
संज्ञा पुं० [सं० त्रैलोक्यबन्धु] सूर्य [को०] ।

त्रैलोक्यविजया
संज्ञा स्त्री० [सं०] भंग ।

त्रैलोक्यसुंदर
संज्ञा पुं० [सं० त्रैलोक्यसुन्दर] वैद्यक में एक प्रकार रस जो पारे, अभ्रक, लोहे आदि के संयोग से बनाया जाता है । विशेष—इसका व्यवहार शोथ, पांड और ज्वरातिसार आदि रोगों में होता हैं ।

त्रैवर्गिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० त्रैवर्गिकी] वह कर्म जिससे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की साधना हो ।

त्रैवर्ण
वि० [सं०] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णो से संबंधित [को०] ।

त्रैवर्णिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० त्रैवर्णिका] ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों जातियों का धर्म ।

त्रैवर्णिक (२)
वि० [सं०] तीन वर्ण संबंधी ।

त्रैवर्षिक
वि० [सं०] तीन वर्ष का [को०] ।

त्रैवार्षिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० त्रैवार्षिकी] जी तीन वर्षा में अथवा हर तीसरे वर्ष हो । तीन वर्ष संबंधी ।

त्रैविक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० त्रैविक्रमी] विष्णु ।

त्रैविद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. तीनों वेदों को जाननेवाला मनुष्य । २. तीनों वेद (को०) । ३. तीन वेदों का अध्ययन (को०) । ४. तीन वेदों को जाननेवाले ब्राह्मणों की मंडली (को०) ।

त्रैविष्टप
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग में रहनेवाले देवता ।

त्रैविष्टपेय
संज्ञा पुं० [सं०] देवता [को०] ।

त्रैवेदिक
वि० [सं०] तीन वेदों संबंधी [को०] ।

त्रैशंकध
संज्ञा पुं० [सं० त्रैशङ्कव] त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र [को०] ।

त्रैसत पु
वि० [सं० त्रि + हिं० सात] तीन और सात का योग । दस । उ०—त्रैसत अंगुल अंदरि तैसानु ।—प्राण, पृ० ८८ ।

त्रैसाणु
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार तुर्व्वसु वंश के राजा गोभानु के पुत्र का नाम ।

त्रैस्वर्य
संज्ञा पुं० [सं०] उदात्त अनुदात्त, और स्वरित तीनों प्रकार के स्वर ।

त्रैहायण
संज्ञा पुं० [सं०] तीन वर्ष का समय [को०] ।

त्रोटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाटक का एक भेद जिसमें ५, ७, ८ या ९ अंक होते हैं और प्रत्येक अंक में विदूषक रहता है । यह नाटक शृंगाररसप्रधान होता है और इसका नायक कोई दिव्य मनुष्य होता है । २. एक राग का नाम (संगीत) ।

त्रोटकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की रागिनी (संगीत) ।

त्रोटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कायफल । २. चोंच । ३. एक प्रकार की चिड़िया । ४. एक प्रकार की मछली ।

त्रोटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टोंटी । टूँटी । २. दे० 'त्रोटि' ।

त्रोण
संज्ञा पुं० [सं०] तरकश ।

त्रोतल
वि० [सं०] तोतला । जो बोलने में तुतलाता हो ।

त्रोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त्र । २. चाबुक । ३. एक प्रकार का रोग ।

त्रोदश पु
वि० [हिं०] दे० 'त्रयोदश' । उ०—त्रोदश रानिन सो मत कियऊ ।—कबीर सा०, पृ० २६५ ।

त्र्यंगट
संज्ञा पुं० [सं० त्र्यङ्गट] १. ईश्वर । २. चंद्रमा । ३. छीका । सिकहर ।

त्र्यंगुल
वि० [सं० त्र्यङ्गृल] जिसकी लंबाई तीन अंगुल हो [को०] ।

त्र्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० त्र्यञ्जन] कालांजन, रसांजन और पुष्पांजन ये तीनों अंजन । काला सुरमा, रसौत और वे फूल जो अंजनों में मिलाए जाते हैं, जैसे, चमेली, तिल, नीम लौंग, अगस्त्य इत्यादि ।

त्र्यंबक
संज्ञा पुं० [सं० त्र्यम्बक] १. शिव । महादेव । २. ग्यारह रुद्रो में से एक रुद्र ।

त्र्यंबकसख
संज्ञा पुं० [सं० त्र्यम्बकसख] कुबेर ।

त्र्यंबका
संज्ञा स्त्री० [सं० त्र्यम्बका] दुर्गा, जिसके सोम, सूर्य और अनल ये तीनों नेत्र माने जाते हैं ।

त्र्यंबुक
संज्ञा पुं० [सं० त्र्यम्बुक] एक प्रकार की मक्षिका [को०] ।

त्र्यत्क्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । महादेव । २. एक दैत्य जिसका उल्लेख भागवत में है ।

