विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/कथ
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हिन्दी शब्दसागर |
संकेतावली देखें |
⋙ कथं
अव्य० [सं० कथम्] १. किस रूप में । कैसे । किस प्रकार । कहाँ से ।२. साश्चर्य प्रश्न में प्रयुक्त [को०] ।
⋙ कथंकथित
संज्ञा पुं० [सं० कथङ्कथित] प्रश्नकर्ता । अन्वेषक व्यक्ति ।
⋙ कथंचित्
क्रि० वि० [सं० कथञ्चित] शायद ।
⋙ कथंभूत
वि० [सं० कथम्भूत] कैसा । किस प्रकार का [को०] ।
⋙ कथंभूती
वि० [सं० कथम्भूत+ई (प्रत्य०)] कथंभूत से संबंध रखनेवाला । उ०—यह किसी संस्कृत में लेख का कथंभूती अनुवाद न हो ।—इतिहास०, पृ० ४०४ ।
⋙ कथ (१). †
संज्ञा पुं० [हिं० कत्था] कत्था । खैर ।
⋙ कथ (२)पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कथा] दे० 'कथा' ।उ०—एक दिवस कवि चंद कथ, कहीं अप्पनें भोन ।—पृ० रा०, १. । ७६२ ।
⋙ कथक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथा कहनेवाला । किस्सा कहनेवाला । २. पुराण बाँचनेवाला । पौराणिक ।३. नाटक की कथा का वर्णन करनेवाला । एक पात्र या नट ।५. दे० 'कत्थक' । उ०—बैरगिया नाला जुलुम जोर । नौं कथक नचावत तीन चोर ।—हिंदी प्र०, पृ० ।५. प्रतिवादी (को०) ।६. मुख्य अभिनेता । सूत्रधार (को०) ।
⋙ कथकली
संज्ञा पुं० [मल.] दक्षिण भारत की एक भावनृत्य शैली । विशेष—इसमें पार्श्व में कथा गाई जाती है जिसे नर्तक मुद्राओं द्वारा अभिव्यक्त करता है ।
⋙ कथकीकर
संज्ञा पुं० [हिं० कत्था+कीकर] कीकर की जाती का वह वृक्ष जिसकी छाल से कत्था या खैर निकलता है । खैर का पेड़ ।
⋙ पथक्कड़
संज्ञा पुं० [सं० कथा+कड़ (प्रत्य०)] बहुत कथा कहनेवाला ।
⋙ कथड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कथरी] दे० 'कथरी' ।उ०—खिसक गई कंधों की कथड़ी, ठिठर रहा अब सर्दी से तन ।—ग्राम्या, पृ० ६६ ।
⋙ कथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कहना । बखान । बात । उक्ति । यौ०—कथनानुसार । २. उपन्यास का एक भेद । विशेष—इसमें पूर्वेपीठिका और उत्तरपीठिका नहीं होती, पर कहनेवाले के नाम आदि का पता प्रसंग से चल जाता है । कहनेवाला अचानक कथा प्रारंभ करता है और कहनेवाले की वक्तृता की समाप्ति के साथ ग्रंथ समाप्त हो जाता है ।
⋙ कथना पु
क्रि० स० [सं० कथन] १. रचकर बात करना ।उ०— जिमि जिमी तापस कथइ उदासा । तिमि तिमि नृपहिं उपज बिस्वासा ।—तुलसी (शब्द०) ।२. कहना । बोलना । उ०—(क) बेणु बजाय रास वन कीन्हों अति आनँद दरसायो । लीला कथत सहसमुख तौऊ अजहूँ पार न पायो ।—सूर (शब्द०) । (ख) उ०—कथा, कवि चंद सु उप्पस थोर । विराजत पंतिय कंतिय चोर ।—पृ० रा०, २१. । ३९ । ३. निंदा करना । बुराई करना ।
⋙ कथनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कथन+ई (प्रत्य०)] १. बात । कथन । कहना ।उ०—(क) कथनी थोथी जगत में करनी उत्तम सार । कहै कबीर करनी भली उतरै भव जग पार ।—कबीर (शब्द०) । (ख) करनी है पातर कथनी है दोना ।—धरम०, पृ० ६५ ।२. हुज्जत । बकवाद । क्रि० प्र०—कथना ।—करना ।
⋙ कथनीय
वि० [सं०] १. कहने योग्य । वर्णनीय । उ०—रामहिं चितव भाव जेहि सीया । सो सनेह सुख नहिं कथनीया ।— तुलसी (शब्द०) ।२. निंदनीय । बुरा ।
⋙ कथमपि
क्रि० वि० [सं० कथम्+अपि] किसी प्रकार । जैसे तैसे । बहुत कठिनता से ।उ०—वैष्णव ग्रंथों में उपलब्ध उल्लेख, उनके जीवनकृत विषयक हमारी जिज्ञासा को कथमपि शांति नहीं करते ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १ ।९७ ।
⋙ कथरी
संज्ञा पुं० [पुं० कन्या+री (प्रत्य०)] वह बिछावन या ओढ़ना जो पुराने चिथड़ों को जोड़ जोड़कर सीने से बनता है । गुदड़ी । उ०—पातक पीन कुदारिद दीन मलीन धरे कयरी करवा है ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कथांतर
संज्ञा पुं० [सं० कथान्तर] दूसरी कथा । किसी कथा के अंतर्गत अन्य गौण कथा ।
⋙ कथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो कही जाय । बात । विशेष—न्याय में यथार्थ निश्चय या विपक्षी के पराजय के लिये जो बात कही जाय । इसके तीन भेद हैं—बाद, जल्प, वितंडा । यौ०—कथोपकथन=परस्पर बातचीत । २. धर्मविषयक व्याख्यान या आख्यान ।उ०—हरि रह कथा विराजति बेनी ।—मानस, १. । २ । क्रि० प्र०—करना ।—कहना ।—बाँधना ।—सुनना ।—सुनाना ।—होना । —उ०—पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि । जायसी ग्रं०, पृ० १. । मुहा०—कथा उठना=कथा बंद या समाप्त होना । कथा बैठना= (१) कथा होना । (२) कथा प्रारंभ होना । कथा बैठना= कथा कहने के लिये किसी व्यास को नियुक्त करना । यौ०—कथामुख । कथारंभ । कथोदय । कथोद्धात=कथा का प्रारंभिक भाग । कथापीठ=कथा का मुख्य भाग । ३. उपन्यास का एक भेद । विशेष—इसमें पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका होती है । पूर्वपीठिका में एक वक्ता और एक या अनेक बनाए जाते हैं । श्रोता की ओर से ऐसा उत्साह दिखलाया जाता है कि पढ़नेवालों को भी उत्साह होता है । वक्ता के मुँह से सारी कहानी कहलाई जाती है । कथा की समाप्ति में उत्तरपीठिका होती है । इसमें वक्ता और श्रोता का उठ जाना आदि उत्तरदशा दिखाई जाती है । ४. बात । चर्चा । जिक्र । क्रि० प्र०—उठना ।—चलना ।—चलाना । ५. समाचार । हाल । ६. बादविवाद । कहासुनी । झगड़ा । मुहा०—कथा चुकाना=(१) झगड़ा मिटाना । मामला खतम करना । (२) काम तमाम करना । मार डालना । उ०— मेघनादै रिस आई, मंत्र पढ़ि कै चलाइयौ बाण ही में नाग फाँस बड़ी दुख दाइनी । ...... काहे की लराई, उन कथा की चुकाई जैसे पारा मारि डारत है पल में रसाइनी ।—हनुमान (शब्द०) ।
⋙ कथाकार
संज्ञा पुं० [सं०] कथावाचक । उ०—ब्रज में अब भी जो कथाकार अर्थात् श्रीमद्भभागवत आदि की कथा बाँचने आते हैं ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, ४८१ ।
⋙ कथाकोविद
वि० [सं०] कथा कहते में कुशल । उ०—कथाकोविद ग्रामवृद्धों में उसी प्रकार के माधुर्य का अनुभव किया था ।— रस०, पृ० १३ ।
⋙ कथाकौशल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथा कहने की प्रवीणता । चौंसठ कलाओं में एक कला ।उ०—कथाकौशल, सूचीकर्म, शास्त्र- विद्या, एवंविध चतुःषष्टि कला कलाकुशल नायक देषु ।— वर्ण०, पृ० २१ । २. कहानी रचना का कौशल ।
⋙ कथानक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथा ।२. छोटी कथा । बड़ी कथा का सारांश । कहानी । किस्सा ।
⋙ कथानिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपन्यास का एक भेद । विशेष—इसमें सब लक्षण कथोपन्यास हो के होते हैं, पर अनेक पात्रों की बातचीत से प्रधान कहानी कहलाई जाती है ।
⋙ कथापीठ
संज्ञा पुं० [सं०] कथा की प्रस्तावना ।
⋙ कथाप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० कथाप्रबंध] कथा की गठन या बंदिश । उ०—सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध बिचित्र बनाई ।—मानस, १, ३३ ।
⋙ कथाप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० कथाप्रसङ्ग] १. अनेक प्रकार की बातचीत । उ०—तब नारद सबही समुझावा । पूरब कथा प्रसंगु सुनावा ।—मानस, १ । १९८ ।२. बातचीत का क्रम । ३. विषवैद्य । विषचिकित्सक । सँपेरा । मदारी ।
⋙ कथामुख
संज्ञा पुं० [सं०] आख्यान या कथाग्रंथ की प्रस्तावना ।
⋙ कथावस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटक या आख्यान आदि का कथन या कहानी । वि० दे० 'वस्तु'—५ ।
⋙ कथावार्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनेक प्रकार की बातचीत ।
⋙ कथिक (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कथक] दे० 'कत्थक' ।
⋙ कथिक (२)
वि० [सं०] १. कथन या वर्णन करनेवाला । २. कहानी कहनेवाला [को०] ।
⋙ कथित (१)
वि० [सं०] १. कहा हुआ । २. अपुष्ट कथन ।
⋙ कथित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मृदंग के बारह प्रबंधों में से एक प्रबंध ।
⋙ कथी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कथित] कथनी ।
⋙ कथीर
संज्ञा पुं० [सं० कस्तीर, पा० कत्थीर] राँफा । हिरनखुरी राँगा । उ०—(क) कंचन केवल हरिभजन दजी कथा कथीर ।— कबीर (शब्द०) । (ख) अब तो मैं ऐसा भया निरमोलिक निज नाम । पहले काच कथीर था फिरता ठामहि ठाम ।—कबीर (शब्द०) । (ग) जहै वह बीरज परयो सुनीजै । रेम भई तह की सब चीजैं । ता आगे की चीजैं रूपो । होत भई पुनि लोह अनूपो । जहँ वह बीरह कोमल छायो । तहुँ कथीर राँग सोहायो ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कथील
संज्ञा पुं० [हिं० कथीर] दे० 'कथीर' ।
⋙ कथीला
संज्ञा पुं० [हिं० कथीर] दे० 'कथील' ।
⋙ कथोदघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रस्तावना । कथाप्रारंभ ।२. (नाटक में) सूत्रधार की बात; अथवा उसके मर्म को लेकर पहले पात्र का रंगभूमी में प्रवेश और अभिनय का आरंभ । जैसे,—रत्नावली में सूत्रधार की बात को दोहराते हुए यौगंधरायण का प्रवेश । सत्य हरिश्चंद्र में' सूत्रधार के 'जो गुन नृप हरिचंद्र में' इस वाक्य को सुनकर और उसके अर्थ को ग्रहण करके इंद्र का 'यहाँ सत्य भय एक के' इतयादि कहते हुए रंगभूमि में प्रवेश ।
⋙ कथोपकथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बातचीत । गुफ्तगू ।२. वाद- विवाद ।
⋙ कथ्था पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कथा] कथा । वार्ता । कहानी । उ०—आदि अंत जसि कथ्था अहै । लिखि भाषा चौपाई कहै ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २४ ।
⋙ कथ्य
वि० [सं०] कहने योग्य । कथनीय । जो कहना उचित हो ।
⋙ कदंब
संज्ञा पुं० [सं० कदम्ब] १. एक प्रसिद्ध वृक्ष । कदम ।२. समूह । ढेर । झुंड । उ०—(क) यहि विधि करेहु उपाय कदंबा । फिरहि तो होय प्राण अवलंबा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सोहत हार हिये हीरन को हिमकर सरिस बिशाला । अंबरेख कौस्तुभ कदंब छबि पद प्रलंब बनमाला ।—रघुराज (शब्द०) । ३. एक प्रकार का तृण । देवताड़क (को०) ।४. सरसों का पौधा (को०) ।५. धूलि (को०) ।६. सुगंध (को०) ।
⋙ कदंबक
संज्ञा पुं० [सं० कदम्बक] दे० 'कदंब' ।
⋙ कदंबकोरक न्याय
संज्ञा पुं० [सं० कदम्वकोरक न्याय] दे० 'न्याय' [को०] ।
⋙ कदंबनट
संज्ञा पुं० [सं० कदम्बनट] एक राग । विशेष—यह धनाश्री, कनाड़ा, टोल, अभीरी, मधुमाध और केदार को मिलाकर बनता है । इसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।
⋙ कदंबद
संज्ञा पुं० [सं० कदम्बद] सरसों के बीज का पौधा [को०] ।
⋙ कदंबपुष्पी
संज्ञा पुं० [सं० कदम्बपुष्पी] गोरखमुंडी [को०] ।
⋙ कदंबब्रह्ममंडल
संज्ञा पुं० [सं० कदम्बब्रह्ममण्डल] ग्रहण का मंडल [को०] ।
⋙ कदंबयुद्ध
संज्ञा पुं० [कदम्बयुद्ध] एक प्रकार की रतिक्रीड़ा [को०] ।
⋙ कदंबरि पु, कदंबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कदंबरी (३)' । उ०—बिना कदंबरि के पिए, त्रास न मन सों जात ।—इन्द्रा०, पृ० ३३ ।
⋙ कदंबवायु
संज्ञा पुं० [कदम्बवायु] सुगंधित पवन [को०] ।
⋙ कदंश
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा या निकृष्ट अंश ।
⋙ कद (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कद्द] [वि० कद्दी] १. इर्ष्या । द्वेष । शत्रुता । जैसे,—वह न जाने क्यों, हमसे कद रखता है ।२. हठ । जिद । जैसे,—उनको इस बात की कद हो गई है ।
⋙ कद (२)
संज्ञा पुं० [सं० कं=जल+द=ददाति] बादल । मेघ ।
⋙ कद (३)
वि० [सं०] १. जल देनेवाला ।२. आनंद या हर्ष देनेवाला [को०] ।
⋙ कद † (३)
अव्य० [सं० कदा] कब । किस दिन । किस समय । उ०—पुरष जनम तू कद पामेला, गुण कद हरि रा जासी ।—रघु० रू०, पृ० १६ ।
⋙ कद (५)
संज्ञा पुं० [अ० कद] डील । ऊँचाई । उ०—बामन बामन मृदु कुमुद गनै, अंजन से जैतकर अंजन के कद हैं ।—मातिराम ग्रं० पृ० ३५३ । यौ०—कद्देआदम=मानव शरीर के बराबर ऊँचा । विशेष—इसका प्रयोग साधारणतः प्राणियों और पौधों के लिये ही होता है ।
⋙ कदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. डेरा ।२. चँदवा । चाँदनी ।
⋙ कदक्षर
संज्ञा पुं० [सं० कद्+अक्षर] १. कुत्सित वर्ण । २. बुरा लिखावट या लिपि [को०] ।
⋙ कदधव पु
संज्ञा पुं० [सं० कदध्वन्] खोटा मार्ग । बुरा रास्ता ।
⋙ कदध्व
संज्ञा पुं० [सं० कदध्वन्] खराब मार्ग या पथ [को०] ।
⋙ कदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरण । विनाश ।२. युद्ध । संग्राम । जैसे, कदनप्रिय ।३. हिंसा । पाप ।३. दःख । उ०—कदन विदन अकदन तुदा गहन वृजन क्लेश आहि । दुःख जनि दे अब दे बैठी कत अनखाहि ।—नददास (शब्द०) । ५. मारनेवाला । घातक ।म विशेष—इस अर्थ में यह यौगिक या समस्त पद के अंत आता है । जैसे,—मदनकदन कंसकदन । ६. छुरिका । छुरी (को०) ।
⋙ कदन्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जिसका खाना शास्त्रों में वर्जित या निषिद्ध है अथवा जिसका खाना वैदक में अपथ्य या स्वास्थ्य के लिये हानिकारक माना गया है । कुत्सित अन्न । बुरा अन्न । कुअन्न । मोटा अन्न । जैसे,—कोदो, केसारी, मसूर । यौ०—कदन्नभुक् । कदन्नभोजी ।
⋙ कदपत्य
संज्ञा पुं० [सं० कद्+अपत्य] कुपुत्र । कपूत [को०] ।
⋙ कदब †
संज्ञा पुं० [सं० कदम्ब] दे० 'कदंब' ।
⋙ कदम (१)
संज्ञा पुं० [कदम्ब] १. एक सदाबहार पेड़ । विशेष—इसके पत्ते महुए के से पर उससे छोटे और चमकीले होते हैं । उसमें बरेसात में गोल गोल लड्डू के से पीले फूल लगते हैं । पीले पीले किरनों के झड़ जाने पर गोल गोल हरे फल रह हैं जो पकने पर कुछ कुछ लाल हो जाते हैं । ये फल स्वाद में खटमीठे होते हैं और चटनी अचार बनाने के काम में आते हैं । इसकी लकड़ी की नाव तथा और बहुत सी चीजे बनती हैं । प्राचीन काल में इसके फलों से एक प्रकार की मदिरा बनती थी, जिसे कादंबरी कहते थे । श्रीकृष्ण को यह पेड़ बहुत प्रिय था । वैद्यक में कदम को शीतल, भारी, विरेचक, सूखा, तथा कफ और वायु को बढ़ानेवाला कहा है । पर्या०—नीप । प्रियक । हरीप्रिय । पावृषेष्य । वृत्तपुष्प । सुरभि । ललना । प्रिया । कर्ण पूरक । महाढय । यौ०—कदमखंडिका=कदम बाटिका । वह स्थान जहाँ कदम के वृक्ष अधिक हों । उ०—(क) कहूँ कुटी कहुँ सघन कुटी कहुँ कदम खंडिका छाई । —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३०८ । (ख) सो सेवा सों पहोंचि गोविन्द स्वामी की कदम खंडी में जाते । —दो सौ बावन०, भा०,२, पृ० ६० । २. एक घास का नाम ।
⋙ कदम (२)
संज्ञा पुं० [अ० कदम] १. पैर । पाँव । पग । मुहा०—कदम उखड़ना=भाग जागा । हट जाना । कदम उखडना= (१) तेज चलना । जैसे,—कदम उठाओ, दूर चलना है । (२) उन्नति करना । कदम उठाकर तेज चलना=तेज या शीघ्र चलना । कदम चूमना=अत्यंत आदर करना । जैसे,—अगर तुम यह काम कर दो तो तुम्हारे कदम चूम लूँ । उ०—सब वजादार तेरे आके कदम चूमते हैं ।—श्यामा०, पृ० १०२ । कदम छूना=(१) पैर पकड़ना । दंडवत करना । प्रणाम करना । (२) शपथ खाना । जैसे,—आप के कदम छू कर कहता हूँ, मेरा इससे कोई संबंध नहीं है । (३) विनती करना । खुशामद करना । जैसे,—वह बार कदम छूने लगा, तब मैने उसे छोड़ दिया । (३) बड़ा या गुरु मानना । गुरु बनाना । कदम डगमगाना या लड़खड़ाना=डावाँडोल होना । ढीला पड़ना । शिथिल होना । मगर यहाँ पर हमारा भई कदम डगमगाने लगा ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ९० । कदम पकड़ना या लेना=(१) पैर पकड़ना । प्रणाम करना । आदर से पैर लगना । (२) बड़ा या गुरु मानना । आदर करना । (३) बिनती करना । खुशामद करना । कदम बढ़ाना या कदम आगे बढ़ना=(१) तेज चलना । (२) उन्नति करना । कदम मारना=(१) दौड़ धूप करना । (२) यत्न या उपाय करना । कदम रखना=प्रवेश करना । दाखिल होना । पैर रखना । २. पदचिह्न । चरणचिह्न । मुहा०—कदम ब कदम चलना=(१) साथ साथ चलना । (२) अनुकरम करना । कदम भरना=चलना । डग बढ़ाना । ३. धूल वा कीचड़ में बना हुआ पैर का चिह्न । मुहा०—कदम पर कदम रखना=(१) ठीक पीछे चलना । पीछे लगाना । (२) अनुकरण करना । नकल करना । पैरवी करना । ४. चलने में एक पैर से दूसरे पैर तक का अंतर । पैंड । पग । फाल । जैसे,—वह जगह यहाँ से १०० कदम होगी । ५. घोड़े की एक चाल जिसमें केवल पैरों में गति होति है और पैर बिलकुल नपे हुए और थोड़ी थोड़ी दूर पर पड़ते हैं । विशेष—इसमें सवार के बदन पर कुछ भी झटका नहीं पहुँचाता । कदम चलाने के लिये बाग खूब कड़ी रखनी पड़ती है । क्रि० प्र०—निकलना=कदम की चाल सिखाना । ६. क्रम । उपक्रम ।७. किसी कार् के निमित्त किया जानेवाला प्रयत्न । कार्यसाधन की चेष्टा ।८. काम । कार्य ।
⋙ कदमचा
संज्ञा पुं० [अ० कदल+फा० चा] १. पैर रखने का स्थान । २. पाखाने की वे खुड्ढियाँ जिनपर पैर रखकर बैठते हैं । खुड्ढी ।
⋙ कदमबाज
वि० [अ०] १. कदम की चाल चलनेवाला (घोड़ा) । २. बदचलन ।
⋙ कदमबोसी
संज्ञा स्त्री० [अ० कदम+फा० बोसी] कदम चूमना । चरण चूमना । संमान का प्रदर्शन करना । संमान या आदर करना ।
⋙ कदमा
संज्ञा स्त्री० [हिं० कदम] एक प्रकार की मिठाई जो कदंब के फूल के आकार की बनती है ।
⋙ कदर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़ी चीरने का आरा ।२. अंकुश । ३. वह गाँठ जो हाथ या पैर में काँटा या कंकड़ी चुभने या अधिक रगड़ से पड़ जाती है और कड़ी होकर बढ़ती है । चाँईं । टाँकी । गोखरू ।४. सफेद खैर ।५. छेना (को०) ।६. एक पेड़ का नाम जो कभी खदिर के स्थान पर यज्ञयूप के नाम आता था (को०) ।
⋙ कदर (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० कद्र] १. मान । मात्रा । मिकदार । जैसे,— तुम्हारे पास इस कदर रुपया है कि तुम एक अच्छा रोजगार खड़ा कर सकते हो ।२. मान । प्रतिष्ठा । बड़ाई । आदर सत्कार जैसे,—(क) उस दरबार में उनकी बड़ी कदर है । (ख) तुम्हारे यहाँ चीजों की कदर नहीं है । यौ०—कदरदान । बेकदर ।
⋙ कदरई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कादर] कायरपन ।
⋙ कदरज (१)
संज्ञा पुं० [सं० कदर्य] एक प्रसिद्ध पापी । उ०—गणिका अरु कदरज ते जग मँह अघ न करत उबज्यो । तिनको चरित पवित्र जाति हरि निज भवन धज्यौ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कदरज (२) पु
वि० दे० 'कदर्य' ।
⋙ कदरदान
वि० [अ० कद्र+फा० दान] कदर करनेवाला । गुण- ग्राहक । उ०—सराहन की भीमाकाली सतो द्वापरांत से उसकी कदरदान है ।—किन्नर०, पृ० ५४ ।
⋙ कदरदानी
संज्ञा स्त्री० [अ० कद्र+फा० दानी] गुँणग्राहकता ।
⋙ कदरमस पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कदम+हिं० मस (प्रत्य०)] मारपीट । लड़ाई । उ०—आवहु करहु कदरमस साजू । पढ़हिं बजाय जहाँ लहु राजू । —जायसी (शब्द०) ।
⋙ कदराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कादर+ई०. (प्रत्य०)] कायरपन । भीरुता । कायरता । उ०—भृगुपति केरि गर्व गरुआई । सुर मुनि बरन केरि कदरई ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कदराना पु
क्रि० अ० [हिं० कादर से नाम.] कायर होना । डरना । भयभीत होना । कचियाना । उ०—(क) समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तात प्रेमवश जनि कदराहू । समुझि हृदय परिणाम उछाहू ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कदरो
संज्ञा स्त्री० [सं० कद=वुरा+ख=शब्द] एक पक्षी जो डीलडौल में मैना के बराबर होता है ।उ०—(ख) धरी परेवा पाँड्डक हेरी । कोहा कदरो उतर बगेरी ।—जायसी (शब्द०) । (ख) सब छोड़ो बात तूती ओ कदरो व लाल की । यारो कुछ अपनी फिक्र करो आटे दाल की । —नजीर (शब्द०) ।
⋙ कदर्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] निकम्मी वस्तु । कूड़ा करकट ।
⋙ कदर्थ (२)
वि० १. कुत्सित । बुरा ।२. निष्प्रयोजन (को०) ।
⋙ कदर्थन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कष्ट या पीड़ा देना । सताना ।२. तिरस्कार । अपमान ।३. दुर्गति । दर्दशा [को०] ।
⋙ कदर्थना
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० कदर्थित] १. दुर्गति । दुर्दशा । बुरी दशा । उ०—(क) हा हा करै तुलसी दया निधान राम ऐसी काशी की कदर्थना कराल कलिकाल की ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) नरपिशाचों का नाश, दमन और उत्पीड़न देखकर समाज हर्ष विह्वल हो जाता है और वही महात्माओं की कदर्थना देखकर कलेजा थाम लेता है ।—रस क०, पृ० २३ । २. कष्ट देना । सताना (को०) ।३. अरमान । तिरस्कार । अवहेलना । (को०) ।
⋙ कदर्थित
वि० [सं०] १. जिसकी बुरी दशा की गई हो । दुर्गतिप्राप्त । २. जिसकी विडंबना की गई हो । जिसकी खूब गति बनाई गई हो । जैसे,—वे उस सभा में खूब कदर्यित किए गए ।३. पीड़ित । संतप्त (को०) ।
⋙ कदर्य (१)
वि० [संज्ञ कदर्यता] जो स्वयं कष्ट उठाकर और अपने परिवार को कष्ट देकर धन इकट्ठा करे । कंजूस । मक्खीचूस ।
⋙ कदर्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वह कंजूस राजा जो कोश इकट्ठा करने के पीछे प्रजा पर अत्याचार करे और राज्य की आमदनी राज्य की भलाई में न खर्च करे । (कौ०) ।
⋙ कदर्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंजूसी । सूमपन ।
⋙ कदल
संज्ञा पुं० [सं०] कदली वृक्ष । केला [को०] ।
⋙ कदलक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कदल' [को०] ।
⋙ कदला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृश्नि ।२. डिंबिका ।३. शाल्मलि [को०] ।
⋙ कदलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झंडा । ध्वजा । पताका ।२. कदल एक वृक्ष [को०] ।
⋙ कदली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केला । उ०—तन पसेउ कदली जिमि काँपी । कुबरी दसन जीभ चाँपी ।—मानस २ । २० । २. एक पेड़ । विशेष—यह बरमा और आसाम में बहुत होता है । इसकी लकड़ी जहाज बनाने में बहुत काम आती है । इसके पेड़ सड़कों के किनारे लगाए जाते हैं । ३. काले और लाल रंग का एक हिरन जिसका स्थान महाभारत आदि में कंबोज देश लिखा गया है । यौ०—कदलीपत्र=केले का पत्ता ।—वर्ण०, पृ० ३१ ।
⋙ कदली (२)
संज्ञा पुं० [सं० कदलिन्] हिरन का एक भेद [को०] ।
⋙ कदलीक्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परवल । पटोल ।२.सुंदर स्त्री । सुंदरी [को०] ।
⋙ कदा
क्रि० वि० [सं०] कब । किस समय । मुहा०—यदा कदा=कभी कभी । अनिश्चित समय पर ।
⋙ कदाकार
वि० [सं०] बुरे आकार का । बदसूरत ।
⋙ कदाख्य
वि० [सं०] बदनाम ।
⋙ कदाच पु
क्रि० वि० [सं० कदाचन] शायद । कदाचित् ।उ०— कौन समौ इन बातन को रण राम दहै घर में पटरानी । राम के हाथ मरे दशकंधर तै यह बात सु काहे ते जानी । और कदाच बने यहि भाँति तो आज कहु कौन सी हानी । देह छटे हू न सीय छटी चलिहै जग में युग चार कहानी ।— हनुमान (शब्द०) ।
⋙ कदाचन
क्रि० वि० [सं०] १. किसी समय । कभी ।२. शायद ।
⋙ कदाचार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कदाचारी] बुरी चाल । बुरा आचरण । बदचलनी ।
⋙ कदाचारी
वि० [सं० कदाचारिन्] बुरे आचरण वाला । कुचाली [को०] ।
⋙ कदाचि पु
क्रि० वि० [सं० कदाचित्] दे० 'कदाचित' ।उ०—जौ कदाचि मोहि मारहि तौ पुनि होउँ सनाथ ।—मानस, ४ । ७ ।
⋙ कदाचित्
क्रि० वि० [सं०] कभी । शायद कभी ।
⋙ कदाचित पु
क्रि० वि० [सं० कदाचित्] कभी । शायद कभी ।उ०— अस संयोग ईस जब करई । तबहु कदाचित सो निरु- अरई ।—मानस, ७ । ११७ ।
⋙ कदापि
क्रि० वि० [सं०] कभी भी । किसी समय । हर्गिज । विशेष—इसका प्रयोग निषेधार्थक शब्द 'न' या 'नहीं' के साथ ही होता है । जैसे,—ऐसा कदापि नहीं हो सकता ।
⋙ कदामत
संज्ञा स्त्री० [अ० कदामत] १. प्राचीनता ।२. पुरानापन । ३. प्राचीन काल । सनातन ।
⋙ कदाहार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दूषित या निकृष्ट भोजन [को०] ।
⋙ कदाहार (२)
संज्ञा पुं० [सं० कदा+आहार] अनियमित समय का भोजन । जब तब भोजन करना [को०] ।
⋙ कदियक पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'कभी' । उ०—कदियक आवै कोटड़ी छिपतों छिपतो छैल ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० २, पृ० १३ ।
⋙ कदी (१)
वि० [अ० क़द=हठ] हठी । जिद्दी ।
⋙ कदी (२)
क्रि० वि० [सं० कदा] कभी । उ०—करै कमाई जो कछू, कदी न निष्फल जाय । —कबीर सा०, पृ० ४६६ ।
⋙ कदीम (१)
वि० [अ० कदीम] पूराना । प्राचीन । पुरातन ।उ०— यकीन जय में वई बन्दा हूँ कदीम ।—दाक्खिनी०, पृ० ९१ ।
⋙ कदीम (२)
संज्ञा पुं० [देश०] लोहे के छड़ जो जहाजों में बोझ इत्यादि उठाने के काम में आते है ।
⋙ कदीमी
वि० [अ० कदीम+फा० ई (प्रत्य०)] प्राचीन काल का । पुराने समय का । पुरातन । उ०—खानेजाद कदीमी कहियो तुही आसरो मेरो ।—चरण० बानी०, पृ० ६१ ।
⋙ कदुष्ण
वि० [सं०] इतना गर्म कि जिसके छूने से त्वचा न जले । थोड़ा गर्म । शीरगर्म । सीतगरम । कोसा ।
⋙ कदूरत
संज्ञा पुं० [अ० कु दूरत] रंजिश । मनमोटाव । कीना । क्रि० प्र०—आना ।—रखना ।—होना ।
⋙ कदे पु †
अव्य० [हिं०] कब । कभी । किस समय । उ०— (क) जब मिलों राव हम्मीर तुम, बहुरि समै ह्वै है कदे ।—हम्मीर रा०, पृ० १३९ । (ख) सेवक भाव कदै नहिं चौरै ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ९६ ।
⋙ कद्द (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कद्द] वैमनस्य । द्वेष । हठ । [को०] ।
⋙ कद्द (२)
संज्ञा पुं० [अ० कद] दे० 'कद' ४ । उ०—कारे कद्द भारे भीम दीरघ दंतारे जौन, जलधर धारै ज्यों फुहारै फुफकारैंते ।—हम्मीर०, पृ० २३ ।
⋙ कद्दावर
वि० [हिं० कद+फा० आवर (प्रत्य०)] बड़े डील डौल का । लंबा । चौड़ा ।
⋙ कद्दी पु † (१)
वि० [हिं० कदी] सं० 'कदी'—१ ।
⋙ कद्दी पु † (२)
क्रि० वि० [हिं० कदी] दे० 'कदी'—२ ।
⋙ कद्दू
संज्ञा पुं० [फा०] १. लौकी । लौवा । घिया । गड़ेरू ।उ०— आजकल कद्दू (काशीफल) के स्वर्णिम पुष्प भी खिले थे ।— किन्नर०, पृ० ७२ ।२. लिंग ।—(बाजारू) ।
⋙ कद्दकश
संज्ञा पुं० [फा०] लोहे पीतल आदि की छोटी चौकी जिसमें ऐसे लंबे छेद होते हैं, जिनका एक किनारा उठा और दूसरा दबा होता है । इस पर कद्दू को रगड़कर रायते आदि के लिये उसके महीन टुकड़े करते हैं ।
⋙ कद्द दाना
संज्ञा पुं० [फा०] पेट के भीतर के छोटे सफेद कीड़े जो मल के साथ गिरते हैं ।
⋙ कद्र
संज्ञा पुं० [अ० कद्र] १. गुण की परख ।२. कीमत ।३. सत्कार । आदर ।
⋙ कद्रदान
वि० [अ० कद्र+फा० दान (प्रत्य०)] गुणग्राहक । गुण पहचाननेवाला ।
⋙ कद्रदानी
संज्ञा स्त्री० [अ० कद्र+फा० दानी (प्रत्य०)] गुण की परख । गुणज्ञता । गुणग्राहकता । उ०—मोटे अक्षरों में राजासाहब की कद्रदानी और उदारता की प्रशंसा के साथ खिलाड़ी को विजयपात्र देने का समाचारपत्र था ।— अभिशप्त, पृ० ६८ ।
⋙ कद्रु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षपुत्री और कश्यप की पत्नी जो नागों की माता थीं [को०] ।
