विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/प्रा

विक्षनरी से

प्रांग
संज्ञा पुं० [सं० प्राङ्ग] एक प्रकार का छोटा का छोटा पणव या ढोल [को०]।

प्रांगण
संज्ञा पुं० [सं० प्राङ्गण] १. मकान के बीच या सामेन का खुला हुआ भाग। आँगन। सहन। २. एक प्रकार का ढोल। पणव।

प्रांगन
संज्ञा पुं० [सं० प्राङ्गण] दे० 'प्रांगण'।

प्रांजन
संज्ञा पुं० [सं० प्राञ्जल] १. अंजन या रंग। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का लेप या रंग जो बाण पर लगाया जाता था।

प्रांजल
वि० [सं० प्राञ्जल] १. सरल। सीधा। २. सच्चा। ईमानदार। ३. बराबर। समान। जो ऊँचा नीचा न हो।

प्रांजलता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राञ्जलता] प्रांजल होने का भाव। सरलता। सीधापन [को०]।

प्रांजलि (१)
वि० [सं० प्राञ्जलि] जो अंजलि बाँधे हो। अंजलिबद्ध।

प्रांजलि (२)
संज्ञा पुं० १. सामवेदियों का एक भेद। २. अंजालि। अँजली।

प्रांजलिक, प्रांजली
वि० [सं० प्राञ्जलिक, प्राञ्जलिन्] दे० 'प्रांजलि' [को०]।

प्रांत
संज्ञा पुं० [सं० प्रान्त] [वि०प्रांतिक] १. अंत। शेष। सीमा। २. किनारा। छोर। सिरा। उ०—अधरों के प्रांतों पर खेलती रेखाएँ, सरस तरंग भंग लेती हुई हास्य की।—अनामिका, पृ० ३७। ३. ओर। दिशा। तरफ। ४.किसी देश के एक भाग। खंड। प्रदेश। जैसे, संयुक्त प्रांत, पंजाब प्रांत। ५. एक ऋषि का नाम। ६. इस ऋषि के गोत्र के लोग। ७. कोना (जैसे, आँख का)। यौ०—प्रांतग। प्रांतचर = दे० 'प्रांतग'। प्रांतदुर्ग। प्रांतनिवासी = दे० 'प्रांतग'। प्रांतपति = प्रदेशपति। राज्यपाल। गवरनर। प्रांतपुष्पा। प्रांतभूमि। प्रांतविरस = प्रारंभ में सरस पर अंत में रसहीन या बेरस। प्रांतवृत्ति। प्रांतशून्य = दे० 'प्रांतरशून्य' प्रांतस्थ।

प्रातंग
वि० [सं०] १. सीमा पर रहनेवाला। जो प्रांत में या सरहद पर रहता हो। २. पास रहनेवाला। समीपस्थ (को०)।

प्रांततः
क्रि० वि० [सं० प्रान्ततस्] सीमा या हद से होता हुआ। छोर से होकर [को०]।

प्रांतदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं० प्रान्तदुर्ग] वह दुर्ग जो नगर के किनारे प्राचीर के बाहर हो। नगर के परकोटे के बाहर का दुर्ग।

प्रांतपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रान्तपुष्पा] १. एक फूल का नाम। २. इस फूल का पौधा।

प्रांतभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रान्तभूमि] १. किसी पदार्थ का अंतिम भाग। किनारा। छोर। २. योगशास्त्र के अनुसार समाधि, जो योग की अंतिम सीमा मानी जाती है। ३. सीढ़ी।

प्रांतभूमौ
क्रि० वि० [सं० प्रान्तभूमौ] अंत में। आखीर में [को०]।

प्रांतर
संज्ञा पुं० [सं० प्रान्तर] १. दो स्थानों के बीच का लंबा मार्ग जिसमें जल या वृक्षों आदि की छाया न हो। २. दो गावों के बीच की भूमि। उ०—कहीं खड़े थे खेत, कहीं प्रांतर पड़े; शून्य सिंधु के द्विप गाँव छोटे बड़े।—साकेत, पृ० १२९। ३. दो प्रदेशों के बीच का शून्य स्थान। अवकाश। ४. जंगल। ५. वृक्ष के बीच का खोखला अंश।

प्रांतरशून्य
वि० [सं० प्रान्तरशून्य] दो स्थानों के बीच का पेड़ और छाया आदि से रहति लंबा रूखा मार्ग [को०]।

प्रांतवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रान्तवृत्ति] क्षितिज।

प्रांतयन
संज्ञा पुं० [सं० प्रान्तायन] प्रांत नामक ऋषि के गोत्र के लोग।

प्रांतिक
वि० [सं० प्रान्तिक] १. प्रांत संबंधी। प्रांतीय। २. प्रदेशी। ३. किसी एक देश या प्रांत से संबंध रखनेवाला। उ०—भाषा के बिना न रहता अन्य भाव प्रांतिक।—अपरा, पृ० ६४।

प्रांतीय
वि० [सं० प्रान्तीय] प्रांत या प्रदेश से संबंध रखनेवाला। प्रांतिक। जैसे, युक्तप्रांतीय संमेलन।

प्रांतीयता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रान्तीय + ता] प्रांत के प्रति अत्यधिक मोह। प्रांत के प्रति पक्षपातपूर्ण भाव।

प्रांशु (१)
वि० [सं०] [संज्ञा प्रांशुता] ऊँचा। उच्च।

प्रांशु (२)
संज्ञा पुं० १. वैवस्तव मनु के एक पुत्र का नाम। २. विष्णु। ३. लंबा व्यक्ति। वह जो ऊँचा हो (को०)।

प्रांशुप्राकार
वि० [सं०] जिसकी दीवाल लंबी और ऊँची हो [को०]।

प्रांशुलभ्य
वि० [सं०] लंबे व्यक्ति के द्वारा प्राप्य। जहाँ तक लंबा व्यक्ति ही पहुँच सके [को०]।

प्रांसु पु
वि० [सं० प्रांशु] दे० 'प्रांशु (१)'। उ०—प्रथुल प्रांसु परिनाह पृथु आयत तुंग बिसाल।—अनेकार्थ०, पृ० ४०।

प्राइम मिनिस्टर
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी राज्य या देश का प्रधान मंत्री। वजीर आजम। २. भारत गणराज्य के केंद्रीय शासन का प्रधान मंत्री।

प्राइमर
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी भाषा की वह प्रारंभिक पुस्तक जिसमें उस भाषा की वर्णमाला आदि दी गई हो। २. किसी विषय की वह प्रारंभिक पुस्तक जिसमें उस विषय का ज्ञान प्राप्त करनेवालों के लिये साधारण मोटी मोटी बातें दी गई हों।

प्राइमरी
वि० [अं०] प्रारंभिक। प्राथमिक। जैसे,—प्राइमरी एजुकेशन, प्राइमरी पाठशाला, प्राइमरी शिक्षा, प्राइमरी स्कूल, आदि।

प्राइमरी स्कूल
संज्ञा पुं० [अं० प्राइमरी + स्कूल] प्राथमिक पाठशाला। प्रारंभिक पाठशाला।

प्राइवेट (१)
वि० [अं०] जिसका संबंध केवल किसी व्यक्ति से हो। निज का। व्यक्तिगत। जैसे,—यह सम्मेलन का नहीं बल्कि मेरा प्राइवेट काम है। २. जो सार्वजनिक न हो, बल्कि निज के संबंध का हो। जैसे, प्राइवेट जीवन, प्राइवेट सभा। ३. जो सर्वसाधारण से छिपाकर रखा जाय। गुप्त। जैसे,—मै आज आपसे एक बहुत प्राइवेट बात करना चाहता हूँ।

प्राइवेट (२)
संज्ञा पुं० [अं०] पलटन का सिपाही। सैनिक। जैसे, प्राइवेट जेम्स।

प्राइवेट सेक्रेटेरी
संज्ञा पुं० [अं०] वह कर्मचारी या लेखक जो किसी की निज की चिट्ठी पत्री आदि लिखने के लिये नियुक्त हो। किसी बड़े अदमी का निज का मंत्री या सहायक। खास नवीस। खास कलम।

प्राक् (१)
वि० [सं०] १. पहले का। अगला। २. पूर्व का।

प्राक् (२)
संज्ञा पुं० पूर्व। पूरब।

प्राक् (३)
अव्य०, पहले। पूर्व में। विशेष—व्याकरण के अनुसार 'प्राच्' शब्द का 'च्' समस्त पदों में 'क्' 'ग्' ङ्' आदि रूपों में हो जाता सै, जैसे, प्राक्कर्म, प्राग्भाव, प्राड्मुख आदि।

प्राकट्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकट वा व्यक्त होने का भाव [को०]।

प्राकरणिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्राकरणिकी] १. प्रकरण या विषय से संबंधित। प्रकरणप्राप्त। २. उपमेय [को०]।

प्राकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।

प्राकर्षिक (१)
वि० [सं०] जिसको प्राथमिकता दी जाय। तरजीह देने लायक।

प्राकर्षिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों के बीच में नाचनेवाला पुरुष। २. वह पुरुष जिसकी जीविका दूसरों की स्त्रियों से चलती हो। परदारोजीवी।

प्राकाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रकार का ऐश्वयों या सिद्धियों में से एक। इच्छा का अनिभिघात। विशेष—कहते हैं, इस ऐश्वर्य के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य की इच्छा का व्याघात नहीं होता। वह जिस वस्तु की इच्छा करता है वह उसे तुरंत प्राप्त हो जाती है। वह इच्छा करने पर जमीन में समा सकता है या आसमान में उड़ सकता है। पर्या०—अपसर्ग। साच्छदानुमति।

प्राकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह दीवार जो नगर, किले आदि की रक्षा के लिये उनके चारों ओर बनाई जाती है। परकोटा। कोट। चहारदीवारी। पर्या०—वरण। वप्र। शाल। साल। २. घेरा। बाड़।

प्राकारधरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राकार के ऊपर की भूमि [को०]।

प्राकारस्थ
वि० [सं०] परकोटे के भीतर का। प्राकार पर या प्राकार में स्थित।

प्राकारीय
वि० [सं०] १. प्राकारयोग्य। चहारदीवारी के लायक। २. प्राकार से घिर हुआ [को०]।

प्राकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'प्रकाश'। २. एक आभूषण (को०)।

प्रकाश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकीर्ति। यश। २. प्रकाश का भाव। ३. प्रसिद्ध या ख्यात होना। ४. चमक। ज्योति।

प्राकृत (१)
वि० [सं०] १. प्रकृति से उत्पन्न या प्रकृति संबंधी। २. स्वाभाविक। नैसर्गिक। ३. भौतिक। ४. स्वाभाविक। सहज। ५. साधारण। मामूली। ६. संसारी। लौकिक। ७. नीच। असंस्कृत। अनपढ़। ग्रामीण। फूहड़।

प्राकृत (२)
संज्ञा स्त्री० १. बोलचाल की भाषा जिसका प्रचार किसी समय किसी प्रांत में हो अथवा रहा हो। उ०—जे प्राकृत कवि परम सयाने। भाषा जिन हरिकथा बखाने।—तुलसी (शब्द०)। २. एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचार प्राचीन काल में भारत में था और जो प्राचीन संस्कृत नाटकों आदि में स्त्रियों, सेवकों और साधारण व्यक्तियों की बोलचाल में तथा अलग ग्रंथों में पाई जाती है। भारत की बालचाल की भाषाएँ बोलचाल की प्राकृतों से बनी हैं। विशेष—हेमचंद्र ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सूचित किया है कि प्राकृत संस्कृत से निकलती है, पर प्रकृति का यह अर्थ नहीं है। केवल संस्कृत का आधार रखकर प्राकृत व्याकरण की रचना हुई है। पर अनुमान है कि ईसवी सने से प्रायः ३०० वर्ष पहलै यह भाषा प्राकृत रूप में आ चुकी थी। उस समय इसके पश्चिमी और पूर्वी दो भेद थे। यह पूर्वी प्राकृत ही पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई (दे० 'पाली')। बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ इस मागधी या पाली भाषा की बहुत अधिक उन्नति हुई, क्योंकि पहले उस धर्म के सभी ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए। धीरे धीरे प्राचीन प्राकृतों के विकास से आज से प्रायः १००० वर्ष पहले देश- भाषाओं का जन्म हुआ था। जिस प्रकार संस्कृत भाषा का सबसे पुराना रूप वैदिक भाषा है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा का भी जो पूराना रूप मिलता है उसे आर्ष प्राकृत कहते हैं। कुछ बौद्ध तथा जैन विद्वानों का मत है कि पाणिनि ने इस आर्ष प्राकृत का भी एक व्याकरण बनाया था। पर कुछ लोगों को यह संदेह है कि कदाचित् पाणिनि के समय प्राकृत भाषा का जन्म ही नहीं हुआ था। मार्कडेय ने प्राकृत के इस प्रकार भेद किए हैं—(१) भाषा (महाराष्ट्रा, शौरसेनी, प्राच्या, आवंती, मागधी, अद्धंमागधी), (२) विभाषा (शाकारी, चांडाली, शावरी, आभीरी, टाक्की, औड्री, द्रविडी), (३) अपभ्रंश, और (४) पैशाची। चूलिका पैशाची आदि कुछ निम्न श्रेणी की प्राकृतें भी हैं। सबसे प्राचीन काल में मागधी की भाषा पाली के नाम से साहित्य की ओर अग्रसर हुई। बौद्ध ग्रंथ पहले इसी भाषा में लिखे गए। यह मागधी व्याकरणों की मागधी से पृथक् और प्राचीन भाषा है। पीछे जैनों के द्वारा अद्धमागधी और महाराष्ट्री का आदर हुआ। महाराष्ट्री साहित्य की प्राकृत हुई जिसके एक कृत्रिम रूप का व्यवहार संस्कृत के नाटकों में हुआ। इन प्राकृतों से आगे चलकर और घिसकर जो रूप हुआ वह अपभ्रंश कहलाया। इसी अपभ्रंश के नाना रूपों से आजकल की आर्य शाखा की देशभाषाएँ निकली हैं। इसके अतिरिक्त ललितविस्तर में एक प्रकार की और प्राकृत मिलती है जो संस्कृत से बहुत कुछ मिलती जुलती है। प्राकृत भाषा में द्विवचन नहीं है और उसकी वर्णमाला में ऋ ऋ लृ लृ ऐ और औ स्वर तथा श ष और विसर्ग नहीं हैं। ३. पराशर मुनि के मत से बुध ग्रह की सात प्रकार की गतियों में पहली और उस समय की गति जब वह स्वाती भरणी और कृत्तिका में रहता है। यह चालीस दिन की होती है और इसमें आरोग्य, वृष्टि, धान्य की वृद्धि और मंगल होता है।

प्राकृतज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार वह ज्वर जो वर्षा, शरद या हेमंत ऋतु में, ऋतु के प्रभाव से होता है। विशेष—कहते हैं, वर्षा, शरद और हेमंत ऋतुओं में क्रमशः वात, पित्त और कफ की प्रधानता होती है और उसी समय मनुष्य पर वातादि की प्रधानता से ऐसा ज्वर आक्रमण करता है।

प्राकृतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्राकृत होने का भाव या धर्म।

प्राकृतदोष
संज्ञा पुं० [सं०] वात, पित्त और कफ नामक प्रकृतियों के प्रकोप से उत्पन्न दोष या वर्षा, शरद और हेमंत ऋतुओं में यथाक्रम उत्पन्न होता है।

प्राकृतप्रलय
संज्ञा पुं० [सं०] पूराणानुसार एक प्रकार का प्रलय जिसका प्रभाव प्रकृति तक पर पड़ता है, अर्थात् जिसमें प्रकृति भी ब्रह्म या परमात्मा में लीन हो जाती है।

प्राकृतमानुष
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण व्यक्ति [को०]।

प्राकृतमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वभावसिद्ध मित्र। २. वह राजा जिसका राज्य प्राकृत शत्रु के बाद हो।

प्राकृतशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राकृतारि'।

प्राकृतारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वाभाविक शत्रु। स्वभावसिद्ध दुश्मन। २. वह राजा जिसका राज्य किसी अन्य राज्य से लगा हो।

प्राकृताभास
वि० स्त्री० [सं० प्राकृत + आभास] जिसमें वर्ण और वाक्य का विन्यास प्राकृत की झलक लिए हो। जिसकी बनावट प्राकृत भाषा के आधार पर हो। उ०—इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है।—इतिहास, पृ० ६।

प्राकृतिक (१)
वि० [सं०] १ जो प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। २. प्रकृति के विकार। ३. प्रकृति संबंधी। प्रकृति का। ४. स्वाभाविक। सहज। उ०—इसी प्रकार शिशिर में दुशाला ओढ़े, 'गुलगुली गिलमें, गलीचा' बिछाकर बैठे हुए स्वाँग से धूप में खपरैल पर बैठी बदन चाटती हुई बिल्ली में अधिक प्राकृतिक भाव है।— रस०, पृ० १४३। ५. साधारण। मामूली। ६. भौतिक। ७. सांसारिक। लौलिक। ८. नीच।

प्राकृतिक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'प्राकृतप्रलय'।

प्राकृतिक चिकित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राकृतिक + चिकित्सा] वह चिकित्सा पद्धति जिसमें प्रकृतिजन्य साधनों (जैसे, मिट्टी, पानी आदि) से चिकित्सा की जाती है।

प्राकृतिक भूगोल
संज्ञा पुं० [सं०] भूगोल विद्या का वह अंग जिसमें भौगोलिक तत्वों का तुलनात्मक दृष्टि से विचार होता है। विशेष—भूगर्भ शास्त्र से इसमें यह अंतर है कि भूगर्भ शास्त्र तो पृथ्वी की बनावट के प्राचीन इतिहास से संबंध रखना है; पर इस शास्त्र में उसकी वर्तमान स्थिति तथा भिन्न भिन्न प्राकृतिक अवस्थाओं का वर्णन होता है। इस विद्या में यह बतलाया जाता है कि पर्वत, समुद्र, नदियाँ, द्वीप और महाद्वीप आदि किस प्रकार बनते है, समुद्र में ज्वार भाटा किस प्रकार आता हैं, पृथ्वी के भिन्न भिन्न भागों में प्राणियों और वनस्पतियों आदि का किस प्रकार विभाग हुआ है, वातावरण का तापमान कहाँ किस प्रकार और कितना घटता बढ़ता है, और किस प्रकार ऋतुपरिवर्तन होता है, और नदियों तथा झीलों आदि की सृष्टि किस प्रकार होती है, आदि आदि।