त्र्यत्क्ष (२)
वि० [सं०] जिसकी तीन आँखें हों । तीन नेत्रोंवाला ।

त्र्यत्क्षक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव [को०] ।

त्र्यत्क्षर
वि० [सं०] दे० 'त्र्यक्षरक' ।

त्र्यत्क्षरक (१)
वि० [सं०] तीन अक्षरों का । जिसमें तीन अक्षर हों ।

त्र्यक्षरक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रणव । २. तंत्र में वह यंत्र जिसमें तीन अक्षर हों । ३. एक प्रकार का वैदिक छंद ।

त्र्यत्क्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी का नाम ।

त्र्यधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] तीनों लोकों के स्वामी, विष्णु ।

त्र्यध्वगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

त्र्यमृतयोग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का योग जो कुछ विशिष्ट तिथियों, नक्षत्रों ओर वारों के संयोग से होता है । विशेष— यदि रवि या मंगलवार को प्रतिपदा, षष्ठी या एकादशी तिथि और स्वाती, शतभिषा, आर्द्रा, रेवती, चित्रा, अश्लेषा या मूल नक्षत्र हो, शुक्र अथवा सोमवार को द्बितीया , सप्तमी या द्बादशी तिथि और भद्रा, पूर्वाफाल्गुणी, पूर्वभाद्रपद या उत्तर भाद्रपद नक्षत्र हो, बुघवार को तुतीया, अष्ठमी या त्रयोदशी तिथि और मृगशिरा, श्रवण, पृष्य, ज्येष्ठा, भरणी, अभिजिन् या अश्विनी नक्षत्र हो, बृहस्पतिवार को चतुर्थी, नवमी या चतुर्दशी तिथि और उत्तराषाढ़ा, विशाखा , अनुराधा, मघा या पुनर्वसु नक्षत्र हो अथवा शनिवार को पंचमी, दशमी , अमावस्या या पूर्णिमा तिथि और रोहिणी, हस्त य़ा घनिष्ठा नक्षत्र हो तो त्र्यमृत योग होता है । यह योग यात्रा के लिये बहुत उत्तम समझा जाता है और इससे व्यतीपात आदि का दोष भी नष्ट हो जाता है ।

त्र्यवरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीन सदस्यों की शासक सभा । वि० दे० 'दशावरा' । विशेष— मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक ने तीन सभ्यों से ऋग्वेदी, यजुवेंदी और सामवेदी का तात्पर्य लिया है ।

त्र्यशीत
वि० [सं०] क्रम में तिरासी के स्थान पर पड़नेवाला । तिरासिवाँ ।

त्र्यशीति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अस्सी और तीन का जोड़ा । तिरासी । २. तिरासी को सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखौ जाती है०— ८३ ।

त्र्यशिति (२)
वि० अस्सी और तीन । तिरासी [को०] ।

त्र्यश्र (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिकोण । त्रिभुज [को०] ।

त्र्यश्र (२)
वि० तीन कोणवाला [को०] ।

त्र्यस्त्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिकोण ।

त्र्यह
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीन दिन । तीन दिनों का समूह [को०] ।

त्र्यहस्पर्श
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सावन दिन जिसे तीन तिथियाँ स्पर्श करती हों ।

त्र्यहस्पृश्
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तिथि यो तीन सावन दिनों तको स्पर्श करती हो । विशेष— ऐसी तिथि विवाह या यात्रा आदि के लिये निषिद्ब है पर स्नान दान आदि के लिये अछ्ची मानी जाती है ।

त्र्यहिकारिरस
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जिसमें प्रधानतः पारा, गंधक, तूतिया और शंख पड़ता है । विशेष— इसका व्यवहार तिजारी ज्वर में होता है ।

त्र्यहीन
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीन दिनों में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ ।

त्र्यहैहिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गृहस्थ जिसके यहाँ तीन प्रवर हों । त्रिप्रवर हों गोत्र । २. अंधा, बहरा और गूँगा । विशेष— इन तीनों को यज्ञ में जाने का अधिकार नहीं है ।

त्र्याहण
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार के पक्षी ।

त्र्याहिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हर तीसरे दिन आनेवाला ज्वर । तिजारी ।

त्र्याहिक (२)
वि० तीन दिनों में होनेवाला ।

त्र्युषण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्र्यूषण' [को०] ।

त्र्यूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोंठ, पीपल और मिर्च । त्रिकृटा । २. चरक के अनुसार एक प्रकार का घृत जो इन ओषधियों के मेंल से बनाया जाता है ।

त्र्योदशी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'त्रयोदशी' । उ०— कृष्न. पच्छ तिथि त्र्योदशी, भौमवार जुत जानि । —ब्रज, पृ०, १२ ।