⋙ कद्रु (२)
वि० [पुं०] १. पीतवर्ण ।२. बहुरंगी ।३. धब्बेदार [को०] ।
⋙ कद्रुज
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प । नाग । साँप ।
⋙ कद्रू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार कश्पय की एक स्त्री जिससे सर्प पैदा हुए थे । उ०—कद्रू बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहिं कौसिलाँ देव ।—मानस, २ । १९ । २. सोमपात्र । प्रा० भा० प० पृ० १४१ ।
⋙ कद्रूक
संज्ञा पुं० [सं०] बैल की पीठ पर उठा हुआ मांसल भाग । डिल्ला [को०] ।
⋙ कद्वद
वि० [सं०] १. बुराई करनेवाला । २. भ्रष्टवक्ता । अस्पष्टवक्ता [को०] ।
⋙ कद्वर
संज्ञा पुं० [सं०] छाछ । मठा [को०] ।
⋙ कधी †
क्रि० वि० [हि० कद+ ही (प्रत्य०)] कभी । किसी समय । उ०—(ख) भौ के माहि कधी नहिं परिहै ।—घट० पृ० २३९ । (ख) नहीं इपक जिस वह बड़ा कूढ़ है । कधीं उससे मिल बैसिया जाये ना ।—दक्खनी०, पृ० ७६ । यौ०—कधी कधार=कभी कभी । भूले भटके ।
⋙ कन (१)
संज्ञा पुं० [सं० कण, * कन] १. किसी वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा । जर्रा । उ०—बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरिस सुमन कन बेधिअ हीरा ।—मानस, १ । २५८ । अन्न का एक दाना । उ०—जैसे कन बिहीन लै धान । धमकि धमकि कूटत आयान ।—नद० ग्रं०, पृ० २६९ । ३. अन्न की किनकी । अनाज के दाने का टुक्ड़ा । ४. प्रसाद । जूठन । ५. भीख । भिक्षान्न । उ०—कन दैव्यौ सौंप्यों ससुर बहु थोरहथी जान । रूप रहचटे लगि लग्यौ माँगन सब आन ।—बिहारी (शब्द०) । ६. बूँद । कतरा । उ०—निज पद जलज बिलोकि सेक रत नयननि वारि रहत न एक छन । मनहु नील नीरज ससि संभव रवि वियोग दोउ श्रवत सुधा कन ।—तुलसी (शब्द०) । ७. चावलों की धूल । कना । जैसे,—इन चावलों में बहुत कन है । ८. बालु या रेत के कण । उ०—अरु कन के माला कर अपने कौने गूँथ बनाई ।—सूर (शब्द०) । ९. कनखे या कली का महीन अंकुर जो पहले रवं जैसा दिखाई पड़ता है । १० । शारीरिक शक्ति । हीर । सत । जैसे,— चार महीने की बीमारी से उनके शरीर में कन नहीं रहा ।
⋙ कन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्ण> हिं० कान का समासगत रूप] कान । जैसे,—कनपेड़ा, कनपटी, कनछेदन, कनटोप ।
⋙ कनअँखिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखियाँ] दे० 'कनखिया' । उ०— कन अँखियों से बड़े की तरह देखकर मुस्कराता था ।—श्री निवास ग्रं०, पृ० २९० ।
⋙ कनअँगुरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गल=हाथ+हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'कनउँगली' । उ०—कन अंगुरी ऊधर तिन लागै ।— कबीर सा० पृ० १५९८ ।
⋙ कनई (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड या कन्दल] कनखा । नई शाखा । कल्ला । कोपल ।
⋙ कनई (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्दम, प्रा० कद्दम, कंदो पु † काँदो पु, काँदव पु, कदई पु] गीली मिट्टी । गिलावा । हीला । कीचड़ ।
⋙ कनउँगली
संज्ञा स्त्री० [सं० कनीयान, हिं० कानी+ हिं० उँगली] कानी उंगली । सबसे छोटी उंगली । कनिष्ठिका ।
⋙ कनउड़ पु
वि० [हिं० कनौड़ा] दे० 'कनौड़ा' । उ०—हमै आजु लग कनउड़ काहु न कीन्हेंउ । पारबती तप प्रेम मोल मोहिं लीन्हेंउ । —तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । सुवर्ण । स्वर्ण । उ०—अन्न कनक भाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ।—मानस, १ ।१०१ । यौ०—कनककदली । कनककार । कनकक्षार । कनकाचल । कनकवल्ली=स्वर्ण लता या सोने की बेल । उ०—मानहु सुर कनकबल्ली जुरि, अमृत बुँद पवन मिस झारति ।—सूर०, १० । १७५३ । कनरेखा=सूर्य की आभा से प्रभात या सायंकाल आकाश में पड़नेवाली सुनहली रेखा । उ०—प्रथम कनकरेखा प्राची के भाल पर ।—अनामिका, पृ० ७७ । २. धतूरा । उ०—कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ।— बिहारी (शब्द०) । ३. पलास । टेसू । ढाक । ४. सनागकेसर । ५. खजूर । ६. छप्पय । छंद का एक भेद । ७. चंपा (को०) । ८. कालीय नाम का वृक्ष (को०) ।
⋙ कनक (२)
संज्ञा पुं० [सं० कणिक=गेँहूँ का आटा] १. गेहूँ का आटा कनिक । २. गेहूँ ।
⋙ कनक (३)
संज्ञा स्त्री० [फा० खुनुकी] नमी । आर्द्रता । शीतलता । उ०—रात भीज जाने से हवा में कनक आ गई थी ।—अभिशप्त, पृ० १२६ ।
⋙ कनककदली
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का केला ।
⋙ कनककली
संज्ञा पुं० [सं० कनक+ हिं० कली] कान में पहनने का एक गहना । लौंग । उ०—चौतनी सिरन, कनककली कानन कटि पट पटि सोहाए ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनककशिपु पु, कनककसिपु पु
संज्ञा पुं० [सं० कनक=हिरण्य+ + कशिपु] दे० 'हिरण्यकशिपु' । उ०—कनककसिपु अरु लहाटक लोचन । जगत बिदित सुरपति—मद—मोचन । —मानस, १ ।१२२ ।
⋙ कनककूट
संज्ञा पुं० [सं० कनक+कूट] सुमेरु पर्वत ।
⋙ कनकक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा ।
⋙ कनकगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत ।
⋙ कनकशैल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कनकगिरि' ।
⋙ कनकचंपा
संज्ञा पुं० [सं० कनक+ हिं० चंपा] मध्यम आकार का एक पेड़ । विशेष—इसकी छाल खाकी रंग की होती है । इसकी टहनियों और फल के दलों के नीचे की हरी कटोरी रोएँदार होती है । इसके पत्ते बड़े और कुम्हड़े, नेनुए आदि की तरह होते हैं । फल इसके खूब सफेद और मीठी सुंगध होते है । यह दलदलों में प्राय? होता है । बसंत और ग्रीष्म में फूलता है । इसकी लकड़ी के तख्ते मजबुत और अच्छे होते है । इसे कनियारी भी कहते हैं ।
⋙ कनकजीरा
संज्ञा पुं० [सं० कनक+ हिं० जीरा] एक प्रकार का महीन धान जो अगहन में तैयार होता है । इसका चावल बहुत दिनों तक रह सकता है ।
⋙ कनकटा
वि० [हिं० कन+ कटा] १. जिसका कान कटा हो । बूचा ।—वर्णा०, पृ० १ । २. कान काट लेनेवाला । जैसे,—वह कनकटा आया, नटखटी मत करो । (लड़कों को डराने के लिये कहते हैं ।)
⋙ कनकटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन+कटी] कान के पीछे का एक रोग । विशेष—इसमें कान का पिछला भाग जड़ के निकट लाल होकर कट जाता है और उसमें जलन और खुजली होती है ।
⋙ कनकदंड
संज्ञा पुं० [सं० कनकदण्ड] राजच्छत्र [को०] ।
⋙ कनकनंदी
संज्ञा पुं० [सं० कनकनन्दिन्] एक प्रकार के शिवगण ।
⋙ कनकना (१)
वि० [हिं० कन+ क—ना (प्रत्य०)] जरा से आधात से टूट जानेवाला । 'चीमड़' का उल्टा । उ०—नेहिन के मन काँच से अधिक कनकने आँई । दृग ठोकर के लगत ही टूक टूक ह्वै जाँइ—रसनिधि (शब्द०) ।
⋙ कनकना (२)
वि० [हिं० कनकनाना] [वि० स्त्री० कनकनी] १. जिससे कनकनाहट उत्पन्न हो । २. चमचुनानेवाला । ३. अरुचिकर । नागवार । ४. चि़ड़चिड़ा । थोड़ी बात पर चिढ़नेवाला ।
⋙ कनकनाना (१)
क्रि० अ० [हिं० काँद, पुं०, हिं० कान] [संज्ञा कनक— नाहट] १. सूरन, अरवी आदि वस्तुओं के स्पर्श से मुँह हाथ आदि अंगों में एक प्रकार की वेदना या चुनचुनाहट प्रतीत होना । चुनचुनाना । जैसे,—सूरन खाने से गला कनकनाता है । २. चुनचुनाना या कनकनाहट उत्पन्न करना । गला काटना । जैसे,—वासुकी सूरन बहुत कनकनाता है । ३. अरुचिकर लगना । नागवार मालूम होना । जैसे,—हमारी बातें तुम्हें बहुत कनकनाती हैं ।
⋙ कनकनाना (२)
क्रि० अ० [हिं० कान> कन] कान खड़ा करना । चौकन्ना होना । जैसे,—पैर की आहट पाते ही हिरन कनक- नाकर खड़ा हुआ ।
⋙ कनकनाना (३)
क्रि० अ० [हिं० गनगनाना] गनगनाना । रोमांचित होना ।
⋙ कनकनाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनकना+ आहट (प्रत्य०)] कनकनाने का भाव । कनकनी ।
⋙ कनकनिकष
संज्ञा पुं० [सं०] कसौटी [को०] ।
⋙ कनकनी
संज्ञा स्त्री [हिं० कनकना] कनकनाहट ।
⋙ कनकपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक आभूषण झुमका ।
⋙ कनकपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का पीढ़ा । स्वर्ण मय आसन [को०] ।
⋙ कनकपुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कनक+ पुरी] रावण की लंका जो सोने की मानी गई है ।
⋙ कनकप्रभ
वि० [सं०] सोने जैसी कांतिवाला । सोने जैसी चमक दमक से युक्त [को०] ।
⋙ कनकप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाज्योतिष्मती लता ।
⋙ कनकप्रसवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णकेतकी [को०] ।
⋙ कनकफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. धतुरे का फल । २. जमालगोटा ।
⋙ कनकभंग
संज्ञा पुं० [सं० कनकभङ्ग] स्वर्णखंड । सोने का टुकड़ा या डला [को०] ।
⋙ कनकरंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० कनकरम्भा] स्वर्ण कदली [को०] ।
⋙ कनकरस
संज्ञा पुं० १.हरताल ।२.तरल स्वर्ण [को०] ।
⋙ कनकशक्ति
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय [को०] ।
⋙ कनकसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का हार । सोने का तार [को०] ।
⋙ कनकसेन
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा जिन्होंने सन् २०० ई० में वल्लभी संवत् चलाया था और जो मेवाड़ वंश के प्रतिष्ठाता माने जाते है ।
⋙ कनकस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोने की खान [को०] ।
⋙ कनका †
संज्ञा पुं० [सं० कणिका] कण । कनिका । कनकी ।
⋙ कनकाचल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोने का पर्वत । २. सुमेरुपर्वत ।
⋙ कनकाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कोषाध्यक्ष । खजांची [को०] ।
⋙ कनकनी
संज्ञा पुं० [देश०] थोड़े की एक जाति । उ०—वले सहस बैसक सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी ।—जायसी (शब्द०) । विशेष—इस जाति के घोड़े डील डौल में गधे से कुछ ही बड़े पर बहुत कदमबाज और तेज होते हैं ।
⋙ कनकाभ
वि० [सं०] सोने जैसी कांति । उ०—कनकाभ धुल झर जाएगी, ये रंग कभी उड़ जाएँगे ।—नील०, पृ० ९० ।
⋙ कनकालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्णघट । सोने का घड़ा [को०] ।
⋙ कनकाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा या धतूरे का पेड़ [को०] ।
⋙ कनकी
संज्ञा स्त्री० [सं० कणिक] १. चावलों के टुटे हुए छोटे छोटे टुकडे़ । २. छोटा कण ।
⋙ कनकुटकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुटकी] रेवंद चीनी जाति का एक एक प्रकार का वृक्ष । विशेष—यह खसिया को पहाड़ी, पूर्वी बंगाल लंका आदि में होता है । इसमें से एक प्रकार की राल निकलती है जो दवा और रँगाई के काम में आती है ।
⋙ कनकूट
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुरकुंड' ।
⋙ कनकूत
संज्ञा पुं० [सं० कण+ हिं० कूत] बँटाई का एक ढंग । विशेष—इसमें खेत में खड़ी फसल की उपज का अनुमान किया जाता है और किसान को उस अटकल के अनुसार उपज का भाग या उसका मूल्य जमींदार को देना पड़ता है । यह कनकूत या तों जमींदार स्वयं या उसका नौकर अथवा कोई तीसरा करता है ।
⋙ कनकैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनकौवा] दे० 'कनकौवा' ।
⋙ कनकौवा
संज्ञा पुं० [हिं० कन्ना+ कौवा] १. कागज की बड़ी पतंग । गुडडी । २. एक प्रकार की घास जो प्राय? मध्य भारत और बुंदेलखंड में होती है । क्रि० प्र०—उड़ाना ।—काटना ।—बढ़ाना ।—ल़ड़ाना । मुहा०—कनकौवा काटना=किसी बढ़ी हुई पतंग की डोरी को अपनी बढ़ी हुई पतंग की डोरी से रगड़कर काटना । कनकौवा लड़ाना=किसी बढी़ हुई पतंग की डोरी में अपनी बढ़ी हुई पतंग की डोरी को फँसाना जिसमें रगड़कर खाकर दोनों में से कोई पतंग कट जाय । कनकौवा बढ़ाना=कनकौवे की डोर ढीली करना जिससे वह हवा में और ऊपर या आगे जा सके । कनकौवे से दुमछल्ला बड़ा=मुख वस्तु की अपेक्षा उसके उपसर्ग या पुछल्ले का बड़ा होना । यौ०—कनकौवाबाज=पतंग उड़ानेवाला । कनकौनवेबाजी ।
⋙ कनलजूरा
संज्ञा पुं० [हिं० कान+खर्जूर=एक कीड़ा] लगभग एक बालिश्त का एक जहरीला कीड़ा । विशेष—इसके बहुत से पैर होते हैं । इसकी पीठ पर बहुत से गंडे पड़े रहते है । यह कई रंगों का होता है । लाल मुँहवाले बड़े और जहरीले होते हैं । कनखजूरा काटता भी है और शरीर में पैर गड़ाकर चिपट भी जाता है । इसे गोजर भी कहते है ।
⋙ कनखा (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. कोंपल । २. शाखा । डाल ।
⋙ कनखा (२)
वि० [हिं० कानी,> कन>अँखा>खा] दे० 'कनखी' । ऐंचा ताना देखनेवाला । वक्रदृष्टिवाला ।
⋙ कनखिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखी] दे० 'कनखी' ।
⋙ कनखियाना
क्रि० स० [हिं० कनखी] १. कनखी से देखना । तिरछी नजर से देखना । २. आँख से इशारा करना । कनखी मारना ।
⋙ कनखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोन+ आँख] १. पुतली को आँख के कोने पर ले जाकर ताकने की मुद्रा । इस प्रकार ताकने की क्रिया कि औरों को मालूम न हो । दूसरों की दृष्टि बचाकर देखने का ढंग । उ०—(क) देह लग्यो ढिग गेहपति तऊ नेह निरबाहि । ढीली अँखियन ही इतै कनखियन चाहि ।— बिहारी (शब्द०) । (ख) ललचौहैं, लजौहै, हँपोहैं चितै हित सों चित चाय बढ़ाय रही । कनखी करिके पग सों परिकै फिर सूने निकेत में जाय रही ।—भिखारीदास (शब्द०) । २. आँख का इशारा । क्रि० प्र०—देखना । —मारना । मुहा०—कनखी मारना=(१) आँख से इशारा करना । (२) आँख के इशारे से किसी को कोई काम करने से रोकना । कनखियों लगना=छिपकर देखना । ताकना । भाँपना ।
⋙ कनखुरा
संज्ञा पुं० [देश०] रीहा नाम की घास जो आसाम देश में बहुत होती है । बंगाल में इसे 'करकुंड' भी कहते हैं ।
⋙ कनखैया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखी] तिरछी नजर । क्रि० प्र०—देखना ।—लगना ।—निहारना ।—हेरना । मुहा०—कनखैयन लगना=छिपकर देखना । ताड़ना । भाँपना । उ०—धुनि किंकिन होति जगैगी सबै सुक सारिका चौकि चितै परिहैं । कनखैयन लागि रही है परोसिन सौ सिसकी सुनिकै डरिहैं ।—लाल (शब्द०) ।
⋙ कनखोदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन (कान से बना)+खोदनी= खोदनेवाली] लोहे, ताँबे आदि के कड़े तार का बना हुआ एक उपकरण । विशेष—इसका एक सिरा कुछ चिपटा करके मोड़ा हुआ होता है जिससे कान में मैल निकाली जाती है । प्राय? हज्जाम लोग अपनी नहरनी का दूसरा सिरा भी इसी आकार का रखते हैं ।
⋙ कनगुज्झा †
संज्ञा पुं० [देश०] चपेटा । थप्पड़ ।
⋙ कनगुरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कानी+ अँगुरीयाअँगुरिया] कनि- ष्ठिका उँगली । सबसे छोटी उँगली । छिगुनिया । छिगुली । उ०—अब जीवन के हे कपि आस न कोइ । कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनछेदन
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ छेदना] हिंदुओं का एक संस्कार जो प्राय? मुंडन के साथ होता है और जिसके बच्चों का कान छेदा जाता है । कर्ण वेध ।
⋙ कनटक †
संज्ञा पुं० [हिं० कन+ टकटक] कृपण । कंजूस । उ०— बाप कनटक, पूत हातिम ।—कहावत ।
⋙ कनटोप
संज्ञा पुं० [हिं० कन+ टोप या तोपना] कानों को ढँकने वाली टोपी । उ०—उस टोपी के जिसके तीन भाग में उठे कनपट जाड़ों में नीचे गिरकर कनटोप का काम देते हैं ।—किन्नर०, पृ० ३९ ।
⋙ कनतूतुर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा मेंढक जो बहुत जहरीला होता है और बहुत ऊँचा उछलता है ।
⋙ कनधार पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार, प्रा० कण्णधार] मल्लाह । केवट । खेनेवाला । उ०—जाके होय ऐस कनधारा । तुरत बंगि सो पावै पारा ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कनन
वि० [सं०] एकाक्ष । काना । एक आँखवाला [को०] ।
⋙ कनपटा
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण+ पट] दे० १. 'कनपटी' । २. कर्णपट । कर्णच्छद । उ०—उठे कनपटे जाड़ों में नीचे गिरकर कनटोप का काम देते हैं ।—किन्नर, पृ० ३९ ।
⋙ कनपटी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्ण+ पट] कान और आँख के बीच का स्थान । उ०—विजय की कनपटी लाल हो गई ।—कंकाल, पृ० ७८ ।
⋙ कनपेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कान+पेड़—जड़+आ (प्रत्य०)] कान का एक रोग जिसमें कान की जड़ के पास चिपटी गिल्टी निकल आती है । यह गिल्टी पक भी जाती है ।
⋙ कनफटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ फटना] गोरखनाथ के अनुयायी योगी जो कानों को फड़वाकर उनमें बिल्लोर, मिट्टी, लकड़ी आदि की मुद्राएँ पहनते हैं । उ०—(क) पंडित ज्ञानी चतुर जरै कनफटा उदासी ।—पलटू०, भा०१, पृ० १०४ । (ख) गोरखपंथी कनफटे भी कहलाते हैं ।—गोरख०, पृ० २४० ।
⋙ कनफट † (२)
वि० जिसका कान फटा हो ।
⋙ कनफुँकवा †
वि० [हिं० कन+फुँकवा] दे० 'कनफुका' । उ०— और यही दशा केवल विशुद्ध दीक्षागुरु या कनफुंकवा ब्राह्मणों की है ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २२३ ।
⋙ कनफुँका (१)
वि० [हिं० कान+ फूँकना] [स्त्री० कनफुँकी]१ कान फूँकनेवाला । दीक्षा । देनेवाला । उ०—(क) कनफूँका गुरु जगत का राम मिलावन और ।—चरण० बानी, पृ० ११ । (क) कनफुकवाँ गुरु हद्द का बेहद का गुरु और । बेहद का गुर हद मिलै, लहै ठिकाना ठौर ।—कबीर (शब्द०) । २. जिसका कान फूँका गया हो । जिसने दीक्षा ली हो । जैसे,— कनफूँका चेला ।
⋙ कनफुँका (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. कान फूँकनेवाला गुरु । २. कान फुँकाने वाला चेला । उ०—कनफूँका चिढाकसी लूटे जोगेसर लूटे करत बिचार ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ कनफुसका
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ फुसकना] [स्त्री० कनफुसकी] १. फुस फुस करनेवाला । कान में धीरे बात कहनेवाला । २. चुगुलखोर । पीठ पीछे धीरे धीरे लोगों की बुराई करनेवाला ।
⋙ कनफुसकी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+ फुसकी] दे० 'कानाफूसी' ।
⋙ कनफूल †
संज्ञा पुं० [हिं० कन+ फूल] फूल के आकार का कान का गहना । तरवन । उ०—कनबेसर कनफूल बन्यौ है छबि कापै कहि आवै जू ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४४६ ।
⋙ कनफेड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० कनपेडा] दे० 'कनपेड़ा' ।
⋙ कनफेशन
संज्ञा पुं० [अँ कनफे़शन[ पाप, अपराध, गलती, बुराई आदि कबूल करना । उ०—मुझे कभी ईसाईयों की तरह कनफेशन करना हो तो गिरजे में जाकर नहीं रेलगाड़ी में ही करूँ ।—नदी० पृ० ३६ ।
⋙ कनफोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कर्मस्फोटटक] एक लता जो दवा के काम में आती है । यह खाने में कड़वी और गुण में ठंडी और विषध्न होती है । पर्या०—त्रिपुटा । चित्रप्रणोँ । कोपलता । चंद्रिका ।
⋙ कनबतियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन+ बतियाँ] कानाफुसी । निंदा जो खुलकर न की जाय । उ०—इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं ।—गोदान, पृ० २५२ ।
⋙ कनबाती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन+ बात] कान में मुँह लगाकर बात कहना । उ०—कछुक अनूठी मिस बनाय ढिग आय करत कनबाती ।—घनानंद०, पृ० ५६६ ।
⋙ कनबिधा
संज्ञा पुं० [हिं० कन+ बेधना] १. कान छेदनेवाला । २. जिसका काम छेदा हुआ हो ।
⋙ कनभेड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का सन का पौधा जो अमेरिका से भारत में लाया गया है । विशेष—बंबई प्रांत में इसकी खेती बहुत होती है । इसको 'बनभेड़ी' भी कहते हैं । यह अब प्राय? हर जगह होता है । इसके रेशे आठ नौ फुट लंबे और पटसन से कुछ घटिया होते हैं । इसके पत्ते, फल और फूल भिड़ी की तरह होते हैं ।
⋙ कनमनाना
क्रि० अ० [अनु०] १. सोने की अवस्था में व्याकुलती के कारण कुछ हिलना डुलना । २. किसी प्रकार की गति करना । विशेषत? कोई काम होता देखकर उसके विरुद्ध बहुत ही साधारण या थोड़ी चेष्टा करना । जैसे,—तुम्हारे सामने इतना बड़ा अनर्थ हो गया और तुम कनमाए तक नहीं ।
⋙ कनमैलिया
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ मैल+ इया (प्रत्य०) । वह जो लोगों के कान का मैल निकालता हो ।
⋙ कनय पु
संज्ञा पुं० [सं० कनक] सोना । स्वर्ण । उ०—वह जो मेघ, गढ़ लाग अकासा । बिजुरी कनय कोट चहुण पासा ।— जायसी (शब्द०) ।
⋙ कनयर पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिकार, प्रा० कण्णिआर] दे० 'कनेर' ।
⋙ कनयून
संज्ञा पुं० [सं० कण+ ऊन] एक प्रकार का सफेद काश्मीरी चावल जो उत्तम समझा जाता है ।
⋙ कनरई
संज्ञा स्त्री० [देश०] गुलू नाम का पेड़ जिससे कतीरा निकलता है । दे० 'गुलू' ।
⋙ कनरश्याम
संज्ञा पुं० [हिं० कान्हड़ा+ श्याम] संपूर्ण जाति का एक शंकर राग जिससे सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।
⋙ कनरस
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ रस] १. संगीत का स्वाद । गाना बजाना सुनने का आनंद । २. गाना बजाना या बात सुनने का व्यसन । संगीत की रुचि । उ०—कनरस बतरस और सबै रस झुँठहि डेलै हो ।—रै० बानी, पृ० ७० ।
⋙ कनरसिया
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ हिं० रसिया] गाना बजाना सुनने का शौकीन । संगीतप्रिय । नादप्रिय ।
⋙ कनराना †
क्रि० अ० [हिं०] अलग बिलग होना । उ०—हिंदू तुरक दोउ रह तूरी, फूटी अरु कनराई—कबीर ग्रं०, पृ० १०६ ।
⋙ कनवई †
क्रि० अ० [हिं०] अलग बिलग होना । उ०—हिंदू तुरक दोउ रह तूरी, फूटी अरु कनराई—कबीर ग्रं०, पृ० १०६ ।
⋙ कनवई †
संज्ञा स्त्री० [सं० कण] सेर का सोलहवाँ भाग । छटाँक ।
⋙ कनवज पु, †कनवज्ज
संज्ञा पुं० [सं०कान्यकुब्ज] दे० 'कत्रौज' । उ०—(क) या सम दो सावँत बली, कनवज गये रिसाय ।— प०, रा०, पृ० ७६ । (ख) रिधू गोद कनवज्ज रहायौ । अय चमू संग दरसण आयौ ।—रा०, रू०, पृ० १२ ।
⋙ कनवाँ †
वि० [हिं० काना] १. काना । २. एक आँख से देखनेवाला । यौ०—कनवाँ घूँघट †—घुँघट का वह बनाव जिसमें स्त्रियाँ पूरा मुँह छिपाए हुए हाथ की उँगलियों के प्रयोग द्धारा केवल एक आँख से देखने का काम लेती है ।
⋙ कनवाँसा
संज्ञा पुं० [सं० कन्या+ वंश; फा० नवासा] [स्त्री० कनवाँसी] दौहित्र का पुत्र । नाती वा नवासे का पुत्र ।
⋙ कनवा †
संज्ञा पुं० [हिं० कनवई] दे० 'कनवई' ।
⋙ कनवारा
संज्ञा पुं० [देश०] पालना । उ०—पीछे तख्त पर लिया जच्चा कूँ बिठाय बच्चे कूँ कनवारे में ल्याकर सुलाया ।— दक्खिनी०, पृ० ३४४ ।
⋙ कनवास
संज्ञा पुं० [अं० कैनवस] एक मोटा कपड़ा जिससे नावों के पाल और जूते आदि बनते हैं । यह सन या पटसन में बनता है ।
⋙ कनवासर
संज्ञा पुं० [अं० कैनवैसर] प्रचारक । वह जो लोगों को पक्ष में करने के समझाने बुझाने का काम करे । वह जो 'वोट' 'अर्डर' आदि माँगने या संग्रह करने का काम करे । कैनवैसिंग करनेवाला ।
⋙ कनवासिंग
संज्ञा स्त्री० [अं० कैनवैसिंग] १. वोटरों या मतदा- ताओं से वोट माँगना । वोट पाने के लिये उद्योग करना । लोगों को पक्ष में करने के लिये समझाना बुझाना । लोकमत को पक्ष में करने का उद्योग करना । जैसे,—(क) उनके आदमी जिले भर में उनके लिये बड़े जोरों से कनवासिंग कर रहे है; उन्ही को अधिक 'वोट' मिलने की पूरी संभावना है । (ख) उन्हीं सभापति पद पर बैठाने के लिये खुब कनवासिंग हो रही है । २. किसी कंपनी या फर्म के लिये माल आदि का 'आर्डर' प्राप्त करने का उद्योग करना । जैसे,—मिस्टर शर्मा गंगा आयर्न फैक्टरी के लिये बाहर कनवासिंग कर रहे है; पिछले महीने बीस हजार रुपए के आर्डर भेजे हैं ।
⋙ कनवी
संज्ञा स्त्री० [सं० कण, हिं० कन] एक प्रकार की कपास जिसके बिनौले बहुत छोटे होते हैं । यह गुजरात में होती है ।
⋙ कनवेनसन
संज्ञा पुं० [अं० कनवेंशन] संमेलन । प्रसभा ।
⋙ कनवैसर
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'कनवासर' ।
⋙ कनवैसिंग
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'कनवासिंग' ।
⋙ कनवोकेशन
संज्ञा स्त्री० [अं० कन्वोकेशन] युनीवर्सिटी का वह सालाना जलसा जिसमें बी० ए० आदि की उपाधि परीक्षा में उर्त्तीर्ण ग्रैजुएटों को डिपलोमा आदि दिए जाते हैं । विश्वविद्यालय के पदवीदान का महोत्सव । दीक्षांत—समारोह ।
⋙ कनव्रत पु
संज्ञा पुं० [सं० कण+ व्रत] उंछभोजी । कण बटोरने का व्रती । उ०—मुष करत सोभित जोस, जनु चुनत कनव्रत ओस ।—पृ० रा०, १४ ।१४७ ।
⋙ कनसट
संज्ञा पुं० [अं० कन्सर्ट] वृंदवाद्य । सामुदायिक । वादन । उ०—कनसर्ट का कमाल आप लोगों ने देखा होगा ।—रस० क०, पृ० ६ ।
⋙ कनसलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+ हिं० सलाई] १. कनखजूरे की तरह एक छोटा कीड़ा । छोटा कनखजुरा । २. कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब विपक्षी के दोनों हाथ खिलाडी की कमर पर होत है और वह पेट के नीचे घुसा होता है, तब खिलाड़ी अपना एक हाथ उसकी बगल में ले जाकर उसकी गर्दन पर चढ़ाता है और अपने धड़ को मरोड़ता हुआ उसे टाँग मारकर चित्त कर देता है ।
⋙ कनसार
संज्ञा पुं० [हिं० काँसा+ आर (प्रत्य०)] ताम्रपत्र पर लेख खोदनेवाला ।
⋙ कनसाल
संज्ञा पुं० [हिं० कोन+ सालना] चारपाई के पायो के वे छेद जो छेदते समय कुछ तिरछे हो जाँय और जिनके तिरछेपन के कारण चारपाई में कनेव आ जाय ।
⋙ कनसीरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] हावर नामक पेड़ । वि० 'हावर' ।
⋙ कनसुआ
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण+ श्रव, या हिं०] दे० 'कनसुई' । उ०—भाजि इकौसी ह्वौ रहौं कनसुवौ लगाऊँ ।—घनानंद, पृ० ३१४ ।
⋙ कनसुई
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्ण+श्रव या हिं० कान+ सुनना] आहट । टोह । मुहा०—कनसुई या कनसुइयाँ लेना=(१) छिपकर किसी की बात सुनना । अकनना । (२) भेद लेना । टोह लेना । आहट लेना । (३) सगुन विचारना ।—लेत फिरत कनसुई लसगुन सुभ बूझत गनक बुलाइ के । सुनि अनुकुल मुदित मन मानहुँ धरत धीरजहीं धाइ के—तुलसी (शब्द०) । विशेष—स्त्रियाँ चलनी में गोबर की गौर रखकर पृथिवी पर फेंकती हैं । यदि वह गौर सीधी गिरती है तो सगुन मनाता है और यदि उलटी या बेंड़ी गिरती है तो असगुन ।
⋙ कनस्टर
संज्ञा पुं० [अं० कनिस्टर] दे० 'कनस्तर' । उ०—टीन के कनस्टरों पर चढ़े ।—प्रेमघन० पृ० ७१ ।
⋙ कनस्तर
संज्ञा पुं० [अं० कनिस्टर] टीन का चौखूँटा पीपा जिसमें घी तेल आदि रखा जाता है ।
⋙ कनहरि पु
संज्ञा पुं० [सं० कण्णधार, प्रा० कण्णधार] दे० 'कर्णाधार' । उ०—(क) नौवें नाम निरजंन नौका कनहरि गुनहिं चलावे ।— गुलाल०, पृ० १२८ । (ख) गुरु सतगुरु करु कनहरी ।—दरिया० पृ० ६३ । (ग) जेहि चाहो भव तें काढ़न ह्वै कनहरिया गुरु खेवक ।—भीखा श०, पृ० ८६ ।
⋙ कनहा
संज्ञा पुं० [हिं० कन=अनाज+ हा (प्रत्य०)] फसल कूतनेवाला कर्मचारी ।