प्राक्कथन
संज्ञा पुं० [सं०] (किसी पुस्तक की) भूमिका या प्रस्तावना।

प्राक्कर्म
संज्ञा पुं० [सं० प्राक्कर्मन्] १. पूर्वकर्म। २, अदृष्ट। भाग्य।

प्राक्कल्प
संज्ञा पुं० [सं०] पूराकल्प। पूर्वकल्प।

प्राक्काल
संज्ञा पुं० [सं०] गत समय। प्राचीन काल [को०]।

प्राक्कालिक, प्राक्कालीन
वि० [सं०] पूराकालीन। पहले का। प्राचीन काल से संबंधित। प्राचीन काल का [को०]।

प्राक्कूल
संज्ञा पुं० [सं०] वह कुश जिसका अगला भाग पूर्व की ओर किया गया हो।

प्राक्कृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व में किया हुआ कर्म। कर्म जो पूर्व जन्म में कृत हो।

प्राक्कृत (२)
वि० पूर्व काल या जन्म में कृत।

प्राक्केवल
वि० [सं०] जो पहले से ही भिन्न रूप में प्रकट रहा हो।

प्राक्चरण
संज्ञा पुं० [सं० प्राक्चरणा] भग। योनि।

प्राक्चिर
क्रि० वि० [सं०] ठीक समय पर। अधिक देर होने के पूर्व [को०]।

प्राक्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] जिस समय छाया पूर्व की ओर पड़ती हो। अपराह्न काल।

प्राक्तन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जो पहले किया जा चुका हो और आगे जिसका शुभ और अशुभ फल भोगना पड़े। भाग्य। प्रारब्ध।

प्राक्तन (२)
वि० प्राचीन। पुराना। पहले का।

प्राक्तूल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रक्कूल'।

प्राक्पद
संज्ञा पुं० [सं०] समास में पूर्व पद [को०]।

प्राक्प्रवण
वि० [सं०] पूरब की ओर झुकावदार या ढालुवाँ [को०]।

प्राक्प्रहार
संज्ञा पुं० [सं०] पहला आक्रमण। प्रथम आघात [को०]।

प्राक्फल
संज्ञा पुं० [सं०] कटहर

प्राक्फल्गुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्राक्फाल्गुनी'।

प्राक्फाल्गुन
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति ग्रह।

प्राक्फाल्गुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र। यौ०—प्राक्फाल्गुनीभवबृहस्पति ग्रह।

प्राक्संध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राक्सन्ध्या] वह संधिकाल जो दिन आरंभ में हो। सूर्योदय के समय का संधिकाल। सबेरा।

प्राक्सवन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातःकालीन उदकदान, या हवन यज्ञ [को०]।

प्राक्सी
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह लेख जिसके द्वारा किसी संस्था का कोई सदस्य किसी दूसरे सदस्य आदि को अपना प्रतिनिधि नियत करके उसे अपनी ओर से उपस्थित होकर संमति प्रदान करने का अधिकार देता है। प्रतिनिधिपत्र। २. प्रति- निधि। वह व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति के स्थान पर उसका कर्तव्य पालन करे।

प्राक्सौमिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्तव्य जो यजमान को सोमयाग के पूर्व कर लेना चाहिए। जैसे, अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, पशुयाग।

प्राक्स्त्रोता
वि० [सं० प्राक्स्त्रोतस्] पूरब की ओर बहनेवाला [को०]।

प्राखर्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रखरता। तीक्ष्णता। तेजी।

प्राग पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाग] तीर्थराज। प्रयाग। उ०—कासी प्राग द्वारिका मथुरा, कहँ कहँ चित दौरावों।—जग० श०, पृ० ११७।

प्रागट्य
संज्ञा पुं० [सं० प्राकट्य] दे० 'प्राकट्य'। उ०—सो हरि जी तो सुरंगी सखी कौ प्रागट्य हैं।—दी सौ बावन०, भा० १, पृ० १५१।

प्रागनुराग
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्वानुराग।

प्रागभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अभाव जिसके पीछे उसका प्रतियोगी भाव उत्पन्न होता है। किसी विशेष समय के पूर्व न होना। जैसे, घट, वस्त्र बनने के पूर्व नहीं थे। इस प्रकार के अभाव को वैशेषिक शास्त्र में प्रागभाव कहते हैं। वैशेषिकदर्शन में यह पाँच प्रकार के अभावों में पहला माना गया है। २. वह पदार्थ जिसका आदि न हो पर अंत हो। अनादि। सांत पदार्थ।

प्रागभिहित
वि० [सं०] पूर्वोक्त। पूर्वकथित [को०]।

प्रागल्भ्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रगल्भता। वीरता। २. धीरता। ३. साहस। ४. निर्भयता। ५. घमंड। ६. चतुरता। ७. प्रधानता। प्रबलता।

प्रागार
संज्ञा पुं० [सं०] प्रासाद। भवन। महल।

प्रागुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्वकथन। बात जो पहले कही गई हो [को०]।

प्रागुत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रागुत्तरा'।

प्रागुत्तरा
देश० स्त्री० [सं०] पूर्व और उत्तर के बीच की दिशा। ईशान कोण।

प्रागुदीची
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व और उत्तर के बीच की दीशा। ईशान कोण।

प्रोगैतिहासक
वि० [सं०] इतिहास से पूर्व का। उस समय से पूर्व का जहाँ से इतिहास उपलब्ध होता है। उ०—वह सम- स्या यह है कि प्राचीन ऐतिहासिक या प्रागैतिहासक कथा- नकों और भावधाराओं को हम आज किस रूप में अपनाएँ। नया०, पृ० १७।

प्राग्ज्योतिष
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत आदि के अनुसार कामरूप देश। विशेष—प्राग्ज्योतिष देश आसाम में है। महाभारत के समय में यहाँ का राजा भगदत्त था और वह चीन और किरात की सेना लेकर महाभारत संग्राम में आया था। यह देश अपनी राजधानी प्राग्ज्योतिष के नाम से प्रख्यात है जिसे अब गोहाटी कहते हैं। यहाँ देवी योगनिद्रा का प्रधान स्थान है। पौराणिक दृष्टि से यह स्थान बहुत ही पवित्र और सर्वतोभद्रा नामक लक्ष्मी का निवासस्थान माना जाता है। कहते हैं, नरकासुर की राजधानी यहीं थी। रामायण में लिखा है कि इस देश की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर को कुश के पुत्र अमूर्त्तरज ने बसाया था।

प्राग्ज्योतिषपुर
संज्ञा पुं० [सं०] प्राग्ज्योतिष देश की राजधानी जिसे अब गोहाटी कहते हैं। रामायण के अनुसार इस नगर को कुश के पुत्र अमूर्तरज ने बसाया था।

प्राग्दक्षिणा
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण और पूर्व के बीच की दिशा। दक्षिणपूर्व।

प्राग्देश
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व की ओर के देश। पूरब के देश [को०]।

प्राग्द्वार
संज्ञा पुं० [सं०] पूरब की ओर का दरवाजा [को०]।

प्राग्बोधि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्व का नाम।

प्राग्भक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन करने के पहले औषध खाना। २. सुश्रुत के अनुसार औषध खाने के दस समयों में से एक। दवा खाने के लिये भोजन करने से पहले का समय। विशेष—सुश्रुत में लिखा है कि जो औषध भोजन करने से पहले खाया जाता है वह कै के रास्ते बाहर नहीं निकलता, खाया हुआ अन्न बहुत अच्छी तरह पचाता है और बल बढ़ाता है। बुढ्ढों, बालकों, स्त्रियों और दुर्बलों आदि् के लिये ऐसे ही समय दवा खाने का विधान है।

प्राग्भरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन मतानुसार सिद्धशिला का एक नाम।

प्राग्भव
संज्ञा पुं० [सं०] जन्म [को०]।

प्राग्भार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत के आगे का भाग। २. किसी वस्तु का अगला भाग या सिरा। ३. उत्पति। उत्कर्ष। ४. राशि। ढेर। बाढ़ [को०]।

प्राग्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत के आगे का भाग। २. उत्कर्ष। उन्नति। ३. पूर्व जन्म।

प्राग्र
संज्ञा पुं० [सं०] चरम बिंदु [को०]।

प्राग्रसर
वि० [सं०] १. श्रेष्ठ। २. प्रथम। पहला।

प्राग्रहर
संज्ञा पुं० [सं०] मुख्य। श्रेष्ठ।

प्राग्राट
संज्ञा पुं० [सं०] पतला। दही। मठा।

प्राग्य
वि० [सं०] श्रेष्ठ। बड़ा।

प्राग्वश
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञशाला में वह घर जिसमें यजमानादि रहते हैं। यह धर हविर्गृह के पूर्व ओर होता है। २. विष्णु ३. पूर्व वंश। पहले का वंश।

प्राग्वचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार के अनुसार मन्वादि महर्षियों के वचन। २. पूर्व का निश्चय। पहले का निर्णय (को०)।

प्राग्वर्ती
वि० [सं० प्राक् + वर्तिन्] पूर्व का। प्रारंभ का। शुरू का।

प्राग्वाट
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण के अनुसार प्राचीन काल के एक नगर का नाम। विशेष—यह नगर यमुना और गंगा के बीच में था। भरत जी केकय से अयोध्या आते समय इस नगर में से होकर आए थे।

प्राग्वृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] पहले की घटना। पहले का हालचाल [को०]।

प्राग्वृत्तांत
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्ववृत्त। प्राग्वृत्त।

प्राघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारी आघात। कड़ी चोट। २. युद्घ। समर (को०)।

प्राघार
संज्ञा पुं० [सं०] चूना। टपकना। क्षरण [को०]।

प्राघुण, प्राघूणक, प्राघुणिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे०, 'प्राघूण' [को०]।

प्राघूण
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथि। मेहमान। पाहुना।

प्राघूणिक
दे० पुं० [सं०] अतिथि। मेहमान।

प्रघूर्ण, प्राघूर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राघूण' या 'प्राघूणिक'।

प्राघूर्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राघूर्ण'।

प्राङ्न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] वह विवाद जो पहले किसी न्यायालय में निर्णीत हो चुका हो। किसी विबाद का पहले भी किसी न्ययालय में उपस्थित होकर निर्णीत हो चुकना। विशेष—व्यवहारशास्त्र के अनुसार यह अभियोग का एक प्रकारका उत्तर है जिसके उपस्थित होने पर यह विवाद नहीं चल सकता। यह उत्तर उसी समय दिया जा सकता है जब उपस्थित विवाद के संबंध में पहले ही न्यायलय में निर्णय हो चुका हो। अर्थात् प्रतिवादी कह सकता है कि पहले इस विवाद का निर्णय हो चुका है, फिर से इसका निर्णय होने की आवश्यकता नहीं।

प्राङ् मुख
वि० [सं०] जिसका मुँह पूर्व दिशा की ओर हो। पूर्वाभिमुख।

प्राचंडय
संज्ञा पुं० [सं० प्राचण्ड्य] प्रचंडता। तीव्रता। उग्रता। भयंकरता [को०]।

प्राच
वि० [सं०] [स्त्री० प्राची] पूर्व।

प्राचार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा।

प्राचार
वि० [सं०] प्रचलित परंपरा या नियम के विरुद्ध [को०]।

प्राचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आचार्य। गुरु। शिक्षक। २. विद्वान्। पंडित।

प्राचिका
संज्ञा पुं० [सं०] १. डाँस की जाति की एक प्रकार की जंगली मक्खी। २. श्येन। बाज (को०)।

प्राची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूर्व दिशा। पूरब। उ०—पूरन ससि प्राची उदै बिहरनि रुचि कीनी।—घनानंद, पृ० ४५५। २. वह दिशा जो देवता के या अपने आगे की ओर हो। ३. जल आँवला।

प्राचीन (१)
वि० [सं०] १. जो पूर्व देश में उत्पन्न हुआ हो। पूरब का। २. जो पूर्व काल में उत्पन्न हुआ हो। पिछले जमाने का। पूराना। पूरातन। ३. वृद्ध। बुड्ढा। यौ०—प्राचीनकल्प = पूरा कल्प। प्राचीनगाथा = पुराना इतिहास। पुरानी कथा। प्राचीनतिलक। प्राचीनपनस। प्राचीनबर्हिष। प्राचीनमत = पुराना विश्वास। पहले से चला आता मत। प्राचीनमूल।

प्राचीन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राचीर'।

प्राचीन काव्यमिश्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह दृश्य काव्य जिसकी रचना प्राचीन काल में हुई हो और जिसका अभिनय भी प्राचीन काल में होता रहा हो। विशेष—इसके पाँच भेद हैं—(१)नाट्य, (२) नृत्य, (३) नृत्त, (४) तांडव और (५) लास्य।

प्राचीनकुल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जिन्हें आयांतरनम और प्राचीनगर्भ भी कहते हैं।

प्राचीनगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम जिनको प्राचीनकुल और आयांतरतम भी कहते हैं।

प्राचीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन होने का भाव। पूरानापन। जैसे—इस पुस्तक की प्राचीनता में कोई संदेह नहीं हो सकता।

प्राचीनतिलक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्गमा।

प्राचीनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन होने का भाव। प्राचीनता। पूरानापन।

प्राचीनपनस
संज्ञा पुं० [सं०] बेल का पेड़।

प्राचीनबहि
संज्ञा पुं० [सं० प्राचीनबर्हिस्] १. इंद्र। २. एक प्राचीन राजा का नाम। विशेष—अग्निपुराणानुसार यह अग्निगोत्रीय राजा हविर्धान के पुत्र थे और प्रजापति कहलाते थे। प्रचेतागण इनके पुत्र थे।

प्राचीनमूल
वि० [सं०] जिसका जड़ या मुल पूर्व ओर हो [को०]।

प्राचीनयोग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

प्राचीनशाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूराना घर। २. पूर्व दिशा का घर।

प्राचीना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाठा। २. रास्ता।

प्राचीना (२)
वि० स्त्री० [सं० प्राचीन का स्त्रीलिंग रूप] जो प्राचीन हो।

प्राचीनमालक
संज्ञा पुं० [सं०] पानी आमला। जल आमला।

प्राचीनावीत
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञोपवीत धारण करने का एक प्रकार जिसमें बायाँ हाथ यज्ञोपवीत से बाहर रहता और यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रहता है। यह उपवीत का उलटा है। इस प्रकार का यज्ञोपवीत पितृकार्य में धारण किया जाता है। पितृसव्य। सव्य।

प्राचीनावीती
वि० [सं० प्राचीनावीतिन्] जो प्राचीनावीत यज्ञोपवीत धारण किए हो। सत्य।

प्राचीनोपवीत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राचीनावीत'।

प्राचीपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

प्राचीर
संज्ञा पुं० [सं०] नगर या किले आदि के चारों ओर उसकी रक्षा के उद्देश्य से बनाई हुई दीवार। चहारदीवारी। शहर पनाह। परकोटा।

प्राचीरवती
वि० [सं० प्राचीर + वत + ई (प्रत्य०)] प्राचीरयुक्त। चहारदीवारी से आवृत। उ०—मैने नयनोन्मीलन करके इधर उधर, सब ओर निहारा; पर लोचनगत हुई मुझे तो यह प्राचीरवती द्दढ़ कारा।—अपलक, पृ० ७६।

प्राचुर्य
संज्ञा पुं० [सं० प्राचुर्य, प्राचुर्य्य] १. प्रचुर होने का भाव। अधिकता। प्रचुरता। बहुतायत। २. राशि। ढेर (को०)।

प्राचेतस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रचेतागण जो प्राचीनबर्हि के पुत्र थे और जिनकी संख्या दस थी। २. वाल्मीकि मुनि का नाम ३. प्रचेता के अपत्य या वंशज। ४. विष्णु। ५. दक्ष। ६. मनु का पैतृक नाम (को०)। ७. वरूण के पुत्र का नाम।

प्राच्य (१)
वि० [सं०] १. पूर्व देश या दिशा में उत्पन्न। पूर्व का। २. पूर्वीय। पूर्व संबंधी। जैसे, प्राच्य सभ्यता, प्राच्य विद्या महार्णव। ३. पूर्व काल का। पूराना। प्राचीन।

प्राच्य (२)
संज्ञा पुं० शरावती नदी के पूर्व का देश।

प्राच्यक
वि० [सं०] पूर्वी। पूरब का [को०]।

प्राच्यभाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्वी या पुरानी भाषा [को०]।

प्राच्यवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैताली वृत्ति के एक भेद का नाम जिसके सम पादों चौथी और पाँचवीं मात्रा मिलकर गुरुहो जाती है। जैसे,—हर हर भज जाम आठहूँ। तज सबै भरम रे करो यही। तन मन धन दे लगा सबै। पाइहौ परम धाम ही सही।

प्राच्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व के ऋषियों के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।

प्राच्छित, प्राछित्त पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रायश्चित्त] दे० 'प्रायश्चित्त'। उ०—(क) जिहि बिरंचि रचि जिन प्रपंच कौ प्राच्छित कीन्ह्यौ।—रत्नाकर, भा० १, पृ० ५५। (ख) चौदह नेम सँभालै नित्त। लागे दोष। करै प्राछित्त।—अर्ध०, पृ० ५४।

प्राजक
संज्ञा पुं० [सं०] सारथी। रथ चलानेवाला।

प्राजन
संज्ञा पुं० [सं०] कोड़ा। चाबुक [को०]।

प्राजहित
संज्ञा पुं० [सं०] गार्हपत्य अग्नि।

प्राजापत
संज्ञा पुं० [सं०] प्रजापति का धर्म या भाव।

प्राजापत्य (१)
वि० [सं०] १. प्रजापति संबंधी। २. प्रजापति से उत्पन्न। ३. प्रजापति निमित्तक।