त्वं पु
सर्व० [सं० त्वम्] तू । तुम । उ०— तत पद त्वं पद और असी पदा, बाच लच्छ पहिचाने ।—कबीर श०, पृ०, ६६ ।

त्वंमय
वि० [सं०] चमड़े या छाल का बना हुआ [को०] ।

त्वक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिलका । छाल । २. त्वचा । चमड़ा । खाल । उ०— कोमलता त्वक् जानत है पुनि, बोलत है मुख सबद उचारो ।— संतवाणी०, पृ १११ । ३. पाँच ज्ञानेद्रियों में से एक जो सारे शरीर के ऊपरी भाग में व्याप्त है । विशेष— इसके द्बारा स्पर्श होता है तथा कड़े और नरम, ठंढे और गरम आदि का ज्ञान प्राप्त किया जात है । हमारे यहाँ प्राचीन ऋषियों ने इसे वायु के सत्वाश से उत्पन्न माना है और इसका देवता वायु बतलाया है । ४. दारचीनी ।

त्वक्कंड़ुर
संज्ञा पुं० [सं० त्वक्क्णड़ुर] घाव [को०] ।

त्वक्त्क्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्वक्क्षीरी' ।

त्वक्त्क्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन ।

त्वकछेद
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरीश बृक्ष । क्षीर । कंचुकी ।

त्वकछे्दन
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े को काटना [को०] ।

त्वकतरंगक
संज्ञा पुं० [सं० त्वकतरङ्गक] झुर्री [को०] ।

त्वकपंचक
संज्ञा पुं० [सं० त्वकपञ्चक] ब़ड़, गूलर, अश्वत्थ, सीरिस और पाकर ये पाँचों बृक्ष । विशेष— वैद्यक में इन पाँचों का छाल का समुह शीतल, लघु, तिक्त तथा व्रण ओर शोथ आदि का नाशक माना जाता है ।

त्वकपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेजपत्ता । २. दारचीनी [को०] ।

त्वकपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिंगुपत्री । २. कदलीस्तंभ । केले का पेड़ ।

त्वकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्वकपत्री' [को०] ।

त्वकपाक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें पित्त और रक्त के कुपित होने से शरीर में फुंसियाँ निकल आती हैं ।

त्वकपारुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े का रुखापन [को०] ।

त्वकपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेहुआँ रोग । २. रोमांच । रोएँ खड़े हो जाना ।

स्वकपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्वकपुष्प' ।

त्वकपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्वकपुष्प' ।

त्वकसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँस । २. दारचीनी । ३. सन का वृक्ष ।

त्वकसारभेदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा चेच ।

त्वकसारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन ।

त्वकसुगंध
संज्ञा पुं० [सं० त्वकसुगन्ध] नारंगी [को०] ।

त्वकसुगंधा
संज्ञा पुं० [सं० त्वकसुगन्धा] १. एलुवा । २. छोटी इलायची ।

त्वगंकुर
संज्ञा पुं० [सं० त्वगङ्कृर] रोमांच ।

त्वग्
संज्ञा पुं० [सं०] 'त्वक्' का समासगत रुप [को०] ।

त्वगाक्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बंसलोचन ।

त्वर्गोद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० त्वगिन्द्रिय] स्पर्शिद्रिय [को०] ।

त्वग्गंध
संज्ञा पुं० [सं० त्वग्गन्ध] नारंगी का पेड़ ।

त्वग्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोम । रोआँ । २. रक्त ।लहु ।

त्वग्जल
संज्ञा पुं० [सं०] पसीना [को०] ।

त्वग्दोष
संज्ञा पुं० [सं०] कोढ़ । कुष्ट ।

त्वग्दोषापहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची । बाबची ।

त्वग्दोषारि
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिकंद ।

त्वग्दोषी
संज्ञा पुं० [सं०त्वग्दोषिन्] कोढी । जिसे कुष्ट रोग हो ।

त्वग्भेद
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़ा काटना । चमड़े को छीलकर निकालना [को०] ।

त्वच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमड़ा । २. छाल । वल्कल । ३. दारचीनी । ४. साँप की केंचुली । ५. त्वक् इंद्रिय । दे० 'त्वक्' ।

त्वच्
संज्ञा पुं० [सं०] १. दारचीनी । २. तेजरत्ता । ३. छाल (को०) ।

त्वचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाल से ढ़ाँकना । २. खाल उतारना । [को०] ।

त्वचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्वक् । चर्म । चमड़ा ।

त्वचापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तेजपत्ता । २. दारचीनी । ३. छाल (को०) ।

त्वचिसार
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस ।

त्वचिसुगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं०त्वचिसुगन्धा] छोटी इलायची ।