⋙ कनहार पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्णधार, प्रा० कण्णधार] पतवार पकड़नेवाला मल्लाह केवट । उ०—राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पार, नहिं कोउ कनहारु ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या । सबसे छोटी लड़की [को०] ।
⋙ कना (२)
संज्ञा पुं० [सं० कण] दे० 'कन' ।
⋙ कना (३)
संज्ञा पुं० [सं० काण्ड] सरकंडा । सरपत ।
⋙ कना (४)
क्रि० वि० [सं० कोण] समीप । जैसे,—मेरे कने आओ । उ०—चाहि बिना चिंतामणि क्या दें । ल्यूँ सेवक स्वामी कना क्या ले ।—रज्जव० पृ० १२ ।
⋙ कना (५) †
संज्ञा पुं० [हिं० कीना, कीयाँ= कीड़ा] ईख में होनेवाला एक रोग जिससे ईख पर पतलोई के अंदर कीड़े लग जाते हैं और उसकी बाढ़ मारी जाती है ।
⋙ कनाअत
संज्ञा पुं० [अ० क़नाअ़त] संतोष । उ०—नमक रोटी पर कनाअत कर बंदों की खिदमत कबूल कीजिये ।—प्रेमघन०, पृ० १३४ ।
⋙ कनाई
संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड] १. वृक्ष या पौधे की पतली डाल या शाखा । २. कल्ला । टहनी । क्रि० प्र०— निकलना ।—फूटना । मुहा०—कनाई काटना=(१) रास्ता काटकर दुसरे रास्ते निकल जाना । सामना बचाकर दूसरा रास्ता पकड़ना । (२) किसी काम के लिये कहकर मौके पर निकल जाना । चालबाजी करना । ३. पगहे के गेराँव के वे दोनों भाग जिन्हें मिलाकर जानवर बाँधे जाते हैं । ४. आल्हा की कीसी एक घटना का वर्णन ।
⋙ कनाउड़ा पु
वि० [हिं० कनौड़ा] दे० 'कनौड़ा' । उ०—प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचान । जाचक जगत कनाउड़ो कियो कनौड़ो दानि ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनाखी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखी] दे० 'कनखी' । संज्ञा । उ०—(क) पुनि तिनमै न ख रेखै देखै । साँसन भरै कनाखिन देखै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५१ । (ख) सखि तन कुँवरि कनाखि चहै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १३७ ।
⋙ कनागत
संज्ञा पुं० [सं० कन्यागत] १. क्वार के महीने का अँधेरा पाख । पितृपक्ष । उ०—आय कनागत फूले काँस । बाह्मन कूदें सौ सौ बाँस । (शब्द०) । विशेष—प्राय? यह पक्ष उस समय पड़ता है जब सुर्य कन्या राशि में जाते हैं । इसी से 'कन्यागत' नाम पड़ा । इस समय श्राद्धादि पितृकर्म करना अच्छा समझा जाता है । २. श्राद्ध । क्रि० प्र०—करना ।
⋙ कनात
संज्ञा स्त्री० [तुं० कनात] मोटे कपड़े की वह दीवार जिससे किसी स्थान को घेरकर आड़ करते हैं । उ०—(क) तुंग मेरु मंदर सम सुंदर भूपति शिविर सोहाये । विमल विख्यात सोहात कनातन बड़ वितान छबि छाये ।—रघुराज (शब्द०) । विशेष—इसे खड़ा करने के लिये इसमें तीन तीन, चार चार हाथ पर बाँस की फट्टियाँ सिली रहती है जिनके सिरों पर से रस्सियाँ खींचकर यह खड़ी की जाती है । क्रि० प्र०—खड़ी करना ।—खींचना ।—घेरना ।—लगना ।— लगाना ।
⋙ कनाना †
क्रि० अ० [हिं० किनाना या कियाँना] ऊख की फसल में कना नामक रोग लगना ।
⋙ कनार
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ों का जुकाम (सर्दी) ।
⋙ कनारा †
संज्ञा पुं० [हिं० कन्नड़ की अं० वर्तनी] मदरास प्रांत का एक भाग ।
⋙ कनारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० किनारा का स्त्री०] दे० 'किनारी' ।
⋙ कनारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनारा+ ई (प्रत्य०)] मदरास प्रांत के कनारा नामक प्रदेश की भाषा । कन्नड़ । २. कनारा का निवासी । कन्नड़ी ।
⋙ कनारी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश] काँटा । विशेष—यह पालकीवाले कहारों की बोली का शब्द है ।
⋙ कनाल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पंजाब में जमीन की एक नाप जो घुमावँ के आठवें भाग वा बीधे के चौथाई के बराबर होती है ।
⋙ कनाल (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] नहर ।
⋙ कनावड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० कनौड़ा] दे० 'कनौड़ा' । उ०—बानर विभीषण की ओर को कनावड़ो है सो प्रसंग सुने अंग जरै अनुचर को ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनासी (१)
संज्ञा स्त्री० [देशी०] लद्दाख और कनौर के बीच की कलौरी वर्ग की एक बोली ।
⋙ कनासी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कण+ आशी] १. रेती जिससे इक्केवाले नारियल के हुक्के का मुँह चौड़ा करते है । २. बढ़ई की रेती जिससे आरे की दाँती निकाली या तेज की जाती है ।
⋙ कनिआरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णिकार, प्रा० कष्णिआर] कनकचंपा का पेड़ । उ०—अति व्याकुल भई गोपिका ढूँढति गिरधारी । बूझति हैं बन बेलि सो देखे बनवारी । जाही जूही सेवती करना कनिआरी । बेलि चमेली मालती बूझति द्रुम डारी ।— सूर (शब्द०) ।
⋙ कनिक
संज्ञा स्त्री० [सं० कणिक] १. गेहूँ । २. गेहूँ का आटा । उ०—बहुल कौडि थोड, धविक पेचाँ दीअ घोड़ँ । — कीर्ति०, पृ० ६८ ।
⋙ कनिका पु
संज्ञा पुं० [सं० कणिका] किसी वस्तु का बहुत छोटाटुकड़ा । उ०—मुख आँसू माखन के कनिका निरखि नैन सुख देत । मनु शशि श्रवत सुधा निधि मोती उडुगण अवलि समेत ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कनिगर पु
संज्ञा पुं० [हिं० कानि +फा० गर] अपनी मर्यादा का ध्यान रखनेवाला । अपनी कीर्तिरक्षा का ध्यान रखनेवाला । अपने सुयश को रक्षित रखनेवाला । नाम की लाज रखनेवाला । उ०—तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिए न दास दुखी तो से कनिगर के ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २५६ ।
⋙ कनियाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँध या कना] गोद । कोरा । उछंग । उ०—(क) सादर सुमुखि बिलोकि राम सिसु रूप अनूप भूप लिये कनियाँ ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कनियाँ' । उ०— कनिया लगाई धूरि ऐसे सुवनान की ।—शकुंतला, पृ० १४० ।
⋙ कनियाना (१)
क्रि० अ० [हिं० कोना०, पृ० हिं० कोनियाना] आँख बचाकर निकल जाना । कतराकर चला जाना । कतराना ।
⋙ कनियाना (२)
क्रि० अ० [हि० कन्नी, कन्ना] पतंग का किसी ओर झुक जाना । कन्नी खाना ।
⋙ कनियाना (३) †
क्रि० अ० [हिं० कनिया से नाम] गोद लेना । गोद में उठाना ।
⋙ कनियार
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिकार] कनकचंपा ।
⋙ कनिष्ठ (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कनिष्ठा] १. बहुत छोटा । अत्यंत लघु । सबसे छोटा । जैसे,—कनिष्ठ भाई । २. पीछे का । जो पीछे उत्पन्न हुआ हो । ३. उमर में छोटा । ४. हीन । निकृष्ट ।
⋙ कनिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कनिष्ठ । सबसे छोटा [को०] ।
⋙ कनिष्ठक (१)
वि० [सं०] कनिष्ठ । सबसे छोटा [को०] ।
⋙ कनिष्ठक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक तृण । तिनका [को०] ।
⋙ कनिष्ठा (१)
वि० [सं०] १. बहुत छोटी । सबसे छोटी । जैसे, कनिष्ठा भगिनी । २. हीन । निकृष्ट । नीच ।
⋙ कनिष्ठा (२)
संज्ञा स्त्री० १. दो या कई स्त्रियों में सबसे छोटी या पीछे की विवाहित स्त्री । २. नायिकाभेद के अनुसार दो या अधिक स्त्रियों में वह स्त्री जिसपर पति का प्रेम कम हो । ३. छोटी उँगली । छिगुनी । कनगुरी । ४. कनिष्ठ या छोटे भाई की स्त्री (को०) ।
⋙ कनिष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँचों उँगलियों में से सबसे छोटी उँगली । कानी उँगली । छिगुनी ।
⋙ कनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कणिका] १. छोटा टुकड़ा । किरिच । २. हीरे का बहुत छोटा टुकड़ा । जैसे,—यह कनी उसने पचास रुपए की खरीदी है । मुहा०—कनी खाना या चाटना= हीरे की कनी निगमकर प्राण देना । हीरे की किरिच खाकर आत्मघात करना । जैसे,— अभी के बस कनी खाना । २. चावल के छोटे छोटे टुकड़े । किनकी । जैसे,—इस चावल में बहुत कनी है । ४. चावल का मध्य भाग जो कभी कभी नहीं ही गलता या पकाने पर गलने से रह जाता है । जैसे—चावल की कनी, बर्छी की अनी । ५. बूँद । छोटी बूँद । उ०—संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुलबल कोसलधनी । श्रमबिंदु मुख राजीवलोचन अरुण तन सोणित कनी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या । बालिका [को०] ।
⋙ कनीचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शकट । २. गुंजा [को०] ।
⋙ कनीज
संज्ञा स्त्री० [फा० कनीज, मि० सं० कनी, कन्या कन्यका] दासी । सेविका । लौंडी । बाँदी । उ०—दाढ़ी के बालों में से उसने देखा तो होगा कैसी है मेरी कनीज, वह मेरी अबाबील ।—बंदन०, पृ० ५१ ।
⋙ कनीन
वि० [सं०] युवक । तरुण [को०] ।
⋙ कनीनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लड़का । युवक । २. आँखों का तारा या पुतली [को०] ।
⋙ कनीनका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुमारी । कन्या । २. आँखों की पुतली [को०] ।
⋙ कनीनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आँख की पुतली या तारा । उ०— औरे ओपकनीनिकनु गनी घनी सिरताज । मनीं धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज ।—बिहारी र० दो० ४ । २. कन्या । ३ कानी उँगली (को०) ।
⋙ कनीनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कनीनिका' [को०] ।
⋙ कनीयस (१)
वि० [सं० कनीयस्] [वि० स्त्री० कनीयसी] लघुतर । अरुपतर [को०] ।
⋙ कनीयस (२)
संज्ञा पुं० १. ताँबा । २. छोटा भाई । ३. कामातुर प्रेमी [को०] ।
⋙ कनीर
संज्ञा पुं० [हिं० कनेर] कनेर का वृक्ष या फूल । उ०—कबिरा तहाँ न जाइए जहाँ कपट का हेत । जालूँ कली कनीर की तन रातौ मन सेत ।—कबीर ग्रं०, पृ० ६६ ।
⋙ कनु पु
संज्ञा पुं० [सं० कण, पु कन] दे० 'कण' ।
⋙ कनूका पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कनिका] कण । दाना उ०—यों कवि 'ब्रह्ना' बनी उपमा जल के कनुका चुवै बार के छेरनि । मानहु चंदहि चूसन नाग अमी निकस्यो बहि पूँछ की ओंरनि ।—अकबरी, पृ० ३४९ ।
⋙ कनुआ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कान' । उ०—क्या होया कनूआ फूटा । क्या हो या जु ग्रहीते छूटा ।—प्राण०, पृ० २७४ ।
⋙ कनूका पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कनुका' ।
⋙ कने †
क्रि० वि० [सं० कोण] १. पास । ढिग । निपट । समीप । उ०—(क) मीत तुम्हारा तुम्ह कने तुमही लेहु पिछानि । दादू दूर न देखिये प्रतीबिंब ज्यों जानि ।—दादू० (शब्द०) । (ख) जब आके बुढ़ापे ने किया हाय य कुछ कह्यन । अब जिसके कने जाते है लगते है उसे जह्यन ।—नजीर (शब्द०) । (ग) बेद बिपिन बूटी बचन हरिजन किमियाकार । खरी जरा तिनके कने खोटी गहत गँवार ।—विश्राम (शब्द०) । २. ओर । तरफ । जैसे,—आज किस कने जाओगे? विशेष—यद्यपि यह क्रि० वि० है, यद्यपि 'यहाँ वहाँ' आदि के समान यह संबंधकारक के साथ भी आता है ।—जैसे,—उनके कने ।
⋙ कनेखी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखी] दे० 'कनखी' ।
⋙ कनेठा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० कान+ एठा (प्रत्य०)] कातर में लगी हुई वह लकड़ी जो कोल्हू से रगड़कर खाती हुई उसके चारों ओर घुमती है । कान ।
⋙ कनेठा (१)
वि० [हिं० काना+ एठा (प्रत्य०)] १. काना । २. भेंगा । ऐंचा ताना । विशेष—यह शब्द काना शब्द के साथ प्राय? आता है । जैसे,— काना कनेठा ।
⋙ कनेठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+ऐंठना] कान मरोड़ने की सजा । गोशमाली । कान उमेठना । क्रि० प्र०—खाना ।—देना ।—लगना ।—लगाना ।
⋙ कनेती
संज्ञा स्त्री० [देश०] दलालों को बोली में 'रुपया' ।
⋙ कनेर
संज्ञा पुं० [सं० कणेर] एक पेड़ । विशेष—इसकी पत्तियाँ एक बित्ता लंबी और आध अंगुल से एक अंगुल तक चौड़ी और नुकीली होती हैं । ये कड़ी, चिकनी और हरगे हरे रंग की होती है तथा दो दो पत्तियाँ एक साथ आमने सामने निकलती हैं । डाल में से सफेद दूध निकलता है । फूलों के विचार से यह दो प्रकार का है, सफेद फुल का कनेर और लाल फूल का कनेर । दोनों प्रकार के कनेर सदा फूलते रहते हैं और बड़े विषैले होते हैं । सफेद फूल का कनेर अधिक विषैल माना जाता है । फुलों के झड़ जाने पर आठ दस अंगुल लंबी पतली पतली फलियाँ लगती हैं । फलियों के पकने पर उनके भीतर से बहुत छोटे छोटे मदार की तरह रूई में लगे निकलते हैं । कनेर घोड़े कि लिये बडा़ भयंकर विष है; इसी लिये संस्कृत दोषों में इसके अश्वघ्न, हयमार, तुरंगारि आदि नाम मिलते हैं । एक और पेड़ होता है जिसकी पत्तियाँ और फल कनेर ही के ऐसे होते हैं । उसे भी कनेर कहते है, पर उसकी पत्तियाँ पतली छोटी और अधिक चमकीली होती हैं । फूल भी बड़ा और पीले रंग का होता है तथा हलकी लालिमा से युक्त पीले रंग का भी होता है । फुलों के गिर दाने पर उसमें गोल गोल फल लगते है जिनके भीतर गोल गोल चिपटे बीज निकलती हैं । वेद्यक में दो प्रकार के और कनेर लिखे हैं—एक गुलाबी फूल का, दूसरा काले रंग का । गुलाबी फूलवाले कनेर का लाल कनेर ही के अंतर्गत समझना चाहिए; पर काले रंग का कनेर सिवाय निघंटु रत्नाकर ग्रंथ के और कहीं देखने या सुनने में नहीं आया है । वेद्यक में कनेर गरम, कृमिनाशक तथा घाव, कोढ़ और फोड़े फुंसी आदि को दुर करनेवाला माना गया है । पर्या०—करवीर । शतकुंभ । अश्वामारक । शतकुंद । स्थल— कुमुद्र । शकुद्र । चंडात । लगुद । भूतद्रावी ।
⋙ कनेरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हस्तिनी । हथिनी । कणेरा । २. वेश्या [को०] ।
⋙ कनेरिया
वि० [हिं० कनेर] कनेर के फूल के रंग का । कुछ श्यामता लिए लाल रंग का ।
⋙ कनेरी
संज्ञा स्त्री० [अं० कैनरी (टापू)] प्राय? तोते के आकार की एक प्रकार की बहुत सुंदर चिड़िया जिसका स्वर कोमल और मधुर होता है और जो इसीलिए पाली जाती है । इसकी कई जातियाँ और रंग हैं, पर प्राय? पीले रंग की कनेरी बहुत सुंदर होती है । उ०—उनमें केवल पिक की पंचम पुकार ही नहीं, कनेरी की सी एक ही मीठी तान नहीं, अपितु उनकी गीतिका में सब स्वरों का समारोह है ।—गीतिका (सम्मति)
⋙ कनेव
संज्ञा पुं० [हिं० कोन+ एब] चारपाई का चेढ़ापन । विशेष—यह टेढ़ापन दो कारणों से होता है । एक तो पायों के छेद टेढ़े होने से चारपाई सालने में कन्नी हो जाती है । दूसरे बुनते समय ताने के छोटे रखने से चार पाई में कनेव पड़ जाता है । क्रि० प्र०—निकलना ।—पड़ना । मुहा०—कनेव छेदना=पाए के छेदों को टेढ़ा छेदना जिससे चारपाई कन्नी हो जाय । जैसे—बढ़ई ने पायों को कनेव छेदा है ।
⋙ कनै पु
संज्ञा पुं० [सं० कनक, प्रा० कणय] दे० 'कनक' । उ०—वै जो मेघ गढ़ लाग अकासाँ । बिजरी कनै कोटि चहुँ पासा ।— जायसी ग्रं०, पृ० २२९ ।
⋙ कनैल
संज्ञा पुं० [सं० कर्णिकार] दे० 'कनेर' ।
⋙ कनोई
संज्ञा स्त्री० [देश.] कान का मैल । खूँट ।
⋙ कनोखा (१)
वि० [हिं० कनखा] दे० 'कनखा' २ ।
⋙ कनोखा (२)
वि० [हिं० काना> कन+आँख>आखा] १. वक्र दृष्टिवाला । २. कटाक्षयुक्त ।
⋙ कनोतर
वि० [हिं० कोन=नौ+सं० उत्तर] दलालों की बोली में 'उन्नीस' ।
⋙ कनौज पु
संज्ञा पुं० [सं० कान्यकुब्ज, प्रा० पु कनउज्ज] दे० 'कन्नौज' ।
⋙ कनौजिया (१) पु
वि० [हिं० कन्नौज+ इया (प्रत्य०)] १. कन्नौज निवासी । २. जिसके पूर्वज कन्नौज के रहनेवाले रहे हों या कन्नौज से आए हों । जैसे, कनौजिया कनौजिया ब्राह्मण, कनौजिया नाऊ, कनौजिया भड़भूँजा ।
⋙ कनौजिया (२)
संज्ञा पुं० कनौजिया ब्राह्मण ।
⋙ कनौठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कोन+ औठा (प्रत्य०)] १. कोना । २. बगल । किनारा ।
⋙ कनौठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कनिष्ठ] १. भाई बंधु । २. पट्टीदार ।
⋙ कनौड़, कनौड़ा
वि० [हिं० काना+ औड़ा (प्रत्य०)] १. काना । २. जिसका कोई अंग खंडित हो । अपंग । खोड़ा । जैसे,— हाथ पाँव से कनौड़ा कर दिया । ३. कलंकित । निंदित । बदनाम । उ०—जेहि सुख हित हम भई कनौडी़ । सो सुख अब लूटत है लौंड़ी ।—विश्राम (शब्द०) ४. क्षुद्र । तुच्छ । दीन हीन । नीच हेठा । उ०—प्रीति पपीहा पयद कौ प्रगट नई पहिचानि । जाचक जगत कनावड़ो कियो कनौड़ी दानि ।—तुलसी (शब्द०) । ५. लज्जित । संकुचित । शर्मिंदा । उ०—तुरत सुरत कैसे दुरत ? मुरत नैन जुरि नीठ । डौड़ी दै गुन रावरै, कहत कनौड़ी डीठ ।—बिहारी (शब्द०) ।६. दबैल । एहसानमंद । उपकृत । उ०—कपि सेवा बस भए कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ । देबै को न कछू रिनियाँ हौ, धनिक तु पत्र लिखाउ ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५०९ ।
⋙ कनौती (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+औंती (प्रत्य०)] दे० 'कनौती' । उ०—अजौं करति उरझनि मनौ, लगी कनौती कान ।— घनानंद पृ० २७० ।
⋙ कनौती (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+ औती (प्रत्य०)] १. पशुओं के कानया उनके कानों की नोंक । उ०—(क) उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, वहाँ जो मेरे सामने एक हिरनी कनौतियाँ उठाए हुए हो गई थी, उसके पीछे मैनें घोड़ा बगछुट फेंका था ।—इंशाअल्ला खाँ (शब्द०) । (ख) चलत कनौती लई दबाई ।—शकुंतला, पृ० ८० । क्रि० प्र०—उठाना । मुहा०—कनौतियाँ उठाना या खड़ा करना=कान खड़ा करना । चौकन्ना होना । उ०—कनौती खड़ी कर हमारी नाई तकै—भस्मावृत०, पृ० २६ । २. कानों के उठाने या उठाए रखने का ढंग । जैसे,—इस घोड़े की कनौती बहुत अच्छी है । मुहा०—कनौतियाँ बदलना=(१) कानों को खड़ा करना । (२) चौकन्ना होना । चौंककर सावधान होना । ३. कान में पहनने की बाली । मुरकी ।
⋙ कन्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । २. मूर्छा । बेहोशी [को०] ।
⋙ कन्न (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म, प्रा० कण्ण] दे० 'कान' । उ०—कन्न पड़ाय न मुंड मुड़ाया ।—प्राण०, पृ० १११ ।
⋙ कन्नड़
संज्ञा पुं० [प्रा० कण्णड़] १. दश्रिण भारत का एक प्रदेश । २. एक भाषा का नाम जो कन्नड़ प्रदेश में बोली जाती है । ३. कन्नड़वासी व्यक्ति ।
⋙ कन्नडश्याम
संज्ञा पुं० [हि० कन्नड़+ श्याम] दे० 'कनरशयाम' ।
⋙ कन्ना (१)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० कण्ड] [स्त्री० कन्नी] १. पतंग का वह डोरा जिसका एक छोर काँप और ठंड्ढ़े के मेल पर और दूसरा पुछल्ले के कुछ ऊपर बाँधा जाता है । इस तागे के ठीक बीच में उड़ानेवाली डोर बाँधी जाती है । क्रि० प्र०—बाँधना ।—लगाना ।—साधना । मुहा०—कन्ने ठीले होना या पड़ना=(१) थक जाना । शिथिल होना । ढीला पड़ना । (२) जोर का टूटना । शक्ति और गर्व में रहना । मानमर्दन होना । कन्ने से कटना=(१) पतंग का कन्ने के स्थान से कट जाना । (२) मूल से ही विच्छिन्न हो जाना । २. पतंग का छेद जिसमें कन्ना बाँधा जाता है । क्रि० प्र०—छेदना । ३. किनारा । कोंर । औंठ ।४. जूते के पंजे का किनारा । जैसे,—मेरे जूते का कन्ना निकल गया । ५. कोल्हू की कातर के एक छोर के दोनों ओर लगी हुई लकड़ियाँ जो कोल्हू से भिड़ी रहती है और उससे रगड़ खाती हुई घूमती हैं । इन लकड़ियों में एक छोटी और दूसरी बड़ी होती है ।
⋙ कन्ना (२)
संज्ञा पुं० [सं० कण] १. चावल का कन । २. चावल की धल जो चावल के घिसने या छोटे छोटे कणों के चूर्ण हो जाने पर चावल में मिली रह जाती है ।
⋙ कन्ना (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्णक=वनस्पति का एक रोग, प्रा० कणाअ] वनस्पति का एक रोग जिससे उसकी लकड़ी तथा फल आदि में कीड़े पड़ जाते हैं, लकड़ी या फल खोखले होकर तथा सड़कर बेकाम हो जाते हैं ।
⋙ कन्ना (४)
वि० [स्त्री० कत्री] (लकड़ी या फल) जिसमें कन्ना लगा हो । काना । जैसे,—कन्ना भंटा, कन्नी ईख ।
⋙ कन्नासी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कनासी' ।
⋙ कन्नी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कन्ना] १. पतंग या कनकौए के दोनों ओर के किनारे । मुहा०—कन्नी खाना या मारना=पतंग का उड़ते समय किसी ओर झूका रहना । पतंग का एक ओर झुककर उड़ना । विशेष—इस प्रकार उड़ने से पतंग बढ़ नहीं सकती । २. वह धज्जी जो पतंग की कन्नी में इसलिए बाँधी जाती है कि उसका वजन बराबर हो जाय और वह सीसी उड़े । क्रि० प्र०—बाँधना ।—लगाना । ३. किनारा । हाशिया । कोर । मुहा०—किसी की कन्नी दबाना=(१) किसी के अधीन या वशीभूत होना । किसी के ताबे में होना । (२) दबना । सहमना । धीमा पड़ना । (३) झेंपना । लजाना । ४. धोती चद्दर आदि का किनारा । हाशिया । जैसे, लाल कन्नी की धोती । यौ०—कन्नीदार=किनारेदार ।
⋙ कन्नी (२)
संज्ञा पुं० [सं० करण] राजगीरों का एक औजार जिससे वे दीवार पर गारा पन्ना लगाते हैं । करनी ।
⋙ कन्नी (३)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध] १. पेड़ों का नया कल्ला । कोपल । २. तमाकू के वे छोटे छोटे पत्ते या कल्ले जो पत्तों के काट लेने पर फिर से निकलते है । ये अच्छे नहीं होते । ३. हेंगे या पटैल के खींचने के लिये रस्सियों की मुद्धी में लगी हुई खूँटी जिसे हेंगे के सूराख में फँसाते हैं ।
⋙ कन्नी (४) †
वि० [हिं० कन्न+ ई (प्रत्य०)] कान की । उ०—सुरति सिमृति दुइ कन्नी मुंदा ।—कबीर ग्रं,०; पृ० २२८ ।
⋙ कन्नौज
संज्ञा पुं० [सं० कान्यकुब्ज, प्रा० कष्णउज्ज] फर्रुखाबाद जिले का एक नगर या कसबा जो किसी समय विस्तृत साम्राज्य की राजधानी था । आजकल यहाँका इत्र प्रसिद्ध है ।
⋙ कन्नौजी (१)
वि० [हिं० कत्रौज+ ई (प्रत्य०)] कन्नौज संबंधी । कन्नौज की ।
⋙ कन्नौजी (२)
संज्ञा स्त्री० कन्नौज की भाषा का नाम ।
⋙ कन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्वारी लड़की । अनब्याही लड़की । २. पुत्री । बेटी ।
⋙ कन्यस
संज्ञा पुं० [सं०] सबसे छोटा भाई [को०] ।
⋙ कन्यसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सबसे छोटी उँगली । कानी उँगली [को०] ।
⋙ कन्यसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सबसे छोटी बहन ।
⋙ कन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अविवाहित लडकी । क्वारी लड़की । विशेष—पकाशर के अनुसार १० वर्ष की लड़की का नाम कन्या है । यौ०—पंचकन्या=पुराण के अनुसार वे पाँच स्त्रियाँ जो बहुत पवित्र मानी गई है—अहल्या, द्रोपदी, कुंती, तारा, मंदोदरी । नवकन्या=तंत्र के अनुसार नौ जातियों की स्त्रियाँ जोचत्रपूजा के लिये बहुत पवित्र मानी गई है—नटी, कापालकी (कपाड़िया), वेश्या, धोबिन, नाइन, ब्राह्मणी, शूद्रा, ग्वालिन और मालिन । २. पुत्री । बेटी । यौ०—कन्यादान । कन्यारासी । कन्याबेटी । ३. १२ राशियों में से छठी राशि जिसकी स्थिति उतर फाल्गुनी के दूसरे पाद के आरंभ से चित्रा के दूसरे पाद तक है । ४. घीक्वार । ५. बड़ी इलायची । ६. बाँझ ककोली । ७. बाराही कंद । गेठी । ८. एक वर्मवृत्त का नाम जिसमें चार गुरु होते हैं । ९. एक तीर्थ पवित्र क्षोत्र का नाम । दे० 'कन्याकुमारी' ।
⋙ कन्याकुमारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्या+ कुमारी] भारत के दक्षिण में रामेश्वर के निकट का अंतरीप । रासकुमारी । केपकुमारी ।
⋙ कन्यागत
संज्ञा पुं० [सं०] 'कनागत' ।
⋙ कन्याग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह द्वारा विधिपूर्वक कन्या का ग्रहण [को०] ।
⋙ कन्याजात
वि० [सं०] क्वाँरी कन्या से उत्पन्न । कानीन ।
⋙ कन्याट (१)
वि० [सं०] कन्या का पीछा करनेवाला ।
⋙ कन्याट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंत?पुर । २. वह व्यक्ति जो कन्या का पीछा करता हो [को०] ।
⋙ कन्यादान
संज्ञा पुं० [सं०] विवाह में वर को कन्या देने की रीति । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—लेना ।
⋙ कन्याधन
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन जो स्त्री को अविवाहिता या कन्या अवस्था में मिला हो । एक प्रकार का स्त्रीधन । विशेष—अधिकारिणी के अविवाहिता मरने पर इस धन का अधिकारी भाई होता है ।
⋙ कन्यापाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमारी लड़कियों को बेचने का रोजगार करनेवाला पुरुष । २. बंगाल की एक शूद्र जाति जो अब पाल कहलाती हैं ।
⋙ कन्यापुर
संज्ञा पुं० [सं०] अंत?पुर । जनानखाना ।
⋙ कन्याभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० कन्याभर्तृ] १. दामाद । जामाता । २. कार्तिकेय [को०] ।
⋙ कन्यारासी
वि० [सं० कन्याराशि] १. जिसके जन्म के समय चंद्रमा कन्या राशि में हों । २.चौपट । सत्यानाशी । ३. निकम्मा । कमजोर । कायर ।
⋙ कन्यालोक
संज्ञा पुं० [सं०] जैन मत के अनुसार वह मृषावाद या झूठ जो कन्या के विवाह के संबंध में बोला जाय ।
⋙ कन्यावानी
संज्ञा स्त्री० [सं० कन्या+ हिं० पानी] वह पानी जो इस समय बरसता है जब सूर्य कन्या का होता है । यह वर्षा अच्छी समझी जाती है ।
⋙ कन्यावेदी
संज्ञा पुं० [सं० कन्यावेदिन्] दामाद् । जामाता । जमाई ।
⋙ कन्याव्रतस्था
संज्ञा स्त्री० [दे०] रजस्वला स्त्री० [को०] ।
⋙ कन्याशुल्क
संज्ञा पु० [सं०] कन्याधन ।
⋙ कन्याहरण
संज्ञा पुं० [सं०] कन्या को (विवाह के निमित्त) पकड़ ले जाना या उड़ा ले जाना [को०] ।
⋙ कन्यिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या । कुमारी ।
⋙ कन्युष
संज्ञा पुं० [सं०] हाथ की कलाई के नीचे का भाग [को०] ।
⋙ कन्वास
संज्ञा पुं० [अं० कैतवस] सूत, सन, पट्ट,आदि का वस्त्र जो तंबू, पाल या चित्र बनाने के काम में लिया जाता है । उ०—अपने चित्र के लिये बड़े कन्वास की जरूरत मुझे नहीं लगी ।—सुनीता (प्र०), पृ० ८ ।
⋙ कन्सरवेंसी
संज्ञा स्त्री० [अं०] सरकारी निरीक्षण या देखरेख । जैसे,—कंसरवेंसी इंस्पेक्ठर ।
⋙ कन्सरवेटर
संज्ञा पुं० [अं० कंजरवेटर] देखरेख करनेवाला । निरी- क्षक । जैसे,—जंगल विभाग का कंसरवेटर ।
⋙ कन्सरवेटिव (१)
संज्ञा पुं०[अं० कंजरवेटिव] १. वह जो राज्य या शासनप्रणाली में क्रांतिकारी या चरम प्रकार के परिवर्तन का विरेधी हो । वह जो प्रजासत्तात्मक शासनप्रणाली का विरोधी हो । टोरी । २. वह जो प्राचीनता का, पुरानी बातों का, पक्षपाती और नवीनता का, नई बातों का, किसी प्रकार के सुधार या परिवर्तन का विरोधी हो । वह जो परंपरा से चली आई हुई धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं और रीति रिवाज का समर्थक और पक्षपाती हो । वह जो कुसंस्कार या अदूरदर्शिता से सच्ची उन्नति का विरोधी हों ।
⋙ कन्सरवेटिव (२)
वि० जो देश की नागरिकता और धार्मिक संस्थाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन या प्रजासत्ता के प्रवर्तन का विरोधी हो । जो परंपरा से चली आई हुए सामाजिक या धार्मिक संस्थाओं या रीति रिवाज का समर्थक और पक्षपाती हो । परिवर्तनविमुख । समाजविरोधी । सनातनी । पुराणप्रिय । लकीर का फकीर । जैसे,—बालविवाह जैसी नाशकारी प्रथा का समर्थन उन्हीं लोगों ने किया जो क्नसरवेटिव थे ।— लकीर के फकीर थे ।