प्राजापत्य (२)
संज्ञा पुं० १. आठ प्रकार के विवाहों में चौथा। विशेष—इस विवाह में कन्या का पिता वर और कन्या एकत्र कर उनसे यह प्रतिज्ञा कराता है कि हम दोनों मिलकर गार्हस्थ दर्म का पालन करेंगे; और फिर दोनों की पूजा करके वर को अलंकारयुक्त कन्या का दान करता है। ऐसे विवाह को काम भी कहते हैं। २. एक व्रत का नाम जो बारह दिन का होता है। विशेष—इस व्रत में पहले तीन दिन तक सायंकाल २२ ग्रास, फिर तीन दिन तक प्रातः काल २६ ग्रास, फिर तीन दिन तक अपाचित अन्न २४ ग्रास खाकर अंत के तीन दिन उपवास करना पड़ता है। धर्मशास्त्रों में इस व्रत का विधान प्रायश्चित्त में किया गया है। ३. रोहिणी नक्षत्र। ४. यज्ञ। ५. प्रयाग का नाम। ६. विष्णु का नाम (को०)। ७. पितृलोक।

प्राजापत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक इष्टि का नाम। विशेष—यह इष्टि प्रव्रज्याश्रम या संन्यासाश्रम ग्रहण के समय की जाती है। इस यज्ञ में सर्वस्व दक्षिणा में दे दिया जाता है। २. वैदिक छंदों के आठ भेदों में एक भेद।

प्राजिक
संज्ञा पुं० [सं०] बाज नामक पक्षी।

प्राजिता
संज्ञा पुं० [सं० प्राजितृ] सारथी

प्राजी
संज्ञा पुं० [सं० प्राजिन्] एक प्रकार का पक्षी। श्येन।

प्राजेश
संज्ञा सं० [सं०] १. रोहिणी नक्षत्र। २. वह चरु आदि पदार्थ जो प्रजापति देवता के लिये हो।

प्राज्ञंमन्य, प्राज्ञंमानी
संज्ञा पुं० [सं० प्राज्ञम्मन्य, प्राज्ञम्मानिन्] दे० 'प्राज्ञमानी' [को०]।

प्राज्ञ (१)
वि० [सं०] [स्त्री० प्राज्ञा, प्राज्ञी] १. बुद्धिमान्। समझदार। चतुर। २. विज्ञ। पंडित। विद्वान। उ०—जाग्रत तौ नहीं मेरे बिषै कछु स्वप्न सुतौ नहिं मेरै विषै है। नाहिं सुषोपति मेरै विषै पुनि बिश्व हू तैजस प्राज्ञ पषै है। —सुंदर० ग्रं० भा० २, पृ० ६१९। ३. मूर्ख। बेवकूफ।

प्राज्ञ (२)
संज्ञा पुं० १. वेदांतसार के अनुसार जीवात्मा। २. पुराणा- नुसार कल्किदेव के बडे़ भाई का नाम। ३. चतुर मनुष्य। बुद्धिमान व्यक्ति (को०)। ४. एक प्रकार का शुक या तोता (को०)।

प्राज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्राज्ञत्व' [को०]।

प्राज्ञत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. चतुराई। बुद्धिमत्ता। २. पंडित्य। विज्ञता। ३. मूर्खता। बेवकूफी।

प्राज्ञमन्य
वि० [सं०] दे० 'प्राज्ञमानी'।

प्राज्ञमान
संज्ञा पुं० [सं०] प्राज्ञ व्यक्ति का आदर [को०]।

प्राज्ञमानी
संज्ञा पुं० [सं० प्राज्ञमानिन्] वह जिसे अपने पांडित्य का अभिमान हो। जो अपने आपको विद्वान् या बुद्धिमान समझता हो।

प्राज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.बुद्धि। समझ। उ०—प्राज्ञा अभिमानी जु व्याकृत जमगुण रुपा। ईश्वर तहँ देवता भोग आनंद स्वरुपा। —सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० ६८। २. चतुरा स्त्री। विदुषी स्त्री।

प्राज्ञी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सूर्य की भार्या का नाम। २. विद्वान् की स्त्री (को०)। ३. चतुरा या विदुषी स्त्री (को०)।

प्राज्य
वि० [सं०] १. प्रचुर। अधिक। बहुत। २. जिसमें बहुत घी पडा़ हो। ३. विशाल (को०)। ४. उच्च। ऊँचा (को०)।

प्राडविवाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता हो और विवादों आदि का निर्णय करता हो। न्याय करनेवाला। न्यायाधीश। विशेष—प्राचीन काल में जो राजा स्वयं न्याय नहीं करते थे वे विद्वान् ब्राह्मणों को प्राड़विवाक या न्यायाधीश के पद पर नियुक्त कर देते थे। वे ही सब झगडों का फैसला किया करते थे। २. वह जो दुसरों के अभियोग आदि चलाता या उनका उत्तर देता हो। वकील।

प्राङ्विवेक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राड्विवाक'।

प्राणंत
संज्ञा पुं० [सं० प्राणन्त] १. वायु। हवा। २. रसांजन।

प्राणंती
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राणन्ती] १. क्षुधा। भूख। २. हिक्का। हिचकी। ३. छींक।

प्राण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राण' [को०]।

प्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. शरीर की वह वायु जिससे मनुष्य जीवित रहता है। उ०—कह कथा अपनी इस घ्राण से, उड़ गए मधु सौरभ प्राण से। —साकेत, पृ० २९७। विशेष—हिंदुओं के शास्त्रों में देशभेद से दस प्रकार के प्राण माने गए हैं जिनके नाम प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकिल, देवदत्त और धनंजय हैं। इनमें पहले पाँच(प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान) मुख्य हैं, और पंचप्राण कहलाते हैं। ये सबके सब मुनुष्य के शरीर के भिन्न भिन्न स्थानों में काम किया करते हैं और उनके प्रकोप करने से मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग उठ खडे होते हैं। इन सबमें प्राण सबसे प्रधान और मुख्य है। जिस वायु को हम अपने नथने द्वारा साँस से भीतर ले जाते हैं उसे प्राण कहते हैं। इसी पर मनुष्य, पशु आदि जंतुओं का जीवन है। इस वायु का मुख्य स्थान हृदय माना गया है। प्राण धारण करने ही के कारण साँस लेनेवाले जंतुओं को प्राणी कहते हैं। मरने पर श्वास प्रश्वास, या वायु का गमनागमन बंद हो जाता है; इसलिये लोगों का कथन है कि मरने पर प्राण निकल जाते हैं। शास्त्रों में आँख, कान, नाक, मुँह, नाभि, गुदा, मूर्त्रंद्रिय और व्रह्मरंध्र आदि प्राणों के निकलने के मार्ग माने गए हैं। लोगों का कथन है कि मरने के समय मनुष्य के शरीर से जिस इंद्रिय के मार्ग से प्राण निकलते हैं, वह कुछ अधिक फैल जाती है और ब्रह्मरंध्र से निकलने पर खोपडी़ चिटक जाती है। लोगों का विश्वास है कि जिस मनुष्य के प्राण नाभि से ऊपर के मार्गों से निकलते हैं उसकी मदगति होती है और जिसके प्राण नाभि से नीचे के मार्गों से निकलते हैं उसकी दुर्गति या अधेगति होती है। ब्रह्मरंध्र से प्राण निकलनेवाले के विषय में यह प्रसिद्ध है कि उसे निर्वाण या मोक्ष पद प्राप्त होता है। प्राण शब्द का प्रयोग प्रायः बहुवचन में ही होता है। ३. जैन शास्त्रानुसार पाँच इंद्रियाँ; मनोबल, वाक्बल, और कायबल नामक त्रिविध बल तथा उच्छवास, विश्वास और वायु इन सबका समूह। ४. श्वास। साँस। ५. छांदोग्य ब्राह्मण के अनुसार प्राण, बाक्, चक्षु श्रोत्र और मन। ६. वाराहमिहिर और आर्यभट्ट आदि के अनुसार काल का वह विभाग जिसमें दस दीर्घ मात्राओं का उच्चारण हो सके। यह विनाडिका का छठा भाग है। ७. पुराणानुसार एक कल्प का नाम जो ब्रह्मा के शुक्ल पक्ष को षष्ठी के दिन पड़ता है। ८. बल। शक्ति। ९. जीवन। जान। उ०—(क) अंगद दीख दसानन बैसा। सहित प्राण कज्जल गिरि जैसा। —तुलसी (शब्द०)। (ख) प्राण दिए घन जायँ दिए सब। केशव राम न जाहिं दिए के चलाचल में तब तो चले न अब चाहत कितै चले। — पद्माकर (शब्द०)। यौ०—प्राणआधार या प्राणाधार। प्राणप्रिय। प्राणप्यारा। प्राणानाथ। प्राणापति, इत्यादि। विशेष—इस शब्द के साथ अंत में पति, नाथ, कांत आदि शब्द समस्त होने पर पद का अर्थ प्रेमी या पति होता है। मुहा०— प्राण उड़ जाना =(१) होश हवास जाता रहना। बहुत घबराहट हो जाना। हक्का बक्का हो जाना। जैसे,— उसके देखने ही से उसमें के बच्चों का प्राण उड़ गया। — गदाधरसिंह (शब्द०)। (२) डर जाना। भयमीत होना। प्राण आना था प्राणों में प्राण आना =घबराहट या भय कम होना। चित्त कुछ ठिकाने होना। हवास ठिकाने होना। प्राण या प्राणों का गले तक आना =मरने पर होना। मरणासन्न होना। उ०—ठाने अठान जेठानिनहूँ सब लोगन हूँ अकलंक लगाए। सूसु लरी गहि गाँस खरी ननदीन के बोल न जात गिनाए। एती सही जिनके लए मैं सखी तै कहि कौन कहाँ बिलमाए। आय गले लगे प्राण पै कैसेहूँ कान्हर आज अजौ नहिं आए। —(शब्द०)। प्राण या प्राणों का मुँह को आना या चले आना=(१) मरने पर होना। (२) अत्यंत दुःख होना। बहुत अधिक हार्दिक कष्ट होना। जैसे,— हाय हाय इसकी बातों से तो प्राण मुँह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। —हरिश्चंदर् (शब्द०)। प्राण या प्राणों के लाले पड़ना=प्राणों की चिंता होना। प्राण रक्षा की परवा होना। जैसे,—ब्राह्मणों के प्राणों के लाले पड़ रहे थे। —प्रेमघन०, पृ० ३०६। प्राण खाना=बहुत तंग करना। बहुत सताना। प्राण छूटना, जाना या निकलना =जीवन का अंत होना। मरना। प्राण डालना=जीवन प्रदान करना। जीवन का संचार करना। प्राण त्यागना, तजना या छोड़ना =मरना। प्राण देना= मरना। किसी पर या किसी के ऊपर प्राण देना=(१) किसी के किसी काम से बहुत दुखी या रुष्ट होकर मरना। (२) किसी को बहुत अधिक चाहना। प्राणों से भी बढ़कर चाहना। प्राण नहीं में समाना=भयभीत होना। आशंकित होना। प्राण निकलना=(१) मर जाना। मरना। (२ भय से होश हवास जाता रहना। घबरा जाना। भयभीत होना। प्राण पथान होना=प्राण निकलना उ०—प्राण पयान होत को राखा। कोयल औ चातक मुख भाखा। —जायसी (शब्द०)। प्राणों पर आ पड़ना =जीवन का संकट में पडना। जान जोखिम होना। बडी़ कठिनाई पडना। उ०—ब्रज बहि जाय ना कहूँ यों आई आँखिन ते, उमगि अनोखी घटा बरसति नेह की। कहै पद्याकर चलावै खान पान की को, प्राणन परी है आनि दहसति देह की।— पद्माकर (शब्द०)। प्राण या प्राणों पर खेलना =ऐसा काम करना जिसमें जान जाने का भय हो। प्राणों को संकट में डालना। उ०—तुम तो अपने ही मुख झूठे। ००० हमसों मिले बरष द्वादस दिन चारिक तुम सों तूठे। सूर आपने प्राणन खेलैं ऊधो खेखैं रुठे। —सूर (शब्द०)। प्राण या प्राणों पर बीतना =(१) जीवन संकट में पड़ना। जान जोखिम होना। जैसे,—ऐसे समय जब कि क्षण क्षण केटो के प्राण पर बीत रही है। —तोतारम (शब्द०)। (२) जान निकल जाना। मर जाना। प्राण बचाना =(१) जीवन की रक्षा करना। जान बचाना। (२) जान छुडा़ना। पीछा छुडा़ना। प्राण मुट्ठी में या हथेली पर लिए रहना =जीवन को कुछ न समझना। प्राण देने पर उतारु रहना। जैसे,—रात दिन लीलायश गाती हैं और अवधि की आस किए प्राण मूठी में लिए हैं। —लल्लू(शब्द०)। प्राण रखना =(१) जिलाना। जीवन देना। (२) जान बचाना। जीवन की रक्षा करना। प्राण लेना = मार जालना। जान लेना। उ०—बलनिकेत साकेत चल्यो निज विजय हेतु बढ़ि। प्रेतराज सम समर खेत पर प्राण लेत चढि। —गोपाल (शब्द०)। प्राण हरना =(१) मारना। मार डालना। उ०—कौन के प्राण हरैं हम, यों दृग कानन लागि मतो चहैं बूझन। —(शब्द०)। (२) अधिक दुःख देना। उ०—मिलत एक दारुण दुख देहीं। बुछुरत एक प्राण हरि लेहीं। —तुलसी (शब्द०)। प्राण हारना =(१) मर जाना। उ०—सब जल तजे प्रेम के नाते। ००००००० समुझत मीन नीर की बातें तजत प्राण हठि हारत। जानि कुरंग प्रंम नहिं त्यागत यदपि ब्याध शर मारत। —सूर (शब्द०)। (२) साहस टूट जाना। उत्साह न रह जना। प्राण या प्राणों से हाथ धोना =जान देना। मर जाना। प्राण सा पाना = उत्साहित होना। सजीव होना। १०. वह जो प्राणों के समान प्यारा हो। परम प्रिय। ११. वैवस्वत मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि। १२. हरिवंश के अनुसार धर नामक वसु के एक पुत्र का नाम। १३. यकार वर्ण। १४. एक साम का नाम। १५. ब्रह्म। १६. ब्रह्मा। १७. विष्णु। १८. धाता के पुत्र का नाम। १९. अग्नि। आग। २०. एक गंध द्रव्य (को०)। २१. मूलाधार में रहनेवाली वायु।

प्राणअधार पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्राण+आधार] १. वह जो प्राणों के समान प्यारा हो। बहुत प्रिय व्यक्ति। उ०—(क) अब ही और की और होति कछु लागे बाण, ताते मैं पाती लिखी तुम प्राणअधारा। —सूर (शब्द०)। (ख) अपने ही गेह मधुपुरी आवन देवकी प्राणअधारा हो। असुर मारि सुर साध बढा़वन ब्रजजन सुखदातारा हो। —सूर (शब्द०)। २. पित। स्वामी।

प्राणअधार (२)
वि० प्रिय।

प्राणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवक वृक्ष। २. जीव। प्राणी। ३. एक प्रकार का सुगंधित गोंद। बोल (को०)।

प्राणकर
वि० [सं०] जिससे शरीर का बल बढे़। शक्तिवर्द्धक पौष्टिक।

प्राणकष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] वह दुःख जो प्राण निकलते समय होता है। मरने के समय की पीडा़।

प्राणकांत
संज्ञा पुं० [सं० प्राणकान्त] १. प्रिय व्यक्ति। प्यारा। २. पति। स्वामी।

प्राणकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] वह कष्ट जो मरने के समय होता है। प्राणकष्ट।

प्राणग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] नासिका। नाक।

प्राणघात
संज्ञा पुं० [सं०] मार डालना। हत्या। वध।

प्राणघातक
वि० [सं०] प्राणलेनेवाला। मार डालनेवाला [को०]।

प्राणघ्न
वि० [सं०] (वह विष आदि) जिससे प्राण निकल जायँ। प्राण लेनेवाला (जहर आदि)।

प्राणचय
संज्ञा पुं० [सं०] बल या शक्ति की वृद्धि [को०]।

प्राणच्छिद्
वि० [सं०] प्राणघाती। प्राण लेनेवाला [को०]।

प्राणच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। वध।

प्राणजीवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणाधार। २. परम प्रिय व्यक्ति। अत्यंत प्रिय मनुष्य। उ०—रघुनाथ पियारे आजु रहो हो। चारि याम विश्राम हमारे छिन छिन मीठे वचन कहो हो। बृथा होइ वर वचन हमारो री कैकेयी जीव कल से रहो हो। आतुर है अब छाडि़ कोशलपुर प्राणजीवन कित चलन चहो हो। —सूर (शब्द०)।

प्राणजीवन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु, जो प्राणों की रक्षा करते हैं।

प्राणत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राण छोड़ देना। आत्मघात करना। २. मर जाना। मरण। मृत्यु।

प्राणथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैन शास्त्रानुसार एक देवता, जो कल्पभव नामक वैमानिक देवताओं के अंतर्गत हैं। २. वायु। हवा। ३. श्वास वायु। ४. प्रजापति। ५. तीर्थ। पवित्र स्थान।

प्राणथ (२)
वि० बलवान्। हृष्ट पुष्ट। ताकतवाला।

प्राणदंड
संज्ञा पुं० [सं० प्राणदण्ड] किसी को हत्या अथवा इसी प्रकार के दूसरे अपराध के बदले में मार डालना। मौत की सजा। क्रि० प्र०—देना। —पाना। —होना।

प्राणद (१)
वि० [सं०] १. प्राणदाता। जो प्राण दे। २. प्राणों की रक्षा करनेवाला।

प्राणद (२)
संज्ञा पुं० १. जल। पानी। २. रक्त। खून। ३. जीवक नामक वृक्ष। ४. विष्णु।

प्राणदयित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पति [को०]।

प्राणदयित (२)
वि० प्राणप्रिय [को०]।

प्राणदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हरीतकी। हरे। २. ऋद्धि नामक ओषधि।

प्राणदाता
संज्ञा पुं० [सं० प्राणदातृ] १. किसी को बचाने में प्राण देनेवाला। २. प्राणों की रक्षा करनेवाला। प्राणद।

प्राणदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राण देना।२. किसी को मरने या मारे जाने से बचाना।

प्राणदायक
वि० [सं० प्राण+दायक] प्राण देनेवाला। जीवन- दायक। उ०—अनेक धार्मिक आचार्यों ने जिन प्राणदायक। सत्यों का अपने जीवन में साक्षात्कार किया था। —संपूर्णानंद अभि० ग्रं०, पृ० १६।

प्राणदुरोदर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राणद्यूत' [को०]।

प्राणद्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] १. जान पर खेलना। अपने को ऐसी स्थिति में डालना। २. जीवन का मोह छोड़कर युद्ध करना।