त्वदीय
सर्व० [सं०] [स्त्री, त्वदीया] तुम्हारा ।

त्वन्नि?सृत
वि० [सं० त्वत्+नि?ससृत] तुम से निकाला हुआ । उ०— सुख चला है संचित त्वन्नि?सृत नेह अमिय—क्वासि, पृ०, ३४ ।

त्वम्
सर्व० [सं०] तुम [को०] ।

त्वर
क्रि० वि० [सं०] शीघ्रतापूर्वक । वेग से [को०] ।

त्वरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'त्वरा' [को०] ।

त्वरणीय
वि०[सं०] जिसे शीघ्रता से किया जाय । जिसके करने के लिये शीघ्रता की अपेक्षा हो [को०] ।

त्वरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेग । शीघ्रता [को०] ।

त्वरा
संज्ञा स्त्री [सं०] शीघ्रता । जल्दी ।

त्वरारोह
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर [को०] ।

त्वरावान्
वि० [सं० त्वरावत्] [वि० स्त्री० त्वरावती] १, शीघ्रगामी ।२. शीघ्रता करनेवाला । काम को जल्दी करनेवाला । ३. फुँर्ताला । तेज [को०] ।

त्वरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'त्वरा' ।

त्वरित (१)
वि० [सं०] वि० स्त्री० त्वरिता । तेज ।

त्वरित (२)
क्रि० वि० शीघ्रता से । उ०— त्वरित आरती ला, उतार लूँ । पद द्दगंबु से मै पखार लूँ ।— साकेत , पृ०, ३१० ।

त्वरितक
संज्ञा पुं० [सं०] सूश्रुत के अनुसार एक प्रकार का चावल जिसे तुर्णाक भी कहते हैं ।

त्वरितगती
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वर्णावृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में नहण, जरण, नगण और एक गुरु होता है । इसका दूसरा नाम 'अमृता ति' भी है । जैसे— निज नग खोजत हर जू । पयसित लक्षमि वरजु । (शब्द०) २. तेज चाल ।

त्वरिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक देवी जिसकी पूजा युद्ब में विजय प्राप्त करने के लिये की जाती है ।

त्वलग
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का साँप ।

त्वष्टा
संज्ञा पुं० [सं० त्वष्ट्ट] १. विश्वकर्मा । विष्णुपुराण के अनुसार से सूर्य के सात सारथियों में से एक हैं । २. महादेव । शिव । ३. एक प्रजापति का नाम । ४. बढ़ई । ५. वृत्रासुर के पिता का नाम । ६. बारह आदित्यों में से ग्यारहवें आदित्य जो आँख के अधिष्ठाता देवता माने जाते हैं । ७. एक वैदिक देवता जो पशुओँ और मनुष्यों के गर्भ में वीर्य का विभाग करनेवाले माने जाते हैं । ८. सूत्पधर नाम की वर्णसंकर जाति । ९. चित्रा नक्षत्र के अधिष्ठाता देवता का नाम ।

त्वष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनु के अनुसार एक संकर जाति । २. बढ़ई का धंधा (को०) ।

त्वष्टर
संज्ञा स्त्री० [सं० त्वष्ट] दे० 'त्वष्टा' । उ०— हे त्वष्टर । इसको संतान दो ।— हिदुं सभ्यता, पृ० ८१ ।

त्वाच
वि० [सं०] [वि० स्त्री० त्वाची] त्वचा से संबंधित [को०] ।

त्वाष्टी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा ।

त्वष्ट्रा
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्वष्टा (विश्वकर्मा) का बनाया हुआ हथियार, वज्र । २. वृत्रासुर का एक नाम । ३. चित्रा नक्षत्र ।

त्वाष्ट्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] विश्वकर्मा की कन्या संज्ञा का एक नाम । जो सूर्य को ब्याही थी और जिसके गर्भ से अश्विनीकुमार का जन्म हुआ था । २. चित्रा नक्षत्र ।

त्विट्पति
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।

त्विष्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीव्र आंदोलन । २. प्रचंड़ता । ३. घबड़हट । परेशानी । ४. वाणी । ५. सौदर्य । ६. प्रभा । चमक [को०] ।

त्विषांपति
संज्ञा पुं० [सं० त्विषाम्रपति] सूर्य [को०] ।

त्विषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रभा । दीप्ति । तेज ।

त्विषामोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. आक का पेड़ ।

त्विषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किरण । २. शक्ति (को०) ३. चमक । प्रभा । (को०) । ४. ओज । तेज प्रताप (को०) ।

त्वेष
वि० [सं०] तेजस्वी । चमकता हुआ । आभामय [को०] ।

त्वेष्य
वि० [सं०] डरावना । भयावना [को०] ।

त्सरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. तलवार का मूठ । २. सर्प ।

त्सरुमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार की लड़ाई [को०] ।

त्सारुक
संज्ञा पुं० [सं०] लह जो तलवार चलाने में निपुण हो ।