⋙ कन्ह पु० †
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण] १. श्रीकृष्ण । उ०—ध्यान सुप्रति प्रति कन्ह देव देवाधिदेव वर ।—पृ० रा०, २ । ३४० । २. पृथ्वीराज का एक सामंत ।
⋙ कन्हड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णाटी] दे० 'कर्णाटी' ।
⋙ कन्हाई
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] श्रीकृष्ण जी ।
⋙ कन्हावर पु
संज्ञा पुं० [स्कन्ध+आवर (आवरण=दुपट्टा) हिं० कैधावर] दे० कंधावर । 'कंधावर' ।
⋙ कन्है †
अव्य० [हिं० कने] दे० 'कने' ।
⋙ कन्हैया (१)
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह] १. श्रीकृष्ण । २. अत्यंत प्यारा आदमी । प्रिय व्यक्ति । उ०—आछे रहो राजराज राजन के महाराज, कच्छ कुल कलश हमारे तो कन्हैया हो ।—पद्माकर (शब्द०) । ३. बहुत सुंदर लड़का । बाँका आदमी । ४. एक पहाड़ी पेड़ जो पूर्वी हिमाल पर आठ हजार फुट की ऊँचाई पर होता है । विशेष—इसकी लकड़ी मजबूत होती है और उसमें हरी या लाल धारियाँ पड़ी रहती है । आसाम में इसकी लकड़ी कीकिश्तियाँ बनाई जाती हैं । इसके चाय के संदूकचे भी बनते हैं । कोई कोई इसे इमारत के काम में भी लाते हैं ।
⋙ कन्हैया (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध, पु कंध] दे० 'कंधा' । उ०— तहँ हम कन्हैया कूदिकै गज की कन्हैया पर परयौ ।—हिम्मत०, पृ० ३५ ।
⋙ कन्हैर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कनेर' । उ०—चंपक चमेली और केतकी कन्हैर बुही, तामें बाँन साजिकै उमंग सरसायो है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४१३ ।
⋙ कप (१)
संज्ञा पुं० [अं०] प्याला ।
⋙ कप (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. दैत्यों की एक जाति [को०] ।
⋙ कप (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० कपि] दे० 'कपि' । उ०—हेर कप भाप अणलार हरषे ।—रघु रू०, पृ० २१ ।
⋙ कपट
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कपटी] १. अभिप्राय साधन के लिये हृदय की बात को छिपाने की वृत्ति । छल । दंभ । धोखा । उ०—(क) जो जिय होत न कपट कुचाली । केहि सुहात रथ, बाजि, गजाली ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सती कपट जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ।—मानस, १ ।५३ । क्रि० प्र०—करना ।—रखना । यौ०—कपटचक=चिड़िय़ा फँसाने के लिये बिखेरा दाना । फँसान की युक्ति । कपटतापस=बनावटी या बना हुआ साधु । कपटनाटक=ठगना । धोखेबाजी । कपट व्य़वहार करना । कपटप्रबंध=धोखा देने की योजना । कपटवेश=बनावटी भेस । कपटलेख्य=द्विचर्थक या जाली दस्तावेज । २. दुराव । छिपाव । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।
⋙ कपटना
क्रि० स० [सं० कल्पन, कलुप्त अथवा हिं० कपट से नामिक धातु] १. काटकर अलग करना । काटना । छाँटना । खोटना । उ०—(क) कपट कपट डारियो निपट कै औरन सों मेटी पहचान मन मौ हूँ पहिचान्यो है । जीत्यो रति रम, मथ्यो मनमथ हूँ को मन केशाराइ कौन हूँ पै रोष उर आन्यो है ।— केशव (शब्द०) । (ख) पापी मुख पीरो करै, दासन की पीर हरै, दुख हेत कोटि भानु सी दपड है । कपट कपट डार रे मन गँवार झट, देखु नव नट कृष्ण प्यारे को सुपद है ।—गोपाल (शब्द०) । २. काटकर अलग निकालना । धीरे से निकाल लेना । किसी वस्तु काकुछ भाग निकालकर उसे कम करना । जैसे,—जो रुपए मुझे मिले थे, तुमने तो उनमें से ५) कपट लिए ।
⋙ कपटा
संज्ञा पुं० [हिं० कपटता] [स्त्री,० कपटी] एक प्रकार का कीड़ा जो धान के पौधे में लगता है और उसे काट डालता है ।
⋙ कपटिक
वि० [सं०] कपटी । धोखेबाज । बदमाश । दुष्ट [को०] ।
⋙ कपटी (१)
वि० [सं० कपटिन्] कपट करनेवाला । छली । धोखेबाज । धूर्त । दगाबाज । उ०—(क) कपटी कुटिल नाथ मोहि चिन्हा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सेवक शठ नृप कृपिन कुनारी । कपटी मित्र शूल सम चारी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कपटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपटना] १. धान की फसल को नष्ट करनेवाला एक कीड़ा । दे० 'कपटा' । २. तमाखू के पौधों में लगनेवाला एक रोग जिसे 'कोढी' भी कहते हैं ।
⋙ कपड़कोट
संज्ञा पुं० [हिं० कपड़ा+कोट] डेरा । खीमा । तंबू ।
⋙ कपड़खसोट
संज्ञा पुं० [हिं० कपड़+खसोट] दूसरों का वस्त्र तक छीन लेनेवाला व्यक्ति । बहुत धूर्त या लोभी व्यक्ति ।
⋙ कपड़गंध
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपड़ा+गंध] कपडे़ की जलने की दुर्गंध ।
⋙ कपड़छन, कपड़छान (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कपड़ा+छानना] किसी पिसी हुई बुकनी को कपडे़ में छानने का कार्य । मैदे की तरह महीन करना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कपडछन, कपडछान (२)
वि० कपडे़सेछाना हुआ । मैदे की तरह महीन । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कपड़द्वार
संज्ञा पुं० [हिं० कपड़ा+द्वार] कपडों का भंडार । वस्त्रागार । तोशखाना ।
⋙ कपड़धूलि
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपड़ा+धूलि] एक प्रकार का बारीक रेशमी कपड़ा । करेब ।
⋙ कपड़मिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपड़ा+मिट्टी] धातु या औषधि फूँकने के संपुट पर गीली मिट्टी के लेव के साथ कपड़ा या रूई पीसकर या सानकर लपेटने की क्रीया । कपड़ौटी । गिल हिकमत । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कपड़विदार
संज्ञा पुं० [हिं० कपड़ा+विदारण] १. कपड़ा ब्योंतनेवाला दरजी । २. रफूगर ।—(डि०) ।
⋙ कपड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कर्पट, प्रा० कप्पट, कप्पड़] १. रूई, रेशम, ऊन या सन के तागों से बुना हुआ आच्छादान । वस्त्र । पट । यौ०—कपड़ा लता = व्यवहार के सब कपडे़ । मुहा०—कपड़ों से होना = मासिक धर्म से होना । रजस्वला होना । एकवस्त्रा होना । उ०—उसका नाम पवनरेखा सो अति सुंदरी और पतिव्रता थी । आंठो पहर स्वामी की आज्ञा ही में रहे । एक दिन कपड़ों से भई तो पति की आज्ञा लेकर रथ में चढ़कर वन में खेलने को गई ।—लल्लू (शब्द०) । कपड़े आना = मासिक धर्म से होना । जैसे,—आज तो उसे कपडे आए हैं । २. पहनावा । पोशाक । क्रि० प्र०—उतारना ।—पहनना । यौ०—कपड़ा लत्ता = पहनने का सामान । जैसे,—जो आदमी आए थे, सब कपडे़ लत्ते से थे । मुहा०—कपड़ों में न समाना = फूले अंग न समाना । आनंद से फूलना । कपड़े उतार लेना = वस्त्र मोचन करना । खूब लूटना । कपड़े छानना = पल्ला छुड़ाना । पिंड छुडाना । पीछा छुडाना कपड़े रँगना = गेरुआ वस्त्र पहनना । योगी होना । विरक्त होना ।
⋙ कपड़ौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं०कपड़ा+औटी(प्रत्य०)] दे० 'कपड़ मिट्टी' ।
⋙ कपनी (१) †
वि० [सं० कम्पन] कंप पैदा करनेवाली । जैसे,—कपनी बाई ।
⋙ कपनी (२)
संज्ञा स्त्री० कँपकँपी । कंपन । उ०—भूप को सुध नहीं अपनी । गगन चढ़ते लगी कपनी ।—संत तुरसी०, पृ० ६४ ।
⋙ कपरिया
संज्ञा पुं० [सं० कपाली] एक नीच जाति । उ०—ताल पखावज बो मँगाने । गाइन गुनी कपरिया आने ।—हिंदी प्रेमा०, पृ०२१० ।
⋙ कपरौटी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपड़ौटी] दे० 'कपड़ौटी' ।
⋙ कपर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव की जटा । जटाजूट । २. कौ़डी ।
⋙ कपर्दक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कपर्दिका] १. (शिव का) जटा- जूट । २. कौड़ी ।
⋙ कपर्दिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । शिवा । भवानी । उ०—हमारे मामा के एक पडे़ साहूकार की जीविका थी पर उससे उनको जन्म भर में एक कपर्दिका भी नहीं मिली ।—श्रीनिवास ग्रं० पृ० ४४ ।
⋙ कपिर्दिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । शिवा । भवानी । उ०—जै जैयति जै आदि सकति जै कालि कपर्दिनि । जै मधुकैटभ छलनि देवि जै महिष विमर्दिनि । भूषण (शब्द०) ।
⋙ कपर्दी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कपर्द्दिन्] [सं० कपर्द्दिनी] १. जटा— जूटधारी शिव । २. ११ रुद्रों में से एक का नाम ।
⋙ कपर्दी (२)
वि० [सं० कपर्द+ई (प्रत्य०)] जटाजूटधारी । उ०—वह कपर्दी और जटाधारी है ।—प्रा० भा० प०, पृ०१४९ ।
⋙ कपसा
संज्ञा स्त्री० [सं० कपिश] १. एक प्रकार की चिकनी मिट्टी जिससे कुम्हार वर्तन पर रंग चढाते हैं । काबिस । २. गारा । लेई ।
⋙ कपसेठा
संज्ञा पुं० [हिं०कपास+एठा] [स्त्री० अल्पा० कपसेठी] कपास के सूखे हुए पेड़ जो ईंधन के काम में लाए जाते हैं ।
⋙ कपसेठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपसेठा] सं० 'कपसेठा' ।
⋙ कपाट
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० कपाटी] किवाड़ । पाट । उ०—नाम पाहरू राति दिनु ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट —मानस, ५ ।३० । यौ०—कपाटबद्ध । कपाटमंगल ।
⋙ कपाटबद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके अक्षरों को विशेष रूप से लिखने से किवाड़ों का चित्र बन जाता है ।
⋙ कपाटमंगल
संज्ञा पुं० [सं० कपाटमड्गल] द्वार बंद करना । (वल्लभकुल) । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कपाटवक्षा
वि० [सं० कपाटवक्षस्] जिसकी छाती किवाड़ की तरह हो । चौड़ी छातीवाला ।
⋙ कपाटसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० कपाटसन्धि] दरवाजे के पल्ले का जोड़ [को०] ।
⋙ कपाटसंधिक
संज्ञा पुं० [सं० कपाटसन्धिक] सुक्षुत्र के अनुसार कान के १५ प्रकार के रोगों में से एक ।
⋙ कपार पु
संज्ञा पुं० [सं० कपाल] दे० 'कपाल' । उ०—सेस डार टूटि पलल कपार ।—विद्यापति, पृ० ४४० । मुहा०—कपार मारना = दे० 'मूँड मारना' । उ०—पुरुष आज्ञा अस भयउ अपारा । मारहु धर्म के माँझ कपारा ।—कबीर सा०, पृ० ९ ।
⋙ कपाल
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कपाली, कापालिक] १. खोपड़ा । खोपड़ी । यौ०—कपालक्रिया । कपालमाला । कपालमोचन । २. ललाट । मस्तक । ३. अदृश्य । भाग्य । मुहा०—कपाल खुलना = (१) भाग्य उदय होना । (२) सिर खुलना । सिर से लोहू निकलना । ४. घडे़ आदि के नीचे या उपर का भाग । खपड़ा । खर्पर । ५. मिट्टी का एक पात्र जिसमें पहले भिक्षुक लोग भिक्षा लेते थे । खप्पर । ६. वह बर्तन जिसमें यज्ञों में देवताओं के लिये पुराडोश पकाया जाता था । यौ०—पंचकपाल । अष्टकपाल । एकादशकपाल । कपालसंभव रत्न = (१) गजमुक्ता । (२) नागमणि । कपालसंभव रत्न हाथी के सिर से निकली मणि या नाग के सिर से निकली मणि० ।—बृहत, पृ० १६५ । ७. वह बर्तन जिसमें भड़भूजे दाना भूनते हैं । खपड़ी । ८. अंडे के छिलके का आधा भाग । ९. कछुए का खोपड़ा । १०. ढक्कन । ११. कोढ़ का एक भेद ।
⋙ कपाल अस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० कपालास्त्र' ।
⋙ कपालक (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कापालिक ] दे० 'कापालिक' ।
⋙ कपालक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] प्याला । [को०] ।
⋙ कपालक (३)
वि० प्याले के आकार का [को०] ।
⋙ कपालकेतु
[सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक केतु । विशेष—इसके पूँछ धुँएदार प्रकाशरश्मि तुल्य होती है । यह आकाश के पूवर्धि में अमावस्या के दिन उदय होता है । इस तारे के उदय से भारी अनावृष्टि होती है और अकाल पड़ता है ।
⋙ कपालक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृतसंस्कार के अंतर्गत एक कृत्य जिसमें जलते हुए शव की खोपड़ी को बाँस या किसी और से फोड़ देते हैं ।
⋙ कपालचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में एक प्रकार की क्रिया जिसमें सिर को नीचे जमीन पर टेककर और पैर ऊपर करके चलते हैं ।
⋙ कपालनलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तकुली । २. घिरनी जिसमें सूत लपेटा या भरा जाय [को०] ।
⋙ कपालभाती
संज्ञा स्त्री० [सं०] हठयोग की एक क्रिया । इसमें वेगपूर्वक पूरक और रेचक नलिका द्वारा श्वास खींचा और छोड़ा जाता है [को०] ।
⋙ कपालभाथी
संज्ञा स्त्री० [सं० कपालभाती] दे० 'कपालभाती' । उ०—त्राटक निरषै नौली फेरै । कपालभाथी नीके हेरै ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १०३ ।
⋙ कपालमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काली । दुर्गा [को०] ।
⋙ कपालमाली
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।
⋙ कपालमोचन
संज्ञा पुं० [सं०] काशी का एक तलाब जहाँ लोग स्नान करते हैं ।
⋙ कपालसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० कपालसन्धि] ऐसी संधि जिसमें किसीपक्ष को को दबाना न पडे़ । समान संधि । समान शर्तों पर हुई संधि [को०] ।
⋙ कपालसंश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] वह राष्ट्र या राज्य जो दो शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच में न हो और दोनों का मित्र बना रहे ।
⋙ कपालसोधनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कपाल+हिं० सोधनी] हठयोग की एक क्रिया । उ०—बाये सेती रेचिये हौरे हौरे जान । कपाल- सोधनी जानिये चरणदास पहिचान ।—अष्टांग०, पृ० ७७ ।
⋙ कपालास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का अस्त्र । २. ढाल [को०] ।
⋙ कपालि
संज्ञा पुं० [सं० कापालिन्] शिव [को०] ।
⋙ कपालिक पु
संज्ञा पुं० [सं० कापालिक ] दे० 'कापालिक' ।
⋙ कपालिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खोपड़ी । २. घडे़ के नीचे या ऊपर का भाग । ३. दाँतो का एक रोग जिसमें दाँत टूटने लगते हैं । दंतशर्करा । ४. काली । रणचंडी । ५. दुर्गा (को०) ।
⋙ कपालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । शिवा ।
⋙ कपाली
संज्ञा पुं० [सं०कपालिन्] [स्त्री० कपालिनी] १. शिव । महादेव । २. भैरव । उ०—करैं केलि काली कपाली समेतं ।—हम्मिर०, पृ० ५९ । ३. ठीकरा लेकर भीख माँगनेवाला भिक्षुक । ४. एक वर्णसंकर जाति जो ब्राह्मणी माता और धीवर बाप से उत्पन्न मानी जाती है । कपरिया ।
⋙ कपास
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्पास] [वि० कपासी] एक पौधा जिसके ढेंढ से रुई निकलती है । विशेष—इसके कई भेद हैं । किसी किसी के पेड़ ऊँचे और बडे़ होते हैं, किसी का झाड़ होता है, किसी का पौधा छोटा होता है, कोई सदाबहार होता है, और कितने की काश्त प्रति वर्ष की जाती है । इसके पत्ते भी भिन्न भिन्न के आकार के होते है और फूल भी किसी का लाल, किसी का पीला तथा किसी का सफेद होता है । फूलों के गिरने पर उनमें ढेंढ़ लगते हैं, जिमनें रुई होता है । ढेंढों के आकार और रंग भिन्न भिन्न होते हैं । भीतर की रुई अधिकतर सफेद होती है, पर किसी किसी के भीतर की रुई कुछ लाल और मटमैली भी होती है और किसी की सफेद होती हैं । किसी कपास की रुई चिकनी और मुलायम और किसी की खुरखुरी होती है । रुई के बीच में जो बीज निकलते हैं वे बिनौले कहलाते हैं । कपास की बहुत सी जातियाँ है, जैसे, नरमा, नंदन, हिरगुनी, कील, वरदी, कटेली, नदम, रोजी, कुपटा, तेलपट्टी, खानपुरी इत्यादि । क्रि० प्र०—ओटना = चरखी में रुई डालकर बिनौले को अलग करना । उ०—आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास ।—(शब्द०) । मुहा०—दही के धोखे कपास खाना = और को और समझना । एक ही प्रकार की वस्तुओं के बीच धोखा खाना ।
⋙ कपासी (१)
वि० [हि० कपास] कपास के फूल के रंग के समान बहुत हलके पीले रंग का ।
⋙ कपासी (२)
संज्ञा पुं० एक रंग जो कपास के फूल के रंग जैसा बहुत हलका पिला होता है । उ०—खसखसी, कपासी, गुलबासी ।—प्रेमघन०, भा०२. पृ० ११८ । विशेष—यह रंग हल्दी, टेसू और अमहर के संयोग से बनता है । हरसिंगार से भी यह रंग बनाया जाता है ।
⋙ कपासी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. भोटिया बादाम । विशेष—इसका पेड़ मझोले डील का होता है । इसकी लकड़ी गुलाबी रंग की होती है जिससे कुरसी, मेज आदि बनते हैं । इसका फल खाया जाता है और भेटिया बादाम के नाम से प्रसिद्ध है । २. एक प्रकार का झाड़ या छोटा वृक्ष । विशेष—यह प्रायः सारे भारत, मलयद्वीप, जावा और आस्ट्रेलिया में पाया जाता है । यह गरमी और बरसात में फूलता और जाडे़ में फलता है । इसी की फल मरोड़फली कहलाता है जो पेट के मरोड़ दूर करने के लिये बहुत उपयोगी माना जाता है ।
⋙ कपाहण
संज्ञा पुं० [सं०कार्षापण] सोने, चाँदी या ताँबे का सिक्का । उ०—दम या कपाहण पास हों तो निकालों ।—वै० न०, पृ० ।
⋙ कपिंजल (१)
संज्ञा पुं० [सं० कपिञ्जल] १. चातक । पपीहा ।२. गौरा पक्षी ।३. भरदूल । भरुही । ४. तीतर । ५. एक मुनि का नाम ।
⋙ कपिंजल (२)
वि० पीला । पीले रंग का । हरताली रंग का ।
⋙ कपिंद पु
संज्ञा पुं० [सं० कपीन्द्र ] दे० 'कपींद्र' । उ०—रामपकृपा बलु पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहु गिरिंदा—मानस, ५ ।३५ ।
⋙ कपि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंदर । २. हाथी । गज । ३. करंज । कजा । ४. शिलारस नाम की सुगंधित ओषधि । ५. सूर्य । ६. एक प्रकार का धूप (को०) । ७. एक ऋषी का नाम (को०) ।
⋙ कपिकंदुक
संज्ञा पुं० [सं० कपिकन्दुक] खोपड़ा । कपाल ।
⋙ कपिकच्छु
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवाँच । करेंच । मर्कटी । वानरी । कौंछ ।
⋙ कपिकच्छुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कपिकच्छु' ।
⋙ कपिकेतन, कपिकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन जिनकी ध्वजा पर हनुमान जी थे ।
⋙ कपिकेश
वि० [सं०] भूरे बालोंवाला [को०] ।
⋙ कपिचूड़
संज्ञा पुं० [सं० कपिचूड़ ] [स्त्री० कपिचूड़ा] आमड़ा [को०] ।
⋙ कपिजंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०कपिजड्घिका] चींटी की एक जाति । तैलपिपीलिका [को०] ।
⋙ कपितैल
संज्ञा पुं० [सं०] तुरुष्क नामक गंधद्रव्य । लोबान । शिलारस [को०] ।
⋙ कपित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कैथे का पेड़ २. कैथे का फल । उ०— नाथ, बली हो कोई कितना, यदि उसके भीतर है पाप । तो गजभुक्त कपित्थ तुल्य वह निष्फल होगा अपने पाप ।—साकेत, पृ० ३८० । ३. नृत्य में एक प्रकार का हस्तक जिसमें अँगूठे की छोर को तर्जनी को छोर से मिलाते हैं ।
⋙ कपिध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन । उ०—जयति कपिध्वज के कृपालु कवि, वेद पुराण विधाता ब्यास ।—साकेत, पृ० ३६६ ।
⋙ कपिनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] एक मादक पेय [को०] ।
⋙ कपिपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुग्रीव । २. हमुमान । उ०—कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ।—मानस ।
⋙ कपिप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केवाँच । कौंछ ।
⋙ कपिप्रभु
संज्ञा पुं० [सं०] १. राम । २. सुग्रीव [को०] ।
⋙ कपिप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] कैथ ।
⋙ कपिरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रीरामचंद्र जी । २. अर्जुन ।
⋙ कपिल (१)
वि० [सं०] भूरा । मटमैला । तामड़ा रंग का । २. सफेद । जैसे,—कपिला गाय ।
⋙ कपिल (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि ।२. कुत्ता ।३. चूहा । ४. शिलाजंतु । शिलाजीत । ५. महादेव । ६. सूर्य । ७. विष्णु । ८. एक प्रकार का सीसम । बरना । ९. एक मुनि जो सांख्यशास्त्र के अदिप्रवर्तक माने जाते हैं । इनका उल्लेख ऋग्वेद में है । उ०—अदिदेव प्रभु दीनदयाल । जठर धरेउ जेहि कपिल कृपाला ।—मानस, १०. पुराण के अनुसार एक मुनि जिन्होंने सगर के पुत्रों को भस्म किया था ।११. कुशद्वीप के एक वर्ष का नाम । कपिल देश ।—बृहत्० पृ० ८५ ।
⋙ कपिलता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कपि+लता] १. केवाँच । कौंछ । २. गजपिप्पली ।
⋙ कपिलता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूरापन । मटमैलापन ।२. ललाई ३. पीलापन । ४. सफेदी ।
⋙ कपिलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. ललाई । उ०—कपिलत्व या तीक्ष्ण के होने पर यह उपचार होता है कि अग्नि माणवक है ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३३६ ।२. दे० 'कपिलता' ।
⋙ कपिलद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] काक्षी नामक एक वृक्ष जिसकी लकड़ी सुगंधीत होती है [को०] ।
⋙ कपिलधारा
संज्ञा पुं० [सं०] १. काशी का एक तीर्थ स्थान । २. गया का एक तीर्थस्थान ।
⋙ कपिलवस्तु
संज्ञा पुं० [सं०] गौतमबुद्ध का जन्मस्थान । यह स्थान नैपाल की तराई में बस्ती जिले में था ।
⋙ कपिलस्मृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सांख्यसूत्र [को०] ।
⋙ कपिलाजंन
संज्ञा पुं० [सं० कपिलाञ्जन] शिव [को०] ।
⋙ कपिला (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. कपिला रंग की । भूरे रंग की । मटमैले रंग की । २. सफेद रंग की । जैसे,—कपिला गाय ।३. जिसके शरीर में सफेद दाग हो । जिसके शरीर में सफेद फूल पडे़ हों । जैसे, कपिला कन्या (मनु) । ४. सीधी सादी । भोली भाली ।
⋙ कपिला (२)
संज्ञा स्त्री० १. सफेद रंग की गाय । उ०—जिमि कपिलहिं घालै हरहाई ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इस रंग की गाय बहुत अच्छी और सीधी समझी जाती है । २. एक प्रकार का जोंक । ३. एक प्रकार का चींटी । माटा । ४. पुंडरीक नामक दिग्गज की पत्नी । ५. दक्ष प्रजापति की एक कन्या । ६. रेणुका नाम की सुगंधित ओषधि ।७. मध्य प्रदेश की एक नदी ।
⋙ कपिलाक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मृगी । २. एक प्रकार का शिशपा वृक्ष [को०]
⋙ कपिलागम
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्यशास्त्र ।
⋙ कपिलाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. आचार्य कपिल । २. विष्णु [को०] ।
⋙ कपिलाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र जिनका घोड़ा सफेद है ।
⋙ कपिलोमफला
संज्ञा पुं० [सं०] केवाँच । कपिकच्छु [को०] ।
⋙ कपिलोह
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीतल [को०] ।
⋙ कपिवक्त्र
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारद [को०] ।
⋙ कपिश (१)
वि० [सं०] १. काला और पीला रंग मिलाने से जो भूरा रंग बने, उस रंग का । मटमैला । उ०—पुरइन कपिश निचोल विविध रँग विहँसत सचु उपजावे । सूर श्याम आनंद कंद की शोभा कहत न आवै ।—सूर (शब्द०) । २. पीला भूरा । लाल भूरा । बादामी । उ०—कपिश केश कर्कश लंगूर खल दल बल भानन ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कपिश (२)
संज्ञा पुं० १. भूरा या बादामी रंग । २. लाल और काले रंग का मिश्रित रंग । ३. धूप द्रव्य । ४ . एक प्रकार का बाण । ५. एक प्रकार का पद्य ।
⋙ कपिशांजन
संज्ञा पुं० [सं०कपिशाञ्जन] एक प्रकार का मदिरा [को०] ।
⋙ कपिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का मद्य । २. एक नदी का नाम जिसे आजकल कसाई कहते हैं और जो मेदिनीपुर के दक्षिण में पड़ती है । रघुवंश में लिखा है की रघु इसी नदी को पार करके उत्कल देश में गये थे । ३. कश्यप की एक स्त्री जिससे पिशाच उत्पन्न हुए थे ।४ . माधवी लता (को०) ।
⋙ कपिशाक
संज्ञा पुं० [सं०] करमकल्ला ।
⋙ कपिशायत
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपिशा की बनी मदिरा । २. एक देव [को०] ।
⋙ कपिशित
वि० [सं०] भूरा या कपिश किया हुआ [को०] ।
⋙ कपिशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मदिरा [को०] ।
⋙ कपिशीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मद्य [को०] ।
⋙ कपिशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दीवार की सबसे ऊपरी भाग जो कपि के शीर्ष या सिर जैसा हो । कौसीस [को०] ।
⋙ कपिशीर्ष (२)
वि० कपि के शीर्ष तुल्य प्रभाव से युक्त [को०] ।
⋙ कपिशीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] हिंगुल [को०] ।
⋙ कपिशीर्ष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वाद्ययंत्र [को०] ।
⋙ कपिष्ठल
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ओर उनकके गोत्र के लोग [को०] ।
⋙ कपिष्ठल संहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्ण यजुर्वेद की एक संहिता [को०] ।
⋙ कपिस पु
संज्ञा पुं० [सं० कपिश] १. पीले भूरे रंग का । २. रेशमी । उ०—कनक कपिश अंबर, संवर करत मान भंग ।—छीत०, पृ० ५३ ।
⋙ कपींद्र
संज्ञा पुं० [सं० कपींद्र ] १. हमुमान । २. सुग्रीव ।३. जांबवान् ।
⋙ कपी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काँपना] घिन्नी । घिरनी ।
⋙ कपी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बानरी । मर्कटी [को०] ।
⋙ कपी (३)
संज्ञा पुं० [फा०, मि० सं० कपि] बंदर । शाखामृग । बानर ।
⋙ कपीज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राम । २. सुग्रीव । ३. क्षीरिका नामक वृक्ष ।
⋙ कपीतन
संज्ञा पुं० [सं०] अनेक वृक्षों के नाम । जैसे—अश्वत्थ, अमड़ा, शिरीष, बिल्व आदि ।
⋙ कपीश
संज्ञा पुं० [सं०] बानरों का राजा । जैसे—हनुमान, सुग्रीव, बालि इत्यादि ।
⋙ कपीष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] कपित्थ । कैथ ।
⋙ कपुच्छ़ल
संज्ञा पु० [सं०] १. मुंडन के बाद शिखा रखने का संस्कार । चूड़ाकर्म । २. काकपक्ष [को०] ।
⋙ कपुष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कपुच्छल' [को०] ।
⋙ कपूत
संज्ञा पु० [सं० कुपुत्र] वह पुत्र जो अपने कुलधर्म के विरुद्ध आचरण करे । बुरी चाल चालन का पुत्र । बुरा लड़का । उ०—राम नाम ललित ललाम कियो लाखन को बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को । तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कपूती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपूत] पुत्र के अयोग्य आचरण । नालायकी ।
⋙ कपूर