प्राणद्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के प्राण लेने का प्रयत्न करना [को०]।

प्राणधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो हृदय का सर्वस्व हो। अत्यंत प्रिय व्यक्ति। प्यारा। उ०—नंदजू के बारे कन्हैया छाड़ि दे मथनियाँ। बार बार कहे मात यशोमति रनियाँ। नेक रहौमाखन देउँ मेरे प्राणघनियाँ। आरि जिन करौ बलि जाउँ हो निधनी के धनियाँ। —सूर (शब्द०)।

प्राणधार (१)
वि० [सं०] प्राणवाला। जिसमें प्राण हो। जीवित।

प्राणधार (२)
संज्ञा पुं० प्राणी। प्राणधारी। जीव।

प्राणधारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवन धारण करने का भाव या क्रिया। २. प्राण धारण करने का संवल (को०)। ३. शिव।

प्राणधारी (१)
वि० [सं० प्राणधारिन्] १. जीवित। प्राणयुक्त। २. जो साँस लेता हो। चेतन।

प्राणधारी (२)
संज्ञा पुं० प्राणयुक्त। व्यक्ति। प्राणी। जंतु। जीव।

प्राणन
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन। २. चेष्टा करना। हिलना डोलना जिससे जीवित होने का प्रमाण मिले। ३. जल। पानी। ४ गला। गर्दन (को०)।

प्राणनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्राणनाथा] १. प्रिय व्यक्ति। प्यारा। प्रियतम। २. पति। स्वामी। ३. यमराज। यम (को०)। ४. एक सप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य का नाम। विशेष—ये जाति के क्षत्रिय थे और औरंगजेब के समय में हुए थे। हिंदुओं और मुसलमानों के धर्म की एकता पर इनके ग्रंथ मिलते हैं। कहते हैं कि पन्ना के राजा छत्रसाल इनके शिष्य थे। कबीर, नानक आदि के समान ये भी आजन्म साधु होकर हिंदू और मुसलमान धर्म की एकता के संबंध में उपदेश देते रहे। इनके संप्रदाय के लोग बुंदेलखंड में बहुत हैं। ये लोग मूर्तिपूजा नहीं करते और प्राणनाथ के ग्रंथों की बडी़ प्रतिष्ठा करते हैं। इस संप्रदाय में प्रवेश करते समय इस संप्रदायवालों के साथ चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान एक साथ बैठकर खाना पड़ता है और सब बातों में हिंदू और मुसलमान अपने अपने पूर्वजों के आचार व्यवहार मानते हैं। हिंदू मुसलमान दोनों मत के लोग इस संप्रदाय में दीक्षा ग्रहण करते हैं।

प्राणनाथी
संज्ञा पुं० [सं० प्राणनाथ+ हिं० ई] १. प्राणनाथ के संप्रदाय का पुरुष।२. स्वामी प्राणनाथ का चलाया हुआ संप्रदाय।

प्राणनाश
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणों का नष्ट हो जाना या कर देना। हत्या या मृत्यु। जैसे,—कल एक नाव डूब जाने के कारण कई आदमियों का प्राणनाश हुआ।

प्राणनाशक
वि० [सं०] प्राण लेनेवाला। मार डालनेवाला।

प्राणनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणायाम।

प्राणपण
संज्ञा पुं० [सं० प्राण+पण (=द्यूत या बाजी)] प्राण की बाजी। जीवन का दाँव। उ०—फिर भी लडे़ थे हम निज प्राणपण से। —लहर, पृ० ५९।

प्राणपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. आत्मा। २. हृदय। ३. पति। स्वामी। ४. प्रिय व्यक्ति। प्यारा। उ०—करि मन नंदन नंदन ध्यान। सेउ चरन सरोज सीतल तजि विषयरस पान।००००००सूर श्री गोपाल की छबि दृष्टि भरि भरि लेहिं। प्राणपति की निरखि शोभा पलक परन न देहिं। —सूर (शब्द०)। ५. चिकित्सक। वैद्य। हकीम (को०)।

प्राणापत्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ध्वनि। आवाज [को०]।

प्राणपन
संज्ञा पुं० [सं० प्राणपण] दे० 'प्राणपण'। उ०—वे किसी दीन प्राणी की रक्षा प्राणपन से कर सकते हैं।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ५५०।

प्राणपरिक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] अपने या किसी के प्राण की बाजी लगाना [को०]।

प्राणपरिक्षय
वि० [सं०] जिसका जीवन खत्म हो रहा हो। मरणासन्न [को०]।

प्राणपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राण धारण करना। जन्म लेना।

प्राणपरिवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी मृत पुरुष की आत्मा को किसी जीवित पुरुष के शरीर में बुलाना। (मिस्मेरिज्म)।

प्राणपुरक
वि० [सं० प्राण+पूरक] जीवन भरनेवाला। उत्साह भरनेवाला। जीवंत। प्राणमय। उ०—उनके वर्णन में ऐसी स्वाभाविकता और प्राणपूरक प्रवीणता रहती है कि पाठक साँस बंद करके उनके किसी उपन्यास को तबतक पढ़ता जाता है जबतक पुस्तक समाप्त न हो जाय। —प्रेम० और गोर्की, पृ० १२६।

प्राणप्यारा
संज्ञा पुं० [हिं० प्राण+प्यारा] [स्त्री० प्राणप्यारी] १. प्रियतम। अत्यंत प्रिय व्यक्ति। उ०—प्राणन की हानि सी दिखान सी लगी है हाय कौन गुन जानि मान कीन्हों प्राणप्यारे सों। —पद्माकर (शब्द०)। २. पति। स्वामी। उ०—खानपान पीछूँ करति सोवति पिछले छोर। प्राणपियारे ते प्रथम जगति भावति भोर। —पद्माकर (शब्द०)।

प्राणप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राण धारण कराना। २. हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार किसी नई बनी हुई मूर्ति को मंदिर आदि में स्थापित करते समय मंत्रों द्वारा उसमें प्राण का आरोप करना। विशेष—साधारणतः जबतक किसी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा न हो ले तबतक वह मूर्ति पूजा के योग्य नहीं होती और उसकी गणना साधारण धातु, मिट्टी या पत्थर आदि में होती है। प्राणप्रतिष्ठा के उपरांत ही उस मूर्ति में देवता का आना माना जाता है।

प्राणप्रद
वि० [सं०] १. प्राणदाता। जो प्राण दे। २. प्राण की रक्षा करनेवाला। ३. स्वास्थ्यवर्धक। शरीर का स्वास्थ्य और बल आदि बढा़नेवाला।

प्राणप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋद्धि नामक औषधि।

प्राणप्रदायक
वि० [सं०] प्राणदाता। प्राणप्रद।

प्राणप्रयाण
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणों का जाना। मृत्य [को०]।

प्राणप्रिय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रायप्रिया] जो प्राण के समान प्रिय हो। प्रियतम।

प्राणप्रिय (२)
संज्ञा पुं० १. अत्यंत प्रिय व्यक्ति। प्राणप्यारा। २. पति।

प्राणबल्लभ
संज्ञा पुं० [सं० प्राणवल्लभ] दे० 'प्राणवल्लभ'।

प्राणभक्ष
वि० [सं०] केवल हवा पर जीवित रहनेवाला। केवल हवा पीकर रहनेवाला [को०]।

प्राणमास्वान्
संज्ञा पुं० [सं० प्राणभास्वत्] समुद्र [को०]।

प्राणभूत
वि० [प्राण+भूत] जीवनरुप। प्राणवत्।

प्राणभृत् (१)
वि० [सं०] १. प्राण धारण करनेवाला। २. प्राणपोषक।

प्राणभृत् (२)
संज्ञा पुं० १. जीव। प्राणी। २. विष्णु।

प्राणमय
वि० [सं०] प्राण संयुक्त। जिसमें प्राण हों।

प्राणमय कोश
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत के अनुसार पाँच कोशों में से दूसरा। विशेष—यह पाँच प्राणों से जिन्हें प्राण,अपान, व्यान, उदान और समान कहते हैं, बना हुआ माना जाता है। वेदांतसार में पाँचों कर्मेंद्रियों को भी प्राणमय कोश के अंतर्गत माना है। इसी प्राणमय कोश से मनुष्य को सुखदु खादि का बोध होता है। सूक्ष्म प्राण सारे शरीर में फैलकर मन को सुख दुःख का ज्ञान कराते हैं। यही कोश बौद्ध ग्रंथों में वेदना स्कंध माना गया है।

प्राणमोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणों का जाना। मृत्यु। २. आत्महनस। आत्महत्या [को०]।

प्राणयम
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणायाम।

प्राणयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्वास प्रश्वास के आने जाने की क्रिया। साँस का आना जाना। २. भोजनादि जो जीवन के साधनभूत हैं। वे व्यापार जिनसे मनुष्य जीवित रहता है।

प्राणयोग
संज्ञा पुं० [सं० प्राण+योग] दे० 'प्राणायाम'। उ०— प्रथम प्राणयोग जो भाखा। कारज सिद्ध जो बाहेर राखा।—कबीर सा०, पृ० ८७७।

प्राणयोनि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमेश्वर। २. वायु। हवा।

प्राणयोनि (२)
संज्ञा स्त्री० प्राण का मूल। जीवन का मूल [को०]।

प्राणरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० प्राणरन्ध्र] १. नासिका। नाक। २. मुख। मुँह।

प्राणरोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणायाम। २. जीवन का खतरा (को०)। ३. एक नरक (को०)।

प्राणरोधन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणायाम।

प्राणवंत
सं० [सं० प्राणावत्] जीवंत। सजीव। उ०—जनता के मानस को जिसने प्राणवंत, उत्साहित और आनंदित बनाया है। —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ६४८।

प्राणवत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सप्राण या जीवित होने का भाव [को०]।

प्राणवध
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। प्राणघात। जान से मार डालना।

प्राणवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्राणवल्लभा] १. वह जो बहुत प्यारा हो। अत्यंत प्रिय। २. स्वामी। पति।

प्राणवान्
संज्ञा पुं० [सं० प्राणवत्] [स्त्री० प्राणवती] वह जिसमें प्राण हों। प्राणी। जीव।

प्राणवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राण। उ०—प्राणवायु पुनि आइ समावै। ताको इत उत पबन चलावै। —सूर (शब्द०)। २. जीव। प्राणी।

प्राणविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपनिषदों का वह प्रकरण जिसमें प्राण का वर्णन है।

प्राणविनाश, प्राणविप्लव, पाणवियोग
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा का शरीर से वियुक्त होना। मृत्यु [को०]।

प्राणवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राण, आपान, उदान आदि पचप्राणों का कार्य।

प्राणव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणनाश। मृत्यु।

प्राणशरीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपनिषदों के अनुसार एक सूक्ष्म शरीर जो मनोमय माना गया है। इसी को विज्ञान और क्रिया का हेतु मानते हैं। २. परमेश्वर।

प्राणशोषण
संज्ञा पुं० [सं०] वाण।

प्राणसंकट
संज्ञा पुं० [सं० प्राणसङ्कट] वह कष्ट जो प्राणों पर हो। जान जोखिम।

प्राणसंगिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राण+सङ्गिनी] स्त्री। पत्नी। उ०— प्रेयसी, प्राणसगिनी नाम, शुभ रत्नावली सरोज दाम।—तुलसी०, पृ० २७।

प्राणसदेह
संज्ञा पुं० [सं० प्राणसन्देह] जीवन की आशंका। वह अवस्था जिसमें जान जाने का डर हो।

प्राणसंन्यास
संज्ञा पुं० [सं० प्राणसंन्यास] मृत्यु। मौत।

प्राणासभूत
संज्ञा पुं० [सं० प्राणसम्भूत] वायु। हवा।

प्राणसंभृत्
संज्ञा पुं० [सं० प्राणासम्भृत] वायु।

प्राणसयम
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणायाम।

प्राणसंवाद
संज्ञा पुं० [सं०] उपनिषद का वह प्रकरण जिसमें श्रेष्ठता दिखाने के लिये प्राण का ग्यारह इंद्रियों के साथ विवाद कराया गया है और अंत में सबसे प्राण की श्रेष्ठता स्वीकार कराई गई है।

प्राणसंशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवन की आशंका। प्राणसंकट। २. मरणासन्नता।

प्राणसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदों के पढ़ने का एक क्रम। विशेष—इसमें एक साँस में जहाँतक अधिक हो सके पाठ किया जाता है।

प्राणसद्म
संज्ञा पुं० [सं० प्राणसद्मन्] शरीर। देह [को०]।

प्राणसम
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्राणसमा] १. वह जो प्राण के समान प्रिय हो। २. पति [को०]।

प्राणसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. बल। शक्ति। ताकत। २. वह जिसमें बहुत बल हो। बलिष्ठ। ताकतवर।

प्राणसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जीवनसूत्र।

प्राणहंता
वि०, संज्ञा पुं० [सं० प्राणहन्तृ] प्राणघातक। घातक प्राण लेनेवाला।

प्राणहर (१)
वि० [सं०] १. मारक। नाशक। घातक। प्राण लेनेवाला। २. बलनाशक। शक्ति नष्ट करनेवाला।

प्राणहर (२)
संज्ञा पुं० विष आदि जिससे प्राण निकल जाते हों।

प्राणहारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वत्सनाभ।

प्राणहारक (२)
वि० प्राण लेनेवाला। प्राणनाशक।

प्राणहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अवस्था जिसमें प्राणों पर संकट हो। जान जोखिम।

प्राणहारी
संज्ञा पुं० [सं० प्राणहारिन्] [स्त्री० प्राणहारिणी] प्राण लेनेवाला। प्राणनाशक।

प्राणांत
संज्ञा पुं० [सं० प्राणान्त] मरण। प्रणनाश। मृत्यु।

प्राणांतक
वि०, संज्ञा पुं० [सं० प्राणान्तक] प्राण लेनेवाला। जान लेनेवाला। घातक। जैसे, प्राणांतक कष्ट होना।

प्राणांतिक (१)
वि० [सं० प्राणान्तिक] १. घातक। प्राण लेनेवाला। जीवन के अंत तक रहनेवाला। जीवन पर्यत रहनेवाला। ३. खतरनाक (को०)।

प्राणांतिक
संज्ञा पुं० वध। हत्या [को०]।

प्राणाग्रिहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन के समय पहले पाँच ग्रास निकालकर एक एक ग्रास को 'प्राणाय स्वाहा', 'अपानाय स्वाहा', 'व्यानाय स्वाहा', 'उदानाय स्वाहा' और 'समानाय स्वाहा' इस प्रकार एक एक मंत्र पढ़कर खाने की क्रिया।

प्राणाघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीडा़। कष्ट। २. हिंसा। हत्या। मार डालना।

प्राणाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] राजचिकित्सक [को०]।

प्राणातिपात
संज्ञा पुं० [सं०] जीवहिंसा। जान से मार डालना।

प्राणातिपात विरमण
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मतानुसार अहिंसा व्रत। विशेष—यह दो प्रकार का होता है —द्रव्य प्राणातिपात विरमण और भाव प्राणातिपात विरमण। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं। बध, बंध, छेदविच्छेद अतिभारारोपण और भोगव्यवच्छेद।

प्राणात्मा
संज्ञा पुं० [सं० प्राणात्मन्] प्राण। लिंगत्मा। जीवात्मा।

प्राणात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राणनाश। मृत्यु। २. मृत्युकाल। मरने का समय। ३. प्राण जाने का डर। जान जोखिम (को०)।

प्राणाद
वि० [सं०] प्राणनाशक।

प्राणाधार (१)
वि० [सं०] अत्यंत प्रिय। प्यारा।

प्राणाधार (२)
संज्ञा पुं० १. प्रेमपात्र। २. पति। स्वामी। ३. जीवन का आधार। जीवन का सहारा। उ०—जन्म जन्मों की मेरी साध, सुरा हो मेरी प्राणाधार। जीवन का सहारा।—मधुज्वाल, पृ० ७४।

प्राणाधिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्राणाधिका]— १. प्राणों से अधिक प्रिय। बहुत प्यारा। २. अत्यधिक शक्तियुक्त (को०)।

प्राणाधिक (२)
संज्ञा पुं० पति। स्वामी।

प्राणाधिनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] पति। स्वमी।

प्राणाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणों के अधिष्ठाता देवता। आत्मन्।

प्राणपहारकता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राण+अपहारक+ता (प्रत्य०)] किसी के प्राण ले लेने का भाव। उ०—वक्ता के उक्त शब्द प्रयोग द्वारा अनंतादेवी की क्रूरता, दुष्टता, निर्ममता एवं प्राणापहारकता आदि का आभास मिलता है। —शैली, पृ०१७५।

प्राणपान
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राण और अपान वायु। २. अश्विनीकुमार।

प्राणावाध
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणसंशय।

प्राणायतन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राणों के निकलने का प्रधान स्थान या मार्ग। विशेष—याज्ञवल्क्य संहिता में दोंनों कान, नाक के दोनों छेद, दोनों आँखें, गुदा लिंग और मुख के द्बार ये प्राण निकलने के नौ प्रधान मार्ग गिनाए गए हैं। इन्हीं मागों से प्राणियों के शरीर से मृत्यु के समय प्राण निकलते हैं।

प्राणायन
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञानेंद्रिय [को०]।

प्राणायाम
संज्ञा पुं० [सं०] योग शास्त्रानुसार योग के आठ अंगों में चौथा। विशेष—श्वास और प्रश्वास की गति के विच्छेद के पतंजलि दर्शन में प्राणयाम माना है। बाहर की वायु को भीतर ले जाना श्वास और भीतर की वायु को बाहर फेंकना प्रश्वास है। इन दोनों प्रकार की वायुओं की गतियों को प्रयत्नपूर्वक धीरे धीरे कम करने का नाम प्राणायाम है। इसकी तीन वृत्तियाँ मानी गई है—ब्राह्म, आभ्यंतर और स्तंभ। इन्हीं तीनों को रेचक, पूरक और कुंभक भी कहते हैं। भीतर की वायु को बाहर फेंकना रेचक, बाहर की वायु को भीतर ले जाना पूरक और भीतर खींची हुई वायु को उदरादि में भरना कुंभक कहलाता है। इसके अतिरिक्त एक और शक्ति है जिसे बाह्माभ्यंतर विषयाक्षेपी कहते हैं। इसमें श्वास प्रश्वास की बाह्य और आभ्यंतर दोनों वृत्तियों का निरोध करके उसे रोक देते हैं। इन चारों वृ्तियों के देश काल और संख्या के भेद से दीर्घ और सूक्ष्म नामक दो दो भेद होते है। योग शास्त्र में प्राणायाम की बड़ी महिमा है। पतंजलि ने इसका फल यह माना है कि इससे प्रकाश का आवरण क्षीण होता है और धारणा में, जो योग का छठा अंग है, योग्यता होती है। प्राण के निरोध से चित्त की चंचलता निवृत्ति होती है और फिर योगी को प्रत्याहार सुगम होता है। योगाभ्यास के लिये यह प्रधान कर्म माना गया है। इसके अतिरिक्त प्राणायाम संख्या का एक अंग है। शास्त्रों में इसे सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ तप माना है और कहा गया है कि प्राणायाम करने से सब प्रकार के पाप नष्ट होते हैं।