संज्ञा पुं० [सं०कर्पूर, पा० कप्पूर, जावा कापूर] एक सफेद रंग का जमा हुआ सुगधिंत द्रव्य जो वायु में उड़ जाता है और जलाने से जलता है । विशेष—प्राचिनों से अनुसार कपूर दो प्रकार का होता है । एक पक्व दूसरा अपक्व । राजनिघंटु और निघंटुरत्नाकार में पोतास, भामसेन, हिम इत्यादि इसके बहुत भेद माने गए हैं और इनके गुण भी अलग अलग लिखे हैं । कवियों और साधारण गवाँरो का विश्वास है की केले में स्वाती की बूंद पडने से कपूर उत्पन्न होता है । जायसी ने पद्मावत में लिखा है—'पड़े धरनि पर होय कचूरू । पडे़ कदलि मँह होय कपुरूँ' । आजकल कपूर कई वृक्षों से निकाला जोता है । ये सबके सब वृक्ष प्रायः दारचीनी के जाति के हैं । इनमें प्रधान पेड़ दारचीनी कपूरी मियाने कद का सदाबहार पेड़ है जो चीन, जापान, कोचीन और फारमूसा (ताइवान) में होता है । अब इसके पेड़ हिंदुस्तान में भी देहरादून और निलगिरि पर लगाए गए हैं और कलकत्ते तथा सहारनपुर के कंपनी बागों में भी इनके पेड़ हैं । इससे कपूर निकालने की विधी यह है—इसकी पतलीपतलीचैलीयों और डालियों तथा जड़ों के टुकडे़ बंद बर्तन में जिससे कुछ दूर तक पानी भरा रहता है, इस ढंग से रखे जाते हैं की उनका लगाव पानी से न रहे । बर्तन के नीचे आग जलाई जाती है । आँच लगने से लकड़ियों में से कपूर उड़कर ऊपर के ढक्कन में जम जाता है । इसकी लकड़ी भी संदूक आदि बनाने के काम में आती है । दालचीनी जीलानी—इसका पेड़ उँचा होता है । यह दक्खिन में कोंकन से दक्खिन पश्चिमी घाट तक और लंका, टनासरम, बर्मा आदि स्थानों में होता है । इसका पत्ता तेजपात और छाल दारचीनी है । इससे भी कपूर निकलता है । बरास—यह बोर्निया और सुमात्रा में होता है और इसका पेड बहुत उँचा होता है । इसके सौ वर्ष से अधीक पुराने पेड़ के बीच से तथा गाँठो में से कपूर का जमा हुआ डला निकलता है और छिलकों के नीचें से भी कपूर निकलता है । इस कपूर को बरास, भीमसेनी आदि कहते हैं और प्राचीनों ने इसी को अपक्व कहा है । पेड़ में कभी कभी छेव लगाकर दूध निकलते हैं जो जमकर कपूर हो जाता है । कभी पुराने की पेड़ की छाल फट जाती है और उससे आप से आप दूध निकलने लगता है जो जमकर कपूर हो जाता है । यह कपूर बाजारों में कम मिलता है और महँगा बिकता है । इसके अतिरिक्त रासायनिक योग से कीतने ही प्रकार के नकली कपूर बनते हैं । जापान में दारनी कपूरी की तेल से (जो लडकीयों को पानी में रखकर खींचकर निकाला जाता है) एक प्रकार कपूर का बनाया जाता है । तेल भूरे रंग का होता है और वार्निश का काम आता है । कपुर स्वाद में कडुआ, सुगंध में तीक्ष्ण और गुण में शीतल होता है । यह कृमिघ्न औऱ वायुशोधक होता है और अधिक मात्रा में खाने से विष का काम करता है । पर्या०—घनासार । चंद्र । सिताभ । महा०—कपूर खाना = विष खाना । उ०—बूडे़ जलजात कूर कदली कपूर खात दाडि़म दरिक अंग उपमा न तौलै री । तेरे स्वास सौरभ को त्रिविध समीर धीर विविध लतान तीर बन बन डोलै री ।—बेनी प्रवीन (शब्द०) ।
⋙ कपूरकचरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कपूर+कचरी] एक बेल जिसकी जड़ सुगंधित होती है और दवा के काम में आती है । आसाम के पहाड़ी लोग इसकी पत्तियाँ की चटाई बनाते हैं । इसकी जड़ खाने में कडुई, चरपरी और तीक्ष्ण होती है तथा ज्वर हिचकी और मुँह की विरसता को दूर करती है । पर्या०—गधपलाशी । गंधमूली । गंधौली । सितरुती ।
⋙ कपूरकाट
संज्ञा पुं० [हिं० कपूर+काट] एक प्रकार का महीन जड़हन धान जिसका चावल सुगंधित और स्वादिष्ट होता है ।
⋙ कपूरमणि
संज्ञा पुं० [सं० कर्पूरमणि] १. एक प्रकार का रत्न । २. एक प्रकार का श्वेत पाषाण जो औषध के काम आता है [को०] ।
⋙ कपूरा
संज्ञा पुं० [हिं० कपूर = कपूर के ऐसा सफेद] भेड़, बकरी आदि चौपायों का अंडकोश ।
⋙ कपूरी (१)
वि० [हिं० कपूर] १. कपूर का बना हुआ । २. हलके पीले रंग का ।
⋙ कपूरी (२)
संज्ञा पुं० १. एक रंग जो कुछ हल्का पीला होता है और केसरी फिटकरी और हरसिंगार के फुलसिंगार के फूल से बनता है ।२. एक प्रकार का पान जो बहुत लंबा और चौड़ा होता है । इसके किनारे कुछ लहरदार होते हैं ।
⋙ कपूरी (३)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की बूटी जो पहाड़ों पर होती है ।विशेष—इसकी पत्तियाँ लंबी लंबी होती हैं जिनके बीच में सफेद लकीर होती है । इसकी जड़ में से कपूर की सी सुगंध निकलती है ।
⋙ कपोत
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कपोतिका, कपोती] १. कबूतर ।२. परेवा । यौ०—धुम्रकपोत । चित्रकपोत । हरितकपोत । कपोतमुद्रा । ३. पक्षी मात्र । चिड़िया । यौ०—कपोतपालिका । कपोतरि । ४. भूरे रंग का कच्चा सुरमा ।
⋙ कपोतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा कबूतर । २. हाथ जोड़ने का एक ढंग । ३. सुरमा धातु [को०] ।
⋙ कपोतकीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह भूमि या स्थान जहाँ कबूतरों की बहुतायत हो [को०] ।
⋙ कपोतपालिका, कपोतपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काबुक । कबूतरों का दर्बा । २. कबूतरों के बैठने की छतरी । चिड़ियाखाना ।
⋙ कपोतबंक
संज्ञा स्त्री० [सं० कपोतबङ्का] ब्राह्मी बूटी ।
⋙ कतपोतवर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची ।
⋙ कपोत्तवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संचयहिन वृत्ति । रोज कमाना रोज खाना ।
⋙ कपोतव्रत
संज्ञा स्त्री० [सं०] चुपचाप दूसरे के अत्याचारों को सहना । दूसरे के पहुँचाए हुए अत्याचार या कष्ट पर चूँ न करना । उ०—है इत लाल कपोतव्रत कठिन प्रीति की चाल । मुख सों आह न भाखिहौं निज सुख हलाल (शब्द०) । विशेष—कबूतर कष्ट के समय नहीं बोलता, केवल हर्ष के समय गुटर गूँ की तरह का अस्फुट स्वर निकलता है ।
⋙ कपोतसार
संज्ञा पुं० [सं०] सुरमा (धातु) ।
⋙ कपोतांघ्रि
संज्ञा स्त्री० [सं० कपोताङि्घ्र] १. गंधद्रव्य । २. प्रवाल विद्रुम । मूँगा । उ०—सुषिरा नटी नली धमनि कपोतांघ्रि परबाल ।—अनेकार्थ०, पृ० ६४ ।
⋙ कपोतांजन
संज्ञा पुं० सं० [कपोताञ्जन] सुरमा (धातु) ।
⋙ कपोतारि
संज्ञा पुं० [सं०] बाज पक्षी ।
⋙ कपोती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कबूतरी । २. पेडुकी । ३. कुमरी ।
⋙ कपोती (२)
वि० [सं०] कपोत के रंग का । खाकी । धूमले रंग का । फाख्तई रंग का । नीले रंग का ।
⋙ कपोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गाल । उ०—तोहि कपोल बाँए तिल परा । जेइँ तिल देख सो तिल तिल जरा । —जायसी ग्रं०, पृ० १९२ । यौ०—कपोलकल्पना । कपोलकल्पित ।
⋙ कपोल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य या नाटक में कपोल की चेष्टाएँ । विशेष—ये सात प्रकार की होती हैं—(१) कूंचित (लज्जा के समय) (२) रोमांचित (भय के समय) ।(३) कंपित (क्रोध के समय) । (४) फुल्ल (हर्ष के समय) । (५) सम (स्वाभाविक) । (६) क्षाम (कष्ट के समय) । (७) पूर्ण (गर्व या उत्साह के समय) ।
⋙ कपोलकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनगढंत । बनावटी बात । गप्प । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।
⋙ कपोलकल्पित
वि० [सं०] बनावटी । मनगढंत । झूठ ।
⋙ कपोलपालि, कपोलपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपोलदेश । कपोल- स्थान । कपोलभित्ति । गंडस्थल । उ०—कोमल कपोलपाली में सीधी सादी स्मितरेखा; वही कुटिलता जिसने भौं में बल देखा ।—आँसू, पृ० २२ ।
⋙ कपोलराग
संज्ञा पुं० [सं०] गालों पर की लाली [को०] ।
⋙ कपौला
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति ।
⋙ कप्तान
संज्ञा पुं० [अं० कैप्टेन] १. जहाज या सेना का एक अफसर । २. दल का नायक । अधिपति । जैसे,—क्रिकेट का कप्तान ।
⋙ कप्प पु
संज्ञा पुं० [सं० कपि] दे० 'कपि' ।
⋙ कप्पड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्पट] दे० 'कप्पर' । उ०—चोल बरन्ने कप्पड़े सावर धण आणोंह ।—ढोला०, दू० १३९ ।
⋙ कप्पना पु
क्रि० स० [सं० कल्पन प्रा० कप्पण] दे० 'काटना' । उ०—कहि सुंदर अपना बंधनु कप्पै बंधनु खोलै ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २७५ ।
⋙ कप्पर पु †
संज्ञा पुं० [सं० कर्पट] कपड़ा । वस्त्र । उ०—कर खंग खप्पर विगत कप्पर पुहुमि उप्पर नचन हैं । बैताल भूत पिशाच केती कला गहि महि रचत हैं ।—रघुराज (शब्द०) ।
⋙ कप्परिय पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्पटिक] खप्परधारी । भिक्षक । उ०— सहस सत्त कप्परिय भेष कीनौ तिन वारं ।—पृ० रा०, २५ ।३५५ ।
⋙ कप्फा
संज्ञा पुं० [फा० कफ = झाग, गाज] १. अफीम का पसेव जिसमें कपड़ा डुबोकर मदक बनाने के लिये सुखाते हैं । २. वह वस्त्र जिसे किसी बरतन के मुँह पर बाँधकर उसके ऊपर अफीम सुखाई जाती है । साफी । छनना ।
⋙ कप्याख्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधद्रव्य । धूप [को०] ।
⋙ कप्यास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बंदर का चूतड़ ।
⋙ कप्यास (२)
वि० [सं०] लाल । रक्त ।
⋙ कफ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गाढ़ी लसीली और अंठेदार वस्तु जो खाँसने या थुकने से मुँह से बाहर आती है तथा नाक से भी निकलती है । श्लेष्मा । बलगम । २. वैद्यक के अनुसार शरीर के भीतर की एक धातु जिसके रहने का स्थान आमाशय, हृदय, कंठ, शिर और संधि हैं । विशेष—इन स्थानों में रहनेवाले कफ का स्थान क्रमशः क्लेदन, अवलंबन, रसन और श्लेष्मा है । आधुनिक पाश्चात्य मत से इसका स्थान साँस लेने की नलियाँ और आमाशय है । कफ कुपित होने से दोषों में गिना जाता है । यौ०—कफकारक । कफकृत । कफक्षय ।
⋙ कफ (२)
संज्ञा पुं० [अ० कफ़] कमीज या कुर्ते की आस्तीन के आगे की वह दोहरी पट्टी जिसमें बटन लगाते हैं । यौ०—कफदार ।जैसे—कफदार कुर्ता ।
⋙ कफ (३)
संज्ञा पुं० [अ० कफ्फ़ फा० कफ़] लोहे का वह अर्धचंद्राकारटुकड़ा जिससे ठोंककर चकमक से आग झाड़ते या निकालते हैं । नाल । उ०—काया, कफ, चकमकै झारौं बारंबार । तीन बार धुआँ भया, चौथे परा अँगार ।—कबीर (शब्द०) । २. झाग । फेन ।
⋙ कफ (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हथेली । पंजा ।
⋙ कफकर
वि० [सं०] कफ उत्पन्न करनेवाला [को०] ।
⋙ कफकारक
वि० [सं०] दे० 'कफकर' [को०] ।
⋙ कफकूर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] थूक । लार [को०] ।
⋙ कफक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] यक्ष्मा । तपेदिक [को०] ।
⋙ कफगंड
संज्ञा पुं० [सं० कफगण्ड] गले का एक रोग [को०] ।
⋙ कफगीर
संज्ञा पुं० [फा० कफगीर] हथेली की तरह की लंबी डाँड़ी की कड़छी जिससे दाल, घी आदि का झाग निकालता हैं ।
⋙ कफगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] पेट का एक रोग जिसमें उदर में गाँठ पड़ जाती है [को०] ।
⋙ कफघ्न
वि० [सं०] कफविनाशक [को०] ।
⋙ कफचा
संज्ञा पुं० [फा० कफचह्] छोटा कफगीर । चमचा ।
⋙ कफज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कफ की वृद्धि या संचय से उत्पन्न होनेवाला ज्वर [को०] ।
⋙ कफणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुहनी [को०] ।
⋙ कफदार
संज्ञा पुं० [अ० कफ+ फा० दार] कड़ाहट के लिये कापड़े में जहाँ भी कफ डाला जाय ।
⋙ कफन
संज्ञा पुं० [अ० कफन] वह कपड़ा जिसमें मुर्दा लपेटकर गाड़ा या फूँका जाता है । यौ०—कफनखसोट । कफनचोर । कफनकाठी । मुहा०—कफन को कौड़ी न होना या रहना = अत्यंत दरिद्र होना । कफन को कौड़ी न रखना = (१) जो कमाना वह खा लेना । धन संचित न करना । (२) अत्यंत त्यागी होना । (साधु के लिये) । कफन फाड़कर उठना = (१) मुर्दे का उठना । मुर्दे का जी उठना । (२) सहसा उठ पड़ना । कफन फाड़कर बोलना या चिल्लाना = सहसा जोर से चिल्लाना । कफन सिर से बाँधना = मरने पर तैयार होना । जान जोखिम में डालना ।
⋙ कफनकाठी
संज्ञा पुं० [अ० कफ़न+ हिं० काठी] अंत्योष्टि कर्म की व्यवस्था [को०] ।
⋙ कफनखसोट
वि० [अ० कफ़न + हिं० खसोट] [संज्ञा कफ़न- खसोटी] १. कंजूस । मक्खीचूस । अत्यंत लोभी । सूमड़ा । विशेष—पूर्व काल में डोम श्मशान में मुर्दों का कफन फाड़कर कर की तरह लेते थे; इसीलिये उन्हे कफनखसोट कहते थे । २. दूसरे के माल को जबरदस्ती छीनकर हड़प जानेवाला ।
⋙ कफनखसोटी
संज्ञा स्त्री० [अ० कफन+ हिं० खसोटना] १. डोमों का कर जो श्मशान पर मुर्दों का कफन फाड़कर लेते थे । उ०— जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान । कफनखसोटी को करम, सब ही एक समान ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । २. इधर उधर से भले या बुरे ढंग धन एकत्र करने की वृत्ति । ३. कंजूसी । सूमड़ापन ।
⋙ कफनचोर
संज्ञा पुं० [अ० कफन+ हिं० चोर] १. कब्र खोदकर कफन चुरानेवाला । २. भारी चोर । गहरा चोर । ३. दुष्ट । बदमाश ।
⋙ कफन दफन
संज्ञा पुं० [अ० कफन+ दफ़न] अंत्येष्टि । अंतिम संस्कार [को०] ।
⋙ कफनाना
क्रि० स० [अ० कफ़न से नाम०] गाड़ने या जलाने के लिये मुर्दे को कफन में लपेटना ।
⋙ कफनी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कफ़न] वह कपड़ा जिसे मुर्दे के गले में डालते हैं ।
⋙ कफनी (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्पट] साधुओं के पहनने का एक कपड़ा जो बिना सिला होता है और उसके बीच में सिर जाने के लिये छेद रहता है । मेखला ।
⋙ कफपा
संज्ञा पुं० [फा० कफ़पा] पैर का तलवा ।
⋙ कफल
वि० [सं०] श्लेष्मायुक्त कफग्रस्त । कफवाला ।
⋙ कफली
संज्ञा पुं० [हिं० खपेली] एक प्रकार का गेहूँ जिसे खपली भी कहते हैं । वि० दे० 'खपली' ।
⋙ कफविरोधी
संज्ञा पुं० [सं० कफविरोधिन्] काली मिर्च [को०] ।
⋙ कफश
संज्ञा पुं० [फा० कफ़श] १. जूता । नालदार जूता ।
⋙ कफशबरदार
संज्ञा पुं० [फा० कफशाबरदार] तुच्छ सेवक । जूता संवाहक ।
⋙ कफस
संज्ञा पुं० [अ० कफ़स] १. पिंजरा । २. काबुक । २. काबुक । दरबा । ३. बंदीगृह । कैदखाना । उ०—रिहा करता कहीं सैयाद हमको मौसिमे गुल में । कफस में दम जो घबराता है सर दे दे पटकते हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८४७ । ४. बहुत तंग और संकुचित जगह जहाँ वायु और प्रकाश न पहुँचता हो । ५. शरीर या कायपिंजर (ला०) ।
⋙ कफा
संज्ञा पुं० [फा० कफा़] रंज । पीड़ा । क्लेश ।
⋙ कफातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अतिसार । विशेष—इसमें रोगी का मल सफेद, गाढ़ा, चिकना, कफमिश्रित एवं दुर्गंधयुक्त होता है ।
⋙ कफाबंद
संज्ञा पुं० [फा कफा = गर्दन का पिछला भाग+हिं० बंद] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी के नीचे आने पर पहलवाल दाहिनी तरफ बैठकर अपना बायाँ हाथ विपक्षी की कमर में डालकर अपने दाहिने हाथ और दाहिनी टाँग से विपक्षी की गर्दन दबाना है और बाएँ हाथ से उसका जाघियाँ पकड़कर उसे उलटकर चित कर देता है ।
⋙ कफारि
संज्ञा पुं० [सं०] सोंठ [को०] ।
⋙ कफालत
संज्ञा पुं० [अ० कफा़लत] जिम्मेदारी । जमानत । यौ०—कफालतनामा = जमानतनामा ।
⋙ कफाशय
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ पर कफ रहता है । विशेष—वैद्यकशास्त्रानुसार ये स्थान पाँच हैं—आमाशय, हृदय, कंठ, शिर और संधियाँ ।
⋙ कफिन्ना
संज्ञा पुं० [अं० कफ] लकड़ी या लोहे की कोनिया जो जहाजौ में आड़े और बेड़े शहतीरों को जोड़ने के लिये लगाई जाती है ।
⋙ कफी (१)
वि० [सं० कफिन्] कफ की अधिकता से पीड़ित । कफी । कफप्रदान । श्लैष्मिक ।
⋙ कफी (२)
संज्ञा पुं० हाथी [को०] ।
⋙ कफील
संज्ञा पुं० [अ० कफी़ल] जामिन । जिम्मेवार । क्रि० प्र०—होना ।
⋙ कफेदस्त
संज्ञा पुं० [फा० कफ़दस्त] हथेली [को०] ।
⋙ कफेलु
वि० [सं०] कफप्रधान । कफी । श्लैष्मिक ।
⋙ कफोणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपोणी । कोहनी । टिहुनी ।
⋙ कफोदर
संज्ञा पु० [सं०] कफ से उत्पन्न पेट का एक रोग । विशेष—इस रोग में शरीर में सुस्ती, भारीपन और सुजन हो जाती है, भोजन में अरुचि रहती है, खाँसी आती है और पेट भारी रहता है, मतली मालूम होती है और पेट में गुड़गुड़ाहट रहती है तथा शरीर ठंढ़ा रहता है ।
⋙ कफ्फ
संज्ञा पुं० [सं० कफ] दे० 'कफ' उ०—कबीर वैद बुलाइया, पकड़ि दिखाई बाहिं । बैद न बेदन जानही, कफ्फ करेजे माहिं ।—क० सा० सं०, पृ० ७६ ।
⋙ कबंध
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध] १. पीपा । कंडल । २. बादल । मेघ । ३. पेट । उदर । ४. जल । ५. बिना सिर का धड़ । रुंड । उ०—(क) कूदत कबंध के कदंब बंब सी करत धावत देखावत हैं लाघौ राम बान के । तुलसी महेश विधि लोकपाल देवगण देखत विमान चढ़े कौतुक मसान से ।—तुलसी (शब्द०) । (अ) अपनो हित रावरे से जो पै सूझै । तौ जनु तनु पर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जुझै ।—तुलसी (शब्द०) । ६. एक दानव जो देवी का पुत्र था । उ०— आवत पंथ कबंध निपाता । तेहि सब कही सीय की बात ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसका मुँह इसके पेट में था । कहते हैं, इंद्र ने एक बार उसे वज्र से मारा था और इसके सिर और पैर इसके पेट में घुस गए थे । इसे पूर्वजन्म का नाम विश्वावसु गंधर्व लिखा है । रामचंद्र जी से और इससे दंडकारण्य में युद्ध हुआ था । रामचंद्र जी ने इसके हाथ काटकर इसे जीता ही जमीन में गाड़ दिया था । ७. राहु । ८. एक प्रकार के केतुं । विशेष—ये संख्या में ९६ हैं और आकृति में कबंध से बतलाए गए हैं । ये काल के पुत्र माने गए हैं और इन के उदय का फल दारुण बतलाया गया है । ९. एक गंधर्व का नाम । १०. एक मुनि का नाम ।
⋙ कबंधी (१)
वि० [सं० कबंधिन्] जलवाला (बादल) का नाम [को०] ।
⋙ कबंधी (२)
संज्ञा पुं० १. मरुत । २. कात्यायन ऋषि [को०] ।
⋙ कब (१)
क्रि० वि० [सं० कदा, हिं० कद] १. किस समय? किस वक्त? जैसे, तुम कब घर जाओगे? विशेष—इस क्रि० वि० का प्रयोग प्रश्न में होता है । मुहा०—कब का कब के कब से = देर से । बिलंब से । जैसे,— हम यहाँ कब के बैठे हैं, पर तुम्हारा पता नहीं । (जब क्रिया एकवचन हो तो 'कब का' और जब बहुवचन ही तो 'कब के' का प्रयोग होता है') । कब कब = कभी कभी । बहुत कम । उ०—कब कब मँगरू बोवै धान । सूखा डाला है भगवाना ।—(शब्द०) । कब ऐसा हो, कब ऐसा करैं = ज्योंही ऐसा हो त्योंही ऐसा करैं । जैसे,—वह तो इसी ताक में है कि कब बाप मरें, कम मालिक हों । कब नहों = बराबर । सदा । जैसे,— हमने तुम्हारी बात कब नहीं मानी । २. कदापि नहीं । नहीं । जैसे,—वह हमारी बात कब मानेंगे? (अर्थात् नहीं मानगें) । मुहा०—कब का = कभी नहीं । नहीं । जैसे,—वह कब का देनेवाला है? (अर्थात् नहीं देनेवाला है ।)
⋙ कब (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कवि] दे० 'कवि' । उ०—गुण गज बंध तणा कब गावै ।—रा० रू०, पृ० १६ ।
⋙ कबक
संज्ञा [फा०] चकोर ।
⋙ कबज पु
संज्ञा पुं० [अ० कब्जह] दे० . 'कब्जा' । उ०—काया कबज कमान करि, सार सबद करि तीर ।—दादू०, पृ० ३८० । (ख) जालिम मिलै इजरयाल कबज करै जो जाना ।—कबीर सा०, पृ० ८८८ ।
⋙ कबड्डी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. लड़को के एक खेल का नाम । विशेष—इसमें लड़के दो दलों में होकर मैदान में मिट्टी का एक ढुह बनाने हैं जिसे पाला या डाँडमेंड़ कहते हैं । फिर एक दल पाले के एक ओर और दूसरा दूसरी ओर हो जाता है । एक लड़का एक ओर से दूसरी ओर 'कबड्डी कबड्डी' कहता हुआ जाता है और दूसरे दल के लड़कों को छूने की चेष्टा करता है । यदि वह लड़का किसी दूसरे दल के लड़के को छूकर पाले के इस पार बिना साँस तोड़े चला आता है, तो दूसरे पक्ष के वे लड़के जिन जिनको इसने छुआ था, मर जाते हैं । अर्थात् खेल से अलग हो जाते हैं । यदि इसे दूसरे दल के लड़के पकड़ लें और उसकी साँस उनेक हद्द में ही टूट जाय तो उलटा वह मर जाता है । फिर दूसरे दल से एक लड़का पहले दल की ओर 'कबड्डी कबड्डी' करता जाता है । यह तब तक होंता रहता है जबतक किसी दल के सब खिलाड़ी शेष नहीं हो जाते । मरे हुए लड़के तबतक खेल से अलग रहते हैं जबतक उनके दल का कोई लड़का विपक्षी के दल के लड़को में से किसी को न मार डाले । इसे वे जीना कहते हैं । यह जीना भी उसी क्रम से होता है जिस क्रम से वे मरे थे । क्रि० प्र०—खेलना । मुहा०—कबड्डी खेलना = कूदना । फाँदना । कबड्डी खेलते फिरना = बेकाम फिरना । इधर उधर घूमना । २. काँपा । कंपा ।
⋙ कबड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० कबाड़] [कबाड़िन्] अवध की एक मुसलमान जाति का नाम जो तरकारी बोती और बेचती है ।
⋙ कबर (१)
वि० [सं० कर्बुर] मिश्रित रंगोवाली । चितकबरा ।
⋙ कबर (२)
संज्ञा पुं० [सं० कवर] १. व्याख्याता । २. चोटी । ३. अम्ल । ४. नमक ।
⋙ कबर (३)
संज्ञा स्त्री० [अ० कब्र] दे० 'कब्र' ।
⋙ कबर (४) पु
अव्य [हिं० कब] कब तक । किस समय ।
⋙ कबरस्तान
संज्ञा पुं० [अ० कब्र+फा० स्तान] दे० 'कब्रिस्तान' ।
⋙ कबरा (१)
वि० [सं० कर्वर, प्रा०, कव्वर] [स्त्री० कबरी] १. सफेद रंग पर काले, लाल पीले आदि दागवाला । जिसके शरीर का रंग दोरंगा हो । चितला । उ०—कलुआ कबरा मोतिया झबरा बुचवा मोहिं देखावै ।—मलूक०, पृ० २५ । २. कल्माष । शब्बला । अबलक । विशेष—इस रंग के लिये यह आवश्यक है कि या तो सफेद रंग पर काले, पीले, लाल आदि दाग हों या काले पीले, लाल आदि रंगों पर सफेद दाग हों । यौ०—चितकबरा ।
⋙ कबरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कौर] करील की जाति की एक प्रकार की फैलनेवाली झाड़ी जो उत्तरी भारत में अधिकता से पाई जाती है कैर । विशेष—इसके फल खाए जाते हैं उनसे एक प्रकार का तेल निकाल जाता है । इसका व्यवहार ओषधि के रूप में भी होती है ।
⋙ कबरिस्तान
संज्ञा पुं० [अ० कब्र+फा० स्तान] दे० 'कब्रिस्तान' ।
⋙ कबरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोटी । जूड़ा । उ०—हैं बूझ्यों कबरीन सों क्यों कारी दरसाइ । कहीं जु रबि सनमुख रहै, सो कारो ह्वै जाय ।—स० सप्तक, पृ० २८३ ।
⋙ कबरीमणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सिर का आभूषण । चूड़ामणि । २. सर्वश्रेष्ठ । उ०—प्रेम पगे चखि चार फल, कौशल्या के लाल । भक्तन की कबरीमणी शबरी करी कृपाल ।—राम० धर्म०, पृ० २६१ ।
⋙ कबल
क्रि० वि० [अ० क़ब्ल] पहले । पूर्व में । पेश्तर । जैसे,— मैं आपके पहुँचने के कबल ही वहाँ से चला जाऊँगा ।
⋙ कबलु †
संज्ञा पुं० [सं० कमल] दे० 'कमल' । उ०—उलटे कबलु पवाले काया ।—प्राण०, पृ० ७८ ।
⋙ कबहुँ †
क्रि० वि० [हिं० कब+ हुँ] कभी । किसी समय । उ०—कबहुँ नयन मय सीतल ताता । होइहिं निरखि स्याम मृदुगाता ।—मानस, ५ ।
⋙ कबहुँक †
क्रि० वि० [हिं० कबहुँ+ क (प्रत्य०)] कभी । किसी समय । उ०—सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनाथ । —मानस ।
⋙ कबाँण
संज्ञा स्त्री० [फा० कमान] दे० 'कमान' । उ०—सज्जण चाल्या है सखी, दिस पोगल दोडेह । साधारण लाल कबाँण ज्यँउ, ऊभी कड़ मोड़ेह ।—ढोला०, दू० ८३ ।
⋙ कबा
संज्ञा पुं० [अ० कबा] एक प्रकार का पहनावा जो घुटनों के नीचे तक लंबा और कुछ कुछ ढीला होता है । यह आगे से खुला होता है और इसकी आस्तीन ढीली होती है । उ०— खोलकर बंदेकबा का मुल्के दिल गारत किया ।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ४७ ।
⋙ कबाइद
संज्ञा पुं० [अ० कवायद] दे० 'कवायद' । उ०—काहि कबाइद कहत हैं बाँधत किमि जल सोत ।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ७३५ ।
⋙ कबाड़
संज्ञा पुं० [सं० कर्पट प्रा० कप्पट = चियड़ा] [संज्ञा कबाड़ी] १. रद्दी चीज । काम में न आनेवाली वस्तु । अंगड़ खंगड़ । यौ०—काठ कबाड़ । कुड़ा कबाड़ = अंगड़ खंगड़ चीज । टूटी फूटी वस्तु । तुच्छ वस्तु । २. अंड बंड काम । व्यर्थ का व्यापार । तुच्छ व्यवसाय ।
⋙ कबाड़खाना
संज्ञा पुं० [हिं० कबाड़+ फा० खानहु] वह स्थान जहाँ बहुत सी टूटी फूटा या अव्यवस्थित रूप से वस्तुएँ रखी गई हों [को०] ।
⋙ कबाड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कबाड़] व्यर्थ की बात । झंझट । बखेड़ा ।
⋙ कबाड़िया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कबाड़] १. टूटी फूटी, सड़ी गली चीजें बेचनेवाला आदमी । अंगड़ खंगड़ बेचनेवाला मनुष्य । तुच्छ व्यवसाय करनेवाला पुरुष ।
⋙ कबाड़िया (२)
वि० क्षुद्र । नीच ।
⋙ कबाड़ी
संज्ञा पुं०— वि० [हिं० कबाड़] [स्त्री० कबाड़िन] दे० 'कबाड़िया' ।
⋙ कबाब
संज्ञा पुं० [अ०] सीखों पर भूना हुआ मांस । विशेष—खूब बारीक कटे या कुटे हुए मांस को बेसन में मिलाकर नमक और मसाले देकर गोलियाँ बनाते हैं । इन गोलियों को लोहे की सोख में गोदकर घी का पुट देकर कोयले की आँच पर भूनते हैं । क्रि० प्र०—करना ।—भूनना ।—लगना ।—लगाना ।—होना । मुहा०—कबाब करना = जलाना । दुःख देना । कष्ट पहुँचाना । कबाब लगना = कबाब पकना । कबाब होना = (१)भुनना । जलना । (२) क्रोध से जलना । जैसे,—तुम्हारी बात सुनकर तो देह कबाब हो जाती है ।
⋙ कबाबचीनी
संज्ञा स्त्री० [अ० कबाबा+ हिं० चीनी] १. मिर्च की जाति की एक लिपटनेवाली झाड़ी जो सुमात्रा, जावा आदि टापुओं तथा भारतवर्ष में भी कहीं कहीं होती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ कुछ कुछ बेर की सी पर नुकीली होती है और उनकी खड़ी नसें उभड़ी हुई मालूम होती हैं । इसमें मिर्च के से गोल गोल फल गुच्छों में लगते हैं । ये फल मिर्च से कुछ मुलायम खाने में कड़ुए और चरपरे होते हैं । इनके खाने के पीछे जीभ बहुत ठंढ़ी मालूम होती है । वैद्यक में इसे दीपन, पाचक और रेचक कहा है । २. कबाबचीनी का फल ।
⋙ कबाबी
वि० [अ० कबाब+ फा० ई (प्रत्य०)] १. कबाब बेचनेवाला । १. कबाब खानेवाला । मांसभक्षी । यौ०—शराबी कबाबी = मद्य—मांस—भोजी ।
⋙ कबाय पु
संज्ञा पुं० [अ० कबा] एक ढीला पहनावा । उ०—एक दोस्त हमहूँ किया, जेहि गल लाल कबाय । सब जग धोबी धोइ मरे, तो भी रंग न जाय ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ कबायली
संज्ञा पुं० [अ० कबाइली] १. कबीलों या फिरकों में रहनेवाले लोग । किसी कबीले का व्यक्ति ।
⋙ कबार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कारोबार या कबाड़] १. व्यापार । रोज- गार । उद्यम । व्यवसाय । लेनदेन । उ०—(क) एहि परिपालउँ सब परिवारू । नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) रानिन दिए बसन मनि भूषण राजा सहन भंडार । मागध सूत भाट नट याचक जहँ तँह करहिं कबीर । —तुलसी (शब्द०) । २. दे० 'कबाड़' ।
⋙ कबार (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा पेड़ या झाड़ी ।
⋙ कबारना †
क्रि० स० [देश०] उखाड़ना । उत्पाटन करना ।
⋙ कबाल
संज्ञा स्त्री० [देश०] खजूर का रेशा जिसे बटकर रस्सा बनाते हैं ।
⋙ कबाला
संज्ञा पुं० [अ० कबालहु] वह दस्तावेज जिसके द्वारा कोई जायदाद एक के अधिकार से दूसरे के अधिकार में चली जाय, बयनामा, दानपत्र इत्यादि । यौ०—कबालानवीस । कबला नीलाम । काट कबाला = बैनामा मियादी । कबाला लिखना = अधिकार दे देना । कबालेदार = जायदाद का अधिकारपत्रधारी । मुहा०—कबाला लिखाना या कबाला लेना = किसी जायदाद पर कब्जा करना । अधिकार में लाना । मालिक बनना । जैसे,— क्या तुमने उस घर का कबाला लिखा लिया है?