प्राणायामी
वि० [सं० प्राणायामिन्] प्राणायाम करनेवाला। जो प्राणायाम करे।

प्राणाय्य
वि० [सं०] योग्य। उपयुक्त।

प्राणावरोध
संज्ञा पुं० [सं०] प्राण का अवरोध होना। श्वास का रूकना।

प्राणासन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्रानुसार एक प्रकार का आसन।

प्राणाहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वे पाँच ग्रास जो भोजन के पूर्व 'प्राणाय स्वाहा', 'अपानाय स्वाहा', 'व्यानाय स्वाहा', 'समा- नाय स्वाहा और 'उदानाय स्वाहा' मंत्र से खाए जाते हैं। इसे प्राणाग्निहोत्र भी कहते हैं।

प्राणि
संज्ञा पुं० [सं० प्राणिन, प्राणी] 'प्राणी'।

प्राणिक
वि० [सं० प्राण+इक (प्रत्य०)] प्राण संबंघी। प्राणों की। उ०—भौतिक आग नहीं यह, कायिक आग नहीं यह प्राणिक आग नहीं, न मानसिक आग सही यह। —अतिमा, पृ० ५९।

प्राणिजात
संज्ञा पुं० [सं०] पशु वर्ग। जीव जगत् [को०]।

प्राणित
वि० [सं०] जो जीवित रखा गया हो। जिसमें प्राण संचार किया गया हो [को०]।

प्राणिद्यूत
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्रनुसार वह बाजी जो मेढ़े, तीतर, घोड़े आदि जीवों की लड़ाई या दोड़ आदि पर लगाई जाय। पर्या०—समाह्वया। साहय।

प्राणिपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राणिपीडा] पशुओं को सताना [को०]।

प्राणिमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राणिमातृ] गर्भदात्री नाम का क्षुप।

प्राणियोधन
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं को लड़ाना [को०]।

प्राणिवध
संज्ञा पुं० [सं०] जीवहिंसा।

प्राणिहिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुशुओं को चोट पहुँचाना या मारना [को०]।

प्राणिहिता
संज्ञा पुं० [सं०] १. पादुका। खड़ाऊँ। २. जूता।

प्राणी (१)
वि० [सं० प्राणिन्] प्राणधारी। जिसमें प्राण हों।

प्राणी (२)
संज्ञा पुं० १. जंतु। जीव। २. मनुष्य। ३. व्यक्ति। जैसे, तुम्हारे घर में कितने प्राणी हैं ?

प्राणी (३)
संज्ञा स्त्री० पुं० पुरुष या स्त्री। मुहा०—दोनों प्राणी = दंपति। स्त्री पूरूष। विशेष—किसी किसी प्रांत में पूरूष अपनी स्त्री के लिये और स्त्री अपने पति के लिये 'प्राणी' शब्द का व्यवहार करते हैं।

प्राणीत्य
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ज। ऋण [को०]।

प्राणेश
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्राणेशा] १. पति। स्वामी। २. प्यारा। प्रेमी व्यक्ति। ३. वायु (को०)।

प्राणेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पत्नी। २. प्रिया।

प्राणेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्राणेश्वरी] १.पति। स्वामी। २. प्रेमी व्यक्ति। बहुत प्यारा। ३. वायु (को०)।

प्राणेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.पत्नी। २. प्रिया।

प्राणोत्कमण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राणोत्सर्ग'।

प्राणोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] प्राण जाना। मृत्यु [को०]।

प्राणोदुबोधन
संज्ञा पुं० [सं० प्राण + उदुबोधन] प्राणों को उदुबुद्ध करना या प्रेरणा देना। उ०—यह जमाना राष्ट्र के लिये प्राणोदुबोधन का था।—सुखदा, पृ० २९।

प्राणोपहार
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन। आहार। खाना।

प्रातः (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रातर्] सबेरा। प्रभात। तड़का।

प्रातः (२)
अव्य० सबेरे। तड़के। प्रभात के समय [को०]।

प्रातःकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जो प्रातःकाल किया जाता हो। सबेरे किए जानेवाले कृत्य। जैसे, शौच, स्नान, संध्यो- पासन आदि।

प्रातःकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रात के अंत में सूर्योदय के पूर्व का काल। यह तीन मुहुर्त का माना गया है। विशेष—जिस समय सूर्य उदय होने को होता है, उससे डेढ़ दो घंटा पहले पूर्व दिशा में कुछ प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है और उधर के नक्षत्रों का रंग फीका पड़ना प्रारंभ होता है। तभी से इस काल का आरंभ माना जाता है। २. सबेरे का समय। सूर्योदय के कुछ देर बाद तक का समय।

प्रातःकार्य
संज्ञा पुं० [सं० प्रातःकार्य्य] वह काम जिसे प्रातःकाल करने का विधान है। प्रातःकृत्य। जैसे, शौच, स्नान, संध्योपासन आदि।

प्रातःकालिक
वि० [सं०] प्रातःकाल संबघी। प्रातःकाल का [को०]।

प्रातःकालीन
वि० [सं०] प्रातःकाल संबंधी। प्रातःकाल का।

प्रातःकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रातःकार्य'।

प्रातःसंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह संध्या जो प्रातःकाल में की जाय। २. रात्रि का अंतिम और दिन का प्रारंभिक दंड।

प्रातःसवन
संज्ञा पुं० [सं०] तीन प्रधान सवनों या सोमयागों में से पहला सवन।

प्रातःस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्नान जो प्रातःकाल में किया जाय। सबेरे का स्नान।

प्रातःस्नायी
वि० [सं० प्रातःस्नायिन्] जो प्रातःकाल स्नान करता हो। सबेरे नहानेवाला।

प्रातःस्मरण
संज्ञा [सं०] प्रातःकाल के समय ईश्वर, देवतादि के नामों का स्मरण या जप आदि करने की क्रिया या भाव। सबेरे के समय ईश्वर का भजन करना।

प्रातःस्मरणीय
वि० [सं०] जो प्रातःकाल स्मरण करने के योग्य हो। श्रेष्ठ। पूज्य।

प्रात (१)
अव्य० [सं० प्रातः] सबेरे। तड़के। प्रभात के समय। उ०— (क) एक देखि बट छाँह भलि, डासि मृदुल तृण पात। कहहिं गँवाइय छिनकु श्रम, गवनब अबहिं कि प्रात।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बनमाली दिसि सैन कै ग्वाली चाली बात। आली जमुना जाउँगी काली पूजन प्रात।—शृं० स० (शब्द०)।

प्रात (२)
संज्ञा पुं० सबेरा। प्रातःकाल। सूर्योदय के पूर्व का काल। उ०—(क) प्रात भए सब भूप, बनि बनि मंडप में गए। जहाँ रूप अनुरूप, ठौर ठौर सब शौभिजै।—केशव (शब्द०)। (ख) साँस भए जाय शयन ठौरहि तहँ सोवति। करत दुःख की हानि प्रात लौं रोवति रोवति।—श्रीधर (शब्द०)।

प्रातकृत पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रातःकृत्य] दे० 'प्रातःकार्य'। उ०—प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथ राजु दीख प्रभु जाई। मानस, २।१०५।

प्रातक्रिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रातःक्रिया] दे० 'प्रातकर्म'। उ०—प्रात- क्रिया करि तात पहि आए चारिहु भाइ।—मानस, २।३५८।

प्रातनाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रातः + नाथ] सूर्य। उ०— सूर छिप्यो पश्चिम प्रकाश्यो शशि प्रची दिशि, चक्रवाक बिछुरे चकोर सुख पायो है। कुमु दिनी फूली कुंद मूँदे भौर बाँधे बीच, प्रातनाथ बूड़ो़ मानों कालकूट खायो है। आधी राति बीती सब सोए जिय जान आन, राक्षली प्रभंजनी प्रभाव सो जनायो है। बीजुरी सी फुरी भाँत बुरी हाथ छुरी लोह चुरी ढीठ जुरी देखि अनद लजायो है।— हनुमान (शब्द०)।

प्रातमाघ पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रातः + माध] माध मास का प्रभात। उ०— बिंहसित्त नगर नन प्रसध साध। सिर द्रवत उदक विष प्रातमाघ। —पृ० रा०, १।५०१।

प्रातर (१)
अव्य० [सं०] प्रभात। सबेरे।

प्रातर् (२)
संज्ञा पुं० पुष्यार्ण और प्रभा के पूत्र, एक देवता का नाम।

प्रातर
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम।

प्रातरनुवाक
संज्ञा पुं० [सं०] ऋग्वेद के अंतर्गत वह अनुवाक् जो प्रातःसवन नामक कर्म में पढ़ा जाता है।

प्रातरमिवादन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातःकाल का प्रणाम। वह अभिवादन जो प्रातःकाल सोकर उठने से समय किया जाय।

प्रातरशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रातराश' [को०]।

प्रातरह्न
संज्ञा पुं० [सं०] दोपहर के पहले का समय। पूर्वाह्न।

प्रातराश
संज्ञा पुं० [सं०] प्रातः का हलका भोजन। जलपान। कलेवा। उ०— खाने के कमरे में जा आलो की प्रतीक्षा किए बिना प्रातराश करना आरंभ कर दिया।— ज्ञानदान, पृ० १७३।

प्रातराहुति
संज्ञा पुं० [सं०] वह आहुति जो प्रातःकाल दी जाय। अग्निहोत्र का द्बितीयांश।

प्रातर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतर्दन के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। प्रतर्दन का अपत्य।

प्रातर्भोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० प्रातभोंक्तृ] कौआ।

प्रातश्चंद्रद्युति
वि० [सं० प्रातश्चन्द्रुद्युति] निष्प्रभ। मलिन। निस्तेज [को०]।

प्रातस्तन, प्रातस्त्व
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रातस्तनी] प्रातः काल से संबंधित। प्रातःकाल का (को०)।

प्रातस्रिवर्गा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।

प्रातस्सवन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रातःसवन' [को०]।

प्राति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अँगूठे और तजंनी के बीच का स्थान। पितृ तीर्थ। २.भरना। पूर्ति (को०)।

प्रातिकंठिक
वि० [सं० प्रतिकणिठक] गला पकड़नेवाला।

प्रातिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवा या जपा का पेड़।

प्रातिकामी
संज्ञा पुं० [सं० प्रातिकामिन्] १. सेवक नौकर। २. दुर्याधन के एक दूत का नाम।

प्रातिकूलिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रातिकूलिकी] [संज्ञा प्राति- कूलिकता] विरूद्ब। विपरीत [को०]।

प्रातिकूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिकूल होने का भाव [को०]।

प्रातिजनीन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रतिजनीनी] १. शत्रु के विरूद्ब उपयुक्त। २. प्रत्येक के लिये उपयुक्त। सार्व- जनीन [को०]।

प्रातिदैवासिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रतिदैवसिकी] प्रतिदिन होनेवाला [को०]।

प्रातिनिधिक (१)
वि० [सं० प्रतिनिधि] प्रतिनिधित्व से युक्त। जैसे,— प्रातिनिधिक संस्था।

प्रातिनिधिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिनिधि [को०]।

प्रातिपक्ष
वि० [सं०] १. विपरीत। विरूद्ब। शत्रु संबंधी। शत्रु का। शात्रव [को०]।

प्रातिपक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुता। दुश्मनी [को०]।

प्रातिपथिक
संज्ञा पुं० [सं०] राहगीर। यात्री [को०]।

प्रातिपद
वि० [सं०] १. प्रारंभिक। आरंभ का। २. प्रतिपदा से संबंधित [को०]।

प्रातिपदिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. संस्कृत व्याकरण के अनुसार वह अर्थवान् शब्द जो धातु न हो जौर न उसकी सिद्बि विभक्ति लगने से हुई हो। जैसे, पेड़, अच्छा आदि। विशेष—प्रातिपदिक के अंतर्गत ऐसे नाम, सर्वनाम, तद्बितांत कृदत और समासांत पद आते हैं जिनमें कारक की विभक्तियाँ न लगाई गई हों। व्याकरण मे उनकी 'प्रातिपादक' संज्ञा केवल विभक्तियों को लगाकर उनसे सिद्ब पद बनाने के लिये की गई है।

प्रातिपीय
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम। २. एक ऋषि का नाम जो गोत्रप्रवर्तक थे।

प्रातिपेय
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम।

प्रातिभ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार उन पाँच प्रकार के उपसगों या विध्नों में से एक प्रकार का विध्न जो योगियों के योग में हुआ करता है। विशेष—यह विध्न प्रतिभा के कारण हुआ करता है ओर इसमें योगी के मन में सब वेदों और शास्त्रों आदि के अर्थ और अनेक प्रकार की विद्याओं तथा कलाओँ आदि का ज्ञान उत्पन्न हुआ करता है। २. वह जिसमें प्रतिभा हो। प्रतिभाशाली।

प्रातिभ (२)
वि० १. प्रतिभा से संबंधित। प्रतिभा का। २. बौद्बिक। मानसिक। ३. प्रतिभायुक्त [को०]।

प्रातिभाव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रातिभू का भाव। जमानत। जामिनी। २. वह धन जो प्रतिभु का भाव। जमानत। पर लिया गया हो।

प्रातिभासिक
वि० [सं०] १. प्रतिभास संबंघी। अनुरुपक। २. जो वास्तव में न हो पर भ्रम के कारण भासित हो। जैसे, रज्जु में सर्प का ज्ञान प्रातिभासिक है। ३. जो व्यावहारिक न हो।

प्रातिरुपिक
वि० [सं०] संमान रूप का। नकली। दिखावटी [को०]।

प्रातिलोमिक
वि० [सं०] १. आनुलोमिक का उलटा। प्रतिलोम से उत्पन्न। २. विपक्ष। विरुद्ब। ३. अप्रीतिकर। जो भला न जान पड़े।

प्रातिलोम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रातिलोम का भाव। २. विरुद्बता। ३. प्रतिकूलता।

प्रातिवेशिक
संज्ञा पुं० [सं०] पड़ोसी। प्रतिवेशी।

प्रातिवेश्मक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्रातिवेश्मकी] पडो़सी।

प्रातिवेश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १.पड़ोस। २. पड़ोसी। ३. वह पडो़सी जिसका द्बार अपने द्बार के ठिक सामने हो। आनुवेश्य का उलटा।

प्रातिवेश्यक
संज्ञा पुं० [सं०] पड़ोसी।

प्रातिशाख्य
संर्व पुं० [सं०] वह ग्रंथ जिसमें वेदों की किसी शाखा के स्वर, पद, संहिता, संयुक्तवर्ण इत्यादि के उच्चारण आदि का निर्णय किया गया हो। विशेष—वेदों की प्रत्येक शाखा की संहिताओं पर एक एक प्रातिशाख्य थे और उनके कर्ताओं के मत का उल्लेख यथास्थान मिलता है। पर आजकल इस विषय के केवल पाँच छह ग्रंथ मिलते हैं।

प्रातिसीम
संज्ञा पुं० [सं०] पडो़सी। प्रतिवेशी [को०]।

प्रातिस्विक
वि० [सं०] १. अपना। निज का। २. अपना अपना। प्रत्येक का। यथाक्रम पृथक् पृथक्। ३. जिसमें कुछ असाधारणता हो।

प्रातिहंत्र
संज्ञा पुं० [सं० प्रातिहन्त्र] प्रतीकार। बदला। प्रतिशोध [को०]।

प्रातिहत
संज्ञा पुं० [सं०] स्वरित।

प्रातिहर्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिहर्ता का कर्म। प्रतिहर्ता का भाव। प्रतिहर्तापन।

प्रातिहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाग का खेल करनेवाला। मायावी। जादुगर। २. द्बारपाल। प्रतिहार।

प्रातिहारिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रातिहार' [को०]।

प्रातिहरिक (१)
वि० [सं०] प्रतिहार संबंधी।

प्रातिहरिक (२)
संज्ञा पुं० १.द्बारपाल। २. लाग के खेल करनेवाला। जादुगर। मायावी।

प्रातिहार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्बारपाल का काम। २. माया। लाग। इंद्रजाल।

प्रातीतिक
वि० [सं०] १. जिसकी प्रतीति केवल चिंता या कल्पना के द्बारा मन में होती हो। जो केवल कल्पना और चिंतन से भासमान होता हो। प्रातिभासिक। २. जिसकी प्रतीति स्वयं किसी को हो।

प्रातीप
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतीप का अपत्य। २. प्रतीप के पुत्र शांतुन नरेश।

प्रातीपक
वि० [सं०] १. प्रतिकूल आचरण करनेवाला। विरूद्बा- चारी। २. विपरीत। उलटा।

प्रातृद
संज्ञा पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि का नाम।

प्रात्यंतिक
संज्ञा पुं० [सं० प्रात्यन्तिक] १. वह राज्य जो सीमाप्रांत में हो। ऐसा राज्य जो दो राज्यों की सीमा के मध्य में हो। २. सीमा की रक्षा के लिये नियुक्त पुरूष।

प्रात्यक्ष
वि० [सं०] प्रत्यक्ष संबंधी।

प्रात्यग्रथि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिग्रथ के गोत्र में उत्पन्न पुरूष।

प्रात्ययिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मिताक्षरा के अनुसार तीन प्रकार के प्रतिभू में से दूसरा। वह जो किसी की पहचान करके उसका प्रतिभू बने।

प्रात्यायिक (२)
वि० विश्वासदायक। विश्वास्त [को०]।

प्रात्यहिक
वि० [सं०] दैनिक। प्रतिदिन का।

प्राथमकल्पिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह विद्यार्थी जिसने अभी वेदाध्ययन प्रारंभ ही किया हो। २. वह योगी जिसने अभी योगाभ्यास शुरु किया हो [को०]।

प्राथमिक
वि० [सं०] १. पहले का। जो पहले उत्पन्न हुआ हो। २. प्रारंभिक। आदिम। ३. जो पहली बार हुआ हो (को०)।

प्राथम्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रथम का भाव। प्रथमता। पहलापन।

प्रादक्षिण्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदक्षिण संबंधी।

प्रादानिक
वि० [सं०] जो दान करने के योग्य हो।

प्रादीपक
संज्ञा पुं० [सं०] घर या खेत आदि में आग लगानेवाला। विशेष—कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार जो लोग इस अपराध में पकड़े जाते थे, उनको जीते जी जलाने का दंड दिया जाता था।

प्रादुराक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] गोत्र प्रवरकार एक ऋषि का नाम।

प्रादुर्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. आविर्भाव। प्रकट होना। आस्तित्व में आना। तिरोभाव का उलटा। २. विकास। ३. उत्पत्ति। ४. देवताओँ का आविर्भाव होना (को०)।

प्रादुर्भूत
वि० [सं०] १. आविर्भूत। प्रकटित। जिसका प्रादुर्भाव हुआ हो। २. विकसित निकला हुआ। ३. उत्पन्न।

प्रादुर्भूतमनोभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केशव के अनुसार मध्या के चार भेदों में एक। विशेष— इसके मन में काम का पूरा प्रादुर्भाव होता है और कामकला के समस्त चिह्न प्रकट होते है। जैसे,—आजु में देखि है गोपसुता इक होइ न ऐसि अहीर की जाई। देखति ही रहिए द्युति देह की देखतै औरन दोखि सूहाई। एकहि बंक बिलोकनि ऊपर वारौ विलोक त्रिलोक निकाई। केशवदास कलानिधि सो बरू बूझिहै काम कि मेरो कन्हाई।

प्रादुष्करण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी अप्रकट वस्तु को प्रकट करने का भाव। प्रदर्शन। उत्पादन। प्रकटीकरण। २. दृष्टि- गोचरकरण। दिखलाना।

प्रादूष्कृत
वि० [सं०] १. जिसका प्रादुष्करण हुआ हो। जो प्रकट किया गया हो। २. प्रदर्शित। जो दिखलाया गया हो।

प्रादुष्कृत्य
वि० [सं०] १. उत्पाद्य। २.प्रकट करने योग्य। जो दिखलाने के योगय हो।

प्रादुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रादुर्भाँव।

प्रादेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. अँगूठे से प्रारंभ कर तर्जनी तक की लंबाई का एक मान। विशेष—यह अँगूठे की नीक से लेकर तर्जनी की नोक तक का होता था और नापने के काम आता था। २. तर्जनी और अँगूठे के बीच का भाग। ३. प्रदेश। स्थान।

प्रादेशन
संज्ञा पुं० [सं०] दान। भेंट [को०]।

प्रादेशिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री०, प्रादेशिकी] १. प्रदेश संबंधी। किसी एक प्रदेश का। प्रांतिक। २. प्रसंगगत। प्रसंगानुसार। विषयानुसार। ३. सीमित स्थानगत (को०)।

प्रादेशिक (२)
संज्ञा पुं० १. सांमत। जमीनदार या सरदार आदि। २. सूबेदार।

प्रादेशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तर्जनी।

प्रादेशी
वि० [सं० प्रादेशिन्] प्रादेश मात्र लंबा। बित्ते भर का। जिसकी लंबाई एक बित्ता हो [को०]।

प्रादोष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रादोषी] प्रदोष संबंधी। प्रदोष का। प्रदोष से संबंध रखनेवाला।

प्रादोषिक
वि० [सं०] [स्त्री० प्रदोषिकी] प्रदोष का [को०]।

प्राधनिक (१)
वि० [सं०] लड़ाका। योद्बा।

प्राधनिक (२)
संज्ञा पुं० युद्ब का उपकरण। लडा़ई का सामान।

प्राधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कश्यप की एक स्त्री और दक्ष की एक कन्या का नाम। विशेष—पूराणों में इसे गंधवों और अप्सराओं की माता बतलाया गया है।

प्राधानिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्राधानिकी] १. प्राधान। श्रेष्ठ। २. प्रधान संबंधी। ३. मूल प्रकृति से संबद्ब।

प्राधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रधानता। श्रेष्ठता। २. मुख्यता। ३. मूल प्रकृति। मूल कारण। निदान।

प्राधिकरण
संज्ञा पुं० [सं० प्र (उप०) + अधिकरण] विशेष अधिकारप्राप्त व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह।

प्राधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० प्र(उप०) + अधिकारी] सत्ताप्राप्त व्यक्ति। विशेष अधिकारी। (अं० अथारिटी)।

प्राधिकृत
संज्ञा पुं० [सं० प्र(उप०) + आधिकृत] अधिकारपूर्ण। साधिकार। उ०—राज्य विधान सभा द्बारा पारित किए जानेवाले विधेयक और अन्य बातों राज्य की भाषा में ही हों किंतु उनके साथ ही प्राधिकृत और प्रामाणिक अनुवाद भी रहें। —शुक्ल अभि०, ग्र०, पृ०, ७३।

प्राधीत
वि० [सं०] जिसने काफी अध्ययन किया हो। पूर्ण शिक्षित। अत्यंत शिक्षित [को०]।

प्राधीन †
वि० [सं० पराधीन] दे० 'प्रराधीन'। उ०—हे प्रभु मेरे बंदी छोरा। हौं प्राधीन दास मैं तोरा। —कबीर सा०, पृ० ८१।

प्राध्ययन
वि० [सं०] अघ्ययन। पढ़ना [को०]।

प्राध्यापक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान अध्यापक। वरिष्ठ अध्यापक। (अं० प्रोफेसर)।

प्राध्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंबी राह। बहुत बड़ा रास्ता। २ जिस वस्तु पर सवार होकर लोग लंबी यात्रा करें। सवारी। ३. पहर। ४. विनय।५. बंध। ६. परिहास। क्रिड़ा (को०)।

प्राध्व (२)
वि० १. दूर का। लंबा। २.झुका हूआ। प्रवृत्त। ३. बँधा हुआ। बद्ब। ४. अनुकूल। ५. यात्रा पर गया हुआ [को०]।

प्रध्वन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सड़क। २. नदी का गर्भ।

प्राध्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष की शाखा। पेड़ की डाल।

प्रान पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राण] दे० 'प्राण'। उ०—जय जय दशरथ कुल कमल भान। जय कुसुद जनन शशि प्रजा प्रान। —सूर (शब्द०)। मुहा०—प्रान तजना = मरना। उ०—प्रिय बिछुरन को दुसह दुख हरखि जात प्योसार। दूरजोधन लौं देखियत तजत प्रान इहि बार। —बिहारी (शब्द०)। प्रान नहीं में समाना = आशंकित होना। भयभीत होना । वैसे,—जब से इसे ज्वर है मेरे प्रान नहों में समाए हुए है।— मान० भा०, ५. पृ० ६। प्रान रखना =जिलाना। जीवन देना। उ०— अचल करों तन राखी प्राना। सुनि हँसि बोलेउ कृपानिधाना। — तुलसी (शब्द०)। प्रान सा पाना =सजीव होना। उत्साहित होना। उ०— नंद महर घर जब सुत जायौ। सुनतहि सबन प्रान सो पायौ। —नंद० ग्रं०,पृ० २३३। विशेष— अन्य मुहावरे तथा अर्थों के लियें दे० 'प्राण' शब्द।

प्रानअघार पु †
संज्ञा पुं० [सं०प्राण + आधार] वह जो प्राण के समान प्यारा हो। बहुत प्रिय व्यक्ति। उ०—चरिहु चक्र फिरौ मैं खोजत दंड नाहि थिर बार। होइकै भस्म पवन सँग धाओ जहाँ प्रान अधार। —जायसी (शब्द०)।

प्राननाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राणनाथ] दे० 'प्राणनाथ —१'। उ०— भावे सो करौ तौ उदास माउ प्राननाथ, साथ लै चलो कैसे लोक लाज बहिनी। —पोद्दार अभि० ग्रं० पृ० ४५८।

प्रानपियारा पु
वि० [सं० प्राणप्रिया] दे० 'प्राणप्यारा' उ०— प्रानपियारो चल्यों जब तै, तबतै कछु और ही रीति निहारी। पीरी जनावति अंगन मै, कहि पीर जनावत काहे न प्यारी। —मति० ग्रं०, पृ० २९५।

प्रानप्रिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राणप्रिया] अत्यंत प्यारी। प्राणप्यारी। उ०—प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी। —मानस, २।२५।

प्रानराम पु
संज्ञा पुं० [सं० पाण + राम] प्राण। उ०—प्रानराम जब निकसन लागे उलट गई दूनों नैन पुतरिया। —कबीर श०, भा० १, पृ०३।

प्रानायाम पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राणायाम] दे० 'प्राणायाम'। उ०— प्रानायाम साधै सुद्ब प्रान होयँ ताके अरे, बावरे गए रे प्रान प्राननाथ साथ ही। —ब्रज० ग्रं०, पृ० १३०।

प्रानी
संज्ञा पुं० [सं० प्राणी] दे० 'प्राणी'।

प्रानेस पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राणेश] पति। स्वामी। उ०—बामा भामा कामिनी कहि बोलौ प्रानेस। प्यारी कहत खिसात नहिं पाव्स चलत बिदेस। —बिहारी (शब्द०)।

प्रानेसुर पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राणोश्वर] दे० 'प्राणेश्वर'। उ०—व्रजबन रस सबही तें न्यारो। मुरलीधर प्रानेसुर प्यारो। —धनानंद, पृ० २२७।

प्राय
वि० [सं०] जिस तक पहुँचा जा सके। प्राप्य [को०]।

प्रापक
वि० [सं०] १. प्राप्ति। संबंधी। २. पानेवाला। जो पाने योग्य हो। ३. प्राप्त होनेवाला। ४. प्रप्त करनेवाला।

प्रापण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० प्रापणीय, प्राप्य, प्राप्त] १. प्राप्ति। मिलना। २. प्रेरण।२. ले आना। ४. संदर्भ। हवाला (को०)।

प्रापणिक
संज्ञा पुं० [सं०] सौदा या माल बेचनेवाला।

प्रापणीय
वि०[सं०] १. जो मिलने योग्य हो। प्राप्य। २. पहुँचाने या ले जाने लायक।

प्रापत पु
वि० [सं० प्राप्त] दे० 'प्राप्त—१'। उ०—कौनहु भाँत जोग करि कोई। तुव पद पंकज प्रापत होई। —नंद० ग्रं, पृ०,२२९।

प्रापति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राप्ति] दे० 'प्राप्ति'। उ०—सुद्ध प्रेम मधि प्रापति करै। इक बिरोध इहि बिधि बिस्तरै। —नंद० ग्रं०, पृ० २१७।

प्रापत्त पु
वि० [सं० प्राप्त] दे० 'प्राप्त—४'। उ०—क्रिडंत जमुन सुंदरि। विसाल। प्रापत्त षट्ट सत बरष बाल। —पृ० रा०,२।३६७।

प्रापना पु †
क्रि० सं० [सं० प्रापण] प्राप्त होना। मिलना।

प्रापित
वि० [सं०] १. जो ले जाया गया हो। २. जिसे प्राप्त कराया गया हो। ३.प्राप्त। पाया हुआ [को०]।

प्रापी
वि० [सं० प्रापिन्] १.प्राप्त करनेवाला। जिसे कुछ मिले। २. पहुँचनेवाला (समासांत में)।

प्राप्त
वि० [सं०] १. लब्ध। प्रस्थापित। २. उत्पन्न। ३. समु- पस्थित। उ०—भरत, अपराधी भरत, है प्राप्त। —साकेत, पृ० १८६। ४. पाया हुआ। जो मिला हो। ५. सहा हुआ। भोगा हुआ (को०)। ६.पूर्ण किया हुआ (को०)। ७. उचित। ठीक (को०)।

प्राप्तकारी
वि० [सं० प्राप्तकारिन्] उचित कार्य करनेवाला [को०]।

प्राप्तकाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.कोई काम करने योग्य समय। २. उपयुक्त काल। उचित समय। ३. मरण योग्य काल। ४. वर्तमान समय। वह समय जो चल रहा हो। उ०— अतीत काल का वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जो हमारा रागात्मक भाव होता है, वह प्राप्तकाल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति हमारे भावों को तीव्र भी करता है और उनका ठीक ठीक अवस्थान भी करता है।— रस०, पृ०, १४९।

प्राप्तकाल (२)
वि० समयप्राप्त। जिसका काल आ गया हो।

प्राप्तजीवन
वि० [सं०] जो रोग आदि के कारण मरते मरते बचा हो। जिसकी नई जिंदगी हई हो।

प्राप्तदोष
वि० [सं०] जिसने कोई दोष या अपराध किया हो। दोषी।

प्राप्तपचंत्व
वि०[सं० प्राप्त पञ्चत्व] जो पंचत्व प्राप्त कर चुका हो। मरा हुआ। मृत।

प्राप्तप्रसवा
वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जो बच्चा जनने को हो। आसन्नप्रसवा [को०]।

प्राप्तबीज
वि० [सं०] जो बोया हुआ हो [को०]।

प्राप्तबुद्धि
वि० [सं०] १. चतुर। बुद्धिमान्। २. जो बेहोश होने के बाद फिर होश में आया हो।

प्रात्पभार
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बोझ ढोता हो (पशु आदि)।

प्राप्तभाव (१)
वि० [सं०] १. बुद्धिमान। होशियार। २. सुंदर [को०]।

प्राप्तभाव (२)
संज्ञा पुं० जवान बैल [को०]।

प्राप्तमनोरथ
वि० [सं०] जिसने अपना लक्ष्य या ईप्सित प्राप्त कर लिया हो [को०]।

प्राप्तयौवन
वि० [सं०] जिसका यौवनकाल आ गया हो। जवान।

प्राप्तरूप
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्वान्। पंडित। २. रूपवान्। सुंदर। ३. मनोहर। आकर्षक (को०)। ४. ठीक। उपयुक्त (को०)।

प्राप्तर्तु
वि० स्त्री० [सं० प्राप्त + ऋतु] वह कन्या जो ऋतुमती हो चुकी हो [को०]।

प्राप्तवर
वि० [सं०] जिसे वर प्राप्त हो चुका हो। जिसे वरदार मिल चुका हे। उ०— अवसन्न भी हूँ प्रसन्न मैं प्राप्तवर, प्रात तव द्वार पर।— अपरा०, पृ० २५।

प्राप्तव्य
वि० [सं०] जो मिलने को हो। मिलनेवाला। प्राप्य।

प्राप्तव्यवहार
वि० [सं०] जो अपना कार्य सम्हालने के योग्य हो गया हो। बालिग [को०]।

प्राप्तार्थ (१)
वि० [सं०] सफल [को०]।

प्राप्तार्थ (२)
संज्ञा पुं० वह वस्तु जो प्राप्त हो गई हो [को०]।

प्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपलब्धि। प्रापण। मिलना। २. पहुँच। ३. अधिगम। अर्जन। ४. उदय। ५. अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्यों में से एक जिससे वांछित पदार्थ मिलता है अथवा सब इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। ६. फलित ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा का ग्यारहवाँ स्थान, जिस लाभ भी कहते हैं। ७. भाग्य। ८. व्याप्ति। प्रवेश। प्रवृत्ति। ९. जरासंध की एक पुत्री का नाम जो कंस से ब्याही थी। १०. काम की पत्नी का नाम। ११. आय। आमदनी। १२. मेल। संगति। १३. लाभ। फायदा। १४. समिति। संघ। १५. नाटक का सुखद उपसंहार। फलागम।

प्राप्तिसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में वह प्रत्यवस्थान या आपत्ति जो हेतु और साव्य को ऐसी अवस्था में, जब दोनों प्राप्य हों, आविशिष्ट बतलाकर की जाय। विशेष— यह एक प्रकार की जाति है। जैसे, एक मनुष्य कहता है कि पर्वत बह्निमान् है, क्योंकि वह धूमवान् है, जैसे, पाक- गृह। इसपर वादी के इस कथन पर कि पर्वत धूमवान् है, क्योंकि वह वह्निमान् है जैसे, पाकगृह; प्रतिवादी यह आपत्ति करता है कि जहाँ जहाँ अग्नि है क्या वहाँ धूम सदा रहता है अथवा कभी नहीं भी रहता। यदि सर्वत्र रहता है तो साध्य और साधक में कोई अंतर नहीं, फिर तो धूम अग्नि का वैसे हो साधक हो सकता है जैसे अग्नि धूम का। इसे प्राप्तिसम जाति कहते हैं।

प्राप्त्याशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी वस्तु की प्राप्ति की आशा। २. नाटक की पाँच अवस्थाओं में से तीसरी अवस्था जिसमें फलप्राप्ति की आशा रहती है, पर आशंकाएँ और विघ्न बाधएँ भी मार्ग में आती हैं। उ०— आगे चलकर उस फल की प्राप्ति की आशा होने लगती है, जिसे प्राप्त्याशा कहते हैं।—सा० दर्पण पृ० १३४।

प्राप्य
वि० [सं०] १. पाने योग्य। प्राप्त करने योग्य। प्राप्तव्य। २. गम्य। ३. जो पहुंच में हो। जिसतक पहुँच हो सकती हो। ४. जो मिल सके। मिलने योग्य।

प्राप्यकारी
संज्ञा पुं० [सं० प्राप्यकारिन्] इंद्रिय जो किसी विषय तक पहुँचकर उसका ज्ञान कराती है। विशेष— न्यायदर्शन के अनुसार ऐसी इंदिय केवल आँख ही है, पर वेदांतदर्शन में कहा है कि कान में भी यह गुण है।

प्राप्यरूप
वि० [सं०] जिसे प्राप्त करना प्रायः आसान हो [को०]।

प्राबल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रबलता। तेजी। २. प्रधानता। ३. ताकत। शक्ति (को०)।

प्राबालिक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रबाल का व्यापार करनेवाला पुरुष।