⋙ कबालानवीस
संज्ञा पुं० [अं० कबालहू+फा० नवीस] कबाला लिखने का काम करनेवाला मुहर्रिर ।
⋙ कबालानीलाम
संज्ञा पुं० [फा० कबाला+ पूर्त० लीलाम] नीलाम में बिकी हुई जायदाद की वह सनद जो नीलाम करनेवाला अपनी ओर से उसके खरीदनेवाले को दे । नीलाम का सर्टिफिकेट ।
⋙ कबाहट पु
संज्ञा स्त्री० [अ० कबाहतु] दे० 'कबाहत' ।
⋙ कबाहत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. बुराई । खराबी । २. मुश्किल । दिक्कत । तरद्दुद । अड़चन । झंझट । बखेड़ा । उ०—हमारे बसूल तो शाह साहब यह हैं कि निकाह में कोई कबाहत नहीं ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ६१ । क्रि० प्र०—उठाना ।—में डालना । ।—में पड़ना ।
⋙ कबि † (१)
संज्ञा पुं० [सं० कवि] दे० 'कवि' । उ०—सो को कबि जो छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर की ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५४४ ।
⋙ कबि (२) †
क्रि० वि० [हिं० कभी] दे० कभी उ०—कबि उत्तरि कबि पच्छिम धावै, सिलमल दीप मनु जाय समावै ।—प्राण०, पृ० ४५ ।
⋙ कबिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लगाम [को०] ।
⋙ कबित (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० कबित्त] दे० 'कबित्त' ।
⋙ कबित (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कवित्व] कवित्व । कविकर्म । काव्य ।
⋙ कबिता (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कवयितृ, कबयिता] कविता करनेवाला । कवि । उ०—ज्ञानी गुनी चतुर और कबिता, राजा रंक नरेश ।—कबीर श०, भा०१, पृ० ६ ।
⋙ कबिता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कविता] दे० 'कविता' ।
⋙ कबिताई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कबिता+ ई (प्रत्य०)] दे० 'कविताई' । उ०—पढ़ै पुरान गरैथ रात दिन, करै कबिताई सोई ।—जग० बानी०, पृ० ३३ ।
⋙ कबित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कपित्थ' ।
⋙ कबिनाह पु
संज्ञा पुं० [सं० कविनाथ] कविश्रेष्ठ । उ०—प्रेम कथन तैं जानिए, बरनत सब कबिनाह ।—मति० ग्रं०, पृ० ३५४ ।
⋙ कबिराइ †
संज्ञा पुं० [सं० कविराज] दे० 'कविराय' ।
⋙ कबिराव †
संज्ञा पुं० [सं० कवि+ हिं० राव] दे० 'कविराज' । उ०— उपजत जाहि बिलोक कै चित्त बीच रस भाव । ताहि बखानत नायका, जे प्रवीन कबिराव ।—मति० ग्रं०, पृ० २७३ ।
⋙ कबिल (१)
वि० [सं०] भूरापन लिए पीला [को०] ।
⋙ कबिल (२)
संज्ञा पुं० भूरापन लिए पीला रंग [को०] ।
⋙ कबिली
संज्ञा स्त्री० [देश०] मटर का एक प्रकार ।
⋙ कबीर (१)
संज्ञा पुं० [अ० अबीर=बड़ा, श्रेष्ठ] १. एक प्रसिद्ध वैष्णव भक्त का नाम । यौ०—कबीरपंथी । २. एक प्रकार का गीत या पद जो होली में गाया जाता है और प्रायः अश्लील होता है । उ०—अररर कबीर । तब के बाभन वे रहे पढ़ने बेद पुरान । अब के बाभन अस भये जो लेत घाट पर दान । भला हम साँच कहै में ना डरबै ।
⋙ कबीर (२)
वि० [अ०] श्रेष्ठ । बड़ा । जैसे अमीर कबीर । उ०—अल्ला है वह कबीर उल् अकबर । याने बुजुर्ग है वह बरतर ।— दक्खिनी०, पृ० ३०३ ।
⋙ कबीरपंथ
संज्ञा पुं० [हिं० कबीर+ पंथ] कबीर का चलाया संप्रदाय ।
⋙ कबीरपंथी
वि० [हिं० कबीर+ पंथई] कबीर का मतानुयायी । कबीर संप्रदाय का । जैसे,—कबीरपंथी साधु ।
⋙ कबीरबड़
संज्ञा पुं० [अ० अबीर=बड़ा+सं० वट=बड़] नर्मदा के किनारे भड़ौंच के पास का एक बड़ का पेड़ जिसका फैलाव या घेरा १४००० हाथ है और जिसके नीचे ७००० आदमी बड़े आराम से टिक सकते हैं ।
⋙ कबील
संज्ञा पुं० [अ० क़बील] १. मनुष्य । आदमी । २. समूह । समुदाय ।
⋙ कबीला (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कबीलह्] १. स्त्री । जोरू । २. जाति । ३. परिवार । ४. घर । ५. स्वजन । ६. परंमरा ७. वर्ग । श्रेणी ।
⋙ कबीला (२)
संज्ञा पुं० [अ० कबीलह्] १. कुल या वंश । २. जाति । ३. घर । ४. स्वजन । परिवार । ५. वर्गश्रेणी । ६. जंगली या असभ्य जनजातियों का छोटा बड़ा समूह जिसका कोई एक नायक या सरदार होता है ।
⋙ कबीला (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कमीला' ।
⋙ कबुर †
संज्ञा स्त्री० [अ० कब] दे० 'कब्र' ।
⋙ कबुलवाना
क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] कबूल करवाना । स्वीकार करवाना ।
⋙ कबुलाना
क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] कबूल कराना । उ०—भगवत भक्ति करन कबुलाईल । तुरत आपने सदन सिधाई ।— रघुराज (शब्द०) ।
⋙ कबुलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी जानवर का पिछला भाग या हिस्सा [को०] ।
⋙ कबू
क्रि० वि० [हिं० कभू > कभी] दे० 'कभी' । उ०—ऐसा भगत मैं कबू न पाया । नामदेव ने देव हसाया ।—दक्खिनी०, पृ० १९ ।
⋙ कबूतर
संज्ञा पुं० [फा० तुलनीय सं० कपोत] [स्त्री० कबूतरी] एक पक्षी । विशेष—यह कई रंगो का होता है और इसके आकार भी कुछ भिन्न भिन्न होते हैं । पैर में तीन उँगलियाँ आगे और एक पीछे होती हैं । यह अपने स्थान को अच्छी तरह पहचानता है और कभी भूलता नहीं । यह झुंड में चलता है । मादा दो अंडे देती है । केवल हर्ष के समय यह गुटरूगुँ का अस्पष्ट स्वर निकलता है । पीड़ा के तथा और दूसरे अवसरों पर नहीं बोलना । इसे मार भी डालें तो यह मुँह नहीं खोलता । गिरहबाज, गोला, लोटना, लक्का, शीराजी, बुगदादी इत्यादि इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं । शिखावाले कबूतर भी होते हैं । गिरबबाज कबूतरों से लोंग कभी कभी चिट्ठी भेजने का भी काम लेते हैं । क्रि० प्र०—उड़ाना=कबूतरबाजी करना ।
⋙ कबूतरखाना
संज्ञा पुं० [फा० कबूतरखानह्] वह स्थान जहाँ पाले हुए बहुत से कबूतर रखे जाते हैं । कबूरतों का बड़ा दरबा ।
⋙ कबूतरझाड़
संज्ञा पुं० [हिं० कबूतर+ झाड़] पित्तापापड़े की तरह की एक झाड़ी ।
⋙ कबूतरबाज
संज्ञा पुं० [फा० कबूतरबाज] कबूतर पालने का शौकीन ।
⋙ कबूतरी
संज्ञा स्त्री० [फा० कबूतर] १. कबूतर की मादा । २. नाचनेवाली । ३. सुंदर स्त्री ।—(बाजारू) ।
⋙ कबूद (१)
वि० [फा०] निला । आसमानी । कासनी ।
⋙ कबूद (२)
संज्ञा पुं० १. निला या आसमानी रंग । २. बंसलोचन का एक भेद जिसे 'नीलकंठी' भी कहते हैं ।
⋙ कबूदी
वि० [फा०] नीला । आसमानी ।
⋙ कबूल (१)
संज्ञा पुं० [अ० क़बूल] [संज्ञा कबूलियत, कबूली] स्वीकार । अंगीकार । मंजूर । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—कबूलरुख । कबूरसूरत= सुंदर । रूपवान ।
⋙ कबूल (२)
संज्ञा पुं० [?] ताजक ज्योतिष के १६ योगों में से एक ।
⋙ कबूलना
क्रि० स० [अ० कबूल से नाम०] स्वीकार करना । सकारना । मंजूर करना ।
⋙ कबूलियत
संज्ञा पुं० [अ० क़बूलियत] वह दस्तावेज जो पट्टा लेनेवाला । पट्टे की स्वीकृत्ति में ठेका पट्टा देनेवाले को लिख दे । स्वीकारपत्र ।
⋙ कबूली
संज्ञा स्त्री० [फा० क़बूली] चने की दाल की खिचड़ी अथवा पुलाव ।
⋙ कब्ज
संज्ञा पुं० [अ० क़ब्ज] १. ग्रहण । पकड़ । अवरोध । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—रूह कब्ज होना = होश गुम होना । २. दस्त का साफ न होना । मलावरोध । ३. मुसलमान राज्य के समय का एक नियम जिसके अनुसार कोई फौजी अफसर फौज की तनखाह के लिये किसी जमींदार से सरकारी लगान वसूल करता था । विशेष—यह दो प्रकार का होता था (१) लालकामी और (२) अमानी या वसूली । कब्ज लाकलामी वह कहलाता था जिसके अनुसार फौजी अफसर को तनखाह का नियमित रुपया पहले ही देना पडता था, चाहे उसे उस जमींदार से उतना वसूल हो या न हो । कब्ज अमानी या वसूली वह कहलाता था जिसके अनुसार वह फौजी अफसर उतना रुपया वसूल करता था जितना वह कर सके । इसके लिये उस फौजी अफसर को ५) सैकड़ा कमीशन भी मिलता था । इस दस्तूर को अकबर ने बंद कर दिया था, परंतु अवध के नवाबों ने इसे फिर जारी किया था । ४. वह शाही हुक्मनामा जिसके अनुसार वह फौजी अफसर उक्त रुपया वसुल करता था । यौ०—कब्जदार ।
⋙ कब्जकुशा
वि० [अ० कब्ज+फा़ कुशा] रेचक । कब्जनिवारक ।
⋙ कब्जा
संज्ञा पुं० [सं० कब्जह्] १. मूँठ । दस्ता । जैसे—तलवार का कब्जा । दराज का कब्जा । मुहा०—कब्जे पर हाथ डालना = (१) तलवार खींचने के लिये मूँठ पर हात ले जाना । (२) दूसरे की तलवार की मूँठ को पकड़ लेना और उसे तलवार न निकालने देना । दूसरे की तलवार को साहस से पकड़ना । कब्जे पर हाथ रखना = किसी के मारने के लिये तलवार की मूँठ पकड़ना । तलवार खींचने पर उतारु होना । २. लोहे या पीत्तल की चद्दर के बने हुए दो चौखूँटे टुकडे़ जो पकड से जुडे़ रहते हैं और सलाई पर घूम सकते हैं । इनसे दो पल्ले या टुकडे़ इस प्रकार जोडे जाते हैं जिसमें वे घूम सकें । किवाडों और संदूको आदि में ये जडे़ जाते हैं । नर- मादगी । पकड़ । ३. दखल । अधिकार । वश । इख्तियार । यौ०—कब्जादार । क्रि० प्र०—करना ।—जमाना ।—पाना ।—मिलना ।—होना । मुहा०—कब्जा उठाना = अधिकार का जाता रहना । ४. दंड । भुजदंड । डाँड । बाजू । मुश्क । ५. कुश्ती का एक पेंच । विशेष—यदि विपक्षी कलाई पकड़ता है तो खिलाड़ी दूसरे हाथ से उसपर चोट करता है अथवा अपनी खाली हाथ से उसकी कलाई पर झटका देता है और अपना हाथ खींच लेता है । इसे 'गट्टा' या 'पहुँचा' भी कहते हैं ।
⋙ कब्जादार (१)
संज्ञा पुं० [अ० कब्जह्+फा० दार (प्रत्य०)] [भाव० संज्ञा कब्जादारी ] १. वह अधिकारी जिसका कब्जा हो । २. दखीलकार असामी (अवध) ।
⋙ कब्जादार (२)
वि० जिसमें कब्जा लगा हो ।
⋙ कब्जियत
संज्ञा स्त्री० [अ० कब्जियत] पायखाने का साफ न आना । मलावरोध ।
⋙ कब्जुलवसूल
संज्ञा पुं० [अ०] वह कागज जिसपर तनखाह पानेवाला की भरपाई लिखी हुई हो ।
⋙ कब्र
संज्ञा स्त्री० [अ० कब्र] १. वह गढ्ढा जिसमें मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि अपने मुर्दे गाडते हैं । २. वह चबूतरा जो एसे गड्ढे के ऊपर बनाया जाता है । यौ०—कब्रिस्तान । मुहा०—अपनी कब्र खोदना = अपने विनाश का कार्य करना । कब्र का मुँह झाँकना या झाँक आना = मरते मरते बचना । उ०— वह कई बार कब्र का मुँह झाँक चुका हैं । कब्र में पैर या पाँव लटकाना = मरने को होना । मरने के करीब होना । बहुत बुढ्ढा होना । कब्र में तीन दिन भारी = मुसलमानों का खयाल है कि कब्र में मुर्दे का तीन दिन तक हिसाब किताब होता है । कब्रर में साथ ले जाना = मरते दम तक या मरकर भी न भूलना । कब्र से उठकर आना = मरते मरते बचना । पुनर्जीवन या नवजीवन ।
⋙ कब्रिस्तान
संज्ञा पुं० [अ० कब्र+फा० स्तान] वह स्थान जहाँ बहुत सी कब्रें हों । वह स्थान जहाँ मुर्दें गाडे जाते हों ।
⋙ कब्ल
अव्य० [अ० कब्ल] पूर्व । पहले । पेश्तर । यौ०—कब्ल अज वक्त = समय से पूर्व ।
⋙ कभी
क्रि० वि० [हिं० कब+ही] १. किसी समय । किसी घड़ी । किसी अवसर पर । जैसे, —(क) तुम वहाँ कभी गए हो ? (ख) हम वहाँ कभी नहीं गए हैं । विशेष—'कब' का प्रयोग उस स्थान पर होता है जहाँ क्रिया निश्चित होती है । जैसे, —तुम वहाँ कब गए थे ? 'कभी' का प्रयोग उस स्थान पर होता है जहाँ क्रिया और समय दोनों अनिश्चित हों । जैसे तुम वहाँ कभी गए हो ? मुहा०—कभी का = बहुत देर से । कभी कभी = कुछ काल के अंतर पर बहुत कम । कभी कभार = कभी कभी । कभी न कभी = किसी न किसी समय । आगे चलकर अवश्य किसी अवसर पर । जैसे, —कभी न कभी तुम अवश्य माँगने आओगे । कभी कुछ कभी कुछ = एक ढंग पर नहीं । (इस वाक्य का व्याकरण संबंध दूसरे वाक्य के साथ नहीं रहता, जैसे, उनका कुछ ठीक नहीं, कभी कुछ कभी कुछ) ।
⋙ कभुवक पु †
क्रि० वि० [हिं० कबहुँक] दे० 'कबहुँक' । उ०—कभुवक तेरा बाप है कभुवक तेरा पूत ।— सहजो०, पृ० २३ ।
⋙ कभू पु
क्रि० वि० [हिं० कभी] दे० 'कभी' । उ०—करतु सरस जलके लि कभू मीनहिं गहि लावतु । —सुजान०, पृ० ७ ।
⋙ कमंगर (१)
संज्ञा पुं० [फा० कमानगर] १. कमान बनानेवाला । कमान- साज । २. हड्डियों को बैठानेवाला । हाथ, पाँव या किसी जोड़ की उखडी हुई हड्डी को मलकर या दवा से असली जगह पर ले जानेवाला । ३. चितेरा । मुसौवर । चित्रकार ।
⋙ कमंगर † (२)
वि० किसी फन का उस्ताद । दक्ष । कुशल । निपुण । कारीगर ।
⋙ कमंगरी
संज्ञा पुं० [फा० कमानगर] १. कमान बनाने का पेशा या हुनर । २. हड्डी बैठाने का काम । ३. मुसौवरी । ४. कार्यकुशलता [को०] ।
⋙ कमंचा
संज्ञा पुं० [फा० कमानचह्] बढ़ई का कमान की तरह का एक टेढ़ा औजार जिसमें बँधी रस्सी को बरमें में लपेटकर उसे घुमाते हैं ।
⋙ कमंडल
संज्ञा पुं० [सं० कमण्डलु] दे० 'कमंडलु' । उ०—ब्रह्म कमंडल मंडन, भव खंडन सुर सरबस ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२ ।
⋙ कमंडली (१)
वि० [हिं० कमंडल+ई (प्रत्य०)] १. कमंडलु रखनेवाला । साधु । बैरागी । २. पाखंडी । आडंबरी ।
⋙ कमंडली (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्मा । उ०— मुख तेज सहस दस मंडली बुधि दस सहस कमंडली । नृप चहूँ और सोहित भली मंडलीक को मंडली ।—गोपाल (शब्द०) ।
⋙ कमंडलु
संज्ञा पुं० [सं०] १. संन्यासियों का जलपात्र जो धातु, मिट्टी, तुमडी, दरियाई नारियल आदि का होता है । २. पाकर या पक्कड़ का पेड़ । उ०—कमंडलु घाँटीं चामर ताँबा अर्धा पूला तिलपइती आ जम आटहल ।— वर्ण०, पृ० १२ ।
⋙ कमंडलुतरु
संज्ञा पुं० [सं० कमण्डलुतरु] पाकर या पक्कड का वृक्ष । वह वृक्ष जिसकी लकडी से कमंडलु बनाया जाता है [को०] ।
⋙ कमंडलुधर
संज्ञा पुं० [सं० कमण्डलुधर ] शिव । महादेव । शंकर [को०] ।
⋙ कमंद (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध] बिना सिर का धड । कबंध । उ०—(क) शीश सिखै साँई लखै, भल बाँका असवार । कमँद कबीरा किलकिया, केता किया शुमार ।—कबिर (शब्द०) । (ख) जब लग धर पर सीस है, सूर कहावै कोय । माथा टूटै धर लरै, कमँद कहावै सोय ।—कबीर (शब्द०) ।
⋙ कमंद (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १.रेशम, सूत या चमडे़ की फंदेदार रस्सी जिसे फेंककर जंगली पशु आदि फँसाएँ जाते हैं । लड़ाई में इससे शत्रु भी बाँधे और खींचे जाते थे । फंदा । पाश । २. फंदेदार रस्सी जिसे फेंककर चोर, डाकू आदि ऊँचे मकानों पर चढते हैं । फंदा । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।—फेंकना ।—लगाना ।
⋙ कमंध
संज्ञा पुं० १. दे० 'कबंध' ।२. कलह । लड़ाई । झगड़ा । ३. पु राठौर । उ०—कुल महिमा करणै कपण बुध बल पीढी बंध । सारा सूर जवाँसियाँ कुल रखवाल कमंध ।—रा० रू०, पृ० १० । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना ।
⋙ कम (१)
वि० [फा०] १. थोडा । न्यून । तनिक । अल्प । उ०—क्या कज अदाइयां हैं क्या कम निगाहियाँ है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४३ । यौ०—कमअक्ल = अल्पबुद्धि का । कमजोर । कमजात । कमसिन = थोड़ी अवस्था का । मुहा०—कम से कम = अधिक नहीं तो इतना अवश्य । जैसे,—कम से कम एक बार वहाँ हो तो आइए । (इस मुहावरे के साथ तो प्रायः आता है ।) २. बुरा । जैसे, —कमबख्त । कमअसल ।
⋙ कम (२)
क्रि० वि० प्रायः नहीं । बहुधा नहीं । जैसे—(क) वे अब कम आते हैं । (ख) वे अब कम मिलते हैं ।
⋙ कम (३) पु
क्रि० वि० [हिं० किमि] कैसे । क्योंकर । उ०—धत्तारो कम छंडइ ठामि ?—बी० रासो, पृ० ६० ।
⋙ कमअक्ल
वि० [अ०] बेककूफ । नासमझ । कम बुद्धिवाला [को०] ।
⋙ कमअसल
वि० [फा० कम+अ० अस्ल] वर्णसंकर । दोगला ।
⋙ कमउम्र
वि० [फा० कम+अं उम्र] अल्पवयस्क । कम अवस्था काम । छोटी उम्र का ।
⋙ कमकर
संज्ञा पुं० [सं० कर्मकार] १. कार्यकर्ता । २. श्रमिक । काम करनेवाला व्यक्ति । उ०—वहाँ कमकर और कामचोर श्रेणियाँ न थीं ।—मान०, पृ० २७ । ३. दस्तकार ।
⋙ कमकस
वि० [सं० कम+कसना] काम से जी चुरानेवाला । काहिल । सुस्त । कामचोर । उ०— जिस देश के बहुत मनुष्य सावधान और उद्योगी होते हैं, उनकी उन्नती होती जाती है, और जिस देश में असावधान और कमकस विशेष होते हैं, उसकी अवनति होती जाती है ।—परीक्षागुरु (शब्द०) ।
⋙ कमकीमत
वि० [फा० कम+अं० कीमत] कम दाम का । थोडे़ मूल्य का । सस्ता [को०] ।
⋙ कमखर्च
वि० [फा० कम+खर्च] किफायतसार । अल्पव्ययी [को०] । मुहा०—कमखर्च वाला नशीं = सस्ती और बढ़िया ।
⋙ कमखाब
संज्ञा पुं० [फा०कमख्वाब] एक प्रकार का मोटा और गफ रेशमी कपड़ा । विशेष—इसपर कलाबत्तू के बेल बूटे बने होते हैं । यह एकरुखा और दोरुखा दोनों तरह का होता है । इसका थान चार साढे़ चार गज का होता है और बडे़ दामों पर बिकता है । यह काशी में बुना जाता है ।
⋙ कमखुराक
वि० [फा० कम+खूराक] स्वल्पाहारी । मिताहारी । कम खानेवाला ।
⋙ कमखोरा
संज्ञा पुं० [फा० कमखोर] चौपायों का मुहँ का एक रोग जिसमें वे खाना नहीं खा सकते ।
⋙ कमख्वाब (१)
संज्ञा पुं० [फा० कमख्वाब] दे० 'कमख्वाब' । उ०— (क) हीरा मोती धँसते धँसते, जरी और कमख्वाब ।—हिम०, पृ० ५४ । (ख) बनारस के कमख्वाब वगैरे अब तक सब देशों में प्रसिद्ध हैं—श्रीनिवास ग्रं० (निवे०) पृ० १२ ।
⋙ कमख्वाब (२)
वि० [फा०] कम सोनेवाला । थोड़ा सोनेवाला [को०] ।
⋙ कमगो
वि० [फा० कम+गो] मितभाषी । कम बोलनेवाला ।
⋙ कमचा (१)
संज्ञा पुं० [तु०कमची] दे० 'कमची' ।
⋙ कमचा (२)
संज्ञा पुं० [फा० कमानचह्] दे० 'कमंचा' ।
⋙ कमची
संज्ञा स्त्री० [तु०, सं० कञ्चिका] १. बाँस, भाऊ आदि की पतली लचीली टहनी जिससे टोकरी बनाई जाती है । बाँस की पतली लचीली धज्जी । तीली । २. पतली लचदार छड़ी ३. पंजा लडाने में हाथ का झटका जिससे ऊँगलियाँ टूट जाती हैं । क्रि० प्र०—लगाना । ३. लकड़ी आदि की पतली फट्टी ।
⋙ कमच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं० कामाक्षा] आसाम प्रांत में कामरूप की एक देवी । उ०—कौरूँ देस कमच्चा देवी तहाँ बसै इसमाइल जोगी ।—(शब्द०) ।
⋙ कमजर्फ
वि० [फा० कम+ अ० ज़र्फ] अयोग्य । कुपात्र । ओद्दा । नीच [को०] ।
⋙ कमजात
वि० [फ० कमजात] तुच्छ वंश का । नीच जाति का । उ०—कोंचत करेजन कजाकी कमाजत काम कानन कमान तान कमान दिखावतो ।—श्यामा०, पृ० १३५ ।
⋙ कमजोर
वि० [फा० कमजोर] दुर्बल । निर्बल । असक्त ।
⋙ कमजोरी
संज्ञा स्त्री० [फा० कमजोरी] निर्बलता । दुर्बलता । नाताकती । अशक्तता ।
⋙ कमटा
संज्ञा पुं०[देश०] एक छोटा काँटेदार पौंधा ।
⋙ कमटी (१)
संज्ञा स्त्री० [तु० कमची] पेड़ की पतली लचीली टहनी ।
⋙ कमटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कमठी = बाँस] बाँस या लकड़ी की लचीली धज्जी । फट्टा ।
⋙ कमठ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कमठी] १. कछूआ । कच्छप । उ०— दिसि कुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ।—मानस, १ ।२६० ।२. साधुओं का तुंबा । ३. बाँस । ४. सलाई का पेड़ । ५. एक देत्य का नाम । ६. एक पुराना बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा रहता था ।
⋙ कमठा
संज्ञा पुं० [सं० कमठ = बाँस] १. धनुष । कमान । उ०— बैठी छाती की हड्डी अब, झुकी रीढ़ कमठा सी टेढ़ी ।— ग्राम्या, पृ० २९ । २. जैनियों के एक महात्मा का नाम जिसने तपोबल से सकाम निर्जरा प्राप्त की थी ।
⋙ कमठान
संज्ञा पुं० [सं० कम+स्थान] बखार । कठोर । खत्ती उ०— काफी अन्न एकत्र किया जा रहा है और शीघ्र ही किले के के कमठाने में जमा कर लिया जायगा । —झाँसी०, पृ० ३१ ।
⋙ कमठी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कछुई । उ०—कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी ।....सकुचि गात गोवत कमठी ज्यों हहरि हृदय बिकल भइ भारी ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कमठी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कमठ = बाँस] बाँस की पलती लचीली धज्जी । फट्टी ।
⋙ कमतर
वि० [फा०] बहुत कम । न्यूनतम । लघुतर ।
⋙ कमतरीन
वि० [फा०] बहुत ही कम । लघुतम । बहुत छोटा । विशेष—इस शब्द का प्रयोग वक्ता नम्रता दिखलाने के लिये भी करता है ।
⋙ कमतवज्जही
संज्ञा स्त्री० [फा० कम+ अ० तवज्जुही] लापरवाई । रूखापन [को०] ।
⋙ कमती (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० कम+त, ती (प्रत्य०)] कमी । घटती ।जैसे—(क) दाम में कुछ कमती बढ़ती नहीं करेंगे । (ख) उनके यहाँ कुछ कमती है
⋙ कमती (२)
वि० कम । थोडा । जैसे—वह सौदा कमती देता है ।
⋙ कमतोला
वि० [फा० कम+हिं० तोला] कम तोलने या डाँडी मारनेवाला ।
⋙ कमदणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' । उ०— धँण कँमलाँणी कमदणी, सिसहर ऊहइ आइ ।—ढोला०, दू० १२९ ।
⋙ कमदिला
वि० [फा० कम+दिल] संकीर्ण तबीयतवाला । छोटे दिलवाला । तंगदिल । उ०—से गुनहगार गरीब गाफिल कम- दिला दिलजार ।—रै० बानी, पृ० २८ ।
⋙ कमध
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध] दे० 'कबंध' । उ०— पंच पचीस रिपु रीस करि निर्दलै सीस भुइ मेल्हि को कमध खेलै । —सुंदर ग्रं० (भू०), भा० १, पृ० १०७ ।
⋙ कमधज्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० कबन्ध+ज] सिर कट जाने पर भी लड़ते रहनेवाला व्यक्ति और उसकी वंशपरंपरा के लोग । राठौर । उ०— दिल्ली वै आनंग राज राजग अंभंग । ता उप्पर कमधज्ज सेन सज्जी चतुरंग ।—पृ० रा०, १ ।३२१ ।
⋙ कमन (१)
वि० [सं०] १. कामुक । कामी । २. कांक्षी । सुंदर [को०] ।
⋙ कमन (२)
संज्ञा पुं० १. कामदेव । २. अशोक वृक्ष । ३. ब्रह्मा [को०] ।
⋙ कमन (३)
सर्व [हिं० कौन] दे० 'कौन' । उ०—हति तुरय पदादि पयभर कमन सहि ओ रे ।—विद्यापति, पृ० ९ ।
⋙ कमनचा
संज्ञा पुं० [हिं० कमंचा] दे० 'कमंचा' ।
⋙ कमनजर
वि० [फा० कम+अ० नजर] संकीर्ण दृष्टिवाला । अदूरदर्शी ।
⋙ कमनसीब
वि० [फा० कम+अ० नसीब ] हतभाग्य । मंदभाग्य । अभागा ।
⋙ कमनसीबी
संज्ञा स्त्री० [फा० कम+अ० नसीबी] भाग्यहिनता । बदकिस्मती ।
⋙ कमना पु
क्रि० अ० [फा०] कम होना । न्यून होना । घटना । उ०—दोउ श्रमत नहिं पद झूमत नहि उर कमत कोप न घोर । बहु विधि अखंडल कहत मंडल तनु बराबर जोर ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) कमिहै नहिं यह द्रव्य सुहाई । वचन मानि मम अब घर जाई ।—रघुराज (शब्द०) । विशेष—यह प्रयोग अनुचित और व्यवहारविरुद्ध है ।
⋙ कमनी पु
वि० [सं० कमनीय] दे० 'कमनीय' । उ०—रमनी कमनी चुंबन बिनु सब फीक ।—श्यामा०, पृ०,१२५ ।
⋙ कमनीय
वि० [सं०] १. कामना करने योग्य । २. मनोहर । सूंदर । उ०—....कमनीय कविकर्म कौशल, काव्य—कला कोविदत्व और विशदद विद्वत्ता की आवश्यकता है ।—रस क० (प्राक्०) पृ० २ ।
⋙ कमनैत
वि० [फा० कमान+हिं०ऐत (प्रत्य०)] [संज्ञा कमनैती] कमान चलानेवाला । तीरंदाज । उ०—(क) मानो अरविंदन पै चंद्र को चढ़ाय दीनी मान कमनैत विन रोदा की कमानै द्वै ।—पद्माकर (शब्द०) । (ख) नई कमनैत नई ये कमान नए नए बान नई नई चोटैं । (शब्द०) ।
⋙ कमनैती
संज्ञा स्त्री० [फा० कमान+हिं० ऐती (प्रत्य०)] तीर चलाने की विधा । तीरंदाजी । धनुर्विद्या । उ०—(क) तिय कत कमनैती पढी, बिन भौंह कमान । चित चल बेझे चुकती नहिं बंक बिलोकनी बान ।—बिहारी (शब्द०) । (ख) निरखत बन घनश्याम कहि, भेंटन उठती जुबाम । बिकल बीच ही करत जनु, करि कमनैती काम ।—पद्माकर (शब्द०) ।
⋙ कमबख्त
वि० [फा० कमबख्त] भाग्यहिन । अभागा । बदनसीब । उ०—किसी तरह यह कमबख्त हाथ आता तो और राजपूत खुद बखुद पस्त हो जाते ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२१ ।
⋙ कमबख्ती
संज्ञा स्त्री० [फा० कमबख्ती] बदनसीबी । दुर्भाग्य । अभाग्य । क्रि० प्र० —आना । मुहा०—कमबख्ती का मारा = दुर्भाग्यग्रस्त [को०] ।
⋙ कमयाब
वि० [फा०] जो कम मिले । दुर्भाग्यग्रस्त [को०] ।
⋙ कमरंग
संज्ञा पुं० [हिं० कमरख] दे० 'कमरख' ।
⋙ कमरंद
वि० [फा०कम+हिं० रिंघ या रंद] कम उबाला । कच्चा । जो ठीक से सीझा न हो । रूखा । मोटा । उ०—सहज सून्य, चिंता नाम आवरण, वरण, त्रिकुटी, बासा विवेक घर, अजपा द्वार, निहकाम पैसार, संतोष निसार, कमरंद अहार, अगम व्यौहार । इन चित मारंग जीव अनुसरै तो स्वरूप युक्त भोगवै ।—गोरख०, पृ० २३४ ।
⋙ कमर (१)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. शरीर का मध्य़ भाग जो पेट और पीठ के नीचे पेडू और चूतर के ऊपर होता है । शरीर के बीच का घेरा जो पेट और पीठ के नीचे पडता है । कटि । यौ०—कमरकस । कमरदोआल । कमरबंद । कमरबस्ता । मुहा०—कमर करना = (१) घोडों का इस प्रकार कमर उछालना कि सवार का आसान उखड जाय । (२) कबूतर का कलाबाजी करना । कमर कसना = (१) किसी काम को करने के लिये तैयार होना । उद्यत होना । उतारू होना । तत्पर होना । कटिबद्ध होना । (२) चलने को तैयारी करना । गमनोद्यत होना । (३) किसी काम को करने की दृढ प्रतिज्ञा करना । संकल्प करना । इरादा करना । उ०—दूसरा उसी को अश्लील मानकर वाद करने के लिये कमर कस लेता है ।—रस क० (विशेष), पृ० ४ । कमर खोलना = (१) कमरबंद उतारना । पटका खोलना । (२) विश्राम करना । दम लेना । सुस्ताना । ठहरना । (२) किसी काम को करने का इरादा छोड देना । संकल्प छोडना । (४) किसी उद्यम से मन हटाना । किसी उद्योग का ध्यान छोड़ देना । निश्चिंत बैठना । (५) हिम्मत करना । हतोत्साह होना । कमर टूटना = आशा टूटना । निराश होना । उत्साह का न रहना । जैसे, —जब से उनका ल़डका मरा है, तब से उसकी कमर टूट गई । कमर तोड़ना = हताश करना । निराश करना । कमर बाँधना = (१) कमर में पट्टा या दुपट्टा बाँधना । कमरबंद बाँधना । पेटी लगाना ।(२) दे० 'कमर कसना' । उ०—खैरख्वाही कर उसकी ख्वारी पर कमर बाँधी है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५१ । कमर बैठ जाना = दे० 'कमर टूटना' । कमर सीधी करना = औँठगकर विश्राम करना । लेटकर थकावट मिटाना । २. कुश्ती का एक पेंच जो कमर या कूल्हे से किया जाता है । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—कमर की टँगडी = कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब शत्रु पीठ पर रहता है और उसका बाँया हाथ कमर पर होता है, तब खिलाडी भी अपना बाँया हाथ उसकी बगल में से ऊपर चढ़ाकर कमर पर ले जाता है और बाईं टँगडी मारते हुए चुतड़ से उठाकर उसे सामने गिराता है । ३. किसी लंबी वस्तु के बीच का वह भाग जो पतला या धँसा हुआ हो । जैसे—कोल्हु की कमर = कोल्हू का गडारीदार मध्य भाग जिसपर कनेट और भुजेला घूमते हैं । ४. अँगरखे या सलूके आदि का वह भाग जो कमर पर पडता है । लपेट । यौ०—कमरपट्टी ।
⋙ कमर (१)
संज्ञा पुं० [अं० कमर] चाँद । चंद्र । चंद्रमा । उ०— बैठे जो शाम से तेरे दर पर सहर हुई । अफसोस अय कमर कि न मुतलक खबर हुई ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ८५५ ।
⋙ कमरकश
संज्ञा पुं० [फा०] बहादुर । वीर पुरुष ।
⋙ कमरकस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कमर+फा० कश] पलास का गोंद । ढक का गोंद । चुनिया गोंद । विशेष—यह गोंद पलास की पेड से आपसे आप भी निकलता है और छीलकर भी निकाला जाता है । इसके लाल लाल चमकीले टुकडे बाजारों में बिकते हैं जो स्वाद में कसैले होते हैं । यह गोंद पुष्टई की दवाओं में पडता है । वैद्यक में इसे मलरोधक तथा संग्रहणी और खाँसी को दूर करनेवाला माना जाता है ।
⋙ कमरकस † (२)
संज्ञा पुं० [फा० कमर+हिं० कसना ] १. करधनी । २. पेटी । कमरबंद । ३. फेंटा ।
⋙ कमरकसाई
संज्ञा स्त्री० [फा० कमर+हि० कसना] वह रुपया पैसा जो सिपाही लोग अगले समय में अपने असामियों को पेशाब पाखाने की छुट्टी देने के वदले में वसूल करते थे ।
⋙ कमरकोज
वि० [फा० कमर+अं कौज = वक्रता] कुबडा । कमर- टूटा । कुब्ज ।
⋙ कमरकोट
संज्ञा पुं० [फा० कमर+हिं० कोट] १. कमर भर या और उँची दीवार जो प्रायः किसी और नगरों की चारदीवारियों (परकोटे या शहरपनाह) के ऊपर होती है और जिसमे कंगूरे और छेद होते हैं । २. रक्षा के लिये घेरी हुई दिवार ।
⋙ कमरकोटा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कमरकोट' ।
⋙ कमरकोठा
संज्ञा पुं० [फा० कमर+हिं० कोठा] कोठे की वह कडी या धरन जो दीवार के बाहर निकली हो ।
⋙ कमरख
संज्ञा पुं० [सं० कर्मरड्ग, प्रा० कम्मरंग] १. मध्यम आकार का एक पेड़ का नाम जो हिंदुस्तान के प्रायः सभी प्रांतों में मिलता है । कर्मरंग । कमरंग । विशेष—इसकी पत्तियाँ अँगुल डेढ अँगुल चौडी, दो अंगुल लंबी और कुच नुकीली होती है तथा सीकों से लगती हैं । यह जेठ आसाढ में फूलता हैं । फूल झड जाने पर लंबे लंबे पाँच फाँकोंवाला फल लगते हैं, जो पूस माघ में पकते और पककर खूब पीले होते हैं । कच्चे फल खट्टे और पक्के खटमिठे होते हैं । इनमें कसाव बहुत होता है, इसीलिये पक्के फलों में चूना लगाकर खाते हैं । फल अधिकतर अचार चटनी आदि के काम में आता है । कच्चे फल रँगाई के काम में भी आते हैं । इससे लोहे के मुर्चे का रंग दूर हो जाता है । वैद्य लोग इसके फल, जड और पत्तियों को औषध के काम लाते हैं । खाज के लिये यह अत्यंत उपयोगी माना जाता है । २. उक्त पेड़ के फल का नाम ।
⋙ कमरखी (१)
वि० [हिं० कमरख] कमरख के जैसा । कमरख के समान फाँकदार । जिसमें कमरख के ऐसी उभडी हुई फाँके हों । जैसे, कमरखी गिलास । कमरखी चिलम ।
⋙ कमरखी (२)
संज्ञा स्त्री० किसी गोल चीज के किनारे पर कटी हुई कँगूरेदार फाँके । क्रि० प्र०—काटना ।—काढना ।—बनाना ।
⋙ कमरचंडी पु
संज्ञा स्त्री० [फा० कमर+सं० चण्डी] तलवार ।—डि० ।
⋙ कमरटूटा
वि० [फा० कमर+हिं० टूटना] १. कुब्ज । कुबडा । २. नामर्द । सुस्त ।
⋙ कमरतेगा
संज्ञा पुं० [फा० कमर+ हिं० तेग] कुश्ती का एक पेंच ।
⋙ कमरदोआल
संज्ञा स्त्री० [फा० कमर+दोआल] चमड़े का वह तसमा जिससे घोडे़ की पीठ पर जीन आदि कसी जाती है ।
⋙ कतमरपट्टी
संज्ञा स्त्री० [फा० कमर+हिं० पट्टी] एक पतली पट्टी जो अँगरखे, सलूके आदि के घेरे में छाती के नीचे और कमर के उपर चारों ओर लगाई जाती हैं ।
⋙ कमरपेटा
संज्ञा पुं० [फा० कमर+हिं० पे़टा] १. मालखंभ कि एक कसरत । विशेष—यह दो प्रकार कि होती है । एक में तो बेंत कमर में लपेटते और उसके छोर को दोनों अँगूठो को तानकर ऐसा खींचते हैं कि ऐँडी चूतड़ के पास लग जाती है और कसरत करनेवाला अपनी धड़ नीचे झुकाकर हाथ छोड़ता हुआ झोंका खाता है । दूसरी में पहले मालखंभ पर सीधी पकड़ से चढते हैं । फिर जब पुर्वकाय निचा होता है, तब कसरत करनेवाला एक तरफ की टाँग से मालखंभ को लपेटता और खूब दबाता है तथा रियारी की पकड़ करता हुआ बराबर रद्दे देता है । यौ०—कमर लपेटे की उलटी = मालखंभ की एक कसरत । विशेष—इसमें पहले कमरलपेटा बाँधकर अगला धड हाथ समेत पीठ पर उलटा लटकाता और दूसरी और निकालकर बाँएंपैर की जाँघ और पिंडली के बीच फँसाता है फिर बाँएं हाथ के पंजे को विपक्षी के बाँएं हाथ के घुटने के पास भीतर से अडाता और दाहिने हाथ से उसके दाहिनी भुजा निकालकर या आगे बढ़ाकर हफ्ते के पेंच से उसे चित्त करता है ।
⋙ कमरबंद (१)
संज्ञा पुं० [फा०] [भाव० संज्ञा कमरबंदी] १. लंबा कपड़ा जिससे कमर बाँधते है । पटुका । २. पेटी । ३. इजार- बंद । नाड़ा । ४. वह रस्सी या डोरी जो किसी पदार्थ के मध्य भाग के चारों ओंर लपेटी जाय । क्रि० प्र०—बाँधना—लगाना । ५. लहासी जिसमें एक जहाज को दूसरे जहाज से बाँधते हैं या जिसमें लंगर बाँधते हैं । ६. जहाज के किनारे अँवठ से नीचे बाहर की तरफ चारों ओर कँगनी की तरह निकले हुए तख्ते जिनमें कुलाबे लगे रहते हैं । ये तख्ते बाहर से जहाज की मजबूती के लिये लगाए जाते हैं । ७. जहाज के किनारे बाहरी तरफ की रंगीन लकीरें या धारियाँ ।
⋙ कमरबंद (२)
वि० कमर कसे हुए । तैयार । मुस्तैद । कटिबद्ध ।
⋙ कमरबंदी
संज्ञा स्त्री० [फा०] लड़ाई की तैयारी । मुस्तैदी । संनद्धता ।
⋙ कमरबंध
संज्ञा पुं० [फा० कमर+सं० बन्ध] कुश्ती का एक पेंच । विशेष—जब दोनों पहलवानो की कमर परस्पर बँधी रहती है । और दोनों ओर से पूरा जोर लगता रहता है, तब खिलाड़ी विपक्षी की छाती के बल से अपनी और खींचकर दबाता है । और बाहरी टाँग मारकर चित्त करता है ।
⋙ कमरबल्ला
संज्ञा पुं० [फा०कमर+बल्ला] खपडे़ की छाजन में वह लकड़ी का पटुका जो तड़क के ऊपर और कोरों के नीचे लगाई जाती है । कमरबस्ता ।
⋙ कमरबस्ता
वि० [फा० कमरबस्तह] १. तैयार । प्रस्तुत । कटिबद्ध । संनद्ध । २. हथियारबंद । ३. दे० 'कमरकल्ला' । उ०— कमरबस्ता हिम्मत का भारी किया । अटल कस्द की हत मतारी किया ।— दक्खिनी०, पृ० १४७ ।
⋙ कमरा (१)
संज्ञा पुं० [लै० कैमरा] १. कोठरी । २. फोटोग्राफी का एक औजार जो संदूक के ऐसा होता है और मुँह पर लेंस या प्रतिबिंब उतारने का गोल शीशा लगा रहता है । विशेष—इस संदूक को आवश्यकतानुसार फैला या सिकोड़ सकते हैं । संदूक में पीछे की ओर अर्थात लेंस के सामने एक ग्राउंड ग्लास (कोरा शीशा) होता है जिसपर पहले फोकस करते हैं फिर उस ग्राउंड ग्लास को निकालकर स्लाइड रखते हैं जिसके भीतर प्लेट या फिल्म रहती है । स्लाइड पर पर्दा हटा देने से प्लेट या फिल्म खुल जाती है और लेंस खोलने से उसपर अक्स पड़ता है । कमरा दो प्रकार का होता है, एक भाथीदार और दूसरा सरकौआँ ।
⋙ कमरा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] दे० १.'कंबल' । २. 'कमला' ।
⋙ कमरिया (१)
संज्ञा पुं० [फा० कमर] एक प्रकार का हाथी जो डीलडौल में छोटा पर बहुत जबरदस्त होता है । इसकी सूँड़ लंबी और पैर मोटे होते हैं । बौना हाथी । नाटा हाथी ।
⋙ कमरिया (२) †
संज्ञा स्त्री० [हि० कमरा] दे० 'कमली' या 'कमरी' ।
⋙ कमरिया (३)‡
संज्ञा स्त्री० [हि० कमर] दे० कमर' ।
⋙ कमरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कमरा] दे० 'कमली' ।
⋙ कमरी (१)
संज्ञा पुं० [हि०] एक रोग जिसके कारण घोड़े सवार या बोझ को देर तक पीठ पर लेकर नहीं चल सकते, उनकी पीठ दबने या काँपने लगती है ।
⋙ कमरी (३)
वि० [हिं० कमर] चलने में पीठ मारनेवाला (घोड़ा) । कमजोर या कच्ची पीठ का (घोड़ा) । कुबड़ा । विशेष—कमरी घोड़े की पीठ कमजोर होती है, इसी से यह बोझ या सवारी लेकर दूर तक नहीं चल सकता, थोड़ी ही देर में उसकी पीठ कँप जाती है और बार बार पीठ कँपाता है । ऐसा घोड़ा ऐबी समझा जाता है ।
⋙ कमरी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. चरखी की मूँड़ी में लगी हुई डेढ़ बालिश्त की लंबी लकड़ी । २. छोटी फतुई । सलूका ।
⋙ कमरी (५)
संज्ञा पुं० [देश०] जहाज जिसकी कमर टूट गई हो । टूटा जहाज ।
⋙ कमरू †
संज्ञा पु० [सं० कामरूप] दे० 'कामरू' । उ०— कमरू माह कमिक्षा देवी । नीमखार मिसरख जम लेवी ।—कबीर सा०, पृ० ८०४ ।
⋙ कमरेंगा
संज्ञा पुं० [देश०] बंगाल की एक प्रकार की मिठाई ।
⋙ कमर्शल
वि० [अ०] व्यापार संबंधी । व्यापारिक ।
⋙ कमल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में होनेवाला एक पौधा । विशेषयह प्रायः संसार के सभी भागों में पाया जाता है । यह झीलों, तालाबों और गड़हों तक में होता है । यह पेड़ बीज से जमता है । रंग और आकार भेद से इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं, पर अधिकतर लाल, सफेद और नीले रंग के कमल देखे गए हैं । कहीं कहीं पीला कमल भी मिलता है । कमल की पेड़ी पानी में जड़ से पाँच छः अँगुल के ऊपर नहीं आती । इसकी पत्तियाँ गोल गोल बड़ी थाली के आकार की होती हैं और बीच के पतले डंठल में जड़ी रहती हैं । इन पत्तियों को पुरइन कहते हैं । इनके नीचे का भाग जो पानी की तरफ रहता है, बहुत नरम और हलके रंग का होता है । कमल चैत बैसाख में फूलने लगता है और सावन भादों तक फूलता है । फूल लंबे डंठल के सिरे पर होता है तथा डंठल या नाल में बहुत से महीन महीन छेद होता हैं । डंठल का नाल तोड़ने से महीन सूत निकलता है जिसे बटकर मंदिरों में जलाने का बत्तियाँ बनाई जाती हैं । प्राचीन काल में इसके कपड़े भी बनते थे । वैद्यक में लिखा है कि इस सूत के कपड़े से ज्वर दुर हो जाता है । कमल की कली प्रातः काल खिलती है । सब फूलों की पंखड़ियों या दलों का संख्या समान नहीं होती । पंखड़ियों के बीच में केसर से घिरा हुआ एक छत्ता होता है । कमल की गंध भौंरे को बड़ी प्यारी लगती है । मधुमक्खियाँ कमल के रस को लेकर मधु बनाती हैं जो आँख के राग के लिये उपकारी होता है । भीन्न भीन्न जाति कमल के फूलों की आकृतियाँ भीन्न भीन्न होती हैं । उमरा (अमेरिका) टापूमें एक प्रकार का कमल होता है जिसके फुल का व्यास १५ इंच और पत्ते का व्यास साढ़े छह फुट होता है । पंखड़ियों के झड़ जाने पर छत्ता बढ़ने लगता है और थोड़े दिनों में उसमें बीच पड़ जाते हैं । बीच गोल गोल लंबोतरे होते हैं तथा पकने और सूखने पर काले हो जाते हैं और कमलगट्टा कहलाते हैं । कच्चे कमलगट्टे को लोग खाते हैं और उसकी तरकारी बनाते हैं, सूखे दवा के काम आते हैं । कमल की जड़ मोटी और सूराखदार होती हैं और भसीड़ मिस्सा या मुरार कहलाती है । इसमें से भी तोड़ने पर सूत निकलता है । सूखे दिनों में पानी कम होने पर जड़ अधिक मोटी और बहुतायत से होती है । लोग इस तरकारी बनाकर खाते हैं । अकाल के दिनों में गरीब लोग इसे सुखाकर आटा पीसते हैं और अपना पेट पालते हैं । इसके फूलों के अंकुर या उसके पूर्वरूप प्रारभिक दशा में पानी से बाहर आने से पहले नतम और सफेद रंग के होते हैं और पौनार कहलाते हैं । पौनार खाने में मिठा होता हैं । एक प्रकार का लाल कमल होता है जिसमें गंध नहीं होती और जिसके बीज से तेल निकलता है । रक्त कमल भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मिलता है । इससे संस्कृत में कोफनद, रक्तोत्पल हल्लक इत्यादि कहते हैं । श्वेत कमल काशी के आसपास और अन्य स्थानों में होता है । इसे शतपत्र, महापद्म, नल, सीतांबुज इत्यादि कहते है । नील कमल विशेषकर कश्मीर के उत्तर और कहीं कहीं चीन में होता है । पीत कमल अमेरिका, साइबेरिया, उत्तर जर्मनी इत्यादि देशों में मिलता है । यौ०—कमलगट्टा । कमलज । कमलनाल । कमलनयन । पर्या०— अरविंद । उत्पल । सहस्रपत्र । शतपत्र । कुशेशय । पंकज पंकेरुह । तामरस । सरस । सरसीरुह । विषप्रसून । राजीव । पुष्कर । पंकज । अंभोरुह । अंभोज । अंबुज । सरसिज । श्रीवास । श्रीपूर्ण । इंदिरालय । जलजात । कोकनंद । बनज इत्यादि । विशेषजलवाचक सब शब्दों में ज', 'जात' आदि लगने से कमलवाची शब्द बनते हैं, जैसे, वरिज, नीरज, कंज आदि । २. कमल के आकार के एक पांसपिंड जो पेट में दाहिनी ओर होता है । क्लोमा । मुहा०—कमल खिलना = चित्त आनंदित होना । जैसे, —आज तुम्हारा कमल खीला है । ३. जल । पानी । उ०—हृदयकमल नैनकमल, देखिकै कमलनैन, होहुँगी कमलनैन और हौं कहा कहौं ।—केशव (शब्द) । ४. ताँबा । ५. [स्त्री० कमली] एक प्रकार का मृग । ६. सारस । ७. आँख का कोया । डेला । ८. कमल के आकार का पहल काटकर बना हुआ रत्नवंड । ९. योनि के भीतर कमलाकार अँगूठे के अगले भाग बराबर एक गाँठ जिसके ऊपर एक छेज होता है । यह गर्भाशय का मुख या अग्रभाग है । फुल । धरन । टणा । मुहा०—कमल उलट जाना = बच्चेद नीया गर्भाशय के मुँह का अपवर्तित हो जाना जिसमें स्त्रीयाँ वंध्या हो जाती हैं । १०. ध्रुवताल का दूसरा भेद जिसमें गुरु, लघु, द्रुत, द्रुतविराम, लघु और गुरु, यथाक्रम होते हैं । यथा—'धिधिकट धाकिट धिमि- धरि, थरकु गिड़ि गिड़ि, दिदिगन थों । ११. दीपक राग का दूसरा पुत्र । इसकी भार्या का नाम जयजयवंती है । १२. मात्रिक छंदो में छह मात्राओं का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में गुरु लघु गुरु लघु (ऽ। ऽ।) होता है । जैसे, दीनबंधु । शील सिंधु । १३. छप्पय के ७१ भेदों में से एक । इसमें ४३ गुरु, ६६ लघु, १०९ वर्ण और १५२ मात्राएँ होती हैं । १४. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसका प्रत्येक चरण एक नगण का होता है । जैसे,—न वन, भजन, कमल, नयन । १५. काँच का एक प्रकार का गिलास जिसमें मोमबत्ती जलाई जाती है । १६. एक प्रकार का पित्त रोग जिसमें आँखें पीली पड़ जाती हैं और पेशाब भी पीला आता है । पीलू । कमला । काँवर । १७. मूत्राशय । मसाना । मुतवर ।
⋙ कमल पु † (२
संज्ञा पुं० [सं० कपाल या देश०] शिर । मस्तक । उ०— (क) कर थापट फूटे कमल; नाखै नयणां नीर ।—बांकी ग्रं०, भा० २, पृ० २० । (ख) गोयंदराज गहिलौत आइ । बैठो सुकुँअर कमलं नवाइ ।—पृ० रा०, ६ ।१३४ । (ग) वेढ़ कमल लीधौ खग वाहे ।—रा० रू०, पृ० २९० ।
⋙ कमलअंडा
संज्ञा पुं० [सं० कमल = हि० अंड़ा] कमलगट्टा ।
⋙ कमलकंद
संज्ञा पुं० [सं० कमलकंद] कमल की जड़ । भिस्सा । भसीड़ । मुरार ।
⋙ कमलक
संज्ञा पुं० [सं०] लघु आकार का कमल । छोटा कमल [को०] ।
⋙ कमलगट्टा
संज्ञा पुं० [सं० कमल +ग्रन्यिक,> प्रा० *कमल+गट्टअ] कमल का बीज । पद्मबीज । कमलाक्ष । विशेष—कमल के बीज छत्ते में से निकलते हैं । इनका छिलका कड़ा होता है । छिलके के भीतर सफेद रंग की गिरी निकलती है जैसे वैद्य लोग ठंड़ी और मूत्रकारक मानते हैं तथा वमन, डकार आदि कई रोगों में देते हैं । कमलगट्टा पुष्टई में भी पड़ता है ।
⋙ कमलगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] कमल का छत्ता ।
⋙ कमलज
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।
⋙ कमलजात
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा । उ०—दिखि महिमा जसुमति तात की । सुधि बुधि गई कमलजात की ।—नंद० ग्रं०, पृ० २६२ ।
⋙ कमलनयन (१
वि० [सं०] [स्त्री० कमलनैनी] जिसके आँखें कमल की पंखड़ी की तरह बड़ी और सुंदर हों । सुंदर नेत्रवाला ।
⋙ कमलनयन (२
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. राम । ३. कृष्ण ।
⋙ कमलनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।
⋙ कमलनाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमल की डंडी जिसके ऊपर फूल रहता है । मृणाल ।
⋙ कमलपाणि
वि० [सं०] जिसके हाथ कमल के समान हों । उ०— विनायक एक हूपै आवै ना पिनाक ताहि, कोमल कमलपाणि राम कैसे ल्यावई ।—केशव (शब्द०) ।
⋙ कमलबंध
संज्ञा पुं० [सं० कमलबन्ध] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके अक्षरों को एक विशेष क्रम से लिखने पर कमल के आकार का चित्र बन जाता है ।
⋙ कमलबंधु
संज्ञा पुं० [सं० कमलबन्धु] सूर्य ।
⋙ कमलबाई
संज्ञा स्त्री० [हि० कमल+बाई] एक रोग जिसमें शरीर, विशेषकर आँखें पीली पड़ जाती है ।
⋙ कमलभव
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।
⋙ कमलभू
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।
⋙ कमलमूर पु †
संज्ञा पुं० [सं० कमल+मूल] दे० 'कमलमूल' । उ०— तिरपुटिय भाल शिल कमलमूर । इह भाँति ताव तप तपनि जूर ।—पृ० रा०, १ ।४८९ ।
⋙ कमलमल
संज्ञा पुं० [सं०] भसीड़ । मुरार । २. मस्तकस्थित सहस्त्रदल कमल का मूल भाग ।
⋙ कमलयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।
⋙ कमलवन
संज्ञा पुं० [सं०] कमलों का पुंज या समूह [को०] ।
⋙ कमलवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक व्याधि जिसमें शरिर, विशेषकर आँखें पीली पीली पड़ जाती हैं । पीलिया । पांड़ुरोग । दे० कमलबाई ।
⋙ कमलसंभव
संज्ञा पुं० [सं० कमलसम्भव] ब्रह्मा [को०] ।
⋙ कमल (१
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी । उ०—होती हैं ज्यों चाह दीनजन को कमला की । थी चिंतागंभीर चित्त में शकुंतला की ।—शकु०, पृ० १० । २. धन । ऐश्वर्य । ३. एक प्रकार की बड़ी नारंगी । संतरा । ४. एक नदी का नाम जो तिरहुत में है । दरभंगा नगर इसी के किनारे पर है । ५. एक वर्णवृत्त का नाम । दे० 'रतिपद' ।
⋙ कमला (२
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] १. एक कीड़ा जिसके ऊपर रोएँ होते हैं । मनुषों के शरीर में इसके छू जाने से खुजलाहट होती हैं । झाँझाँ । सूँड़ी । २. अनाज या सड़े फल आदि में पड़नेवाला लंबा सफेद रंग का कीड़ा । ढ़ोला । ढ़ोलट ।
⋙ कमलाई
संज्ञा पुं० [सं० कमल = कमल के समान लाल] एक पेड़ का नाम जो राजपूताने की पहाड़ियों और मध्य प्रांत में होता है । विशेष— यह पेड़ मियाने कद का होता है और जाड़े में इसके पत्ते झड़ जाते हैं । इसके हीर की लकड़ी चीरने पर लाल और पिर सूखने पर कुछ भूरी हो जाती है । यह वहुत चिकनी और मजबूत होती है तथा गाड़ी और कोल्हू बनाने के काम में आती हैं । अलमारियाँ और आरायशी समान भी इसके अच्छे बनते हैं । पत्तियाँ चारे के काम आती हैं । हाथी इसे बड़े चाव से खाते हैं । छाल चमड़ा रँगने के लिये तथा गोंद कागज बनाने और कपड़ा रँगने के काम आती है । इसे कमूल भी कहते हैं ।
⋙ कमलाकर
संज्ञा पुं० [सं०] सरोवर । तालाब । पुष्कर ।
⋙ कमलाकांत
संज्ञा पुं० [सं० कमलाकान्त] विष्णु । लक्ष्मीपति । विशेष— यह शब्द राम, कृष्ण आदि विष्णु के अवतारों के लिये भी आता है ।
⋙ कमलाकार (१
संज्ञा पुं० [सं०] छप्पय का एक भेद । इसमें २७ गुरु, ९८ लघु, १२५ वर्ण और १५२ मात्राएँ होती हैं ।
⋙ कमलाकर (२
वि० [सं०] [स्त्री० कमलाकारा] कमल के आकार का ।
⋙ कमलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल का बीज । कमलगट्टा । २. दे० 'कमलनयन' ।
⋙ कमलाग्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी की बड़ी बहन दरिद्रता ।
⋙ कमलानिवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. लक्ष्मी के रहने का स्थान । २. कमल का फूल । कमल ।
⋙ कमलापति
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मी के पति विष्णु ।
⋙ कमलालया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जिसका निवास कमल में हो । २. लक्ष्मी ।
⋙ कमलावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] पद्यावती छंद का एक दूसरा नाम ।
⋙ कमलासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. योग का एक आसन जिसे पद्मासन कहते हैं । दे० 'पद्मासन' ।
⋙ कमलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमल । २. छोटा कमल । ३. वह तालाब जिसमें बहुत कमल हों ।
⋙ कमलिनीकांत
संज्ञा पुं० [सं० कमलीनीकान्त] सूर्य [को०] ।
⋙ कमलिनीबंधु
संज्ञा पुं० [सं० कमलिनीबन्धु] सूर्य [को०] ।
⋙ कमली (१)
संज्ञा पुं० [सं० कमलिन्] ब्रह्मा ।
⋙ कमली (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कमरा] छोटा कंबल । उ०—शिशिरकणों से लदी हुई, कमली के भीगे हैं सब तार ।—झरना, पृ० ५ ।
⋙ कमलेक्षण
१संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसके नेत्र कमल जैसे हों । विष्णु [को०] ।
⋙ कमलेच्छन पु
संज्ञा पुं० [सं० कमलेक्षण] कमलनयन । विष्णु । उ०—चारि वरदानि तजि पाइ कमलेच्छन के, पाइक मलेच्छन के काहे को कहाइयै ।—कवित्त०, पृ० १०० ।
⋙ कमलेश
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मी के पति विष्णु ।
⋙ कमलो पु
संज्ञा पुं० [सं० क्रमेल, यू० कमेल] ऊँट । साँड़िया । उष्ट्र ।—डिं० ।
⋙ कमवाना
क्रि० स० [हिं० कमाना का प्रे० रूप] १. (धन) उपार्जन कराना । (रुपया) पैदा कराना । २. निकृष्ट सेवा कराना । जैसे,—पाखाना कमवाना (उठवाना) । दाढ़ी कमवाना (मुड़ाना) । ३. किसी वस्तु पर मिहनत कराके उसे सुधरवाना या कार्य के योग्य बनवाना । जैसे, चमड़ा कमवाना, खेत कमवाना ।
⋙ कमसखुन
वि० [फा़० कम+सख़ुन] मितभाषी । अल्पभाषी । कम बोलनेवाला [को०] ।
⋙ कमसमझी
संज्ञा स्त्री० [फा० कम+हिं० समझ] अल्पज्ञता । मूर्खता । नादानी । उ०—मेरी कमसमझी पर खीझकर रानी ने कहा ।—ज्ञानदान, पृ० ३५ ।
⋙ कमसरियट
संज्ञा पुं० [अं०] सेना का वह विभाग जो सेना के रसद पानी का प्रबंध करता है । फौज के मोदीखाने का मुहकमा ।
⋙ कमसिन
वि० [फ़ा०] [संज्ञा स्त्री० कमसिनी] कम उम्र का । छोटी अवस्था का । अल्पवयस्क ।
⋙ कमसिनी
संज्ञा स्त्री [फा़०] लड़कपन । बचपन । कमउमरी । अल्प- वयस्कता ।
⋙ कमहा †
वि० [हिं० काम+हा (प्रत्य०)] १. काम करनेवाला । २. मजदूर ।
⋙ कमहिम्मत
वि० [फा़ कम+अ० हिम्मत] जिसमें साहस कम हो । डरपोक ।
⋙ कमहैसियत
वि० अ० [फा़० कम+अ० हैसियत] १. अप्रतिष्ठित । २. हीन आर्थिक स्थितिवाला । ३. अकुलीन ।
⋙ कमांडर
संज्ञा पुं० [अं०] फौज का वह अफसर जो लेफ्टिनेंट के ऊपर और कप्तान के मानहत होता है । कमान । कमान अफसर । यौ०—कमांडर इन चीफ़ ।
⋙ कमैंडर—इन—चीफ
संज्ञा पुं० [अं० कमांडर इन चीफ़] फौज का सबसे बड़ा अफसर । प्रधान सेनापति । सेनाध्यक्ष ।
⋙ कमाँण पु †
संज्ञा स्त्री० [फा़० कमान] धनुष । उ०—सतगुरलई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर । एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर ।—कबीर ग्रं०, पृ० १ ।
⋙ कमाँच †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कमाच' । उ०—का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच । काम जो आवै कामरी, का लैकरै कमाँच ।—संतवाणी०, पृ० ७५ ।
⋙ कमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सौंदर्य । लावण्य । छबि [को०] ।
⋙ कमाइच †