प्राबोधक, प्राबोधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभातकाल। उषः- काल। २. वह पुरुष जो राजाओं को उनकी स्तुति सुनाकर जगाने के लिये नियुक्त हो। विशेष— प्राचीन काल में यह काम करने के लिये मगध देश के लोग नियुक्त किए जाते थे जिन्हें मागध कहते थे।

प्राभंजन (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्राभञ्जन] स्वाति नक्षत्र।

प्राभंजन (२)
वि० १. प्रभंजन या वायु देवता संबंधी। २. जो वायु देवता के द्वारा आधिष्ठित हो।

प्राभजनि
संज्ञा पुं० [सं० प्राभञ्जनि] १. हनुमान। २. भीष्म [को०]।

प्राभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभुत्व। अधिकार। २. श्रेष्ठता। प्रधानता।

प्राभवत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभुता। प्रभुत्व। २. सर्वप्रधानता। विभुत्व [को०]।

प्राभाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो प्रभाकर के मत का मानने वाला हो। २. मीमांसा के आचार्य प्रभाकर से संबद्ध विचार, मत आदि [को०]।

प्रभातिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्राभातिकी] प्रभास संबंधी। सबेरे का।

प्रभासिक
वि० [सं०] प्रभास देश संबंधी। प्रभास देश का।

प्राभृत, प्राभृतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपहार। नजर। २. घूस। रिश्वत (को०)।

प्रामणड़ाँ ‡
संज्ञा पुं० [हि० पाहुना] दे० 'पाहुना'। उ०— करतब नह राजी कृपण, राजा रूपैयाँह। कडवो दास कुढंबियाँ, प्रामणड़ाँ पइयाँह।—बाँकी० ग्र०, भा० २, पृ० ३५।

प्रामति
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दसवें मन्वंतर में होनेवाले एक ऋषि का नाम जो उस समय के सप्तर्षियों में होंगे।

प्रामधि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रामति'।

प्रामाणिक (१)
वि० [सं०] १. जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो। २. माननीय। मानने योग्य। ३. ठीक। सत्य। ४. शास्त्रसिद्ध। ५. हैतुक। ६. जो प्रमाणों को मानता हो। ७. प्रमाण संबंधी (को०)। ८. प्रमाणारूप। प्रमाणस्वरूप (को०)। ९. शास्त्रज्ञ।

प्रामाणिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यापारियों का मुखिया। २. प्रामाण को जानने माननेवाला। न्यायशस्त्र का ज्ञाता। ३. एक जातीय उपाधि।

प्रामाणय
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रमाणाता। प्रमाण का भाव। २. मान मर्यादा। ३. विश्वास करने की योग्यता या शक्ति। विश्वसनीयता।

प्रामाण्यवादी
वि० [सं० प्रामाण्यवादिन्] जो प्रमाण में विश्वास करता हो [को०]।

प्रामादिक
वि० [सं०] १. प्रमादजनित। २. दोषयुक्त। दूषित। जिसमें दोष हो। उ०— जिन्हें प्रामादिक तर्क-प्रमाण-शून्य... समझकर ... विद्वान् उपेक्षा के ही साथ सुनते आए हैं।— रस क०, पृ० १३।

प्रामाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अड़ूसा।२. त्रुटि। गलती। भूल (को०)। ३. पागलपन। उन्माद।

प्रामित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋण। कर्ज। २. मरण। मृत्यु (को०)।

प्रामिसरी नोट
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'प्रामीसरी नीट'।

प्रामीसरी नोट
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह लेख या पत्र जिसपर लिखनेवाला अपना हस्ताक्षर करके यह प्रतिज्ञा करे कि मैं अमुक पुरुष को, या जिसे वह आज्ञा या अधिकरा दे, या जिसके पास यह लेख हो, किसी नियत समय पर, या जब वह माँगे या जब वह उसे दिखलावे, तब इतना रुपया दे दूँगा। हुंडी। २. वह सरकारी कागज या ऋणपत्र जिसमें सरकार अपनी प्रजा से कुछ ऋण लेकर यह प्रतिज्ञा करती है कि मैंने इतना ऋण लिया और इसका सूद इस हिसाब से इस लेख के मालिक को दिया करूँगी। विशेष— इसकी अवधि निश्चित रहती है। ऐसी हुंड़ी का सरकारी खजाने से बराबर समय समय पर सूद मिला करता है; और जब उस हुंडी का नियत समय पूरा हो जाता है, तब सरकार से उसका रुपया भी मिल सकता है। ऐसी हुंडी या नोट मालिक बीच में ही बेचना चाहे तो दूसरे आदामियों के हाथ बेच भी सकता है। ऐसी हुंडी या नोट का भाव बराबर घटा बढ़ा करता है।

प्रामोद
वि० [सं०] मनोज्ञ। मनोहारी।

प्रामोदक, प्रामिदिक
वि० [सं०] दे० 'प्रामोद'।

प्रायः (१)
वि० [सं०] १. विशेषकर। बहुधा। अकसर। जैसे,—सावन में प्रायः पानी बरसता है। २. लगभग। करीब करीब। जैसे,— उनके यहाँ मेरे प्रायः ५०० रु० बाकी होंगे। विशेष— इसका प्रयोग शब्द के अत में होता है।

प्रायः (२)
क्रि० वि० अक्सर। सामान्यतया [को०]।

प्राय (१)
वि० [सं०] १. लगभग। जैसे, प्रायद्वीप। २. समान। तुल्य जैसे,— मृतप्राय। ३. पूर्ण।

प्राय (२)
संज्ञा पुं० १. अनशनादि तप जिससे मनुष्य शक्तिहीन होकर मृतक के तुल्य हो जाता या मर जाता है। २. मृत्यु। जैसे, प्रायगत। ३. अवस्था। उम्र। ४. अधिकता। बाहुल्य (को०)।

प्रायगत
वि० [सं०] जिसके मरने में अधिक विलंब न हो। जो मर रहा हो। आसन्नमृत्यु।

प्रायण
संज्ञा पु० [सं०] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। स्थानांतर गमन। २. एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर में जाना। शरीरपरिवर्तन। ३. जन्मांतर। ४. अनशन व्रत द्वारा शरीरत्याग। ५. वह पथ्य या आहार जो अनशन व्रत की समाप्ति पर ग्रहण किया जाता है। पारण। ६. प्रवेश। प्रारंभ। ७. जीवनपथ। जिवितावस्था। ८. शरण लेना (को०)। ९. एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो दूध में मिलकर बनता था।

प्रायणीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोमय याग में पहली सुत्या के दिन का कर्म। २. प्रारंभिक कर्म। उदनीय का उल्टा। ३. सोम याग का प्रथम दिवस (को०)।

प्रायणीय (२)
वि० आरंभ संबंधी। प्रारंभिक। जैसे, प्रायणीय याग, प्रायणीय कर्म, प्रायणीयातिरात्र, प्रायणीयेष्टि इत्यादि।

प्रायत्य
संज्ञा पुं० [सं०] पवित्रता। पूतता। शुद्धता [को०]।

प्रायदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण घटना, जो प्रायः देखने में आती हो। साधारण सी बात।

प्रायद्वीप
संज्ञा पुं० [सं० प्रायोद्वीप] स्थल का वह भाग या अंश जो तीन ओर पानी से घिरा हो और केवल एक ओर किसी बड़े स्थल से मिला हो। प्रायोद्वीप।

प्रायभव
वि० [सं०] जो साधारण रिति से अथवा प्रायः होता हो। साधारण।

प्रायवृत्त
वि० [सं०] जो बिलकुल गोल या वर्तुलाकार न हो पर बहुत कुछ गोल हो। अंडाकरा।

प्रायशः
क्रि० वि० [सं० प्रायशस्] प्रायः। बहुधा। अकसर।

प्रायश्चित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. शास्त्रानुसार वह कृत्य जिसके करने से मनुष्य के पाप छूट जाते हैं। उ०— मैं जिऊँ लोकापवाद निमित्त, तब न होगा तनिक प्रायश्चित।—साकेत, पृ० १९०। विशेष—यह दो प्रकार का होता है एक व्रत दूसरा दान। शास्त्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के कृत्यों का विधान है। किसी पाप में व्रत का, किसी में दान का, किसी मे व्रत और दान दोनों का विधान है। लोक में भी समाज के नियमविरुद्ध कोई काम करने पर मनुष्य को समाज द्वारा निर्धारित कुछ कर्म करने पड़ते हैं जिससे वह समाज में पुनः व्यवहार योग्य होता है। इस प्रकार के कृत्यों को भी प्रायश्चित कहते हैं। २. जौनियों के मतानुसार वे नौ प्रकार के कृत्य जिनके करने से पाप की निवृत्ति होती है।— (१) आलोचन, (२) प्रतिक्रमण, (३) आलोचन प्रतिक्रमण, (४) विवेक, (५) व्युत्सगँ, (६) तप, (७) छेद, (८) परिहार, (९) उपस्थान और (१०) दोष। क्रि० प्र०—लगना।

प्रायश्चित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रायश्चित्त'।

प्रायश्चित्तिक
वि० [सं०] १. प्रायश्चित्त के योग्य। प्रायश्चित्तार्ह। २. प्रायश्चित संबंधी।

प्रायश्चित्ती
वि० [सं०प्रायश्चित्तिन्] १. प्रायश्चित के योग्य। २. जो प्रायश्चित्त करे। प्रायश्चित्त करनेवाला।

प्रायश्चित्तीय
वि० [सं०] प्रायश्चित्त संबंधी।

प्रायाणिक (१)
वि० [सं०] प्रयाण संबंधी। यात्रा। संबधी।

प्रायाणिक (२)
संज्ञा पुं० शंख, चँवर आदि मंगल द्रव्य जो यात्रा के समय आवश्यक होते हैं।

प्रायात्रिक
वि० [सं०] दे० 'प्रायाणिक' [को०]।

प्रायास
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का वैदिक नाम।

प्रायिक
वि० [सं०] प्रायः होनेवाला। जो बहुधा या अधिकता से होता हो।

प्रायुद्धेषी
संज्ञा पुं० [सं० प्रायुद्धेषिन्] अश्व। घोड़ा [को०]।

प्रायोगिक
वि० [सं०] जो नित्य काम में आता हो। जिसका प्रयोग नित्य होता हो।

प्रायोज्य (१)
वि० [सं०] प्रयोग में आनेवाला। जिससे प्रयोजन चलता हो।

प्रायोज्य (२)
संज्ञा पुं० मिताक्षर आदि धर्माशास्त्रों के अनुसार वह वस्तु जिसका काम किसी को नित्य पड़ता हो। जैसे, पढ़नेवाले को पुस्तकादि का, कृषक को हल बैल आदि का, योद्धा को अस्त्र शस्त्र का इत्यादि। विशेष— ऐसी वस्तुएँ शास्त्रों में विभाजनीय नहीं मानी गई है; विभाग के समय वे उसी को मिलती है जिसके प्रयोजन की हों अथवा जो उन्हें व्यवहार में लाता रहा हो या जिसकी उनसे जीविका चलती ही।

प्रायोदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वमान्य देवता। वह देवता जिसे सब मानते हों।

प्रयोद्विप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रायद्वीप'।

प्रयोपगमन
संज्ञा पुं० [सं०] आहार त्याग कर मरने पर उद्यत होना। अनशन व्रत द्वारा प्राण परित्याग करने का प्रयत्न। भूखों मरकर जान देना।

प्रायापयोगिक
वि० [सं०] प्रायः उपयोग में आनेवाला। सामान्य। साधारण [को०]।

प्रायोपविष्ट
वि० [सं०] जिसने प्रायोपवेश व्रत किया हो।

प्रायोपवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अनशन व्रत जो प्राण त्यागने के निमित्त किया जाता है। २. अन्न और जल त्याग कर मरने के लिये तैयार होकर बैठना।

प्रायोपवेशन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रायोपवेश'।

प्रायोपवेशनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रायोपवेशन। अनशन व्रत।

प्रायोपवेशी
वि० [सं०प्रायोपवोशिन्] [वि० स्त्री० प्रायोपवेशिनी] प्रायोपवेशन व्रत करनेवाला।

प्रायोपेत
वि० [सं०] प्रायोपवेशन व्रत का व्रती। प्रायोपवेश व्रत करनेवाला।

प्रायोभावी
वि० [सं० प्रायोभाविन्] जो प्रायः होता हो [को०]।

प्रायोवाद
संज्ञा पुं० [सं०] कहावत [को०]।

प्रारभ
संज्ञा पुं० [सं० पारस्भ] १. आरंभ। शुरू। २. आदि।

प्रारंभण
संज्ञा पुं० [प्रारभ्मण] [वि० प्रारब्ध] आरंभण। प्रारंभ। करना। शुरू करना।

प्रारंभिक
वि० [सं०] १. प्रारंभ संबंधी। प्रारंभ का। २. आदिम। ३. प्राथमिक।

प्रारब्ध (१)
वि० [सं०] आरंभ किया हुआ।

प्रारब्ध (२)
संज्ञा पुं० १. तीन प्रकार के कर्मो में से वह जिसका फलभोग आरंभ हो चुका हो। २. भाग्य। किसमत। जैसे,—जो प्रारब्ध में होगा वही मिलेगा। ३. वह कार्य आदि जो आरंभ कर दिया गया ही।

प्रारब्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आरंभ। शुरू। २. हाथी के बाँधने की रस्सी या खूटा।

प्रारब्धी
वि० [सं० प्रारब्धिन्] भाग्यवाला। भाग्यवान्। किसमतवर।

प्रारूप
संज्ञा पुं० [सं० (उप०) + प्र(= आरंभ, आदि) + रूप अथवा प्राक् + रूप] किसी योजना, प्रस्ताव, विधेयक आदि का वह प्राथमिक रूप जिसमें आगे आवश्यक होने पर संशोधन आदि किया जा सके। मसौदा। प्राथमिक रूप। प्रालेख।

प्रारोह
संज्ञा पुं० [सं०] अंकुर। प्ररोह [को०]।

प्राजयिता
वि० [सं० प्रार्जीयित्] [वि० स्त्री० प्रार्जयित्री] दान करनेवाला। दानी।

प्रार्ज्जुन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम।

प्रार्ण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रधान ऋण। मुख्य ऋण [को०]।

प्रार्थक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रार्थिका] प्रार्थना करनेवाला। प्रार्थी।

प्रार्थन
संज्ञा पुं० [सं०] याचन। याचना। प्रार्थना करना। माँगना।

प्रार्थना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी से कुछ माँगना। याचना। चाहना। जैसे,—मैने उनसे एक पुस्तक के लिये प्रार्थना की थी। २. किसी से नम्रतापूर्वक कुछ कहना। विनती। विनय। निवेदन। जैसे,—मेरी प्रार्थना है कि अब आप यह झगड़ा मिटा दें। ३. इच्छा। आकांक्षा। स्पृहा (को०)। ४. तंत्रसार के अनुसार एक मुद्रा का नाम। विशेष— इस मुद्रा में दोंनों हाथों के पंजों की उँगलियों को फैलाकर एक दूसरे पर इस प्रकार रखते हैं कि दोनों हाथों की उँगलियाँ यथाक्रम एक दूसरे के ऊपर रहती हैं। इस प्रकार हाथ जोड़कर उंगलियों की सीधे और सामने की ओर करके हृदय के पास ले जाते हैं और वहाँ इस प्रकार रखते हैं कि दोनों कलाई की संधि छाती के संधिमध्य में रहती है।

प्रार्थना पु (२)
क्रि० सं० [सं० प्रार्थना] प्रार्थना करना। विनती करना। उ०— हरिबल्लभ सब प्रार्थना जिन चरण रेणु आशा धरी।— नाभादास (शब्द०)।

प्रार्थनापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी प्रकार की प्रार्थना लिखी हो। निवेदनपत्र। अर्जी।

प्रार्थनाभंग
संज्ञा पुं० [सं० प्रार्थनाभङ्ग] याचना स्वीकार न होना [को०]।

प्रार्थनासमाज
संज्ञा पुं० [सं०] एक नवीन समाज या संप्रदाय। विशेष— इस मत के अनुयायी दक्षिण में बंबई की ओर अधिक हैं। इस मत के सिद्धांत ब्राह्मसमाज से मिलते जुलते हैं। इस मत के लोग जाति पाँति का भेदभाव नहीं मानते और न मूर्तिपूजा आदि करते हैं।

प्रार्थनासिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छा का पूरा होना। अभिलाषा- प्राप्ति [को०]।

प्रार्थनीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] द्वापर युग का एक नाम।

प्रार्थनीय (२)
वि० प्रार्थना करने योग्य। निवेदन करने के योग्य। याचनीय।

प्रार्थयितव्य
वि० [सं०] माँगने करने के योग्य। याचनीय।

प्रार्थयिता
संज्ञा पुं० [सं० प्रार्थयितृ] १. प्रार्थना करनेवाला। माँगनेवाला। याचक। २. प्रणय की कामना करनेवाला। प्रणयी [को०]।

प्रार्थित (१)
वि० [सं०] १. जो माँग गया हो। याचित। २. जिसपर आक्रमण किया गया हो। आक्रांत (को०)। ३. जो मार दिया गया हो। जिसकी हिंसा कर दी गई हो (को०)। ४. जिसे आघात पहुँचाया गया हो (को०)। ५. जिसकी इच्छा की गई हो। आकांक्षित (को०)।

प्रार्थित (२)
संज्ञा पुं० इच्छा [को०]।

प्रार्थितदुर्लभ
वि० [सं०] जो इच्छित हो या जिसकी इच्छा की गई हो पर जिसका पाना कठिन हो [को०]।

प्रार्थी
वि० [सं० प्रार्थिन्] [वि० स्त्री० प्रार्थिनी] १. माँगनेवाला। प्रार्थना करनेवाला। याचक। २. निवेदक। निवेदन करनेवाला। ३. प्रार्थनाशील। इच्छुक।

प्रार्थ्य
वि० [सं०] प्रार्थना के योग्य। याचनीय।

प्रालंब
संज्ञा पुं० [सं० प्रालम्ब] १. रस्सी आदि के ढंग की वह वस्तु जो किसी ऊँची वस्तु में टँगी और लटकती हो। २. वह माला जो गर्दन से छाती तक लटकती हो। हार। ३. मोतियों का हारनुमा एक आभूषण (को०)। ४. स्तन। कुच (को०)। ५. एक प्रकार का कदुदू या तुंबी (को०)।