संज्ञा स्त्री० [फा़० कमान] १. छोटी कमान । कमानचा । २. सारंजी बजाने की कमानी । उ०—बीना बेनु कमाइच गहे । बाजे तहँ अमृत गहगहे ।—जायसी (शब्द०) ।
⋙ कमाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमाना] १. कमाया हुआ धन । अर्जित द्रव्य । उ०—गहा बाँहा उवारूँ तोहि राई । यहि हंसन की अहै कमाई ।—कबीर सा०, भा० ४, पृ० ५५७ । क्रि० प्र०—करना ।—होना । १. कमाने का काम । व्यवसाय । उद्यम । धंधा । जैसे,—दिन भर किस कमाई में रहते हो ।
⋙ कमाऊ
वि० [हिं० कमाना] उद्यम व्यापार में लगा रहनेवाला । धनोपार्जन करनेवाला । कमानेवाला । कमासुत । जैसे,— कमाऊ पूत ।
⋙ कमागर †
संज्ञा पुं० [हिं० कमंगर] दे० 'कमंगर—'१. । उ०— जनहरिया सतगुर इसा जिसा कमागर होय । शब्द मशकला फेर करि दाग न राथै कोय ।—राम० धर्म०, पृ० ५४ ।
⋙ कमाच
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा । उ०—काम जो आवै कामरी का लै करै कमाँच ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कमाची (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०कमची] दे० 'कमची' ।
⋙ कमाची (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० कमानचा] कमान की तरह झुकाई हुई तीली ।
⋙ कमाचीदार
वि० [फा़०] कमानीदार । घुमावदार । कमचीदार । उ०—अपने कमाचीदीर गौन को, जो किसी बड़े छाते से कम नहीं होते ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६१ ।
⋙ कमान (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. धनुष । कमठा । यौ०—कमानगर । मुहा०—कमान उतारना = कमान का चिल्ला या रोंदा उतार देना । कमान खींचना = कमान पर तीर तढ़ाकर उसके रोदे को अपने ओर खींचना । कमान चढ़ना = (१) दौरदौरा होना । जैसे,—आज कल उन्हीं की कमान चढ़ी हुई है । (२) त्योरी चढ़ना । क्रोध में होना । कमान चढ़ाना = कमान का चिल्ला चढ़ाना । कमान तानना = दे० 'कमान खींचना' । २. इंद्रधनुष । क्रि० प्र०—निकलना । ३. मेहराबदार बनावट । मेहराब । ४. तोप । उ०—हवाई सी छूटी केसोदास आसमान मैं, कमान कैसो गोला हनुमान चल्यो लंक को ।—रामचं०, पृ० ६२ । ५. बंदूक । उ०—गरगज बाँध कमानैं धरीं । बज्र अगिन मुख दारू भरी ।—जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—चढ़ना ।—दगना । ५. मैलखंभ की एक कसरत । विशेष—इसमें मालखंभ के गले की खाँच या मुँगरे की संधि पर एक ओर पैर और दूसरी ओर हाथ रखकर पेट को ऊपर उठाते हैं । यौ०—कमान की लोटन = कमान करते समय मुँगरे पर एक हाथ से मुँगरा लपेटना और पाँव उड़ाकर मालखंभ से कमर- पेटे के समान नीचे आते हुए लिपट जाना । ६. कालीन बुननेवालों का औजार । ७. एक यंत्र जिससे दो तारों या वस्तुओं के बीच के कोणांश की दूरी अथवा क्षितिज से किसी तारे की ऊँचाई मापी जाती है । विशेष—इसमें एक शीशा लगा रहता है जिसपर दोनों तारों की छाया ठीक नीचे ऊपर आ जाती है । इस शीशे के सामने एक दूरबीन लगी रहती है ।
⋙ कमान (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० कमांड] १. आज्ञा । हुक्म । फौजी काम की आज्ञा । यौ०—कमान । अफसर । २. नौकरी । ड्यूटी । फौजी काम । मुहा०— कमान पर जाना = नौकरी पर जाना । लड़ाई पर जाना । कमान पर होना = काम पर जाना । लड़ाई पर होना । कमान बोलना = (१) नौकरी पर जाने की आज्ञा देना । (२) लड़ाई पर जाने की आज्ञा देना । कमान बोली जाना = काम या लड़ाई पर जाने की आज्ञा मिलना ।
⋙ कमान अफसर
संज्ञा पुं० [अं० कमांडिंग आँफिसर] फौज का वह अफसर जो कप्तान के मातहत, पर लेफ्टिनेंट से ऊपर होता है । कमानियर ।
⋙ कमानअब्रू
वि० [फा़० कमाँअब्रू] जिसकी भौंहें धनुष की तरह टेढ़ी और सुंदर हों ।
⋙ कमानगर
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'कमंगर' ।
⋙ कमानगरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दे० १. छोटी कमान । २. सारंगी बजाने की कमानी । ३. मिहराब । डाट । धुनकी । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।
⋙ कमानदार (१)
संज्ञा पुं० [अं० अमांडर] फौजी अफसर ।
⋙ कमानदार (२)
वि० [फा०] १. मेहराबदार । २. धनुर्धर ।
⋙ कमानपुश्त
वि० [फा़० कमाँपुश्त] कुबड़ा । कुब्ज ।
⋙ कमान (१)
क्रि० स० [हिं० काम से नाम] १. व्यापार का उद्यम से धन उपार्जन करना, कामकाज करके रुपया पौदा करना । मुहा०—कमाना धमाना = उद्यम व्यापार करना । कामकाज करके रुपया पौदा करना । संयो० क्रि०—रखना । लेना । २. उद्यम या परिश्रम से किसी वस्तु को अधिक दृढ़ करना । सुधरना या काम के योग्य बनाना । जैसे, खेत कमाना, चमड़ा कमाना, लोहा कमाना । यौ०—कमाई हुई हड्डी या देह = कसरत से बलिष्ट किया हुआ शरीर । कमाया साँप = वह साँप जिसके विषैले दाँत उखाड़ लिए गए हों (मदारी) । ३. सेवा संबंधी छोटे मोटे काम करना । जैसे, पाखाना कमाना (उठाना), घर कमाना, दाढ़ी कमाना (मूँड़ना) । ४. कर्म संचय करना । कर्म करना । जैसे, पाप कमाना, पुण्य कमाना । उ०—जो तू मन मेरे कहे राम कमातो । सीतापति संमुख सुखी सब ठाँय समातो ।—तुलसी (शब्द०) ।
⋙ कमाना (२)
क्रि० अ० १. तुच्छ व्यवसाय करना । मेहनत मजदूरी करना । जैसे,—वह कमाने गया है । २. कसब करना । खर्ची कमाना । जैसे,—अब तो वह इधर उधर कमाती फिरती है ।
⋙ कमाना † (३)
क्रि० स० [हिं० कम से नाम०] काम करना । घटाना । (बजारु) । जैसे,—इस सौदे में ५) और कमाओ तो हम इसे ले लें ।
⋙ कमानिया (१)
संज्ञा पुं० [फा़० कमान+हिं० इया (प्रत्य०)] कमान चलानेवाला । धनुष चलानेवाला । तीरंदाज । उ०—चुगुलन चूकै कबहूँ को अरु चूकै सब कोइ । बरकदाज कमानियाँ चूक उनहुँ से होइ ।—गिरिधर (शब्द०) ।
⋙ कमानिया (२)
वि० [हिं० कमानी+इया (प्रत्य०)] १. जिसमें किसी प्रकार की कमानी लगी हो । २. जिसमें किसी प्रकार की मेहराब या अर्धवृत्त हो । मेहराबदार ।
⋙ कमानी
संज्ञा स्त्री० [फा़० कमान] [वि० कमानीदार] १. लोहे की तीली, तार अथवा इसी प्रकार की और कोई लचीली वस्तु जो इस प्रकार बैठाई हो कि दाब पड़ने से दब जाय और हटने पर फिर अपनी जगह पर आ जाय । उ०— कमर कमानी बार तार सों सुंदर ताहि सजायो है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३५८ । विशेष—कई फेटों में कोई लपेटा हुआ तार, लोहे को झुका के बैठाई हुई पट्टियाँ आदि कमानी का काम देती हैं । कमानी कई कामों के लिये लगाई जाती है—गति के लिये; जैसे, घड़ी, पंखे आदि में । झटका बचाने के लिये; जैसे, गाड़ी में । दाब के द्वारा तौल का अंदाज करने के लिये; जैसे तौलने के काँटे में । किसी वस्तु को झटके के साथ खोलने या बंद करने के लिये; जैसे किवाड़ में । एक साथ कई काम करनेवाली कलों के किसी कार्य को रोकने के लिये; जैसे, छापने वा खरादने की मशीन में । क्रि० प्र०—उतारना ।—चढ़ाना ।—जड़ना ।—बैठाना ।— लगाना । यौ०—बालकमानी = घड़ी का एक बहुत पतली कमानी जिसके सहारे कौआ या चक्कर घूमता है । २.झुकाई हुई लोहे की लचीली तीली । जैसे, छाते की कमानी, चश्मे की कमानी । ३. एक प्रकार की चमड़े की पेटी जिसके भीतर लोहे की लचीली पट्टी होती है और सिरों पर गद्दियाँ होती हैं । विशेष—इसे आँत उतारनेवाले रोगी कमर में इसलिये लगाते हैं जिसमें आँत उतरने का मार्ग बंद रहे । ४. कमान के आकर की कोई झुकी हुई लकड़ी जिसमें दोनों सिरों के बीच में रस्सी, तार या बाल बँधा हो जैसे, सारंगी की कमानी, (बढ़ई के) बरमे की कमानी, हक्काकों की कमानी (जिससे नग या पत्थर काटने की मान घुमाई जाती है) । ५. बाँस की एक पतली फट्टी जो दरी बुनने के करघे में काम आती है ।
⋙ कमानीदार
वि० [फा़०] जिसमें कमानी लगी हो । कमानीवाला । जैसे, कमानीदार एक्का ।
⋙ कमायच
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमायज] दे० 'कमायज । उ०—सितार कमायच अरु मुहचंगा । ताल मृदंग न फेरी संगा ।—कबीर सा०, पृ० २४९ ।
⋙ कमायज
संज्ञा स्त्री० [फा० कमानचा] सारंगी आदि बजाने की कमानी ।
⋙ कमाल (१)
संज्ञा पुं० [अ०] परिपूर्णता । पूरापन । मुहा०—कमाल को पहुँचना = पूरा उतारना । २. निपुणता । कुशलता । ३. अद्भुत् कर्म । अनोखा कार्य । उ०—बेगम साहब कमाल है । अल्ला जानता है कमाल है ।—फिसाना०, ३, पृ० २ । क्रि० प्र०—करना ।—दिखाना । ४. कारीगरी । सनअत । ५. कबीर के बेटे का नाम, जो कबीरदास ही की तरह फक्कड़ साधु था । कहते हैं, जो बात कबीर कहते थे, उसका उलटा ये कहते थे । जैसे, कबीर ने कहा—मन का कहना मानिए, मन है पक्का मीत । परब्रह्म पहिचानिए, मन ही की परतीत । कमाल ने कहा—मन का कहा न मानिए, मन है पक्का चोर । लै बोरै मजझार में, देय हाथ से छोड़ । इसी बात को लेकर किसी ने कहा है कि 'बूड़ा बंस कबीर का उपजा पूत कमाल' ।
⋙ कमाल (२)
वि० १. पूरा । संपूर्ण । सब । २. सर्वोत्तम । पहूँचा हुआ । ३. अत्यंत । बहुत । ज्यादा । उ०—बिचारे तमाल कमाल सोच में पड़ काले पड़ गए—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९ ।
⋙ कमाला
संज्ञा पुं० [अ० कमाल] पहलवानों की आपसी कुश्ती । विशेष—यह केवल अभ्यास बढ़ाने या हुनर दिखाने के लिये होती है और इसमें हार जीत का ध्यान नहीं रखा जाता ।
⋙ कमलियत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. परिपूर्णता । पूरापन । २. निपुणता । कुशलता ।
⋙ कमाली पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कपाली] दे० 'कपाली' । उ०—जुटे जद्दराणं, उभै अप्रमाणं । हूई वीर हक्कं, कमाली किलक्कं । — रा० रू०, पृ० १९१ ।
⋙ कमासुत
वि० [हिं० कमाना+सुत] १. कमानेवाला । कमाई करनेवाला । पैदा करनेवाला । २. उद्यमी ।
⋙ कमाहक्कहू
वि० [अ० कमाहक्कह्] बखूबी । उचित रूप में । ठीक ठीक । उ०—आज जमाने की रफतार और चलन है, उसी पर कमाहक्कहू अमल करते ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० १५९ ।
⋙ कमिक्षा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कमाक्षा] दे० 'कामाख्या' । उ०—कमरू माह कमिक्षा देवी । नीमखार मिसरख जम लेवी ।—कबीर सा०, पृ० ८०४ ।
⋙ कमिटी
संज्ञा स्त्री० [अं०] सभा । समिति ।
⋙ कमिता
वि० [सं० कमितृ] [स्त्री० कमित्री] १. कामुक । कामी । २. कामना रखनेवाला । चाहनेवाला ।
⋙ कमिया
संज्ञा पुं० [हिं० काम>कम+इयी (प्रत्य०)] दे० 'कमकर' । उ०—अधिकांश जनता दास और कमिया थी ।— मान०, पृ० १०५ ।
⋙ कमिश्नर
संज्ञा पुं० [अं०] १. माल का वह बड़ा अफसर जिसके अधिकार में कई जिले हों । २. वह अधिकारी जिसको किसी कार्य के करने का अधिकारपत्र मिला हो । ३. आयुक्त ।
⋙ कमिश्नरी
संज्ञा स्त्री० [अं० कमिश्नर] १. वह भूभाग जो किसी कमिश्नर के प्रबंधाधीन हो । २. डिवीजन । प्रमंडल । जैसे,— बनारस एक कमिश्नरी है । २. कमिश्नर की कचहरी । जैसे,— कमिश्नरी में मामला चल रहा है । ३. कमिश्नरी का काम या पद । जैसे,—उन्होंने कई वर्ष तक कमिश्नरी की थी ।
⋙ कमींण पु
वि० [फा़० कमीन] दे० 'कमीना' । उ०— कौन आपनी कमींण बिचारा, किसकूँ पूजै गरीब पियारा ।—दादू०, पृ० ६२८ ।
⋙ कमी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. न्यूनता । कोताही । घटाव । अल्पता । जैसे,—अभी पचास में दस की कमी है । क्रि० प्र०—करना । २. हानि । नुकसन । टोटा । घाटा । जैसे,—उन्हें इस साल ५) सैकड़े की कमी आई । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—होना ।
⋙ कमीज
संज्ञा स्त्री० [अ० कमीस, फा़० शेमीज] एक प्रकार का कुर्ता । विशेष—इसमें कली और चौबगले नहीं होते । पीठ पर चुनन, हाथों में कफ और गले में कालर होता है । यह पहिनावा अँगरेजों से लिया गया है ।
⋙ कमीन (१)
संज्ञा पुं० [अ०] घात, शिकीर या वार के लिये ओट ।
⋙ कमीन (२)
वि० [फा़०] नीच । अधम । खल । धूर्त । अकुलीन ।
⋙ कमीनगाह
संज्ञा पुं० [अ० कमीन+फा़० गाह] वह स्थान जहाँ से ओट में खड़े होकर तीर या बंदूक चलाई जाती है ।
⋙ कमीना
वि० [फा़० कमीनह्] [स्त्री० कमीनी] ओछा । नीच । क्षुद्र ।
⋙ कमीनापन
संज्ञा पुं० [हिं० कमीना+पन (प्रत्य०)] नीचता । ओछापन । क्षुद्रता ।
⋙ कमीनीबाछ
संज्ञा स्त्री० [फां० कमीना+हिं० बाछ = उगाहो] देहात में वह कर जो जमींनदार गाँव में उन बसनेवालों से बसुल करता है जो खेती नहीं करते ।
⋙ कमीला
संज्ञा पुं० [सं० कम्पिल्ल] एक छोटा पेड़ जिसके पत्ते अमरुद की तरह के होते है और जिसमें बेर की तरह के फल गुच्छों में लगते हैं । विशेष—यह पेड़ हिमायल के किनारे काश्मीर से लेकर नेपाल तक होता है, तथा बंगाल (पुरी, सिंहभुमि), युक्तिप्रेदेश (गड़वाल, कमाऊँ, नेपाल की तराई), पंजाब (काँगड़ा), मध्यप्रदेश और दक्षिण में बराबर मित्रता है । इसके फलो पर एक प्रकार की लाल लाल धुल जमी होती है जिसे झाड़कर अलग कर लेते है । यह धुल भी कमीला के नाम से प्रसिद्ध है । यह रेशम रँगने के काम में आती है । इसकी रँगाई इस प्रकार होती है—सेर भर रेशम को आध सेर सोडा के साथ थोड़ी देर तक पानी में उबालते हैं । जब रेशम कुछ मुलायम हो जाता है, तब उसे निकाल लेते है और उसी पानी में २० तोले कमीला (बुकनी) और ढाई तोले तिल का तेल, पाव पर फिटकरी और सोडा मिलाते हैं । फिर सब चीजों के साथ पानी को पाव घंटे तक उबालते हैं । इसके अनँतर उसमें फिर रेशम डाल देते हैं और १५ मिनिट पर उबालकर निकाल लेते हैं । निकालने पर रेशम का रंग नारंगी निकल आता है । कमीला फोड़े फुंसी की मरहमों में भी पड़ता है । यह खाने में गरम और दस्तावर होता है । यह विषैल होता है । इससे ६ रत्ती से अधिक नहीं दिया जाता ।
⋙ कमीवेशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] न्युनता अधिकता । स्वल्पता या बाहुल्य ।
⋙ कमीशन
संज्ञा पुं० [अँ० कमिशन] १. चुने हुए कुछ विद्धानों की वह समिति जो कुछ समय के लिये किसी गुढ़ विषय पर विचार करने के लिये नियत की जाती है । आयोग । २. कोई ऐसी सभा जो किसी कार्य की जाँच खोज के लिये नियत की जाय । आयोग । क्रि० प्र०—बैठना । —बैठना । ३. किसी दुर रहनेवाले व्यक्ति गवाही लेने के लिये एक या अधिक वकीलों का नियत होना । क्रि० प्र०—जाना ।—निकलना । ४. दलाली । दस्तुरी । ५. एजेंट की हैसियत से काम करने का अधिकार ।
⋙ कमीस
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमीज] दे० 'कमीज' ।
⋙ कमुंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० कमुञ्जा] १. चोटी । वेणी । २. केशों का गुच्छा [को०] ।
⋙ कमुआ
संज्ञा पुं० [हिं० काम] नाव खेने की डाँड़ का दस्ता ।
⋙ कमुकंदर पु
संज्ञा पुं० [सं० कार्मुक+ दर] धनुष तोड़नेवाले रामचंद्र । उ०—व्याकुल लखि बंदर, हँसि कमुकंदर सब दसकंधर नाश किये ।—विश्राम (शब्द०) ।
⋙ कमुजा
संज्ञा स्त्री० १. चोटी । वेणी । २. केशों का गुच्छा [को०] ।
⋙ कमद्दिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' । उ०—उत्तंग रंग सुभाल जनु फुलि कमुद्दीनी ताल ।—पृ० रा०, १४ ।१४८ ।
⋙ कमून
संज्ञा पुं० [अ०] जीरा । जीरक । अजाजी ।
⋙ कमूनी (१)
वि० [फा० कमुन=जीरा] जीरा संबंधी । जीरे का । जिसमें जीरा मिला हो । यौ०—जवारिश कमुनी=जीरे का अवलेह वा चटनी ।
⋙ कमूनी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] एक युनानी दवा जिसका प्रधान भाग जीरा है ।
⋙ कमूल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कमलाई' ।
⋙ कमेटी
संज्ञा स्त्री० [अं० कमिटी] सभा । समिति । उ०—चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४७८ ।
⋙ कमेडी
संज्ञा स्त्री० [अं० काँमेडी] दे० 'कामेडी' । उ०—जिस नाटक के अंत में सब बखेड़ा मिटकर आनंद हो जाय उसे अंग्रजी में कमेड़ी कहते हैं ।—श्री वास ग्रं०, पृ० ७ ।
⋙ कमेड़ी †
संज्ञा स्त्री० [अ० कुमरी] पंडुक जाति की एक चिड़िया । उ०—और घणा ही आवसी चिड़ी कमेड़ी काग । हंसा फेर न आवसी सुण समदर मँदभाग ।—राम० धर्म०, पृ० ६९ । विशेष—यह सफेद कबुतर और पंडुक से उत्पन्न होती है । रंग सफेद और गले में केठीया हँसुली होती है । पैर लाल होते है और बोली मनोहर एवं गंभीर होती है जिसमें 'केशव तु' केशव तु' सी ध्वनि निकलती है । यह प्रायः उजाड़ स्थानों में रहती है और इसका पालन अशुभ माना गया है ।
⋙ कमेरा
संज्ञा पुं० [हिं० काम>कम+एरा (प्रत्य०)] १. काम करनेवाला । मजदुर । नौकर । २. मातहत नौकर ।
⋙ कमेला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काम+ एला] (प्रत्य०)] १.वह जगह जहाँ पशु मारे जाते हैं । वधस्थान । कमाईखाना । बुचड़खाना [को०] । मुहा०—कमेला करना=मारना । हनना ।
⋙ कमेला (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कमीला' ।
⋙ कमेहरा
संज्ञा पुं० [हिं० काम या देश०] कच्ची मिट्टी कका साँचा जिसमें मठिया वा कसकुट की चुड़ियाँ ढाली जाती हैं ।
⋙ कमोड
संज्ञा पुं० [अं०] लोहे या चिनी मिट्टी आदि का बना हुआ, कड़ाही के आकार का एक प्रकार का अंगरेजी ढंग का पात्र जिसमें पाख ना फिरते है । गमला ।
⋙ कमोद पु
संज्ञा पुं० [सं० कुमुद] दे० 'कुमुद' । उ०—कोइ कमोद परसहिं कर पाया । कोई मलयागिरि छिरकहि काया ।— पदमावत, पृ० ५७ ।
⋙ कमोदन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' ।
⋙ कमोदिक
संज्ञा सं० [सं० कामोद=एक राग +क] १. कामोद राग गानेवाला पुरुष । २. गवैया । उ०—वेगी चलो बलि कुँवरि सयानी । समय वंसत विपिन रथ हय गय मदन सुभट नृप फौज पलीनी ।...... बोलत हँसत चपल बदीजन मनहुँ प्रशंसित पिक बर बानी । धीर समीर रटत वर अलिगन मनहुँ कमोदिक मुरलि सुठानी ।—सूर (शब्द०) ।
⋙ कमोदिन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' । उ०—चंद बेदरदी तै हुआ, दरदी कमोदिन क्या किया ।—घट०, पृ० ११२ ।
⋙ कमोदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' । जल में बसै कमोदिनो, चंदा बसै अकास ।—कबीर सा०, सं०, पृ० ५३ ।
⋙ कमोरा
संज्ञा पु० [सं० कुम्भ+ हिं० ओरा (प्रत्य०)] [स्त्री० कमेरी, कमोरिया ] १. मिट्टी का एक बरतन जिसका मुँह चौड़ा होता है और जिसमें दुध दुहा और रखा जाता है तथा दही जमाया जाता है । २. घड़ा । कछरा । ३. मटका ।
⋙ कमोरिया †
संज्ञा पुं० [सं० कर्मार] छोटा, पतला और हलका बाँस । विशेष—यह मसहरी लगाने या ढाबे की पाटन आदि के काम आता है ।
⋙ कमोरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमोरा] छोटा कमोरा या मटकी ।
⋙ कमोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमोरा] चौड़े मुँह का छोटा मिट्टी का बरतन जिसमें दुध नहीं रखा जाता है । मटकी । गगरी । उ०—भली करी हरि माखन खायो । इतौ मानि लीनी अपने सिर उबरो सो ढरकायो । राखी रही दुराइ कमोरी सो लै प्रगट दिखायो । —सूर (शब्द०) ।
⋙ कमोला
वि० [सं० कम्र] कमनीय । सुंदर । उ०—कहाँ अधर रँग सुरंग अमोला । कहाँ मदन वह सिहर कमोला ।—हिंदी प्रेमा०, पृ० २७६ ।
⋙ कमोवेश
वि० [फा०] थोड़ा बहुत । न्युनाधिक । उ०—अपनी थका देनेवाली गरीबी की जिंदगी की जिसे वे सुदुरपुर्व के रोगस्तानों में, जंगलों में, कमोबेस बसर करते रहे ।—प्रेम और गोर्की, पृ० ३७७ ।
⋙ कमौरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमोरी] दे० 'कमोरी' । उ०—ऊपर तें कृष्णागरु भरि भरि डारति कनक कनौरी ।—छीत०, पृ० २२ ।
⋙ कम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म, प्रा० कम्म] दे० 'कर्म' । उ०—कबहु एहु नहिं कम्म करिअई—कीर्ति०, पृ० १८ ।
⋙ कम्मखत पु
वि० [फा० कम्बखत] दे० 'कंबखत' । उ०—झघ्झा झँखत फिरत कम्मखत रोय कै जनम गँवावैं ।—पलटु० पृ० ७१ ।
⋙ कम्मर (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कमर] दे० 'कमर' । उ०—कम्मर की न कटारी दई ।—भुषण ग्रं०, पृ० ४६ ।
⋙ कम्मर (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] दे० 'कम्बल' । उ०—चिंता बाढ़ै रोग लगा, छिन छिन तन छीजै । कम्मर गरुआ होंय, ज्यों ज्यों पानी से भीजै ।—पलटु०, पृ० ६६ ।
⋙ कम्मल
संज्ञा पुं० [सं० कम्बल] दे० 'कंबल' । उ०—परंतु इस कम्मल की लाल का टोपी का सत्यानाश हो ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५८ ।
⋙ कम्मा (१)
संज्ञा पुं० [देश.] ताड़पत्र पर लिखा हुआ लेख ।
⋙ कम्मा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कर्म, प्रा० कम्म] काम । यौ.—दोहरकम्मा= वही काम फिर उसी प्रकार करना ।
⋙ कम्मान पु
संज्ञा स्त्री० [फा० कमान] दे० 'कमान' । उ०—गहे बान कम्मान समसेर नेजे । सुनी बात कानैं लिखी आँख दीखे ।— हम्मीर०, पृ० ५ ।
⋙ कम्युनिक
संज्ञा पुं० [फां०] सरकारी विज्ञाप्ति या सुचना । वह सरकारी वक्तव्य जो समाचारपत्रों को छापने के लिये दिया जाता है । जैसे,—सरकार ने एक कम्युनिक निकालकर इस समाचार का खंडन किया ।
⋙ कम्युनिज्म
संज्ञा पुं० [अं०] वह मतवाद या सिद्धांत जिसमें संपत्ति का अधिकार समष्टि या समाज का माना जाता है । व्यक्ति- विशेष या व्यष्टि का स्वत्व नही माना जाता । समष्टिवाद ।
⋙ कम्युनिस्ट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो कम्युनिज्म या समष्टिवाद के सिद्धांत को मानता हो । कम्युनिज्म के सिदधांत को माननेवाला ।
⋙ कम्र
वि० [सं०] १. कामी । कामुक । २. सुंदर । उ०—तब थे लोचन मीन कम्र थे ।—साकेत, पृ० ३४५ ।
⋙ कयथिनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कायथ का स्त्री०] दे० 'कैथिन' । उ०— बानिन चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइ न आँगा ।—जायसी ग्रं०, पृ० ८१ ।
⋙ कयथ्थ पु †
संज्ञा पु० [सं० कपित्थ, प्रा० कइत्थ] दे० 'कपित्थ' । उ०— सुन् कंरि सदंम कयथ्य करील । कमोदनि कुंदह केतकि बील ।—पृ० रा०, पृ० २ ।३५५ ।
⋙ कयपूती
संज्ञा स्त्री० [मला कयु+पेड़+पुती=सफेद] एक सदा- बहार पेड़ जो सुमात्रा, जावा, फिलिपाइन आदि पुर्वीय द्धीप- समुह में होता है । विशेष—जावा और मैनिला आदि स्थानों में इसकी पत्तियों का तेल निकाला जाता है जिसकी महक बहुत कड़ी होती है और जो बहुत साफ, कपुर की तरह उड़नेवाला और स्वाद में चरपरा होता है । यह तेल दर्द के लिये बहुत बहुत उपकारी है । गठिया के दर्द में यह और दवाओं के साथ मला जाता है ।
⋙ कयर पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० १. 'कैर' या 'करील' । उ०—जिण मुइ पन्नग पीयणा, कयर—कँटाला रुँख । आके फोगे छाँहड़ी छुँछा भाँजइ भुख ।—ढोला०, दु० ६६१ ।
⋙ कया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० काया] दे० 'काया' । उ०—रानी उतर दीन्ह कै मया । जो जिउ जाइ रहै किमि कया ।—जायसी ग्रं० (गुप्त) पृ० १५७ ।
⋙ कयाधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिरण्यकशिपु की पत्नी और प्रह्लाद की माता का नाम [को०] ।
⋙ कयाम
संज्ञा पुं० [अ० कयाम] १. ठहराव । टिकान । विश्राम । क्रि० प्र०—करना ।—फरमाना ।—होना । २. टिकने की जगह । ठहरने की जगह । विश्राम स्थान । ठिकाना । ३. ठौर ठिकाना । निश्चय । स्थिरता । जैसे— उनकी बात का कुछ कयाम नहीं ।
⋙ कयामत
संज्ञा पुं० [अ० कयामत] १. मुसलमानों, ईसाइयों और यहुदियों के अनुसार सृष्टि का वह अंतिम दिन जब सब मुर्दि उठकर खड़े होंगे और ईश्वर के सामने उनके कर्मों का लेखा रखा जायगा । अंतिम । क्रि० प्र०—आना । २. प्रलय । ३. आफत । विपत्ति । हलचल । खलबली । उपद्रव । क्रि० प्र०—आना ।—उठना । उठाना ।—टूटना ।—ढाना ।—बरपा करना ।—मचना ।—मचाना ।—लाना ।—होना । मुहा०—कयामत का=(१) गजब का । हद दरजे का । (२) अत्यंत अधिक प्रभाव डालनेवाला । कयामत का सामना होना=भारी संकट आ जाना । उ०—और मै तो थर थर काँपती थी कि जो कहीं उनको खबर हो गई तो कयामत ही का समाना होगा ।—सैर कुं०, पृ० १९ । कयामत बरपा करना=कयामच ढाना । प्रलय मचाना । आफत लाना । उ०—सर्व कामत गजब की चाल से तुम । क्यों कयामत चले बपा करके ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २२० ।
⋙ कयारी †
संज्ञा पुं० [हिं० कोयर] सूखी घास । सूखा चारा ।
⋙ कयास
संज्ञा पुं० [अ० कयास] [वि० कयासी] । अनुमान । अटकल । सोच विचार । ध्यान । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—कयास लगाना, लड़ाना वा दौड़ाना=अनुमान बाँधना । अटकलपच्चू विचार करना । खयाल दौड़ाना । कयास में आना=समझ में आना । मन में बैठना ।
⋙ कयासी
वि० [अ० कयास+ फा० ई (प्रत्य०)] काल्पनिक । अनुमित । अनुमान के आधार पर माना हुआ या माननेवाला ।
⋙ कयौ †
क्रि० स० [हिं० कहना का भूत कृ० कह्यो] दे० 'कहा' । उ०—मुनसी कयौ नबाब सुँ, जीव रहै सुजवाब ।—रा० रू०, पृ० ३३८ ।