प्रालंबक
संज्ञा पुं० [सं० प्रालन्बक] दे० 'प्रालंब' [को०]।

प्रालबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रालम्बिका] गले में पहनने का सोने का हार। सोने की माला।

प्राल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पलाल'।

प्रालब्ध
संज्ञा पुं० [सं० प्रारब्ध] दे० 'प्रारब्ध'।

प्रालेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिम। तुषार। उ०—व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर।—कामायनी, पृ० १३। २. बर्फ। ३. भूगर्भशास्त्रानुसार वह समय जब अत्यंत हिम पड़ने के कारण उत्तरीय ध्रुव पर सब पदार्थ नष्ट हो गए और वहाँ शीत की इतनी अधिकता हो गई कि अब कोई जंतु या वनस्पति वहां नहीं रह सकती। यौ०— प्रालेयकर = हिमकर। चंद्रमा। प्रालेयपर्वत, प्रालेय- भूधर = हिमालय। प्रालेयरश्मि। प्रालेयशैल।

प्रालेयरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर (को०)।

प्रालेयशैल
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय [को०]।

प्रालेयांशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिमांशु। चंद्रमा। २. कपूर।

प्रालेयाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय।

प्रावट
संज्ञा पुं० [सं०] यव। जौ।

प्रावण
संज्ञा पुं० [सं०] कुदाल। खनित्र। फावड़ा [को०]।

प्रावधान
संज्ञा पुं० [सं० प्र (उप०) + अवधान] नियम। कानून। व्यवस्था। उ०— उसके एत प्रावधान में बहुत कुछ ऐसा कहा गया है कि केंद्र और राज्यों में भी पाँच वर्षों तक अंग्रेंजी को ही प्रशसनीय भाषा के रूप में जारी रखना होगा।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० ७१।

प्रावर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीर। चहारदारी। २. उत्तरीय। उपरना। ३. एक देश का नाम (को०)।

प्रावर पु (२)
वि० चारो ओर। चतुर्दिक्। उ०— दोइ घरी दिन पछछ रहि, चल्यौ दिली पुर माँह। अति उज्जल वस्त्रंग वर प्रावर खित्रि उछाह। पृ० रा०, २४। ३००।

प्रावरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रच्छादन। ढक्कन। २. उत्तरीय वस्त्र। ओढ़ने का वस्त्र। चादर।

प्रावरणीय
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तरीय। ओढ़ने का वस्त्र [को०]।

प्रावार
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कपड़ा जो प्राचीन काल में बनता था और बहुमुल्य होता था। २. उत्तरीय वस्त्र। ३. प्रच्छादन। आच्छादन आवरण (को०)। ४. एक जनपद का नाम (को०)।

प्रावारक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊपर से ओढ़ने का वस्त्र। प्रावार [को०]।

प्रवारकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उल्लू।

प्रावारकीट
संज्ञा पुं० [सं०] कपड़े में लगनेवाला एक प्रकार का श्वेत कीड़ा।

प्रावारिक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रावार या उत्तरीय बनानेवाला [को०]।

प्रावालिक
वि० [सं०] प्रवाल या मूँगे का व्यापारी [को०]।

प्रावसिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री०, प्रावासिकी] प्रवास के उपयुक्त [को०]।

प्राविट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रावृट्] पावस। वर्षाऋतु। उ०— प्राविट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे।— मानस, ६। ४५।

प्रावित्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के आश्रम में रहना। रक्षण का आश्रय प्राप्त करना।

प्राविष्ट्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्रौंचद्वीप के पर खंड का नाम (केशव)।

प्रावीण्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवीणता। कुशलता। नैपुण्य।

प्रावृट्
संज्ञा पुं० [सं० प्रावृष्] वर्षा ऋतु। पावस। उ०— प्रावृट् में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित।—ग्राम्या, पृ० ५७।

प्रावृट्काल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षाकाल [को०]।

प्रावृड़त्यय
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा का समाप्तिकाल। शरद ऋतु।

प्रावृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ओढ़ने का कपड़ा। आच्छादन।

प्रावृत (२)
वि० १. अच्छी तरह आवृत या घिरा हुआ। आच्छादित।

प्रवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीर। घेरा। २. मल जो अत्मा की दृक् और दृकशक्ति को आच्छादित करता है। (जैन)। ३. आड़। रोक।

प्रावृत्तिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० प्रावृत्तिका] वह दूत जो एक स्थान के समाचार को दूसरे स्थान में पहुँचाने का काम करता हो। एलची।

प्रावृत्तिक (२)
वि० १. अमुख्य। गौण। २. जिसे पूर्णतः सूचित हो। जानकार [को०]।

प्रावृष
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रावृट्र। वर्षा ऋतु।

प्रावृषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्रावृष'।

प्रावृषायणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवाँच। २. विषखोपरा।

प्रावृपिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मयूर। मोर।

प्रावृषिक (२)
वि० १. जो वर्षाऋतु में उत्पन्न हो। २. वर्षाऋतु संबंधी।

प्रावृषिज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह तीक्ष्ण वायु जो वर्षाऋतुं में चलती है। झझाधात।

प्रावृषिज (२)
वि० जो वर्षा ऋतु में उत्पन्न हो [को०]।

प्रावृषीण
वि० [सं०] १. वर्षाकाल मे उत्पन्न होनेवाला। २. वर्षा- काल संबंधी।

प्रावृण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ईति। २. कदंब। ३. धारा कदंब। ४. वह कर जो वर्षाऋतु में दिया जाता हो। ५. कुटज। कुरैया। ६५. प्रचुरता। अधिकता।

प्रावृषेण्य
वि० वर्षाकाल में उत्पन्न। वर्षाकाल का। वर्षा ऋतु संबंधी। २. वर्षा में देय (को०)।

प्रावृषेण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवाच। २. लाल पुनर्नवा।

प्रावृषेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक देश का नाम।

प्रावृषेय (२)
वि० [स्त्री० प्रावृषेयी] वर्षाकाल में होनेवाला।

प्रावृष्य (१)
वि० [सं०] जो वर्षाकाल में हो।

प्रावृष्य (२)
संज्ञा पुं० १. वैदूर्य। २. कुटज। ३. धाराकदंडा। ४. विकंटक।

प्रावेण्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ऊनी वस्त्र।

प्रावेशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो प्रवेश के अवसर पर दिया या किया जाय। २. प्रवेशन का कार्य। प्रवेश करना। ३. कार- खाना। संस्थान (को०)।

प्रावेशिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रावेशिकी] १. प्रवेश का साधनभूत। जिसके कारण प्रवेश मिले। प्रवेश करने में सहायता देनेवाला। २. प्रवेश संबंधी (को०)। ३. प्रवेश करना जिसका स्वभाव हो (को०)।

प्राव्रज्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्राव्राज्या' [को०]।

प्राव्राज्य (१)
वि० [सं०] प्रव्रज्या संबंधी।

प्राव्राज्य (२)
संज्ञा पुं० १. संन्यास जीवन। संन्यास। २. इतस्ततः चंक्र- मणा या परिभ्रमण [को०]।

प्राश्
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोजन। आहार [को०]।

प्राश्
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन करना। स्वाद लेना। चखना। २. भोजन। आहार [को०]।

प्राशक
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन करनेवाला। भोक्ता। भक्षक। खानेवाला [को०]।

प्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाना। भोजन। २. चखना। जैसे, अन्नप्राशन। ३. खिलाना। चखाना (को०)।

प्राशनीय (१)
वि० [सं०] प्राशन के योग्य। खाने के योग्य। चखने के योग्य।

प्राशनीय (२)
संज्ञा पुं० आहार। भोजन [को०]।

प्राशस्त्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रशस्तता। प्रशस्त होने का भाव। २. वैशिष्टय। विशिष्टता (को०)।

प्राशास्ता
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राशास्ता नामक ऋत्विज का काम। २. प्रशास्ता का भाव।

प्राशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'प्राशास्ता'। २. सरकार। शासन [को०]।

प्राशित (१)
वि० [सं०] भक्षित। खाया हुआ। चखा हुआ।

प्राशित (२)
संज्ञा पुं० १. पितृयज्ञ। तर्पण। २. भक्षण।

प्राशित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञों मे पुरोडाश आदि में से काटकर निकाला हुआ वह छोटा टुकड़ा जो ब्रह्मोद्देश से अलग करके प्राशित्राहरण नामक यज्ञपात्र में रखा जाता है। यह भाग जौ या पीपल के गोदे बराबर निकाला जाता और प्रायः नोक की ओर से काटा जाता है। २. दे० 'प्राशित्राहरण'। ३. खाद्य पदार्थ। खाने योग्य कोई वस्तु (को०)।

प्राशित्राहरण
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ के एक पात्र का नाम। विशेष—वह पात्र गोकर्ण के आकार का होता है और इसी में प्राशित्र रखा जाता है।

प्राशी
वि० [सं० प्राशिन्] [वि० स्त्री० प्राशिनी] प्राशन करनेवाला। खानेवाला। भक्षक।

प्राशु (१)
वि० [सं०] त्वारित। शीघ्र। तुरत।

प्राशु (२)
संज्ञा पुं० १. खाना। भक्षण। भोजन। १. वह जो सोम खाता है। ३. वृत्रासुर का एक शत्रु [को०]।

प्राश्निक
वि० [सं०] १. सभ्य। सभा की कारवाई करनेवाला। २. प्रश्नकर्ता। पूछनेवाला। ३. परीक्षक। ४. निर्णयकर्ता। निर्णायक (को०)।

प्राश्नीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।

प्राश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्कप्रकाश के अनुसार वे पशु जो गाँव में रहते हैं। जैसे, गाय, बकरी, भेड़ा आदि। २. प्राशन करने योग्य पदार्थ।

प्रासंग
संज्ञा पुं० [सं० प्रासङ्ग] १. हल का जुआ या जुआठा जिसमें नए बैल निकाले जाते हैं। २. तराजू। तुला। २. तराजू की डंडी।

प्रासंगिक (१)
वि० [सं० प्रासङ्गिक] १. प्रंसग संबंधी। प्रसंग का। २. प्रंसग द्वारा प्राप्त। प्रसंगागत।

प्रासगिक (२)
संज्ञा पुं० कथावस्तु के दो भेदों में से एक। गौण कथा- वस्तु। विशेष— इससे अधिकारिक या मूल कथावस्तु का सौदर्य बढ़ता है और मूल कार्य या व्यापार के विकास में सहायता मिलती है। इसके दो भेद कहे गए हैं— पताका और प्रकरी।

प्रासंग्य
संज्ञा पुं० [सं० प्रासङ्गय] जुआ वहन करनेवाला [को०]।

प्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का भाला। बरछी। भाला। वर्षास्त्र। विशेष— इसमें सात हाथ लंबी बाँस की छड़ लगती है और दूसरी नोक पर लोहे का नुकीला फल रहता है। इसका फल बहुत तेज होता है जिसपर स्तवक चढ़ा रहता है। इसे वर्षास्त्र भी कहते हैं। २. फेंकना। प्रक्षेपण (को०)। ३. अनुप्रास (को०)।

प्रासक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रास नामक अस्त्र। २. पाशक। पाँसा।

प्रासन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] फेंकना।

प्रासन (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्राशन] दे० 'प्राशन'।

प्रासहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की पत्नी का नाम [को०]।

प्रासाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार लंबा, चौड़ा, ऊँचा और कई भूमियों का पक्का या पत्थर का घरजिसमें अनेक शृंग, शृंखला, अंडकादि हों तथा अनेक द्वारों और गवाक्षों से युक्त त्रिकोश, चतुष्कोण, आयत, वृत्त शालाएँ हों। विशेष— आकृति के भेद से पुराणों में प्रासाद के पाँच भेद किए गए हैं— चतुरस्र, चतुरायत, वृत्त, पृत्ताय और अष्टास्त्र। इनका नाम क्रम से वैराज, पुष्पक, कैलास, मालक और त्रिविष्टप है। भूमि, अंडक, शिखरादि की न्यूनाधिकता के कारण इन पाँचों के नौ नौ भेद माने गए हैं। जैसे, वेराज के मेरु, मंदर, विमान, भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचक, नंदन, नंदिवर्धन और श्रीवत्स; पुष्पक के वलभी, गृहराज, शालागृह, मंदिर, विमान, ब्रह्ममंदिर, भवन, उत्तंभ और शिविकावेश्म; कैलास के वलय, दुंदुभि, पद्म, महापद्म, भद्रक सर्वतोभद्र; रुचक, नंदन, गुवाक्ष या गुवावृत्त; मालव के गज, वृषभ, हंस, गरुड़, सिंह, भूमुख, भूवर, श्रीजय और पृथिवीधर, और त्रिविष्टप के वज्र, चक्र, मुष्टिक या वभ्रु, वक्र, स्वस्तिक, खड्ग, गदा, श्रीवृक्ष और विजय। पुराणों में केवल राजाओं और देवताओं के गृह को प्रासाद कहा है। २. बहुत बड़ा मकान। महल। उ०— वे प्रासाद रहें न रहें, पर, अमर तुम्हारा यह साकेत।—साकेत, पृ० ३७१। ३. महल की चोटी। ४. कोठे के ऊपर की छत। ५. बौद्धों के संघाराम में वह बड़ी शाला जिसमें साधु लोग एकत्र होते हैं। ६. मंदिर। देवालय (को०)। ७. दर्शकों के लिये बना हुआ स्थान (को०)।

प्रासादकुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] कबूतर।

प्रासादगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] महल का भीतरी भाग [को०]।

प्रासादप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदिर में मूर्ति की स्थापना [को०]।

प्रासादमंडना
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रासादमण्डना] प्राचीन काल का एक प्रकार का रंग जिससे प्रासाद के ऊपर रँगाई होती थी। विशेष— यह पीला या लाल होता था और इसकी रँगाई बहुत दिनों तक टिकती थी।

प्रासादशायी
वि० [सं० प्रासादशायिन्] महल में सोनेवाला [को०]।

प्रसादशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'प्रासादशृंग'।

प्रासादशृंग
संज्ञा पुं० [सं० प्रासादशृंङ्ग] महल या मंदिर का सर्वोंच्च स्थान। चोटी [को०]।

प्रासादिक
वि० [सं०] १. दयालु। कृपालु। २. सुंदर। अच्छा। ३. जो प्रसाद में दिया जाय। ४. प्रसाद संबंधी। ५. प्रसाद गुण संबंधी। प्रसाद गुण का। उ०— काम्य का जो प्रासादिक रीप, दिखाया तुमने मनोभिराम। कहाँ से लाकर भरी अनूप, छटा उसमें स्वर्गीय ललाम।—सागरिका, पृ० ५७।

प्रासादीय
वि० [सं०] प्रासाद संबंधी। प्रासाद का।

प्रासिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके पास प्रास हो। प्रासधारौ। बरछी बरदार।

प्रासु
संज्ञा पुं० [सं०] दीर्घश्वास। गहरी साँस।

प्रासुक पु
वि० [सं० प्रांशु या प्राशु] १. प्रचुर। अधिक। विशेष। २. शीघ्रतापूर्वक। चटपट। उ०— वाकी हाट उधार करि लेहि कचौरी सेर। यह प्रासुक भोजन करहिं नित उठि साँझ सबेर।—अर्ध०, पृ० ३१।

प्रासूतिक
वि० [सं०] प्रसूति से संबंधित [को०]।

प्रासेव
संज्ञा पुं० [सं०] वह रस्सी जो घोडे़ के साज में संमिलित हो।

प्रास्कण्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

प्रास्त
वि० [सं०] फेंका हुआ। प्रक्षिप्त। २. निर्वांसित। बहिष्कृत [को०]।

प्रास्तारिक
वि० [सं०] १. जिसका व्यवहार प्रस्तार में हो। २. प्रस्तार संबंधी।

प्रास्ताविक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रास्ताविकी] १. भूमिका रूप में काम आनेवाला। सूचनात्मक। २. परिचयात्मक। जैसे, प्रास्ताविक वचन, प्रास्ताविक विलास। समयानुकूल। ३. संगत। समीचीन [को०]।

प्रास्तुत्य
संज्ञा पुं० [सं०] विचार या बहस के अंतर्गत होना। विचारणीय होना [को०]।

प्रास्थानिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रास्थानिकी] वह पदार्थ जो प्रस्थान के समय मंगलकारक माना जाता हो। जैसे, शंख की ध्वनि, दही, मछली आदि।

प्रास्थानिक (२)
संज्ञा पुं० यात्रा की तैयारी [को०]।

प्रास्थिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रास्थिकी] १. प्रस्थ संबंधी। २. जिसमें एक प्रस्थ अन्नादि अँट जाय। ३. एक प्रस्थ द्वारा बोने योग्य (को०)। ४. जो प्रस्थ के हिसाब से खरीदा गया हो। ५. पाचक।

प्रास्थिक (२)
संज्ञा पुं० भूमि। जमीन।

प्रास्पेक्टस
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह छपा हुआ पत्र जिसमें आरंभ होनेवाले किसी बडे़ कार्य का पूरा पूरा विवरण और उसकी कार्यप्रणाली आदि दी हो। विवरणपत्र। जैसे, जानबीमा कंपनी का प्रास्पेक्टस, बंक का प्रास्पेक्टस। २. वह पुस्तक या पुस्तिका जिसमें शिक्षा का पाठ्यक्रम या पूरा ब्यौरा हो। विवरण पत्रिका।

प्रास्रवण
वि० [सं०] [वि० स्त्री० प्रास्रवणी] स्रोत संबंधी। झरने से संबंद्ध [को०]।

प्राह
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य की शिक्षा देना [को०]।

प्राहारिक
संज्ञा पुं० [सं०] पहरुआ। चौकीदार।

प्राहुण, प्राहुणक
संज्ञा पुं० [सं०] अतिथि। मेहमान। पाहुना। उ०— जोबन जायइ प्राहुअउ, वेगइरउ घर आय।—ढोला०, दू० १३४।

प्राहुन्ना पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राहुणक] मेहमान। पाहुना। उ०— चित्रंग राय रावर चवै प्राहुन्ना भग्गा फिरै।—पृ० रा०, ६६। ३६०।

प्राह्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दिन का पूर्व भाग। दोपहर के पूर्व का समय [को०]।

प्राह्णेतन
वि० [सं०] दिन के पूर्वभाग में होनेवाला या उससे संबंधित [को०]।

प्राह्लाद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रह्लाद अर्थात विरोचन की संतान।